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मनोरमा (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद (अध्याय 11-अध्याय 18)
मनोरमा अध्याय 11
संध्या हो गई है। ऐसी उमस है कि सांस लेना मुश्किल है और जेल के कोठरियों में यह उमस और भी असह्य हो गई है। एक भी खिड़की नहीं, एक भी जंगला नहीं। उस पर मच्छरों का निरंतर गान कानों के परदे फाड़े डालता है।
यहीं एक कोठी में चक्रधर को भी स्थान दिया गया है। स्वाधीनता की देवी अपने सच्चे सेवकों को यही पद प्रदान करती है।
वह सोच रहे हैं कि भीषण उत्पात क्यों हुआ? हमने कभी भूलकर भी किसी से यह प्रेरणा नहीं की। फिर लोगों के मन में यह बात कैसे समायी? उन्हें यही उत्तर मिल रहा है कि यह हमारी नीयत का नतीजा है। हमारी शांति शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुआ था। हम भूल गए थे कि संगठित शक्ति आग्रहमय होती है। अत्याचार से उत्तेजित हो जाती है। अगर हमारी नीयत साफ़ होती, तो जनता के मन में कभी राजाओं पर चढ़ दौड़ने का आवेश न होता; लेकिन क्या जनता राजाओं के कैंप की तरफ ना जाती है, तो पुलिस उन्हें बिना रोक-टोक अपने घर जाने देती? कभी नहीं! सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है। जो छेड़-छेड़ कर लड़ना चाहे, उससे कोई क्यों कर बचे? फिर अगर प्रजा अत्याचार का विरोध न करें, उसके संगठन से फायदा ही क्या? इसलिए तो उसे सारे उपदेश दिए जाते हैं। कठिन समस्या है। या तो प्रजा को उनके हाल पर छोड़ दूं। उन पर कितने भी जुल्म हो, उनके निकट न जाऊं या ऐसे उपद्रव के लिए तैयार रहूं। राज्य पशु बल का प्रत्यक्ष रूप है। वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है; वह विद्वान नहीं है जिसका बल तर्क है। वह सिपाही है, जो डंडे के ज़ोर से अपना स्वार्थ सिद्ध कर आता है। इसके सिवा उनके पास कोई दूसरा साधन ही नहीं।
यह सोचते-सोचते उन्हें अपना ख़याल आया। मैं तो कोई आंदोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगों की प्राण रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वहीं मेरे साथ यह सब लोग कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आँख बंद कर रखें। उन्हें अपने आगे पीछे दायें-बायें देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक्त करता रहूंगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिंता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौके हैं। जेल में तो और भी ज्यादा। लालाजी को दुख होगा, अम्मा जी रोयेंगी; लेकिन मेरी मजबूरी है। जब बाहर भी जवान और हाथ पांव बांधे ही जायेंगे, तो जैसे जेल वैसे बाहर। वह भी जेल ही है। हाँ, ज़रा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता।
वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुये। उनकी देह पर पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपा हुआ था। नीचे एक पतलून था, जो कमरबंद न होने के कारण खिसककर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोला सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज्यादा बेवफ़ा और कोई वस्तु नहीं होती।
तहसीलदार साहब चक्रधर के पास जाकर बोले – “क्या करते हो बेटा? यहाँ तो बड़ा अंधेरा है। चलो बाहर इक्का खड़ा है, बैठ लो! इधर ही से साहब के बंगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें, लिख देना। बात ही कौन सी है? हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हों। बारे आज दोपहर को जाकर सीधा हुआ। पहले बहुत यों-त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा। या वहाँ न चलना हो, तो यहीं एक हलफ़नामा लिख दो। देर करने से क्या फ़ायदा? तुम्हारी अम्मा रो-रो कर जान दे रही है।
चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा – “अभी तो मैंने कुछ निश्चित नहीं किया। सोच कर जवाब दूंगा। आप नाहक इतने हैरान हुये।“
वज्रधर – “कैसी बातें करते हो बेटा? यहाँ नाक कटी जा रही है, घर से निकलना मुश्किल हो गया है और तुम कहते हो सोचकर जवाब दूंगा। इसमें सोचने की बात ही क्या है? चलो, हलफ़नामा लिख दो। घर में कल से आग नहीं जली।“
चक्रधर – “मेरी आत्मा किसी तरह अपने पांव में बेड़ियां डालने पर राजी नहीं होती।“
चक्रधर जब प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने को राजी न हुए, तो मुंशीजी निराश होकर बोले – “अच्छा बेटा लो अब कुछ ना कहेंगे। मैं तो जानता था कि तुम जन्म से ज़िद्दी हो। मेरी एक न सुनोगे। इसलिए आता ही ना था, लेकिन तुम्हारे माता ने मुझे कुरेद-कुरेद कर भेजा। कह दूंगा, नहीं आता। जितना रोना हो, रो लो।“
कठोर से कठोर हृदय में भी मातृस्नेह की कोमल स्मृतियाँ संचित होती है। चक्रधर कातर हो कर बोले – “आप माताजी को समझाते रहियेगा। कह दीजियेगा, मुझे ज़रा भी तकलीफ़ नहीं है।“
वज्रधर ने इतने दिनों तक यों ही तहसीलदारी न की थी, ताड़ गये कि अबकी निशाना ठीक पड़ा है। बेपरवाही से बोले – “मुझे क्या गरज पड़ी है कि किसी के लिए झूठ बोलूं। जो आँखों से देख रहा हूँ, वही कहूंगा। रोयेगी, रोये; रोना तो उसकी तकदीर ही में लिखा है। जब से तुम आए हो, एक घूंट पानी तक मुँह में नहीं डाला। इसी तरह दो-चार दिन और रही, तो प्राण निकल जायेंगे।“
चक्रधर करुणा से विहल हो गये। बिना कुछ कहे मुंशीजी के साथ दफ्तर की ओर चले। मुंशीजी के चेहरे की झुर्रियाँ एक क्षण के लिए मिट गई। चक्रधर को गले लगाकर बोले – “जीते रहो बेटा तुमने मेरी बात मान ली। इससे बढ़कर और क्या ख़ुशी की बात होगी।”
दोनों आदमी दफ्तर में आये, तो जेलर ने कहा – “क्या आप इकरारनामा लिख रहे हैं? निकल गई सारी शोखी। इसी पर इतनी दूने की लेते थे।”
चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मन की अस्थिरता पर लज्जित हो गये। जाति सेवकों से सभी दृढ़ता की आशा रखते हैं, सभी उसे आदर्श पर बलिदान होते देखना चाहते हैं। जातीयता के क्षेत्र में आते उसके गुणों की परीक्षा अत्यंत कठोर नियमों से होने लगती है और दोषों की सूक्ष्म नियमों से। परले सिरे का कुचरित्र मनुष्य भी साधु वेश रखने वालों से ऊँचे आदर्शों पर चलने की आशा रखता है; और उन्हें आदर्शों से गिरते देखकर उनका तिरस्कार करने में आशा रखता है।
जेलर द्वारा कही गई बातों ने चक्रधर आँखें खोल दी। तुरंत उत्तर दिया – ” मैं ज़रा वह प्रतिज्ञा पत्र देखना चाहता हूँ।”
चक्रधर ने कागज को सरसरी तौर से देखकर कहा – “इसमें तो मेरे लिए कोई जगह ही नहीं रही। घर पर कैदी ही बना रहूंगा। जब कैद ही होना है, तो कैदखाना क्या बुरा है? अब या तो अदालत से बरी होकर आऊंगा या सजा के दिन काटकर।“
यह कहकर चक्रधर अपनी कोठरी में चले आये।
एक सप्ताह के बाद मिस्टर जिम के इजलास में मुकदमा चलने लगा।
अदालत में रोज खासी भीड़ हो जाती। वे सब मजदूर, जिन्होंने हड़ताल की थी एक बार चक्रधर के दर्शनों को आ जाते। शहर में हजारों आदमी आ पहुँचते थे। कभी-कभी राजा विशाल सिंह भी आकर दर्शकों की गैलरी में बैठ जाते हैं। लेकिन और कोई आये ना आये, किंतु मनोरमा रोज ठीक दस बजे कचहरी में आ जाती और अदालत के उठने तक अपनी जगह पर मूर्ति की भांति बैठी रहती। उसके मुँह पर दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिंता का फीका रंग छाया हुआ था।
संध्या का समय था। आज पूरे पंद्रह दिनों की कार्रवाई के बाद मिस्टर जिम में दो साल की कैद का फैसला सुनाया था। यह कम से कम सजा थी, जो उस धारा के अनुसार दी जा सकती थी।
चद्दर हँस-हँसकर मित्रों से विदा हो रहे थे। उनकी आँखों में जल भरा हुआ था। मजदूरों का दल इजलास के द्वार पर खड़ा हो जय-जय का शोर मचा रहा था। कुछ स्त्रियाँ खड़ी रो रही थीं।
सहसा मनोरमा आकर चक्रधर के सम्मुख खड़ी हो गई। उसके हाथ में फूलों का एक हार था। वह उसने उनके गले में डाल दिया और बोली – “अदालत ने तो आप को सजा दे दी, पर इतने आदमियों में एक भी ऐसा ना होगा, जिसके दिल में आप से सौ गुना प्रेम ना हो गया हो। आपने हमें सच्चे साहस, सच्चे आत्मबल और सच्चे कर्तव्य का रास्ता दिखा दिया। जाइए, जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे पूरा कीजिये। हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं।”
चक्रधर ने केवल दबी आँखों से मनोरमा को देखा, कुछ बोल न सके। उसे शर्म आ रही थी कि लोग दिल में क्या ख़याल कर रहे होंगे।
सामने राजा विशाल सिंह, दीवान साहब, ठाकुर गुरु हरसेवक और मुंशी वज्रधर खड़े थे। बरामदे में हजारों आदमियों की भीड़ थी। धन्यवाद के शब्द उनकी ज़बान पर आकर रुक गये। वह दिखाना चाहते थे कि मनोरमा की वीरभक्ति उसकी बालक्रीड़ा मात्र है।
एक क्षण में सिपाहियों ने चक्रधर को बंद गाड़ी में बिठा दिया और जेल की ओर ले चले।
मनोरमा अध्याय 12
चक्रधर की गिरफ्तारी के दूसरे दिन मनोरमा राजा विशाल सिंह को फटकार सुनाने गई थी। उसकी दोनों आँखें बीरबहूटी हो रही थी, भौंहें चढ़ी हुई। उस समय राजा साहब कोपभवन में मारे क्रोध से अपनी मूंछें ऐंठ रहे थे। सारे राजमहल में सन्नाटा था।
मनोरमा उनके सामने चली गई और उन्हें सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली। उसका कंठ आवेश से कांप रहा था – “महाराज! मैं आपसे यह पूछने आई हूँ कि क्या प्रभुता और पशुता एक ही वस्तु है या उनमें कुछ अंतर है। मुझे आश्चर्य होता है कि जिन्हें मैं देवता समझती थी, उन पर आपके हाथ क्यों कर उठे?”
मनोरमा के मान प्रदीप्त सौंदर्य ने राजा साहब को परास्त कर दिया। सौंदर्य के सामने प्रभुत्व भीगी बिल्ली बन गया। विशाल सिंह ने अपने कृत्य पर पश्चाताप करते हुए कहा – “मनोरमा! बाबू चक्रधर वीर आत्मा है और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन पर्यंत दुख रहेगा।”
मनोरमा के सौंदर्य में राजा साहब पर जो जादू का सा असर डाला था, वही असर उनकी विनय और शालीनता ने मनोरमा पर किया। जब वह कमरे से चली गई, तो विशाल सिंह द्वार पर खड़े होकर उसकी ओर ऐसे तृषीत नेत्रों से देखते रहे, मानो उसे पी जायेंगे। उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हुई।
दीवान साहब से पहले वह खिंचे रहते थे। उनका विशेष आदर सत्कार करने लगे। दो तीन बार उनके मकान पर भी गए और ठाकुर साहब की भी कई बार दावत की। आपस में घनिष्टता बढ़ने लगी। हर्ष की बात यह थी कि मनोरमा के विवाह की बातचीत और कहीं नहीं हो रही थी। मैदान खाली था। इन अवसरों पर मनोरमा उनके साथ कुछ इस तरह दिल खोलकर मिली कि राजा साहब की आशायें और भी चमक उठीं। अगर शंका थी, तो लौंगी की ओर से थी। वो राजा साहब का आना जाना पसंद न करती थी। वह उनके इरादों को भांप गई थी और उन्हें दूर ही रखना चाहती थी। यही एक कंटक था और उसे हटाए बिना वह अपने लक्ष्य पर न पहुँच सकते थे। बिचारे इसी उधेड़बुन में पड़े रहते थे। आखिर उन्होंने मुंशी को अपना भेदिया बनाना निश्चय किया।
दूसरे दिन प्रातः काल मुंशीजी दीवान साहब के मकान पहुँचे। दीवान साहब मनोरमा के साथ गंगा स्नान को गए हुए थे। लौंगी अकेली बैठी हुई थी। मुंशीजी फूले न समाये। ऐसा ही मौका चाहते थे। जाते ही जाते विवाह की बात छेड़ दी। लौंगी को यह संबंध किसी भी तरह स्वीकार नहीं था। अभी बातचीत हुई रही थी कि दीवान साहब स्नान करके लौट आये।
लौंगी ने इशारे से उन्हें मकान में ले जाकर सलाह की। थोड़ी देर बाद दीवान साहब ने आकर मुंशी जी से कहा – “आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नहीं।”
मुंशीजी ने सोचा आज राजा साहब से कहे देता हूँ कि दीवान साहब ने साफ इंकार कर दिया, तो मेरी किरकिरी होती है। इसलिए आपने जाकर दून हांकनी शुरू की – “हुजूर! बुढ़िया बला की चुड़ैल है; हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं।”
राजा साहब ने अधीर होकर पूछा – “आखिर आप तय क्या कर आये?”
मुंशी – “हुजूर के एकबाल से फतह हुई, मगर दीवान साहब खुद आपसे शादी की बात से झेंपते हैं। आप की तरफ से बातचीत शुरू हो, तो शायद न नहीं करना हो।”
राजा – “तो मैं बातचीत शुरू कर देता हूँ। आज ही ठाकुर साहब की दावत करूंगा और मनोरमा को भी बुलाऊंगा। आप भी जरा तकलीफ कीजिएगा।”
दावत में राजा साहब ने मौका पाकर मनोरमा पर अपनी अभिलाषा प्रकट की। पहले तो वह सहमी सी खड़ी रही, फ़िर बोली – “पिताजी से तो अभी आपकी बातें नहीं हुई।”
राजा – “अभी तो नहीं मनोरमा! अवसर पाते ही करूंगा। पर कहीं उन्होंने इंकार कर दिया तो?”
मनोरमा – “मेरे भाग्य का निर्णय वही कर सकते हैं। मैं उनका अधिकार नहीं छीनूंगी।”
दोनों आदमी बरामदे में पहुँचे, तो मुंशीजी और दीवान साहब खड़े थे। मुंशीजी ने राजा साहब से कहा – ” हुजूर को मुबारकबाद देता हूँ।”
दीवान – “मुंशीजी!”
मुंशी – “हुजूर! आज जलसा होना चाहिए (मनोरमा से) महारानी, आपका सोहाग सदा सलामत रहे।”
दीवान – “ज़रा मुझे सोच…”
मुंशी – “जनाब! शुभ काम में सोच-विचार कैसा? भगवान जोड़ी सलामत रखे।”
सहसा बाग में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर-उधर से आ-आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा। दीवान साहब सिर झुकाए खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते। दिल में मुंशीजी को हजारों गालियाँ दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली। आखिर यह सोचकर दिल को समझाया कि लौंगी से सब हाल कह दूंगा। भाग्य में ही बदा था, तो मैं क्या करता? मनोरमा भी तो खुश है।”
ज्यों ही ठाकुर साहब घर पहुँचे, लौंगी ने पूछा – “वहाँ क्या बातचीत हुई?”
दीवान – “शादी ठीक हो गई और क्या?’
सुन कर लौंगी ने अपना कपाल पीट लिया। उसे दीवान साहब पर बड़ा क्रोध आया। उसने खूब खरी-खोटी सुनाई। मुंशीजी की भी सात पुश्तों की खबर ले डाली। लेकिन शादी तो ठीक हो ही गई थी। अब बात फेरी नहीं जा सकती थी। ऐसे लौंगी मन मारकर उसी दिन से विवाह की तैयारियाँ करने लगी।
यों तीन महीने तैयारियों में गुज़र गये। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया। सहसा एक दिन शाम को घर में लेकर जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कंधे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।
मनोरमा की विवाह की तैयारी तो हो ही रही थी और यों भी देखने में वह बहुत खुश नजर आती थी, पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिंता हृदय को मथा करती थी। अंधों की भांति इधर-उधर टटोलती फिरती थी, पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसी में संतुष्ट रहना चाहती थी। लेकिन कभी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अंधेरा, इतना निराश मालूम होता कि घंटों यह मूर्छित सी बैठी रहती, मानो कहीं कुछ भी नहीं है। अनंत आकाश में केवल वही अकेली है।
यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल सा हो गया। आकर लौंगी से बोली – “लौंगी अम्मा! मैं क्या करूं? बाबूजी को देखे बिना अब नहीं रहा जाता। क्यों अम्मा घाव अच्छा हो जायेगा ना? “
लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा – “अच्छा क्यों न होगा बेटी! भगवान चाहेंगे, तो जल्द अच्छा हो जायेगा।”
लौंगी मनोरमा के मनोभाव को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुख है। मन ही मन तिलमिलाकर रह गई। हाय! चारे पर गिरने वाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़प कर पिंजरे में प्राण देने के सिवा यह और क्या करेगी? मोती में जो चमक है, वह अनमोल है। लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बांध लेने से क्षुधा तो ना मिटेगी।
मनोरमा अध्याय 13
चक्रधर को जेल में पहुँचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह नई दुनिया में आ गए। उन्हें ईश्वर के दिए हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते हुए थे। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघ कर छोड़ देते हैं। वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी पैरों से ठुकरा देता और परिश्रम इतना करना पड़ता था, जितना बैल भी ना कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाश्विक व्यवसाय है। आदि से अंत सार व्यापार घृणित, जघन्य पैशाचिक और निंद्य है। अनीति की भी अकल यहां दंग है। दुष्टता भी यहाँ दांतो तले उंगली दबाती है।
मगर कुछ ऐसे भाग्यवान है, जिनके लिए जेल कल्पवृक्ष से कम नहीं। बैल अनाज पैदा करता है, तो अनाज का भूसा खाता है। कैदी बैल से भी गया गुज़रा है। वह नाना प्रकार के साग भाजी और फल फूल पैदा करता है; पर सब्जी फल और फूलों से भरी हुई डालिया हुक्काम के बंगलों पर पहुँच जाती हैं। कैदी देखता है और किस्मत ठोक कर रह जाता है।
चक्रधर को चक्की पीसने का काम दिया गया। प्रात:काल गेहूं तौल कर दे दिया जाता और संध्या तक उसे पीसना ज़रूरी था। कोई उज्र या बहाना ना सुना जाता था। बीच में केवल एक बार खाने की छुट्टी मिलती थी। इसके बाद फिर चक्की में जुत जाना पड़ता था। वह बराबर सावधान रहते थे कि किसी कर्मचारी को कुछ कहने का मौका ना मिले, लेकिन गालियों में बातें करना जिनकी आदत हो गई हो, उन्हें कोई क्यों कर रोकता।
किंतु विपत्ति का अंत यहीं तक न था। कैदी लोग उन पर ऐसी अश्लील ऐसी अपमानजनक आवाजें कसते थे कि क्रोध और घृणा से उनका रक्त खौल उठता, पर लहू का घूंट पीकर रह जाते थे। इनके कमरे में पांच कैदी रहते थे। उनमें धन्ना सिंह नाम का एक ठाकुर भी था, बहुत ही बलिष्ठ और गजब का शैतान। वह उनका नेता था। वे सब इतना शोर मचाते, इतनी गंदी, घृणितोपादक बातें करते कि चक्रधर को कानों में उंगलियाँ डालनी पड़ती थी। हुक्म तो यह था कि कोई कैदी तंबाखू भी न पीने पाये। पर यहाँ गांजा, भंग, शराब, अफ़ीम यहाँ तक कि कोकेन भी न जाने किस तिकड़म से पहुँच जाते थे। नशे में वे इतने उद्दंड हो जाते, मानो नर तन धारी राक्षस हो।
धीरे-धीरे चक्रधर को इन आदमियों से सहानुभूति होने लगी। सोचा इन परिस्थिति में पड़कर ऐसा कौन प्राणी है, जिसका पतन न हो जायेगा। उन्हें सभी श्रेणी के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था, पर ऐसे निर्लज्ज, गालियाँ खाकर हँसने वाले, दुर्व्यसनों में डूबे हुए मुँहफट बेहया आदमी उन्होंने अब तक न देखे थे। उन्हें न गालियों की लाज थी, न मार का भय। कभी-कभी उन्हें ऐसी ऐसी अस्वाभाविक ताड़नायें मिलती थी कि चक्रधर के रोयें खड़े हो जाते थे, मगर क्या मज़ाल किसी की आँखों में आँसू आये। यह व्यहवार देखकर चक्रधर अपने कष्टों को भूल जाते थे। कोई कैदी उन्हें गाली देता, तो चुप हो जाते और इस ताक में रहते कि कब इसके साथ सज्जनता दिखाने का अवसर मिले।
चक्रधर का जीवन का कभी इतना आदर्श ना था। कैदियों को मौका मिलने पर धर्म कथायें सुनाते। इन कथाओं को कैदी लोग इतने चाव से सुनते, मानो एक-एक शब्द उनके हृदय पर अंकित हो जाता था! किंतु इसका असर बहुत जल्दी मिट जाता था, इतनी जल्दी कि आश्चर्य होता था। उधर कथा हो रही है और इधर लात-मुक्के चल रहे हैं। कभी-कभी वे इन कथाओं पर अविश्वास पूर्ण टीकायें करते और बात हँसी में उड़ा देते हैं। पर अभिव्यक्ति पूर्ण आलोचनायें सुनकर भी चक्रधर हताश ना होते। शनै: शनै: उनकी भक्ति चेतना स्वयं अदृश्य होती जाती थी।
इस भांति कई महीने गुजर गये। एक दिन संध्या समय चक्रधर दिन भर के कठिन श्रम के बाद बैठे संध्या कर रहे थे कि कई कैदी आपस में बातें करते हुए निकले- ‘आज दरोगा की खबर लेनी चाहिए। जब देखो गालियाँ दिया करता है। ऐसा मारो कि जन्म पर को दाग हो जाये। यही न होगा कि साल दो साल की मियाद और बढ़ जायेगी। बच्चा की आदत तो छूट जायेगी।‘
चक्रधर इस तरह की बातें सुनते रहते थे, इसलिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया, मगर भोजन करने के समय ज्यों ही दरोगा साहब आकर खड़े हुए और एक को देर से आने के लिए मारने दौड़े कि कई कैदी चारों तरफ से दौड़ पड़े और ‘मारो मारो’ का शोर मच गया। दरोगाजी की सिट्टी पिट्टी भूल गई। सहसा धन्ना सिंह ने आगे बढ़कर दरोगाजी की गर्दन पकड़ी और इतनी ज़ोर से दबाई कि उसकी आँखें निकल आई। चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ जाता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्ना सिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले – “क्या करते हो?”
धन्ना सिंह – “हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूंगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियाँ न देगा, मारने को न दौड़ेगा?”
दरोगा – “कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुँह से गाली का एक हरफ भी निकले।”
धन्ना सिंह – “कान पकड़ो।”
दरोगा – “कान पकड़ता हूँ।”
धन्ना सिंह – “जाओ बच्चा, भले का मुँह देख कर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती, यहाँ कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है।”
चक्रधर – “दरोगा जी! कहीं ऐसा न कीजियेगा कि जाकर वहाँ से सिपाहियों को चढ़ा लाइये और इन गरीबों को भुनवा डालिये।”
दरोगा – “लाहौल विला कूवत इतना कामीना नहीं हूँ।”
दरोगाजी तो यहाँ से जान बचाकर भागे, लेकिन दफ्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम जिला को टेलीफोन किया और खुद बंदूक लेकर समर के लिए तैयार हुये। दम के दम में सिपाहियों का दल संगीने चढ़ाये आ पहुँचा और लपककर भीतर घुस पड़ा।
चक्रधर पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी। उन्होंने आगे बढ़कर कहा – “दरोगा जी! आखिर आप चाहते क्या हैं? इन गरीबों को क्यों घेर रखा है।”
दरोगा ने सिपाहियों की आड़ से कहा – “यही उन सब बदमाशों का सरगना है। इसे गिरफ्तार कर लो। बाकी जितने हैं, उन्हें खूब मारो। मारते-मारते हलवा निकाल लो सूअर के बच्चों का।”
चक्रधर – “आपको कैदियों को मारने का कोई मजाज नहीं है।”
सिपाही कैदियों पर टूट पड़े और उन्हें बंदूकों के कुंदों से मारना शुरू किया। कैदियों में खलबली पड़ गई। कुछ इधर-उधर से फावड़े, कुदालें और पत्थर ला-लाकर लड़ने पर तैयार हो गये। मौका नाजुक था। चक्रधर ने बड़ी दीनता से कहा – “मैं आपको फिर समझाता हूँ।”
दरोगा – “चुप रह सूअर का बच्चा!”
इतना सुनना था कि चक्रधर बाज़ की तरह लपककर दरोगाजी पर झपटे। कैदियों पर कुंदों की मार पड़नी शुरू हो गई थी। चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सबों ने पत्थरों की वर्षा शुरू की। भीषण संग्राम होने लगा।
एकाएक चक्रधर ठिठक गये। ध्यान आ गया, स्थिति और भयंकर हो जायेगी, अभी सिपाही बंदूकें चलानी शुरू कर देंगे, लाशों के ढेर लग जायेंगे। अगर हिंसक भावों को दबाने का कोई मौका हो सकता है, तो वह यही मौका है। ललकार कर बोले – “पत्थर न फेंकों, पत्थर न फेंकों। सिपाहियों के हाथों से बंदूक छीन लो।”
सिपाहियों ने संगीने चढ़ानी चाही, लेकिन उन्हें इसका मौका न मिल सका। एक-एक सिपाही पर दस-दस कैदी टूट पड़े और दम के दम में उनकी बंदुकें छीन लीं। यह सब कुछ पांच मिनट में हो गया। ऐसा दांव पड़ा कि वही लोग जो ज़रा देर पहले हेकड़ी जताते थे, खड़े दया प्रार्थना कर रहे थे, घिघियाते थे, मत्थे टेकते थे और रोते थे, दरोगाजी की सूरत तस्वीर खींचने योग्य थी। चेहरा फक्क, हवाइयाँ उड़ी हुई, थर-थर कांप रहे थे कि देखें, जान बचती है या नहीं।
कैदियों ने देखा इस वक़्त हमारा राज्य है, तो पुराने बदले चुकाने पर तैयार हो गये। धन्ना सिंह लपका हुआ दरोगा के पास आया और जोर से धक्का देकर बोला – “क्यों साहब? उखाड़ लूं दाढ़ी का एक-एक बाल।”
चक्रधर – “धन्ना सिंह, हट जाओ।”
धन्ना सिंह – “मरना तो है ही, अब इन्हें क्यों छोड़े?”
चक्रधर – “मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पायेगा। हाँ मर जाऊं, तो जो चाहे करना।”
धन्ना सिंह – “अगर ऐसे बड़े धर्मात्मा हो, तो इनको क्यों नहीं समझाया? देखते नहीं हो, कितने सांसत होती है।”
इतने में सदर फाटक पर शोर मचा। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के सिपाही और अफसरों के साथ आ पहुँचे थे। दरोगाजी ने अंदर आते वक्त किवाड़ बंद कर लिए थे, जिससे कोई कैदी भागने न पायें।
यह शोर सुनते ही चक्रधर समझ गए कि पुलिस आ गई है। बोले – “अरे भाई! क्यों अपनी जान के दुश्मन बने हुए हो? बंदूकें रख दो और फौरन जाकर किवाड़ खोल दो। पुलिस आ गई।”
धन्ना सिंह – “कोई चिंता नहीं। हम भी इन लोगों का वारा न्यारा किए डालते हैं। मरते ही हैं, तो दो-चार कुमार को मार के मरें।”
कैदियों ने फौरन संगीनें चढ़ाई और सबसे पहले धन्ना सिंह दरोगा जी पर झपटा। करीब था कि संगीत की नोंक उसके सीने में चुभे कि चक्रधर यह कहते हुए : “धन्ना सिंह ईश्वर के लिए …” दरोगा जी के सामने आकर खड़े हो गये। धन्ना सिंह वार कर चुका था। चक्रधर के कंधे पर संगीन का भरपूर हाथ पड़ा। आधी संगीन धंस गई। दाहिने हाथ के कंधे को पकड़ कर बैठ गये। कैदियों ने उन्हें गिरते देखा, तो होश उड़ गये। आ-आकर उनके चारों तरफ खड़े हो गये। घोर अनर्थ की आशंका ने उन्हें स्तंभित कर दिया। भगत को चोट आ गई – ये शब्द उनकी पशुवृत्तियों को दबा बैठे। धन्ना सिंह ने बंदूक फेंक दी और फूट-फूट कर रोने लगा। ग्लानि के आवेश में बार-बार चाहता है कि वही संगीन अपनी छाती में चुभा ले; लेकिन कैदियों ने इतने ज़ोर से उसे जकड़ रखा था कि उसका कुछ बस नहीं चलता।
दरोगा ने मौका पाया, तो सदर फाटक की तरफ दौड़े कि उसे खोल दूं। धन्ना सिंह ने देखा, तो एक ही झटके में वह कैदियों के हाथों से मुक्त हो गया और बंदूक उठा कर उनके बीच दौड़ा। करीब था कि दरोगाजी पर फिर वार पड़े कि चक्रधर फिर संभलकर उठे और एक हाथ से अपना कंधा पकड़े लड़खड़ाते हुए चले। धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पांव रुक गये। भगत अभी जीते हैं, इसकी उसे इतनी खुशी हुई कि वह बंदूक लेकर पीछे की ओर चला और उनके चरणों पर सिर रख कर रोने लगा।
चक्रधर ने कहा – “सिपाहियों को छोड़ दो।”
धन्ना जी बहुत अच्छा भैया तुम्हारा जी कैसा है?
सहसा मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के साथ जेल में दाखिल हुये। उन्हें देखते ही सारे कैदी भय से भागे। केवल दो आदमी चक्रधर के पास खड़े रहे थे। धन्ना सिंह उनमें एक था। सिपाहियों ने भी छूटते ही अपनी अपनी बंदूके संभाली और कतार में खड़े हो गये।”
जिम – “वेल दरोगा क्या हाल है?”
दरोगा – “हुजूर के अकबाल से फ़तह हो गई। कैदी भाग गये।”
जिम – “यह कौन आदमी पड़ा है?”
दरोगा – “इसी ने हम लोगों की मदद की है हुजूर। चक्रधर नाम है।”
जिम – “इसी ने कैदियों को भड़काया होगा।”
दरोगा – “नहीं हुजूर! इसने तो कैदियों को समझा-बुझाकर शांत किया।”
जिम – “तुम कुछ नहीं समझ ता। यह लोग पहले कैदियों को भड़काता है, फिर उनकी तरफ से हाकिम लोगों से लड़ता है।”
दरोगा – “देखने में तो हुज़ूर बहुत ही सीधा मालूम होता है, दिल का हाल खुदा जाने।”
जिम – “खुदा के जाने से कुछ नहीं होगा, तुमको जानना चाहिए। यह आदमी कैदियों से मज़हब की बातचीत तो नहीं करता?”
दरोगा – “मज़हब की बातें तो बहुत करता है हुजूर।”
जिम – “ओह! तब तो यह बहुत ही खतरनाक आदमी है। जब कोई पढ़ा-लिखा आदमी मज़हब की बातचीत करे, तो फौरन समझ लो कि वह कोई साजिश करना चाहता है।”
रिलीजन के साथ पॉलिटिक्स बहुत खतरनाक हो जाती है। यह आदमी कैदियों से बड़ी हमदर्दी करता होगा? सरकारी हुक्म उनको खूब मानता होगा? बड़े से बड़ा काम खुशी से करता होगा?”
दरोगा – ” जी हाँ!”
जिम – “ऐसा आदमी निहायत खौफनाक होता है। उस पर कभी ऐतबार नहीं करना चाहिए। हम इस पर मुक़दमा चलायेगा। इसको बहुत कड़ी सजा देगा। सिपाहियों को दफ्तर में बुलाओ। हम सबका बयान लिखेगा।”
दरोगा – “हुजूर! पहले उसे डॉक्टर को दिखा लूं। ऐसा न हो कि मर जाये। गुलाम को दाग लगे।”
जिम – “वह मरेगा नहीं। ऐसा खौफनाक आदमी कभी नहीं मरता और मर भी जायेगा, तो हमारा कोई नुकसान नहीं।”
यह कहकर साहब दफ्तर की ओर चले। धन्नासिंह अब तक इस इंतजार में खड़ा था कि डॉक्टर साहब आते होंगे। जब देखा कि जिम साहब उधर मुखातिब भी ना हुए, तो उसने चक्रधर को गोद में उठाया और अस्पताल की ओर चला।
चक्रधर दो महीने अस्पताल में पड़े रहे। दवादर्पन तो जैसे हुई वही जानते होंगे; लेकिन जनता की दुआओं में ज़रूर असर था। हजारों आदमी नित्य उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे और मनोरमा को दान, व्रत और तप सिवा और कोई काम न था। जिन बातों को वह पहले ढकोसला समझती थी, उन्हीं बातों में अब उसकी आत्मा को शांति मिलती थी। कमजोरी ही में हम लकड़ी का सहारा लेते हैं।
चक्रधर तो अस्पताल में पड़े थे। इधर उन पर नया अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही थी। ज्यों ही वह चलने-फिरने लगे, उन पर मुकदमा चलने लगा। जेल के भीतर ही इजलास होने लगा। ठाकुर गुरु हरसेवक जोशी आजकल डिप्टी मदिस्ट्रेट थे। उन्हीं को यह मुकदमा सुपुर्द किया गया।
ठाकुर साहब सरकारी काम में ज़रा भी रियायत न करते थे, लेकिन यह मुकदमा पाकर वह संकट में पड़ गए, अगर चक्रधर को सजा देते हैं, तो जनता में मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। मनोरमा तो शायद उनका मुँह भी न देखे। छोड़ते हैं, तो अपने समाज में तिरस्कार होता है, क्योंकि वहाँ सभी चक्रधर से खार खाये बैठे थे।
मुकदमे को पेश हुए आज तीसरा दिन था। गुरु हरदेव सेवक बरामदे में बैठे सावन की रिमझिम वर्षा का आनंद उठा रहा था। सहसा मनोरमा मोटर से उतर कर उनके समीप कुर्सी पर बैठ गई।
गुरूसेवक ने पूछा – “कहाँ से आ रही हो?”
मनोरमा – “घर से ही आ रही हूँ ।जेल वाले मुकदमे में क्या हो रहा?”
गुरुसेवक – “अभी तो कुछ नहीं हुआ। गवाहों के बयान हो रहे हैं।”
मनोरमा – “बाबू जी पर जुर्म साबित हो गया?”
गुरूसेवक – “जुर्म का साबित होना या न होना दोनों बराबर है और मुझे मुलजिमों को सजा करनी पड़ेगी। अगर बरी कर दूंगा, तो सरकार अपील करके उन्हें फिर सजा दिला देगी। हाँ, मैं बदनाम हो जाऊंगा। मेरे लिए यह आत्मबलिदान का प्रश्न है। सारी देवता मंडली मुझ पर कुपित हो जायेगी।”
मनोरमा – “बाबूजी के लिए सजा का दो-एक साल बढ़ जाना कोई बात नहीं, वह निरापराध हैं और यह विश्वास उन्हें तस्कीन देने को काफ़ी है। लेकिन तुम कहीं के न रहोगे। तुम्हारे देवता भले तुम से भले ही संतुष्ट हो जाये, पर तुम्हारी आत्मा का सर्वनाश हो जायेगा।”
गुरूसेवक – “चक्रधर बिल्कुल बेकसूर तो नहीं है। पहले पहल जेल में के दरोगा पर वही गर्म पड़े थे। वह उस वक्त जब्त कर जाते, तो यह फिसाद न खड़ा होता।”
मनोरमा – “उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आपको अपने फैसले में साफ-साफ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफ़ारिश करनी चाहिए कि महान संकट में अपने प्राणों को हथेली पर लेकर जेल के कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उनकी मियाद हटा दी जाये।”
गुरूसेवक ने अपनी नीचता को मुस्कुराहट से छिपाकर कहा – “आग में कूद पड़ूं?”
मनोरमा – “धर्म की रक्षा के लिए आग में कूद पड़ना कोई नई बात नहीं है। आखिर आपको किस बात का डर है? यही न कि आपसे आपके आपसे नाराज हो जायेंगे। आप शायद डरतें हो कि कहीं आप अलग न कर दिया जायें। इसकी ज़रा भी चिंता ना कीजिये।”
गुरूसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले – “नौकरी की मुझे परवाह नहीं मनोरमा। मैं लोगों के कमीनेपन से डरता हूँ। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है और वह शब्द है – स्वार्थ। जानता हूँ यह मेरी कमजोरी है, पर क्या करूं? मुझमें तो इतना साहस नहीं।”
मनोरमा – “भैया जी! आप यह सारी शंका निर्मूल है। गवाहों के बयान हो गए कि नहीं?”
गुरूसेवक – “हाँ, हो गये। अब तो केवल फैसला सुनाना है।”
मनोरमा – “तो लिखिए। मैं बिना लिखवाये यहाँ से जाऊंगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आई हूँ।”
दौड़ा दूसरी मोटर आ पहुँची। इस पर राजा साहब बैठे हुए थे। गुरूसेवक बड़े तपाक से उन्हें लेने दौड़े। राजा ने उनकी ओर विशेष ध्यान न दिया। मनोरमा के पास आकर बोले – “तुम्हारे घर से चला रहा हूँ। वहाँ पूछा, तो मालूम हुआ – कहीं गई हो; पर यह तो किसी को मालूम न था कि कहाँ। वहाँ से पार्क गया, पार्क से चौक पहुँचा, सारे ज़माने की खाक छानता हुआ यहाँ पहुँचा हूँ। मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि घर से चला करो, तो ज़रा बतला दिया करो।”
यह कहकर राजा साहब ने मनोरमा का हाथ आहिस्ता से पकड़ लिया और उसे मोटर की तरफ खींचा। मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और बोली – “मैं न जाऊंगी।”
राजा – “आखिर क्यों?”
मनोरमा – “अपनी इच्छा।”
गुरूसेवक – ” हुजूर! यह मुझसे जबरदस्ती जेलवाले मुकदमे का फैसला लिखवाने बैठी हुई है। कहती है – बिना लिखवाये न जाऊंगी।”
गुरूसेवक ने यह बात दिल्लगी से कही थी, पर समयोचित बात उनके मुँह से कम निकली। मनोरमा का मुँहह लाल हो गया। समझी कि यह मुझे राजा साहब के सम्मुख गिराना चाहते है। तनकर बोली – “हाँ, इसलिए बैठी हूँ, तो फिर? आपको यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए थी। अगर मैं समझती कि आप निष्पक्ष होकर फैसला करेंगे, तो मेरे बैठने की क्यों ज़रूरत होती। आप मेरे भाई हैं, इसलिए मैं आपसे सत्याग्रह कर रही हूँ। आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जानबूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा वश चलता तो उसके हाथ कटवा लेती। चक्रधर की मेरे दिल में जितनी इज्ज़त है, उसका आप लोग अनुमान नहीं कर सकते।“
मनोरमा अध्याय 14
हुक्काम के इशारों पर नाचने वाले गुरु सेवक सिंह ने जब चक्रधर को जेल के दंगे के इल्ज़ाम से बरी कर दिया, तो अधिकारी मंडल में सनसनी फ़ैल गई। गुरूसेवक सिंह से ऐसे फैसले की किसी को आशा न थीं। फ़ैसला क्या था, मान पत्र था, जिसका एक-एक शब्द वात्सल्य के रस में सराबोर था। जनता में धूम मच गई। ऐसे न्याय वीर और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुँह से यही बात निकलती थी। शहर के कितने ही आदमी तो गुरूसेवक के दर्शनों को आये और यह कहते हुए लौटे कि यह हाकिम नहीं, साक्षात् देवता हैं। अधिकारियों ने सोचा था, चक्रधर को चार पांच साल जेल में सड़ायेंगे, लेकिन अब तो खूंटा ही उखड़ गया, उछलें किस बिरते पर? चक्रधर इस इल्ज़ाम से बरी ही न हुए, बल्कि उनकी पहली सजा भी एक साल घटा दी गयी। मिस्टर जिम तो ऐसा जामे से बाहर हुए कि बस चलता, तो गुरुसेवक को गोली मार देते। और कुछ न कर सके, तो चक्रधर को तीसरे ही दिन आगरे भेज दिया। कर्मचारियों को सख्त ताकीद कर दी गई थी कि कोई कैदी उनसे बोलने तक न पाये, कोई उनके कमरे के द्वार तक भी न जाने पाये, यहाँ तक कि कर्मचारी भी उनसे न बोले। साल भर में दस साल की कैद का मज़ा चखाने की हिम्मत सोच निकाली थी। मज़ा यह कि इस धुन में चक्रधर को कोई काम भी न दिया। बस आठों पहर उसी चार हाथ लंबी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रहो।
चक्रधर के विचार और भाव इतनी जल्दी बदलते रहते थे कि कभी उन्हें भ्रम होने लगता था कि मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूँ। अंत को उस अन्तर्द्वन्द में उनकी आत्मा ने विजय पाई। मन पर आत्मा का राज्य हो गया। मन अन्तर्जगत की सैर करने लगा। वह किसी समाधिस्थ योगी की भांति घंटों इस अंतरलोक में विचरते रहते। शारीरिक कष्टों से अब उन्हें विराग सा होने लगा। उनकी ओर ध्यान देना वह तुच्छ समझते थे। कभी-कभी वह गाते। मनोरंजन के लिए कई खेल निकाले। अंधेरे में अपनी लुटिया लुढ़का देते और उसे एक खोज में उठा लाने की चेष्टा करते। अगर उन्हें किसी चीज की ज़रूरत मालूम होती, तो वह प्रकाश था, इसलिए नहीं कि वह अंधकार से ऊब चुके थे; बल्कि इसलिए कि वह अपने मन में उमड़ने वाले भावों को लिखना चाहते थे। लिखने की सामग्रियों के लिए उनका मन तड़प कर रह जाता। धीरे-धीरे उन्हें प्रकार की भी ज़रूरत न रही। उन्हें ऐसा विश्वास होने लगा कि मैं अंधेरे में भी लिख सकता हूँ। लेकिन लिखने का सामान नहीं; बस यही एक ऐसी चीज थी, जिसके लिए वह कभी-कभी विकल हो जाते।
चक्रधर के पास कभी कभी एक बूढ़ा वार्डर भोजन लाया करता था। वह बहुत ही हँसमुख आदमी था। चक्रधर की प्रसन्न मुझ देखकर दो-चार बातें कर लेता था। उससे उन्हें बंधुत्व सा हो गया था। वह कई बार पूछ चुका था कि बाबूजी चरस तंबाखू की इच्छा हो, हमसे कहना। चक्रधर को ख़याल आया, क्यों न उससे एक पेंसिल और थोड़े से कागज़ के लिए कहूं। कई दिनों तक तो वह संकोच में पड़े रहे कि उससे कहूं या नहीं। आखिर एक दिन उनसे न रहा गया, पूछ ही बैठे – ‘क्यों जमादार यहाँ कहीं कागज़ पेंसिल न मिलेगी।‘
वार्डर ने सतर्क भाव से कहा – ‘मिलने को तो मिल जायेगा; पर किसी ने देख लिया तो?’
इस वाक्य ने चक्रधर को संभाल लिया। उनकी विवेक बुद्धि, जो क्षण भर के लिए मोह में फंस गई थी, जाग उठी। बोले – ‘नहीं, मैं यों ही पूछता था।‘
इसके बाद वार्डर ने फिर कई बार पूछा – ‘कहो तो पेंसिल कागज़ ला दूं? मगर चक्रधर ने हर दफ़ा यही कहा – ‘मुझे ज़रूरत नहीं।‘
बाबू यशोदानंदन को ज्यों ही मालूम हुआ कि चक्रधर आगरा जेल में आ गए हैं, वह उनसे मिलने की कई बार चेष्टा कर चुके थे; पर आज्ञा न मिलती थी। साधारणतः कैदियों को छठे महीने अपने घर के किसी प्राणी से मिलने की आज्ञा मिल जाती थी। चक्रधर के साथ इतनी रियायत भी न की गई थी, पर यशोदानंदन अवसर पड़ने कर खुशामद भी कर सकते थे। अपना सारा ज़ोर लगाकर अंत में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली – अपने लिए नहीं, अहिल्या के लिये। उस विरहिणी की दशा दिनों-दिन खराब होती जा रही थी। जबसे चक्रधर ने जेल में कदम रखा, उसी दिन से वह कैदियों की सी ज़िन्दगी बसर करने लगी। ईश्वर में पहले भी उसकी भक्ति कम न थी, अब तो उसकी धर्म-निष्ठा और बढ़ गई।
जब वह हाथ जोड़कर आँखें बंदकर के ईश्वर से प्रार्थना करती, तो उसे ऐसा मालूम होता कि चक्रधर स्वयं मेरे सामने खड़े हैं। उसे अनुभव होता था कि मेरी प्रार्थना उस मातृ स्नेह पूर्ण आंचल की भांति, जो बालक को ढक लेता है, चक्रधर की रक्षा करती रहती है।
जिस दिन अहिल्या को मालूम हुआ कि चक्रधर से मिलने की आज्ञा मिल गई है, उसे आनंद के बदले भय होने लगा। यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्छा न आ जाये, कहीं मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने न लगूं।
प्रातः काल उसने उठकर स्नान किया और बड़ी देर तक बैठी वंदना करती रही। फिर यशोदानंदन जी के साथ गाड़ी में बैठ कर जेल चली गई।
जेल में पहुँचते ही एक औरत ने उसकी तलाशी ली और उसे पास के एक कमरे में ले गई। उसका कलेजा धड़क रहा था, उस स्त्री को अपने समीप बैठे देखकर उसे कुछ ढांढस हो रहा था, नहीं तो शायद वह चक्रधर को देखते ही उनके पैरों से लिपट जाती। सिर झुकाये बैठी थी कि चक्रधर दो चौकीदारों के साथ कमरे में आते। उनके सिर कर कनटोप था और देह पर आधी आस्तीन का कुर्ता; पर मुख पर आत्मबल की ज्योति झलक रही थी। उनका रंग पीला पड़ गया था। दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे और आँखें भीतर को घुसी हुई थीं; पर मुख पर एक हल्की मुस्कुराहट खेल रही थी। अहल्या उन्हें देखकर चौंक पड़ी, उसी आँखों से बे-अख्तियार आँसू निकल आये। शायद कहीं और देखती तो पहचान भी न सकती। घबरायी सी उठकर खड़ी हो गई। अब दो के दोनों खड़े हैं, दोनों के मन में हजारों बातें हैं, उद्वार-पर- उद्वार उठते हैं, दोनों एक-दूसरे को कनखियों से देखते हैं, पर किसी के मुँह से शब्द नहीं निकलता। अहिल्या सोचती है, क्या पूछे? इनका एक-एक अंग अपनी दशा आप सुना रहा है। चक्रधर भी यही सोचते हैं, क्या पूछूं उसका एक-एक अंग उसकी तपस्या और वेदना की कथा सुना रहा है।
इसी असमंजस और कंठावरोध की दशा में खड़े-खड़े दोनों को दस मिनट हो गये। यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया आयी, घड़ी देखकर बोली – ‘तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे? दस मिनट गुजर गये, केवल दस मिनट बाकी हैं।’
चक्रधर मानो समाधि से जाग उठे। बोले – ‘अहिल्या, तुम इतनी दुबली हो? बीमार हो क्या?’
अहिल्या ने सिसकियों को दबाकर कहा, “नहीं तो! मैं बिल्कुल अच्छी हूँ, आप अलबत्ता इतने दुबले हो गए हैं कि पहचाने नहीं जाते।‘
चक्रधर – ‘खैर! दुबले होने के तो कारण हैं; लेकिन तुम क्यों ऐसी घुली जा रही ही? कम से कम अपने को इतना तो बनाये रखो कि जब मैं छूटकर आऊं, तो मेरी कुछ मदद कर सको। अपने लिए नहीं, तो मेरे लिए तुम्हें अपनी रक्षा करनी चाहिए। बाबूजी तो कुशल से हैं?’
अहिल्या – ‘हाँ, आपको बराबर याद करते हैं, मेरे साथ वह भी आये हैं। पर यहाँ नहीं। आजकल स्वास्थ भी बिगड़ गया है; पर आराम न करने की उन्होंने कसम खा ली है। बूढ़े ख्वाजा महमूद से न जाने किस बात पर अनबन हो गई है। आपके चले जाने के बाद कई महीने तक खूब मेल रहा, लेकिन अब फिर वही हाल है।‘
अहिल्या ने वे बातें महत्व की समझकर न कही; बल्कि इसलिए कि वह चक्रधर का ध्यान अपनी तरफ से हटा देना चाहती थी। चक्रधर विरक्त होकर बोले – ‘दोनों आदमी फिर धर्मांधता के चक्कर में पड़ गए होंगे। जब तक हम सच्चे धर्म का अर्थ न समझेंगे, हमारी यही दशा रहेगी। घर का तो कोई समाचार न मिला होगा?’
अहिल्या – ‘मिला क्यों नहीं, बाबूजी हाल ही में काशी गए थे। जगदीशपुर के राजा साहब ने आपके पिताजी को ६०/- मासिक बांध दिया है, आपकी माताजी रोया करती हैं। छोटी रानी साहिबा की आप के घर वालों पर विशेष कृपादृष्टि है।’
चक्रधर ने विस्मित होकर पूछा – ‘छोटी रानी साहिबा कौन?’
अहिल्या – ‘रानी मनोरमा, अभी थोड़े दिन हुए, राजा साहब का विवाह हुआ है।‘
चक्रधर – ‘यह तो बड़ी दिल्लगी हो गई, मनोरमा का विवाह विशाल सिंह के साथ! मुझे तो अब भी विश्वास नहीं आता। बाबूजी ने नाम बताने में गलती की होगी।‘
अहिल्या – ‘बाबूजी को स्वयं आश्चर्य हो रहा था। काशी में भी लोगों को बड़ा आश्चर्य है। मनोरमा ने अपनी खुशी से विवाह किया है, कोई दबाव न था। सुनती हूँ, राजा साहब बिल्कुल उसकी मुट्ठी में हैं। जो कुछ वह कहती है, वही होता है। बाबूजी चंदा मांगने गए थे, तो रानी जी ने ही पांच हजार दिये। बहुत प्रसन्न मालूम होती थीं।‘
सहसा लेडी ने कहा – ‘वक़्त पूरा हो गया।’
चक्रधर क्षण भर भी और न ठहरे। अहिल्या को तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले गए। अहिल्या ने सजल नेत्रों से उन्हें प्रणाम किया और उनके जाते ही फूट-फूट कर रोने लगी।
मनोरमा अध्याय 15
फागुन का महीना आया, ढोल मंजीरे की आवाजें कानों में आने लगी। मुंशी वज्रधर की संगीत सभा की सजग हुई। यों तो कभी-कभी बारह माहों बैठक होती, पर फागुन आते ही बिला नागा मृदंग पर थाप पड़ने लगी। उदार आदमी थे, फिक्र को कभी पास न आने देते। अपने शरीर को कभी कष्ट न देते थे। लड़का जेल में है, घर में स्त्री रोती-रोती अंधी हुई जा रही है, सयानी बेटी घर पर बैठी हुई है, लेकिन मुंशी जी को कोई गम नहीं। पहले ₹25 में गुजर करते थे, अब ₹75 भी पूरे नहीं पड़ते। जिससे मिलते हैं, हँसकर, सभी की मदद करने को तैयार। वादे सबके करते हैं, किसी ने झुककर सलाम किया और प्रसन्न हो गये। दोनों हाथों से वरदान बांटते फिरते हैं, चाहे पूरा एक भी न कर सकें। अपने मोहल्ले के कई बेफिक्रों को, जिन्हें कोई टके को भी न पूछता, रियासत में नौकर करा दिया – किसी को चौकीदार, किसी को मुहर्रिर, किसी को कारिंदा। मगर नेकी करके दरिया में डालने की उनकी आदत नहीं। जिससे मिलते हैं अपना ही यश गाना शुरू करते हैं, और उनमें मनमानी अतिशयोक्ति भी करते हैं। मुंशी जी किसी को निराश नहीं करते। और कुछ न कर सके, तो बातों से ही पेट भर देते हैं। जो काम पहुँच से बाहर होता है, उसके लिए भी ‘हाँ-हाँ’ कर देना, आँखें मारना, उड़न घाईयाँ बताना, इन चालों में यह सिद्ध है। मनोरमा का राजा साहब से विवाह होना था कि मुंशी जी का भाग्य चमक उठा। एक ठीकेदार को रियासत के कई मकानों का ठीका दिला कर अपना मकान का पक्का करा लिया; बनिया बोरों अनाज मुफ्त में भेज देता, धोबी कपड़ों की धुलाई न लेता। सारांश यह है कि तहसीलदार साहब के पौ बारह थे। तहसीलदारी में जो मज़े न उड़ाये थे, अब उड़ा रहे हैं।
रात के आठ बजे थे। झिक्कू अपने समाजियों के साथ आ बैठा। मुंशी जी मनसद पर बैठे पेचवान पी रहे थे। गाना होने लगा। इतने में रानी मनोरमा की मोटर आकर द्वार पर खड़ी हो गई। मुंशी जी नंगे सिर, नंगे पांव दौड़े; जरा भी ठोकर खा जाते, तो उठने का नाम न लेते।
मनोरमा ने हाथ उठाकर कहा – “दौड़िये नहीं, दौड़िये नहीं। मैं आप ही के पास इस वक्त बड़ी खुशखबरी सुनाने आई हूँ। बाबूजी कल यहाँ आ जायेंगे।“
मुंशी – “क्या लल्लू?”
मनोरमा – “जी हाँ! सरकार ने उनकी मियाद घटा दी है।”
इतना सुनना था कि मुंशी की बेतहाशा दौड़े और घर में जाकर हांफते हुए निर्मला से बोले – “सुनती हो लल्लू कल आयेंगे। मनोरमा रानी दरवाजे पर खड़ी हैं।”
यह कहकर उल्टे पांव फिर आ पहुँचे।
मनोरमा – “अम्मा जी क्या कर रही हैं। उनसे मिलती चलूं।”
मनोरमा घर में दाखिल हुई। निर्मला आँखों में प्रेम की नदी भरे, सिर झुकाये खड़ी थी। जी चाहता था, इसके पैरों के नीचे आँखें बिछा दूं। मेरे धन्य भाग्य।
एकाएक मनोरमा ने झुककर निर्मला के पैरों पर शीश झुका दिया और पुलकित कंठ से बोली – “माता जी धन्य भाग्य, जो आपके दर्शन हुए। जीवन सफल हो गया।”
निर्मला सारा शिष्टाचार भूल गई। बस खड़ी रोती रही। मनोरमा के शील और विनय ने शिष्टाचार को तृण की भांति मातृस्नेह की रंगत में बहा दिया।
जब मोटर चली गई, तो निर्मला ने कहा – “साक्षात देवी है।”
दस बज रहे थे। मुंशी जी भोजन करने बैठे। मारे खुशी के खाया भी न गया। जल्दी से दो चार कौर खाकर बाहर की ओर भागे और अपने इष्ट मित्रों से चक्रधर के स्वागत के विषय में आधी रात तक बातें करते रहे। निश्चय किया गया कि प्रात:काल शहर में नोटिस बांटी जाये और सेवा समिति के सेवक स्टेशन पर बैंड बजाते हुए उनका स्वागत करें।
प्रातः समय में मनोरमा कमरे में आई और मेज़ पर बैठकर बड़ी उतावली में कुछ लिखने लगी कि दीवान साहब के आने की इत्तला हुई और एक क्षण में आकर वह कुर्सी पर बैठ गये। मनोरमा ने पूछा – “रियासत का बैंड तैयार है न।”
हर सेवक – “हाँ, उसके लिए पहले ही हुक्म दिया जा चुका है।”
मनोरमा – “जुलूस का प्रबंध ठीक है न! मैं डरती हूँ कि भद्द न हो जाये।”
हरसेवक – “श्रीमान राजा साहब की राय है कि शहर वालों को जुलूस निकालने दिया जाये। हमारे सम्मिलित होने की जरूरत नहीं।”
मनोरमा ने रूष्ट ठोकर कहा – “राजा साहब से मैंने पूछ लिया है। उनकी राय वही है, जो मेरी है। अगर सन्मार्ग पर चलने पर विरासत जब्त भी हो जाये, तब भी मैं उस मार्ग से विचलित न हूंगी।”
दीवान साहब ने सजल नेत्रों से मनोरमा को देखकर कहा – “बेटी मैं तुम्हारे ही भले को कहता हूँ। तुम नहीं जानती कि जमाना कितना नाजुक है।”
मनोरमा उत्तेजित होकर बोली – “पिताजी इस सदुपदेश के लिए मैं आपकी बहुत अनुगृहित हूँ, लेकिन मेरी आत्मा उसे ग्रहण नहीं करती। अभी सात बजे हैं। लेकिन आठ बजते-बजते आपको स्टेशन पहुँच जाना चाहिए। मैं ठीक वक्त पर पहुँच जाऊंगी। जाइये।”
दीवान साहब के जाते ही मनोरमा फिर मैं इस पर बैठकर लिखने लगी। यह वह भाषण था, जो मनोरमा चक्रधर के स्वागत के अवसर पर देना चाहते थी। वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गई कि उसे राजा साहब के आकर बैठ जाने की तब तक खबर न हुई, जब तक उन्हें उनके फेफड़ों में खांसने मजबूर न कर दिया।
मनोरमा ने चौंककर आँखें उठाई, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए उसकी ओर प्रेम विहवल नेत्रों से ताक रहे हैं। बोली -“क्षमा कीजिएगा, मुझे आपकी आहट न मिली। क्या बहुत देर से बैठे हैं?”
राजा – “नहीं तो, अभी-अभी आया हूँ। तुम लिख रही थी इसलिए छेड़ना उचित न समझा। मैं चाहता हूँ कि जुलूस इतनी धूमधाम से निकले कि इस शहर के इतिहास में अमर हो जाये।”
मनोरमा – “यही तो मैं भी चाहती हूँ।”
राजा – “मैं सैनिकों के आगे सैनिक वर्दी में रहना चाहता हूँ।”
मनोरमा ने चिंतित होकर कहा – “आपका जाना उचित नहीं जान पड़ता। आप यहाँ उनका स्वागत कीजियेगा। अपनी मर्यादा का निर्वाह तो करना पड़ेगा। सरकार यों ही हम लोगों पर संदेह करती है, तब तो फिर सत्तू बांधकर हमारे पीछे पड़ जायेगी।”
मनोरमा फिर लिखने लगी, जो कि राजा साहब को वहाँ से चले जाने का संकेत था। पर राजा साहब ज्यों की त्यों बैठे रहे। उनकी दृष्टि मकरंद के प्यासे भ्रमर की भांति मनोरमा के मुख कमल का माधुर्य रसपान कर रही थी।
सहसा घड़ी में नौ बजे। मनोरमा कुर्सी से उठ खड़ी हुई। राजा साहब भी वृक्ष की छाया में विश्राम करने वाले पथिक की भांति उठे और धीरे-धीरे द्वार की ओर चले। द्वार पर पहुँचकर वह फिर मुड़कर मनोरमा से बोले – “मैं भी चलूं, तो क्या हर्ज?”
मनोरमा ने करुण कमल नेत्रों से देखकर कहा – “अच्छी बात है चलिये।”
रेलवे स्टेशन पर कहीं तिल रखने को जगह न थी। अंदर का चबूतरा और बाहर का सहन आदमियों से खचाखच भरे थे। चबूतरे पर विद्यालयों के छात्र थे, रंग बिरंगी वर्दियाँ पहने; और सेवा समिति के सदस्य रंग-बिरंगी झंडियाँ लिए हुये। मनोरमा नगर के कई महिलाओं के साथ सेवकों के बीच में खड़ी थी। बरामदे में राजा विशाल सिंह, उनके मुख्य कर्मचारी और शहर की रईस और नेता जमा थे। मुंशी वज्रधर इधर से उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते फिरते थे।
ठीक दस बजे गाड़ी दूर से धुआं उड़ाते हुए दिखाई दी। अब तक लोग अपनी जगह कायदे के साथ खड़े थे। लेकिन गाड़ी के आते ही सारी व्यवस्था हवा हो गई। गाड़ी आकर रुकी और चक्रधर उतर पड़े। मनोरमा भी उन्माद से उन्मुक्त होकर चली; लेकिन तीन-चार पग चली थी कि ठिठक गई और एक स्त्री की आड़ से चक्रधर को देखा। सेवा समिति का मंगल गान समाप्त हुआ, तो राजा जी ने आगे बढ़कर नगर के नेताओं की तरफ से उनका स्वागत किया। सब लोगों उनसे गले मिले और यह जुलूस सजाया जाने लगा। चक्रधर स्टेशन के बाहर आये और तैयारियाँ देखी, तो बोले – “आप लोग इतना सम्मान करके मुझे लज्जित कर रहे हैं। मुझे तमाशा न बनाइये।”
संयोग से मुंशी जी वही खड़े थे। यह बातें सुनी, तो बिगड़कर बोले – “तमाशा नहीं बनना था, तो दूसरों के लिए प्राण देने को क्यों तैयार हुए थे? तुम्हीं अपनी इज्जत न करोगे, तो दूसरे क्यों करने लगे? आदमी कोई काम करता है, तो रुपये के लिए या नाम के लिये। यदि दोनों में से कोई हाथ न आये, तो वह काम करना ही व्यर्थ है।“
यह कहकर उन्होंने चक्रधर को छाती से लगा लिया। चक्रधर रक्तहीन मुख लज्जा से आरक्त हो गया था और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ। चुपके से राजा साहब की टुकड़ी पर बैठे।
जुलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक पर होता हुआ दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुँचा। यहाँ मुंशी जी के मकान के सामने एक बहुत बड़ा शामियाना लगा हुआ था। निरहुआ की यही सभा हो और चक्रधर को अभिनंदन पत्र दिया जाये। मनोरमा स्वयं पत्र पढ़कर सुनाने वाली थी, लेकिन जब पढ़ने को खड़ी हुई, तो उसके मुँह से एक शब्द न निकला।
मनोरमा को असमंजस में देख कर राजा साहब खड़े हुए और धीरे से कुर्सी पर बिठा कर बोले – “सज्जनों रानी के भाषण में आपको जो रस मिलता, वह मेरे शब्दों में कहाँ। कोयल के स्थान पर कौआ हुआ खड़ा हो गया है, शहनाई की जगह नृसिंह ने लेली है। आप लोगों को ज्ञात न होगा कि पूज्यवर चक्रधर रानी साहिबा के गुरु रह चुके हैं और वह भी उन्हें उसी भाव से देखती है। अपने ग्रुप का सम्मान करना शिष्या का धर्म है, किंतु रानी साहिबा का कोमल हृदय नाना प्रकार के आवेगों से इतना भरा हुआ है कि वाणी के लिए भी जगह नहीं रही। इसके लिए क्षम्य है। बाबू साहब ने जिस धैर्य और साहस से दोनों की रक्षा की, वह आप लोग जानते ही हैं। जेल में भी आपने निर्भीकता से अपने कर्तव्य का पालन किया। आपका मन दया और प्रेम का सागर है। जिस अवस्था में और युवक धन की उपासना करते हैं, आपने धर्म जाति प्रेम की उपासना की है। मैं भी आपका पुराना भक्त हूँ।”
एक सज्जन ने टोका – “आप ही ने तो उन्हें सजा दिलाई थी!”
राजा – “हाँ मैं से स्वीकार करता हूँ। राजा के मद में कुछ दिनों के लिए मैं अपने को भूल गया था। कौन है जो प्रभुता पाकर फूल न उठा हो। यह मानवीय स्वभाव है और आशा है आप लोग मुझे क्षमा करेंगे।”
मनोरमा अध्याय 16
आगरा के हिंदू और मुसलमानों में आये दिन जूतियाँ चलती रहती थी। ज़रा-ज़रा सी बात पर दोनों दलों के सिर फिर जमा हो जाते और दो चार के अंग भंग हो जाते। कहीं बनिये की डंडी मार दी और मुसलमानों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिंदू का घड़ा छू लिया और मोहल्ले में फौजदारी हो गई। निज के लड़ाई-झगड़े सांप्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाए जाते थे। दोनों ही धर्म मजहब के नशे में चूर थे।
होली के दिन थेम गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश में कभी होली ना मनाई गई थी
संयोग से एक मिर्जा साहब हाथ मुर्गी लटका के कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गये। बस गजब ही हो गया। सीधे जामे मस्जिद पहुँचे और मीनार पर खड़े होकर बांग दी – ये उम्मत-ए-रसूल। आज एक काफ़िर के हाथों से मेरे दीन का खून हुआ है। उसके छींटे मेरे कपड़े पर पड़े हैं। या तो काफ़िरों से इस खून का बदला लो या मीनार से गिरकर नबी की खिदमत में फ़रियाद सुनाने जाऊं। बोलो मंजूर है!”
मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियाँ बदल गई। शाम होते-होते दस हज़ार आदमी तलवारें लिए जामे मस्जिद के सामने आकर खड़े हो गये।
सारे शहर में तहलका मच गया। हिंदुओं के होश उड़ गये। होली का नशा हिरन हो गया। पिचकारियाँ छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियाँ संभाली; लेकिन ययाँ कोई जामे मस्जिद नहीं थी, न वह ललकार न दीन का जोश। सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।
बाबू यशोदानंदन कभी इस अफसर के पास जाते कभी उस अफसर के पास। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुस्लिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। और अंत में जब यह निराश होकर उठे, तो मुस्लिम वीर धावा बोल चुके थे।
वे ‘अली’ ‘अली’ का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब नज़र आ गये। फिर क्या था? सैकड़ों आदमी ‘मारो’ कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गये, सवाल-जवाब कौन करता। उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।
पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आई, यही सोचते रह गये कि समझाने से ये लोग शांत हो जाये, तो क्यों किसी की जान लूं। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ पर भी उनका दामन न छोड़ा।
बाबू यशोदानंदन के मरने की खबर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। दो तीन युवक कलवारी लेकर निकल पड़े और मुसलमान मोहल्ले में घुसे। हिंदू मोहल्ले में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मोहल्लों में वही हिंदू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के सामने से झुका दिया।
सिरसा खबर उड़ी कि यशोदानंदन के घर पर आग लगा दी गई है और दूसरे घरों में भी आग लगाई जा रही है। सेवा दल वालों के कान खड़े हुये। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहाँ यह बड़नावल दहक रहा था। यहाँ किसी मुसलमान का पता नहीं था, आग लगी थी; लेकिन बाहर की ओर। अंदर जाकर देखा, तो घर खाली पड़ा हुआ था। वागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बंद किए हुए बैठी थी। इन्हें देखते ही वह रोती बाहर निकल आई और बोली – ‘हाय मेरी अहिल्या! दौड़ो…उसे ढूंढो। पापियों ने न जाने उसकी क्या दुर्गति की। हाय मेरे बच्ची।’
एक युवक ने पूछा – ‘क्या अहिल्या को उठा ले गये?’
वागीश्वरी – ‘हाँ भैया, उठा ले गये। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; अगर मरेंगे तो साथ मरेंगे; लेकिन न मानी। जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगाये। कहना, तुम्हें लाज नहीं आती। जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद में सौंपा था, जिसके विवाह में पांच हजार खर्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों या दुर्गति। हाय भगवान।’
लोग ख्वाजा साहब के पास पहुँचे, तो देखते हैं कि मुंशी यशोदानंदन की लाश रखी हुई है और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देख कर बोले – ‘तुम लोग समझते होंगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है कि मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज्यादा अजीज़ नहीं। फिर भी हम दोनों की ज़िन्दगी के अंतिम साल मैदान बाजी में गुज़रे। आज उसका क्या अंजाम हुआ। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे; पर हमारी मर्जी के खिलाफ कोई गैबी ताकत हमको लड़ाती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। कौन जानता था, इस गहरी दोस्ती का यह अंजाम होगा।’
एक युवक – ‘हम लोग लाश को क्रियाक्रम के लिए ले जाना चाहते हैं।’
ख्वाजा – ‘ले जाओ भाई! मैं भी साथ चलूंगा। मेरे कंधा देने में कोई हर्ज है। इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ता हुआ मेरी मज़ार पर जरूर आता।’
युवक – ‘अहिल्या को भी उठा ले गये। माताजी ने आपसे…’
ख्वाजा – ‘क्या अहिल्या? मेरी अहिल्या को! कब?’
युवक – ‘आज ही। घर में आग लगाने से पहले।’
ख्वाजा – ‘कलामे मजीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूंगा, मुझे दाना पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ; मैं अभी आता हूँ। सारे शहर की खाक छान डालूंगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज़ कर देना, मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है, लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। कह देना महमूद यों तो अहिल्या को खोज निकालेगा या मुँह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।’
यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठाई और बाहर निकल गये।
चक्रधर को आगरे के उपद्रव, यशोदा नंदन की हत्या और अहिल्या के अपहरण का शोक समाचार मिला, तो उन्होंने व्यग्रता में आकर पिता को पत्र सुना दिया और बोले – ‘मेरा वहाँ जाना बहुत ज़रूरी है।’
वज्रधर – ‘जाकर करोगे ही क्या? जो कुछ होना था तो हो चुका। अब जाना व्यर्थ है।’
चक्रधर – ‘कम से कम अहिल्या का तो पता लगाना ही होगा।’
वज्रधर – ‘यह भी व्यर्थ है। पहले तो उसका पता लगाना ही मुश्किल है और लग भी गया, तो तुम्हारा अब उससे क्या संबंध। अब हम मुसलमानों के साथ रह चुकी है, तो कौन हिंदू उसे पूछेगा?’
चक्रधर – ‘इसीलिए तो मेरा जाना और भी ज़रूरी है।’
वज्रधर – ‘ऐसी बहू के लिए हमारे घर में स्थान नहीं है।’
चक्रधर निश्चयात्मक भाव से कहा – ‘वह आपके घर में न आयेगी।’
वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द में उत्तर दिया – ‘अगर तुम्हारा ख़याल हो कि पुत्र प्रेम के वश होकर मैं अंगीकार कर लूंगा, तो ये तुम्हारी भूल है। अहिल्या कुलदेवी नहीं हो सकती, चाहे इसके लिए मुझे पुत्र वियोग ही सहना पड़े।’
चक्रधर पीछे घूमे थे कि निर्मला ने उसका हाथ पकड़ लिया और स्नेह पूर्ण तिरस्कार करते हुए बोली – ‘बच्चा तुम से ये आशा न थी। अभी हमारा कहना मानो, हमारे कुल के मुँह में कालिख न लगाओ।’
चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा – ‘मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की, लेकिन इस विषय में मजबूर हूँ।’
वज्रधर – ‘यह तुम्हारा अंतिम निश्चय है।’
चक्रधर – ‘जी हाँ अंतिम!’
यह कहते हुए चक्रधर बाहर निकल आये और कुछ कपड़े साथ में लिए स्टेशन की तरफ चल दिये।
चक्रधर आगरा पहुँचे, तो सवेरा हो गया था। एक क्षण तक वे खड़े सोचते रहे, कहाँ जाऊं? बाबू यशोदानंदन के घर जाना व्यर्थ था। अंत को उन्होंने ख्वाजा महमूद के घर चलना निश्चय किया।
ख्वाजा साहब के द्वार पहुँचे, तो देखा कि हजारों आदमी एक लाश को घेरे खड़े हैं और उसे कब्रिस्तान ले चलने की तैयारी हो रही है। चक्रधर तुरंत तांगे से उतर के पड़े और लाश के पास जाकर खड़े हो गये। कहीं ख्वाजा साहब तो नहीं कत्ल कर दिए गए। वह किसी से पूछने ही जाते थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आँखों में आँसू भर कर बोले – ‘खूब है बेटा! तुझे आँखें ढूंढ रही थी। जानते हो वह किसकी लाश है? वह मेरा इकलौता पुत्र है, जिस पर ज़िन्दगी की सारी उम्मीदें कायम थी। लेकिन खुदा जानता है कि उसकी मौत पर मेरी आँखों से एक बूंद आँसू भी न निकला। उसने वह खेल किया, जो इंसानियत के दर्जे से गिरा हुआ था। तुम्हें अहिल्या के बारे में तो खबर मिली होगी।
चक्रधर – ‘जी हाँ! शायद बदमाश लोग पकड़ ले गये।’
ख्वाजा – ‘यह वही बदमाश है, जिसकी लाश तुम्हारे सामने पड़ी है। वह इसी की हरकत थी। मैं तो सारे शहर में अहिल्या को तलाश करता फिरता था, और वह मेरे ही घर में कैद थी। यह ज़ालिम उस पर जब्र करना चाहता था। आज उसने मौका पाकर इसे जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया – सीने में छुरी भोंक दी।’
चक्रधर – ‘मुझे यह सुनकर बहुत अफ़सोस हुआ। मुझे आपके साथ काबिल हमदर्दी है। आपका सा इंसाफ़ परवर, हकपरस्त आदमी इस दुनिया में न होगा। पहले आप कहाँ है?’
ख्वाजा – ‘इसी घर में। सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि तुझे तेरे घर पहुँचा आऊं, पर जाती है नहीं। बस बैठी रो रही है।’
लाश उठाई गई। शोक समाज पीछे-पीछे चला। चक्रधर भी ख्वाजा साहब के साथ कब्रिस्तान तक गये। जिस वक्त लाश कब्र में उतारी गई, ख्वाजा साहब रो पड़े। यह क्षमा के आँसू थे। चक्रधर भी आँसुओं को रोक न सके।
दोपहर होते-होते लोग घर लौटे। ख्वाजा साहब ज़रा दम लेकर बोले – ‘आओ बेटा! तुम्हें अहिल्या के पास ले चलूं।’
यह कहकर ख्वाजा साहब ने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और अंदर चले। चक्रधर का हृदय बांसो उछल रहा था। अहिल्या के दर्शनों के लिए वह इतने उत्सव कभी न थे। वह एक खिड़की के सामने खड़ी बगीचे की ओर ताक रही थी। सहसा चक्रधर को देखकर वह चौंक पड़ी और घूंघट में मुँह छुपा लिया। फिर एक क्षण के बाद वह उनके पैरों को पकड़कर अश्रुधारा से रोने लगी।
चक्रधर बोले – ‘अहिल्या मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए। तुम बिल्कुल उल्टी बात कर रही हो।’
यह कहकर उन्होंने अहिल्या का हाथ पकड़ लिया, लेकिन वह हाथ छुड़ाकर हट गई और कांपते हुए स्वर में बोली – ‘नहीं नहीं मेरे अंको मत स्पर्श कीजिये। सूखा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता, आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से ही अभागिनी हूँ। आप जाकर अम्मा को समझा दीजिए। मेरे लिए अब दुख न करें। मैं निर्दोष हूँ, लेकिन ऐसी हो कि नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकूं।’
चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और बोले – ‘अहिल्या जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र निष्कलंक रहती है। मेरी आँखों में आज तुम उससे कहीं अधिक पवित्र और निर्मल हो, जितनी पहले थी।’
अहिल्या कई मिनट तक चक्रधर के कंधे पर सिर के रोती रही। फिर बोली – ‘तुम सिर्फ दया भाव से और मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढ़ा रहे हो या प्रेम भाव से?’
चक्रधर का दिल बैठ गया। अहिल्या की सरलता पर उसे दया आ गई। वह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही थी कि इसी विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूं। बोले – ‘तुम्हें क्या जान पड़ता है अहिल्या?’
अहिल्या – ‘तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।’
चक्रधर – ‘अहिल्या! तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।’
अहिल्या – ‘जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बनाऊंगी। मेरे लिए यही बहुत है, जो आप दे रहे हैं। वैसे भी अपना धन्य भाग्य समझती हूं।’
फिर सहसा अहिल्या ने कहा – ‘मुझे भय है कि मुझे आश्रय देकर आप बदनाम हो जाएंगे। कदाचित आपके माता-पिता आपका तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूं, लेकिन आपकी तिरस्कार और अपमान का ख्याल करके जी में आता है कि क्यों न इस जीवन का अंत कर दूं।’
चक्रधर की आँखें करुणार्द्र हो गई। बोले – ‘अहिल्या! ऐसी बातें न करो। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता-पिता के विरोध की परवाह नहीं करता। मैं तुम से विनती करता हूँ कि ये बातें फिर जबान पर न लाना।’
अहिल्या ने अबकी स्नेह सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की दाह जो उसके मर्मस्थल को जलाया जा रही थी, शीतल आर्द्र शब्दों से शांत हो गई। शंका की ज्वाला शांत होते ही उसकी दाह चंचल दृष्टि स्थिर हो गई और चक्रधर की सौम्य मूर्ति प्रेम की आँखों से प्रकाशमान आँखों के सामने खड़ी दिखाई दी।
बाबू यशोदानंदन की क्रिया कर्म के तीसरे ही दिन चक्रधर का अहिल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कुछ दिन टालना चाहते थे, लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। विवाह में कोई धूमधाम नहीं हुई।
जिस दिन चक्रधरा अहिल्या को विदा कर काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पर पहुंचाने आए। वागीश्वरी का रोते-रोते बुरा हाल था। जब अहिल्या जाकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। अहिल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नहीं वियोग से। भाग्यश्री की गर्दन में उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो गए कि दूसरी स्त्रियों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया।
लेकिन चक्रधर के सामने दूसरी ही समस्या उपस्थित ही रही थी। वह घर तो जा रहे थे, लेकिन उस घर के द्वार बंद थे। पिता का क्रोध, माता का तिरस्कार, संबंधियों की अवहेलना, उन सभी शंकाओं से चित्त उद्विग्न हो रहा था। सबसे विकट समस्या यह थी कि गाड़ी से उतर कर जाऊंगा कहाँ? इन चिंताओं से उसकी मुख मुद्रा इतनी मलिन हो गई कि अहिल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा, तो चौंक पड़े। उसकी वियोग व्यथा अब शांत हो गई थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था। लेकिन पति कि उदास मुद्रा देखकर वह घबरा गई। बोली – ‘आप इतने उदास क्यों हैं? क्या अभी से मेरी फ़िक्र सवार हो गई।’
चक्रधर ने झेंपते हुए कहा – ‘नहीं तो! उदास क्यों होने लगा। यह उदास होने का समय है या आनंद मनाने का।‘
मगर जितना ही अपनी चिंता को छिपाने का प्रयत्न करते थे, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख रखने की चेष्टा में और भी दरिद्र होता जाता है।
अहिल्या ने गंभीर भाव से कहा – ‘तुम्हारी इच्छा है, न बताओ! लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं।’
यह कहते कहते अहिल्या की आँखें सजल हो गई। चक्रधर से अब जब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनाई और अंत में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया। अहिल्या ने गर्व से कहा – ‘अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? वे कितने ही नाराज़ हो, हैं तो हमारे माता पिता। आप इन चिंताओं को दिल से निकाल डालिए। उनको प्रसन्न करने का भार मुझ पर छोड़ दें। मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूंगी।’
चक्रधर ने अहिल्या को गदगद नेत्रों से देखा और चुप ही रहे।
रात को दस बजते बजते गाड़ी बनारस पहुँची। अहिल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिंतित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा। लेकिन उन्हें कितना आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशी जी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखता पाया। पिता के उस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वे जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने उन्हें दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेह कोमल शब्दों में बोले – ‘कम से कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाड़ी से आ रहा हूँ। खत तक न लिखा। यहाँ बराबर दस दिल से दो बार स्टेशन दौड़ा आता हूँ और एक आदमी हरदम बाहर तुम्हारे इंतज़ार में बिठाए रखता हूँ कि न जाने कब किस गाड़ी से आ जाओ। कहाँ है बहू? चलो उतार लायें। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाए देता हूँ। मैं दौड़कर ज़रा बाजे गाजे, रौशनी, सवारी की फिक्र करूं। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहाँ के लोग क्या जानेंगे कि बहू आती है। वहाँ की बात और थी, यहाँ की बात और है। भाई बंदों के साथ रस्म रिवाज़ मानना है पड़ता है।‘
यह कहकर मुंशी जी चक्रधर के साथ गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। अहिल्या ने धीरे से उतर कर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उसकी आँखों से आनंद और श्रद्धा के आँसू बहने लगे। मुंशी जी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग रूम में बिठाकर बोले – ‘किसी को अंदर आने मत देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घंटे भर में आऊंगा।’
चक्रधर ने दबी ज़बान से कहा – ‘इस वक़्त धूमधाम करने की ज़रूरत नहीं। सबेरे तो सब मालूम हो ही जायेगा।’
मुंशीजी ने लकड़ी संभालते हुए कहा – ‘सुनती हो बहू इनकी बातें। सबेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आई।’
मुंशीजी जब चले गए, तो अहिल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। बोली – ‘ऐसे देवता पुरुष के साथ तुम अकारण ही अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता है कि घंटों उनके चरणों पर पड़ी रोया करूं।’
चक्रधर लज्जित हो गये। इसका प्रतिवाद तो न किया, पर उनका मन कह रहा था कि इस वक़्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितनी ही धूमधाम क्यों न कर लें, घर में कोई न कोई गुल खिलेगा ज़रूर।
मुंशीजी को गए अभी आधा घंटा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखाई दी।
उसने कहा – ‘वाह बाबूजी! आप चुपके चुपके बहूजी को उड़ा लाए और मुझे खबर तक न दी। मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने अपना घर बसाया, मेरे लिए भी कोई सौगात लाये।’
यह कहकर वह अहिल्या के पास गई और दोनों गले मिली। मनोरमा ने हाथ से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहिल्या को पहना दिया। अहिल्या ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया और पान इलायची देते हुए बोली – ‘आपको मेरे कारण बड़ी तकलीफ़ हुई। यह आपके आराम करने का समय था।’
चक्रधर मौका देखकर बाहर चले गए थे। उनके रहने से दोनों ही में संकोच होता।
मनोरमा ने कहा – ‘नहीं बहन! मुझे ज़रा भी तकलीफ न हुई। मैं तो यों भी बारह एक बजे के पहले नहीं सोती। तुमसे मिलने की बड़े दिनों से इच्छा थी। तुम बड़ी भाग्यवान हो। तुम्हारा पति मनुष्यों में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवं सर्वथा निष्कलंक।‘
अहिल्या पति प्रशंसा से गर्वोंन्नत होकर बोली – ‘आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाये।’
मनोरमा – ‘मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते। मैं संसार में अकेली थी। तुम्हें पाकर दुकेली हो गई।’
अहिल्या – ‘मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी।’
इतने में बाजों की घों-घों पों-पों सुनाई दी। मुंशीजी बारात जमाये चले आ रहे थे।
अहिल्या के हृदय में आनंद की तरंगे उठ रही थी। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी इतनी बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी उसका इतना आदर सत्कार होगा, उसने कल्पना भी न की थी।
मनोरमा ने उसे धीरे-धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरंग घोड़े में सवार थे।
मनोरमा अध्याय 17
राजा साहब विशालपुर आते, तो इस तरह भागते मानो किसी शत्रु के घर आए हों। रोहिणी को एक राजा साहब की यह निष्ठुरता असह्य मालूम होती थी। वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूंढती रहती थी, पर राजा साहब भूलकर भी अंदर न आते थे। आखिर एक दिन वह मनोरमा पर ही पिल पड़ी। बात कोई न थी। मनोरमा ने सरल भाव से कहा – ‘यहाँ आप लोगों का जीवन बड़ी शांति से कटता होगा। शहर में तो रोज एक नई झंझट सिर पर सवार रहता है।’
रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। एंठ कर बोली – ‘हाँ बहन क्यों ना हो? ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर भी जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं, हम अभागिनों के लिए सत्तू में भी बाधा।’
मनोरमा ने फिर उसी सरल भाव से कहा – ‘अगर तुम्हें वहाँ सुखी सुख मालूम होता है, तो चली क्यों नहीं आती? अकेले मेरा भी जी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे से दिन कट जायेंगे।’
रोहिणी नाक सिकोड़ कर बोली – ‘भला मुझ में वह हाव-भाव कहाँ है कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किये रहूं, उधर हकीमों को मिलाय रखूं। यह तो कुछ पढ़ी-लिखी शहरवालियों को ही आता है, हम गवारिनें यह त्रियाचरित्र क्या जाने।’
मनोरमा खड़ी सन्न रह गई। ऐसा मालूम हुआ कि ज्वाला पैरों से उठी और सिर से निकल गई। वह दस-बारह मिनट तक किसी बनती स्तंभित खड़ी रही। राजा साहब मोटर के पास खड़े उसकी राह देख रहे थे। जब उसे देर हुई, तो स्वयं अंदर आये। दूर ही से पुकारा – ‘नोरा क्या कर रही हो? चलो देर हो रही है।’
मनोरमा ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया। तब राजा साहब ने मनोरमा के पास आकर हाथ पकड़ लिया और कुछ कहना ही चाहते थे कि उसका चेहरा देख कर चौंक पड़े। वह सर्पदंशित मनुष्य की भांति निर्निमेष नेत्रों से दीवार की ओर टकटकी लगाए ताक रही थी, मानो आँखों की राह प्राण निकल रहे हों।
राजा साहब ने घबराकर पूछा – ‘नोरा कैसी तबीयत है?’
मनोरमा ने सिसकते हुए कहा – ‘अब मैं यही रहूंगी। आप जाइये। मेरी चीजें यहीं भिजवा दीजियेगा।’
राजा साहब समझ गए कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यंग्य तीर चलाया है। उसकी और लाल आँखें करके बोले – ‘तुम्हारे कारण यहाँ से जान लेकर भागा, फिर भी पीछे पड़ी हुई हो। यहाँ भी शांत रहने नहीं देती। मेरी खुशी है, जिससे जी चाहता है बोलता हूँ; जिससे जी नहीं चाहता, नहीं बोलता। तुम्हें इसकी जलन क्यों होती है?’
रोहिणी – ‘जलन होगी मेरी बला से! तुम यहाँ ही थे, तो कौन सा सोने की सेज पर सुला दिया था। यहाँ तो जैसे ‘कंता घर रहे चाहे विदेश’ भाग्य में रोना बदा था, रोती हूँ।’
राजा साहब का क्रोध बढ़ता जाता था। पर मनोरमा के सामने वह अपना पैशाचिक रूप दिखाते शर्माते थे। कोई लगती हुई बात कहना चाहते थे, जो रोहिणी की जुबान बंद कर दे, वह अवाक रह जाये। मनोरमा को कटु-वचन सुनाने के दंड स्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कहीं जाये, वह क्षम्य थी। बोले – ‘तुम्हें तो जहर खा कर मर जाना चाहिए। कम से कम तुम्हारी ये जली-कटी बातें तो सुनने में ना आयेंगी।’
रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानो वह उन की ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी और लपक कर पान दान को ठुकराती, लोटे का पानी गिराती, वहाँ से चली गई।
राजा साहब बहुत देर तक समझाया, पर मनोरमा एक न मानी। उसे यह शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं हैं, यहाँ सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे। संदेह और लांछन का निवारण या सभी लोगों के सम्मुख रहने से ही हो सकता है और यही उसके संकल्प का कारण था। अंत में राजा साहब ने हताश होकर कहा – ‘तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूँ। मुझसे अकेले वहाँ एक दिन भी रह जायेगा।’
एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी देखते आते दिखाई दिये। चेहरा उतरा हुआ था। पैजामे का इजारबंद नीचे लटकता हुआ। आंगन में खड़े होकर बोले – ‘रानी जी आप कहाँ हैं? जरा कृपा करके यहाँ आइए या हुक्म हो, तो मैं ही आऊं।’
राजा साहब ने चिढ़कर कहा – ‘क्या है, यहीं चली आइये। आपको इस वक़्त आने की क्या जरूरत थी? सब लोग यहाँ चले आए, कोई वहाँ भी तो चाहिए।’
मुंशी जी कमरे में आकर बड़े दिन भाव से बोले – ‘क्या बोलूं हुजूर? घर तबाह हुआ जा रहा है। हुजूर से न रो, तो किस से रोऊं। लल्लू न जाने क्या करने पर तुला है।’
मनोरमा ने सशंक होकर पूछा – ‘क्या बात है मुंशी जी? अभी तो आज बाबूजी वहाँ मेरे पास आए थे। कोई भी नई बात नहीं कही।’
मुंशी – ‘वह अपनी बात कहता है कि आपसे कहेगा। मुझसे भी कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन आज प्रयाग जाने को तैयार बैठा है। बहू को भी साथ ले जाता है।’
मनोरमा – ‘आपने पूछा नहीं कि क्यों जा रहे हैं। जरूर उन्हें किसी बात से रंज पहुँचा होगा, नहीं तो बहू को लेकर न जाते। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा।’
मुंशी – ‘इल्म की कसम खाकर कहता हूँ, जो किसी ने चूं भी की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राये। वह तो सेवा और शील की देवी है। उसे कौन ताना दे सकता है? हाँ इतना जरूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते।’
मनोरमा ने सिर हिलाकर कहा – ‘अच्छा यह बात है। भला बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहिल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वरना जाने कैसे इतने दिन तक रह गई?’
मुंशी – ‘आप जरा चलकर उन्हें समझा दें। मुझ पर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आए हैं, वे अब छोड़ी नहीं जाती।’
मनोरमा – ‘तो न छोड़िए। आपको कोई मजबूर नहीं करता। आपको अपना धर्म प्यारा है और होना भी चाहिए। उन्हें भी अपना सम्मान प्यारा है और होना चाहिए। मैं जैसे आपको बहू के हाथ का भोजन ग्रहण करने को मजबूर नहीं कर सकती, उस भांति उन्हें भी यह अपमान सहने के लिए नहीं दबा सकती। आप जाने और वह जाने। मुझे बीच में न डालिये।’
मुंशी जी बड़ी आशा बांधकर यहाँ दौड़े आए थे। यह फैसला सुना तो कमर टूट सी गई। फर्श पर बैठ गए और अनाथ भाव से माथे पर हाथ रख कर सोचने लगे – ‘ अब क्या करूं?’
मनोरमा वहाँ से चली गई। अभी उसे अपने लिए कोई स्थान ठीक करना था। शहर से अपनी आवश्यक वस्तुयें मंगवानी थी।
रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आँखों में नींद न आई थी। उसे खयाल आया कि चक्रधर बिल्कुल खाली हाथ है। पत्नी साथ, नई जगह, खाली हाथ, न किसी से राह, न रस्म, संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा। मैंने बड़ी भूल की। मुंशी के साथ मुझे चले जाना चाहिए था। बाबूजी मेरा इंतजार कर रहे होंगे।
उसने घड़ी की ओर देखा। एक बज गया था।
उसके मन में प्रश्न उठा – ‘क्यों न इसी वक़्त चलूं। घंटे भर में पहुँच जाऊंगी।‘
फिर खयाल आया कि इस वक़्त जाऊंगी, तो लोग क्या कहेंगे। वह फिर आकर लेट रही और सोने की चेष्टा करने लगी। उसे नींद आ गई, लेकिन देर से सोने पर भी मनोरमा को उठने में देर न लगी। अभी सब लोग सोते ही थे कि वह उठ बैठी और तुरंत मोटर तैयार करने का हुक्म दिया। फिर अपने हैंडबैग में कुछ चीज़ें रखकर वह रवाना हो गई।
चक्रधर भी प्रातः काल उठे और चलने कि तैयारी करने लगे। उन्हें माता-पिता को छोड़कर जाने का दुख हो रहा था, पर उस घर में अहिल्या की जो दशा थी, वह उन्हें असह्य थी। गाड़ी सात बजे छूटती थी। वह अपना बिस्तर और सामान बाहर निकाल रहे थे। भीतर अहिल्या अपनी सास और ननंद से गले लगकर रो रही थी कि इतने में अहिल्या की मोटर आती दिखाई दी। चक्रधर मारे शर्म के गड़ गये।
मनोरमा ने मोटर से उतरते हुए कहा – ‘बाबूजी! अभी ज़रा ठहर जाइये। यह उतावली क्यों? जब तक मुझे मालूम न हो जाएगा कि आप किस कारण से और वहाँ क्या करने के इरादे से जाते हैं, मैं आपको न जाने दूंगी।’
चक्रधर – ‘आपको सारी स्थिति मालूम होती, तो आप कभी मुझे रोकने की चेष्टा न करतीं।’
मनोरमा – ‘तो सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी बहुत मालूम है। ये लोग अपने संस्कारों से मजबूर हैं। न तो आप ही उन्हें दबाना पसंद करेंगे। क्यों न अहिल्या को कुछ दिनों तक मेरे साथ रहने दें। मैंने जगदीशपुर में ही रहने का निश्चय किया है। आप वहाँ रह सकते हैं। मेरी बहुत दिनों से इच्छा है कि आप मेरे मेहमान हों। वह भी तो आपका ही घर है। मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी।’
चक्रधर – ‘नहीं मनोरमा! मुझे जाने दो।’
मनोरमा – ‘अच्छी बात है! जाइए! लेकिन एक बात आपको माननी पड़ेगी। मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिये।’
यह कहकर उसने अपना हैंडबैग चक्रधर की ओर बढ़ाया।
चक्रधर – ‘अगर न लूं तो!’
मनोरमा – ‘तो अपने हाथों अपना बोरिया-बंधना उठाकर घर में रख आऊंगी।’
चक्रधर – ‘आपको इतना कष्ट उठाना पड़ेगा। मैं इसे लिए लेता हूँ। शायद वहाँ भी मुझे कोई काम करने की ज़रूरत न पड़ेगी। इस बैग का वजन ही बतला रहा है।’
मनोरमा घर में गई, तो निर्मला बोली – ‘माना कि नहीं।’
मनोरमा – ‘नहीं मानते। मना कर हार गई।’
मुंशी – ‘जब आपके कहने से न माना, तो किसके कहने पर मानेगा।’
तांगा आ गया। चक्रधर और अहिल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर जाकर चली गई। घर के बाकी तीनों प्राणी द्वार पर ही खड़े रह गये।
मनोरमा अध्याय 18
सार्वजनिक काम करने के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, बस मन में नि:स्वार्थ सेवा का भाव होना चाहिए। चक्रधर अभी प्रयाग में अच्छी तरह जमने भी ना पाये थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी। थोड़े दिनों में भी नेताओं की श्रेणी में आने लगे। उन्हें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी तरह निष्पृह हो। और लोग अपना फालतू समय ही सेवा भाव के लिए दे सकते थे। द्रव्योपार्जन का मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर को इस काम के सिवा और कोई फिक्र न थी। उन्होंने शहर के निकास पर एक छोटा सा मकान किराये पर ले लिया था और बड़ी किफ़ायत से गुजर करते थे। वहाँ रुपये का नित्य भाव रहता था। चक्रधर को अब ज्ञात होने लगा कि गृहस्थी में पड़कर कुछ न कुछ स्थायी आमदनी होनी ही चाहिए। अपने लिए उन्हें कोई चिंता न थी। लेकिन अहिल्या को वे दरिद्रता की चिंता में न डालना चाहते थे।
अगर चक्रधर को अपना ही घर संभालना होता, तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता। क्योंकि उनके लिए एक बहुत अच्छे होते थे और दो चार समाचार पत्रों में लिखकर में अपनी ज़रूरत भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी वज्रधर के तकाजों के कारण उनकी नाक में दम था। चक्रधर को बार-बार तंग करते और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती।
अगहन का महीना था। खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाये थे। अहिल्या के पास तो पुराने कपड़े थे, पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुंशीजी के मारे बचने ही न पाते। या खुद पहन डालते या किसी को दे देते। वैसे फिक्र में थे कि कहीं से रुपये आ जाये, तो एक कंबल ले लूं। आज बड़े इंतज़ार के बाद लखनऊ की एक पत्रिका के कार्यालय से ₹25 का मनी ऑर्डर आया था और वे अहिल्या के पास बैठे कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।
इतने में डाकिये ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर पत्र ले लिया और उसे पढ़ते हुए अंदर आए। अहिल्या ने पूछा – ‘लालाजी का खत है ना? लोग अच्छी तरह है ना?’
चक्रधर – ‘मेरे आते ही न जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गई कि जब देखो एक न एक विपत्ति सवार ही रहती है। बाबूजी को खांसी आ रही है। रानी साहिबा के यहाँ से अब वजीफा नहीं मिलता है। लिखा है इस वक्त पचास रूपये अवश्य भेजो।’
अहिल्या – ‘क्या अम्मा जी बहुत बीमार हैं?’
चक्रधर – ‘हाँ लिखा तो है।’
अहिल्या – ‘तो जाकर देख ही क्यों न आओ।’
चक्रधर – ‘मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है। व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्मा की बीमारी तो महज बहाना है। सरासर बहाना।’
अहिल्या – ‘ये बहाना हो या सच, ये पच्चीस रुपये भेज दीजिये। बाकी के लिए लिख दो कि कोई फिक्र करके जल्दी भेज दूंगा। तुम्हारी तकदीर में इन वर्ष जड़ावल नहीं लिखा है।’
पूस का महीना लग गया। जोरों की सर्दी पड़ने लगी। स्नान करते समय ऐसा मालूम होता था कि पानी काट खायेगा। पर अभी तक चक्रधर जड़ावल न बनवा सके। एक दिन बादल हो आये और ठंडी हवा बहने लगी। सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी। एक बार उन्होंने अहिल्या की ओर देखा। वह हाथ पैर सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े, एक गठरी की तरह पड़ी हुई थी। उसका स्नेह करुण हृदय रो पड़ा। उनकी अंतरात्मा सहस्त्रों जिव्हाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। मेरी लोक सेवा केवल भ्रम है। कोरा प्रसाद। जब तू इस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझ पर प्राण तक अर्पण कर सकती है, तो तू जनता का उपकार क्या करेगा।
दूसरे दिन वे नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गये, अपने कमरे में ही कुछ लिखते पढ़ते रहे। शाम को सात बजते बजते वे फिर लौट आये और कुछ लिखते रहे। आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह कर न सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थीं, लेकिन अधिकांश समय पुस्तकें और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन न रही, स्वार्थ के अधीन हो गई। पहले ऊपर की खेती करते थे, जहाँ न धन था न कीर्ति अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के संपादक उनके आग्रह करके लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा अलंकृत होती थीं, भाव भी सुंदर। दर्शन में उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।
पर चक्रधर को अब अपने कृत्यों पर गर्व न था। उन्हें काफ़ी धन मिलता था। योरोप और अमेरिका के पत्रों में भी उनके लेख छपते थे। समाज में उनकर आदर भी कम न था। पर सेवा कार्य से को संतोष और शांति मिलती थी, अब वह मयस्सर न थी। अपने दीन, दुखी और पीड़ित बंधुओं की सेवा करने आई जो गौरव युक्त आनंद मिलता था, अब वह सभ्य समाज की दावतों में प्राप्त न होता था। मगर अहिल्या सुखी थी। अब वह सरल बालिका नहीं, गौरवशाली युवती थी – गृह प्रबंध में कुशल, पति सेवा में प्रवीण, उदार, दयालु और नीति चतुर। मजाल न था कि नौकर उसकी आँख बचाकर एक पैसा भी खा जाये। उसकी सभी अभिलाषायें पूरी होती जाती थीं। ईश्वर ने उसे एक सुंदर बालक भी दे दिया। रही सही कसर नहीं पूरी हो गई।
इस प्रकार पांच साल गुजर गये।
एक दिन काशी के राजा विशाल सिंह का तार आया। लिखा था – ‘मनोरमा बहुत बीमार है। तुरंत आइये। बचने की आशा कम ही है।’
अहिल्या – ‘यह हो क्या गया है? अभी तो लालाजी ने लिखा था कि यहाँ सब कुशल है।’
चक्रधर – ‘क्या कहा जाये? कुछ नहीं, यह सब गृह कलह का फल है। मनोरमा ने राजा साहब से विवाह करके बड़ी भूल की। सौतों ने तानों से छेद-छेद कर उसकी जान ले ली।’
अहिल्या – ‘कहो तो मैं भी चलूं। देखने को जी चाहता है। उसका शील और स्नेह कभी न भूलेगा।’
चक्रधर – ‘योगेन्द्र बाबू को साथ लेते चलें। इनसे अच्छा यहाँ तो कोई डॉक्टर नहीं है।’
दस बजते-बजते ये लोग यहाँ से डाक पर चले। अहिल्या खिड़की के पावस का मनोरम दृश्य देखती थी। चक्रधर व्यग्र हो होकर घड़ी देखते थे कि पहुँचने में कितनी देर है और मुन्नू खिड़की से कूद पड़ने को ज़ोर लगा रहा था।
चक्रधर जब जगदीशपुर पहुँचे, तो रात के आठ बज गए थे। राजभवन के द्वार पर हजारों आदमियों की भीड़ थी। अन्नदान दिया जा रहा था। और कंगले एक पर एक टूट पड़ते थे।
अहिल्या पति के पीछे खड़ी थी। मुन्नू उसकी गोद में बैठा बड़े कौतूहल से दोनों आदमियों का रोना देख रहा था।
अभी दोनों आदमियों में कोई बात भी न होने पाई थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते हुए दिखाई पड़े। सूरत से नैराश्य और चिंता झलक रही थी। शरीर भी दुर्बल था। आते ही आते उन्होंने चक्रधर को गले से लगा कर पूछा – ‘मेरा तार कब मिल गया था?’
चक्रधर – ‘कोई आठ बजे मिला होगा। पढ़ते ही मेरे होश उड़ गये। अब रानी जी की क्या हालत हैं?’
राजा – ‘वह तो अपनी आँखों से देखोगे, मैं क्या कहूं। अब भगवान ही का भरोसा है। अहा! यह शंखधर महाशय हैं।’
यह कहकर उन्होंने बालक को गोद में के लिए और स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले – ‘मेरी सुखदा बिल्कुल ऐसी ही थी। ऐसा जान पड़ता है, यह उसका छोटा भाई है। उसकी सूरत अभी तक मेरी आँखों में है। मुख से बिल्कुल ऐसी ही थी।’
अंदर जाकर। चक्रधर ने मनोरमा को देखा। वह मोटे गद्दों में ऐसे समा गई थी कि मालूम होता था कि पलंग खाली हो है, केवल चादर पड़ी हुई है। चक्रधर की आहट पाकर उसने मुँह चादर से निकाला। दीपक के क्षीण प्रकाश में किसी दुर्बल की आह! असहाय नेत्रों से वह आकाश की ओर ताक रही थी।
राजा साहब ने आहिस्ता से कहा – ‘नोरा! तुम्हारे बाबूजी आ गये।’
मनोरमा ने तकिये का सहारा लेकर कहा – ‘मेरे धन्य भाग्य! आइए बाबूजी आपके दर्शन भी हो गए। तार न जाता, तो आप क्यों आते।’
चक्रधर – ‘मुझे तो बिल्कुल खबर ही न थी। तार पहुँचने पर हाल मालूम हुआ।’
मनोरमा (बालक को देखकर) – ‘अच्छा! अहिल्या देवी भी ऐसी हैं। ज़रा यहाँ तो लाना अहिल्या। इसे छाती से लगा लूं।’
राजा – ‘इसकी सूरत सुखदा से बहुत मिलती है नोरा! बिल्कुल उसका छोटा भाई मालूम होता है।’
सुखदा का नाम सुनकर अहिल्या पहले भी चौंकी थी। अबकी वही शब्द सुनकर फिर चौंकी। बाल स्मृति किसी भूले हुए स्वप्न की भांति चेतना क्षेत्र में आ गई। उसने घूंघट की आड़ से राजा साहब की ओर देखा। उसे अपने स्मृति पट पर ऐसा ही आकार खिंचा हुए मालूम पड़ा।
बालक को स्पर्श करते ही मनोरमा के जर्जर में एक स्फूर्ति सी दौड़ गई। मानो किसी ने बुझते हुए दीपक की बत्ती उकसा दी हो। बालक को छाती से लगाए हुए उसे अपूर्व आनंद मिल रहा था। मानो बरसों से तृशित कंठ को शीतल जल मिल गया हो और उसकी प्यास न बुझती हो। वह बालक को लिए उठ बैठी और बोली – ‘अहिल्या, मैं यह लाल अब तुम्हें न दूंगी। तुमने इतने दिनों तक मेरी सुध न ली, ये उसी की सजा है।’
राजा साहब ने मनोरमा को संभालते हुए कहा – ‘लेट जाओ। देह में हवा लग रही है। क्या करती हो?’
किंतु मनोरमा बालक को लिए हुए कमरे से बाहर निकल गई। राजा साहब भी उसके पीछे-पीछे दौड़े कि कहीं वह गिर न पड़े। कमरे में केवल चक्रधर और अहिल्या रह गए। अहिल्या धीरे से बोली – ‘मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा नाम सुखदा था। जब मैं बहुत छोटी थी, तो लोग मुझे सुखदा कहते थे।’
चक्रधर ने कहा – ‘चुपचाप बैठो। तुम इतनी भाग्यवान नहीं हो। राजा साहब की सुखदा कहीं खोई नहीं, मर गई होगी।’
राजा साहब इसी वक़्त बालक को लेकर मनोरमा के साथ कमरे में आए। चक्रधर के अंतिम शब्द उनके कान में पड़ गये। बोले – ‘नहीं बाबूजी, मेरी सुखदा मरी नहीं, त्रिवेणी के मेले में गई थी। आज से बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी स्नान के लिए प्रयाग गया था। वहीं सुखदा खो गई थी। उस समय कोई चार साल की रही होगी। बहुत ढूंढा, पर कुछ पता नहीं चला। उसकी माता उसके वियोग में स्वर्ग सिधारी। मैं भी बरसों तक पागल सा बना रहा। अंत में सब्र करके बैठा रहा।‘
अहिल्या ने सामने आकर नि:संकोच भाव से कहा – ‘मैं भी तो त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी। आगरा की सेवा समिति वालों ने मुझे कहीं रोते पाया और मुझे आगरा ले गए। बाबू यशोदा नंदन ने मेरा पालन पोषण किया।’
राजा – ‘तुम्हारी क्या उम्र होगी बेटी?’
अहिल्या – ‘चौबीसवां लगा है।’
राजा – ‘तुम्हें अपने घर की कुछ याद है। तुम्हारे द्वारे किसका पेड़ था?’
अहिल्या – ‘शायद बरगद का पेड़ था। मुझे याद आता है कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।’
राजा – ‘अच्छा तुम्हारी माता कैसी थी? कुछ याद आता है!’
अहिल्या – ‘हाँ, याद क्यों नहीं आता। उनका सांवला रंग था, दुबली पतली लेकिन बहुत लंबी थी। दिन भर पान खाती रहती थी।’
राजा – ‘घर में कौन-कौन लोग थे?’
अहिल्या – ‘मेरी एक बुढ़िया दादी थी, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थी। एक नौकर था, जिसके कंधे पर मैं रोज़ सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा सा घोड़ा बंधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुआं था और पिछवाड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।’
राजा ने सजल नेत्र होकर कहा – ‘बस बस बेटी आ, तुझे छाती से लगा लूं। मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गई। मेरी सुखदा मिल गई।’
चक्रधर – ‘अभी शोर न कीजिए। संभव है आपको भ्रम हो रहा हो।’
राजा – ‘ज़रा सा भी नहीं, जरा सा भी नहीं। मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बताई, सब ठीक है। मुझे लेश मात्र भी संदेह नहीं। आह! आज तेरी माता होती, तो उसे कितना आनंद होता। क्या लीला है भगवान की। मेरी सुखदा घर बैठे ही मेरी गोद में आ गई। ज़रा सी थी, बड़ी होकर आई। अरे! मेरा शोक संताप हरने को एक बालक भी लाई। आओ भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूं। आज तक तुम मेरे मित्र थे, आज से पुत्र हो। याद है, मैंने तुम्हें जेल भिजवाया था। नोरा, ईश्वर की लीला देखी, सुखदा घर में थी और मैं उसके नाम को रो बैठा। अब मेरी अभिलाषा पूरी हो गई। जिस बात की आधा तक मिट गई थी, वह आज पूरी हो गई।’
यह कहते हुए राजा साहब उसी आवेश से दीवान खाने में जा पहुँचे। द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी। दो चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे। राजा साहब ने बच्चे को कंधे पर बिठाकर उच्च स्वर में कहा – ‘मित्रों! यह देखो, ईश्वर की असीम कृपा से मेरा नवासा घर बैठे मेरे पास आ गया। तुम लोग जानते हो कि बीस साल हुए, मेरी पुत्री सुखदा त्रिवेणी के स्नान में को गई थी। वही सुखदा आज मुझे मिल गई और यह बालक उसी का पुत्र है। आज से तुम लोग इसे अपना युवराज समझो। मेरे बाद यही मेरी रियासत का स्वामी होगा। गार्ड से कह दो, अपने युवराज को सलामी दे। नौबत खाने में कह दो, नौबत बजे। आज के सातवें दिन राजकुमार का अभिषेक होगा। अभी से उसकी तैयारी शुरू करो।’
यह हुक्म देकर राजा साहब ठाकुर द्वारे में का पहुँचे। वहाँ इस समय ठाकुर जी के भोग की तैयारियाँ हो रही थी। साधु संतों की मंडली जमा थी।
पुजारी जी ने कहा – ‘भगवान राजकुंवर को चिरंजीव करे।’
राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी। एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए सौ बीघे जमीन मिल गई। ठाकुर द्वारे से जब वह घर आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं और मनोरमा सामने खड़े खाना परोस रही है। उसके मुख मंडल पर हार्दिक उल्लास की जानती झलक रही थी। कोई यह अनुमान भी न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी कुछ देर पहले मृत्यु शैया पर पड़ी हुई थी।