पहले और अब- अनन्त मिश्र

पहले और अब- अनन्त मिश्र

पहले माँ के हाथ की
महकते घी में चुपड़ी
रोटी थी
गुड़ था,
पहले पीठ पर बस्ता था
साथ में भेली-भूजा
लड़कों का साथ था
पैदल स्कूल जाते हुए
मंजिल के लिए
बड़े-बड़े पेड़ों के निशान थे,
पहले कुआँ था
पोखरा भी
दोपहरी में तैरना था
लौटकर आने पर
पिता की डाँट थी,
शाम को ठंडई थी
रात में दाल-भात था
घी की कटोरी थी
चोखे का कटोरा था
साथ में अचार था
घर भर का प्यार था।
पहले नहीं था टेलीफोन
चिट्ठी थी
आने पर पढ़ने की उत्सुकता थी
स्त्रियों की ठिठोली थी
भौजाइयों का नेह था
घर था
और बाहर अच्छा नहीं लगता था
अब अंदर
कुछ नहीं है
सब बाहर है
अब सड़क है
हाट-बाजार है।
माल है मनसूबे हैं
नकली मुस्कान है
न कहीं चिड़ियों का खूबसूरत शोर है
न कहीं भोर है।
न दिया है
न अँधेरे में भूत
अब सब पका पकाया जीवन है
पहले वह कमाया हुआ था ।
अब घर से बाहर समाज
और आदमी अंदर से खोखला
पैसा है, चोंचला है
पर कोई नहीं घोंसला है
कि आत्मा का पक्षी
आनंद का अनुभव करे
बिसूरने से कविता नहीं बनती,
न बने
पर मन को मिलती है शांति
जो अब नहीं है
और जीते रहने की विवशता में
केवल राजनीति है
तिकड़म है, स्वार्थ है
दया नहीं, माया नहीं
कोई भगवान नहीं,
मंदिर तो बहुत हैं
पर पूजा का आसमान नहीं,
यही सब कहानी है
वर्षों से पुरानी है
जिंदगी की नानी है
आँखों में किसी के अब
रहता नहीं पानी है।

 

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