प्राणायाम- अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

प्राणायाम

प्रिये! ऐसा लगता है कि है
किन्तु है नहीं यह ब्रह्मांड,
प्रिये! है नहीं,
ऐसा लगने पर भी
यह ब्रह्मांड तो है ही।

आँसुओं से सानकर बनाए गये
एक मिट्टी के लोंदे पर
ज़ोरों से पनपता है
हमारे पूर्व जन्म के सौहार्द का आवेश।

प्रत्येक घड़ी,
प्रत्येक पल,
एक नवांकुर,
प्रत्येक अंकुर की शाखा पर खिलती
एक नयी रोशनी,
प्रत्येक रोशनी
स्नायु-जाल के लिए एक पुराना विषाद है,
प्रत्येक विषाद के सागर के भीतर
नारायण प्रभु का रूप है।

ऐसी प्रतीति का मूलाधार क्या है
यह सोचना ही सारी समस्या है
‘अहं’ का बोध न हो,
तो ही होती है ऐसी निश्चिन्तता कि
मेरे प्राण मेरे ही हैं।

तो फिर क्या हैं प्राण?
मैं उस शब्द में
ईश्वर के लास्य को देखता हूँ
ईश्वर रूपी चित्र में देखता हूँ मैं
शाश्वत प्राण-रहस्य को।

सचमुच केवल नारायण प्रभु ही
एक आश्रय है हमारे लिए
नारायण प्रभु के लिए भी कोई आश्रय नहीं
वाणीयुक्त हम लोगों के सिवा।

 

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