श्रीकान्त (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 4
अध्याय 7
रास्ते में जिन लोगों के सुख-दु:ख में हिस्सा बँटाता हुआ मैं इस परदेश में आकर उपस्थित हुआ था, घटना-चक्र से वे तो रह गये शहर के एक छोर पर और मुझे आश्रय मिला शहर के दूसरे छोर पर। इसलिए, इन पन्द्रह-सोलह दिनों के बीच उस ओर जा न सका। इसके सिवाय, सारे दिन नौकरी की उम्मीदवारी में घूमते इतना थक जाता था कि शाम के कुछ पहले वास-स्थान पर लौटने पर इतनी शक्ति ही नहीं बचती थी कि मैं कहीं भी बाहर जाऊँ। क्रम-से-क्रम जैसे-जैसे दिन बीतने लगे मेरे मन में यह धारणा होने लगी कि इस सुदूर परदेश में आने पर भी नौकरी प्राप्त करना मेरे लिए ठीक उतना ही कठिन है जितना कि देश में था।
अभया की बात याद आई। जिस आदमी पर भरोसा करके वह घर छोड़कर अपना पति खोजने आई है, पता न लगने पर उस आदमी का क्या हाल होगा। घर छोड़कर बाहर आने का मार्ग काफी खुला होने पर भी लौटने का मार्ग ठीक उतना ही प्रशस्त बना रहेगा, इतनी बड़ी आशा की कल्पना करने का साहस बंगाल देश की आबो-हवा में पले होने के कारण मुझमें नहीं है। उन्होंने अधिक दिनों तक अपना निर्वाह कर सकने लायक धन-बल संग्रह करके पैर नहीं बढ़ाया है, इसका अनुमान करना भी मेरे लिए कठिन नहीं है। बाकी बचा केवल एक रास्ता जो कि पन्द्रह आने बंगालियों का एकमात्र सहारा है-अर्थात् महीने-पन्द्रह दिन के बाद पराई नौकरी करके मरण-पर्यन्त किसी तरह शरीर में हाड़-मांस बनाए रहकर जीते रहना। यह कहने की जरूरत नहीं कि रोहिणी बाबू के लिए भी इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं था, किन्तु, रंगून के इस बाजार में केवल अपना ही पेट भरने लायक नौकरी जुटाने में जब मेरा यह हाल है तब एक स्त्री को अपने कन्धों पर लादे हुए अभया के उस बेचारे बिना ढंग-ढौल के गुमसुम ‘भइया’ का क्या हाल होगा इसकी कल्पना करके मैं भयभीत हो उठा। मैंने स्थिर किया कि जैसे बने, कल एक दफे जाकर उनकी खबर जरूर लूँगा।
दूसरे दिन शाम के समय करीब दो कोस जमीन खोदकर उनके वास-स्थान पर पहुँचा और देखा कि बाहर के बरामदे में एक छोटे-से मोढ़े पर रोहिणी भइया बैठे हुए हैं। उनका मुख-मण्डल बादल छाए हुए ‘आषाढस्य प्रथम दिवसे’ की तरह गुरु-गम्भीर हो रहा है। बोले, “ओह श्रीकान्त बाबू! आप अच्छे तो हैं?”
मैं बोला, “जी, अच्छा ही हूँ।”
“जाइए, भीतर जाकर बैठिए।”
मैंने डरते हुए पूछा, “आप लोग तो सब अच्छे हैं?”
“हूँ- भीतर जाइए न, वे घर में ही हैं।”
“अच्छा जाता हूँ- आप भी आइए न?”
“नहीं, मैं यहीं पर कुछ देर आराम करूँगा। परिश्रम करते-करते एक तरह से मेरी हत्या ही हुई जाती है- दो घड़ी पैर फैलाकर कुछ बैठ ही लूँ।” वे परिश्रम की अधिकता से मरे हुए से हो गये हैं उनके चेहरे पर से यह प्रकाशित न होते हुए भी मैं मन ही मन कुछ उद्विग्न हो उठा। रोहिणी भइया के भीतर भी इतनी गम्भीरता इतने दिन से प्रच्छन्न रूप में वास कर रही है, अपनी आँखों देखे बिना यह विश्वास करना कठिन था। किन्तु मामला क्या है? मैं खुद भी तो रास्ते-रास्ते की धूल छानकर ऊब उठा हूँ। मेरे यह रोहिणी भइया भी क्या-
किवाड़ों की आड़ में से अभया ने अपना हँसता हुआ चेहरा बाहर निकालकर गुपचुप इशारा करके मुझे भीतर बुलाया। दुविधा में पड़कर मैंने कहा, “चलिए न रोहिणी भइया, भीतर चलकर गप-शप करें।”
रोहिणी भइया ने जवाब दिया, “गप-शप! इस समय मर जाऊँ तो जान बचे, यह जानते हो श्रीकान्त बाबू?”
“नहीं जानता”, यह मुझे स्वीकार करना पड़ा। उन्होंने जवाब में केवल एक प्रचण्ड उसास छोड़ी और कहा, “दो दिन बाद ही मालूम हो जायेगा।”
अभया के दुबारा गुप-चुप बुलाने पर बाहर अधिक देर बहस न करके मैंने अन्दर प्रवेश किया। भीतर रसोई-घर के सिवाय दो और कमरे सोने के हैं। सामने का कमरा ही बड़ा है और उसी में रोहिणी बाबू सोते हैं। एक ओर रस्सी की खाट पर उनके बिस्तर हैं। अन्दर घुसते ही देखा फर्श के ऊपर आसन बिछा है, एक ओर रकाबी में पूरी-तरकारी, थोड़ा-सा हलुआ और एक गिलास जल रखा हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि ज्योतिष से पता लगाकर यह आयोजन दोपहर से ही कुछ मेरे लिए तैयार नहीं किया गया है, इसलिए क्षणभर में ही मैं समझ गया कि कुछ लड़ाई-झगड़ा चल रहा था। इसीलिए रोहिणी भइया का मुँह बादलों से ढँका हुआ है, इसीलिए वे मर जाऊँ तो जान बचने की बात कर रहे हैं। मैं चुपचाप खाट पर जाकर बैठ गया। अभया ने थोड़ी-सी दूर खड़े होकर पूछा, “आप अच्छे तो हैं? इतने दिनों बाद शायद गरीबों का खयाल आया है?”
भोजन के थाल को दिखाकर मैंने कहा, “मेरी बात पीछे होगी। किन्तु यह क्या है?”
अभया हँसी और कुछ देर चुप रहकर बोली, “यह कुछ नहीं है, आप कैसे हैं सो कहिए।”
“कैसा हूँ सो मैं खुद नहीं जानता, दूसरे को किस तरह बताऊँ?” फिर कुछ सोचकर बोला, “जब तक कोई नौकरी न मिल जाय तब तक इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। रोहिणी बाबू कहते थे-” मेरे मुँह की बात मुँह में ही रह गयी। रोहिणी भइया अपनी फटी चिट्ठियों से अस्वाभाविक फटर-फटर शब्द करते हुए भीतर घुस आए और किसी की ओर भी दृष्टिपात किये बगैर उन्होंने पानी का गिलास उठा लिया। एक ही साँस में उन्होंने उसे आधा खाली कर दिया। बाकी दो-तीन घूँट में जबर्दस्ती पीकर शून्य गिलास काठ की मेज पर रख दिया, और वे यह कहते-कहते बाहर चल दिए, “जाने दो खाली पानी पीकर ही पेट भर लूँ। मेरा यहाँ पर और कौन बैठा है जो भूख लगने पर खाने को देगा!”
मैंने अवाक् होकर अभया की ओर ताका। पल-भर के लिए उसका मुँह सुर्ख हो गया; किन्तु, उसी क्षण उसने अपने आपको सँभाल लिया और पहले दीखता है!”
रोहिणी ने यह बात कानों पर ही नहीं दी, और वे बाहर चल दिए, किन्तु, आधा मिनट खत्म होने के पहले ही वापिस लौट आए और किवाड़ें के सामने खड़े होकर मुझे सम्बोधन कर बोले, “सारे दिन ऑफिस में मेहनत करने के बाद भूख के मारे सिर चक्कर खा रहा था श्रीकान्त बाबू, इसीलिए उस समय आपसे बात न कर सका, कुछ खयाल न करिएगा।”
मैंने कहा, “नहीं।”
“उन्होंने फिर कहा, “आप जहाँ ठहरे हैं वहाँ मेरे लिए भी जरा-सा बन्दोबस्त कर सकते हैं?”
उनके मुँह की भाव-भंगी को देखकर मैं हँस पड़ा! बोला, किन्तु वहाँ पर पूडियों और मोहन-भोग का डौल नहीं है।”
रोहिणी भइया बोले, “जरूरत ही क्या है! भूख के समय कोई यदि जरा-सा गुड़ और जल देवे तो वह अमृत है। यहाँ तो वह भी कौन देता है?”
मैंने जानने की इच्छा से अभया की ओर दृष्टि डाली। तुरन्त ही वह धीरे से बोली, “सिर दर्द करता था। इसलिए बेवक्त सो गयी थी, और इसी कारण भोजन बनाने में आज जरा-सी देर हो गयी श्रीकान्त बाबू।”
मैंने आश्चर्य के साथ कहा, “बस, यही अपराध है?”
अभया ने उसी तरह शान्त-भाव से कहा, “यह क्या कोई तुच्छ अपराध है श्रीकान्त बाबू?”
“तुच्छ नहीं तो और क्या है?”
अभया बोली, “आपके समीप तुच्छ हो सकता है, किन्तु जो महाशय अपनी इस फिजूल की गले-पडूको खाने देते हैं वे कैसे माफ करेंगे? मेरा सिर दर्द करे तो उनका काम कैसे चल सकता है?”
रोहिणी बाबू एकदम तड़क कर गर्ज उठे और बोले, “तुम गले-पड़ू हो, मैंने यह कब कहा?”
अभया बोली, “कहोगे क्यों, हजार तरह से दिखा तो रहे हो?”
रोहिणी भइया बोले, “दिखा रहा हूँ! ओह, तुम्हारे मन में जलेबी जैसा पेंच है! यह तुमने मुझसे कब कहा था कि सिर दर्द कर रहा है?”
अभया ने कहा, “कहने से लाभ ही क्या था? क्या तुम विश्वास करते?”
रोहिणी भइया मेरी ओर पलटकर ऊँचे कण्ठ से बोल उठे, “सुनिये श्रीकान्त बाबू, ये सब बातें सुन रखिए। इन्हीं के लिए मैंने देश का त्याग किया- घर लौटने का रास्ता बन्द हो गया- अब इनके मुँह की बात सुनिये। ओह-”
अभया ने भी इस दफे गुस्स् से जवाब दिया, “मेरा जो होना होगा हो जाएगा, तुम्हारी जब इच्छा हो देश लौट आओ! मेरे लिए तुम क्यों इतना कष्ट सहोगे? तुम्हारी कौन होती हूँ मैं? इस तरह ताना कसने की अपेक्षा…”
उसकी बात पूरी भी न होने पाई थी कि रोहिणी भइया करीब-करीब चीत्कार कर उठे, “सुनिए श्रीकान्त बाबू, दो रोटी पका देने के लिए- ये बातें आप जरा सुन रखिए। अच्छा, आज से कभी तुमने यदि मेरे लिए रसोईघर में पैर रखा तो तुम्हें बहुत ही बड़ी- बल्कि मैं होटल में-” कहते-कहते उनका गला रुलाई से भर आया, वे धोती का छोर मुँह पर लगाकर तेजी से कदम रखते हुए मकान के बाहर हो गये। अभया ने अपना उतरा हुआ चेहरा नीचे झुका लिया- न जाने आँखों के आँसू छिपाने के लिए या यों ही; किन्तु मैं तो एकदम काठ हो गया। कुछ दिनों से दोनों के बीच अनबन हो रही है, यह तो आँखों से ही देख लिया; किन्तु, इसका गहरा हेतु दृष्टि से बिल्कु’ल परे होने पर भी वह क्षुधा और भोजन बनाने की त्रुटि से बहुत-बहुत दूर है, यह समझने में मुझे जरा-सा भी विलम्ब नहीं लगा। तो फिर, क्या पति खोजने की बात भी-
मैं उठकर खड़ा हो गया। इस नीरवता को भंग करने में मुझे खुद भी जैसे संकोच होने लगा। कुछ इधर-उधर करके अन्त में मैंने कहा, “मुझे बहुत दूर जाना है- इस समय तो अब चलता हूँ।”
अभया ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “अब कब आइएगा?”
“बहुत दूर!”
“तो फिर जरा ठहर जाइए” कहकर अभया बाहर चली गयी। पाँच-छह मिनट बाद लौटकर आई और मेरे हाथ में एक टुकड़ा कागज देकर बोली, “जिस काम के लिए मैं आई हूँ वह सब इसमें लिख दिया है। पढ़कर जो नीक जँचे सो कीजिएगा। मैं आपसे कुछ अधिक कहना नहीं चाहती।” इतना कहकर गले में आँचल डालकर आज उसने मुझे प्रणाम किया और फिर उठकर पूछा, “आपका ठिकाना क्या है?”
सवाल का जवाब देकर मैं उस छोटे से कागज को मुट्ठी में छिपाकर धीरे-धीरे निकल आया। बरामदे के बाहर का वह मोढ़ा इस समय शून्य था। रोहिणी भइया को भी मैं आसपास कहीं न देख सका। डेरे पर पहुँचने तक मैं अपना कुतूहल दमन न कर सका! पास में ही रास्ते के बगल में एक छोटी-सी चाय की दुकान देखकर उसमें घुस गया और लैम्प के उजाले में मैंने उस पत्र को अपनी आँखों के सम्मुख खोलकर रख लिया। पेंन्सिल की लिखावट थी किन्तु ठीक पुरुष के से हस्ताक्षर थे। सबसे पहले उसने अपने पति का नाम और उसका पुराना ठिकाना देकर नीचे लिखा था, “आज आप जो अपने मन में धारणा लिये जा रहे हैं सो मैं जानती हूँ; और विपत्ति के समय मुझे आपका कितना भरोसा है सो भी आप जानते हैं। इसीलिए मैंने आपका ठिकाना पूछ लिया है।”
अभया के इस लेख को मैंने बार-बार पढ़ा परन्तु उसमें इन कुछ थोड़ी-सी बातों के सिवाय और किसी भी अतिरिक्त बात का अन्दाजा नहीं लग सका। आज इन लोगों का परस्पर व्यवहार अपनी नजर से देखकर कोई बाहरी आदमी जो भी सोच सकता है उसका अनुमान करना अभया सरीखी बुद्धिमती रमणी के लिए बिल्कुाल ही कठिन नहीं है। किन्तु फिर भी वह अन्दाज सही है या गलत, इस सम्बन्ध में बिन्दु-मात्र भी उसने इशारा नहीं किया। उसके पति का नाम और ठिकाना तो मैंने पहले ही सुना है, पर विपत्ति के समय वह उसकी खोज करना चाहती है या नहीं, अथवा और कौन-सी विपत्ति अवश्यम्भावी समझकर उसने मेरा पता ले लिया है- आदि किसी बात का आभास तक भी मैं उस लेख में खोजकर बाहर न निकाल सका। बातचीत से अनुमान होता है कि रोहिणी किसी दफ्तर में नौकरी पा गया है। किस तरह पा गया है सो भी मुझे मालूम नहीं हुआ। पर हाँ खाने-पीने की दुश्चिन्ता कम से कम मेरी तरह उन्हें नहीं है- पूड़ियाँ भी खाने को मिल जाती हैं। फिर भी, अभया ने किस किस्म की विपत्ति की सम्भावना के लिए मुझे तैयार कर रक्खा है और ऐसा करने से उसने क्या लाभ सोच रक्खा है, सो अभया ही जाने।
बाहर निकलकर रास्ते-भर मैं केवल इन्हीं लोगों के विषय में सोचता सोचता डेरे पर पहुँचा। कुछ भी स्थिर नहीं कर सका। लेकिन यही निश्चय किया कि अभया का पति कोई भी क्यों न हो और चाहे जहाँ, चाहे जिस तरह क्यों न हो, स्त्री की विशेष अनुमति बगैर उसे खोज निकालने का कुतूहल मुझे रोक ही रखना होगा।
दूसरे दिन से मैं फिर अपनी नौकरी की उम्मीदवारी में लग गया; किन्तु हजारों चिन्ताओं में भी अभया की चिन्ता को मन के भीतर से झाड़कर नहीं फेंक सका।
किन्तु, चिन्ता चाहे जितनी ही क्यों न करूँ, दिन के बाद दिन समान-भाव से लुढ़कने लगे। इधर भाग्यवादी दादा ठाकुर का प्रफुल्ल चेहरा धीरे-धीरे मेघाच्छन्न होने लगा। भोजन में तरकारियाँ भी पहले परिमाण में और फिर संख्या में धीरे-धीरे विरल होने लगीं। किन्तु, नौकरी ने मेरे सम्बन्ध में जरा भी अपना मत-परिवर्तन नहीं किया। जैसी नजर से उसने पहिले दिन देखा था महीने भर से अधिक बीतने के बाद भी ठीक उसी नजर से वह देखती रही। तब न जाने किसके ऊपर मैं क्रमश: उत्कण्ठित और विरक्त होने लगा। किन्तु, उस समय तक मैं यह नहीं जानता था कि जब तक नौकरी करने की पूरी जरूरत न हो तब तक वह दर्शन नहीं देती। यह ज्ञान एक दिन एकाएक रास्ते में रोहिणी बाबू को देखकर प्राप्त हुआ। वे बाजार में रास्ते के किनारे शाक-सब्जी खरीद रहे थे। मैं चुपचाप उनके निकट खड़ा होकर देखता रहा। यद्यपि उनके शरीर पर के कपड़े, जूते आदि जीर्णता की प्राय: चरम सीमा को पहुँच चुके हैं- भयंकर कड़ी धूप में सिर पर एक छतरी तक नहीं है, किन्तु, खाद्य पदार्थ वे बड़े आदमियों की तरह खरीद रहे हैं। इस कार्य में ढूँढ़-खोज और जाँच-परख की भी कोई हद नहीं है। झंझट और जहमत चाहे जितनी क्यों न उठानी पड़े अच्छी चीज खरीदने की ओर उनके प्राण लगे हुए हैं। पलक मारते सारा व्यापार मेरी नजर के सामने तैर आया। इस खरीद-बिक्री के भीतर से उनका व्यग्र व्याकुल प्रेम कहाँ जाकर पहुँच रहा है, यह मानो मैं सूर्य के प्रकाश के समान सुस्पष्ट देख सका। क्यों यह सब लेकर उन्हें अपने मकान पर पहुँचना ही चाहिए और क्यों उन्हें इन सब चीजों का मूल्य देने के लिए नौकरी खोजनी ही पड़ी, इस समस्या की मीमांसा करने में जरा-सी देर न लगी। आज मैं साफ-साफ समझ गया कि क्यों इन मनुष्यों के जंगल में उन्होंने अपना रास्ता पा लिया है और क्यों में अभी तक असफल रहा हूँ।
यह दुबला-पतला आदमी रंगून के राजमार्ग पर एक बड़ी-सी गठरी हाथ में लिये हुए सैकड़ों जगह फटे हुए मैले कपड़े पहने घर की ओर जा रहा है, आड़ में से मैंने उसके परितृप्त मुख की ओर नजर की। अपनी ओर नजर करने का मानो उसे अवकाश ही नहीं है। जिस वस्तु से उसका हृदय परिपूर्ण हो रहा है उससे उसके निकट कपड़े-लत्तों का दैन्य मानो एक बारगी अकिंचित्कर हो गया है। और मैं अपने कपड़ों के साधारण से मैलेपन के ही कारण मानो प्रत्येक कदम पर शर्म के मारे सिकुड़कर जड़ हुआ जाता हूँ। रास्ते पर से चलने वाले बिल्कुखल अपरिचित व्यक्ति की भी अपने ऊपर नजर पड़ते देख शर्म के मारे मरा जाता हूँ!
रोहिणी भइया चले गये। मैंने उन्हें नहीं पुकारा और दूसरे क्षण ही वे लोगों के बीच अदृश्य हो गये। क्यों, सो मुझे मालूम नहीं, पर इस बार आँसुओं के मारे मेरी दोनों आँखें धुँधली हो गयीं। चादर के छोर से उन्हें पोंछते हुए रास्ते के किनारे धीरे-धीरे मैं अपने डेरे पर लौट आया और बार-बार मन ही मन कहने लगा, इस प्रेम से बढ़कर शक्ति, इस प्रेम से बढ़कर शिक्षक संसार में शायद और कोई नहीं। ऐसी कोई बड़ी बात नहीं जिसे यह न कर सके।
फिर भी, बहुत युगों का संचित अन्ध संस्कार मेरे कानों में चुपचाप कहने लगा- यह शुभ नहीं है, यह पवित्र नहीं है- अन्त तक इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।
डेरे पर पहुँचते ही एक बड़ा लिफाफा मिला। खोलकर देखा, नौकरी की दरख्वास्त मंजूर हो गयी है। सागौन की लकड़ी का एक बड़ा भारी व्यापारी अनेक लोगों के आवेदन-पत्र होते हुए भी मुझ गरीब पर ही प्रसन्न हुआ है। भगवान उसका भला करें।
नौकरी नामक वस्तु से पुराना परिचय न था इसलिए, उसे पाकर भी मन में सन्देह बना रहा कि बहुत दिनों तक बनी रहेगी या नहीं। मेरे जो साहब हुए थे वे सच्चे साहब (अंगरेज) होकर भी, देखा कि बंगला भाषा खूब जानते हैं, क्योंकि, कलकत्ते के ऑफिस से बदलकर बर्मा आए थे।
दो हफ्ते की नौकरी के उपरान्त ही उन्होंने बुलाकर कहा, “श्रीकान्त बाबू, तुम इस टेबल पर आकर काम करो, तनख्वाह भी इससे करीब ढाई गुनी पाओगे।”
मैंने प्रकट रूप से तथा मन ही मन भी साहब को लाखों आशीर्वाद देते हुए उस हड्डी-पसली निकली हुई टेबल को छोड़कर एकदम हरी बनात मढ़ी हुई टेबल पर दखल जमा लिया। मनुष्य का जब भला होना होता है तब इसी तरह होता है- हम लोगों के होटल के दादा ठाकुर ने बिल्कुयल ही मिथ्या नहीं कहा है।
किराये की गाड़ी पर चढ़कर यह खुशखबरी अभया को देने गया। रोहिणी भइया ऑफिस से लौटकर जलपान करने बैठे थे; किन्तु, आज उन्हें केवल पानी पीकर अपनी भूख मिटाते हुए नहीं देखा। बल्कि, आज जिस तरह वे अपनी भूख पूरी कर रहे थे, उस तरह पूरी करते संसार में और चाहे जिसे आपत्ति हो, मुझे तो नहीं थी। अतएव यह कहना फिजूल है कि अभया के भोजन के प्रस्ताव पर मैंने अपनी असम्मति नहीं प्रकट की। खाना-पीना शेष होते ही रोहिणी भइया कोट पहिरने लगे। अभया ने खिन्न कण्ठ से कहा, “तुमसे मैं बराबर कहती आती हूँ रोहिणी भइया, कि यह शरीर लेकर इतना परिश्रम मत किया करो, क्या तुम किसी तरह भी न सुनोगे? अच्छा हम लोग क्या करेंगे अधिक रुपयों का? दिन तो हमारे अच्छी तरह कट ही रहे हैं।”
रोहिणी भइया के चक्षुओं से मानो स्नेह झरने लगा। वे हँसकर बोले, “अच्छा, अच्छा, सो ठीक। एक रसोइया तक तो रख नहीं सकता, चूल्हे के नजदीक दोनों वेला पचते-पचते तुम्हारी तो देह सूख गयी है।” वे इतना कहकर पान खाकर, जल्दी-जल्दी कदम रखते हुए बाहर चल दिए।
अभया एक छोटी साँस दबाकर, जबरन जरा हँसकर बोली, “देखिए तो श्रीकान्त बाबू, इनका अन्याय! सारे दिन जी-तोड़ मेहनत करने के बाद घर आकर कुछ आराम करें, सो तो नहीं, अब रात को भी नौ बजे तक लड़कों को पढ़ाने बाहर चले गये हैं। मैं इतना कहती हूँ, पर किसी तरह सुनते ही नहीं। दो आदमियों की रसोई के लिए रसोइया रखने की, कहो तो, जरूरत ही क्या है? है न यह सब इनकी ज्यादती?” इतना कहकर उसने एक ओर को आँखें फेर लीं।
मैं धीरे से कुछ हँस दिया। ‘ना’ या ‘हाँ’ जवाब देना मेरे लिए सम्भव नहीं था- मेरे विधाता के लिए भी सम्भव था या नहीं, इसमें भी सन्देह है।
अभया उठकर गयी और एक पत्र लाकर उसने मेरे हाथ पर रख दिया। कुछ दिन हुए वह बर्मा रेलवे कम्पनी के ऑफिस से आया था। बड़े साहब ने दु:ख प्रकाशित करते हुए लिखा था कि अभया का पति करीब दो वर्ष पहले किसी बहुत बड़े अपराध के कारण कम्पनी की नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया है, तब से वह कहाँ चला गया सो वे नहीं जानते।
हम दोनों ही बहुत देर तक सन्न होकर बैठे रहे। अन्त में अभया ने ही मौन तोड़ा, “अब आप क्या सलाह देते हैं?”
मैंने धीरे से कहा, “मैं क्या सलाह दूँ?”
अभया सिर हिलाकर बोली, “नहीं, सो नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थिति में आपको ही कर्तव्य स्थिर कर देना होगा। इस पत्र के मिलने के बाद से ही मैं बड़ी आशा से आपकी राह देख रही हूँ।”
मैंने मन ही मन कहा, बहुत खूब! मेरी राय लेकर ही घर से बाहर निकली थीं न, जो मेरी सलाह के लिए राह जोह रही हो!
बहुत देर तक चुप रहकर पूछा, “घर लौट जाने के सम्बन्ध में आपका क्या मत है?”
अभया बोली, “कुछ भी नहीं। आप कहें तो जा सकती हूँ, किन्तु मेरे तो वहाँ कोई है नहीं।”
“रोहिणी बाबू क्या कहते हैं?”
“वे कहते हैं कि नहीं लौटेंगे। कम से कम दस बरस तक तो वे उस ओर मुँह भी नहीं फिराएँगे।”
बहुत देर तक चुप रहकर मैंने कहा, “वे क्या आपका बोझा बराबर सँभाले रह सकेंगे?”
अभया बोली, “पराये मन की बात, कहिए किस तरह जानूँ? इसके सिवाय वे खुद भी किस तरह जान सकते हैं?” इतना कहकर क्षण-भर वह चुप रही, फिर बोली, “एक बात और है। मेरे लिए वे जरा भी जिम्मेदार नहीं हैं। दोष कहो, भूल कहो, जो कुछ है सो मेरी है।”
गाड़ीवान ने बाहर से पुकारा, “बाबू, और कितनी देर लगेगी?”
जैसे मेरी जान बच गयी। इस अवस्था-संकट के भीतर से सहसा परित्राण पाने का कोई उपाय मुझे खोजे नहीं मिल रहा था। यह सच है कि विश्वास करने को मेरा दिल नहीं चाहता था कि अभया वास्तव में ही अपार सागर में गिरकर गोते खा रही है, किन्तु मैंने स्त्रियों की इतने तरह की उलटी-सुलटी अवस्थाएँ देखी हैं कि बाहर से इन आँखों पर विश्वास कर लेना कितना बड़ा अन्याय है, सो मैं नि:संशय रूप से समझता था।
गाड़ीवान का एक दफे और बुलाना था कि मैं क्षण-भर भी विलम्ब किये बगैर उठ खड़ा हुआ और बोला, “मैं शीघ्र ही और एक दिन आऊँगा।” इतना कहकर मैं तेजी से बाहर हो गया। अभया और कुछ न बोली। निश्चल मूर्ति की तरह जमीन की ओर देखती रह गयी।
गाड़ी में बैठते ही गाड़ी चल दी; दस हाथ भी नहीं गया था कि याद आया, छड़ी तो कहीं भूल आया हूँ। तुरन्त गाड़ी खड़ी की और मकान में प्रवेश करते ही देखा कि ठीक दरवाजे के सामने अभया उलटी पड़ी है और बाण से विधे हुए पशु की तरह अव्यक्त वेदना से पछाड़ खाकर मानो प्राण विसर्जन कर रही है।
क्या कहकर उसे सांत्वना दूँ, सो मेरी बुद्धि के परे की वस्तु थी। वज्राहत की तरह कुछ देर सन्न रहकर उसी तरह चुपचाप लौट आया! अभया जिस तरह रो रही थी उसी तरह रोती रही। उसे यह मालूम ही न हो सका कि उसकी इस निगूढ़ असीम वेदना का एक मौन साक्षी भी इस जगत में विद्यमान है।
राजलक्ष्मी का अनुरोध मैं भूला नहीं था। पटने को पत्र लिखने की बात, जब आया था तभी से, मेरे मन में थी। किन्तु, पहली बात तो यह कि संसार में जितने भी कठिन काम हैं, उनमें चिट्ठी लिखने को मैं किसी से भी कम नहीं समझता। इसके सिवाय, फिर लिखूँ भी क्या? किन्तु, अभया का रोना मेरे दिल में इस तरह भारी हो उठा कि उसमें का कुछ अंश बाहर निकाल दिये बगैर मेरी गति ही नहीं है, ऐसा मालूम होने लगा। इसीलिए, डेरे पर पहुँचते ही कागज-कलम जुटाकर बाईजी को पत्र लिखने बैठ गया। और उसको छोड़कर मेरे दु:ख का अंश बँटाने वाला था ही कौन? दो-तीन घण्टे बाद इस ‘साहित्य-चर्चा’ को समाप्त करके जब मैंने कलम रखी तब रात के बारह बज गये थे। किन्तु, कहीं सुबह दिन के उजालें में उस चिट्ठी को भेजने में लज्जा न आने लगे, इसलिए, मिजाज गर्म रहते-रहते ही मैं उसे उसी समय डाक-बॉक्स में छोड़ आया।
मुझे सन्देह था कि एक भले घर की स्त्री की निदारुण वेदना का गुप्त इतिहास और किसी दूसरी स्त्री पर प्रकट करना चाहिए या नहीं; किन्तु अभया के इस परम और चरम संकट के समय वह राजलक्ष्मी, जिसने कि एक दिन प्यारी बाई की मर्मान्तिक तृष्णा दमन की थी, उसके लिए क्या नेक सलाह देती है, यह जानने की आकांक्षा ने मुझे एकदम बेकाबू कर दिया। किन्तु अचरज की बात यह है कि इस सवाल को उलट-पलटकर मैंने एक बार भी नहीं सोचा। अभया के पति का पता न लगने की समस्या भी बार-बार मन में आ रही थी, किन्तु पता लगने पर यह समस्या और भी अधिक जटिल हो सकती है, यह चिन्ता एक दफे भी उदित नहीं हुई। और इस गोरखधन्धे को सुलझाने का भार भी विधाता ने मेरे ही ऊपर निर्दिष्ट कर रक्खा है सो भी किसने सोचा था?
तीन-चार दिन के बाद मेरा एक बर्मी क्लर्क टेबल पर एक फाइल रख गया। उस पर नीली पेन्सिल से लिखा हुआ बड़े साहब का मन्तव्य था। उन्होंने मुझे ‘केस’ का फैसला करने का हुक्म दिया था। मामले को शुरू से आखीर तक पढ़कर कुछ मिनट के लिए मैं सन्न होकर रह गया। घटना संक्षेप में यह थी कि हमारे प्रोम ऑफिस के एक क्लर्क को वहाँ के अंगरेज मनेजर ने लकड़ी चुराने के सन्देह में सस्पेण्ड करके रिपोर्ट की है। क्लर्क का नाम देखकर ही मुझे मालूम हो गया कि यही हमारी अभया का पति है। इसकी भी चार-पाँच पेज की कैफियत थी। बर्मा रेलवे में भी किसी गम्भीर अपराध के कारण यह नौकरी से बरखास्ते हुआ होगा, यह अनुमान करने में भी मुझे देर नहीं लगी।
थोड़ी ही देर बाद उस क्लर्क ने आकर कहा कि एक भले आदमी आपसे मिलना चाहते हैं। इसके लिए मैं तैयार ही था और मैं निश्चय से जानता था कि प्रोम से वह स्वयं केस की पैरवी करने आवेगा। इसलिए, जब कुछ ही मिनट बाद उसने सशरीर आकर दर्शन दिए तब अनायास ही मैंने पहिचान लिया कि यही अभया का पति है। उसकी ओर देखते ही सारा शरीर मानो घृणा से कण्टकित हो गया। पहिने था वह हैट-कोट, किन्तु जितने ही पुराने उतने ही गन्दे। काला मुँह सारा बड़ी-बड़ी मूँछों और दाढ़ी से ढँका हुआ था। नीचे का होठ शायद डेढ़ इंच मोटा था। और पान उसने इतने अधिक खाए थे कि उनका रस दोनों ओर जम गया था- उसके बात करते समय डर लगता था कि कहीं छिटककर अंग पर न आ पड़े।
यह मैं जानता हूँ कि पति ही स्त्री का देवता है-वही उसका इहलोक और परलोक है, किन्तु, इस मूर्तिमान नीचता के निकट अभया की कल्पना करते हुए मेरा शरीर और मन संकुचित हो उठा। अभया और चाहे जो हो फिर भी सुन्दर देह वाली सुरुचि सम्पन्न कुलीन महिला है, किन्तु, यह भैंसा बर्मा के किस घने जंगल में से एकाएक बाहर निकल आया है सो जिन ब्रह्मदेव ने इसे बनाया है वे ही बता सकते हैं।
बैठने का इशारा करके मैंने पूछा कि तुम्हारे विरुद्ध जो इलजाम लगाया गया है वह क्या सत्य है? इसके जवाब में वह दस मिनट तक अनर्गल बकता रहा। भावार्थ यह था कि मैं बिल्कुदल ही निर्दोष हूँ; और मेरे रहते प्रोम ऑफिस का साहब दोनों हाथों लूट नहीं कर सकता था, यही उसके क्रोध का कारण है। जिस तरह भी हो, मुझे अलग करके एक अपने ही आदमी को भरती कर लेने के लिए उसकी यह चाल है। मुझे उसकी बात पर जरा भी विश्वास नहीं हुआ। मैंने कहा, “यह नौकरी चली जाय तो भी आपके समान होशियार व्यक्ति के लिए बर्मा में चिन्ता ही किस बात की है? रेलवे की नौकरी छूट जाने पर कितने-से दिन आपको खाली बैठना पड़ा था?”
वह मनुष्य पहले तो अकचकाया, फिर बोला, “आप कहते हैं सो बिल्कुतल झूठ नहीं है। किन्तु आप जानते हैं महाशय, फैमिली-मैन हूँ, बहुत-से बच्चे कच्चे…”
“आपने क्या किसी बर्मी स्त्री से विवाह कर लिया है?”
वह एकाएक बोल उठा, “साहब-साले ने रिपोर्ट में लिख दिया दिखता है। इसी से आपको उसकी नाराजगी मालूम हो सकती है!” यह कहकर वह मेरे मुँह की ओर ताककर और कुछ नरम होकर बोला, “आप क्या इस पर विश्वास करते हैं?”
मैंने गर्दन हिलाकर कहा, “इसमें बुराई ही क्या है?”
वह उत्साहित होकर बोला, “ठीक कहते हैं महाशय, मैं तो यह सबसे कहता हूँ कि जो करूँगा सो ‘बोल्डली’ स्वीकार करूँगा। मैं ऐसा नहीं हूँ कि अन्दर कुछ और बाहर कुछ। और फिर मैं ठहरा मर्द- आप जानते ही हैं। जो कहूँगा सो साफ-साफ कहूँगा महाशय, लुकाने-छुपाने की बात नहीं। और फिर देश में तो मेरा कहीं कोई है नहीं- और जब यहाँ ही रहकर चिरकाल तक नौकरी करके पेट भरना है तब- आप समझते ही हैं महाशय।’ मैंने सिर हिलाकर बताया कि मैं सब समझता हूँ। फिर पूछा, “आपका देश में क्या कोई भी नहीं है?”
वह मनुष्य चेहरे पर जरा भी मैल लाए बगैर बोला, “जी नहीं, कहीं कोई नहीं है- काकस्य परिवेदना।’ यदि कोई होता तो फिर मैं इस सूर्य मामा के देश में आ पाता! महाशय, आप विश्वास न करेंगे, मैं ऐसे-वैसे घर का लड़का नहीं हूँ, कभी हम लोग भी जमींदार थे! आज भी यदि आप देश के हमारे मकान को देखें तो आपकी आँखें चकरा जाँय। किन्तु, छोटी उम्र में ही सब मर-खप गये। मैंने कहा, जाने भी दो; घर-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद यह सब है किसके लिए? सब कुछ जात-बिरादरी वालों को बाँटकर मैं बर्मा चला आया।”
जरा स्थिर होकर पूछा, “आप अभया को जानते हैं?”
वह चौंक उठा। कुछ देर मौन रहकर बोला, “आपने उसे कैसे जाना?”
मैंने कहा, “ऐसा भी तो हो सकता है कि आपका पता लगाकर उसने अपने भरण-पोषण के लिए इस ऑफिस में दरख्वास्त दी हो?” वह कुछ अधिक प्रसन्न स्वर से बोला, “ओ:, यही कहिए न! सो मैं स्वीकार करताहूँ, एक समय वह मेरी स्त्री थी…”
“और अब?”
“कोई नहीं। मैं उसे त्यागकर चला आया हूँ।”
“उसका अपराध?”
वह मनुष्य चेहरे पर बनावटी दु:ख लाकर बोला, “आप जानते हैं महाशय, फैमिली सिक्रेट’ कहना उचित नहीं। किन्तु, इस समय आप मेरे आत्मीयों की तरह हैं, इसलिए कहने में कुछ लज्जा नहीं है कि वह एक दुश्चरित्र औरत है। इसी मानसिक घृणा के कारण ही तो मुझे देश छोड़ना पड़ा। नहीं तो क्या कोई शौक से इस देश में कदम रख सकता है? आप ही कहिए न, कि यह क्या कोई ऐसी-वैसी घृणा की बात है।”
जवाब क्या दूँ? लाज के मारे मेरा मुँह नीचा हो गया। शुरू से ही मैंने इस घोर मिथ्यावादी की एक बात पर भी विश्वास नहीं किया था; किन्तु अब मुझे नि:सन्दिग्ध रूप से मालूम हो गया कि यह जितना नीच है उतना ही क्रूर भी है।
अभया के सम्बन्ध में मैं कुछ अधिक नहीं जानता हूँ, किन्तु फिर भी शपथ खाकर कह सकता हूँ कि जो अपवाद पति होकर इस पाखण्डी ने उसके सिर बिना किसी संकोच के लगा दिया, गैर होकर भी मैं उसे मुँह से नहीं निकाल सकता। कुछ देर बाद मुँह उठाकर मैंने कहा, “उसके इस अपराध की बात आपने आते समय तो उससे कही नहीं थी। और जब यहाँ आकर भी कुछ दिनों तक आप चिट्ठी पत्री और रुपया-पैसा भेजते रहे, तब भी पत्र के द्वारा उस पर यह बात प्रकट नहीं की।”
वह महापापी स्वच्छन्दता से अपने विराट स्थूल होठों को फाड़कर हँसता हुआ बोला, “यही तो बात है। आप जानते ही हैं महाशय, कि हम शरीफ आदमी हैं। हम लोग चुपचाप सब कुछ सहन कर लेते हैं, परन्तु हलके लोगों की तरह अपनी स्त्री के कलंक का नगाड़ा नहीं पीट सकते। खैर, ये सब दु:ख की बातें छोड़ दीजिए महाशय, ऐसी स्त्रियों का नाम मुँह पर लाने से भी पाप होता है। तो फिर, ‘केस’ तो आप ही ‘डिस्पोज’ (निर्णय) करेंगे न? मेरी जान बची, खैरियत हुई; किन्तु फिर भी कहे देता हूँ कि साहब बच्चू को यों ही न छोड़ दिया जाय। अच्छी तरह ऐसा सबक दिया जाय कि जिससे फिर कभी मेरे पीछे न लगें। वे भी समझ जाय कि मेरे भी मुरब्बी का कुछ जोर है। समझे न आप? अच्छा, मैं कहता हूँ क्या हरामजादे को हेड ऑफिस में नहीं खींचा जा सकता?”
मैंने कहा, “नहीं।”
उसने हँसी की छटा से फाइल को कुछ आगे सरकाते हुए कहा, “लीजिए, मजाक छोड़िए। क्या यह खबर लिये बगैर ही मैं आपके पास आया हूँ कि बड़े साहब बिल्कुेल आपकी मुट्ठी में है? खैर मरने दीजिए इसे, और भी एक दफे वह मेरे पीछे लगकर देख ले। अच्छा, क्या बड़े साहब का ‘ऑर्डर’ निकालकर आज ही मेरे हाथ नहीं दिया जा सकता? रात के नौ बजे ही मैं चला जाता, रात को कष्ट न उठाना पड़ता। क्या कहते हैं आप?”
मैं एकाएक जवाब न दे सका। क्योंकि, खुशामद चीज ही ऐसी है कि सारी दुरभिसन्धि जान-बूझकर भी क्षुण्ण करते श्लेश का अनुभव होता है। विरुद्ध बात मुँह पर लाते संकोच-सा होने लगा; किन्तु इस बाधा को मैंने नहीं माना। अपने आपको कठोर करके कह ही दिया, “बड़े साहब का हुक्म हाथ में कर लेने से आपको लाभ नहीं होगा। आप और कहीं नौकरी की तलाश कीजिए।”
एक मुहूर्त में ही वह जैसे काठ हो गया और कुछ देर बाद बोला, “इसके मानी?”
“इसके मानी यह कि आपको ‘डिसमिस’ करने का ‘नोट’, ही मैं दूँगा। मेरे द्वारा आपको किसी तरह सुविधा न होगी।”
वह उठकर खड़ा हो गया था- एकदम बैठ गया। उसकी दोनों आँखें छलछला आईं। हाथ जोड़कर बोला, “बंगाली होकर बंगाली को मत मारिए बाबू, मैं बच्चों कच्चों वाला आदमी मर जाऊँगा।”
“यह देखने का भार मेरे ऊपर नहीं है। इसके सिवाय, मैं आपको जानता नहीं, आपके साहब के विरुद्ध भी मैं नहीं जा सकता।”
उसने एक नजर मेरे मुँह पर डालकर शायद समझ लिया कि मैं दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ। और कुछ देर वह चुपचाप बैठा रहा। इसके बाद ही अकस्मात् वह जोर से रो पड़ा। क्लर्क, दरबान, पियून जो जहाँ थे सब इस अचिन्तनीय घटना से दंग हो गये। मैं भी मानो लज्जित-सा हो गया। उसे रोकने के इरादे से मैंने कहा, “अभया आपके लिए बर्मा आई है, अवश्य ही दुश्चरित्रा स्त्री को ग्रहण करने के लिए मैं नहीं कहता। किन्तु, आपकी सब बातें सुनकर भी यदि वह माफ कर सके-आप उसके पास से चिट्ठी ला सकें तो आपकी नौकरी बजा रखने की मैं कोशिश कर देखूँगा। नहीं तो दुबारा मिलकर मुझे लज्जित न करना- मैं मिथ्या बात नहीं कहता।”
मैं जानता था कि ये नीच प्रकृति के लोग अत्यन्त डरपोक होते हैं, उसने आँखें पोंछकर कहा, “वह कहाँ पर है?”
“कल इसी समय आओगे तो उसका ठिकाना बता दूँगा।”
वह और कुछ न कहकर लम्बी सलाम करके चला गया।
संध्या के समय अभया मेरे मुँह से चुपचाप नीचा मुँह किये सारा हाल सुनती रही। उसने आँचल से केवल अपनी आँखें पोंछ डाली- कुछ कहा नहीं। मेरे क्रोध का भी उसने कुछ जवाब नहीं दिया। बहुत देर बाद मैंने ही पूछा, “आप उसे माफ कर सकेंगी?”
अभया ने केवल गर्दन हिलाकर अपनी सम्मति जाहिर की।
“तुम्हें वह अपने साथ ले जाना चाहे, तो जाओगी?”
उसने उसी तरह सिर हिलाकर जवाब दिया।
“बर्मा की स्त्रियों का स्वभाव कैसा होता है, सो तो तुमने पहले ही दिन खूब जान लिया है, फिर भी वहाँ जाने का तुम्हारा साहस होगा?”
इस दफे अभया ने अपना मुँह ऊपर उठाया, मैंने देखा कि उसकी दोनों आँखों से आँसुओं की धारा बह रही है। उसने कुछ कहने की कोशिश की परन्तु कह न सकी। इसके बाद बार-बार आँचल से अपनी आँखों को पोंछती हुई रुद्ध कण्ठ से बोली, “नहीं जाऊँ तो मेरे लिए और उपाय ही क्या है, बताइए?”
उसकी बात सुनकर मैं यह न सोच सका कि मैं खुश होऊँ या आँखों से नीर बहाऊँ; किन्तु मुझसे कुछ उत्तर देते नहीं बन पड़ा।
उस दिन और कोई बात नहीं हुई। डेरे को लौटते हुए रास्ते-भर यही एक बात मैं बार-बार अपने आपसे पूछता रहा, किन्तु, इस प्रश्न का किसी ओर से कोई भी उत्तर नहीं मिल सका। केवल हृदय के भीतर का ‘वह’ न जाने किस पर एक ओर जिस तरह निष्फल क्रोध से जल-जल उठने लगा, उसी तरह दूसरी ओर एक निराश्रया रमणी के उससे भी अधिक निरुपाय प्रश्न से व्यथित और भाराकान्त हो उठा। दूसरे दिन, अभया का ठिकाना पूछने के लिए जब वह मनुष्य सामने आकर खड़ा हो गया तब, मारे घृणा के, मैं उसकी ओर देख भी नहीं सका। मेरे मन का भाव समझकर आज वह अधिक बात किये बगैर ही केवल ठिकाना लेकर नम्रता के साथ चला गया, किन्तु, उसके बाद के दिन जब वह मिलने आया तब उसकी आँ:खों और मुँह का भाव पूरी तरह बदल गया था। प्रणाम करके उसने अभया के हाथ की एक सतर लिखी हुई मेरी टेबल पर रख दी और कहा, आपने मेरा जो उपकार किया है उसे मुँह से क्या कहूँ- जितने दिन जीऊँगा आपका गुलाम होकर रहूँगा।”
अभया की लिखी पंक्ति पर दृष्टि जमाए हुए ही मैंने कहा, “जाइए, आप अपना काम कीजिए, बड़े साहब ने इस बार माफ कर दिया है।”
उसने हँसकर कहा, “बड़े साहब की चिन्ता मैं नहीं करता, केवल आप क्षमा कर दें तो मैं जी जाऊँ। आपके श्रीचरणों में मैंने बहुत से अपराध किये हैं।” इतना कहकर उसने फिर बकना शुरू कर दिया, उसी किस्म की वैसी ही कोरी मिथ्या खुशामद की बातें। और बीच-बीच में वह रूमाल से आँखें भी पोंछने लगा। इतनी बातें सुनने का धीरज और किसी को नहीं हो सकता, इसलिए यह दण्ड मैं आपको नहीं दूँगा। मैं केवल उसका विस्तृत वक्तव्य संक्षेप में कहे देता हूँ। वह यह है कि उसने अपनी स्त्री के ऊपर जो अपवाद लगाया था सो बिल्कुरल ही झूठ है। उसने लज्जा के फेर में पड़कर ही वैसा किया था, नहीं तो ऐसी सती लक्ष्मी क्या कहीं और है! और मन ही मन चिरकाल से वह अभया को प्राणों से भी अधिक चाहता रहा है। तब, यहाँ जो एक और उपसर्ग आ जुटा है उसे जुटाने की उसकी जरा भी इच्छा नहीं थी, केवल बर्मियों के हाथ से अपने प्राण बचाने के लिए ही उसने यह किया है। (कुछ सत्य हो भी सकता है।) किन्तु, आज रात को जब वह अपने घर की लक्ष्मी को ले जा रहा है तब उस बर्मी- बच्ची को दूर करते कितनी देर लगती है? रहे लड़के-बच्चे-ओहो! सालों की जैसी सूरत है वैसा ही स्वभाव है- हैं वे किस काम के? बुढ़ापे में न तो उनसे खाने-पहिनने को ही मिलेगा और न मरने पर एक चुल्लू पानी की ही उनसे आशा है! जाते ही सबको एक साथ झाड़ू मारकर बिदा कर देगा तब उसका नाम- इत्यादि-इत्यादि।
मैंने पूछा, “अभया को क्या आज ही रात को ले जाँयगे आप?” वह विस्मय से अवाक् होकर बोला, “खूब! जितने दिन आँखों नहीं देखा था उतने दिन खैर किसी तरह रहा आया; किन्तु, आँखों देखकर फिर क्या उसे आँखों की ओट कर सकता हूँ? अकेली, इतनी दूर, इतना कष्ट उठाकर, केवल मेरे लिए ही तो आई है! एक दफे सोच तो देखिए जरा इस बात को!”
मैंने पूछा, “क्या उसे एक साथ ही घर में रक्खेंगे?”
“जी नहीं, इस समय तो प्रोम के पोस्ट मास्टर महाशय के यहाँ ही रखूँगा। उनकी स्त्री के साथ मजे में रहेगी। किन्तु, दो-एक दिन में ही- अधिक नहीं- उसके लिए मकान का प्रबन्ध करूँगा और फिर घर की लक्ष्मी को घर ले आऊँगा।”
अभया के स्वामी ने प्रस्थान किया। मैंने भी दैनिक कार्य में मन लगाने के लिए सामने की फाइल को खींच लिया।
उसके नीचे अभया की उस लिखावट पर फिर मेरी नजर जा पड़ी। इसके बाद कितनी दफे उन दो सतरों को मैंने पढ़ा और न जाने कितनी दफे और पढ़ता सो कह नहीं सकता। इतने में ही ‘पियून’ ने कहा, “बाबूजी, आपके घर क्या कुछ कागज-पत्र पहुँचाने होंगे?” चौंककर मैंने सिर उठाया तो देखा, उस समय सामने की घड़ी में साढ़े चार बज गये हैं, और क्लर्क लोग दैनिक कार्य समाप्त करके अपने घर चले गये हैं।
अब मुझे अभया के पति का एक पत्र मिला। पहले के ही समान कृतज्ञता सारी चिट्ठी में बिखेर देकर इस बात का बड़े ही अदब और विस्तार के साथ निवेदन करके कि इस समय वह कैसे संकट में पड़ा है, उसने मुझसे उपदेश चाहा है। बात संक्षेप में यह थी कि उसने अपनी शक्ति से अधिक खर्च करके भी एक बड़ा मकान किराये पर ले लिया है; और उसमें एक ओर अपने बर्मी स्त्री-पुत्रादि को रखकर दूसरी ओर अभया को लाकर रखने का प्रयत्न कर रहा है, किन्तु किसी तरह भी उसे सम्मत नहीं कर पाता है। सहधर्मिणी की इस तरह की हठ से वह अतिशय मर्म-पीड़ा अनुभव कर रहा है। यह केवल ‘कलि-काल’ का फल है, ‘सतजुग’ में ऐसा नहीं हो सकता था- बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तक भी। अनेक दृष्टान्तों समेत उनका बार-बार उल्लेख करके उसने लिखा है कि हाय! कहाँ है वे आर्यललनाएँ? वे सीता-सावित्री कहाँ गईं? जो आर्य-नारियाँ पति की चरण-युगलों को हृदय में धारण करके हँसती-हँसती चिता में प्राण विसर्जन कर देती थीं और पति सहित अक्षय स्वर्ग-लाभ करती थीं वे अब कहाँ है? जो हिन्दू महिला हँसते हुए चेहरे से अपने कुष्ठग्रसित पति-देवता को कन्धों पर लादकर वेश्या के घर तक पहुँचा आई थीं, कहाँ है उस जैसी पतिव्रता रमणी? कहाँ है वह पति-भक्ति? हाय भारतवर्ष! क्या एकदम ही तेरा अध:पतन हो गया। वह सब क्या अब हम लोग एक दफे भी अपनी आँखों न देखेंगे। और क्या हम लोग-इत्यादि इत्यादि, करीब दो पन्ने विलाप से भर दिए हैं। किन्तु अभया पति-देवता को यहाँ तक ही मानसिक कष्ट देकर शान्त नहीं हुई। और भी सुनिए। उसने लिखा है कि इतना ही नहीं कि उसकी अध्र्दांगिनी अब भी दूसरे के घर में रह रही है, बल्कि उसे आज अपने परम मित्र पोस्ट मास्टर से मालूम हुआ कि रोहिणी नामक किसी व्यक्ति ने उसकी स्त्री को पत्र लिखा है और कुछ पैसे भेजे हैं। इससे इस हतभागे की इज्जत को कितना धक्का लगा है सो लिखकर बताया नहीं जा सकता।
चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते मैं अपनी हँसी न रोक सका। फिर भी रोहिणी के व्यवहार पर भी कुछ कम क्रोध नहीं आया। अब उसे चिट्ठी लिखने और रुपये भेजने की जरूरत ही क्या थी? जिसने पति के घर को प्राप्त करने के लिए इतना कष्ट सहन करना स्वीकार किया, उसके चित्त को, जान-बूझकर या बिना जाने-बूझे, उचाट करने की जरूरत ही क्या थी? और अभया ने भी इस तरह का व्यवहार किसलिए शुरू किया? वह क्या चाहती है? उसके पति ने जिसे स्त्री की तरह ग्रहण किया है, लड़के-बच्चे पैदा किये हैं- उन सबको त्याग कर क्या केवल उसी को लेकर वह गृहस्थी चलावे? क्यों, बर्मी स्त्रियाँ क्या स्त्रियाँ नहीं हैं? उन्हें क्या सुख-दु:ख, मान-अपमान का बोध नहीं है? न्याय-अन्याय का कानून क्या उनके लिए ताक पर रख देना चाहिए? और यदि ऐसा ही है तो वहाँ उसे जाने की जरूरत ही क्या थी? सब झंझट यहाँ से ही स्पष्ट करके निबटा देने से ही तो हो जाता।
तब तक मैं रोहिणी से मिलने नहीं गया था। वह झूठमूठ ही क्लेश पा रहा है, यह मन ही मन समझकर ही शायद मेरी उस तरफ पैर बढ़ाने की प्रवृत्ति नहीं हुई थी। आज छुट्टी होने के पहले ही गाड़ी बुलाने के लिए आदमी भेजकर मैं उठने की तैयारी कर रहा था कि उसी समय अभया का पत्र आ पड़ा। खोलकर देखा कि सारा पत्र आदि से अन्त तक रोहिणी के ही सम्बन्ध की बातों से भरा हुआ है। मैं सदा ही उसके ऊपर नजर रक्खूँ- वह कितना दुर्बल, कितना अपटु, कितना असहाय है- यही एक बात पंक्ति-पंक्ति अक्षर-अक्षर में से ऐसी मर्मान्तिक व्यथा के साथ फूटी पड़ती थी कि कोई अत्यन्त सरल-चित्त मनुष्य भी इस आवेदन के तात्पर्य को समझने में भूल करेगा, ऐसा नहीं जान पड़ा। अपने सुख-दुख की बात उसमें प्राय: कुछ भी नहीं थी! फिर पत्र के अन्त में उसने बताया था कि अनेक कारणों से अब भी वह उसी जगह रह रही है जहाँ कि पहले पहल आकर ठहरी थी।
पति सती स्त्री का एकमात्र देवता हो सकता है कि नहीं, इस विषय में अपना मतामत छापे के अक्षरों में प्रकट करने का दु:साहस मुझमें नहीं है और न मुझे इसकी कोई जरूरत ही दिखती है। किन्तु सर्वांगीण सती-धर्म की एक अपूर्वता-दु:सह-दु:ख और सर्वथा अन्याय के बीच में भी उसकी आकाशभेदी विराट महिमा जो मेरी अन्नदा जीजी की स्मृति के साथ चिरकाल के लिए मन की गहराई में खुदकर अंकित हो गयी है, जिसका असह्य सौन्दर्य आँखों से देखे बिना अवधारण भी नहीं किया जा सकता, और जिसने एक ही साथ नारी को अति क्षुद्र और अति बृहत् बना दिया है- मेरी वह अव्यक्त उपलब्धि, आज अभया की इस चिट्ठी से आन्दोलित हो उठी।
जानता हूँ कि सब अन्नदा जीजी नहीं है- उस कल्पनातीत निष्ठुरता को छाती फैलाकर धीरज से ग्रहण करने जैसी बड़ी छाती भी सब स्त्रियों की नहीं होती; और जो नहीं है उसके लिए रोज शोक करना ग्रन्थकार मात्र का एकान्त कर्तव्य है या नहीं, सो मैंने विचार कर स्थिर नहीं कर रक्खा है, किन्तु फिर भी सारा चित्त वेदना से भर गया। गुस्से में भरा हुआ मैं गाड़ी पर जा बैठा और उस निकम्मे पर स्त्री-आसक्त रोहिणी को जो कड़ी-कड़ी बातें अच्छी तरह सुनाने जा रहा था उन्हें मन ही मन दुहराता हुआ उसके घर की ओर रवाना हो गया। गाड़ी से उतरकर, किवाड़ खोलकर जब मैंने उसके मकान में प्रवेश किया तब दिया-बत्ती की बेला हो गयी थी, अर्थात् दिन का प्रकाश खत्म होकर रात का अंधेरा अभी-अभी उतर रहा था।
वह भर भादों भी नहीं था और न उस समय भरे बादल ही थे; किन्तु, शून्य घर-बार की भी यदि कोई सूरत-शक्ल होती है तो उस दिन उस प्रकाश और अन्धकार के बीच जो मेरी नजर में पड़ी, उसे छोड़कर और क्या हो सकती है, सो तो मैं आज भी नहीं जानता। घर के सभी दरवाजे भाँय-भाँय कर रहे थे, केवल रसोईघर की एक खिड़की में से धुआँ निकल रहा था। दाहिनी तरफ कुछ आगे बढ़कर झाँककर देखा कि चूल्हा जलकर प्राय: बुझ रहा है और पास में ही जमीन पर रोहिणी बाबू हँसिये से एक बैंगन के दो टुकड़े करके गुमसुम बैठे हुए हैं। मेरे पैरों की आहट उनके कानों तक नहीं गयी, क्योंकि कर्णेन्द्रिय का जो मालिक था वह उस समय और चाहे जहाँ हो किन्तु बैंगन के ऊपर एकाग्र नहीं था, यह मैं निस्सन्देह कह सकता हूँ। किन्तु चुपचाप लौटकर जब उन दो कमरों के बीच आ खड़ा हुआ तब मुझे साफ-साफ दिखाई दिया कि एक उत्कट वेदना से भरा हुआ रोदन सारे घर को भरकर दँतौरी बाँधे हुए अडिग रूप से वहाँ स्थिर हो रहा है और वह सम्पूर्ण समाज धर्माधर्म और समस्त पाप-पुण्य से भी परे की, अतीत की, वस्तु है।
बाहर आकर मैं बरामदे में एक मोढ़े पर बैठ गया। कितनी ही देर बाद, शायद, दीपक जलाने के लिए रोहिणी बाबू बाहर आए और भयभीत हो उन्होंने पूछा, “कौन है?”
मैंने आवाज देकर कहा, “मैं हूँ श्रीकान्त।”
“श्रीकान्त बाबू? ओह…” इतना कहकर वह तेज चाल से नजदीक आए, भीतर जाकर उन्होंने दीया-बत्ती की और फिर मुझे भीतर ले जाकर बिठाया। इसके बाद किसी के भी मुँह से कोई बात न निकली- दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। सबसे पहले मैंने ही मुँह खोला। कहा, “रोहिणी भइया, यहाँ अब क्यों रहते हो? चलो मेरे साथ।”
रोहिणी ने पूछा, “क्यों?”
मैंने कहा, “यहाँ आपको कष्ट होता है इसलिए।”
रोहिणी कुछ देर ठहरकर बोला, “कष्ट अब मुझे क्या है!”
ठीक है! किन्तु, ऐसी अवस्था में तो आलोचना की नहीं जा सकती मैं उसका किस प्रकार तिरस्कार करूँगा, क्या सत्परामर्श दूँगा आदि सब सोचता-सोचता घर से चला था, किन्तु, यहाँ वे सब विचार बह गये। नीतिशास्त्र की पोथी इतनी अधिक नहीं पढ़ी थी कि इतने बड़े प्रेम का अपमान कर सकूँ। कहाँ गया मेरा क्रोध, कहाँ गया मेरा विद्वेष! समस्त साधु-संकल्प अपना सिर नीचा करके कहाँ छिप रहे, पता भी न चला।
रोहिणी बोला कि उसने वह प्राइवेट टयूशन छोड़ दी है क्योंकि उससे तन्दुरुस्ती बिगड़ती है। उसका दफ्तर भी अच्छा नहीं है, बड़ी कड़ी मेहनत पड़ती है। नहीं तो अब कष्ट क्या है।
मैं चुप हो रहा। क्योंकि इसी रोहिणी के मुँह से कुछ दिन पहिले इससे ठीक उलटी बात सुनी थी। वह कुछ देर चुप रहकर फिर कहने लगा, “ऑफिस से थके-माँदे लौटने पर यह राँधना-रूँधना तो बड़ी झुँझलाहट पैदा करता है, क्यों न श्रीकान्त बाबू?”
मैं और क्या कहता? आग बुझ जाने पर केवल जल से ही तो इंजन चलता नहीं, यह तो जानी हुई बात है।
फिर भी, वह यह स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाने को राजी नहीं हुआ। कल्पना की तो कोई सीमा निर्दिष्ट कर नहीं सकता, इसलिए उस बात को नहीं छोड़ता, किन्तु, किसी असम्भव आशा ने उसके मन के भीतर भी किसी तरह आश्रय नहीं पाया था सो मैं उसकी कुछ बातों से ही जान गया था। फिर भी क्यों वह इस दु:ख के आगार को छोड़ना नहीं चाहता, यह अवश्य ही मैं नहीं सोच सका। किन्तु, उसके अन्तर्यामी के अगोचर नहीं था कि जिस हतभागी के घर का रास्ता रुद्ध हो गया है, उसे इस शून्य घर की पूँजीभूत वेदना यदि खड़ा न रख सके तो उसे मिट्टी में मिलने से रोकना इस दुनिया में किसी के लिए भी सम्भव नहीं है।
अपने डेरे पर पहुँचते-पहुँचते कुछ रात हो गयी। घर में घुसकर देखा कि एक कोने में बिस्तर लगाकर एक आदमी सिर से पैर तक कपड़ा ओढ़े सो रहा है। नौकरानी से पूछने पर उसने कहा, “शरीफ आदमी हैं।”
“इसलिए मेरे कमरे में!”
भोजनादि के उपरान्त उन महाशय से बातचीत हुई। उनका मकान चटगाँव जिले में है। करीब चार वर्ष के बाद उनके लापता छोटे भाई का पता मिला है और उसे वापिस घर ले जाने के लिए वे आए हैं। वे बोले, “महाशय, कहानियों में सुना था कि पुराने समय में कामरूप की स्त्रियाँ विदेशी पुरुषों को- भेड़ बनाकर बाँध रखती थीं। न जाने उस समय वे क्या करती होंगी; किन्तु इस जमाने में बर्मा की स्त्रियों की क्षमता उनसे तिल-भर भी कम नहीं है, सो मैं नस नस से अनुभव कर रहा हूँ।”
और भी बहुत-सी बातें करने के बाद उन्होंने अपने छोटे भाई के उद्धार करने के लिए मेरी सहायता की भिक्षा माँगी। मैंने बचन दिया कि उनके इस साधु उद्देश्य को सफल करने में मैं कमर बाँधकर लग जाऊँगा। क्यों, सो कहने की जरूरत नहीं है। दूसरे दिन सुबह ढूँढ़-खोज करके उनके छोटे भाई की बर्मी ससुराल में जा पहुँचा। बड़े भाई आड़ में रास्ते के ऊपर चहल कदमी करने लगे।
छोटे भाई उपस्थित नहीं थे, साइकिल लेकर सुबह घूमने के लिए बाहर गये थे। मकान में सास-ससुर नहीं थे, केवल स्त्री अपनी एक छोटी बहिन को लेकर एक-दो दासियों सहित वहाँ रहती है। इन लोगों की जीविका बर्मा-चुरुट बनाना था। उस समय सब इसी काम में लगे हुए थे। मुझे बंगाली देखकर और सम्भवत: अपने पति का मित्र समझकर, उन्होंने मेरा आदर के साथ स्वागत किया। बर्मी स्त्रियाँ अत्यन्त परिश्रमी होती हैं, परन्तु पुरुष बहुत ही आलसी होते हैं। वहाँ घर के छोटे-मोटे काम-काज से लेकर व्यवसाय वाणिज्य तक सब कुछ प्राय: स्त्रियों के हाथ में है। इसलिए, लिखना-पढ़ना सीखे बिना उनका काम नहीं चलता, परन्तु पुरुषों की बात अलहदा है। पढ़ना-लिखना सीखा हो तो भला, न सीखा हो तो लज्जा के मारे मरना नहीं होता। निष्कर्मा पुरुष स्त्री का उपार्जित अन्न नष्ट करके बाहर उसी पैसे से बाबूगीरी करता फिरता है और उससे लोगों को कोई अचरज नहीं होता। स्त्रियों भी छि:-छि:, मिनमिन, पिनपिन करके उसकी नाकोंदम कर देना आवश्यक नहीं समझतीं। बल्कि, यही किसी परिणाम में उनके समाज को स्वाभाविक आचार में शामिल हो गया है।
दस-पन्द्रह मिनट के बीच ही बाबू साहब ‘द्वि-वक्र-यान’ में लौट आए। सारी देह पर अंगरेजी पोशाक, हाथ में दो-तीन अंगूठियाँ, घड़ी, चैन आदि। काम-काज कुछ भी नहीं करना पड़ता, फिर भी देखा, हालत खूब अच्छी है। उनकी बर्मी पत्नी अपने हाथ का काम छोड़कर उठ खड़ी हुई और उनके हाथ से टोपी तथा छड़ी लेकर उसने रख दी। छोटी बहिन ने चुरुट दियासलाई आदि ला दिये, एक दासी ने चाय का सरंजाम और दूसरी ने पान का डब्बा ला दिया। वाह, इस मनुष्य को तो सबने मिलकर एकदम राजा की तरह रख छोड़ा है! नाम मैं भूल गया हूँ। शायद चारु-वारु ऐसा ही कुछ होगा। जाने दो, हम लोग न होगा तो केवल ‘बाबू’ कहकर पुकार लेंगे।
बाबू ने प्रश्न किया कि आप कौन हैं? मैंने कहा, मैं आपके भाई का मित्र हूँ। उन्होंने विश्वास नहीं किया। बोले, “आप तो कलकतिया हैं; मेरे भाई तो कभी वहाँ गये भी नहीं, मित्रता किस तरह हुई?”
किस तरह मित्रता हुई, कहाँ हुई, इस समय वे कहाँ हैं, इत्यादि संक्षेप से वर्णन करके उनके आने का उद्देश्य भी मैंने बता दिया और यह भी निवेदन कर दिया कि वे अपने भ्रातृ-रत्न के दर्शनों की अभिलाषा से उत्कण्ठित हैं।
दूसरे दिन सुबह ही हमारी होटल में बाबू की चरण-धूलि आ पड़ी और दोनों भाइयों की बड़ी देर की बातचीत के बाद उन्होंने बिदा ग्रहण की। तब से दोनों भाइयों का कुछ ऐसा हेल-मेल हों गया, कि-सुबह नहीं, संध्याट, नहीं-बाबू साहब ‘भइया, भइया’ कहकर पुकारते हुए लगे जब तब आ उपस्थित होने और फुसफुस खुसखुस सलाह-संलाप करने और खाने-पीने की तो कोई सीमा ही नहीं रही। एक दिन संध्यास को वे अपने भइया को और मुझे भी चाय-बिस्कुट का निमन्त्रण दे गये।
उसी दिन उनकी बर्मी स्त्री से मेरी अच्छी तरह बातचीत हुई। वह अतिशय सरल, विनयी और भली है। प्यार करके स्वेच्छा से ही उसने विवाह किया है और तब से शायद एक दिन के लिए भी इन्हें कोई दु:ख नहीं दिया। कोई चार-पाँच दिन बाद बड़े भइया ने मुसकराते हुए कान में कहा, कि परसों सवेरे के जहाज से हम लोग घर जा रहे हैं। सुनकर मुझे कुछ डर-सा लगा; पूछा, “आपके भाई यहाँ फिर लौटकर तो आयँगे?
बड़े भइया बोले, “अब? राम-राम करके किसी तरह एक दफे जहाज पर चढ़ तो पावें!”
मैंने पूछा, “यह स्त्री को जता दिया है?”
बड़े भइया बोले, “बाप रे! तब क्या हम बच सकेंगे? साली जो जहाँ होंगी रक्त-बीज की तरह आकर घेर लेंगी।” यह कहकर और फिर दोनों आँखें मिचकाकर हँसते हुए बोले, “फ्रेंच लीव्ह महाशय, फ्रेच लीव्ह- आप समझे या नहीं?”
मुझे अत्यन्त क्लेश मालूम हुआ, बोला “ऐसा हुआ तब तो स्त्री को अत्यन्त कष्ट होगा।”
मेरी बात सुनकर बड़े भइया तो हँसी से लोट-पोट हो गये। किसी तरह हँसना बन्द करके बोले, “वाह, आपने भी खूब कहा! इन बर्मी औरतों को कष्ट? इन सालियों की जात के लोग खाकर कुल्ला तक नहीं करते, न इनके यहाँ जूठे-मीठे का विचार है, और न जात-पाँत का। साली सब नेप्पी (एक तरह की सड़ाई हुई मछलियाँ) खाती हैं महाशय, जिसकी दुर्गन्ध के मारे भूतनी-पिशाचियाँ तक भाग जावें। इन सालियों को और कष्ट! एक चला जायेगा तो दूसरे को पकड़ लेंगी-छोटी जात की हैं सालीं-
“ठहरिए महाशय, ठहरिए। आपके भाई को उसने जो इन चार वर्षों तक राजा की तरह खिलाया-पिलाया है, और कुछ न हो, इसके लिए भी तो उसका कुछ कृतज्ञ होना चाहिए।”
बड़े भाई का मुँह गम्भीर हो गया। वे कुछ देर चुप रहकर बोले, “आपने तो मुझे अवाक् कर दिया महाशय। मर्द-बच्चे हैं, विदेश की धारती पर आकर यदि उम्र के दोष से कुछ शौक कर ही डाला तो क्या हुआ? और फिर कौन है जो ऐसा नहीं करता, कहिए न? मुझसे तो कुछ छुपा है नहीं- इसका कुछ खुल पड़ा है- सब लोग जान गये हैं, बस-सो इसीलिए क्या चिरकाल तक इसे इसी तरह फिरते रहना होगा? भला बनकर, गृहस्थ-धर्म चलाकर, फिर से पाँच पंचों में अपना स्थान ग्रहण न करना होगा? महाशय, यह तो कुछ बात ही नहीं है, कच्ची उम्र में तो कितने ही लोग होटल में जाकर मुर्गी तक खा आते हैं। किन्तु उम्र पकने पर क्या ऐसा करते हैं? आप ही विचार कीजिए न, मैं कहता हूँ सो सच है कि झूठ?”
वास्तव में यह विचार करने जैसी बुद्धि भगवान ने मुझे नहीं दी, इसलिए मैं चुप रह गया और ऑफिस का समय हो रहा था इसलिए, नहा-खाकर चल दिया।
किन्तु, ऑफिस से लौटते ही वे फिर एकाएक बोल उठे, “मैंने सोच देखा, आपकी सलाह ही ठीक है महाशय! इस जात का कुछ भरोसा नहीं, क्या जाने जाते-जाते अन्त में क्या फसाद खड़ा कर दे। कहकर जाना ही ठीक है। साली जो न करें सो थोड़ा। न लाज है न शरम, और न कुछ धर्म का ज्ञान। इन्हें यदि जानवर कहा जाय तो भी कुछ बेजा नहीं है।”
मैंने कहा, “हाँ, यही ठीक है।”
किन्तु, उसकी बात पर मैं विश्वास न ला सका। मन ही मन मुझे ऐसा लगा कि इसके भीतर कोई षडयन्त्र है। किन्तु, वह इतना नीच, इतना निष्ठुर होगा-आँखों से देखे बगैर कोई उसकी कल्पना भी कर सकेगा, यह मैं नहीं सोच सका।
चटगाँव का जहाज रविवार को जाता है। ऑफिस बन्द था। सुबह के समय और करता ही क्या; उन्हें ‘सी ऑफ’ (=बिदा) करने के लिए जहाज-घाट पर जा पहुँचा। जहाज उस समय जेटी से लगा हुआ था। जाने वाले दोनों श्रेणियों के लोगों की दौड़-धूप, चीख-पुकार में कोई किसी की बात नहीं सुन सकता था।
यहाँ वहाँ देखते ही उस बर्मी स्त्री पर नजर पड़ गयी। एक किनारे वह अपनी छोटी बहिन का हाथ पकड़े खड़ी है। सारी रात रोते रहने के कारण उसकी दोनों आँखें ठीक जबा के फूलों की तरह हो रही हैं। छोटे बाबू बहुत ही व्यस्त हैं। वे अपनी दो चक्रों की गाड़ी (साइकिल), ट्रंक, बिस्तर तथा और भी न जाने क्या-क्या लिये कुलियों के साथ दौड़-धूप कर रहे हैं-उन्हें क्षण-भर का भी अवसर नहीं है।
धीरे-धीरे सारी चीजें जहाज पर चढ़ गयीं, यात्री लोग भी सब ठेल-ठालकर ऊपर चढ़ गये। जो यात्री नहीं थे वे नीचे उतर आए, सामने की ओर से लंगर उठने लगा। इसी समय छोटे बाबू अपने सामान को हिफाजत से रखकर और जगह ठीक करके अपनी बर्मी-स्त्री से बिदा लेने के छल से संसार के निष्ठुरतम अंक का अभिनय करने के लिए जहाज पर से नीचे उतरे। द्वितीय दर्जे के यात्री थे, इसलिए उन्हें यह अधिकार प्राप्त था।
मैंने अनेक दफे सोचा है कि इसकी भला क्या जरूरत थी? मनुष्य जबर्दस्ती अपनी मानव-आत्मा को इस तरह क्यों अपमानित करता है? मन्त्रदीक्षित पत्नी न हुई तो क्या हुआ, किन्तु वह स्त्री तो है! वह कन्या भगिनी जननी की जाति की तो है। उसी के आश्रय से वह इतने सुदीर्घ समय तक पति के समस्त अधिकारों का उपयोग करता हुआ वहीं रहा है। उसने तो अपने विश्वस्त हृदय की सारी मधुरता, सारा अमृत, सम्पूर्ण शरीर और मन उस पर समर्पित कर दिया है। फिर किस लोभ से वह इन अगणित लोगों की आँखों में उसे इतने बड़ें निर्दय परिहास और तमाशे की चीज बनाकर चलता बना। वह एक हाथ से रूमाल के द्वारा अपनी दोनों आँखें ढंके हुए है और दूसरा हाथ अपनी बर्मी स्त्री के गले में डाले हुए रोने के स्वर में बहुत कुछ कह रहा है। स्त्री आँचल में मुँह छिपाये रो रही है।
¹ यह बंगला मुहाविरा है, अर्थ-अंगूठा दिखाकर।
आसपास बहुत से बंगाली खड़े हैं। उनमें से कुछ मुँह फिराकर हँस रहे हैं, और कुछ मुँह में कपड़ा देकर हँसी रोकने की कोशिश कर रहे हैं। मैं कुछ दूरी पर था, इसलिए पहले कुछ समझ न सका, किन्तु नजदीक आते ही सब बातें साफ-साफ सुन पड़ने लगीं। वह रोने के स्वर में बर्मी और देहाती बंगाली मिलाकर विलाप कर रहा है। यदि बंगाली में कुछ मार्जित करके लिखा जाय तो उस विलाप का यह रूप हो- “एक महीने बाद रंगपुर से तमाखू खरीद कर कैसे आ जाऊँगा, यह मैं ही जानता हूँ! जो री मेरी रत्नमणि! तुझे केला दिखाकर चला रे, ¹ केला दिखाकर चला!”
वह यह सब केवल हमारे समान कुछ अपरिचित बंगाली दर्शकों के हँसाने के लिए ही कह रहा था। पर, उसकी स्त्री बंगला नहीं समझती है, केवल रोने की आवाज से ही उस बेचारी की छाती फट रही है और किसी तरह वह हाथ उठाकर उसकी आँखें पोंछकर सांत्वना देने की चेष्टा कर रही है।
वह आदमी जोर-जोर से बिसूर-बिसूर कर रोता हुआ कहने लगा, “बड़ी मुश्किल से तूने पाँच सौ रुपये तमाखू खरीदने को दिए हैं- अब कुछ तेरे पास नहीं है-पेट तो भरा ही नहीं- इसी तरह यदि तेरा मकान भी बेच-बाचकर भले घर के लड़के की तरह घर जा सकता, तो समझता कि हाँ एक दाँव मारा! हाय, यह सब कुछ नहीं हुआ रे। कुछ नहीं हुआ!
आसपास के लोग हँसी को रोक रखने के कारण फूल-फूल उठने लगे; किन्तु जिसको लेकर इतनी हँसाई हो रही थी उसकी आँखें और कान दु:ख के आँसुओं से एकदम आच्छादित हो रहे थे। ऐसा जान पड़ने लगा कि कहीं वेदना के मारे मर न जाय!
खलासियों ने ऊपर से पुकार कर कहा, “बाबू, सीढ़ी उठाई जा रही है।”
वह आदमी गला छोड़कर सीढ़ी तक गया और फिर लौट आया। स्त्री के हाथ में एक पुराने समय के अच्छे नगवाली अंगूठी थी। इसी पर हाथ रखकर रोता हुआ बोला, “अरी, दे दे री, यह अंगूठी ही ले जाऊँ। इसके कम से कम दो-ढाई सौ रुपये दाम तो होंगे ही- इन्हीं को क्यों छोड़ूँ?”
स्त्री ने उसे चटपट खोलकर अपने प्रियतम की अंगुली में पहिना दिया। “जो मिला वही लाभ है।” कहकर वह आदमी रोता-रोता ही सीढ़ी पर चढ़ गया। जहाज जेटी छेड़कर धीरे-धीरे दूर सरकता जाने लगा और स्त्री मुख पर आँचल डालकर घुटने टेककर वहीं बैठ गयी। बहुत से लोग दाँत काढ़कर हँसते-हँसते चले गये। किसी ने कहा, “बाह रे लड़के!” किसी ने कहा, “बाह रे बहादुर छोकरे!’ बहुत-से लोग यह कहते-कहते चले गये, ‘कैसा तमाशा किया! हँसते-हँसते पेट दुखने लगा!’ ऐसे-ऐसे न जाने कितने मन्तव्य प्रकट किये गये। केवल मैं ही अकेला सबके हँसी-तमाशे की चीज उस भोली स्त्री के अपरिसीम दु:ख का साक्षी बनकर गुमसुम खड़ा रह गया।
छोटी बहिन आँखें पोंछती हुई पास में खड़ी अपनी बहिन का हाथ खींच रही थी। मेरे पास में जाकर खड़े होते ही वह धीरे से बोली, “बाबूजी आए हैं बहिन, उठो।”
मुँह उठाकर उसने मेरी ओर देखा और साथ ही साथ उसका रुदन मानो बाँध तोड़कर फट पड़ा। मेरे पास सान्त्वना देने के लिए और था ही क्या! फिर भी, उस दिन मैं उसका साथ नहीं छोड़ सका। उसके पीछे-पीछे उसकी गाड़ी में जा बैठा। रास्ते-भर वह रो-रो करके यही बात कहती रही कि, “बाबूजी, आज मेरा मकान सूना हो गया। किस तरह मैं उसके भीतर पैर रक्खूँगी; एक माह के लिए तमाखू खरीदने गये हैं- यह एक मास मैं कैसे काटूँगी! विदेश में उन्हें न जाने कितनी तकलीफ उठानी होगी! मैंने उन्हें वहाँ क्यों जाने दिया! रंगून के बाजार की तमाखू से हमारा काम तो मजे से चल रहा था; तब फिर क्यों अधिक लाभ की आशा से मैंने उन्हें इतनी दूर भेजा! दु:ख के मारे छाती फटी जाती है। बाबूजी, अगली मेल से ही मैं उनके पास चली जाऊँगी।” इस तरह वह न जाने कितना और क्या-क्या कहती रही।
मैं एक बात का भी जवाब न दे सका, केवल अपना मुँह फिराकर खिड़की के बाहर देखता हुआ अपनी आँखों के आँसुओं को छुपाता रहा।
वह कहने लगी, “बाबूजी, तुम्हारी जात के लोग जितना प्यार-प्रेम कर सकते हैं, उतना हमारी जात के लोग नहीं कर सकते; तुम लोगों में जितनी दया माया है उतनी और किसी देश के लोगों में नहीं है।”
कुछ देर ठहरकर और दो-तीन दफे आँखें पोंछकर वह कहने लगी, “बाबू के प्यार में पड़कर जब मैं उनके साथ रहने लगी तब कितने ही लोगों ने मुझे भय दिखाकर रोका था; किन्तु, मैंने किसी की भी बात न सुनी। इस समय न जाने कितनी स्त्रियाँ मेरे सौभाग्य पर मन ही मन जलती हैं।”
चौरस्ते के नजदीक मैंने चाहा कि उतरकर अपने डेरे पर चला जाऊँ, किन्तु, वह व्याकुल होकर दोनों हाथों से गाड़ी का दरवाजा रोककर बोली, “ना बाबूजी, सो नहीं होगा। तुम्हें हमारे साथ चलकर एक प्याला चाय पीकर आना होगा; चलिए।”
मैं इनकार न कर सका। गाड़ी चलने लगी। उसने एकाएक पूछा, “अच्छा बाबूजी, रंगपुर कितनी दूर है? आप कभी वहां गये हैं? कैसी जगह है? बीमार होने पर वहाँ डॉक्टर तो मिल सकते हैं न?
बाहर की ओर देखते हुए मैंने उत्तर दिया, “हाँ, मिलते क्यों नहीं।”
एक उसास छोड़कर वह बोली, “फया (=ईश्वर) उन्हें भला रक्खें। उनके भाई भी साथ में है। वे बड़े सज्जन आदमी हैं, छोटे भाई को तो वे प्राणों से ज्यादा रक्खेंगे। तुम लोगों का शरीर तो जैसे प्रेमहीन बना है। मुझे कुछ सोच नहीं करना है, क्यों न बाबूजी?”
मैं चुपचाप बाहर की ओर देखता हुआ केवल यही सोचने लगा कि इस महापाप में मेरा खुद का हिस्सा कितना है? चाहे आलस्यवश हो- चाहे आँखों की शरम के मारे हो, और चाहे अक्ल मारी जाने के कारण हो, यह जो मैंने अपना मुँह बन्द किये रहकर इतना बड़ा अन्याय अनुष्ठित होते देखा और कुछ कहा नहीं, इसके अपराध से क्या मैं छुटकारा पाऊँगा? और यदि ऐसा ही है, तो फिर सिर ऊँचा करके मैं सीधा क्यों नहीं बैठ सकता? उसकी आँखों की ओर देखने का साहस क्यों नहीं कर सकता?
चाय-बिस्कुट लेकर और उनके विवाहित जीवन की लाखों घटनाओं का विस्तृत इतिहास सुनकर जब मैं मकान से बाहर हुआ तब दिन अधिक बाकी नहीं था घर लौट जाने की इच्छा नहीं हुई। दिन के अन्त में सब लोग अपना-अपना काम-काज खत्म करके डेरे में लौट आते हैं- दादा ठाकुर का होटल उस समय तरह-तरह के सुन्दर हास-परिहास से मुखरित हो रही है। पर, सब हो-हल्ला मुझे जहर जैसा लगने लगा। अकेला रास्ते-रास्ते घूमते हुए मैं यही सोचने लगा कि इस समस्या की मीमांसा होगी किस तरह? बर्मी लोगों में विवाह के सम्बन्ध में कोई बँधा हुआ नियम नहीं है। विवाह की कुलीन विधि भी है और पति-पत्नी की तरह जो स्त्री-पुरुष तीन दिन एक साथ रहकर एक बर्तन में भोजन कर लेते हैं, उनका भी विवाह हो गया समझा जाता है। न तो समाज ही इसे नामंजूर करती है और न वह स्त्री ही इस कारण किसी तरह हलकी नजर से देखी जाती है। परन्तु, ‘बाबू’ के लिए हिन्दू कानून में यह सब कुछ भी नहीं है। इस स्त्री को यह अपने देश में ले जाकर नहीं रख सकता। हिन्दू समाज उन्हें न हो तो न अपनावे, किन्तु, यह भी जीवन-भर सहन करते रहना कठिन है कि नीच से नीच आदमी भी उन्हें नीची निगाह से देखे! या तो चिरकाल के लिए निर्वासित की तरह प्रवास में रहा करे; या फिर, बड़े भइया ने अपने छोटे भाई की जो व्यवस्था की, वही ठीक है। इतना होते हुए भी ‘धर्म’ नामक शब्द का यदि कोई अर्थ हो सकता है- चाहे वह धर्म हिन्दू जाति का हो या और किसी जाति का, तो इतना बड़ा नृशंस व्यापार किस तरह ठीक हो सकता है सो समझना मेरी बुद्धि से परे की बात है। यह सब बातें तो समयानुसार और कभी सोचकर देखूँगा; किन्तु, इस गुस्से के मारे तो मैं जलकर खाक होने लगा, कि यह कापुरुष आज बिना किसी अपराध के इस अनन्य-निर्भर नारी के परम स्नेह के ऊपर वेदना का बोझा लादकर और चकमा देकर भाग गया।
रास्ते के किनारे-किनारे जो चलना शुरू किया तो चलता ही गया। बहुत दिन पहले, एक दिन अभया का पत्र पढ़ने जिस चाह की दुकान में गया था उसी दुकान के मालिक ने शायद पहिचान कर मुझे हाँक दी, “बाबू साहब, आइए।”
एकाएक जैसे नींद टूटते ही मैंने देखा, यह वही दुकान है और वह रोहिणी भइया का घर है। बिना कुछ कहे उसके बुलाने का मान रखकर मैं अन्दर चला गया और एक प्याला चाय पीकर बाहर निकला। रोहिणी के दरवाजे पर धक्का देकर देखा कि भीतर से बन्द है। बाहर की साँकल को पकड़कर दो-चार दफे हिलाते ही किवाड़ खुल गये। आँखें उठाकर देखा कि सामने अभया है।
“अरे तुम?”
अभया की आँखें और चेहरा लाल हो उठा; कोई भी जवाब दिए बगैर वह पलक मारते न मारते अपने कमरे में चली गयी और उसने अन्दर से कुण्डी बन्द कर ली। किन्तु, लज्जा की जो मूर्ति शाम के उस धुँधले प्रकाश में उसके चेहरे पर फूट उठते देखी, उससे जानने-पूछने के लिए और कुछ बाकी ही नहीं रहा। अभिभूत की तरह कुछ देर खड़ा रहकर चुपचाप लौटकर जा रहा था कि अकस्मात् मेरे दोनों कानों में मानो दो तरह के विभिन्न रोने के स्वर एक ही साथ गूँज उठे; एक था उस महापापी का और दूसरा उस बर्मी युवती का। मैं जाना ही चाहता था, किन्तु, फिर लौटकर आँगन में खड़ा हो गया। मन ही मन कहा, नहीं, मुझे इस तरह नहीं जाना चाहिए। नहीं-नहीं- ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए, यह उचित नहीं है, यह अच्छा नहीं है- यह सब अनेक दफे सुनने की आदत रही है, अनेक दफे दूसरों को सुनाया भी है-किन्तु बस, अब और नहीं। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्यों अच्छा है, कहाँ किस तरह बुरा है- ये सब प्रश्न यदि हो सकेगा तो स्वयं उसी के मुँह से सुनूँगा और यदि ऐसा न कर सकूँ, तो केवल पोथी के अक्षरों पर दृष्टि रखकर मीमांसा करने का अधिकार न मुझे है, न तुम्हें है और न शायद विधाता को ही है।
अध्याय 8
एकाएक अभया दरवाजा खोलकर आ खड़ी हुई; बोली, “जन्म-जन्मान्तर के अन्ध संस्कार के धक्के से पहले पहल अपने आपको सँम्हाल न सकी, इसीलिए मैं भाग खड़ी हुई थी श्रीकान्त बाबू, उसे आप मेरी सचमुच की लज्जा मत समझना।”
उसके साहस को देखकर मैं अवाक् हो गया। वह बोली, “आपको अपने डेरे को लौटने में आज कुछ देरी हो जायेगी, क्योंकि रोहिणी बाबू आते ही होंगे। आज हम दोनों ही आपके आसामी हैं। आपके विचार में यदि हम लोग अपराधी सुबूत हों, तो जो दण्ड आप देंगे उसे हम मंजूर करेंगे।”
रोहिणी को ‘बाबू’ कहते यह पहली बार ही सुना। मैंने पूछा, “आप वापस कब लौट आईं?”
अभया बोली, “परसों। वहाँ क्या हुआ, यह जानने का आपको निश्चय ही कुतूहल हो रहा है।” यह कहकर उसने अपना दाहिना हाथ उघाड़कर दिखाया। बेंत के निशान चमड़े पर जगह-जगह उभड़ रहे थे। बोली, और बहुत-से ऐसे निशान भी हैं जिन्हें आपको दिखा नहीं सकती।”
जिन दृश्यों को देखकर मनुष्य का पुरुषत्व हिताहित का ज्ञान खो बैठता है, यह भी उन्हीं में से एक था। अभया ने मेरे स्तब्ध कठोर मुख की ओर देखकर पल-भर में ही सब कुछ समझ लिया और कुछ हँसकर कहा, “किन्तु मेरे वापस लौट आने का यही एक कारण नहीं है श्रीकान्त बाबू, यह तो मेरे सतीधर्म का एक छोटा-सा पुरस्कार है। वे मेरे पति हैं और मैं उनकी विवाहिता स्त्री- यह इसी की जरा-सी बानगी है।”
क्षण-भर चुप रहकर उसने फिर कहना शुरू किया, “मैंने स्त्री होकर पति की अनुमति के बगैर ही इतनी दूर आकर उनकी शान्ति भंग कर दी- स्त्री-जाति की इतनी बड़ी हिमाकत पुरुष-जाति बरदाश्त नहीं कर सकती। यह उसी का दण्ड है। अनेक तरह से भुलावा देकर वे मुझे अपने घर ले गये और वहाँ मुझसे कैफियत तलब की कि क्यों मैं रोहिणी के साथ यहाँ तक आई? मैंने कहा कि पति का घर होता है सो तो मैंने आज तक जाना नहीं। मेरे बाप है नहीं, माँ भी मर गयी- ऐसा कोई नहीं है जो मुझे वहाँ खाने-पीने को दे। तुम्हें बार-बार चिट्ठी लिखने पर भी जवाब नहीं पाया। उन्होंने एक बेंत उठाकर कहा, “आज उसका जवाब देता हूँ।” इतना कहकर अभया ने अपने उस चोट खाए हुए दाहिने हाथ को एक बार सहला लिया।
उस अत्यन्त हीन, अमानुष, बर्ब्बर के विरोध में मेरे सारे अन्त:करण में फिर हलचल मच गयी, किन्तु, जिस अन्ध-संस्कार के फलस्वरूप अभया मुझे देखते ही भागकर छिप गयी थी, वह संस्कार मेरे भी तो था! मैं भी तो उसकी सीमा के बाहर नहीं था! इसलिए मैं यह भी नहीं कह सका कि ‘तुमने अच्छा किया।’ साथ ही यह भी मुँह से न निकला कि ‘अपराध किया है।’ दूसरे के अत्यन्त संकट के समय जब अपने निज के विवेक और संस्कार के- स्वाधीन विचार और पराधीन ज्ञान के बीच संघर्ष छिड़ता है तब दूसरे को उपदेश देने जाने जैसी विडम्बिना संसार में शायद ही कोई हो। कुछ देर चुप रहकर बोला, “तुम्हारा वहाँ से चला आना अन्याय हुआ सो तो मैं नहीं कह सकता, किन्तु…”
अभया बोली, “इस ‘किन्तु’ का विचार ही तो मैं आपके समीप चाहती हूँ, श्रीकान्त बाबू। वे अपनी बर्मी स्त्री को लेकर सुख से रहें, मुझे इसकी कोई शिकायत नहीं; किन्तु, मैं आपसे यह बात जानना चाहती हूँ कि पति जब एकमात्र बेंत के जोर से स्त्री के समस्त अधिकारों को छीन लेता है और उसे अंधेरी रात में अकेली घर के बाहर निकाल देता है, तब इसके बाद भी विवाह के वैदिक मन्त्रों के जोर से उस पर पत्नी के कर्तव्यों की जिम्मेदारी बनी रहती है या नहीं?”
किन्तु मैं चुपकी लगाए रहा। उसने मेरे मुँह पर दृष्टि ठहरा कर फिर कहा, “यह तो खूब मोटी बात है कि जहाँ अधिकार नहीं वहाँ कर्तव्य भी नहीं। उन्होंने भी तो मेरे ही साथ उन्हीं मन्त्रों का उच्चारण किया था, किन्तु, वह एक निरर्थक बकवाद ही रहा जो उनकी प्रवृत्ति पर- उनकी इच्छा पर तो जरा-सी भी रोक नहीं लगा सका। मन्त्रों की वह अर्थहीन आवृत्ति मुँह से बाहर निकलने के साथ ही मिथ्या में मिल गयी- किन्तु, क्या वह सारा बन्धन-सारा उत्तरदायित्तव मैं स्त्री हूँ इसीलिए केवल मेरे ही ऊपर रह गया? श्रीकान्त बाबू, आप तो ‘किन्तु’ तक कह के ही रुक गये। अर्थात् मेरा वहाँ से चला आना अन्याय नहीं हुआ, किन्तु- इस ‘किन्तु’ का अर्थ क्या केवल यही है कि जिसके पति ने इतना बड़ा अपराध किया है उसकी स्त्री के नारी-जन्म की यही चरम सार्थकता है कि वह उसका प्रायश्चित करती हुई जीवन-भर जीती हुई भी मृतक के समान बनी रहे? एक दिन मेरे द्वारा जो विवाह के मन्त्र बुलवा लिये गये थे- उन्हीं का बुलवा लिया जाना ही क्या मेरे जीवन का एकमात्र सत्य है, बाकी सब-बिल्कु्ल ही मिथ्या है? इतना बड़ा अन्याय, इतना बड़ा निष्ठुर अत्याचार, मेरे पक्ष में कुछ भी- कुछ भी नहीं है और क्या मेरे पतित्व का कुछ भी अधिकार नहीं है, माता होने का अधिकार नहीं है; समाज, संसार, आनन्द, किसी पर भी मेरा कुछ अधिकार नहीं हैं? यदि कोई निर्दय, मिथ्यावादी बदचलन पति बिना अपराध के अपनी स्त्री को घर से निकाल दे, तो क्या इसीलिए उसका समस्त नारीत्व व्यर्थ, लँगड़ा, पंगु हो जाना चाहिए? क्या इसीलिए भगवान ने स्त्रियों को बनाकर पृथ्वी पर भेजा था? सभी जातियों में- सभी धर्मों में इस तरह के अन्याय का प्रतिकार है- पर मैं हिन्दू के घर पैदा हुई हूँ, क्या इसीलिए मेरे लिए सब द्वार बन्द हो गये हैं श्रीकान्त बाबू?”
मुझे मौन देखकर अभया बोली, “जवाब नहीं दिया श्रीकान्त बाबू?”
मैंने कहा, “मेरे जवाब से क्या बनता-बिगड़ता है, मेरे मतामत के लिए तो आप राह देख नहीं रही थीं?”
अभया बोली, “किन्तु इसके लिए तो समय नहीं था!”
मैंने कहा, “सो हो सकता है। आप जब मुझे देखकर भाग गयीं तब मैं भी चला जा रहा था। किन्तु फिर लौट आया सो क्यों, आप जानती हैं?”
“नहीं।”
“लौट आने का कारण यह है कि आज मेरा मन बहुत ही उद्विग्न हो रहा है। आपसे भी अधिक निष्ठुर अत्याचार मैंने एक स्त्री पर होते हुए आज सुबह देखा है।” यह कहकर जहाज-घाट की उस बर्मी स्त्री की सारी कथा मैंने विस्तार से कह सुनाई और पूछा, “वह स्त्री अब क्या करे, आप बता सकती हैं?”
अभया सिहर उठी, इसके बाद गर्दन हिलाकर बोली, “नहीं, मैं नहीं बता सकती।”
मैंने कहा, “आज आपको और भी दो स्त्रियों का इतिहास सुनाता हूँ। एक तो मेरी अन्नदा जीजी का और दूसरा प्यारी बाई का। दु:ख के इतिहास में इनमें से किसी का भी स्थान आपसे नीचे नहीं है।”
अभया चुप हो रही। शुरू से आखिर तक अन्नदा जीजी की सारी कथा कहकर मैंने ऑंख उठाकर देखा कि अभया काठ की मूर्ति की तरह स्थिर होकर बैठी है, उसकी दोनों ऑंखों से पानी झर रहा है। कुछ देर इसी तरह बैठी रहकर उसने जमीन पर सिर लगाकर नमस्कार किया और वह उठकर बैठ गयी। फिर ऑंचल से ऑंखों को पोंछते हुए बोली, “उसके बाद?”
मैंने कहा, “उसके बाद का हाल कुछ मालूम नहीं। अब प्यारी बाई की कथा सुनो। जब उसका नाम राजलक्ष्मी था तब से वह एक आदमी को चाहती थी। वह चाहना किस तरह का था सो आप जानती हैं? रोहिणी बाबू आपको जिस तरह चाहते हैं उसी तरह। यह मैंने अपनी ऑंखों देखा है, इसीलिए तुलना कर सका। इसके उपरान्त बहुत दिनों के बाद दोनों की मुलाकात हुई। तब वह ‘राजलक्ष्मी’ नहीं रही थी, ‘प्यारी बाई’ हो गयी थी। किन्तु यह बात उस दिन प्रमाणित हो गया कि राजलक्ष्मी मरी नहीं है, बल्कि प्यारी के ही भीतर चिरकाल के लिए अमर हो गयी है।”
अभया उत्सुक होकर बोली, “उसके बाद?”
बाद की घटनाएँ एक के बाद एक विस्तार के साथ सुनाकर कहा, “इसके बाद एक दिन ऐसा आ पड़ा कि जिस दिन प्यारी ने अपने प्राणाधिक प्रियतम को चुपचाप दूर हटा दिया।”
अभया ने पूछा, “उसके बाद क्या हुआ, जानते हैं?”
“जानता हूँ। पर अब नहीं कहूँगा।”
अभया ने एक नि:श्वास छोड़कर कहा, “आप क्या यह कहना चाहते हैं कि मैं अकेली ही नहीं हूँ- चिरकाल से ही स्त्रियों को ऐसे दुर्भाग्य का भोग करना पड़ रहा है और इस दु:ख को सहन करते रहने में ही उनके जीवन की चरम सफलता है?”
मैंने कहा, “मैं यह कुछ भी नहीं कहना चाहता। आपको मैं केवल इतना ही जतला देना चाहता हूँ कि स्त्रियाँ मर्द नहीं हैं। दोनों के आचार-व्यवहार एक ही तराजू से नहीं तौले जा सकते; और तौले भी जाँय तो कोई लाभ नहीं।”
“क्यों नहीं है, कह सकते हैं?”
“नहीं, सो भी नहीं कह सकता। इसके सिवाय आज मेरा मन कुछ ऐसा उद्भ्रान्त हो रहा है कि इन सब जटिल समस्याओं की मीमांसा करना सम्भव ही नहीं। आपके प्रश्न पर मैं और एक दिन विचार करूँगा। फिर भी, आज मैं आपसे यह कहे जा सकता हूँ कि मैंने अपने जीवन में जो थोड़े से महान नारी-चरित्र देखे हैं उन सबने दु:ख के भीतर से गुजरकर ही मेरे मन में ऊँचा स्थान पाया है। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरी अन्नदा जीजी अपने दु:ख का सारा भार चुपचाप सहन करने के सिवाय और कुछ न कर सकतीं। यह भार असह्य होने पर भी वे अपने पथ से हटकर कभी आपके पथ पर पैर रख सकतीं, यह बात सोचने से भी शायद दु:ख के मारे मेरी छाती फट जायेगी।”
कुछ देर चुप रहकर कहा, “और वह राजलक्ष्मी? उसके त्याग का दु:ख कितना बड़ा है सो तो मैं स्वयं अपनी नजर से देख आया हूँ। इस दु:ख के जोर से ही उसने आज मेरे समस्त हृदय को परिव्याप्त कर रक्खा है…”
अभया ने चौंककर कहा, “तो फिर क्या आप ही उसके…”
मैंने कहा, “यदि ऐसा न होता तो वह इतनी स्वच्छन्दता से मुझे इतनी दूर न पड़ा रहने देती, खो जाने के डर से प्राणपण से खींचकर अपने पास ही रखना चाहती।”
अभया बोली, “इसके मानी यह कि राजलक्ष्मी जानती है कि उसे आपके खोए जाने का डर ही नहीं है?”
मैंने कहा, “केवल डर ही नहीं, राजलक्ष्मी जानती है कि मैं खोया जा ही नहीं सकता। इसकी सम्भावना ही नहीं है। पाने और खोने की सीमा से बाहर जो एक सम्बन्ध है, मुझे विश्वास है कि उसने उसे ही प्राप्त कर लिया है और इसीलिए मेरी भी इस समय उसे जरूरत नहीं है। देखो, मैंने स्वयं भी इस जीवन में कुछ कम दु:ख नहीं उठाया है। उससे मैंने यही समझा है कि ‘दु:ख’ जिसे कहते हैं वह न तो अभावरूप ही है और न शून्य रूप। भयहीन जो दु:ख है, उसका उपभोग सुख की तरह ही किया जा सकता है।”
अभया देर तक स्थिर रहकर धीरे से बोली, “आपकी बात समझती हूँ श्रीकान्त बाबू! अन्नदा जीजी, राजलक्ष्मी- इन दोनों ने जीवन में दु:ख को ही सम्बल रूप से प्राप्त किया है। किन्तु, मेरे हाथ तो वह भी नहीं। पति के समीप मैंने पाया है केवल अपमान। केवल लांछना और ग्लानि लेकर ही मैं लौट आई हूँ। इस मूल-धन को लेकर ही क्या आप मुझे जीवित रहने के लिए कहते हैं?”
सवाल बड़ा ही कठिन है। मुझे निरुत्तर देखकर अभया फिर बोली, “इनके साथ मेरे जीवन का कहीं भी मेल नहीं है श्रीकान्त बाबू। संसार के सभी स्त्री-पुरुष एक साँचे में ढले नहीं होते, उनके सार्थक होने का रास्ता भी जीवन में केवल एक नहीं होता। उनकी शिक्षा, उनकी प्रवृत्ति और मन की गति एक ही दिशा में चलकर उन्हें सफल नहीं बना सकती। इसीलिए, समाज में उनकी व्यवस्था रहना उचित है। मेरे जीवन पर ही आप एक दफे अच्छी तरह शुरू से आखिर तक नजर डाल जाइए। मेरे साथ जिनका विवाह हुआ था उनके समीप आए बिना कोई उपाय नहीं था और आने पर भी कोई उपाय नहीं हुआ। इस समय उनकी स्त्री, उनके बाल-बच्चे, उनका प्रेम, कुछ भी मेरा खुद का नहीं है। इतने पर भी उन्हीं के समीप उनकी एक रखेल वेश्या की तरह पड़े रहने से ही क्या मेरा जीवन फल-फूलों से लदकर सफल हो उठता श्रीकान्त बाबू? और उस निष्फलता के दु:ख को लादे हुए सारे जीवन भटकते फिरना ही क्या मेरे नारी जीवन की सबसे बड़ी साधना है? रोहिणी बाबू को तो आप देख ही गये हैं। उनका प्यार तो आपकी दृष्टि से ओझल है नहीं। ऐसे मनुष्य के सारे जीवन को लँगड़ा बनाकर मैं ‘सती’ का खिताब नहीं खरीदना चाहती श्रीकान्त बाबू।”
हाथ उठाकर अभया ने ऑंखों के कोने पोंछ डाले और फिर रुँधे हुए कण्ठ से कहा, “न कुछ एक रात्रि के विवाह-अनुष्ठान को, जो कि पति-पत्नी दोनों के ही निकट स्वप्न की तरह मिथ्या हो गया है, जबर्दस्ती जीवन-भर ‘सत्य’ कहकर खड़ा रखने के लिए इतने बड़े प्रेम को क्या मैं बिल्कुसल ही व्यर्थ कर दूँ? जिन विधाता ने प्रेम की यह देन दी है, वे क्या इसी से खुश होंगे? मेरे विषय में आपकी जो इच्छा हो वही धारणा कर लें; मेरी भावी सन्तान को भी आप जो चाहें सो कहकर पुकारें, किन्तु जीती रहूँगी श्रीकान्त बाबू, तो मैं निश्चयपूर्वक कहे रखती हूँ कि हमारे निष्पाप प्रेम की सन्तान संसार में मनुष्य के लिहाज से किसी से भी हीन न होगी और मेरे गर्भ से जन्म ग्रहण करने को वह अपना दुर्भाग्य कभी न समझेगी। उसे दे जाने लायक वस्तु उसके माँ-बाप के समीप शायद कुछ न होगी; किन्तु, उसकी माता उसको यह भरोसा अवश्य दे जायेगी कि वह सत्य के बीच पैदा हुई है, सत्य से बढ़कर सहारा उसके लिए संसार में और कुछ नहीं है। इस वस्तु से भ्रष्ट होना उसके लिए कठिन होगा- ऐसा होने पर वह बिल्कुछल ही तुच्छ हो जाँयगी।”
अभया चुप हो रही, किन्तु सारा आकाश मानो मेरी ऑंखों के सामने काँपने लगा, मुहूर्त-भर के लिए मुझे भास हुआ कि इस स्त्री के मुँह की बातें मानो मूर्त्त रूप धारण करके बाहर हम दोनों को घेर कर खड़ी हो गयी हैं। हाँ, ऐसा ही मालूम हुआ। सत्य जब सचमुच ही मनुष्य के हृदय से निकलकर सम्मुख उपस्थित हो जाता है तब मालूम होता है कि वह सजीव है- मानों उसके रक्त-मांसयुक्त शरीर है और मानो उसके भीतर प्राण भी है- ‘नहीं’ कहकर अस्वीकार करने पर मानो वह चोट करके कहेगा, “चुप रहो, मिथ्या तर्क करके अन्याय की सृष्टि मत करो!”
सहसा अभया एक सीधा प्रश्न कर बैठी; बोली, “आप स्वयं भी क्या हमें अश्रद्धा की नजर से देखेंगे श्रीकान्त बाबू? और अब क्या हमारे घर न आवेंगे?”
उत्तर देते हुए मुझे कुछ देर इधर-उधर करना पड़ा। इसके बाद मैं बोला, अन्तर्यामी के समीप तो शायद आप निष्पाप हैं- वे आपका कल्याण ही करेंगे; किन्तु, मनुष्य तो मनुष्य का अन्तस्तल नहीं देख सकते- उनके लिए तो प्रत्येक के हृदय का अनुभव करके विचार करना सम्भव नहीं है। यदि वे प्रत्येक के लिए अलहदा नियम गढ़ने लगें तो उनके समाज की सबकी सब कार्य-श्रृंखला ही टूट जाय।”
अभया कातर होकर बोली, “जिस धर्म में- जिस समाज में हम लोगों को उठा लेने योग्य उदारता है-स्थान है- क्या आप हम लोगों से उसी समाज में आश्रय ग्रहण करने के लिए कहते हैं?”
इसका क्या जवाब दूँ, मैं सोच ही न सका।
अभया बोली, “अपने आदमी होकर भी अपने ही आदमी को आप संकट के समय आश्रय नहीं दे सकते? उस आश्रय की भीख माँगनी होगी हमें दूसरों के निकट? उससे क्या गौरव बढ़ता है श्रीकान्त बाबू?”
प्रत्युत्तर में केवल एक दीर्घश्वास के सिवाय और कुछ मुँह से बाहर नहीं निकला।
अभया स्वयं भी कुछ देर मौन रहकर बोली, “जाने दीजिए। आप लोगों ने जगह नहीं दी, न सही, मुझे सान्त्वना यही है कि जगत में आज भी एक बड़ी जाति है जो खुले तौर पर स्वच्छन्दता से स्थान दे सकती है।”
उसकी बात से कुछ आहत होकर बोला, “क्या हर हालत में आश्रय देना ही भला काम है, यह मान लेना चाहिए?”
अभया बोली, “इसका प्रमाण तो हाथों-हाथ मिल रहा है श्रीकान्त बाबू। पृथ्वी में कोई अन्याय-कार्य अधिक दिन तक नहीं फल-फूल सकता, यह बात यदि सत्य है तो क्या यह कहना पड़ेगा कि इसीलिए वे अन्याय को आश्रय देते हुए दिनों दिन ऊँचे बढ़ रहे हैं, और हम लोग न्याय-धर्म को आश्रय देकर प्रतिदिन क्षुद्र और तुच्छ होते जा रहे हैं? हम लोग तो यहाँ कुछ ही दिन हुए आए हैं, परन्तु, इतने दिनों में ही देखती हूँ कि मुसलमानों से यह सारा देश छाया जा रहा है। सुनती हूँ, ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ कम-से-कम एक घर मुसलमान का न हो और जहाँ पर एकाध मस्जिद तैयार न हो गयी हो। हम लोग शायद अपनी ऑंखों न देख जा सकें; किन्तु, ऐसा दिन शीघ्र ही आवेगा जिस दिन हमारे देश की तरह यह बर्मा देश मुसलमान-प्रधान देश बन जाएगा। आज सुबह ही जहाज-घाट पर एक अन्याय देखकर आपका मन खराब हो गया है। आप ही कहिए, किस मुसलमान बड़े भाई को धर्म और समाज के भय से ऐसे षडयन्त्र का- ऐसी नीचता का आसरा लेकर सुख-चैन की ऐसी गिरस्ती राख में मिलाकर भाग जाने की जरूरत पड़ती? बल्कि इससे उलटा, वह तो सभी को अपने दल में खींच लेकर आशीर्वाद देता और बड़े भाई के योग्य सम्मान और मर्यादा ग्रहण कर लौट जाता। इन दोनों में से किससे सच्चा धर्म बना रहता है श्रीकान्त बाबू?”
मैंने गहरी श्रद्धा से भरकर पूछा, “अच्छा, आप तो गँवई-गाँव की कन्या हैं, आपने ये सब बातें किस तरह जानीं? मैं तो नहीं समझता कि इतने प्रशस्त-हृदय हम पुरुषों में भी अधिक हैं। आप जिनकी माता होंगी वह अभागी हो सकती है, इसकी कम-से-कम मैं तो किसी तरह कल्पना नहीं कर सकता।”
अभया अपने म्लान मुख पर जरा-सा हँसी का आभास लाकर बोली, “तो फिर श्रीकान्त बाबू, मुझे समाज से बाहर कर देने से ही क्या हिन्दू समाज अधिक पवित्र हो उठेगा? इससे क्या किसी ओर से भी समाज को नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा?”
कुछ देर स्थिर रहकर और फिर कुछ जरा-सा हँसकर कहा, “किन्तु मैं किसी तरह भी समाज के बाहर न होऊँगी; सारा अपयश, सारा कलंक, सारा दुर्भाग्य अपने सिर पर लेकर हमेशा आप लोगों की ही होकर रहूँगी। अपनी एक सन्तान को भी यदि किसी दिन मनुष्य की तरह मनुष्य बनाकर खड़ा कर सकूँ, तो मेरा यह सारा दु:ख सार्थक हो जाए- बस यही आशा लेकर मैं जीऊँगी। मुझे परीक्षा करके देखना होगा कि सचमुच का मनुष्य ही मनुष्यों में बड़ा है या उसके जन्म का हिसाब ही संसार में बड़ा है।”
मनोहर चक्रवर्ती नामक एक प्राज्ञ सज्जन से मेरी मुलाकात हो गयी थी। दादा ठाकुर की होटल में एक हरि-संकीर्तन दल था। पुण्य बटोरने की इच्छा से बीच-बीच में वे उसी निमित्त वहाँ आते थे। किन्तु कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं- सो मैं कुछ नहीं जानता था। सिर्फ इतना ही सुना था कि उनके पास बहुत-सा रुपया है, और सब तरफ से वे अत्यन्त हिसाबी हैं।
न जाने क्यों, मुझसे बेहद प्रसन्न होकर वे एक दिन अकेले में बोले, “देखो श्रीकान्त बाबू, तुम्हारी उम्र छोटी है- जीवन में यदि उन्नति प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें मैं कुछ ऐसे ‘गुर’ बतला सकता हूँ जिनका मूल्य लाख रुपया है। मैंने खुद जिनके समीप ये गुर प्राप्त किये थे उन्होंने संसार में कितनी उन्नति की थी, सुनोगे तो शायद अवाक् हो जाओगे, किन्तु बात बिल्कुनल सच है। वे केवल पचास रुपया महीना पाते थे, परन्तु मरते समय घर-बार ये बाग-बगीचा, तालाब, जमीन-जायदाद आदि के सिवाय दो हजार रुपये नकद छोड़ गये। कहो न… यह क्या कोई सहज बात है? अपने माँ-बाप के आशीर्वाद से मैं खुद भी तो…”
परन्तु, वे अपनी बात यहीं पर दबा देकर बोले, “सुनता हूँ, तनखा तो खूब मोटी-सी पाते हो, भाग्य भी तुम्हारा बड़ा अच्छा है- बर्मा में आते ही किसी का ऐसा भाग्य खुलते नहीं सुना गया- किन्तु फिजूलखर्ची भी कितनी करते हो! है न यह बात? भीतर ही भीतर पता लगाने से दु:ख के मारे छाती फट जाती है। देखते ही तो हो कि मैं लोगों की किसी बात में नहीं पड़ता। किन्तु, मेरे माफिक, अधिक नहीं, दो बरस तो चलकर देखो। मैं कहता हूँ तुमसे, कि देश लौटकर अगर चाहोगे तो तुम अपना विवाह तक कर सकोगे।”
इस सौभाग्य के लिए भीतर ही भीतर मैं इस कदर लालायित हो उठा हूँ, यह तथ्य न मालूम उन्होंने किस तरह पा लिया- किन्तु, यह तो खुद ही प्रकट कर चुके थे कि वे भीतर ही भीतर पता लगाए बिना किसी की भी किसी बात में नहीं पड़ते।
जो हो, उनके उन्नति के बीच-मन्त्र-रूप सत्परामर्श के लिए मैं लुब्ध हो उठा। वे बोले, “देखो, दान-वान करने की बात छोड़ दो-चोटी का पसीना एड़ी तक बहाकर रोजी कमानी होती है, कमर-भर मिट्टी खोदने पर भी पैसा नहीं मिलता। अपने खून को जलाकर पैदा की हुई कौड़ी गैरों को बख्श दे, आजकल की दुनिया में ऐसा पागल और भी कोई है? अपने स्त्री-बच्चों और परिवार के लिए रख छोड़ा जाय, तब न दूसरों को दान किया जाय? इस बात को बिल्कु्ल ही छोड़ दो, यह मैं नहीं कहता- किन्तु देखो, जिसके घर में पैसे की खींचतान हो उस आदमी को कभी प्रश्रय न देना। अधिक नहीं दो-चार दिन की आमद-रफ्त के बाद ही वह अपनी गिरस्ती की कष्ट-कहानी सुनाकर दो-चार रुपये माँग बैठेगा। जो दिये सो तो दिये ही, और बाहर का झगड़ा घर में खींच लाये सो अलग। रुपयों की ममता वैसे कोई सचमुच में तो छोड़ सकता नहीं-तकाजा करना ही पड़ता है, और तब दौड़-धूप झगड़ा-बखेड़ा। भला हमें इसकी जरूरत ही क्या पड़ी है?” मैंने गर्दन हिलाकर कहा, “जी हाँ, आप बिल्कुील सही कहते हैं।”
वे उत्तेजित होकर बोले, “तुम अच्छे घर के लड़के हो, इसलिए चट से बात समझ गये; किन्तु इन छोटी जात के लोहा पीटनेवाले सालों की तो समझाओ देखूँ! हरामजादे सात जन्म में भी नहीं समझेंगे। सालों के पास खुद का एक पैसा नहीं, फिर भी, पराए घर से कर्ज लाकर दूसरों को दे आयँगे। ये छोटे लोग ऐसे ही अहमक होते हैं!”
कुछ देर चुप रहकर बोले, “तब हों, देखो, कभी किसी को भी रुपये उधर मत देना। कहेंगे, “बड़ा कष्ट है।” तुम्हें कष्ट है भाई, तो हमें क्या? और यदि सचमुच में ही कष्ट है तो दो तोले सोना लाकर रख जाओ न, अभी देता हूँ दस रुपये उधार? क्यों भइए, है न ठीक?”
मैंने कहा, “जी हाँ, ठीक तो है!”
वे बोले, “एक दफे नहीं, सौ दफे ठीक है! और देखो, झगड़े-बखेड़े की जगह कभी मत जाना। किसी का खून हो जाये तो भी नहीं। हमें उससे मतलब? यदि किसी को बचाने जाओगे तो दो-एक चोटें अपने पर भी आ पड़ेंगी। सिवाय इसके कोई एक पक्ष अपना गवाह मान बैठेगा। तब फिर मुफ्त में करो दौड़ा-दौड़ अदालतों तक। बल्कि, लड़ाई-झगड़ा जब खत्म हो जाय तब, यदि जी चाहे तो घूम आओ- एक दफे वहाँ तक, और दो बातें भली-बुरी सलाह की दे आओ। पाँच आदमियों में तुम्हारा नाम हो जाएगा। है न बात ठीक?”
कुछ देर चुप रहकर फिर उन्होंने कहना शुरू किया, “और फिर इन लोगों के रोग-शोक के समय तो भइया मैं इनके महल्ले में भी पैर नहीं रखता। उसी समय कह बैठते हैं कि “भाई, मैं मर रहा हूँ, इस विपत्ति में दो रुपया देकर जरा सहायता करो!” पर भइया, मनुष्य के मरने-जीने की बात तो कुछ कहीं नही जा सकती, इसलिए, उसे रुपया देना और पानी में फेंक देना एक ही बात है- बल्कि पानी में फेंक देना कहीं भला है, परन्तु उस जगह नहीं। और कुछ नहीं तो शायद यही कह बैठते हैं, “जरा रत-जगा करने आ बैठना।” बहुत खूब! मैं जाऊँ उनकी बीमारी में रत-जगा करने, किन्तु इस दूर परदेश में मुझे ही कुछ-न करें माता शीतला, कान पकड़ता हूँ माँ!” यों कहकर उन्होंने जीभ को दाँतों-तले दबा लिया तथा अपने कान अपने ही हाथों ऐंठकर और नमस्कार कर कहा, “हम लोग सभी तो उनके चरणों में पड़े हैं- किन्तु, बताओ भला, ऐसी विपत्ति में मेरी खबर कौन लेगा?”
अबकी मैं हाँ में हाँ न मिला सका। मुझे मौन देखकर वे मन ही मन शायद कुछ दुविधा में पड़कर बोले, “देखो न साहब लोगों को। वे क्या कभी ऐसे स्थानों में जाते हैं? कभी नहीं। अपना एक कार्ड-भर पठा दिया, बस हो गया। इसीलिए देखो न उनकी उन्नति को! उसके बाद अच्छे होने पर फिर वैसा ही मेलजोल-ठीक उसी तरह। सो भइया, किसी के झगड़े-झंझट में कभी न पड़ना चाहिए।”
ऑफिस का समय होते देख मैं उठ खड़ा हुआ। इन प्रज्ञ महाशय की भली सलाह से इतनी उम्र में मेरी अधिक मानसिक उन्नति होना सम्भव हो, सो बात नहीं उससे मन के भीतर, और तो क्या, हलचल भी कुछ अधिक नहीं मची। क्योंकि, इस किस्म के अनुभवी व्यक्तियों का देहात में बिल्कुंल अभाव नहीं देखा। तथा उनकी और चाहे जितनी बदनामी हो किन्तु, सलाह देने में वे कंजूसी करते हों, उनके बारे में यह अपवाद भी कभी नहीं सुना गया। और देश के लोगों ने मान भी लिया है कि यह सलाह भली सलाह है- जीवन-यात्रा के कार्य में निस्संदिग्ध सज्जनोचित उपाय है- फिर भले ही पारिवारिक जीवन में यह उतनी कारगर न हो जितनी कि सामाजिक जीवन में। बंगाली गृहस्थ का कोई लड़का यदि अक्षरश: इसके अनुसार चले, तो उसके माँ-बाप असन्तुष्ट होंगे- बंगाली माता-पिताओं के विरुद्ध इतनी बड़ी झूठी बदनामी फैलाते हुए पुलिस के सी.आई.डी. के आदमियों का विवेक भी बाधा डालेगा। सो चाहे जो हो, किन्तु इस तरह की प्रतिज्ञा के भीतर कितना बड़ा अपराध था, यह दो हफ्ते भी न गुजरने पाए कि भगवान ने इन्हीं के द्वारा मेरे निकट प्रमाणित कर दिया।
तब से मैं अभया के घर की ओर नहीं गया था। यह सत्य है कि मैं उसकी सारी अवस्था के साथ उसकी बातों का मिलान करके शुरू से अन्त तक के इस व्यापार को ज्ञान के द्वारा एक तरह से देख सकता था। यह भी ठीक है कि उसके विचारों की स्वाधीनता, उसके आचरण की निर्भीक सावधानता, उनका परस्पर का सुन्दर और असाधारण स्नेह- यह सब मेरी बुद्धि को उसी ओर निरन्तर आकर्षित करते थे, किन्तु फिर भी, मेरे जीवन-भर के संस्कार किसी तरह भी उस ओर मुझे पैर नहीं बढ़ाने देते थे। मन में केवल यही आता था कि मेरी अन्नदा जीजी यह कार्य न करतीं। वे कहीं भी दासी-वृत्ति करके लांछना, अपमान और दु:ख के भीतर से गुजरते हुए अपना बाकी जीवन काट देतीं, किन्तु, ब्रह्माण्ड के सारे सुखों के बदले में भी जिसके साथ उनका विवाह नहीं हुआ उसके साथ गिरस्ती करने को राजी न होतीं। मैं जानता हूँ, उन्होंने भगवान के चरणों में एकान्त भाव से अपने आपको समर्पित कर दिया था। अपनी उस साधना के भीतर से उन्होंने पवित्रता की जो धारणा और कर्त्तव्य का जो ज्ञान-प्राप्त किया था, सो अभया की सुतीक्ष्ण बुद्धि की मीमांसा के समीप क्या एकबारगी ही बच्चों का खेल था?
हठात् अभया की एक बात याद आ गयी। तब भलीभाँति तह तक पहुँचने का मुझे अवकाश नहीं मिला था। उसने कहा था, “श्रीकान्त बाबू, दु:ख का भोग करने में भी एक किस्म का नाशकारी मोह है। मनुष्य ने अपनी युग-युग की जीवन-यात्रा में यह देखा है कि कोई भी बड़ा फल किसी बड़े भारी दु:ख को उठाए बिना नहीं प्राप्त किया जा सकता। उसका जन्म-जन्मान्तर का अनुभव इस भ्रम को सत्य मान बैठा है कि जीवनरूपी तराजू में एक तरफ जितना ही अधिक दु:ख का भार लादा जाय, दूसरी ओर उतना ही अधिक सुख का बोझा ऊपर उठ आता है। इसीलिए तो, मनुष्य जब संसार में अपनी सहज और स्वाभाविक प्रकृति को अपनी इच्छा से वर्जित करके यह समझकर निराहार घूमता फिरता है कि ‘मैं तपस्या करता हूँ।’ तब, इस सम्बन्ध में कि उसके खाने के लिए कहीं पर उससे चौगुना आहार संचित हो रहा है, न तो उसके ही मन में तिल-भर सन्देह उठता है और न किसी और के ही मन में। इसीलिए, जब कोई सन्यासी निदारुण शीत में गले तक जल-मग्न होकर और भीषण गर्मी की भयंकर धूप में धूनी रमाए जमीन पर सिर और ऊपर पैर करके अवस्थित रहता है तब उसके दु:ख-भोग की कठोरता देखकर दर्शकों के दल केवल दु:ख का ही अनुभव नहीं करते, बल्कि उस पर एकबारगी मुग्ध हो जाते हैं। भविष्य में उसे मिलने वाले आराम के भारी और असम्भव हिसाब की खतौनी करके उनका प्रलुब्ध चित्त ईष्या से व्यस्त हो उठता है और वे कहने लगते हैं कि वह नीचे सिर और ऊपर पैर रखने वाला व्यक्ति ही संसार में धन्य है, मनुष्य-देह धारण करके करने योग्य कार्य वास्तव में वही कर रहा है, हम लोग तो कुछ भी नहीं कर रहे हैं- व्यर्थ ही जीवन गवाँ रहे हैं। इस तरह अपने आपको हजारों धिक्कार देते हुए वे मलीन मन से घर लौट आते हैं। श्रीकान्त बाबू, सुख प्राप्त करने के लिए दु:ख स्वीकार करना चाहिए, यह बात सत्य है किन्तु इसीलिए, यह स्वत: सिद्ध नहीं हो जाता कि जिस तरह भी हो बहुत-सा दु:ख भोग लेने से ही सुख हमारे कन्धों पर आ बैठेगा। यह इहलोक में भी सत्य नहीं है और परलोक में भी नहीं।”
मैंने कहना शुरू किया, “किन्तु, विधवा का ब्रह्मचर्य…”
अभया ने मुझे बीच में टोककर कहा, “विधवा का ‘आचरण’ कहिए- उसके साथ ‘ब्रह्म’ का बिन्दुमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। विधवा का चाल-चलन ही ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय है, यह मैं नहीं मानती। वास्तव में वह तो कुछ भी नहीं है। कुमारी, सधवा, विधवा-सभी अपने-अपने मार्ग से ब्रह्म-लाभ कर सकती हैं। विधवा का आचरण ही इसके लिए रिजर्व नहीं कर रक्खा गया है।”
मैंने हँसकर कहा, “बहुत ठीक, ऐसा ही सही। उसका आचरण ब्रह्मचर्य न सही- नाम से क्या आता-जाता है?”
अभया ने बिगड़कर कहा, “नाम ही तो सब कुछ है श्रीकान्त बाबू, नाम को छोड़कर दुनिया में और है ही क्या? गलत नामों के भीतर से मनुष्य की बुद्धि की विचारशीलता की और ज्ञान की धारा कितनी बड़ी भूलों के बीच बहाई जा सकती है, सो क्या आप नहीं जानते? इसी, नाम के भुलावे के कारण ही तो सब देश और सब काल विधवा के आचरण को सबसे श्रेष्ठ मानते आ रहे हैं। यह निरर्थक त्याग की निष्फल महिमा है श्रीकान्त बाबू, बिल्कुयल ही व्यर्थ बिल्कुील ही गलत। मनुष्य को इहलोक और परलोक दोनों में पशु बना देने वाली इससे बढ़कर जादूगरी और कोई हो ही नहीं सकती।”
उस समय और बहस न करके मैं चुप हो गया था। दरअसल उसे बहस में हरा देना एक तरह से असम्भव ही था। पहले-पहले जब जहाज पर उससे परिचय हुआ, डॉक्टर साहब केवल उसे बाहर से ही देखकर मजाक में बोले, “औरत तो बड़ी ही ‘फारवर्ड’ है-परन्तु उस समय दोनों में से किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि, इस ‘फारवर्ड’ शब्द का अंत कहाँ तक पहुँच सकता है। यह रमणी अपने समस्त अन्तस्ल तक को किस तरह अकुण्ठित तेज से बाहर खींचकर सारे संसार के सामने खोलकर रख सकती है- लोगों के मतामत की परवाह ही नहीं करती, उस समय इसके सम्बन्ध में हमारी यह धारणा नहीं थी। अभया केवल अपने मत को अच्छा प्रमाणित करने के लिए ही वाग्वितण्डा नहीं करती- वह अपने कार्य को भी बलपूर्वक विजयी करने के लिए बाकायदा युद्ध करती है। उसका मत कुछ हो और काम कुछ और हो ऐसा नहीं है; इसलिए, शायद, बहुत दफे मैं उसके सामने उसकी बात का जवाब खोजे नहीं पाता था, कुछ अप्रतिभ-सा हो जाता था- परन्तु, लौटकर जब अपने डेरे पर पहुँचता था तब खयाल आता था- अरे यह तो उसका खूब करारा उत्तर था! खैर, जो भी हो उसके सम्बन्ध में आज भी मेरी दुविधा नहीं मिटी है। अपने आपसे मैं जितना ही प्रश्न करता कि इसके सिवाय अभया के लिए और गति ही क्या थी, उतना ही मेरा मन मानो उसके विरुद्ध टेढ़ा होकर खड़ा हो जाता। जितना ही मैं अपने आपको समझाता कि उस पर अश्रद्धा करने का मुझे जरा भी हक नहीं है- उतना ही अव्यक्त अरुचि से मानो अन्तर भर उठता।
मुझे खयाल आता है कि मन की ऐसी कुंठित अप्रसन्न अवस्था में ही मेरे दिन बीत रहे थे, इसीलिए, न तो मैं उसके समीप ही जा सकता था और न एकबारगी उसे अपने मन से दूर ही हटा सकता था।
ऐसे ही समय हठात् एक दिन प्लेग ने शहर के बीच आकर अपन घूँघट खोल दिया और अपना काला मुँह बाहर निकाला। हाय रे! उसे समुद्र-पार रोक रखने के लिए किये गये लक्ष कोटि जन्तर-मन्तर और अधिकारियों की अधिक से अधिक निष्ठुर सावधानी, सब मुहूर्त-भर में एकबारगी धूल में मिल गयी! लोगों में बेहद आतंक छा गया। शहर के चौदह आने लोग या तो नौकरपेशा थे या फिर व्यापार-पेशा। इस कारण, उनको एकबारगी दूर भाग जाने का भी सुभीता नहीं था। वही दशा हुई जैसी किसी सब ओर से रुद्ध कमरे के बीच आतिशबाजी की छछूँदर छोड़ देने पर होती है। भय के मारे इस महल्ले के लोग स्त्री-पुत्रों का हाथ पकड़े, छोटी-छोटी गठरियाँ कन्धों पर लादे उस महल्ले को भागते थे और उस महल्ले के लोग ठीक उसी तरह इस महल्ले को भागते आते थे! मुँह से ‘चूहा’ शब्द निकला नहीं कि फिर खैर नहीं। वह मरा है या जीता, यह सुनने के पहले ही लोग भागना शुरू कर देते! मालूम होता था लोगों के प्राण मानो वृक्ष के फलों की तरह पकड़कर डण्ठलों में झूल रहे हैं, प्लेग की हवा लगते ही रात-भर में उनमें से कौन कब ‘टप’ से नीचे टपक पड़ेगा, इसका कोई निश्चय ही नहीं।
शनीचर की बात है। एक साधारण से काम के लिए सुबह ही मैं बाहर चला गया था। शहर के बीचोंबीच एक गली के भीतर से बड़े रास्ते पर जाने के लिए जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाए चला जा रहा था कि देखा एक अत्यन्त जीर्ण मकान के दो- मंजिले के बरामदे में मनोहर चक्रवर्ती खड़े हुए बुला रहे हैं।
मैंने हाथ हिलाकर कहा, “समय नहीं।”
वे अतिशय अनुनय-सहित बोले, “दो मिनट के लिए एकदम ऊपर आइए, श्रीकान्त बाबू, बड़ी आफत में हूँ।”
आखिर बिल्कुील इच्छा न रहते भी ऊपर जाना पड़ा। मैं यही तो बीच-बीच में सोचा करता हूँ कि क्या मनुष्य की हर एक हरकत पहले से ही निश्चित की हुई होती है! नहीं तो, मेरा कोई ऐसा काम भी न था और न उस गली के भीतर इससे पहले कभी प्रवेश ही किया था, तब, आज सुबह ही मैं इस ओर आकर कैसे हाजिर हो गया?
नजदीक जाकर कहा, “बहुत दिन से तो आप उस तरफ आए नहीं- आप क्या इसी मकान में रहते हैं?”
वे बोले, “नहीं महाशय, मैं बारह-तेरह दिन हुए तभी यहाँ आया हूँ। एक तो महीने-भर से ‘डिसेण्ट्री’ (दस्त लगने की बीमारी) भुगत रहा हूँ, फिर उस पर हो गयी हमारे महल्ले में प्लेग। क्या करूँ महाशय, उठ तक नहीं सकता हूँ, फिर भी जैसे-तैसे जल्दी से भाग आया।”
मैंने कहा, “बहुत ठीक किया।”
वे बोले, “बहुत ठीक किया, यह कैसे कहूँ महाशय, मेरा, “कम्बाइण्ड हैण्ड’ बहुत ही बदजात है। बोलता है ‘नहीं रहूँ, चला आऊँगा।” जरा साले को अच्छी तरह धमका तो दीजिए।”
मुझे जरा अचरज हुआ। किन्तु, इसके पहले इस ‘कम्बाइण्ड हैण्ड’ नामक चीज की व्याख्या कर देना जरूरी है। क्योंकि जो लोग यह नहीं जानते कि ‘हिन्दुस्तानी लोग’ पैसे के लिए जो न कर सके दुनिया में ऐसा कोई काम ही नहीं है, वे लोग यह सुनकर विस्मित होंगे कि इस अंगरेजी शब्द का मतलब है दुबे, चौबे, तिवारी आदि हिन्दुस्तानी ब्राह्मण, जो यहाँ पर तो किसी के पास फटकते ही उछल पड़ते हैं, परन्तु, वहाँ जाकर रसोई बनाते हैं, जूठे बर्तन माँजते हैं, तम्बाकू भरते हैं और बाबू साहबों के ऑफिस जाते समय उनके बूट झाड़-पोंछकर साफ कर देते हैं- फिर वे बाबू चाहे किसी भी जाति के क्यों न हों। हाँ, यह बात अवश्य है कि दो-चार रुपये महीना अधिक देने पर ही ये त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि पूज्य लोग ब्राह्मण और शूद्र-दोनों का काम ‘कम्बाइण्ड’ तौर पर करते है। बेवकूफ उड़िया और बंगाली ब्राह्मण आज तक भी यह कार्य करने को राजी नहीं किये जा सके, किये जा सके तो सिर्फ ये ही। इसका कारण पहले ही कह चुका हूँ कि पैसा पाने पर सारे कुसंस्कारों को छोड़ने में ‘हिन्दुस्तानी लोगों’ को मुहूर्त-भर की भी देर नहीं लगती। मुर्गी पकाने के लिए चार-आठ आने महीने और अधिक देने पड़ते हैं; क्योंकि ‘मूल्य के द्वारा सब कुछ शुद्ध हो जाता है-शास्त्र के इस वचनार्ध का यथार्थ तात्पर्य हृदयंगम करने तथा शास्त्रवाक्य में अविचलित श्रद्धा रखने में आज तक यदि कोई समर्थ हुए हैं तो यही हिन्दुस्तानी लोग- यह बात स्वीकार करनी ही होगी।
किन्तु, मनोहर बाबू के इस ‘कम्बाइण्ड हैण्ड’ को मैं किसलिए धमकी दूँ और वह भी क्यों मेरी धमकी सुनेगा, यह मैं नहीं समझ सका। और यह ‘हैण्ड’ भी मनोहर बाबू ने हाल ही रक्खा था। इतने दिन वे अपने कम्बाइण्ड ‘हैण्ड’ खुद ही थे, केवल ‘डिसेण्ट्री’ के खातिर कुछ दिनों के लिए इसे रख लिया था। मनोहर बाबू कहने लगे, “महाशय, आप क्या कोई साधारण आदमी हैं; शहर भर के लोग आपकी बात पर मरते जीते हैं- सो क्या आप समझते हैं मैं नहीं जानता? अधिक नहीं, एक सतर ही यदि आप लाट साहब को लिख दें तो उसे चौदह साल की जेल हो जाय, सो क्या मैंने नहीं सुना? लगा तो दीजिए बच्चू को अच्छी तरह डाँट।”
बात सुनकर मैं जैसे दिग्भ्रमित-सा हो गया। जिन लाट साहब का नाम तक मैंने नहीं सुना था उनको अधिक नहीं, एक ही सतर लिख देने से चौदह साल के कारावास की सम्भावना- मेरी इतनी बड़ी अद्भुत शक्ति की बात इतने बड़े सुचतुर व्यक्ति के मुँह से सुनकर मैं क्या कहूँ और क्या करूँ, सोच ही न सका। फिर भी उनके बारबार के आग्रह और जबर्दस्ती के मारे जब और गति नहीं रही तब उस ‘कम्बाइण्ड हैण्ड’ को डाँट बताने रसोई-घर में घुसा। देखा, वह अन्धकूप की तरह अंधेरा है।
वह आड़ में खड़ा हुआ अपने मालिक के मुँह से मेरी क्षमता की विरदावली सुन चुका था, इसलिए रुँआसा होकर हाथ जोड़कर बोला, “इस घर में ‘देवता’ हैं, यहाँ पर मैं किसी तरह भी नहीं रह सकता। तरह-तरह की ‘छायाएँ’ रात-दिन घर में घूमा करती हैं। बाबू यदि किसी और मकान में जाकर रहें तो मैं सहज ही उनकी नौकरी कर सकता हूँ; किन्तु, इस मकान में तो…”
भला ऐसे अंधेरे घर में ‘छाया’ का क्या अपराध! किन्तु, छाया ही नहीं, वहाँ एक बहुत बुरी सड़ांध भी, जब से मैं आया था तभी से, आ रही थी। पूछा, “यह दुर्गन्ध काहे की है रे?”
“कम्बाइण्ड हैण्ड’ बोला, “कोई चूहा-ऊहा सड़ गया होगा।”
मैं चौंक पड़ा। “चूहा कैसा रे? इस घर में चूहे मरते हैं क्या?”
उसने हाथ को उलटाकर अवज्ञा के साथ बतलाया कि रोज सुबह कम-से-कम पाँच-छ: मरे चूहे तो वह खुद ही उठाकर बाहर गली में फेंक दिया करता है।
मिट्टी के तेल की डिब्बी जलाकर खोज की गयी, किन्तु, सड़े हुए चूहों का पता नहीं लगा। फिर भी मेरा शरीर सन्-सन् करने लगा और जी खोलकर उस आदमी को किसी तरह भी यह सदुपदेश न दे सका कि रुग्ण मालिक को अकेला छोड़कर उसे भाग जाना उचित नहीं है।
सोने के कमरे में लौटकर देखता हूँ, मनोहर बाबू खाट पर बैठे मेरी राह देख रहे हैं। मुझे पास में बैठाकर वे इस मकान के गुणों का बखान करने लगे; इतने कम किराए में शहर के बीच इतना अच्छा मकान और कोई नहीं, ऐसा मकान-मालिक भी कोई नहीं और न ऐसे पड़ोसी ही सहज में मिल सकते हैं। पास के मकान में जो चार-पाँच मद्रासी क्रिस्तान ‘मेस’ चलाते हैं, वे जितने ही शिष्ट और शान्त हैं उतने ही मायालु हैं। उन्होंने अपना यह इरादा भी बतला दिया कि जरा कुछ चंगे होते ही उस साले बाम्हन को निकाल बाहर करेंगे। फिर एकाएक बोले, “अच्छा महाशय, आप स्वप्न पर विश्वास करते हैं?”
मैं बोला, “नहीं।”
वे बोले, “मैं भी नहीं करता; किन्तु, कैसे अचरज की बात है महाशय, कल, रात को मैंने स्वप्न देखा कि मैं सीढ़ी पर से गिर पड़ा हूँ और जागकर देखा तो दाहिने पैर का कूल्हा सूज आया है। सच-झूठ आप मेरे शरीर पर हाथ धरकर देखिए महाशय, तकलीफ से ज्वर तक हो आया है।”
सुनने-मात्र से मेरा मुँह काला पड़ गया। इसके बाद कूल्हा भी देखा और शरीर पर हाथ रखकर ज्वर भी।
मिनट-भर मूढ़ की तरह बैठे रहने के बाद अन्त में बोला, “डॉक्टर को अब तक आपने क्यों नहीं बुला भेजा? अब किसी को जल्दी भेजिए।”
वे बोले, “महाशय, यह देश! यहाँ पर डॉक्टर की फीस भी तो कम नहीं है। उसे लाए नहीं कि चार-पाँच रुपये यों ही चले जाँयगे! सिवाय इसके फिर दवाई के दाम! करीब दो रुपये की दच्च इस तरह और लग जायेगी।”
मैंने कहा, सो लगने दीजिए, बुलाने भेजिए।”
“कौन जायेगा महाशय? तिवारी साला तो चीन्हता भी नहीं है। सिवाय इसके वह चला जायेगा तो खाना कौन पकाएगा?”
“अच्छा, मैं ही जाता हूँ,” कहकर डॉक्टर को बुलाने बाहर चल दिया।
डॉक्टर ने आकर और परीक्षा करके आड़ में ले जाकर पूछा, “ये आपके कौन होते हैं?”
मैंने कहा, “कोई नहीं,” और किस तरह सुबह यहाँ आ पड़ा सो भी मैंने खोलकर कह दिया।
डॉक्टर ने प्रश्न किया, “इनका और भी कोई कुटुम्बी यहाँ पर है क्या?”
मैंने कहा, “सो मुझे नहीं मालूम। शायद कोई नहीं है।”
डॉक्टर क्षण-भर मौन रहकर बोले, “मैं एक दवा लिखकर दिए जाता हूँ। सिर पर बरफ रखने की भी जरूरत है; किन्तु सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि इन्हें प्लेग-हॉस्पिटल में पहुँचा दिया जाय। आप खुद भी इस मकान में न ठहरिए। और देखिए, मुझे फीस देने की जरूरत नहीं है।”
डॉक्टर चले गये। बड़े संकोच के साथ मैंने अस्पताल का प्रस्ताव किया। सुनते ही मनोहर रोने लगे और ‘वहाँ पर जहर देकर रोगी मार डाले जाते हैं, और वहाँ जाकर कोई लौटकर नहीं आता!” इस तरह बहुत कुछ बक गये।
दवाई लाने भेजने के लिए तिवारी को खोजता हूँ तो देखा कि “कम्बाइण्ड हैण्ड’ अपना लोटा-कम्बल लेकर इस बीच ही न मालूम कब खिसक गया है। जान पड़ता है, उसने डॉक्टर के साथ मेरी बातचीत किवाड़ की सन्धि में से सुन ली थी। हिन्दुस्तानी और चाहे कुछ न समझें किन्तु ‘पिलेग’ शब्द को खूब समझते हैं!
तब मुझे ही औषधि लेने जाना पड़ा। बरफ, आईसबैग आदि जो कुछ आवश्यक था सब मैंने ही खरीद लाकर हाजिर कर दिया। इसके बाद रह गया मैं और वे- वे और मैं। एक दफे मैं उनके सिर पर आइसबैग रखता था और एक दफे वे मेरे सिर पर रखते थे। इसी तरह उठा-धरी करते-करते जब करीब दो बज गये तब उन्होंने निस्तेज होकर शय्या ग्रहण कर ली। बीच-बीच में वे खूब होश-हवास की भी बात करते थे। शाम के लगभग क्षण-भर के लिए सचेतन से होकर मेरे मुँह की ओर देखकर बोले, “श्रीकान्त बाबू, अब मैं न बचूँगा।”
मैं चुप हो रहा। इसके बाद बड़ी कोशिश करके कमर में से उन्होंने चाबी निकाली और उसे मेरे हाथ में देकर कहा, “मेरे ट्रंक में तीन सौ गन्नियाँ रक्खी हैं-मेरी स्त्री को भेज देना। पता मेरे बॉक्स में लिखा रक्खा है जो खोजने से मिल जायेगा।”
मुझे एकमात्र हिम्मत थी पास के ‘मैस’ की। वहाँ की आहट, धीमा कण्ठस्वर, मैं सुन सकता था। संध्याम के बाद एक दफे कुछ अधिक उठा-धरी और गोलमाल सुन पड़ा। कुछ देर बाद ही जान पड़ा कि वे लोग दरवाजे में ताला लगाकर कहीं जा रहे हैं। बाहर आकर देखा, सचमुच दरवाजे में ताला लटक रहा है। मैंने समझा, वे लोग घूमने गये हैं, कुछ देर बाद ही लौट आयँगे। किन्तु फिर भी न जाने क्यों मेरा जी और भी खराब हो गया।
इधर वह रुग्ण आदमी उत्तरोत्तर जो-जो चेष्टाएँ करने लगा, उनके सम्बन्ध में इतना ही कह सकता हूँ कि वह अकेले बैठकर मजा लेने जैसी वस्तु नहीं थी। उधर रात के बारह बजने को हुए; किन्तु न तो पास के कमरे के खुलने की आहट ही मिली और न कोई शब्द ही सुनाई दिया। बीच-बीच में बाहर आकर देख जाता था- ताला उसी तरह लटक रहा है। एकाएक नजर पड़ी कि लकड़ी की दीवाल की एक सन्धि में से उस कमरे का तीव्र प्रकाश इस कमरे में आ रहा है। कुतूहल के वश होकर छिद्र पर ऑंख लगाकर उस तीव्र प्रकाश के कारण का पता लगाया, तो उससे मेरे सर्वांग का रक्त जमकर बरफ हो गया। सामने खाट पर दो जवान आदमी पास ही पास तकिये पर सिर रक्खे सो रहे हैं और उनके सिराने खाट के बगल में मोमबत्तियों की एक कतार जल-जलकर प्राय: समाप्त होने को आ गयी है। मुझे पहले से ही मालूम था कि रोमन कैथोलिक लोग मुर्दे के सिराने रोशनी जला देते हैं, अतएव, ऐसे हृष्टपुष्ट सबल शरीर लोगों की इस असमय की नींद का जो कारण था वह सब मुहूर्त मात्र में समझ में आ गया और मैं जान गया कि अब उन दोनों की नींद हजार चिल्लाने पर भी नहीं टूटेगी। इधर इस कमरे में भी हमारे मनोहर बाबू करीब दो घण्टे और छटपटाने के बाद सो गये! चलो, जान बची।
किन्तु, मजा यह कि जिन्होंने मुझे उस दिन बहुत-सा उपदेश दिया था कि जान-पहिचान के किसी भी आदमी की बीमारी की खबर पाकर उस मुहल्ले में पैर भी न रखना चाहिए, उन्हीं के मुदकी और गिन्नियों के बॉक्स की रखवाली करने के लिए भगवान ने मुझे नियुक्त कर दिया! नियुक्त तो कर दिया, किन्तु बाकी रात मेरी जिस तरह कटी, सो लिखकर बतलाना न तो सम्भव है और न बतलाने की प्रवृत्ति ही होती है। फिर भी, इस पर कोई पाठक अविश्वास न करेगा कि वह, मोटे तौर पर, भली तरह नहीं कटी।
दूसरे दिन ‘डेथ सर्टिफिकेट’ लेने, पुलिस को बुलाने, तार देने, गिन्नियों का इन्तजाम करने और मुर्दे को बिदा करने में तीन बज गये। खैर, मनोहर तो ठेलागाड़ी पर चढ़कर शायद स्वर्ग की ओर रवाना हो गये- रहा मैं, सो मैं अपने डेरे पर लौट आया। पिछले दिन तो एकादशी की ही थी- आज भी शाम हो गयी। डेरे पर लौटने पर जान पड़ा कि जैसे दाहिने कान की जड़ में सूजन आ गयी है और दर्द हो रहा है। क्या जाने, सारी रात हाथ से छेड़-छेड़कर मैंने खुद ही दर्द पैदा कर लिया है अथवा सचमुच ही गिन्नियों का हिसाब देने मुझे भी स्वर्ग जाना पड़ेगा! एकाएक कुछ नहीं समझ सका। किन्तु यह समझने में देर नहीं लगी कि बाद में चाहे जो हो, फिलहाल तो होश-हवास दुरुस्त रहने की हालत में अपनी सब व्यवस्था खुद ही कर रखनी होगी। क्योंकि मनोहर की तरह आईस बैग लेकर उठा-धरी करना न तो ठीक ही मालूम देता है और न सुन्दर। निश्चय करते मुझे देर न लगी। क्योंकि, पल-भर में ही मैंने देख लिया कि इतने बड़े बुरे रोग का भार यदि मैं किसी पुण्यात्मा साधु पुरुष के ऊपर डालने जाऊँगा तो निश्चय ही बड़ा भारी पाप होगा। किसी भले आदमी को हैरान करना कर्त्तव्य भी नहीं है-अशास्त्रीय है! इसलिए उसकी जरूरत नहीं। बल्कि, इस रंगून के एक कोने में अभया नाम की जो एक महापापिष्ठा पतिता नारी रहती है- एक दिन जिसे घृणा करके छोड़ आया हूँ, उसी के कन्धों पर अपनी इस संघातिक बीमारी का गन्दा बोझ घृणा के साथ डाल देना चाहिए- मरना ही है तो वहीं मरूँ। शायद, इससे कुछ पुण्य-संचय भी हो जाय, यही सोचकर मैंने नौकर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया।
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उस दिन जब मृत्यु का परवाना हाथ में लेकर मैं अभया के द्वार पर जा खड़ा हुआ, तब मुझे मरने की अपेक्षा मरने की लाज ने ही अधिक भय दिखाया। अभया का मुँह फक् सफेद पड़ गया। किन्तु, उसके सफेद होठों से केवल यही शब्द फूटकर बाहर निकले, “तुम्हारा दायित्व मैं न लूँगी तो और कौन लेगा? यहाँ तुम्हारी मुझसे बढ़कर और किसे गरज है?” दोनों ऑंखों में पानी भर आया, फिर भी मैंने कहा, मैं तो बस चल दिया। रास्ते का कष्ट मुझे उठाना ही होगा, उसे निवारण करने की शक्ति किसी में भी नहीं है। किन्तु जाते समय तुम्हारी इस नयी घर-गिरस्ती के बीच इतनी बड़ी विपत्ति डालने का अब किसी तरह भी मन नहीं होता। अभया, अभी गाड़ी खड़ी है, होश-हवास दुरुस्त हैं- अब भी अच्छी तरह प्लेग-हॉस्पिटल तक जा सकता हूँ। तुम केवल मुहूर्त-भर के लिए जी कड़ा करके कह दो, “अच्छा जाओ।” अभया ने कोई उत्तर दिये बिना हाथ पकड़ लिया और मुझे बिछौने में ले जाकर सुला दिया। अब, उसने अपने ऑंसू पोंछे और मेरे उत्तप्त ललाट पर धीरे-धीरे हाथ फेरते हुए कहा, “यदि तुमसे ‘जाओ’ कह सकती, तो नये सिरे से यह घर-गिरस्ती कायम न करती आज से मेरी नयी गिरस्ती सचमुच की गिरस्ती हुई।”
किन्तु, बहुत सम्भव है कि वह प्लेग नहीं था। इसीलिए, मृत्यु केवल जरा-सा परिहास करके ही चली गयी। दसेक दिन में मैं उठ खड़ा हुआ। किन्तु, अभया ने फिर मुझे होटल के डेरे में नहीं लौटने दिया।
ऑफिस जाऊँ या और भी कुछ दिन छुट्टी लेकर विश्राम करूँ, यह सोच ही रहा था कि एक दिन ऑफिस का चपरासी एक चिट्ठी दे गया। खोलकर देखी तो प्यारी की चिट्ठी है। बर्मा आने के बाद उसका यही एक पत्र मिला। जवाब न मिलने पर भी मैं कभी-कभी उसे पत्र लिख दिया करता था- आते समय यही शर्त मुझसे उसने करा ली थी। पत्र के प्रारम्भ में ही इसका उल्लेख करके उसने लिखा था, “मेरे मरने की खबर तो तुम जरूर पाओगे। जीते-जी मेरा ऐसा कोई समाचार ही नहीं हो सकता जिसे जाने बिना तुम्हारा काम न चले। लेकिन, मेरे लिए तो ऐसा नहीं है। मेरे सारे प्राण तो मानो विदेश में ही निरन्तर पड़े रहते हैं। यह बात इतनी अधिक सत्य है कि तुम भी इस पर विश्वास किये बगैर नहीं रह सकते। इसीलिए उत्तर न पाने पर भी बीच-बीच में तुम्हें चिट्ठी देकर बतलाना पड़ता है कि तुम वहाँ अच्छी तरह हो।
“मैं इस महीने के भीतर ही बंकू का विवाह कर देना चाहती हूँ। तुम अपनी सम्मति लिखना। तुम्हारी इस बात को मैं अस्वीकार नहीं करती कि कुटुम्ब के भरण-पोषण की शक्ति हुए बगैर विवाह होना उचित नहीं है। बंकू में अभी तक यह क्षमता नहीं आई; फिर भी, क्यों मैं इसके लिए तुम्हारी सम्मति चाहती हूँ सो मुझे और एक बार अपनी ऑंखों देखे वगैर तुम नहीं समझोगे। जैसे भी बने यहाँ आ जाओ। तुम्हें मेरे सर की कसम है।”
पत्र के पिछले हिस्से में अभया की बात थी। अभया ने जब लौट आकर कहा था कि जिसे मैं चाहती हूँ- प्रेम करती हूँ, उसकी गिरस्ती बसाने के लिए मैं एक पशु का त्याग करके चली आई हूँ, और इसी विषय को लेकर सामाजिक रीति-नीति के सम्बन्ध में स्पर्धा के साथ उसने बहस की थी तब उससे मैं इतना विचलित हो उठा था कि प्यारी को बहुत-सी बातें लिख डाली थीं। आज उन्हीं का प्रत्युत्तर उसने दिया है-
“तुम्हारे मुँह से यदि वे मेरा नाम सुन चुकी हो तो अनुरोध है कि तुम उनसे एक बार मिलना और कहना कि राजलक्ष्मी ने तुम्हें सहस्र-कोटि नमस्कार लिखे हैं। उम्र में वे मुझसे छोटी हैं या बड़ी सो मैं नहीं जानती, जानना जरूरी भी नहीं है, वे केवल अपनी तेजस्विता के कारण ही मेरे समान स्त्री के द्वारा वन्दनीय हैं। आज मुझे अपने गुरुदेव के श्रीमुख की कुछ बातें बार-बार याद आती हैं। मेरे काशी के मकान में दीक्षा की सब तैयारियाँ हो गयी हैं, गुरुदेव आसन ग्रहण करके स्तब्ध भाव से कुछ सोच रहे हैं। मैं आड़ में खड़ी बहुत देर तक उनके प्रसन्न मुख की ओर एकटक देख रही हूँ। एकाएक भय के मारे मेरी छाती के भीतर उथल-पुथल मच गयी। उनके पैरों के पास औंधे पड़कर मैंने रोते हुए, ‘बाबा, मैं मन्त्र नहीं लूँगी।” वे विस्मित होकर मेरे सिर पर अपना दाहिना हाथ रखकर बोले, “क्यों न लोगी?’
“मैंने कहा, ‘मैं महापापिष्ठा हूँ।’
“उन्होंने बीच में ही रोककर कहा; ‘ऐसा है, तब तो मन्त्र लेने की और भी अधिक जरूरत है बेटी।’
“रोते-रोते मैंने कहा, ‘लाज के मारे मैंने अपना सच्चा परिचय नहीं दिया है, देती तो आप इस मकान की चौखट भी लाँघना पसन्द नहीं करते।’
“गुरुदेव मुस्कु’राकर बोले, ‘नहीं, तो भी मैं लाँघता, और दीक्षा देता। प्यारी के मकान में भले ही न आता; किन्तु अपनी राजलक्ष्मी बेटी के मकान में क्यों न आऊँगा बेटी?’
“मैं चौंककर स्तब्ध हो गयी। कुछ देर चुप रहकर बोली, ‘किन्तु, मेरी माँ के गुरु ने तो कहा था कि मुझे दीक्षा देने से पतित होना पड़ेगा- सो बात क्या सच नहीं थी?’
“गुरुदेव हँसे। बोले, ‘सच थी इसलिए तो वे दे नहीं सके बेटी। किन्तु, जिसे वह भय नहीं है, वह क्यों नहीं देगा?’
“मैंने कहा, “भय क्यों नहीं हैं?”
“वे फिर हँसकर बोले, ‘एक ही मकान में जो रोग के कीटाणु एक आदमी को मार डालते हैं, वे ही कीटाणु दूसरे आदमी को स्पर्श तक नहीं करते- बतला सकती हो क्यों?’
“मैंने कहा, ‘शायद स्पर्श तो करते हैं, किन्तु, जो लोग सबल हैं वे बच जाते हैं; जो दुर्बल होते हैं वे मारे जाते हैं।’
“गुरुदेव ने मेरे सिर पर पुन: अपना हाथ रखकर कहा, ‘इस बात को किसी दिन भी मत भूलना बेटी। जो अपराध एक आदमी को मिट्टी में मिला देता है, उसी अपराध में से दूसरा आदमी स्वच्छन्दता से पार हो जाता है। इसलिए सारे विधि-निषेध सभी को एक डोरी में नहीं बाँध सकते।”’
“संकोच के साथ मैंने धीरे से पूछा, ‘जो अन्याय है, जो अधर्म है, वह क्या सबल और दुर्बल दोनों के निकट समान रूप से अन्याय-अधर्म नहीं है? यदि नहीं है, तो यह क्या अविचार नहीं है?”
“गुरुदेव बोले, “नहीं बेटी, बाहर से चाहे जैसा दीखे, उनका फल समान नहीं है। यदि ऐसा होता तो संसार में सबल-दुर्बल में कोई अधिक भेद ही नहीं रहता। जो विष पाँच वर्ष के बच्चे के लिए घातक है, वही विष यदि इकतीस वर्ष के मनुष्य को न मार सके तो दोष किसे दोगी बेटी? किन्तु, यदि आज तुम मेरी बात पूरी तरह न समझ सको, तो, कम-से-कम इतना जरूर याद रखना कि जिन लोगों के भीतर आग जल रही है और जिनमें केवल राख ही इकट्ठी होकर रह गयी है- उनके कर्मों का वजन एक ही बाट से नहीं किया जा सकता। यदि किया जाए, तो गलती होगी।”
“श्रीकान्त भइया, तुम्हारी चिट्ठी पढ़कर आज मुझे अपने गुरुदेव की वही भीतर की आग वाली बात याद आ रही है। अभया को नजर से देखा नहीं है, फिर भी ऐसा लगता है कि उनके भीतर जो आग जल रही है उसकी ज्वाला का आभास चिट्ठी के भीतर से भी जैसे मैं पा रही हूँ। उनके कर्मों का विचार जरा सावधानी से करना। मेरे जैसी साधारण स्त्री के बटखरे लेकर उनके पाप-पुण्य का वजन करने न बैठ जाना।”
चिट्ठी को अभया के हाथ में देकर कहा, “राजलक्ष्मी ने तुम्हें शत-सहस्र नमस्कार लिखा है, यह लो।”
अभया, जो कुछ लिखा था उसे दो-तीन बार पढ़कर और किसी तरह पत्र को मेरे बिछौने पर डालकर, तेजी से बाहर चली गयी। दुनिया की नजरों में उसका जो नारीत्व आज लांछित और अपमानित हो रहा है, उसी के ऊपर शत योजना दूर से एक अपरिचिता नारी ने सम्मान की पुष्पांजलि अर्पण की है, उसी की अपरि सीमा आनन्द-वेदना को वह एक पुरुष की दृष्टि से बचाकर चटपट आड़ में ले गयी।
करीब आधा घण्टे बाद अभया अच्छी तरह मुँह-ऑंखें धोकर लौट आई और बोली, “श्रीकान्त भइया…”
मैंने रोककर कहा, “अरे यह क्या! ‘भइया’ कब से हो गया?”
“आज से ही।”
“नहीं नहीं, ‘भइया’ नहीं। तुम सब लोक मिलकर सभी ओर से मेरा रास्ता बन्द न कर देना!”
अभया ने हँसकर कहा, “मालूम होता है, मन ही मन कोई मतलब गाँठ रहे हो, क्यों?”
“क्यों, क्या मैं आदमी नहीं हूँ?”
अभया बोली, “बेढब आदमी दीखते हो। बेचारे रोहिणी बाबू ने बीमारी के समय आसरा दिया; अब चंगे होकर, जान पड़ता है, उन्हें यही पुरस्कार देना निश्चय किया है। किन्तु, मेरी बड़ी भूल हो गयी। उस समय बीमारी का एक तार दे देती, तो आज उन्हें देख लेती।”
मैंने गर्दन हिलाकर कहा, “आश्चर्य नहीं कि वह आ जाती।”
अभया क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, “तुम एकाध महीने की छुट्टी लेकर एक बार चले जाओ, श्रीकान्त भइया। मुझे जान पड़ता है, तुम्हारी उन्हें बड़ी जरूरत हो रही है।”
न जाने कैसे खुद भी मैं इस बात को समझ रहा था कि मेरी उसे बड़ी जरूरत है। दूसरे ही दिन ऑफिस को चिट्ठी लिखकर मैंने और एक महीने की छुट्ठी ले ली और आगामी मेल से यात्रा करने के विचार से टिकट खरीदने के लिए आदमी भेज दिया।
जाते समय अभया ने नमस्कार करके कहा, “श्रीकान्त भइया, एक वचन दो।”
“क्या वचन दूँ बहिन?”
“पुरुष संसार की सभी समस्याओं की मीमांसा नहीं कर सकते। यदि कहीं अटको तो चिट्ठी लिखकर मेरी राय जरूर ले लोगे, बोलो?”
मैं स्वीकार करके जहाज-घाट जाने के लिए गाड़ी पर जा बैठा। अभया ने गाड़ी के दरवाजे के निकट खड़े होकर और एक दफे नमस्कार किया; बोली, “रोहिणी बाबू के द्वारा मैंने कल ही वहाँ टेलीग्राम करा दिया है। किन्तु, जहाज पर कुछ दिन अपने शरीर की ओर जरा नजर रखना श्रीकान्त भइया, इसके सिवाय मैं तुमसे और कुछ नहीं चाहती।”
‘अच्छा’ कहकर मैंने मुँह उठाकर देखा कि अभया की ऑंखों की दोनों पुतलियाँ पानी में तैर रही हैं।