श्रीकान्त (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 8

श्रीकान्त (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 8

अध्याय 15

अब तक का मेरा जीवन एक उपग्रह की तरह ही बीता, जिसको केन्द्र बनाकर घूमता रहा हूँ उसके निकट तक न तो मिला पहुँचने का अधिकार और न मिली दूर जाने की अनुमति। अधीन नहीं हूँ, लेकिन अपने को स्वाधीन कहने की शक्ति भी मुझमें नहीं। काशी से लौटती हुई ट्रेन में बैठा हुआ बार-बार यही सोच रहा था। सोच रहा था कि मेरी ही किस्मत में बार-बार यह क्यों घटित होता है? मरते दम तक अपना कहने लायक क्या किसी को भी न पा सकूँगा? क्या इसी तरह जिन्दगी काट दूँगा? बचपन की याद आई। दूसरे की इच्छा से दूसरे के घर में वर्ष के बाद वर्ष रहकर इस शरीर को तो किशोर से यौवन की ओर आगे बढ़ाता रहा, लेकिन, मन को न जाने किस रसातल की ओर खदेड़ता रहा। आज बार-बार पुकारने पर भी उस बिदा हुए मन की कोई आहट नहीं मिलती, हालाँकि कभी-कभी क्षीण कण्ठ का अनुसरण कान में आ लगता है, फिर भी, बि‍‍ना संशय के नहीं पहिचान पाता कि वह अपना ही है,- विश्वास करते डर लगता है।

यह समझकर ही यहाँ आया हूँ कि आज मेरे जीवन में राजलक्ष्मी मृत है। नदी-किनारे खड़े होकर विसर्जित प्रतिमा के अन्तिम चिह्न तक को अपनी ऑंखों से देखकर लौटा हूँ- आशा करने का, कल्पना करने का, अपने को धोखा देने का कोई भी सूत्र शेष रखकर नहीं आया हूँ। उस तरफ सब शेष हो गया है, निश्चिन्त हो गया हूँ, पर यह शेष कितना शेष है, यह किससे कहूँ और कहूँ ही क्यों?

पर कुछ दिन का ही तो जिक्र है। कुमार साहब के साथ शिकार खेलने गया। दैवात् पियारी का गाना सुनने के लिए बैठा, बैठते ही भाग्य में कुछ ऐसा मिला जो जितना आकस्मिक था उतना ही अपरिसीम। न अपने गुण से पाया और न अपनी गलती से खोया ही, फिर भी आज स्वीकार करना पड़ा कि मैंने उससे खो दिया- मेरे संसार में सब मिलाकर क्षति ही शेष रही। जा रहा हूँ कलकत्ते, पर वासना फिर एक दिन बर्मा पहुँचायगी। लेकिन यह मानों जुआरी का घर लौटना है। घर का चित्र अस्पष्ट, अप्रकृत है, सिर्फ पथ ही सत्य है। ऐसा लगता है मानों इस पथ पर चलने का कोई अन्त नहीं।

“अरे, यह तो श्रीकान्त है!”

यह खयाल ही न था कि गाड़ी स्टेशन पर ठहरी है। देखता हूँ कि हमारे गाँव के बाबा, राँगा दीदी तथा सतरह-अठारह साल की एक लड़की-तीनों गर्दन, सिर और कन्धों पर गठरी-पोटली लादे प्लेटफॉर्म पर दौड़ लगाते आये और खिड़की के सामने आकर एकाएक थम गये। बाबा बोले, “उफ, कैसी भीड़ है! जहाँ एक सुई के जाने की भी गुंजाइश नहीं वहाँ तीन-तीन आदमी हैं! तुम्हारा डब्बा तो काफी खाली है, चढ़ आवें?” “आइए, कहकर दरवाजा खोल दिया। वे तीनों जनें हाँफते-हाँफते ऊपर आये और जितना सामान था नीचे रख दिया। बाबा ने कहा, “यह शायद ज्यादा किराये का डब्बा है, दण्ड तो नहीं देना पड़ेगा?”

मैंने कहा, “नहीं, मैं गार्ड से कह आता हूँ।”

गार्ड को इत्तिला दे अपना कर्त्तव्य पूरा कर जब लौटा, तब वे लोग निश्चिन्त हो आराम से बैठे थे। गाड़ी के छूटने पर राँगा दीदी ने मेरी ओर नजर डाली, और चौंककर कहा, “तुम्हारा यह कैसा शरीर हो गया है श्रीकान्त? सारा मुँह सूखकर एकदम रस्सी जैसा हो गया है, कहाँ थे इतने दिन? कुछ भी हो, तुम अच्छे तो हो? जब से गये एक चिट्ठी तक नहीं दी? घरवाले सब सोच-फिक्र में मरे जाते हैं!”

इस तरह के प्रश्नों के उत्तर की कोई आशा नहीं करता, जवाब न मिलने पर बुरा भी नहीं मानता।

बाबा ने बताया कि तीर्थ करने के लिए यह सपत्नीक गया-धाम आये थे और यह लड़की उनकी बड़ी साली की नातिनी है,- बाप हजार रुपये गिन देने को तैयार है, लेकिन फिर भी अब तक कोई योग्य पात्र नहीं जुटा। मानती ही न थी इसलिए साथ लाना पड़ा। पूँटू, पेड़े की हाँड़ी तो खोल बेटी- क्यों जी, पूछता हूँ कि दही का बर्तन भूल तो नहीं आयी। हाँ तो पत्तो पर रख दो-दो-चार पेड़े, थोड़ा दही- ऐसा दही तुमने कभी खाया न होगा भैया, कसम खाकर कह सकता हूँ। नहीं-नहीं, लुटिया के पहले हाथ धो डालो, पूँटू, ऐरे-गैरे को तो दे नहीं रही हो- ऐसे लोगों को कैसे देना चाहिए यह सीखो।”

पूँटू ने यथा आदेश कर्त्तव्य का सयत्न पालन किया। अतएव, ट्रेन में ही असमय में अयाचित दही-पेड़े मिल गये। खाते हुए सोचने लगा कि मेरे ही भाग्य में सारी अनहोनी हुआ करती है, सो इस बार कहीं पूँटू के लिए मैं ही हजार रुपये की कीमत का पात्र न चुन लिया जाऊँ! यह खबर उन्हें पहली बार ही मिल गयी थी कि मैं बर्मा में अच्छी नौकरी करने लगा हूँ।

राँगा दीदी बहुत ज्यादा स्नेह करने लगीं, और आत्मीय ज्ञान की वजह से पूँटू भी घण्टे भर में ही घनिष्ठ हो गयी, क्योंकि, मैं कोई दूसरा तो था नहीं!

लड़की अच्छी है। साधारण भद्र गृहस्थ घराने की, रंग गोरा तो नहीं था लेकिन देखने में सुन्दर थी। हालत यह हुई कि बाबा उसके गुणों का बखान खत्म ही न कर पा रहे थे। लिखने-पढ़ने के बारे में राँगा दीदी ने कहा, “वह ऐसी सुन्दर चिट्टी लिख सकती है कि आजकल के तुम्हारे नाटक और नॉविल भी हार मान जाँय। उस घर की नन्दरानी को एक ऐसी चिट्ठी लिख दी थी कि जमाई महाशय सात दिन के बजाय पन्द्रह दिन की छुट्टी लेकर आ पहुँचे।”

राजलक्ष्मी का उल्लेख किसी ने इंगित से भी नहीं किया जैसे उस तरह की कभी कोई बात हुई थी, यह किसी को याद तक नहीं!

दूसरे दिन गाँव के स्टेशन पर गाड़ी ठहरी तो मुझे भी उतरना पड़ा। उस वक्त करीब दस बजे थे। ठीक वक्त पर स्नानाहार न होने पर पित्त भड़क जाने की आशंका से वे दोनों जनें चिन्तित हो उठे। मकान पहुँचने पर मेरी खातिरदारी की सीमा न रही। पाँच-सात दिन के अन्दर ही गाँव-भर में किसी को यह सन्देह न रहा कि पूँटू का वर मैं ही हूँ। यहाँ तक कि पूँटू को भी सन्देह न रहा।

बाबाजी ने चाहा कि यह शुभ कार्य आगामी वैशाख महीने में ही सम्पन्न हो जाय। पूँटू के रिश्तेदार जो जहाँ थे उन्हें बुला लेने की बात भी उठी। राँगा दीदी ने पुलकित हृदय से कहा, “देखते हो, किसी के भाग्य में कौन बदा है, यह पहले से कोई भी नहीं बता सकता!”

मैं पहले उदासीन था, फिर चिन्तित हुआ, और उसके बाद डरा। क्रमश: अपने ऊपर ही सन्देह होने लगा कि कहीं मैंने मंजूरी तो नहीं दे दी! मामला ऐसा बेढब हो गया कि कहीं पीछे कोई बुरी घटना न घट जाय इसलिए ना कहने का साहस ही न रहा। पूँटू की माँ यहीं थी। एक दिन रविवार को एकाएक उसके पिता के भी दर्शन हो गये। मुझे कोई नहीं जाने देना चाहता, आमोद-प्रमोद और हँसी-मजाक भी होने लगा- पूँटू मेरे ही सिर पड़ेगी, सिर्फ थोड़े दिनों की देर है- शनै:-शनै: ऐसे लक्षण ही चारों ओर स्पष्ट नजर आने लगे। जाल में फँसा जा रहा हूँ, मन को शान्ति नहीं मिलती- जाल तोड़कर बाहर भी नहीं निकल पाता। ऐसे वक्त अचानक एक सुयोग मिला। बाबा ने पूछा, “तुम्हारी कोई जन्मपत्री है या नहीं? उसकी तो जरूरत है।”

जोर लगाकर सारे संकोचों को दूर करके कह बैठा, “आप लोगों ने पूँटू के साथ मेरा विवाह करना क्या सचमुच स्थिर कर लिया है?”

बाबा मुँह फाड़कर थोड़ी देर तक अचम्भे से देखते रहे, फिर बोले, “वाकई? सुन लो इनकी बात!”

“पर मैं तो अभी तक स्थिर नहीं कर पाया हूँ।”

“नहीं कर पाये तो अब कर लो। लड़की की उम्र मैं चाहे बारह-तेरह वर्ष की बताऊँ या और कुछ, लेकिन असल में वह सतरह-अठारह साल की है। इसके बाद हम इस लड़की की शादी कैसे करेंगे?”

“पर वह मेरा दोष तो नहीं है?”

“तो फिर किसका है? शायद मेरा?”

इसके बाद लड़की की माँ और राँगा दीदी से शुरू करके पास पड़ौस की लड़कियाँ तक आ गयीं। रोना-धोना, अनुयोग अभियोगों का अन्त नहीं रहा। मुहल्ले के पुरुषों ने कहा, “ऐसा शैतान आज तक नहीं देखा, इसे अच्छा सबक देना चाहिए।”

पर दण्ड देना और बात है और लड़की की शादी करना दूसरी बात है। फलत: बाबा चुप हो रहे। इसके बाद अनुनय-विनय की पारी आई। पूँटू को अब नहीं देखता हूँ। शायद वह गरीब शर्म से मुँह छिपाए कहीं पड़ी है। क्लेश होने लगा। कैसा दुर्भाग्य लेकर ये हमारे घरों में पैदा होती हैं। सुना कि ठीक यही बात उसकी माँ भी कह रही है- ओ अभागिन, हम सबको खाने के बाद जायेगी। इसकी ऐसी तकदीर है कि समुद्र पर दृष्टि डाले तो समुद्र तक सूख जाय और जली हुई शोल मछली भी पानी में भाग जाए। इसका ऐसा हाल न होगा तो किसका होगा!

कलकत्ते जाने के पहले बाबा को बुलाकर अपने घर का पता बता दिया। कहा, “मेरे लिए एक व्यक्ति की राय लेना जरूरी है, उनके कहने पर मैं राजी हो जाऊँगा।” बाबा मेरा हाथ पकड़कर गद्गद कण्ठ से बोले, “देखो भाई, लड़की को मत मारो। उन्हें जरा समझा-बुझाकर कहना कि वे अपनी असम्मति न दें।” मैं बोला, “मेरा विश्वास है कि वे असम्मति प्रकट न करेंगे। बल्कि खुश होकर ही सम्मति देंगे।”

बाबा ने आशीर्वाद दिया, “तुम्हारे मकान पर कब आऊँ, भैया?”

“पाँच-छ: दिन बाद ही आइए।”

पूँटू की माँ और राँगा दीदी ने रास्ते तक आकर ऑंसुओं के साथ मुझे बिदा किया।

मन ही मन कहा, तकदीर! किन्तु यह अच्छा ही हुआ कि एक प्रकार से वचन दे आया। मैंने इस बात पर नि:संशय विश्वास कर लिया कि इस विवाह में राजलक्ष्मी लेशमात्र भी आपत्ति न करेगी।

स्टेशन पर पहुँचते ही ट्रेन छूट गयी। दूसरी ट्रेन आने में दो घण्टे की देर थी। समय काटने का उपाय खोज रहा था कि एक मित्र मिल गये। एक मुसलमान युवक ने कुछ देर तक मेरी ओर देखते रहकर पूछा, “आप श्रीकान्त हैं?”

“हाँ।”

“मुझे नहीं पहिचान सके? मैं गौहर हूँ।” कहकर उसने मेरा हाथ जोर से दबा दिया, पीठ पर सशब्द चपत लगाई और जोर से गले लिपटकर कहा, “चलो, हमारे घर चलो। कहाँ जा रहे थे- कलकत्ते? अब जाने की जरूरत नहीं- चलो।”

यह मेरा पाठशाला का मित्र है, उम्र में कोई चार साल बड़ा होगा, हमेशा से ही कुछ आधा पागल जैसा। ऐसा लगा कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसका वह पागलपन कम होने की बजाय बढ़ गया है। पहले भी उसकी जबरदस्ती से बचने का उपाय न था, अत: यह खयाल कर मेरी दुश्चिन्ता की सीमा न रही कि कम-से-कम आज रात को वह मुझे किसी तरह नहीं छोड़ेगा। यह कहना व्यर्थ है कि उसकी आत्मीयता और उल्लास में हिस्सा बाँटने की शक्ति आज मुझमें नहीं है। पर वह छोड़ने वाला जीव नहीं था। मेरा बैग उसने खुद उठा लिया और कुली बुलाकर उसके सिर पर बिछौना रख दिया। फिर जबरदस्ती खींचता हुआ बाहर लाया और गाड़ी का भाड़ा ठीक कर मुझसे बोला, “चलो।”

बचने का कोई उपाय नहीं है, तर्क करना फिजूल है।

यह कह चुका हूँ कि गौहर मेरा पाठशाला का साथी है। हमारे गाँव से उसका मकान एक कोस दूर था, एक ही नदी के किनारे। बचपन में बन्दूक चलाना उसी से सीखा था। उसके पिता की एक पुरानी बन्दूक थी, उसी को लेकर नदी किनारे, आम के बगीचों में और झाड़-झंखाड़ों में घूमकर हम दोनों चिड़ियों का शिकार किया करते थे। बचपन में अनेक बार उसी के यहाँ रात काटी है- उसकी माँ चिवड़ा, गुड़, दूध और केला लाकर मुझे फलाहार करा देती थी। उनकी जमीन-जायदाद, खेती-बारी बहुत थी। गाड़ी में बैठकर गौहर ने प्रश्र किया, “इतने दिनों तक कहाँ थे, श्रीकान्त?”

जहाँ जहाँ था, उसका एक संक्षिप्त विवरण दे दिया। पूछा, “तुम अब क्या करते हो, गौहर?”

“कुछ भी नहीं।”

“तुम्हारी माँ अच्छी तरह हैं?”

“माँ-बाप दोनों की मृत्यु हो गयी- मकान में अकेला मैं ही हूँ।”

“शादी नहीं की?”

“वह भी मर गयी।”

मन ही मन सोचा कि शायद इसीलिए चाहे जिसे पकड़ ले जाने का इतना आग्रह है! जब कोई बात करने को नहीं मिला तो पूछा, “तुम्हारी वह पुरानी बन्दूक है?”

गौहर ने हँसकर कहा, “देखता हूँ कि तुम्हें उसकी याद है! वह है, और उसके सिवाय और भी एक अच्छी बन्दूक खरीदी थी। तुम शिकार खेलने जाना चाहो तो साथ चला चलूँगा। किन्तु अब मैं चिड़ियाँ नहीं मारता-बहुत दु:ख होताहै।”

“यह क्या गौहर, तब तो तुम दिन-रात इसी के पीछे पागल थे।”

“यह सच है। लेकिन अब बहुत दिनों से छोड़ दिया है।”

गौहर का एक परिचय और है कि वह कवि है। उन दिनों वह मुँह-जुबानी अनर्गल ग्राम-गीत बना सकता था- किसी भी वक्त और किसी भी विषय पर। छन्द, मात्रा और ध्वानि इत्यादि काव्य-शास्त्र के कानून-कायदों को मानता था या नहीं, इसका ज्ञान मुझे न तब था और न अब है। पर मुझे याद है कि मैं उन दिनों मणिपुर का युद्ध और टिकेन्द्र जीत सिंह के वीरत्व की कहानी उसके मुँह से सुनकर पुन:-पुन: उत्तेजित हो उठता था। पूछा, “गौहर, उन दिनों तुम्हें कृत्तिवास से भी सुन्दर रामायण लिखने का शौक था, वह संकल्प अब भी है या गया है?” गौहर क्षण-भर में गम्भीर हो गया। बोला, “वह शौक क्या कभी जा सकता है रे? उसी के बल पर तो बचा हुआ हूँ। जब तक जिन्दा रहूँगा तब तक उसे लिये रहूँगा। कितना लिखा है, चलो न, आज सारी रात तुम्हें सुनाऊँगा तो भी खत्म न होगा।”

“कहते क्या हो गौहर?”

“नहीं तो क्या तुमसे झूठ कहता हूँ?”

प्रदीप्त कवि-प्रतिभा से उसकी ऑंखो और मुँह चमक उठे। सन्देह नहीं किया था, सिर्फ विस्मय जाहिर किया था। तथापि, कहीं केंचुआ खोजते हुए साँप न निकल आये- मुझे जबरदस्ती बैठाकर सारी रात काव्य-चर्चा ही न करता रहे- मेरे भय की सीमा नहीं रही।

खुश करने के लिए कहा, “नहीं गौहर, यह थोड़े ही कहता हूँ। तुम्हारी अद्भुत शक्ति को सभी स्वीकार करते हैं, पर बचपन की बातें याद हैं या नहीं, यही जानने के लिए पूछा है। तो ठीक- वह बंगाल की एक कीर्ति होकर रहेगी।”

“कीर्ति? अपने मुँह से क्या कहूँ भाई, पहले सुन तो लो, फिर ये सब बातें होंगी।”

किसी भी तरह छुटकारा नहीं। कुछ देर स्थिर रहकर मानो कुछ-कुछ अपने आप ही कहा, “सुबह से ही तबियत खराब हो रही है। ऐसा लगता है कि अगर नींद आ जाती…”

गौहर ने इस पर ध्या न ही न दिया। कहा, “पुष्पक रथ पर बैठकर सीताजी जब रोते-रोते गहने फेंक रही हैं- इस अंश को जिन जिनने सुना है वे अपने ऑंसू नहीं रोक सके हैं श्रीकान्त।”

ऑंखों का जल मैं भी रोक सकूँगा, इसकी सम्भावना कम है। कहा,

“किन्तु…” गौहर ने कहा, “हमारे उस बूढ़े नयन चाँद चक्रवर्ती की तुम्हें याद है न? उसके मारे नाक में दम है। वक्त-बे-वक्त आकर कहता है, “गौहर, जरा वह अंश पढ़ो न, सुनूँगा।” कहता है, “बेटा, तुम मुसलमान की सन्तान कभी नहीं हो। ऐसा लगता है कि तुम्हारे शरीर में असली ब्राह्मण-रक्त प्रवाहित है।” ‘नयनचाँद’ नाम हर जगह नहीं होता, इसीलिए याद आ गया। मकान भी गौहर के गाँव में ही है। पूछा, “वही बूढ़ा चक्रवर्ती? उसके साथ तो तुम्हारे पिताजी का बड़ा झगड़ा हुआ था- लाठियाँ चलीं थीं और मामला भी?”

गौहर ने कहा, “हाँ। लेकिन पिताजी के सामने उसकी क्या चलती? उन्होंने उसकी जमीन, बगीचा, तालाब इत्यादि सबको कर्जमध्दे नीलाम करवा लिया था। लेकिन मैंने उसका तालाब और मकान लौटा दिया है। बहुत गरीब है। रात-दिन रोता था- यह क्या अच्छा होता श्रीकान्त?”

अच्छा तो नहीं होता, परन्तु चक्रवर्ती के काव्य-प्रेम से कुछ ऐसा ही अन्दाज लगा रहा था। कहा, “अब तो रोना बन्द हो गया है?”

गौहर ने कहा, “लेकिन आदमी वाकई अच्छा है। कर्जे के मारे उसने उस वक्त जो कुछ किया था, वैसा बहुत लोग करते हैं। उसके मकान के पास ही डेढ़ बीघे का आम का बगीचा है, उसके हरेक पेड़ को चक्रवर्ती ने अपने हाथों से लगाया है। नाती-पोते बहुत से हैं, खरीदकर खाने के लिए पैसे नहीं हैं। फिर, मेरा ही कौन है, कौन खाने वाला है?”

“यह ठीक है। उसे भी लौटा दो।”

“लौटा देना ही ठीक है, श्रीकान्त। ऑंखों के सामने ही आम पकते हैं, लड़के-बच्चे ठण्डी आहें भरते हैं- मुझे बहुत दु:ख होता है भाई! आम के दिनों में मेरे सब बगीचे व्यापारी लोग ले लेते हैं, सिर्फ वह बगीचा नहीं बेचता। कह दिया है, चक्रवर्ती, तुम्हारे नाती तोड़-तोड़कर खायें। क्या कहते हो ठीक किया न?”

‘बिल्कुटल ठीक।” मन-ही-मन कहा, बैंकुण्ठ के खाते की जय हो! उसकी बदौलत यदि गरीब नयन चाँद पत्किंचित् लाभ उठा सके तो नुकसान ही क्या है? इसके अलावा गौहर कवि है। कवि की इतनी सम्पत्ति किस मतलब की अगर रसग्राही रसिक सुजनों के काम में न आय?

लगभग चैत्र के बीचोंबीच की बात है। गाड़ी की खिड़की को एकाएक अन्त तक खोलकर गौहर ने बाहर सिर निकालते हुए कहा, “दक्षिणी हवा का अनुभव हो रहा है श्रीकान्त?”

“हो रहा है।”

गौहर ने कहा, “वसन्त को पुकारते हुए कवि ने कहा है- ‘खोल दे आज दखिन का द्वार’।”

कच्ची मिट्टी का रास्ता है। मलय पवन के एक झोंके ने रास्ते की सूखी धूल को जमीन पर नहीं रहने दिया, उससे समस्त मुँह और सिर को भर दिया। मैं अप्रसन्न होकर बोला, “कवि ने वसन्त को नहीं बुलाया। वह कहता है कि इस वक्त यम का दक्षिण द्वार खुला है- अत: गाड़ी को बन्द न करोगे, तो शायद वही आकर हाजिर हो जायेगा।”

गौहर ने हँसकर कहा, “चलकर देखोगे एक बार। चकोतरे के दो पेड़ों पर फूल खिले हैं, कोई आधा कोस से उनकी गन्ध आती है। सामने वाला जामुन का पेड़ माधवी फूलों से भर गया है, उसकी एक डाल पर मालती की लता है। फूल अभी नहीं खिले हैं, कलियों के गुच्छे के गुच्छे लटक रहे हैं। हमारे चारों ही ओर आम के बगीचे हैं और अबकी बार बौर से आम के झाड़ छा गये हैं। कल सुबह मधुमक्खियों का मेला देखना। कितने नीलकण्ठ, कितनी बुलबुलें और कितनी कोयलों के गान! इस वक्त चाँदनी रात है, इस कारण रात को भी कोयल की कूक नहीं रुकती। बाहर के कमरे की दक्षिण वाली खिड़की यदि खुली रखोगे तो फिर तुम्हारी पलकें न झपेंगी। लेकिन इस बार यों ही नहीं छोड़ दूँगा भाई, यह पहले से यह देता हूँ। इसके अलावा खाने की भी कोई फिक्र नहीं, चक्रवर्ती महाशय को एक बार खबर मिलने-भर की देर है। तुम्हारा आदर गुरु की तरह करेंगे।”

आमन्त्रण की अकपट आन्तरिकता से मुग्ध हो गया। कितनी मुद्दतों बाद मुलाकात हुई है, लेकिन वह ठीक उस दिन जैसा ही गौहर है- जरा भी नहीं बदला है- वैसा ही बचपन है, मित्र-मिलने में वैसा ही अकृत्रिम उल्लास है।

गौहर मुसलमान फकीर-सम्प्रदाय का है। सुना गया है कि उसके पितामह बाउल थे। वे रामप्रसादी और दूसरे गीत गा-गाकर भिक्षा माँगते थे। उनकी पाली हुई सारिका की अलौकिक संगीत-पारदर्शिता की कहानी उन दिनों इधर बहुत प्रसिद्ध थी। लेकिन गौहर के पिता पैतृक-वृत्ति छोड़कर तिजारत और पाठ का कारबार करने लगे और अपने लड़के के लिए बहुत-सी जायदाद खरीदकर छोड़ गये। परन्तु लड़के में बाप जैसी व्यापारी बुद्धि नहीं है- बल्कि बाबा का काव्य और संगीत के प्रति अनुराग ही उसमें है। अत: पिता की जी-तोड़ मेहनत से संचित जमीन-जायदाद और खेती-बारी का अन्त में क्या परिणाम होगा, यह शंका और सन्देह का विषय है।

खैर, जो हो, उन लोगों का मकान बचपन में देखा था। ठीक से याद नहीं। अब वह शायद कवि की वाणी-साधना के तपोवन में रूपान्तरित हो गया हो। उसे एक बार ऑंखों से देखने की इच्छा हुई।

उसके ग्राम के पथ से मैं परिचित हूँ, उसकी दुर्गमता भी याद आती है। किन्तु थोड़ी ही देर बाद मालूम हो गया कि शैशव की उस याद के साथ आज की ऑंखों से देखने की कतई तुलना नहीं हो सकती। बादशाही जमाने की सड़क है अतिशय सनातन। मिट्टी पत्थरों की परिकल्पना यहाँ के लिए नहीं है! कोई करेगा, ऐसी दुराशा भी कोई नहीं करता। इतना ही नहीं, संस्कार या मरम्मत की सम्भावना भी लोगों के मन से बहुत समय पहले ही पुंछ गयी है। गाँव वाले जानते हैं कि शिकायत या अभियोग फिजूल है- उनके लिए किसी भी दिन राजकोष में रुपये नहीं होंगे। वे जानते हैं कि पुरुषानुक्रम से सड़क के लिए सिर्फ सड़क-टैक्स देना पड़ता है पर वह सड़क कहाँ है और किसके लिए है, यह सब सोचना भी उनके लिए ज्यादती है।

¹ बाउल-बंगाल में वैरागी सन्तों का एक सम्प्रदाय। कबीर, दादू आदि हिन्दी के सन्त-कवियों की वाणी गा-गाकर ये घर-घर भिक्षा माँगते हैं।

उस सड़क पर बहुकाल से संचित और स्तूपीकृत बालू और मिट्टी की रुकावट को हटाती हुई हमारी गाड़ी सिर्फ चाबुक के जोर से अग्रसर हो रही थी। ऐसे ही वक्त गौहर एकाएक बड़े जोर से चिल्ला उठा, “गाड़ीवान! और नहीं- और नहीं, ठहरो-एकदम रोको!”

उसने यह इस तरह कहा जैसे पंजाब-मेल का मामला हो-जैसे पल-भर में ही सब वैक्युम ब्रेक अगर बन्द न किये जा सके तो सर्वनाश की सम्भावना हो।

गाड़ी रुक गयी। बाँयें हाथवाला रास्ता उनके गाँव जाने का है। उतरकर गौहर ने कहा, “श्रीकान्त, उतर आओ। मैं बैग ले लेता हूँ, तुम बिछौना उठाओ, चलो।”

“शायद गाड़ी और आगे नहीं जायेगी?”

“नहीं। देखो न, रास्ता नहीं है।”

यह सही है। दक्षिण बाँयीं ओर काँटेदार पेड़ और बेत-कुंजकी घनी तथा सम्मिलित शाखा-प्रशाखाओं के कारण गाँव की वह गली अतिशय संकीर्ण हो गयी है। गाड़ी को अन्दर घुसाने का तो प्रश्न ही अवैध था, क्योंकि अगर आदमी भी होशियारी के साथ झुककर न घुसे तो काँटों में फँसकर उसके कपड़ों का फटना अनिवार्य है- अतएव, कवि के कथनानुसार वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अनिर्वचनीय था। उसने बैग को कन्धों पर रखा और मैंने बिछौने को बगल में दबाया। इस तरह हम लोग गोधूलि की बेला में गाड़ी से उतरे। कवि-गृह में जब पहुँचा तो शाम हो चुकी थी। अन्दाज लगाया कि आकाश में वसन्त-रात्रि का चन्द्रमा भी निकल आया है। शायद पूर्णिमा के आस-पास की तिथि थी, अतएव इस आशा में था कि गम्भीर निशीथ में चन्द्रदेव सिर के ऊपर आ जाँय तो तिथि के बारे में नि:संशय हो जाऊँ। मकान के चारों ओर बाँसों का घना वन है। बहुत सम्भव है कि इसी जंगल में उसका कोयल नीलकण्ठ और बुलबुलों का झुण्ठ रहता हो और उन्हीं की अहर्निश पुकार तथा गाना कवि को व्याकुल बना देता हो। बाँस के पके सूखे हुए असंख्य पत्तों ने झड़झड़ कर ऑंगन और चबूतरे को चारों ओर से परिव्याप्त कर रखा है। इन पर नज़र पड़ते ही इस प्रेरणा से सारा मन क्षणभर में ही गर्जना कर उठता है कि झड़े हुए पत्तों का गीत गाया जाय। नौकर ने आकर बाहर की बैठक खोल दी और बत्ती जला दी। गौहर ने तख्त दिखाते हुए कहा, “तुम इसी कमरे में रहो। देखना, कैसी सुन्दर हवा आती है।”

असम्भव नहीं है। देखा, कि दक्षिण की हवा की वजह से देशभर की सूखी हुई लताओं और पत्तों ने गवाक्ष-पथ से भीतर घुसकर कमरे को भर दिया है, तख्त को भी छा दिया है। फर्श पर पैर पड़ते ही शरीर सनसना उठा। खाट के पाये के पास चूहे ने अपना बिल बनाकर मिट्टी जमा कर रक्खी है। मैंने उसे दिखाकर कहा, “गौहर, कमरे में तुम लोग क्या कभी झाँकते भी नहीं?”

गौहर ने जवाब दिया, “नहीं, जरूरत ही नहीं पड़ती। मैं अन्दर ही रहता हूँ। कल सब साफ करा दूँगा।”

“साफ तो हो जाएगा, लेकिन इस बिल में साँप भी तो रह सकते हैं?”

नौकर ने कहा, “दो थे, लेकिन अब नहीं हैं। ऐसे दिनों में वे नहीं रहते, हवा खाने के लिए बाहर चले जाते हैं।”

पूछा, “यह कैसे मालूम हुआ मियाँ?”

गौहर ने हँसते हुए कहा, “यह मियाँ नहीं है, अपना नवीन है। पिताजी के जमाने का आदमी है। गाय-भैंस, खेती-बारी देखता है और मकान की हिफाजत भी करता है। हमारे यहाँ क्या है, और क्या नहीं है, इसे सब पता है।” नवीन बंगाली हिन्दू है और है पिता के जमाने का आदमी। इस घर की गाय-भैसें, खेती-बारी से लेकर मकान तक का सारा हाल जानना उसके लिए असम्भव नहीं है। तथापि साँप के बारे में उसकी बातों से निश्चिन्त न हो सका। यहाँ तो मकान-भर को दक्षिणी हवा लग गयी है! सोचा, इसमें शक नहीं कि हवा के लोभ में सर्प-युग्ल बाहर जा सकते हैं, परन्तु, उन्हें लौटते भी कितनी देर लग सकती है?

गौहर ने ताड़ लिया कि मुझे तसल्ली नहीं हुई है। कहा, “तुम तो खाट पर रहोगे, फिर तुम्हें डर किस बात का? इसके अलावा वे कहाँ नहीं रहते? भाग्य में लिखा था, इससे राजा परीक्षित को भी रिहाई नहीं मिली, फिर हम तो तुच्छ हैं। नवीन, कमरे में झाडू लगाकर एक ईंट से बिल को ढक देना, भूलना नहीं। पर श्रीकान्त, कहो तो, तुम खाओगे क्या?”

मैंने कहा, “जो कुछ मिल जाए।”

नवीन बोला, “दूध, चिवड़ा और अच्छी ईख का गुड़ है। आज के लायक-”

मैंने कहा, “ठीक है, ठीक है। इस मकान में ये ही चीजें खाने की मुझे आदत है, और कुछ जुटाने की जरूरत नहीं, भाई। बल्कि, तुम कहीं से एक हल्की ईंट ले आओ। बिल को मजबूती से ढक दो, जिससे दक्षिण की हवा से पेट भरकर जब वे घर लौटें तो फिर एकाएक इसमें न घुस सकें।” हाथ में रोशनी लेकर नवीन कुछ देर तक तख्त के नीचे झाँकता रहा। फिर बोला, “नहीं, नहीं हो सकता।”

“क्या नहीं हो सकता जी?”

उसने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, यह नहीं हो सकता। बिल का मुँह क्या अकेला है बाबू? पजाबा-भर ईंटें चाहिए। चूहों ने जमीन को एकबारगी पोला कर डाला है।”

गौहर विशेष विचलित न हुआ। उसने आदमी लगाकर कल अवश्य मरम्मत करा देने का हुक्म दे दिया।

नवीन हाथ पैर धोने के लिए पानी देकर फलाहार का आयोजन करने जब भीतर चला गया तो मैंने पूछा, “और तुम क्या खाओगे गौहर?”

“मैं? मेरी एक बूढ़ी मौसी हैं, वे ही खाना बनाती हैं। खैर, यह खाना-पीना खत्म हो जाए तो अपनी रचनाएँ तुम्हें सुनाऊँ।” वह अपने काव्य के ध्या न में ही मग्न था। अतिथि के आराम और सुविधा का खयाल शायद उसने किया ही नहीं। बोला, “बिछौना बिछा दूँ, क्या कहते हो? रात को हम दोनों एक साथ ही रहेंगे-क्यों?”

यह एक और आफत आई। कहा, “नहीं भाई गौहर, तुम अपने कमरे में जाकर सोओ। आज मैं बहुत थका हुआ हूँ, कल सुबह ही तुम्हारी रचना सुनूँगा।”

“कल सुबह? तब क्या वक्त रहेगा?”

“अवश्य रहेगा।”

गौहर चुप होकर कुछ सोचता रहा। बोला, “अच्छा श्रीकान्त, एक काम किया जाए तो कैसा हो! मैं पढ़ता हूँ और तुम लेटे-लेटे सुनते रहना। नींद आने पर मैं चला जाऊँगा। क्या कहते हो? यह ठीक है न- क्यों?”

मैंने विनती करते हुए कहा, “नहीं भाई गौहर, इससे तुम्हारी किताब की मर्यादा नष्ट होगी। कल मैं पूरा ध्या-न लगाकर सुनूँगा।”

गौहर ने क्षुब्ध चेहरे से बिदा ली, पर बिदा करके मेरा मन भी प्रसन्न नहीं हुआ।

यह एक ही पागल है। पहले इसके इशारों से तो मैंने यही समझा था कि अपने काव्य-ग्रन्थ को वह प्रकाशित करना चाहता है और उसे आशा है कि उससे संसार में एक धूम मच जायेगी। वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। पाठशाला और स्कूल में उसने सिर्फ थोड़ी-सी बंगला और अंगरेज़ी सीखी थी। इच्छा भी नहीं थी, और शायद समय भी नहीं मिला। शैशव में न जाने कब और कैसे वह कविता से प्रेम कर बैठा। सम्भव है कि वह प्रेम उसकी शिराओं के खून में ही बह रहा हो-इसके बाद संसार का सब कुछ उसकी नजरों में अर्थहीन हो गया है। अपनी अनेक रचनाएँ उसे याद हैं। गाड़ी में बैठा हुआ बीच-बीच में वह गुनगुनाकर आवृत्ति भी करता था। उस वक्त सुनकर यह नहीं सोचा था कि इस अक्षय भक्त को वाग्देवी अपने स्वर्ण-पद्म की एक पंखुड़ी देकर किसी दिन पुरस्कृत करेंगी। पर अक्लान्त आराधना के एकाग्र आत्म निवेदन में इस बेचारे को विराम नहीं, विश्राम नहीं। बिछौने पर लेटा हुआ सोचने लगा कि बारह साल बाद मुलाकात हुई है। इन बारह वर्षों से उसने सब पार्थिव स्वार्थों को जलांजलि देकर और एक रचना के बाद दूसरी गूँथ करके श्लोकों का पहाड़ जमा कर लिया है। पर यह सब किस काम में आयेगा? जानता हूँ कि काम में नहीं आएगा। गौहर आज नहीं है पर उसकी दुश्चर तपस्या की अकृतार्थता स्मरण कर आज भी मन दुखी होता है। सोचता हूँ कि न जाने कितने शोभाहीन, गन्धहीन फूल लोक-चक्षुओं के अन्तराल में खिलते हैं और फिर अपने आप ही मुरझा जाते हैं। परन्तु, विश्व-विधान में यदि उनकी कोई सार्थकता है, तो शायद गौहर की साधना भी व्यर्थ नहीं हुई होगी।

गौहर ने बहुत सबेरे ही पुकारकर मेरी नींद खोल दी। तब शायद सात बजे थे, या न भी बजे हों। उसकी इच्छा थी कि वसन्त के दिनों में बंगाल के निभृत गाँवों के लोकोत्तर शोभा-सौन्दर्य को अपनी ऑंखों से देखकर धन्य होऊँ। उसका भाव कुछ ऐसा था कि मानो मैं विलायत से लौटकर आया हूँ। उसका आग्रह पागलों जैसा था। अनुरोध टालने का उपाय नहीं था। अतएव हाथ-मुँह धोकर तैयार होना पड़ा। प्राचीर से सटे हुए एक अधमरे जामुन के पेड़ के अधिक हिस्से में माधवी और अधिक में मालती लता लिपटी थी। यह कवि की अपनी योजना है। अत्यन्त निर्जीव शकल-तथापि, एक में थोड़े से फूल खिले हैं और दूसरी में अभी कलियाँ फूटी हैं। उसकी इच्छा थी कि थोड़े से फूल मुझे उपहार दे, पर पेड़ में इतने लाल चींटे थे कि छूने का कोई उपाय नहीं सूझा। उसने मुझे यह कहकर सान्त्वना दी कि कुछ देर बाद उन्हें ऑंकड़ी से अनायास ही झड़ा दिया जायेगा। अच्छा, चलो।

प्रात:क्रिया ठीक तौर से निष्पन्न हो सके (अर्थात् कब्ज न रहे,) इसके उद्योग-पर्व में नवीन चिलम हाथ में लिये दम लगाकर बड़े जोर से खाँस रहा था। थूककर, खखारकर और बहुत कुछ सँभालकर हाथ हिलाकर उसने मना किया। कहा, “जंगल में कहीं गायब मत हो जाइएगा, कहे देता हूँ।”

गौहर ने नाराजगी से कहा, “क्यों रे?”

नवीन ने जवाब दिया, “कोई दो-तीन सियार पागल हो गये हैं; ढोर-आदमियों को काटते डोल रहे हैं।”

मैं डर के मारे पीछे हट गया।

“कहाँ रे नवीन?”

“यह क्या मैंने देखा है कि कहाँ हैं? कहीं-न-कहीं झाड़ी-आड़ी में छिपे होंगे। अगर जाते हो तो ऑंखें खोलकर जाना।”

“तो भाई, जाने का काम नहीं गौहर।”

“वाह रे! इस वक्त कुत्ते और सियार जरा पागल हो ही जाते हैं- सिर्फ इसी वजह से क्या लोग रास्ता चलना बन्द कर देंगे? खूब कहा।”

यह भी दक्षिण की हवा का मामला है। अतएव, प्रकृति की शोभा देखने साथ में जाना ही पड़ा। रास्ते में दोनों ओर आम के बगीचे हैं। करीब पहुँचते ही असंख्य छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े चड़-चड़ पट-पट आवाज करते हुए आम्र-मुकलों को छोड़कर ऑंख, नाक, मुँह और कपड़ों के भीतर घुस गये। सूखे पत्तों पर आम का मधु गिरकर चिपकनी लेई की तरह हो गया था, वह जूते के तलों में चिपकने लगा। सँकरे रास्ते का बहुत-सा हिस्सा बेदखल कर विराजमान मुकलित-विकसित फूलों के भार से लदीं घनी करौंदे की झाड़ियाँ- इसी समय यदि आ गयीं नवीन की चेतावनी। गौहर के मतानुसार यह वक्त पागल होने लायक ही है, इसलिए करौदे के फूलों की शोभा और किसी दिन समय के अनुसार उपभोग की जायेगी। आज गौहर और मैं- यानी नवीन के ‘ढोर आदमी’ ने जरा तेज कदम से ही स्थान त्याग किया।

मैं कह चुका हूँ कि हमारे गाँव की नदी इस गाँव की सीमा में भी होकर बहती है। वर्षा की चौड़ी जलधारा वसन्त के समागम से पतली शीर्ण हो गयी है। उस समय धार के साथ बहकर आई अपरिमेय सिवार और काई शुष्क तट-भूमि पर फैल गयी है और शिशिर और धूप में सड़कर उसने सारी जगह को दुर्गेन्ध से नरक-कुण्ड बना दिया है। नदी के उस पार कुछ दूर से मरके पेड़ में सैकड़ों लाल फूल खिले हुए थे। उन पर पड़ी, लेकिन इस वक्त कवि को भी उस ओर दृष्टि आकर्षित करना ठीक नहीं लगा। उसने कहा, “चलो, घर लौट चलें।”

“अच्छा, चलो।”

“मेरा खयाल था कि ये सब चीजें अच्छी लगेंगी।”

कहा, “अच्छी लगेंगी भाई, लगेंगी। अच्छे-अच्छे शब्दों में तुम इनको कविता में लिखो, मैं पढ़कर खुश हूँगा।”

“शायद इसीलिए गाँव के आदमी एक बार भूलकर भी इन्हें नहीं देखते।”

“नहीं। देखते-देखते उन्हें अरुचि हो गयी है। भाई, ऑंखों की रुचि और कानों की रुचि एक नहीं है। जो यह सोचते हैं कि कवि के वर्णन को अपनी ऑंखों देखने पर लोग मोहित हो जाते हैं, वह नहीं जानते सत्य क्या है। दुनिया के हर काम में यह बात लागू है। ऑंखों के लिए जो एक साधारण घटना या बहुत मामूली-सी वस्तु है वही कवि की भाषा में ‘नयी सृष्टि’ हो जाती है। तुम जो देखते हो वह भी सत्य है, और जो मैं नहीं देख सका वह भी सत्य है। इसके लिए तुम दुखी मत होना गौहर।’

तो भी लौटते समय रास्ते में उसने न जाने कितनी और क्या-क्या वस्तुएँ दिखाने की चेष्टा की। पथ का प्रत्येक वृक्ष, प्रत्येक लता पौधा तक मानो उसका पहिचाना हुआ है। न जाने कब एक पेड़ की छाल औषधि के लिए कोई छीलकर ले गया था और उससे चिपकनेवाला पदार्थ अब भी झर रहा था। सहसा उसे देखकर गौहर सिहर-सा उठा। उसकी ऑंखें छलछला आयीं, मैं उसके मुँह की ओर देखकर यह स्पष्टतया समझ गया कि अन्तर में उसने कितनी वेदना का अनुभव किया है। चक्रवर्ती जो अपनी सब खोई हुई चीजें पुन: वापस प्राप्त कर रहा था, सो केवल अपनी होशियारी के कारण नहीं, इसका कारण तो गौहर के स्वभाव में ही है। ब्राह्मण के प्रति मेरा क्रोध बहुत कुछ अपने आप ही कम हो गया। चक्रवर्ती से मुलाकात नहीं हुई, क्योंकि सुना गया कि उसके घर में उसके दो नातियों पर शीतला-माता की कृपा हुई है। अब तक गाँव-गाँव में विसूचिका-माता के दर्शन नहीं हुए हैं- वे सड़ी हुए तलैयों के पानी के थोड़ा और सूख जाने की राह देख रही हैं।

खैर, घर पहुँचकर गौहर ने अपना पोथा मेरे सामने हाजिर कर दिया। ऐसा आदमी संसार में बिरला ही होगा जिसे उसका परिणाम देखकर भय न लगता। बोला, “बिना पढ़े छुट्टी नहीं मिलेगी श्रीकान्त, और तुम्हें अपनी सच-सच राय देनी होगी।”

यह आशंका तो थी ही। साफ-साफ राजी हो सकूँ, इतना साहस नहीं था, तो भी कवि की वाटिका में इस यात्रा के, एक के बाद एक, मेरे सात दिन काव्यालोचना में ही कट गये। काव्य की बात जाने दो, किन्तु सघन साहचर्य में इस मनुष्य का जो परिचय मिला, व जितना सुन्दर था उतना ही विस्मयकारक।

एक दिन गौहर ने कहा, “श्रीकान्त, तुम्हें बर्मा जाने की क्या जरूरत है? हम दोनों के ही अपना कहने लायक कोई नहीं है, तो आओ ने हम दोनों भाई यहीं एक साथ जीवन बिता दें!”

हँसकर कहा, “मैं तो तुम्हारी तरह कवि नहीं हूँ भाई, न पेड़-पौधों की भाषा ही समझता हूँ, और न उनसे बातचीत कर सकता हूँ, फिर इस जंगल में कैसे रह सकूँगा? दो दिन में ही हाँफ जाऊँगा”

गौहर ने गम्भीर होकर कहा, “किन्तु मैं उनकी भाषा वाकई समझता हूँ। वे सचमुच बोलते हैं- क्या तुम लोग विश्वास नहीं करते?”

मैंने कहा, “यह तो तुम भी समझते हो कि विश्वास करना मुश्किल है?”

गौहर ने सरलता से स्वीकार कर लिया, कहा, “हाँ, हाँ, यह तो समझता हूँ।”

एक दिन सुबह अपनी रामायण का अशोक-वन वाला अध्या य कुछ देर तक पढ़ने के बाद उसने हठात् किताब बन्द कर दी और मेरी ओर घूमकर प्रश्न किया, “अच्छा श्रीकान्त, तुमने कभी किसी को प्यार किया है?”

कल बहुत रात तक जागकर राजलक्ष्मी को शायद अपनी अन्तिम चिट्टी- लिखी थी। उसमें बाबा की बातें, पूँटू की कथा और उसके दुर्भाग्य का समस्त विवरण था। उन लोगों को वचन दिया था कि एक आदमी की अनुमति माँग लूँगा- सो वह भिक्षा भी उसमें माँगी थी। चिट्ठी भेजी नहीं थी, उस वक्त पॉकेट में ही पड़ी हुई थी। गौहर के प्रश्न के उत्तर में हँसकर कहा, “नहीं।”

गौहर ने कहा, “यदि कभी प्यार करो, यदि कभी ऐसा दिन आये तो मुझे जताना श्रीकान्त।”

“जानकर क्या करोगे?”

“कुछ भी नहीं। तब सिर्फ तुम लोगों के बीच जाकर कुछ दिन काट आऊँगा।”

“अच्छा।”

“और अगर उस वक्त रुपयों की जरूरत हो तो मुझे खबर दे देना। बाबूजी बहुत रूपये छोड़ गये हैं, वह मेरे काम में तो लगा नहीं- किन्तु शायद तुम लोगों के काम में लग जाये।”

उसके कहने का तरीका कुछ ऐसा था कि सुनते ही ऑंखों से अश्रु निकल पड़े। कहा, “अच्छा, यह भी खबर दूँगा। पर आशीर्वाद दो कि इसकी कभी जरूरत न पड़े।”

मेरे जाने के दिन गौहर फिर मेरा बैग उठाकर प्रस्तुत हो गया। इसकी जरूरत न थी, नवीन तो शर्म से प्राय: अधमरा हो गया, पर उसने एक न सुनी। ट्रेन में बैठाकर वह औरतों की तरह रो उठा, बोला, “मेरे सिरकी कसम है श्रीकान्त, चले जाने के पहले एक दिन फिर आना ताकि फिर एक बार मुलाकात हो जाय।”

आवेदन की उपेक्षा नहीं कर सका, वचन दिया कि मिलने के लिए फिर एक बार आऊँगा।

“कलकत्ता पहुँचकर कुशल-संवाद दोगे न?”

यह वचन भी दिया। मानो न जाने कितनी दूर चला जा रहा हूँ!

कलकत्ते के मकान में जब पहुँचा, तब प्राय: संध्याल हो गयी थी। चौखट पर पैर रखते ही जिसके दर्शन हुए, वह और कोई नहीं स्वयं रतन था।

“यह क्या रे, तू है?”

“हाँ, मैं ही हूँ और कल से बैठा हूँ। एक चिट्ठी है।” समझ गया कि उसी प्रार्थना का उत्तर है। कहा, “डाक से भेजने पर भी तो चिट्ठी मिल जाती?”

रतन ने कहा, “यह व्यवस्था किसान, मजदूर और साधारण गृहस्थ के लिए है। माँ की चिट्ठी अगर एक आदमी बिना खाये-पीये और सोये पाँच-सौ मील हाथ में लिए दौड़ता हुआ न लाये, तो खो न जायेगी? आप तो सब जानते हैं, क्यों झूठ-मूठ पूछ रहे हैं?”

बाद में सुना कि रतन का यह अभियोग झूठा है। क्योंकि खुद ही उद्यत होकर वह यह चिट्ठी अपने हाथ लाया है। मालूम हुआ कि ट्रेन की भीड़ और आहार वगैरह की अव्यवस्था के कारण उसका मिजाज बिगड़ गया है। हँसकर कहा, “ऊपर आ। चिट्ठी पीछे पढ़ूँगा, चल, पहले तेरे खाने का इन्तजाम कर दूँ।”

रतन ने पैरों की धूल लेकर प्रणाम किया और कहा, “चलिए।”

डकार से चौंकाता हुआ रतन दाखिल हुआ।

“कह रतन, पेट भर गया?”

“जी हाँ। आप चाहे कुछ भी कहें बाबू, लेकिन हमारे कलकत्ते के बंगाली ब्राह्मणों के अलावा और कोई रसोई बनाना नहीं जानता। उनके आगे तो इन मारवाड़ी महाराजों को जानवर ही कहा जा सकता है।”

मुझे याद नहीं कि दोनों प्रान्तों की रसोई की अच्छाई-बुराई या रसोइये की कला के बारे में रतन से कभी मैंने बहस की हो, पर रतन की जितना जानता हूँ उससे यही खयाल हुआ कि सुप्रचुर भोजन से वह खूब सन्तुष्ट हुआ है। अगर यह बात न होती तो वह पश्चिमी रसोइयों के बारे में ऐसी निरपेक्ष राय न दे सकता। उसने कहा, “गाड़ी में धक्के तो कम नहीं लगे, हाथ-पैर फैलाकर लेटे बिना…”

“तो अच्छा है रतन, चाहे कमरे में चाहे बरामदे में बिछौना बिछाकर सो जा, कल सब बातें होंगी।”

न जाने क्यों चिट्ठी के लिए उत्कण्ठा न थी। ऐसा लग रहा था कि उसमें जो कुछ लिखा होगा वह तो मालूम ही है।

रतन ने फतूई की जेब से एक लिफाफा निकालकर मेरे हाथ में दे दिया। चपड़े से सील-मोहर किया हुआ था। बोला, “बरामदे की इस दक्षिणवाली खिड़की के बगल में बिछौना बिछा लूँ? मसहरी लगाने की झंझट नहीं होगी। कलकत्ते के अलावा ऐसा सुख और कहाँ है। जाता हूँ…”

“किन्तु सब खबर अच्छी है न रतन?”

रतन ने मुँह गम्भीर कर कहा, “ऐसा ही तो लगता है। गुरुदेव की कृपा से मकान का बाहरी हिस्सा गुलजार है। भीतर दास-दासियों, बंकू बाबू, और नयी बहू ने आकर घर-द्वार रोशन कर दिया है, और सबके ऊपर स्वयं माँ हैं जो मकान की मालकिन हैं। ऐसी गृहस्थी की बुराई कौन करेगा? लेकिन मैं बहुत पुराना नौकर हूँ, जाति का नाई हूँ- रतन को इतनी जल्दी भुलावा नहीं दिया जा सकता बाबू। इसीलिए तो उस दिन स्टेशन पर ऑंखों के अश्रु न रोक सका। यह निवेदन किया था कि परदेश में नौकरों की कमी होने पर रतन को एक बार खबर जरूर दे दें। जानता हूँ कि आपकी सेवा करने पर भी उसी माँ की सेवा होगी। धर्म का पतन नहीं होगा।”

मैं कुछ भी नहीं समझा, सिर्फ चुपचाप ताकता रहा। वह कहने लगा, “बंकू बाबू की अब उम्र भी हो गयी, थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर आदमी भी बन गये हैं। शायद सोचते हैं कि दूसरे के अधीन किसलिए रहा जाय। दानपत्र के जोर से सब मार तो लिया ही है। मानता हूँ कि मोटे तौर पर उन्होंने काफी हाथ साफ किया है, पर वह कितने दिनों का है बाबू?”

बात अब भी साफ न हुई, पर एक धुँधली छाया ऑंखों के सामने तैर गयीं। वह फिर कहने लगा, “आपने तो खुद अपनी ऑंखों से देखा है कि महीने में कम-से-कम दो दफा मेरी नौकरी छूट जाती है। हालत बुरी नहीं है, नाराज होकर जा भी सकता हूँ, लेकिन क्यों नहीं जाता? जा नहीं सकता। इतना जानता हूँ कि जिसकी दया से सब कुछ हुआ है, उसके एक नि:श्वास से ही आश्विन के मेघ की तरह सब लोप हो जायेगा, वह पलक मारने की भी फुर्सत नहीं देगा। यह माँ की नाराजगी नहीं है, यह तो मेरे देवता का आशीर्वाद है।”

यहाँ पाठकों को यह स्मरण करा देना आवश्यक है कि बचपन में रतन थोड़े दिनों तक प्राइमरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर चुका है।

कुछ रुककर कहा, “माँ ने मना कर दिया है, इसीलिए कभी कहता नहीं। घर में जो कुछ था बाबा ने ले लिया, यजमानों का एक घर तक नहीं दिया। एक छोटा लड़का और लड़की, और उनकी माँ को छोड़कर पेट के लिए एक दिन गाँव छोड़कर बाहर निकल पड़ा। पर पहले जन्म की तपस्या थी, मेरी नौकरी इन माँ के ही घर लग गयी। सारा दुखड़ा उन्होंने सुना, लेकिन उस वक्त कुछ नहीं कहा। एक वर्ष के बाद मैंने निवेदन किया, “माँ, बच्चों को देखने की इच्छा है, अगर कुछ दिनों की छुट्टी मिल जाती। हँसकर बोलीं, “फिर आओगे न?” जाने के दिन हाथ में एक पोटली देते हुए कहा, “रतन, बाबा से लड़ाई-झगड़ा मत करना भैया, जो कुछ तुम्हारा चला गया है उसे इसके द्वारा फेर लेना।” गठरी खोलकर देखता हूँ तो पाँच-सौ रुपये हैं! पहले तो अपनी ऑंखों पर विश्वास नहीं हुआ। ऐसा लगा, मानो मैं जागृत अवस्था में स्वप्न देख रहा हूँ। मेरी उसी माँ से बंकू बाबू अब उलटी-सीधी बातें कहते हैं, आड़ में खड़े होकर फुस-फुस करते हैं, सोचता हूँ कि अब इनके ज्यादा दिन नहीं हैं, क्योंकि अब माँ-लक्ष्मी जाने ही वाली हैं!”

मैंने यह आशंका नहीं की थी, चुपचाप सुनने लगा।

ऐसा लगा कि कुछ दिनों से क्रोध और क्षोभ से रतन फूल रहा है। बोला, “माँ जब देती हैं तो दोनों हाथों से उड़ेल देती हैं। बंकू को भी दिया है, इसीलिए उसने यह सोच लिया है कि मधु निचोड़े हुए छत्ते की क्या कीमत?- इस वक्त तो ज्यादा-से-ज्यादा उसे जलाया ही जा सकता है। इसलिए उसको वे इतनी अप्रिय हो रही हैं। मूरख यह नहीं जानता कि आज भी माँ का एक गहना बेचने पर ऐसे पाँच मकान तैयार हो सकते हैं।”

मैं भी यह न जानता था। हँसकर कहा, “ऐसी बात है? पर वह सब हैं कहाँ?”

रतन भी हँसा। बोला, “उन्हीं के पास है। माँ ऐसी बेवकूफ नहीं। सिर्फ आप ही के चरणों पर सर्वस्व लुटाकर वे भिखारिणी हो सकती हैं, किन्तु और किसी के भी लिए नहीं। बंकू नहीं जानता है कि आपके जिन्दा रहते माँ को आश्रय की कमी न होगी, और जब तक रतन जीवित है तब तक उन्हें नौकर के लिए भी सोचने की जरूरत नहीं। उस दिन काशी से आपके इस तरह चले आने की वजह से माँ के हृदय में कैसा तीर चुभा है, इसकी खबर क्या बंकू बाबू रखते हैं? गुरु महाराज को भी उसकी खोज-खबर कहाँ से मिल सकती है?”

“पर मुझे तो उन्होंने ही खुद बिदा किया था, इसकी खबर तो रतन, तुम्हें है?”

जीभ निकालकर रतन शर्म से गड़ गया। उसमें इतनी विनय इसके पहले कभी न देखी थी। कहा, “बाबू, हम तो नौकर-चाकर हैं, ये सब बातें हमारे कानों को नहीं सुननी चाहिए। यह झूठ है।”

रतन थकावट मिटाने के लिए चला गया। शायद कल आठ बजे के पहले उसके शरीर में स्फूर्ति नहीं आयेगी।

दो बड़ी खबरें मिलीं। एक तो यह कि बंकू अब बड़ा हो गया है। पटने में जब पहली बार मैंने उसे देखा था तो उस वक्त उसकी उम्र सोलह-सतरह थी। अब इक्कीस वर्ष का युवक है। बल्कि इन पाँच-छह वर्षों में पढ़-लिखकर वह आदमी बन गया है। अत: शैशव का वह सकृतज्ञ स्नेह यदि आज यौवन के आत्मसम्मान-बोध में सामंजस्य न रख पाता हो, तो इसमें विस्मय की कौन-सी बात है?

दूसरी खबर राजलक्ष्मी की गम्भीर वेदना का पता न तो बंकू को और न गुरुदेव को ही आज तक मिला है।

मेरे मन में ये ही दो बातें बहुत देर तक घूमती रहीं।

बड़े यत्न से अंकित चमड़े की सील-मोहर को देखकर चिट्ठी खोली। उसके हाथ की लिखावट ज्यादा देखने का मौका नहीं मिला है, पर, यह खयाल आया कि अक्षर ऐसे तो नहीं हैं कि पढ़ने में तकलीफ हो, लेकिन फिर भी अच्छे नहीं हैं। पर यह पत्र उसने बहुत सावधानी से लिखा है। शायद उसे डर था कि मैं चिढ़कर फेंक न दूँ, बल्कि शुरू से आखिर तक सब कुछ आसानी से पढ़ जा सकूँ।

आचार और आचरण में राजलक्ष्मी उस युग की प्राणी है। प्रणय-निवेदन की अधिकता तो दूर की बात है, बल्कि यह भी याद नहीं आता कि उसने मेरे सामने कभी कहा हो कि ‘प्रेम करती हूँ।’ उसने चिट्ठी लिखी है- मेरी प्रार्थना के अनुकूल अनुमति देकर। तो भी, न जाने क्या है, पढ़ने में जाने क्यों डर लगने लगा। उसके बाल्य-काल की याद आ गयी। उस दिन गुरुमहाशय की पाठशाला में उसका पढ़ना-लिखना बन्द हो गया था। बाद में शायद घर पर ही थोड़ा-बहुत पढ़-लिख लिया होगा। अतएव, भाषा का इन्द्रजाल, शब्दों की झनकार, पद-विन्यास की मधुरता की उसके पत्र में आशा करना अन्याय है। कुछ मामूली प्रचलित बातों में ही मन के भाव व्यक्त करने के अलावा वह और क्या करेगी? अनुमति देकर मामूली शुभ-कामना की दो लाइनें होंगी- यही तो? पर लिफाफा खोलकर पढ़ना शुरू करते ही कुछ देर के लिए बाहर का और कुछ भी याद न रहा। पत्र लम्बा नहीं है, लेकिन भाषा और भंगी जितनी सरल और सहज समझी थी, उतनी नहीं है। मेरे आवेदन का उत्तर उसने इस तरह दिया है-

“काशीधाम

“प्रणाम के उपरान्त सेविका का निवेदन।

“इस बार मिलाकर कुल सौ दफा तुम्हारी चिट्ठी पढ़ी। तो भी यह समझ में नहीं आया कि तुम पागल हो गये हो या मैं। तुमने शायद यह खयाल किया है कि मैंने तुम्हें पड़ा हुआ पा लिया था। परन्तु तुम कहीं पड़े हुए नहीं थे, तुम बहुत तपस्या के बाद मिले थे, बहुत आराधाना के बाद। इसीलिए, बिदा देने के मालिक तुम नहीं। मुझे त्याग करने का मालिकाना स्वत्वाधिकार तुम्हारे हाथों में नहीं है।

“तुम्हें याद नहीं, फूलों के बदले वन से करौंदे तोड़, उनकी माला गूँथकर, किस शैशव में तुम्हें वरण किया था। हाथों में काँटे चुभ जाने की वजह से खून बहने लगता था, लाल माला का वह लाल रंग तुम नहीं पहिचान सके थे। बालिका की पूजा का अर्घ्य उस दिन तुम्हारे गले में था। परन्तु तुम्हारे हृदय पर रक्त-रेखा से जो लेखा अंकित कर देती थी, वह तुम्हारी नज़रों में नहीं पड़ी। पर जिसकी नजरों से संसार का कुछ भी छिपा नहीं रह सकता, उनके पाद-पद्मों में मेरा वह निवेदन पहुँच गया था।

“उसके बाद आई दुर्योग की रात। काले मेघों ने मेरे आकाश की ज्योत्स्ना ढँक दी। किन्तु वास्तव में वह मैं हूँ या और कोई, इस जीवन में यथार्थ रूप में वे सब बातें हुई थीं या सोते-सोते स्वप्न देख रही थी-यह सोचते ही बहुधा मुझे डर लगता है मैं पागल हो जाऊँगी। तब सब भूलकर जिसका ध्यादन लगाकर बैठती हूँ, उसका नाम नहीं लिया जाता। किसी से कहने की बात नहीं है। उनकी क्षमा ही मेरे जगदीश्वर की क्षमा है। इसमें गलती नहीं है, सन्देह नहीं। यहाँ मैं निर्भय हूँ।

“हाँ, कहा था कि इसके बाद मेरे बुरे दिनों की रात आयी, दोनों ऑंखों की सारी रोशनी को कलंक ने बुझा दिया। पर वही क्या मनुष्य का समस्त परिचय है? उस अखण्ड ग्लानि के घने आवरण के बाहर उसका क्या और कुछ भी बाकी नहीं है?

“है। अव्याहत अपराध के बीच-बीच उसे मैंने बार-बार देखा है। अगर ऐसा न होता, विगत दिनों का राक्षस यदि मेरे समस्त अनागत मंगल को नि:शेष ग्रास कर लेता, तो तुम फिर मुझे कैसे मिलते? मेरे ही हाथों में लाकर फिर तुम्हें कौन सौंप जाता?

“मुझसे तुम चार-पाँच वर्ष बड़े हो, तो भी तुम्हें जो अच्छा लगता है वह मुझे शोभा नहीं देता। मैं बंगाली घर की लड़की हूँ, जीवन के सत्ताईस वर्ष पार कर चुकने के बाद यौवन का दावा और नहीं करती। मुझे तुम गलत मत समझना- चाहे जितनी ही अधम क्यों न होऊँ। अगर वह बात तुम्हारे मन में क्षणभर के लिए घुणाक्षर न्याय से भी आये, तो इससे बढ़कर शर्म की बात मेरे लिए और कोई नहीं है। बंकू जिन्दा रहे, वह बड़ा हो गया है। उसकी बहू आ गयी है- तुम्हारी शादी के बाद उन लोगों के सामने मैं किस मुँह से निकलूँगी? यह अपमान कैसे सहूँगी?

“यदि तुम कभी बीमार पड़ो तो सेवा कौन करेगा-पूँटू? और मैं तुम्हारे मकान

के बाहर से ही नौकर के मुँह से खबर पूँछकर लौट आऊँगी? इसके बाद भी जीवित रहने के लिए कहते हो?

“शायद प्रश्न करोगे, तो क्या हमेशा ही ऐसा नि:संग जीवन काटूँ? पर प्रश्न चाहे कुछ भी हो, उसका जवाब देने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर नहीं है, तुम्हारे ऊपर है। फिर भी अगर तुम बिल्कुनल ही कुछ न सोच सको- बुद्धि का इतना क्षय हो गया हो तो मैं उधार दे सकती हूँ, वह लौटानी नहीं पड़ेगी- लेकिन देखो, ऋण को कहीं अस्वीकार मत कर देना!

“तुम सोचते हो कि गुरुदेव ने मुझे मुक्ति का मन्त्र दिया है, शास्त्रों ने पथ का संधान दिया है, सुनन्दा ने धर्म की प्रवृत्ति दी है, और तुमने दिया है सिर्फ भार-बोझा। ऐसे ही अन्धे हो तुम लोग!

“पूछती हूँ, तुम्हें तो मैंने तेईस वर्ष की उम्र में पा लिया था, पर इसके पहले ये सब कहाँ थे? तुम इतना ज्यादा सोच सकते हो और यह नहीं सोच सकते?”

“मुझे आशा थी कि एक दिन मेरे सब पापों का अन्त हो जायेगा, मैं निष्पाप हो जाऊँगी। यह लोभ क्यों है, जानते हो? स्वर्ग के लिए नहीं- वह मुझे नहीं चाहिए। मेरी कामना है कि मरने के बाद फिर आकर जन्म ले सकूँ। इसके मानी समझ सकते हो?

“सोचा था कि पानी की धारा में कीचड़ मिल गयी है- मुझे उसे निर्मल करना ही पड़ेगा। पर आज अगर उसका मूल स्रोत ही सूख जाय, तो पड़ा रह जायेगा मेरा जप-तप, पूजा-अर्चना, रह जायेगी सुनन्दा, पड़े रहेंगे मेरे गुरुदेव।

स्वेच्छा से मैं मरना नहीं चाहती। पर मेरे अपमान करने का ही कूट कौशल अगर तुमने रचा हो तो इस विचार को छोड़ दो। अगर तुम विष दोगे तो मैं पी लूँगी, पर उसे न ले सकूँगी। मुझे जानते हो, इसलिए यह बता दिया कि जो सूर्य अस्त होगा उसके पुन: उदय की अपेक्षा में बैठे रहने का वक्त अब मेरे पास नहीं है। इति।

राजलक्ष्मी।”

छुटकारा मिला। सुनिश्चित कठोर अनुशासन की चरम-लिपि भेजकर उसने एक ओर से मुझे बिल्कुाल निश्चिन्त कर दिया। इस जीवन में उस विषय में सोचने के लिए अब और कुछ नहीं रहा। पर नि:संशयपूर्वक यह तो मालूम हुआ कि क्या नहीं कर सकूँगा। पर इसके बाद मुझे क्या करना होगा, इस बारे में राजलक्ष्मी बिल्कुाल चुप है। शायद उपदेशों से भरी हुई एक चिट्ठी और किसी दिन लिखेगी, अथवा सशरीर मुझे ही तलब करेगी। लेकिन इस वक्त जो व्यवस्था हो गयी है वह बहुत ही सुन्दर है। इधर बाबा-महोदय सम्भवत: कल सुबह ही आकर हाजिर होंगे। उन्हें भरोसा दे आया हूँ कि फिक्र करने की जरूरत नहीं, अनुमति मिलने में कोई विघ्न न होगा। पर जो कुछ आ पहुँचा, वह निर्विघ्न अनुमति ही तो है। रतन नाई के हाथ उसने कपड़े और मौर मुकुट नहीं भेजा, यही बहुत है।

दूसरी ओर देश के मकान में विवाह का आयोजन निश्चय ही अग्रसर हो रहा होगा। पूँटू के आत्मीय स्वजनों में से कोई कोई शायद आकर हाजिर हो रहे होंगे, तथा प्राप्त वयस्क अपराधी लड़की को इतने दिनों तक लांछना और भर्त्सना के बदले अब कुछ आदर मिल रहा होगा। यह जानता हूँ कि बाबा से क्या कहूँगा। पर वह बात कैसे कहूँगा, यही समझ में नहीं आता। उनके निर्मम तकाजों, लज्जाहीन युक्तियों और वकालत के बारे में मन ही मन सोचकर एक ओर हृदय जितना तिक्त हो उठा, दूसरी ओर व्यर्थ प्रत्यावर्तन की निराशा से चिढ़े हुए परिवार वालों के उस अभागी लड़की को और भी ज्यादा उत्पीड़ित करने की बात सोचते ही हृदय को उतनी ही व्यथा पहुँची। पर उपाय क्या है? बिछौने पर लेटा हुआ बहुत रात तक जागता रहा। पूँटू की बात भूलने में देर नहीं लगी, पर गंगामाटी की याद बराबर आने लगी। जन-विरल उस क्षुद्र गाँव की स्मृति कभी मिट नहीं सकती। इस जीवन की गंगा-जमुना की धारा एक दिन यहीं आकर मिली थी, और थोड़े अरसे तक पास-पास प्रवाहित हो एक दिन यहीं फिर अलग हो गयी थी। एक साथ रहने के वे क्षणस्थायी दिन श्रद्धा से गहरे, स्नेह से मधुर, आनन्द से उज्ज्वल और उनकी ही तरह नि:शब्द वेदना से अत्यधिक स्तब्ध हैं। विच्छेद के दिन भी हमने प्रवंचना की निन्दा से एक दूसरे को कलंक नहीं लगाया, नफे-नुकसान के फिजूल के वाद-विवाद से गंगामाटी के शान्त गृह को हम धूमाच्छन्न करके नहीं आया। वहाँ के सब लोग यही जानते हैं कि फिर एक दिन हम लौट आयँगे, फिर हँसी-खुशी शुरू होगी और फिर आरम्भ होगी भूस्वामिनी की दीन-दुखियों की सेवा और सत्कार। पर वह सम्भावना तो खत्म हो गयी है-प्रभात की विकसित मल्लिका दिन के अन्त का हुक्म मानकर चुप हो गयी है- यह बात वे स्वप्न में भी नहीं सोचेंगे।

ऑंखों में नींद नहीं है, निद्राहीन रजनी प्रात:काल की ओर जितनी आगे बढ़ने लगी, उतनी ही यह इच्छा होने लगी कि यह रात खत्म ही न हो! सिर्फ यही एक चिन्ता मानो मुझे मोहाच्छन्न करके रखे रही।

बीती हुई कहानी घूम-फिरकर मन में आ जाती है। वीरभूमि‍ जिले की वह तुच्छ कुटिया मन पर भूत की तरह चढ़ जाती है, हमेशा काम-काज में फँसी हुई राजलक्ष्मी के दोनों स्निग्ध हाथ ऑंखों के सामने साफ नजर आते हैं, इस जीवन में परितृप्ति का ऐसा आस्वादन कभी किया है, यह याद नहीं आता।

अभी तक पकड़ा ही गया हूँ, पकड़ नहीं पाया हूँ। पर राजलक्ष्मी की सबसे बड़ी कमजोरी कहाँ है, आज पकड़ ली। वह जानती है कि मैं नि‍रोग नहीं हूँ, किसी भी दिन बीमार पड़ सकता हूँ। तब न जाने कहाँ की एक पूँटू मुझे घेरकर बैठी है, राजलक्ष्मी का कोई प्रभुत्व ही नहीं है- इतनी बड़ी दुर्घटना को वह अपने मन में स्थान नहीं दे सकती। संसार की सब चीजों से वह अपने को वंचित कर सकती है पर यह वस्तु असम्भव है- यह उसके लिए असाध्यु है। मौत तुच्छ है, इसके निकट एक ओर रह गये गुरुदेव और एक ओर रह गये उसके जप-तप और व्रत-उपवास। चिट्ठी में उसने मुझे झूठा डर नहीं दिखाया है।

सुबह के वक्त शायद सो गया था। रतन की पुकार सुनकर जब उठा तो काफी वक्त हो गया था। उसने कहा, “न जाने कौन एक बूढ़े महाशय घोड़ागाड़ी करके अभी आये हैं।”

वे बाबा हैं। पर गाड़ी किराये की करके? सन्देह हुआ।

रतन ने कहा, “साथ में एक सतरह-अठारह साल की लड़की है।”

वह पूँटू है। यह बेशर्म आदमी उसे कलकत्ते के मकान तक घसीट लाया है। सुबह का प्रकाश तिक्तता से म्लान हो गया। कहा, “उन्हें उस कमरे में लाकर बैठाओ रतन, मैं मुँह-हाथ धोकर आता हूँ।” यह कहकर मैं नीचे के स्नान-घर में चला गया।

घण्टे-भर बाद लौटते ही बाबा ने मेरी सादर अभ्यर्थना की, मानो मैं ही उनका अतिथि हूँ, “आओ बेटा, आओ। तबियत अच्छी है न?”

मैंने प्रणाम किया। बाबा ने पुकार मचाई “पूँटू, कहाँ गयी?”

पूँटू खिड़की के किनारे खड़ी होकर रास्ता देख रही थी, उसने पास आकर मुझे नमस्कार किया।

बाबा ने कहा, “इसकी बुआ शादी के पहले एक बार देखना चाहती थी। फूफा तो हाकिम हैं, पाँच सौ रुपया महीना पाते हैं। डायमण्ड हारबर में तबादला हुआ है- घर गृहस्थी छोड़कर बाहर जाने की फुर्सत बुआ को नहीं है। इसलिए साथ लेता आया। सोचा कि दूसरे के हाथों में सौंपने के पहले उन्हें एक बार दिखा लाऊँ। इसकी दादी-माँ ने आशीर्वाद देकर कहा, “पूँटू, ऐसा ही भाग्य तेरा भी हो।”

मेरे कुछ कहने के पहले ही खुद बोले, “मैं इतनी जल्दी नहीं छोड़ूँगा भैया। हाकिम हों चाहें और कुछ हों, हैं तो रिश्तेदार-खड़े होकर काम पूरा कराना होगा- तब उन्हें छुट्ठी मिलेगी। जानते तो हो बेटा, कि शुभ कार्य में बहुत विघ्न होते हैं- शास्त्रर में कहा ही है, ‘श्रेयांसि बहुविघ्नानि।’ ऐसे एक आदमी के खड़े रहने पर किसी की चूँ तक करने की मजाल नहीं होगी। हमारे गाँव के लोगों का तो विश्वास है नहीं- वे सब कुछ कर सकते हैं। पर वे तो हाकिम हैं, उनकी तो राशि ही न्यारी है।

पूँटू के फूफा हैं। समाचार अवान्तर नहीं है- मतलब का है।

नया हुक्का खरीदकर रतन सयत्न चिलम सजाकर दे गया। थोड़ी देर तक गौर से देखने के बाद बाबा ने कहा, “ऐसा लगता है कि इस आदमी को कहीं देखा है?”

रतन ने फौरन ही कहा, “जी हाँ, देखा क्यों नहीं है। देश के मकान में जब बाबू बीमार थे…”

“ओ, तभी तो कहा कि पहिचाना हुआ चेहरा है।”

“जी हाँ।” कहकर रतन चला गया।

बाबा का मुँह अत्यन्त गम्भीर हो गया। धूर्त्त आदमी ठहरे, शायद उन्हें सारी बातें याद आ गयीं। चुपचाप चिलम के दम लगाते हुए बोले, “आने के लिए दिन देखकर आया था। बहुत अच्छा दिन है। मेरी इच्छा है कि आशीर्वाद का काम ऐसे ही खत्म कर जाऊँ। नूतन बाजार में तो सभी चीजें बिकती हैं। नौकर को एक बार भेज नहीं सकते? क्या कहते हो?”

जब कुछ भी कहने को न मिला तो किसी तरह सिर्फ कह दिया, “नहीं।”

“नहीं? नहीं क्यों? बारह बजे तक दिन बहुत अच्छा है। पंचांग है?”

मैंने कहा, “पंचांग की जरूरत नहीं। मैं विवाह नहीं कर सकता।”

बाबा ने हुक्के को दीवार से लगाकर रख दिया। चेहरा देखकर मैं ताड़ गया कि वह युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं। गले को बहुत शान्त और गम्भीर बनाकर कहा, “सारा आयोजन एक तरह से पूरा हो गया है। लड़की के ब्याह की बात है, हँसी-मजाक का मामला तो है नहीं। बचन दे आने पर अब ना करने पर कैसे काम चलेगा?”

पूँटू पीठ किये खिड़की के बाहर देख रही है और दरवाजे की आड़ में रतन कान लगाये खड़ा है, यह अच्छी तरह मालूम हो गया।

मैंने कहा, “वचन देकर तो नहीं आया था, यह आप भी जानते हैं और मैं भी। कहा था कि एक व्यक्ति की अनुमति मिल जाने पर राजी हो सकता हूँ।”

“अनुमति नहीं मिली?”

“नहीं।”

बाबा एक क्षण ठहरकर बेले, “पूँटू के पिता कहते हैं कि सब मिलाकर वह एक हजार रुपये देंगे। ज्यादा जोर लगाने पर और भी सौ-दो सौ दे सकते हैं; क्या कहते हो?”

रतन ने कमरे में घुसकर कहा, “तम्बाकू क्या एक बार और बदल दूँ?”

“बदल दो। तुम्हारा नाम क्या है जी?”

“रतन।”

“रतन? बड़ा सुन्दर नाम है, कहाँ रहते हो?’

“काशी में।”

“काशी? देवी आजकल शायद काशी में रहती है? वहाँ क्या करती है।”

रतन ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “उस समाचार से आपको मतलब?”

बाबा जरा हँसकर बोले, “नाराज क्यों होते हो बापू, क्रोध करने की तो कोई बात नहीं। गाँव की लड़की है न, इसीलिए खबर जानने की इच्छा होती है। शायद उसके पास भी कभी जा पड़ना पड़े। खैर, वह अच्छी तरह तो है?”

रतन बिना कोई जवाब दिये ही चला गया, और कोई दो मिनट बाद ही चिलम को फूँकता हुआ लौट आया और हुक्का हाथ में थमाकर चला जा रहा था कि बाबा बड़े जोर से कई दम लगाकर ही उठ खड़े हुए। बोले, “ठहरो तो भई, जरा पाखाना दिखा दो। सुबह ही निकल पड़ा हूँ न! कहते-कहते वे रतन के आगे ही बहुत तेजी के साथ कमरे से बाहर निकल गये।”

पूँटू ने मुँह फिराकर देखा और कहा, “बाबा की बातों पर आप एतबार मत कीजिए। पिताजी के पास हजार रुपये कहाँ हैं जो देंगे? किसी तरह दूसरों के गहने मँगनी माँगकर जीजी की शादी की थी- अब वे लोग जीजी को नहीं बुलाते। कहते हैं कि हम लड़के की दूसरी शादी करेंगे।”

इस लड़की ने इतनी बातें मुझसे पहले नहीं कही थीं। कुछ चकित होकर पूछा, “तुम्हारे पिताजी वाकई हजार रुपये नहीं दे सकते?”

पूँटू ने सिर हिलाकर कहा, “कभी नहीं। पिताजी को रेल में सिर्फ चालीस रुपये मिलते हैं। स्कूल की फीस की वजह से ही मेरे छोटे भाई की पढ़ाई बन्द हो गयी। वह कितना रोता है!” कहते-कहते उसकी दोनों ऑंखें छलछला आयीं।

प्रश्न किया, “सिर्फ रुपये के कारण ही तुम्हारी शादी नहीं हो रही है?”

पूँटू ने कहा, “हाँ इसी वजह से। हमारे गाँव के अमूल्य बाबू के साथ पिताजी ने सम्बन्ध पक्का किया था। उनकी लड़कियाँ भी मुझसे बहुत बड़ी हैं। इस पर माँ पानी में डूब मरने को गयी, तो शादी रुक गयी। इस बार शायद पिताजी किसी की कुछ न सुनेंगे, वहीं मेरी शादी कर देंगे।”

पूछा, “पूँटू, मैं तुम्हें पसन्द हूँ?”

पूँटू ने लज्जा से मुँह नीचा कर जरा सिर हिला दिया।

“पर मैं भी तो तुमसे चौदह-पन्द्रह साल बड़ा हूँ?”

पूँटू ने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया।

पूछा, “तुम्हारा क्या और कहीं कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था?”

पूँटू ने खुश होकर मुँह ऊपर उठाते हुए कहा, “हुआ तो था। आप अपने गाँव के कालिदास बाबू को जानते हैं? उनके छोटे लड़के ने बी.ए. पास किया है। उम्र भी मुझसे थोड़ी ही ज्यादा है। उसका नाम शशधर है।”

“वह तुम्हें पसन्द है?”

पूँटू हठात् हँस पड़ी।

मैंने कहा, “पर शशधर अगर तुम्हें पसन्द न करे?”

पूँटू ने कहा, “पसन्द क्यों न करेगा? हमारे मकान के सामने होकर बार-बार आता-जाता रहता है। राँगा दीदी हँसी में कहती थीं कि वह सिर्फ मेरे लिए ही चक्कर काटता है।”

“तो यह शादी क्यों नहीं हुई?”

पूँटू का चेहरा मलिन हो गया। कहा, “उसके पिता हजार रुपये नकद और हजार रुपये के गहने माँगते थे। ऊपर से शादी में भी पाँच सौ रुपये खर्च न हो जाते? इतना तो जमींदार के घर की लड़की के लिए ही हो सकता है। सच है न? वे बड़े आदमी हैं, उनके पास बहुत रुपये हैं मेरी माँ उनके यहाँ गयी और बहुत हाथ-पैर जोड़े, पर उन्होंने एक नहीं सुनी।”

“शशधर ने कुछ नहीं कहा?”

“नहीं, कुछ नहीं। पर वह भी तो बहुत बड़ा नहीं है- उसके माँ-बाप जिन्दा हैं न?”

‘यही सही है। शशधर की शादी हो गयी?”

पूँटू ने व्यग्र होकर कहा, “नहीं, अभी नहीं हुई। सुना है कि जल्दी ही होगी।”

“अच्छा, वहाँ तुम्हारी शादी हो जाने पर अगर वे लोग तुमसे प्रेम न करें?”

“मुझसे? प्रेम क्यों नहीं करेंगे? मैं रसोई बनाना, सिलाई करना और गृहस्थी के सारे काम जानती हूँ? मैं अकेली ही उनका सारा काम कर दूँगी।”

इससे ज्यादा बंगाली घराने की लड़की और क्या जानती है? शारीरिक परिश्रम द्वारा ही वह सब कमियों की पूर्ति करना चाहती है। पूछा, “उन लोगों का सब काम अवश्य करोगी न?”

“हाँ, निश्चय करूँगी।”

“तो तुम अपनी माँ से जाकर कह दो कि श्रीकान्त दादा ढाई हजार रुपये भेज देंगे।”

“आप भेज देंगे? तो फिर वायदा कीजिए कि शादी के दिन आयेंगे?”

“अच्छा, आऊँगा।”

दरवाजे की देहली पर बाबा की आवाज़ सुनाई दी।

उन्होंने लाँग से मुँह पोंछते-पोंछते प्रवेश किया और कहा, “तुम्हारा पायखाना तो बहुत अच्छा है भैया! सो जाने की इच्छा होती है। गया कहाँ रतन, और एक चिलम तम्बाकू सजा दे न।”

अध्याय 16

इस संसार का सबसे बड़ा सत्य यह है कि मनुष्य को सदुपदेश देने से कोई फायदा नहीं होता- सत्-परामर्श पर कोई जरा भी ध्या न नहीं देता। लेकिन चूँकि यह सत्य है, इसलिए दैवात् इसका व्यतिक्रम भी होता है। इसकी एक घटना सुनाता हूँ।

बाबा ने दाँत निकालकर आशीर्वाद दिया और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ प्रस्थान किया। पूँटू ने भी बहुत सारी पद-धूलि लेकर आदेश का पालन किया। पर उनके चले जाने के बाद मेरे परिताप की सीमा न रही। मन विद्रोही होकर सिर्फ तिरस्कार करने लगा कि ये कौन होते हैं जिन्हें विदेश में नौकरी कर अनेक कष्टों से संचित किया हुआ धन दे दोगे? सनकीपन में कुछ कह दिया तो क्या उसका यह मतलब है कि दाता कर्ण बनना ही पड़ेगा? न जाने कहाँ की इस लड़की ने बिना माँगे ही ट्रेन में पेड़े और दही खिलाकर मुझे तो अच्छा फन्दे में फाँसा! एक फन्दे को काटते हुए एक दूसरे फन्दे में फँस गया। बचने का उपाय सोचते हो दिमाग गर्म हो गया, और उस निरीह लड़की के प्रति क्रोध और विरक्ति की सीमा न रही। और यह शैतान बाबा! मनाने लगा कि वह अब घर न पहुँच सके, रास्ते में ही सर्दी-गर्मी से मर जाय। पर यह आशा भित्तिहीन है। अच्छी तरह जानता हूँ कि वह आदमी किसी तरह भी नहीं मरेगा और जब उसे मेरे मकान का पता एक बार चल गया है तो फिर आयेगा, तथा चाहे जैसे भी हो, रुपये वसूल करेगा। हो सकता है कि इस बार उन्हीं हाकिम फूफा महाशय को भी साथ लावे। एक ही उपाय है- य: पलायति स जीवति। टिकिट खरीदने गया, पर जहाज में स्थानाभाव- सब टिकिट पहले से ही बिक गये हैं। अत: दूसरी मेल का इनतजार करना होगा और उसमें अभी छह-सात दिन की देर है।

एक उपाय और है, कि मकान बदल दिया जाय, बाबा को खोजने पर भी न मिले। पर इतनी अच्छी जगह इतनी जल्दी कहाँ मिलेगी? किन्तु शिकारी के हाथों प्राण बचाने के सम्बन्ध में हालत ऐसी नाजुक हो गयी है कि अच्छे-बुरे का प्रश्न ही गौण है- यथारण्यं तथा गृहम्।

डर है कि मेरा गुप्त उद्वेग कहीं रतन की नज़रों में न आ जाय। पर मुश्किल तो यह है कि वह यहाँ से टलना ही नहीं चाहता। काशी की अपेक्षा उसे कलकत्ता ज्यादा पसन्द आ गया है। पूछा, “चिट्ठी का जवाब लेकर क्या तुम कल ही जाना चाहते हो, रतन?”

रतन ने फौरन ही जवाब दिया, “जी नहीं। आज दोपहर को मैंने माँ को एक पोस्ट कार्ड डाल दिया है कि लौटने में मुझे चार-पाँच दिन की देर होगी। मृत सोसायटी (=अजायबघर) और जीवित सोसायटी (=चिड़ियाखाना) बिना देखे नहीं जाऊँगा। अब फिर कब आना हो, इसका तो कोई ठिकाना नहीं।”

मैंने कहा, “पर वे तो उद्विग्न हो सकती हैं?”

“जी नहीं। लिख दिया है कि गाड़ी में लगे हुए धक्कों की थकान अभी तक दूर नहीं हुई है।”

“पर चिट्ठी का जवाब…”

“जी, दीजिए न। कल ही रजिस्ट्री से भेज दूँगा। उस मकान में माँ की चिट्ठी खोलने का साहस यम भी नहीं करेगा।”

चुपचाप बैठा रहा। नाई-बेटे के सामने एक भी तरकीब नहीं चली। सब प्रस्तावों को रद्द कर दिया।

जाते वक्त बाबा रुपयों की बात प्रचार कर गये थे। परन्तु कोई इस बात का भ्रम न कर ले कि उन्होंने हृदय की उदारता या अधिक सरलता के कारण ऐसा किया हो। वे तो ऐसा करके गवाह बना गये हैं!

रतन ने ठीक इसी बात का अन्दाज लगाया। कहा, “बाबू, अगर आप नाराज़ न हों तो एक बात कहूँ।”

“क्या बात रतन?”

रतन ने कुछ संकोच के साथ कहा, “ढाई हजार रुपये तो कम रकम नहीं है बाबू, वे कौन होते हैं जिनकी शादी के लिए आपने इतना रुपया खामख्वाह देने को कहा है? इसके अलावा वह बूढ़ा बाबा हो या और कोई, लेकिन अच्छा आदमी नहीं है। उसे देने कहना अच्छा नहीं हुआ बाबू।”

उसका मन्तव्य सुनकर जैसे अनिर्वचनीय आनन्द मिला वैसे ही मन को जोर भी मिला और यही मैं चाहता था। तथापि, अपनी आवाज में किंचित् सन्देह का आभास देकर बोला, “कहना ठीक नहीं हुआ- क्यों रतन?”

रतन बोला, “हाँ बाबू, निश्चय ठीक नहीं हुआ। रुपये भी तो कम नहीं हैं, और फिर किसलिए, कहिए तो?”

“ठीक तो है।” मैंने कहा, “तो नहीं देंगे।”

आश्चर्य से थोड़ी देर तक देखने के बाद रतन ने कहा, “वह छोड़ेगा क्यों?”

मैंने कहा, “नहीं छोड़ेगा तो क्या करेगा? लिखकर तो दिया ही नहीं है और फिर, यही कौन जानता है कि उस वक्त मैं यहाँ रहूँगा या बर्मा चला जाऊँगा?”

रतन क्षणभर चुप रहकर हँसा। बोला, “बाबू आप बूढ़े को पहिचान नहीं सके। उस आदमी को शर्म और मान-अपमान छू तक नहीं गया है। रो-धोकर, भीख माँगकर या डरा-धमकाकर वह रुपये किसी-न-किसी तरह लेगा ही। अगर यहाँ आपसे मुलाकात न होगी तो लड़की को साथ लेकर वह काशी जायेगा और माँ से रुपया वसूल करके छोड़ेगा! माँ को बहुत शर्म आयेगी बाबू, यह तरीका ठीक नहीं है।”

यह सुनकर निस्तब्ध हो बैठा रहा। रतन मुझसे बहुत ज्यादा बुद्धिमान है। अर्थहीन आकस्मिक करुणा की हठ का जुर्माना मुझे देना ही पड़ेगा, कोई निस्तार नहीं।

रतन ने गाँव के बाबा को पहचानने में गलती नहीं की, यह तब समझ में आया जबकि चौथे दिन वे फिर लौटकर आये। आशा थी कि इस बार हाकिम फूफा भी उनके साथ अवश्य आवेंगे- पर हाजिर हुए वे अकेले ही। बोले, “बेटा, दस गाँवों में धन्य-धन्य हो रहा है। सब कहते हैं कि कलियुग में ऐसा कभी नहीं सुना। गरीब ब्राह्मण की कन्या का ऐसा उद्धार कभी किसी ने नहीं देखा। आशीर्वाद देता हूँ कि तुम चिरंजीवी होओ।”

पूछा, “शादी कब है?”

“इसी महीने की पच्चीस तारीख ठीक हुई है, बीच में दस दिन बाकी हैं। कल ‘देखना’ पक्का हो जायेगा, आशीर्वाद-करीब तीन बजे के बाद मुहूर्त नहीं है, इसके भीतर ही सब शुभ कार्य पूरे कर लेने होंगे। पर बिना तुम्हारे गये सब बन्द रहेगा, कुछ भी नहीं हो सकेगा। यह लो अपनी पूँटू की चिट्ठी, उसने अपने हाथ से लिखकर भेजी है। पर यह भी कहे देता हूँ बेटा, कि जिस रत्न को तुमने अपनी इच्छा से खो दिया, उसका जोड़ नहीं है।” यह कहकर उन्होंने एक पीले रंग का मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा मेरे हाथों में दे दिया।

कुतूहलवश चिट्ठी पढ़ने की कोशिश की। बाबा ने अचानक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर कहा, “कालिदास रुपये वाला है तो क्या हुआ, बिल्कुाल नीच है- चमार। उसके लिए ऑंख की शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं। कल ही रुपया-पैसा सब नकद चुकाना होगा- गहने वगैरह अपने सुनार से बनवायेगा। वह किसी का विश्वास नहीं करता, यहाँ तक कि मेरा भी नहीं।”

उस आदमी में बड़ी खराबी है। बाबा तक का विश्वास नहीं करता- आश्चर्य।

पूँटू ने अपने हाथ से पत्र लिखा है। एक-दो पेज नहीं, बल्कि ठसाठस भरे हुए चार पेज। चारों पेजों में कातरता के साथ विनती है। ट्रेन में राँगा दीदी ने कहा था कि आजकल के नाटक-नॉविल भी हार मान लें। केवल आजकल के ही क्यों, सर्वकाल के नाटक-नॉविल हार मान लेंगे- यह अस्वीकार नहीं करूँगा। इस बात का विश्वास हो गया कि इस लिखने के प्रभाव से ही नन्दरानी का पति चौदह दिन की छुट्टी लेकर सातवें दिन ही आकर हाजिर हो गया था।

अतएव, दूसरे दिन सुबह मैं भी चल दिया और बाबा ने इसकी जाँच खुद अपनी ऑंखों से कर ली कि मैंने रुपये सचमुच ही अपने साथ ले लिये हैं, कोई प्रतारणा तो नहीं कर रहा हूँ। बोले-

“रास्ता चलना देखकर, रुपया लेना ठोक कर। अरे भाई, हम देवता तो हैं नहीं, आदमी हैं- भूल होते क्या देर लगती है?”

ठीक तो है! रतन कल रात को ही काशी चला गया है। उसके हाथों चिट्ठी का जवाब भेज दिया है। लिख दिया है- तथास्तु। पता इस वजह से न दे सका कि कोई ठीक नहीं है। इस त्रुटि के लिए अपने गुण से क्षमा कर नेकी भी प्रार्थना कर दी है।

यथासमय गाँव पहुँचा, मकान के सब आदमियों की दुश्चिन्ता दूर हुई। जो आदर और सम्मान मिला, उसे बताने के लिए कोश में शब्द नहीं हैं।

सम्बन्ध पक्का करने और आशीर्वाद देने के उपलक्ष्य में कालिदास बाबू से परिचय हुआ। वह जैसे सूखे मिजाज के हैं वैसे ही दम्भी भी। सबको यह स्मरण कराने के अलावा कि वे बहुत रुपये वाले हैं, ऐसा नहीं मालूम पड़ा कि संसार में और कोई दूसरा कर्त्तव्य उनका है। सारा धन खुद उन्हीं का कमाया हुआ है। बड़े घमण्ड से कहा, “जनाब, किस्मत को मैं नहीं मानता, जो कुछ करूँगा वह सब अपने बाहुबल से। देवी-देवताओं के अनुग्रह की भिक्षा भी मैं नहीं माँगता। मैं कहता हूँ कि देवता की दुहाई कापुरुष देते हैं।”

बड़े आदमी और छोटे-मोटे ताल्लुकेदार होने के कारण उनके यहाँ गाँव के प्राय: सब आदमी उपस्थित थे, और शायद अधिकांश के वे महाजन थे और बहुत कड़े महाजन- अतएव सबने ही एक स्वर से उनकी बातें मान लीं। तर्करत्न महाशय ने एक संस्कृत का श्लोक सुनाया, और आसपास से उसके सम्बन्ध में दो-एक पुरानी कहानियों का भी सूत्रपात हुआ।

उन्होंने एक अपरिचित और साधारण व्यक्ति समझकर मेरी ओर असम्मान पूर्ण दृष्टि से देखा। उस वक्त रुपयों के दु:ख से मेरा हृदय जल रहा था। वह दृष्टि मुझे सहन नहीं हुई। मैं एकाएक बोल उठा, “यह तो नहीं जानता किस परिमाण में आप में बाहुबल है, पर यह मैं स्वीकार करता हूँ कि रुपये कमाने का जहाँ तक सवाल है, आपका बाहुबल प्रबल है।”

“इसके मानी?”

मैंने कहा, “मानी खुद मैं। न तो वर को पहचानता हूँ और न कन्या को, फिर भी रुपये मेरे खर्च हो रहे हैं और आपके सन्दूक में पहुँच रहे हैं। इसे तकदीर नहीं कहते तो और क्या कहते हैं? आपने अभी कहा कि आप देवी-देवताओं का अनुग्रह नहीं लेते, लेकिन आपके लड़के के हाथ की अंगूठी से लेकर बहु के गले का हार तक मेरे अनुग्रह के दान से बनेगा। हो सकता है कि बहू-भात की दावत तक का इन्तजाम मुझे ही करना पड़े।”

कमरे में वज्रपात होने पर भी शायद सब लोग इतने व्याकुल और विचलित न होते। बाबा ने न जाने क्या कहने की कोशिश की, पर कुछ भी सुस्पष्ट था, सुव्यक्त न हो सका। क्रोध में कालिदास बाबू ने भीषण मूर्त्ति धारण कर कहा, “आप रुपये दे रहे हैं, यह मुझे कैसे मालूम हो? और दे ही क्यों रहे हैं?”

कहा, “क्यों दे रहा हूँ यह आप नहीं समझ सकते, आपको समझाना भी नहीं चाहता। पर सारा गाँव सुन चुका है कि मैं रुपये दे रहा हूँ, सिर्फ आपने ही नहीं सुना? लड़की की माँ ने आपके सारे घरवालों के हाथ-पैर जोड़े, पर आप अपने बी.ए. पास लड़के का मूल्य ढाई हजार से एक पैसा भी कम करने को राजी नहीं हुए। लड़की का बाप चालीस रुपये महीने की नौकरी करता है, चालीस पैसे देने की भी उसमें शक्ति नहीं- तब आपने यह नहीं सोचा कि आपके लड़के को खरीदने के लिए अचानक उसके पास इतना रुपया कहाँ से आ गया? कुछ भी हो, लड़के बेचने के रुपये बहुत लोग लेते हैं, आप भी लें तो इसमें बुराई नहीं। पर इसके बाद गाँव वालों को अपने मकान में बुलाकर रूपयों का घमण्ड और न कीजिएगा। और यह भी याद रखिएगा कि आपने एक बाहर के आदमी के भिक्षा-दान से लड़के की शादी की है।”

उद्वेग और डर से सबका मुँह काला हो गया। शायद सबने यह सोचा कि अब कुछ भयंकर घटना होगी और कालिदास बाबू फाटक बन्द करवाकर लाठियों से पीटे बिना किसी को भी घर से वापस न जाने देंगे। पर, थोड़ी देर तक चुप बैठे रहने के बाद उन्होंने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “मैं रुपये नहीं लूँगा।”

मैंने कहा, “इसके मानी यह कि आप लड़के की शादी यहाँ नहीं करेंगे।”

कालिदास बाबू ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, यह नहीं। मैंने वचन दिया है कि शादी करूँगा- इसमें जरा भी फर्क न होगा। कालिदास मुखर्जी कही हुई बात के खिलाफ काम नहीं करता। आपका नाम क्या है?”

बाबा ने व्यग्र कण्ठ से मेरा परिचय दिया। कालिदास बाबू ने पहिचानकर कहा, “ओ:-ठीक है। इनके बाप के साथ एक बार मेरा बहुत जबरदस्त फौजदारी मामला चला था।”

बाबा ने कहा, “जी हाँ आप कुछ भी नहीं भूलते। ये उन्हीं के लड़के हैं और रिश्ते में मेरे नाती होते हैं।”

कालिदास बाबू ने प्रसन्न कण्ठ से कहा, “ठीक है। मेरा बड़ा लड़का अगर जिन्दा रहता तो इतना ही बड़ा होता। शशधर की शादी में आना, बेटा। हमारी ओर से उस दिन तुम्हारा निमन्त्रण रहा।”

शशधर उपस्थित था। उसने एक बार कृतज्ञ नेत्रों से मेरी ओर देखा और फौरन ही मुँह नीचा कर लिया।

मैंने उठकर प्रणाम किया। कहा, “चाहे जहाँ भी रहूँ, लेकिन कम-से-कम बहू-भात के दिन आकर नववधू के हाथ का अन्न खा जाऊँगा। पर मैंने बहुत-सी अप्रिय बातें कही हैं, आप मुझे क्षमा करेंगे।”

कालिदास बाबू बोले, “यह सच है कि अप्रिय बातें कही हैं, पर मैंने क्षमा भी कर दिया है। अभी जाने का काम नहीं श्रीकान्त, शुभ कार्य के उपलक्ष में मैंने थोड़ा-सा खाने का भी आयोजन किया है। तुम्हें खाकर जाना होगा।”

“जैसा कहेंगे वही होगा,” कहकर फिर बैठ गया।

उस दिन पात्र को आशीर्वाद देने से लेकर उपस्थित अभ्यागतों के खाने-पीने तक के सारे काम निर्विघ्न सुसम्पन्न हो गये। इस अध्याञय के प्रारम्भ में सदुपदेशक के बारे में जिस नियम का उल्लेख किया था, उसके व्यतिक्रम का एक उदाहरण पूँटू का विवाह है। संसार में सिर्फ यही एक उदाहरण अपनी ऑंखों से देखा है। कारण, नि:सम्पर्कीय, अपरिचित, अभागी लड़की के बाप का कान ऐंठते ही जहाँ रुपये वसूल होते हों, वहाँ वैष्णव बनकर हाथ जोड़ने पर बाघ के ग्रास से निस्तार नहीं मिलता। निष्ठुर, निर्दय इत्यादि गाली-गलौज करके समाज और तकदीर को धिक्कारने पर किंचित् क्षोभ मिट सकता है, पर प्रतिकार नहीं होता, क्योंकि दूल्हे के बाप के हाथ में प्रतीकार नहीं है, वह तो लड़की के बाप के हाथों में ही है।

गौहर की खोज में आने पर नवीन से मुलाकात हुई। वह मुझे देखकर खुश हुआ। लेकिन उसका मिजाज बहुत रूखा था। बोला, “जाकर वैष्णवियों के आश्रम में देखिए, कल से तो घर ही नहीं आये हैं।”

“यह क्या माजरा है नवीन! यह वैष्णवी कहाँ से आ गयी?”

“एक वैष्णवी नहीं, पूरा का पूरा एक दल आ जुटा है!”

“वे कहाँ रहती हैं?”

“यहीं मुरारीपुर के अखाड़े में।” कहकर नवीन ने एक नि:श्वास छोड़ा, फिर कहा, “हाय बाबू, अब न तो वे राम हैं और न वह अयोधया। बूढ़े मथुरादास बाबाजी के मरते ही उनकी जगह एक छोकरा वैरागी आ गया है, उसके कोई चार गण्डा सेवा-दासी हैं। द्वारिकादास वैरागी से हमारे बाबू की बड़ी मित्रता है- वहीं तो प्राय: रहते हैं।”

चकित होकर पूछा, “पर तुम्हारे बाबू तो मुसलमान हैं। वैष्णव-वैरागी अपने आश्रम में उन्हें रहने कैसे देंगे?”

नवीन ने नाराज होकर कहा, “इन सब बाउल सन्यासियों को क्या धर्माधर्म का ज्ञान है? ये जाति-जन्म कुछ भी नहीं मानते। जो भी कोई उन्हें मिलता है, वे उसे ही अपने दल में खींच लेते हैं, सोच-विचार कुछ नहीं करते।”

पूछा, “पर उस बार जब मैं तुम्हारे यहाँ छह-सात दिन था, तब तो गौहर ने उनके बारे में कुछ नहीं कहा?”

नवीन बोला, “कहते तो कमललता के गुण-अवगुण जाहिर नहीं हो जाते? सिर्फ उन कई दिनों ही बाबू अखाड़े के पास नहीं गये। पर जैसे ही आप गये वैसे ही कॉपी और कलम लिए बाबू अखाड़े अखाड़ेगें में जा धामके।”

प्रश्न करने पर मालूम हुआ कि द्वारिका बाउल गाना गाने और दोहे बनाने में सिद्धहस्त है। गौहर इस प्रलोभन में फँस गया। उसको कविता सुनाता है, उससे अपनी गलतियों का संशोधन करा लेता है और कमललता एक युवती वैष्णवी है- उसी आश्रम में रहती है। वह देखने में अच्छी है, गाना अच्छा गाती है। उसकी बातें सुनकर लोग मुग्ध हो जाते हैं। कभी-कभी वैष्णवों की सेवा के लिए गौहर रूपये-पैसे भी देता है। अखाड़े की पुरानी दीवार जीर्ण होकर गिर गयी थी, गौहर ने अपने खर्चे से उसकी मरम्मत करा दी है। यह काम उसने उस सम्प्रदाय के लोगों के अगोचर चुपचाप ही किया है।

मुझे याद आया कि बचपन में इस अखाड़े के बारे में बातें सुनी थीं। पुराने जमाने में महाप्रभु के एक भक्त शिष्य ने इस अखाड़े की प्रतिष्ठा की थी। तब से शिष्य-परम्परा के अनुसार वैष्णव इसमें वास करते आ रहे हैं। अत्यन्त कुतूहल पैदा हुआ। कहा, “नवीन, मुझे एक बार अखाड़ा दिखा सकोगे?”

नवीन ने सिर हिलाकर इनकार किया। बोला, “मुझे बहुत काम है और आप तो इसी देश के आदमी हैं, खुद ही न खोज सकेंगे? आधा कोस से ज्यादा दूर नहीं, इस सामने के रास्ते से उत्तर की ओर सीधे जाने पर ही आपको दिखाई दे जायेगा, किसी से पूछना नहीं पड़ेगा। सामने वाले तालाब के नीचे वृन्दावन-लीला हो रही होगी। दूर से ही कानों में आवाज पहुँच जायेगी-ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा।”

मेरे जाने का प्रस्ताव नवीन ने शुरू से ही पसन्द नहीं किया। मैंने पूछा, “वहाँ क्या होता है- कीर्तन?”

नवीन ने कहा, “हाँ, दिन-रात ख्रजड़ी और करताल को चैन नहीं मिलती।”

मैंने हँसकर कहा, “यह तो अच्छा ही है नवीन। जाऊँ, गौहर को पकड़ लाऊँ।”

इस बार नवीन भी हँसा, बोला, “हाँ, जाइए। पर देखिएगा कि वहाँ कमललता का कीर्तन सुनकर कहीं आप खुद ही न अटक जाँय।”

“देखूँ, क्या होता है।” कहकर हँसता हुआ तीसरे पहर कमललता वैष्णवी के अखाड़े में जाने के लिए चल दिया।

अखाड़े का पता जब चला तब शायद शाम हो चुकी थी। दूर से कीर्तन या खंजड़ी-करताल की ध्वंनि तो सुनाई नहीं दी, पर सुप्राचीन बकुल का वृक्ष फौरन ही नजर आ गया, जिसके नीचे टूटी हुई वेदी है। पर एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं दिया। एक क्षीण पथ की रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होकर परकोटे के किनारे-किनारे नदी की ओर चली गयी है। अनुमान किया कि उधर शायद किसी से कुछ खबर मिले, अतएव उधर ही पैर बढ़ाये। गलती नहीं की। शीर्ण-संकीर्ण शैवाल से ढकी हुई नदी के किनारे एक परिष्कृत और गोबर से पुती हुई कुछ उच्च भूमि पर गौहर और दूसरे एक व्यक्ति बैठे हैं। अन्दाज लगाया कि ये ही वैरागी द्वारिकादास हैं- अखाड़े के वर्तमान अधिकारी। नदी का किनारा होने की वजह से वहाँ उस वक्त तक संध्या् का अन्धकार घना नहीं हुआ था, बाबाजी को बहुत अच्छी तरह से देख सका। देखने में वह आदमी भद्र और ऊँची जाति का ही जान पड़ा। वर्ण श्याम, दुबला-पतला होने के कारण कुछ लम्बा मालूम होता है, माथे के बाल जटा की तरह सामने की ओर बँधे हुए हैं, मूँछ-दाढ़ी ज्यादा नहीं है-थोड़ी है। ऑंखों में और मुँह पर एक स्वाभाविक हँसी का भाव है। उम्र का ठीक अन्दाज नहीं लगा सका, तो भी पैंतीस-छत्तीस से ज्यादा नहीं जान पड़ी। दोनों में किसी ने भी मेरे आगमन और उपस्थिति पर लक्ष्य नहीं किया, दोनों ही नदी के उस पार पश्चिम दिगन्त में ऑंखें गड़ाये स्तब्ध बने रहे। वहाँ नाना रंग और नाना प्रकार के मेघों के टुकड़ों के बीच तृतीया का क्षीण पांडुरंग चन्द्रमा चमक रहा है। मानो उसके कपाल के बीच में अत्युज्वल सांध्यं-तारा उदित हो रहा है। बहुत नीचे दिखाई देते हैं दूर ग्रामों के नीले पेड़-पौधों-का मानों इनका कहीं अन्त नहीं, सीमा नहीं। काले, सफेद, पीले-नाना रंगों के टूटे-फटे बादलों पर उस वक्त भी अस्तंगत सूर्य की शेष दीप्ति खेल रही थी- ठीक वैसे ही जैसे कि किसी दुष्ट लड़के के हाथ में रंग की तूलिका पड़ जाने से तसवीर का पूरा श्राद्ध हो रहा हो। यह आनन्द क्षणभर ही रहा- क्योंकि इतने में ही चित्रकार ने आकर कान मल दिये और हाथ से तूलिका छीन ली।

उस स्वल्पतोया नदी का थोड़ा-सा हिस्सा शायद गाँव वालों ने साफ कर लिया है। सामने के उस स्वच्छ काले और थोड़े पानी पर छोटी-छोटी रेखाओं में चन्द्रमा और सांध्यी तारे का प्रकाश पास-पास ही पकड़कर झिलमिला रहा है- मानो सुनार कसौटी पर सोना घिसकर दाम जाँच रहा हो। पास ही कहीं वन में सैकड़ों वन-मल्लिकाएँ खिली हैं और मानो उनकी गन्ध से सारी वायु भारी हो उठी है। निकट के ही किसी पेड़ के असंख्य चिड़ियों के घोंसलों से उनके बच्चों की एक-सी चीं-चीं विचित्र मधुरता से कानों में अविराम आ रही है। यह सब ठीक है, और तद्गत-चित्त जो दो आदमी जड़-भरत की तरह बैठे हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं, वे भी कवि हैं। पर शाम के वक्त इस जंगल में मैं यह सब देखने नहीं आया हूँ। नवीन ने कहा था कि वैष्णवियों का एक दल का दल यहाँ है और उनमें कमललता वैष्णवी सबसे श्रेष्ठ हैं। वे कहाँ हैं? पुकारा, “गौहर।” ध्यातन भंगकर गौहर हतबुद्धि की तरह मेरी ओर ताकता रह गया।

बाबाजी ने उसे जरा हिलाकर कहा, “गुसाईं, ये ही तुम्हारे श्रीकान्त हैं न?”

गौहर ने तेजी से उठकर मुझे बड़े जोर से बाहुपाश में आबद्ध कर लिया, इस तरह कि जैसे उसका वह आवेग रुकना ही नहीं चाहता हो। किसी तरह मैं अपने को मुक्त कर बैठ गया। बोला, “गुसाईं जी ने मुझे एकाएक कैसे पहिचान लिया?”

बाबा जी ने हाथ हिलाया, “यह नहीं होगा गुसाईं, इसमें से आदर-वाचक ‘जी’ बाद देना होगा। तब ही तो रस आयेगा।”

मैंने कहा, “अच्छा, बाद दे दिया। लेकिन एकाएक मुझे कैसे पहिचाना?”

बाबाजी ने कहा, “एकाएक कैसे पहचानूँगा? तुम तो वृन्दावन के हमारे पहचाने हुए हो गुसाईं, और तुम्हारी दोनों ऑंखें तो रस की समुद्र हैं जो देखते ही ऑंखों में भर जाती हैं। जिस दिन कमललता आई थी, उसकी दोनों ऑंखें भी ऐसी ही थीं, उसे देखते ही पहिचान गया और बोल उठा, ‘कमललता, कमललता, इतने दिनों कहाँ थी?” कमल आकर जो अपनी हो गयी तो उसका आदि-अन्त, विरह-विच्छेद नहीं रहा। यही तो साधना है गुसाईं, इसी को तो कहता हूँ रस की दीक्षा।”

मैंने कहा, “कमललता देखने ही तो आया हूँ गुसाईं, वह कहाँ है?”

बाबाजी बहुत खुश हुए। बोले, “उसे देखोगे? पर गुसाईं, तुम उससे अपरिचित नहीं हो, वृन्दावन में उसे अनेक बार देखा है। शायद भूल गये हो, पर देखते ही पहिचान जाओगे कि वह कमललता है। गुसाईं, उसे एक बार पुकारो न!” कहकर बाबाजी ने गौहर को पुकारने का इशारा किया। इनके निकट सब ‘गुसाईं’ हैं। बोले, “कहो कि श्रीकान्त तुम्हें देखने आया है।”

गौहर के चले जाने के बाद पूछा, “गुसाईं, मेरे बारे में सारी बातें शायद गौहर ने तुम्हें बताई हैं?”

बाबाजी ने सिर हिलाकर कहा, “हाँ, सब बताया है। जब उससे पूछा कि ‘गुसाईं, तुम छह-सात दिन क्यों नहीं आये? तो उसने कहा कि श्रीकान्त आये थे।” यह भी उसने कहा कि ‘तुम फिर जल्दी ही आओगे।” यह भी मालूम हुआ कि तुम बर्मा जाने वाले हो।”

सुनकर सन्तोष की साँस छोड़कर मन ही मन मैंने कहा, रक्षा हुई। डर था कि वास्तव में किसी अलौकिक आध्या त्मिक शक्ति-बल के कारण तो ये मुझे देखते ही नहीं पहिचान गये हैं। कुछ भी हो, यह मानना ही पड़ेगा कि मेरे बारे में इस क्षेत्र में उनका अन्दाज गलत नहीं है।

बाबाजी अच्छे ही जान पड़े। कम-से-कम असाधु प्रकृति के नहीं मालूम हुए। बहुत सरल। यह बाबाजी ने सरलता से स्वीकार कर लिया कि न जाने क्यों गौहर ने मेरी सब बातें- अर्थात् जितना वह जानता है, इन लोगों से कह दी हैं। कविता और वैष्णव-रस-चर्चा में वे कुछ-कुछ सनकी-से-कुछ विभ्रान्त से मालूम हुए।

थोड़ी देर बाद ही गौहर- गुसाईं के साथ कमललता आकर हाजिर हुई। उम्र तीस से ज्यादा नहीं होगी-श्यामवर्ण, इकहरा बदन, हाथ में कुछ चूड़ियाँ हैं पीतल की- सोने की भी हो सकती हैं। बाल छोटे-छोटे नहीं हैं, गिरह देकर पीठ पर झूल रही हैं। गले में तुलसी की माला और हाथ की थैली के भीतर भी तुलसी की जपमाला हैं। छापे-आपे का बहुत ज्यादा आडम्बर नहीं है, अथवा सुबह के वक्त तो था, पर इस वक्त कुछ मिट गया है। उसके मुँह की ओर देखकर मैं अत्यन्त आश्चर्यान्वित हो गया। सविस्मय यह खयाल होने लगा कि इन ऑंखों का और चेहरे का भाव तो जैसे परिचित है, और चलने का ढंग भी जैसे पहले कहीं देखा है।

वैष्णवी ने बात शुरू की। फौरन ही समझ गया कि वह नीचे के स्तर की प्राणी नहीं है। उसने किसी तरह की भूमिका नहीं बाँधी। मेरी ओर सीधे देखकर कहा, ?”कहो गुसाईं, पहिचान सकते हो?”

मैंने कहा, “नहीं। लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे कहीं देखा है।”

वैष्णवी ने कहा, “वृन्दावन में देखा था। बड़े गुसाईं जी से नहीं सुना?”

मैंने कहा, “सो सुना है। पर मैं तो जन्म-भर कभी वृन्दावन नहीं गया।”

वैष्णवी ने कहा, “गये कैसे नहीं? बहुत पुरानी बात है, इसलिए अचानक याद नहीं आ रही है। वहाँ गायें चराते, फल तोड़कर लाते, वन-फूलों की माला गूँथकर हमारे गले में पहनाते-सब भूल गये?” यह कहकर वह होठों को दबाकर धीरे-धीरे हँसने लगी।

मैंने यह तो समझा कि मजाक कर रही है। पर यह ठीक नहीं कर सका कि मेरा या बड़े गुसाईं जी का, बोली, “रात हो रही है, अब जंगल में क्यों बैठे हो? भीतर चलो।”

मैंने कहा, “जंगल के रास्ते हमें बहुत दूर जाना होगा। कल फिर आयेंगी।”

वैष्णवी ने पूछा, “यहाँ का पता किसने बताया? नवीन ने?”

“हाँ, उसी ने।”

कमललता की बात नहीं बताई?”

“हाँ, बताई थी।”

इस बारे में तुम्हें सावधान नहीं किया कि वैष्णवी का जाल तोड़कर अचानक बाहर नहीं जाया जा सकता?”

हँसते हुए बोला, “हाँ, यह भी कहा है।”

वैष्णवी हँस पड़ी। बोली, “नवीन होशियार माँझी है। उसकी बातें न मानकर अच्छा नहीं किया।”

“क्यों भला?”

वैष्णवी ने इसका जवाब नहीं दिया। गौहर को दिखाते हुए कहा, “गुसाईं ने कहा था कि नौकरी करने के लिए विदेश जा रहे हो। पर तुम्हारे तो कोई नहीं है, फिर नौकरी क्यों करोगे?”

“तब क्या करूँ?”

“हम जो करती हैं। गोविन्दजी का प्रसाद तो कोई छीन नहीं सकता!”

“यह जानता हूँ। पर वैरागगीरी मेरे लिए नयी नहीं है।”

वैष्णवी ने हँसकर कहा, “समझती हूँ। शायद प्रकृति सहन नहीं करती?”

“नहीं, ज्यादा दिन सहन नहीं करती।”

वैष्णवी होठ दबाकर हँसी। बोली, “तुम्हारा काम अच्छा है। भीतर आओ, उन लोगों से तुम्हारा परिचय करा दूँ। यहाँ कमलों का वन है।”

“सुना है, पर अंधेरे में लौटेंगे कैसे?”

वैष्णवी फिर हँसी, बोली, “अंधेरे में हम लौटने ही क्यों देंगी? अन्धकार दूर तो होगा ही। तब जाना। आओ।”

‘चलो।”

वैष्णवी ने कहा, “गौर! गौर!”

“गौर-गौर” कहते हुए मैंने भी अनुसरण किया।

हालाँकि धर्माचरण में मेरी रुचि और विश्वास नहीं है, किन्तु जिनका विश्वास है उनको बाधा नहीं पहुँचाता। मन में बिना संशय के जानता हूँ कि मैं इस गुरुतर विषय का ओर-छोर कभी न खोज पाऊँगा। तथापि, धार्मिकों की मैं भक्ति करता हूँ। विख्यात स्वामीजी और सुख्यात साधूजी- किसी की भी छोआ नहीं कहता, दोनों की ही वाणी मेरे कानों में समान मधु की वर्षा करती है।

विशेषज्ञों के मँह से सुना है कि बंगाल की आध्यातत्मिक साधना का निगूढ़ रहस्य वैष्णव सम्प्रदाय में ही सुगुप्त है, और यही बंगाल की खालिस अपनी चीज है। इसके पहले सन्यासी और साधुओं की थोड़ी-बहुत संगत की है। फल-लाभ का विवरण जाहिर करने की इच्छा नहीं है। पर इस दफा अगर दैवात् खालिस चीज नसीब होती हो तो संकल्प किया कि इस मौके को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। पूँटू के बहू-भात के निमन्त्रण में मुझे जाना ही होगा। कम-से-कम कलकत्ते के नि:संग मैस के बदले ये कई दिन अगर इस वैष्णवी-अखाड़े के आसपास कहीं काटने पड़ें तो और चाहे जो हो, जीवन के संचय में विशेष नुकसान न होगा।

अन्दर आकर देखा कि कमललता का कहना झूठ नहीं था। वहाँ वाकई कमलों का ही वन है, पर दलित-विदलित। मत्त हाथियों से साक्षात तो नहीं हुआ, पर उनके बहुत से पदचिह्न विद्यमान थे। नाना उम्र और तरह-तरह के चेहरों की वैष्णवियाँ नाना कामों में लगी हुई हैं- कोई लड्डू बना रही है, कोई मैदा गूँधा रही है, कोई फल-मूल तराश रही हैं- यह सब ठाकुरजी के रात के भोग की तैयारियाँ हैं। एक अपेक्षाकृत छोटी उम्र की वैष्णवी ध्यारनमग्न हो फूलों की माला गूँथ रही है और एक उसी के निकट बैठी हुई नाना रंग के छपे हुए छोटे-छोटे कपड़ों के टुकड़े सावधानी से कुंचित करके ढंग से रख रही है। सम्भवत: श्रीगोविन्दजी कल स्नान के बाद उन्हें पहनेंगे। कोई भी खाली नहीं है। उनका काम में आग्रह और एकाग्रता देखकर आश्चर्य होता है। सबने मेरी ओर ताका, पर निमेष-मात्र के लिए। कुतूहल का अवसर नहीं है। सबके होठ हिल रहे हैं, शायद मन ही मन जप हो रहा है। इधर समय खत्म हो गया है। एक-एक करके दिये जलने शुरू हो गये हैं। कमललता ने कहा, “चलो भगवान को नमस्कार कर आयें। किन्तु, अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हें क्या कहकर पुकारूँ? ‘नये गुसाईं’ कहकर पुकारूँ तो कैसा?”

¹ ‘गौर’ का मतलब यहाँ गौरांग-महाप्रभु या चैतन्यदेव से है।

मैंने कहा, “क्यों नहीं पुकारतीं? तुम्हारे यहाँ जब गौहर तक ‘गौहर गुसाईं’ हो गया है, तब मैं तो कम-से-कम ब्राह्मण का लड़का हूँ। पर मेरे अपने नाम ने क्या बुराई की है? उसी के साथ ‘गुसाईं’ जोड़ दो न।”

कमललता ने होठ दबाकर हँसते हुए कहा, “यह नहीं होगा ठाकुर, नहीं होगा। वह नाम मैं नहीं ले सकती- अपराध होता है। आओ।”

“आता हूँ, पर अपराध किसका?”

“किसका-यह सुनकर तुम क्या करोगे; तुम तो खूब हो!”

जो वैष्णवी माला गूँथ रही थी वह हँस पड़ी और उसने मुँह नीचा कर लिया। ठाकुरजी के कमरे में काले पत्थर और पीतल की राधा-कृष्ण की युगल मूर्तियाँ हैं। एक नहीं, बहुत-सी। यहाँ भी पाँच-छह वैष्णवियाँ काम में लगी हुई हैं। आरती का वक्त हो रहा है, साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है।

भक्तिपूर्वक यथारीति प्रणाम कर बाहर आ गया। ठाकुरजी के कमरे के अलावा और सब कमरे मिट्टी के हैं, पर सँभाल-सफाई की सीमा नहीं है। बिना आसन के कहीं भी बैठते संकोच नहीं होता, तथापि कमललता ने सामने के बरामदे में एक ओर आसन बिछा दिया। कहा, “बैठो, तुम्हारे रहने का कमरा जरा ठीक कर आऊँ।”

“मुझे क्या आज यहीं रहना पड़ेगा?”

“क्यों, डर क्या है? मेरे रहते तुम्हें तकलीफ नहीं होगी।”

मैंने कहा, “तकलीफ के लिए नहीं कहता, पर गौहर जो नाराज होगा।”

वैष्णवी ने कहा, “यह भार मेरे ऊपर है। मेरे रखने पर तुम्हारा मित्र जरा भी नाराज न होगा।” कहकर वह हँसती हुई चली गयी।

मैं अकेला बैठा हुआ अन्यान्य वैष्णवियों का काम देखने लगा। सचमुच ही उनके पास नष्ट करने को जरा भी वक्त नहीं है। मेरी ओर किसी ने घूमकर भी नहीं देखा। करीब दस मिनट बाद जब कमललता लौटकर आयी तब काम खत्म कर सब उठ गयी थीं। पूछा, “तुम इस मठ की अधिकारिणी हो क्या?”

कमललता ने जीभ काटकर कहा, “हम सब गोविन्दजी की दासी हैं- कोई छोटा-बड़ा नहीं है। एक-एक पर एक एक का भार है। मेरे ऊपर प्रभू ने यह भार दिया है।” कहकर उसने मन्दिर के उद्देश्य से हाथ जोड़कर सिर से लगा लिये। कहा, “अब कभी ऐसी बात जबान पर मत लाना।”

मैंने कहा, “ऐसा ही होगा। अच्छा, बड़े गुसाईं और गौहर गुसाईं क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं?”

वैष्णवी ने कहा, “वे अभी आते ही होंगे। नदी में स्नान करने गये हैं।”

“इतनी रात को? और इस नदी में?”

वैष्णवी ने कहा, “हाँ।”

“गौहर भी?”

“हाँ, गौहर गुसाईं भी।”

“पर मुझे ही क्यों नहीं स्नान कराया?”

“वैष्णवी ने हँसकर कहा, “हम किसी को स्नान नहीं करातीं। वे अपने आप करते हैं। भगवान की दया होने पर एक दिन तुम भी करोगे और उस दिन मना करने पर भी नहीं मानोगे।”

मैंने कहा, “गौहर भाग्यवान है। पर मेरे पास तो रुपया नहीं है। मैं गरीब आदमी हूँ, इस कारण शायद मेरे प्रति परमात्मा की दया न हो।”

वैष्णवी शायद इशारा समझ गयी, और नाराज होकर कुछ कहने वाली ही थी पर कहा नहीं। फिर बोली, “गौहर गुसाईं कुछ भी हों पर तुम भी गरीब नहीं हो। जो आदमी ढेर रुपया देकर दूसरे की लड़की का उद्धार करता है, भगवान उसे गरीब नहीं मानते। तुम्हारे ऊपर भी दया होना आश्चर्य नहीं है।”

मैंने कहा, “तब तो वह डर की बात है। तो भी, किस्मत में जो लिखा है वह होगा ही, टाला नहीं जा सकता- पर पूछता हूँ कि कन्या के उद्धार की खबर तुम्हें कहाँ से मिली?”

वैष्णवी ने कह, “हमें चार जगह से भीख माँगनी पड़ती है, इसलिए हमें सब खबरें मिल जाती हैं।”

“पर यह खबर शायद अभी तक नहीं मिली है कि मुझे रुपये देकर लड़की का उद्धार नहीं करना पड़ा?”

वैष्णवी कुछ विस्मित हुई। बोली, “नहीं, यह खबर नहीं मिली। पर हुआ क्या, शादी टूट गयी?”

“शादी नहीं टूटी, लेकिन कालिदास बाबू टूट गये हैं- खुद दूल्हा के बाप ही। लड़के को बेचकर दूसरे की भिक्षा के दान से मिले हुए दहेज को हाथ पसारकर लेने में उन्हें शर्म आई। इससे मैं भी बच गया।” कहकर मैंने सारा मामला संक्षेप में बता दिया। वैष्णवी ने सविस्मय कहा, “कहते क्या हो जी, यह तो बिल्कुंल अनहोनी बात हुई!”

“ईश्वर की दया। सिर्फ गौहर गुसाईं ही क्या अंधेरे में गन्दी नदी के पानी में गोते लगायेगा, संसार में और कहीं भी कुछ अनहोनी बात नहीं होगी? उनकी लीला ही फिर किस तरह जाहिर होगी, बोलो?” कहकर जैसे ही मैंने वैष्णवी का मुँह देखा वैसे ही समझ गया कि यह ठीक नहीं हुआ- सीमा लाँघ गया हूँ। वैष्णवी ने किन्तु प्रतिवाद नहीं किया, मन्दिर की ओर हाथ उठाकर उसने सिर्फ नि:शब्द नमस्कार कर लिया। मानो अनपराधा को क्षमा करने की भिक्षा माँगी।

एक वैष्णवी एक बड़े थाल में मैदा की पूरियाँ लिये हुए सामने से ठाकुरजी के कमरे की ओर निकल गयी। उसे देखकर कहा, “आज तुम्हारे यहाँ समारोह है। शायद कोई खास त्यौहार है-नहीं?”

वैष्णवी ने कहा, “नहीं, आज कोई त्यौहार नहीं है। यह हमारे यहाँ का रोज का हिस्सा है। ठाकुरजी की दया से कभी कमी नहीं होती।”

“खुशी की बात है। पर आयोजन शायद रात को ही ज्यादा होता है?”

वैष्णवी बोली, “सो भी नहीं। सेवा में सुबह-शाम का कोई सवाल ही नहीं है। यदि दया करके दो दिन रह जाओ तो खुद ही सब देख लोगे। हम सब दासी की दासी हैं, उनकी सेवा करने के अलावा संसार में हमारा और कोई काम तो है ही नहीं।” कहकर उसने मन्दिर की ओर हाथ जोड़कर फिर एक बार नमस्कार किया।

पूछा, “दिनभर तुम लोगों को क्या-क्या करना होता है?”

वैष्णवी ने कहा, “आकर जो देखा, वही।”

“आकर देखा मसाला कूटना, रसोई के लिए तरकारी बनाना, दूध दुहना माला गूँथना, कपड़े रंगना-ऐसे ही और बहुत से काम। तुम सब दिनभर क्या सिर्फ यही किया करती हो?”

वैष्णवी ने कहा, “हाँ, दिनभर सिर्फ यही करती हैं।”

“पर यह सब तो केवल घर-गृहस्थी के काम हैं, सभी औरतें करती हैं। तुम भजन-साधन कब करती हो?’

वैष्णवी बोली, “यही हमारी भजन-साधना है।”

“यह रसोई बनाना, पानी भरना, कूटना-फटकना, माला गूँथना, कपड़े रंगना- इसी को ‘साधना’ कहते हैं?”

वैष्णवी ने कहा, “हाँ, इसी को साधना कहते हैं। दास-दासियों की इससे बढ़कर साधना हमें और कहाँ मिलेगी गुसाईं?” कहते-कहते उसकी दोनों सजल ऑंखें मानो अनिर्वचनीय मधुरता से परिपूर्ण हो उठीं। एकाएक मुझे खयाल हुआ कि इस अपिरिचित वैष्णवी का मुँह जितना सुन्दर है, उतना सुन्दर मुँह मैंने संसार में कभी नहीं देखा। कहा, “कमललता, तुम्हारा मकान कहाँ है?”

वैष्णवी ने ऑंचल से ऑंखें पोंछकर हँसते हुए कहा, “पेड़ की छाया।”

“पर पेड़ की छाया तो हमेशा न थी?”

वैष्णवी ने कहा, “तब था ईंट और काठ के बने हुए किसी मकान का एक छोटा-सा कमरा। पर कहानी सुनाने का वक्त तो अब नहीं है गुसाईं । मेरे साथ आओ, तुम्हारा नया कमरा दिखा दूँ।”

कमरा बढ़िया है। उसने बाँस की खूँटी पर टँगा हुआ एक साफ रेशम का कपड़ा दिखाते हुए कहा, “यह पहनकर ठाकुरजी के कमरे में आना। देखो, देर न करना।” कहकर वह तेजी से चली गयी।

एक ओर एक छोटे से तख्त पर बिछौना बिछा है। निकट ही एक चौकी पर कुछ किताबें और एक थाली में बकुल-फूल रखे हैं। अभी-अभी कोई प्रदीप जलाकर शायद धूप जला गया है, कमरा अब भी उसकी गन्ध और धुएँ से भरा हुआ था- बहुत अच्छा लगा। दिनभर की क्लान्ति तो थी ही- ठाकुर-देवताओं से हमेशा दूर-दूर रहता आया हूँ; उधर आकर्षण नहीं था- अत: कपड़े उतार कर धप से बिछौने पर लेट गया। जाने यह किसका कमरा है, एक रात के लिए वैष्णवी ने जाने किसकी शय्या मुझे उधार दे गयी है- अथवा शायद यह उसी की है- इन सब विचारों से मेरा मन स्वभावत: ही बहुत संकोच अनुभव करता है। पर आज कुछ भी खयाल न हुआ, मानो न जाने कब से परिचित अपने ही आदमियों के पास आ पहुँचा हूँ। शायद कुछ तन्द्रा आ गयी थी कि इतने में ही जैसे किसी ने दरवाजे के बाहर से आवाज दी, “नये गुसाईं, मन्दिर नहीं जाओगे? वे तुम्हें बुला जो रहे हैं।”

चटपट उठ बैठा। मंजीरे के साथ-साथ कीर्तन के गाने की आवाज भी कानों में पहुँची। बहुत से आदमियों का समवेत कोलाहल ही नहीं था; गेय वस्तु भी जितनी मधुर थी उतनी ही स्पष्ट थी। स्त्री का कण्ठ था- बिना ऑंखों से देखे ही निस्सन्देह अनुमान किया कि कमललता है। नवीन का विश्वास है कि इस मीठे स्वर ने ही उसके मालिक को फाँस लिया है। सोचा कि यह असम्भव नहीं है और बहुत असंगत भी नहीं है।

मन्दिर में घुसकर एक ओर चुपचाप बैठ गया, किसी ने फिरकर नहीं देखा। सबकी दृष्टि राधा-कृष्ण की युगल-मूर्ति पर लगी थी। बीच में खड़ी हुई कमललता कीर्तन कर रही है-

मदन गोपाल जय जय यशोदा के लाल की,
यशोदा के लाल जय जय, जय नन्दलाल की।
नन्दलाल जय जय गिरिधारी लाल की,
गिरिधारी लाल जय जय गोविन्द-गोपाल की ॥

इन थोड़े-सहज और साधारण शब्दों के आलोड़न से भक्तों का गम्भीर वक्ष:स्थल मथित होकर कौन-सा अमृत तरंगित हो उठता है, यह मेरे लिए उपलब्ध करना कठिन है। पर देखा कि उपस्थित व्यक्तियों में से किसी की भी ऑंखें शुष्क नहीं हैं। गायिका की दोनों ऑंखों को प्लावित कर झर-झर अश्रु झर रहे हैं और भावों के गुरुभार से बीच-बीच में उसका कण्ठ-स्वर जैसे टूट जाता है। मैं इन राब रसों का रसिक नहीं हूँ, लेकिन मेरे मन के भीतर भी एकाएक न जाने कैसा होने लगा। द्वारिकादास बाबाजी ऑंखें मूँदे एक दीवार का सहारा लिये बैठे थे। यह पता नहीं चला कि वे सचेत हैं या अचेत। और सिर्फ थोड़ी देर पहले की स्निग्ध हास्य-परिहास-चंचल कमललता ही नहीं, बल्कि साधारण गृह-कर्म में नियुक्ता जो सब वैष्णवियाँ अभी तक साधारण, तुच्छ और कुरूप लगी थीं, वे भी मानो इस धूप के धुएँ से आच्छन्न गृह के अनुज्ज्वल दीप के प्रकाश में क्षणभर के लिए मेरी नजरों में अत्यन्त सुन्दर हो उठीं। मुझे भी मानो ऐसा लगा कि पत्थर की यह निकटवर्ती मूर्ति यथार्थ में ऑंखें मलकर देख रही है और कान लगाकर कीर्तन का समस्त माधुर्य उपभोग कर रही है।

भावों की इस विह्वल-मुग्धता से मैं बहुत डरता हूँ, व्यस्त होकर बाहर चला आया- किसी ने लक्ष्य भी नहीं किया। देखता हूँ कि प्रांगण के एक कोने में गौहर बैठा है और कहीं से प्रकाश की एक रेखा आकर उसके शरीर पर पड़ रही है। मेरे पैरों की आवाज से उसका ध्या न भंग नहीं हुआ, पर उस एकान्त समाहित मुँह की तरफ मैं भी न हिल सका, वहीं स्तब्ध हो खड़ा रहा। ऐसा लगा कि सिर्फ मुझको ही अकेला छोड़कर इस जगह के सब व्यक्ति और किसी दूसरे लोक में चले गये हैं- जहाँ का पथ मैं नहीं पहचानता। कमरे में जा, रोशनी बुझाकर लेट गया। यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि ज्ञान, विद्या और बुद्धि में मैं इन सबसे बड़ा हूँ, तथापि न जाने किसी की व्यथा से अन्दर ही अन्दर मन रोने लगा और वैसे ही अनजान कारण से ऑंखों के कोनों से पानी की बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगीं।

पता नहीं कि कितनी देर से सो रहा था। कान में भनक पड़ी, “अरे नये गुसाईं?”

जगकर उठ बैठा, “कौन?”

“मैं हूँ तुम्हारी शाम की बन्धु- इतना सोते हो?”

अंधेरे कमरे में चौखट के पास कमललता वैष्णवी खड़ी थी। बोला, “जागने से क्या फायदा होता? सोने में समय का कुछ सदुपयोग तो हुआ।”

“यह मालूम है। पर ठाकुर का प्रसाद नहीं लोगे?”

“लूँगा।”

“तो फिर, सो क्यों रहे हो?”

“जानता हूँ कि कोई दिक्कत नहीं होगी, प्रसाद तो मिलेगा ही। मेरा शाम का बन्धु रात को भी परित्याग नहीं करेगा।”

वैष्णवी ने सहास्य कहा, “यह अधिकार वैष्णवों को है, तुम लोगों को नहीं।”

“आशा मिलने पर वैष्णव होते क्या देर लगती है? तुमने गौहर तक को गुसाईं बना डाला, तो मैं ही क्या इतनी अवहेलना का पात्र हूँ? आज्ञा होने पर वैष्णवों का दासानुदास होने को भी राजी हूँ।”

कमललता का कण्ठ स्वर कुछ गम्भीर हुआ। कहा, “वैष्णवों की हँसी नहीं उड़ानी चाहिए, गुसाईं, अपराध होता है। गौहर गुसाईं को भी तुमने गलत समझा है। उनके अपने आदमी उन्हें काफिर कहते हैं, पर नहीं जानते कि वे पक्के मुसलमान हैं, पिता-पितामह के धर्म-विश्वास को इन्होंने नहीं त्यागा है।”

“पर उसका भाव देखने पर तो यह मालूम नहीं होता।”

वैष्णवी ने कहा, “यही तो आश्चर्य है। पर अब देरी मत करो, आओ।” फिर कुछ सोचकर कहा, “या प्रसाद ही तुम्हें यहीं दे जाऊँ- क्या कहते हो?”

“आपत्ति नहीं। पर गौहर कहाँ है? वह हो तो दोनों को एक साथ ही दो न।”

“उनके साथ बैठकर खाओगे?”

“हमेशा ही तो खाता हूँ। बचपन में उसकी माँ ने मुझको बहुत खिलाया है। और उस वक्त तुम्हारे प्रसाद की अपेक्षा वह कम मीठा नहीं होता था। इसके अलावा गौहर भक्त है, गौहर कवि है- कवि की जाति की खोज नहीं की जाती।”

उस अन्धकार में भी ऐसा लगा कि वैष्णवी ने एक साँस को दबा लिया। फिर कहा, ‘गौहर गुसाईं नहीं है। वह कब चले गये, हमें पता नहीं।”

मैंने कहा, “मैंने देखा था कि गौहर ऑंगन में बैठा है। उसे क्या तुम भीतर नहीं जाने देतीं?”

वैष्णवी ने कहा, “नहीं।”

“गौहर को आज मैंने देखा था। कमललता, मेरे मजाक से तुम नाराज हो गयीं, किन्तु तुम भी अपने देवता के साथ कम हँसी नहीं कर रही हो। यह बात नहीं कि अपराध सिर्फ एक तरफ से ही होता हो।”

वैष्णवी ने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप बाहर चली गयी। थोड़ी देर बाद ही उसने एक दूसरी वैष्णवी के हाथों रोशनी और आसन तथा खुद प्रसाद का पात्र लेकर प्रवेश किया। कहा, “नये गुसाईं, अतिथि-सेवा में त्रुटि हो सकती है, पर यहाँ का सब कुछ ठाकुरजी का प्रसाद है।”

मैंने हँसकर कहा, “ओ संध्याी की बन्धु, यह कोई डर की बात नहीं, वैष्णव न होते हुए भी तुम्हारे नये गुसाईं में रस-बोध है, आतिथ्य की त्रुटि के लिए वह रस-भंग नहीं करेगा। जो है रख दो- लौटकर देखोगी कि प्रसाद का एक कण भी बाकी नहीं है।”

“ठाकुरजी का प्रसाद ऐसे ही तो खाया जाता है,” यह कह और सिर नीचा कर कमललता ने सारी खाद्य-सामग्री एक-एक कर सिलसिलेवार सजा दी।

दूसरे दिन बहुत सबेरे ही नींद टूट गयी। भारी नगाड़े की आवाज के साथ मंगल आरती शुरू हो गयी है। प्रभाती के सुर में कीर्तन का पद कान में पड़ा-

कान्ह-गले बनमाला बिराजे, राधा-गले मोती साजैं।

अरुण चरण दोउ नू पुरशोभित, चख लख खंजन लाजैं।

इसके बाद दिनभर ठाकुरजी की सेवा होती रही। पूजा-पाठ, कीर्तन, नहलाना, खाना-खिलाना, बदन पोंछना, चन्दन लगाना, माला पहनाना- इसमें जरा भी विराम और विच्छेद नहीं पड़ा। सब व्यस्त हैं, सब नियुक्त हैं। ऐसा लगा कि ये पत्थर के देवता ही यह अष्टप्रहरव्यापी अनन्त सेवा सह सकते हैं, और कोई होता तो ऐसे जबरदस्त उपद्रव के मारे कभी का क्षीण होकर नष्ट हो जाता।

कल वैष्णवी से पूछा था कि “तुम भजन करती हो?” उसने जवाब में कहा था, कि ‘यही तो साधना और भजन है।” सविस्मय प्रश्न किया था, “यह रसोई बनाना, फूल चुनना, माला गूँथना, दूध ओंटाना- क्या इसी को साधना कहती हो?” उसने उसी वक्त सिर हिलाकर जवाब देते हुए कहा था, “हाँ, हम इसी को साधना कहती हैं- हमारी और कोई भजन-साधना नहीं है।”

आज पूरे दिन का हाल देखकर समझ गया कि उसकी बात का एक-एक अक्षर सच है। कहीं भी अतिरंजन या अत्युक्ति नहीं। दोपहर को जरा मौका पाकर बोला, “मैं जानता हूँ कमललता, कि तुम और सब जैसी नहीं हो। सच तो कहो, भगवान की प्रतीक यह पत्थर की मूर्ति…”

वैष्णवी ने हाथ उठाकर मुझे रोक दिया और कहा, “प्रतीक क्या जी- वे तो साक्षात् भगवान हैं- ऐसी बात कभी जबान पर भी न लाना नये गुसाईं- “मेरी बातों से उसे जैसे बहुत शर्म आयी, न जाने मैं भी क्यों एक तरह से झेंप गया, फिर आहिस्ता-आहिस्ता बोल, “मैं तो नहीं जानता, इसीलिए पूछा था कि क्या वाकई तुम सब यह सोचती हो कि इस पत्थर की मूर्ति में ही भगवान की शक्ति और चेतना है उसका…”

मेरी यह बात भी पूरी न हो सकी। वह बोल उठी, “सोचने जाँयेंगी ही क्यों जी, यह तो हमारे लिए प्रत्यक्ष है। तुम लोग संस्कारों के मोह नहीं तोड़ सके हो, इसीलिए यह सोचते हो कि रक्त-मांस के शरीर को छोड़कर और कहीं चैतन्य के रहने के लिए जगह नहीं है। पर यह क्यों? और यह भी कहती हूँ कि शक्ति और चैतन्य का तत्व क्या तुम लोग ही सब हजम कर चुके हो, जो यह कहोगे कि पत्थर में उसके लिए जगह नहीं है? होती है जी, होती है, भगवान को कहीं भी रहने में रुकावट नहीं होती, नहीं तो बताओ उन्हें भगवान ही क्यों कहेंगे?”

तर्क की दृष्टि से ये बातें स्पष्ट भी नहीं और पूर्ण भी नहीं हैं। पर यह और कुछ तो है नहीं, यह तो उसका जीवन्त विश्वास है। उसके इस जोर और अकपट उक्ति के सामने मैं एकाएक न जाने कैसे सिटपिटा-सा गया, बहस करने- प्रतिवाद करने का साहस ही नहीं हुआ, इच्छा भी नहीं हुई। बल्कि सोचा, सच तो है, पत्थर हो या और कुछ लेकिन इतने परिपूर्ण विश्वास से वह अपने को अगर पूर्णत: समर्पित न कर पाती तो वर्ष के बाद वर्ष, और दिन के बाद दिन यह अविछिन्न सेवा करते रहने की शक्ति उसे मिलती कैसे? इस तरह सीधे, निश्चिन्त और निर्भय होकर खड़े होने का अवलम्बन कहाँ से मिलता? ये शिशु तो हैं नहीं, बच्चों के खेल के इस मिथ्या अभिनय से दुबिधाग्रस्त मन दो दिन में ही थककर गिन जाता? पर ऐसा तो नहीं हुआ बल्कि भक्ति और प्रेम की अखण्ड एकाग्रता में इनके आत्मनिवेदन का आनन्दोत्सव बढ़ता ही जा रहा है। इस जीवन में पाने की दृष्टि से वह क्या सब कुछ शून्य या सब कुछ भूल है- सब अपने को ठगना है?

वैष्णव ने कहा, “क्यों गुसाईं, बात क्यों नहीं करते?”

मैंने कहा, “सोच रहा हूँ।”

“किसका सोच कर रहे हो?”

“तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ।”

“यह तो मेरा बड़ा सौभाग्य है।” कुछ देर बाद कहा, “फिर भी यहाँ रहना नहीं चाहते, न जाने कहाँ किस बर्मा देश में नौकरी करने जाना चाहते हो। नौकरी क्यों करोगे?”

मैंने कहा, “मेरे पास मठ की जमीन-जायदाद तो है नहीं- अन्धभक्तों का दल भी नहीं- खाऊँगा क्या?”

“भगवान देंगे।”

मैंने कहा, “यह अत्यन्त दुराशा है। पर ऐसा तो नहीं लगता कि तुम सबका भी भगवान पर बहुत भरोसा है, नहीं तो भिक्षा के लिए क्यों जातीं।”

वैष्णवी ने कहा, “जाती हूँ इसलिए कि देने के लिए वे हाथ बढ़ाये दरवाजे-दरवाजे खड़े हैं। नहीं तो हमारी गरज नहीं है। अगर होती तो नहीं जातीं। बिना खाये ही सूख-सूख मर जातीं, तो भी नहीं जातीं।”

“कमललता, तुम्हारा देश कहाँ है?”

“कल ही तो कहा था गुसाईं, मेरा घर पेड़ के नीचे है, मेरा देश गली-गली में है।”

“तो पेड़ के नीचे और गली-गली में न रहकर मठ में किस लिए रहती हो?”

“बहुत दिनों तक गली-गली में ही थी गुसाईं- अगर कोई संगी मिल जाय तो फिर एक बार गली को संबल बना लूँ।”

मैंने कहा, “इस बात पर तो विश्वास नहीं होता। तुम्हें संगी-साथी की क्या कमी है कमललता? जिससे कहोगी वही राजी हो जायेगा।”

वैष्णवी ने हँसते हुए कहा, “तुम्हीं से कहती हूँ नये गुसाईं- राजी होगे?”

मैं भी हँसा। कहा, “हाँ, राजी हूँ। नाबालिग उम्र में जो यात्रा के दल से नहीं डरा, बालिग अवस्था में उसे वैष्णवी का क्या डर?”

“यात्रा के दल में भी रहे थे?”

“हाँ।”

“तो गाना भी गा सकते हो?”

“नहीं। मालिक ने इतनी दूर आगे बढ़ने ही नहीं दिया, इसके पहले ही जवाब दे दिया। यह नहीं कहा जा सकता कि तुम मालिक होती तो क्या करतीं।”

वैष्णवी हँसने लगी। बोली, “मैं भी जवाब दे देती। इसे छोड़ो, अब हम में से एक के भी जाने पर काम चल जाएगा। इस देश में चाहे जैसे भी भगवान का नाम लेने पर भिक्षा का अभाव नहीं होता। चलो न गुसाईं, निकल पड़े। कह रहे थे कि वृन्दावन धाम कभी नहीं देखा है, चलो तुम्हें दिखला लाऊँ। बहुत दिन घर में बैठे-बैठे कटे, रास्ते का नशा जैसे फिर अपनी ओर खींचना चाहता है। सच, चलोगे नये गुसाईं?”

अचानक उसके मुँह की ओर देखकर बहुत विस्मय हुआ। कहा, “हमारा परिचय हुए तो अभी चौबीस घण्टे भी नहीं हुए, मुझ पर इतना विश्वास कैसे हो गया?” वैष्णवी ने कहा, “ये चौबीस घण्टे सिर्फ एक पक्ष के लिए ही तो नहीं हैं गुसाईं, दोनों पक्षों के लिए हैं। मेरा विश्वास है कि रास्ते में प्रवास में भी तुम पर मेरा अविश्वास न होगा। कल पंचमी है, जाने का बड़ा अच्छा शुभ दिन है- चलो। और रास्ते के किनारे रेल का पथ तो है ही- अच्छा नहीं लगे तो लौट आना। मैं मना नहीं करूँगी।”

एक वैष्णवी ने आकर खबर दी, “ठाकुरजी का प्रसाद कमरे में रख दिया गया है।” कमललता ने कहा, “चलो तुम्हारे कमरे में चलकर बैठें।”

“मेरे कमरे में? अच्छी बात है।”

और एक बार उसके मुँह की तरफ देखा। इस बार लेशमात्र भी सन्देह न रहा कि वह हँसी नहीं कर रही है। यह भी निश्चित है कि मैं उपलक्ष-मात्र हूँ, पर चाहे जिस कारण से हो, उसकी ऐसी हालत मालूम हुई कि वह चाहे जिस कारण से हो, यदि यहाँ के बन्धन तोड़कर भाग सके तो मानों उसकी जान में जान आ जाय- उसे एक क्षण का भी विलम्ब सहन नहीं हो रहा है।

कमरे में आकर खाने बैठा। बहुत बढ़िया प्रसाद है। भागने का षडयन्त्र अच्छी तरह जम जाता, पर एक बहुत जरूरी काम से कोई कमललता को बुला ले गया। अत: अकेले ही मुँह बन्द किये हुए सेवा समाप्त करनी पड़ी। बाहर निकलने पर कोई भी नज़र नहीं आया, द्वारिकादास बाबाजी भी न जाने कहाँ चले गये। दो-तीन पुरानी वैष्णवियाँ घूम-फिर रही हैं- कल शाम को ठाकुर जी के कमरे के धुएँ में शायद ये ही अप्सरा जैसी लगी थीं, किन्तु आज दिन की तेज रोशनी में कल का वह अध्याकत्म सौन्दर्य-बोध उतना अटूट नहीं रहा। मन न जाने कैसा हो गया, सीधा आश्रम के बाहर चला आया। वही शैवालाच्छन्न शीर्णकाया मन्दस्रोता सुपरिचित नदी और वही लता-गुल्म-कंटकाकीर्ण तटभूमि, वही सर्पसंकुल सुदृढ़ बेंतों का कुंज और सुविस्तृत बेणुवन।

बहुत दिनों के अनभ्यास के कारण शरीर सनसनाने लगा, कहीं दूसरी जगह जाने की सोच ही रहा था कि एक आदमी जो कहीं छिपा बैठा था, अब उठा और नजदीक आकर खड़ा हो गया। पहले तो आश्चर्य हुआ कि इस जगह भी आदमी हो सकता है। उसकी उम्र मेरे बराबर ही होगी, और दस वर्ष ज्यादा होना भी असम्भव नहीं है। ठिंगना, दुबला-पतला, शरीर का रंग बहुत ज्यादा काला नहीं है, पर मुँह का नीचे का हिस्सा जैसे बहुत ही छोटा है। ऑंखों की दोनों भौहें भी वैसी ही अस्वाभाविक रूप में विस्तीर्ण हैं। वस्तुत:, इतनी बड़ी, घनी और मोटी भौंहें भी मनुष्य की होती हैं, यह ज्ञान मुझे इसके पहले न था। दूर से ही सन्देह हुआ कि प्रकृति ने मजाक में होठों के बदले कपाल पर एक जोड़ी मोटी मूँछें तो नहीं चिपका दी हैं। गले में तुलसी की मोटी माला है, वेशभूषादि भी बहुत कुछ वैष्णवों जैसी है, पर जितनी मैली है उतनी ही जीर्ण।

“महाशयजी!”

“चौंककर खड़े होते हुए मैंने पूछा, “क्या आज्ञा है?”

“क्या यह जान सकता हूँ कि आप यहाँ कब आये हैं?”

“जान सकते हैं। कल शाम को आया हूँ।”

“रात को अखाड़े में शायद थे?”

“हाँ, था।”

“ओ:!”

नीरवता में ही कुछ क्षण कटे। पैर बढ़ाने की कोशिश करते ही उस आदमी ने कहा, “आप तो वैष्णव नहीं हैं, भले आदमी हैं- अखाड़े में आपको रहने दिया?”

मैंने कहा, “यह तो वे ही जानें। उन्हीं से पूछिए।”

“ओ:, शायद कमललता ने रहने के लिए कहा होगा?”

“हाँ।”

“ओ:, जानते हैं उसकी असली नाम क्या है? उषांगिनी। मकान सिलहट में है किन्तु दिखती है कलकत्ते जैसी। मेरा घर भी सिलहट में है। गाँव का नाम है महमूदपुर। उसके स्वभाव-चरित्र के बारे में कुछ सुनेंगे?”

मैंने कहा, “नहीं।” पर उस आदमी के हाव-भाव देखकर इस बार सचमुच ही विस्मित हो उठा। प्रश्न किया, “कमललता के साथ आपका कोई सम्बन्ध है?”

“है क्यों नहीं!”

“वह क्या?”

क्षणभर इधर-उधर कर वह आदमी एकाएक गरज उठा, “क्यों, क्या झूठ है? वह मेरी घरवाली होती है। उसके बाप ने खुद हमारी कण्ठी-बदली की थी। इसके गवाह हैं।”

न जाने क्यों मुझे विश्वास नहीं हुआ। पूछा, “आपकी जाति क्या है?”

“हम द्वादश तेली हैं।”

“और कमललता की?”

प्रत्युत्तर में वह अपनी वह मोटी भौंहों की जोड़ी घृणा से कुंचित कर बोला, “वह कलवार है- उनके पानी से हम पैर भी नहीं धोते। एक बार उसे बुला सकते हैं?”

“नहीं। अखाड़े में सब जा सकते हैं, इच्छा हो तो आप भी जा सकते हैं।” कुछ नाराज होकर वह बोला, “जाऊँगा साहब, जाऊँगा। दरोगा को पैसे खिला दिये हैं, प्यादे साथ लेकर झोंटा पकड़कर बाहर खींच लाऊँगा। बाबाजी के बाबा भी नहीं बचा सकेंगे! साला, रास्कल कहीं का!”

मैं और वाक्य व्यय न करके आगे चलने लगा। वह पीछे से कर्कश कंठ से बोला, “इसमें आपका क्या नुकसान था? जाकर अगर एक बार बुला देते तो क्या शरीर का कुछ क्षय हो जाता? ओह-भले आदमी!”

अब पीछे घूमकर देखने का साहस नहीं हुआ। पीछे कहीं गुस्से को न रोक पाऊँ और इस अति दुर्बल आदमी के शरीर पर हाथ न छोड़ बैठूँ, इस डर से कुछ तेजी के साथ ही मैंने प्रस्थान किया। ऐसा लगने लगा कि वैष्णवी के भाग जाने का हेतु शायद यहीं कहीं सम्बद्ध है।

मन खराब हो गया था। ठाकुरजी के कमरे में न तो खुद गया और न कोई बुलाने ही आया। कमरे के भीतर एक चौकी पर कई- एक वैष्णव ग्रंथावलियाँ बड़े यत्न से रक्खी थीं। उन्हीं में से एक को हाथ में लेकर और प्रदीप को सिरहाने रखकर बिछौने पर लेट गया। वैष्णव-धर्मशास्त्र के अध्यलयन के लिए नहीं, सिर्फ वक्त गुजारने के लिए। बार-बार क्षोभ के साथ सिर्फ एक ही बात का खयाल आने लगा, कमललता जो गयी सो फिर लौटकर नहीं आयी! ठाकुरजी की संध्याय-आरती यथारीति शुरू हुई, उसका मधुर कण्ठ बार-बार कानों में सुनाई पड़ने लगा और घूम-फिरकर यही खयाल मन में आने लगा कि उस वक्त से कमललता ने मेरी कोई खोज-खबर ही नहीं ली! और वह मोटी भौंहों वाला आदमी? क्या उसकी शिकायत में कुछ भी सत्य नहीं है?

और भी एक बात है। गौहर कहाँ है? उसने भी तो आज मेरी कोई खोज खबर नहीं ली। सोचा था कि कुछ दिन- पूँटू के विवाहवाले दिन तक, यहीं गुजार दूँगा, पर अब यह नहीं होगा। शायद कल ही कलकत्ते रवाना हो जाना पड़े।

शनै: शनै: आरती और कीर्तन समाप्त हो गया। कलवाली वही वैष्णवी आकर बड़े यत्न से प्रसाद रख गयी, पर जिसकी राह देख रहा था उसके दर्शन नहीं मिले। बाहर लोगों की बातचीत और आने-जाने की आवाज भी क्रमश: शान्त हो गयी। यह सोचकर कि अब उसके आने की सम्भावना नहीं है, भोजन किया और हाथ-मुँह धोकर दीप बुझा सो गया।

शायद उस वक्त बहुत रात थी, कानों में भनक पड़ी, “नये गुसाईं!”

जागकर उठ बैठा। अन्धकार में खड़ी कमललता आहिस्ता-आहिस्ता बोली, “आयी नहीं, इसलिए शायद मन-ही-मन बहुत दु:खी हो रहे हैं- क्यों नये गुसाईं?”

कहा, “हाँ, दुखी हुआ हूँ।”

क्षणभर के लिए वैष्णवी चुप रही, फिर बोली, “जंगल में वह आदमी तुमसे क्या कह रहा था?”

“तुमने देखा था क्या?”

“हाँ।”

“कह रहा था कि वह तुम्हारा पति है- अर्थात्, तुम्हारे सामाजिक आचारों के मुताबिक तुम्हारी उसकी कंठी-बदल हुई है।”

“तुमने विश्वास किया?”

“नहीं, नहीं किया।”

क्षणभर के लिए फिर मौन रहकर वैष्णवी ने कहा, “उसने मेरे स्वभाव और चरित्र के बारे में कुछ इशारा नहीं किया?”

“किया था।”

“और मेरी जातिका?”

“हाँ, उसका भी।”

वैष्णवी ने कुछ ठहरकर कहा, “सुनोगे मेरे बचपन का इतिहास? शायद तुम्हें घृणा हो जाय।”

“तो रहने दो, मैं नहीं सुनना चाहता।”

“क्यों?”

“उससे क्या फायदा कमललता? तुम मुझे बहुत भली लगी हो। यहाँ से कल चला जाऊँगा और शायद फिर कभी हम लोगों की मुलाकात ही न हो। तब मेरे इस भले लगने को निरर्थक ही नष्ट करने से क्या फायदा होगा, बताओ?”

इस बार वैष्णवी बहुत देर तक मौन रही। यह समझ में न आया कि अन्धकार में चुपचाप खड़ी वह क्या कर रही है। पूछा, “क्या सोच रही हो?”

“सोच रही हूँ कि कल तुम्हें नहीं जाने दूँगी।”

“तो फिर कब जाने दोगी?”

“जाने कभी न दूँगी। पर अब बहुत रात हो गयी, सो जाओ। मसहरी अच्छी तरह से लगी हुई है न?”

“क्या पता, शायद लगी है।”

वैष्णवी ने हँसकर कहा, “शायद लगी है? वाह, खूब हो।” यह कह उसने करीब आकर अन्धकार में ही हाथ बढ़ाकर बिछौने के चारों छोरों की परीक्षा कर ली और कहा, “सोओ गुसाईं, मैं जाती हूँ।” यह कहकर वह दबे पैरों बाहर निकल गयी और बाहर से बहुत ही सावधानी के साथ दरवाजा भी बन्द कर गयी।

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