श्रीकान्त (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 9
अध्याय 17
वैष्णवी ने आज मुझसे बार-बार शपथ करा ली कि उसका पूर्व विवरण सुनकर मैं घृणा नहीं करूँगा।
“सुनना मैं चाहता नहीं, पर अगर सुनूँ तो घृणा न
करूँगा।”
वैष्णवी ने सवाल किया, “पर क्यों नहीं करोगे? सुनकर औरत-मर्द सब ही तो घृणा करते हैं।”
“मैं नहीं जानता कि तुम क्या कहोगी, तो भी अन्दाज लगा सकता हूँ। यह जानता हूँ कि उसे सुनकर औरतें ही औरतों से सबसे ज्यादा घृणा करती हैं, और इसका कारण भी जानता हूँ, पर तुम्हें वह नहीं बताना चाहता। पुरुष भी करते हैं, किन्तु बहुत बार वह छल होता है, और बहुत बार आत्मवंचना। तुम जो कुछ कहोगी उससे भी बहुत ज्यादा भद्दी बातें मैंने खुद तुम लोगों के मुँह से सुनी हैं, और अपनी ऑंखों भी देखी हैं। पर तो भी मुझे घृणा नहीं होती।”
“क्यों नहीं होती?”
“शायद यह मेरा स्वभाव है। पर कल ही तो तुमसे कहा है कि इसकी जरूरत नहीं। सुनने के लिए मैं जरा भी उत्सुक नहीं। इसके अलावा कौन कहाँ का है, यह सब कहानी मुझसे नहीं भी कही तो क्या हर्ज है?”
वैष्णवी काफी देर तक चुप हो कुछ सोचती रही। इसके बाद अचानक पूछ बैठी, “अच्छा गुसाईं, तुम पूर्वजन्म और अगले जन्मपर विश्वास करते हो?”
“नहीं।”
“नहीं क्यों? क्या तुम सोचते हो कि ये सब बातें सचमुच नहीं हैं?”
“मेरे सोचने के लिए दूसरी बहुत बातें हैं, शायद ये सब सोचने के लिए मुझे समय ही नहीं मिलता।”
वैष्णवी फिर क्षणभर मौन रहकर बोली, “एक घटना तुम्हें बताऊँगी, विश्वास करोगे? ठाकुरजी की ओर मुँह करके कहती हूँ कि तुमसे झूठ नहीं कहूँगी।”
मैंने हँसकर कहा, “करूँगा।”
“तो कहती हूँ। एक दिन गौहर गुसाईं के मुँह से सुना कि उनकी पाठशाला का एक मित्र उनके घर आया है। सोचा कि जो आदमी एक दिन भी यहाँ आए बिना नहीं रह सकता, वह अपने बचपन के मित्र के साथ छह-सात दिन कैसे भूला रहा? फिर सोचा कि यह कैसा ब्राह्मण मित्र है जो अनायास ही मुसलमान के घर पड़ा रहा, किसी से भी नहीं डरा? उसका क्या कहीं भी कोई नहीं है? पूछने पर गौहर गुसाईं ने भी ठीक यही बात कही। कहा कि संसार में उसका अपना कहने लायक कोई नहीं है, इसीलिए उसे डर नहीं है, चिंता भी नहीं है। मन-ही-मन खयाल किया कि ऐसा ही होगा। पूछा, गुसाईं, तुम्हारे मित्र का क्या नाम है? नाम सुनकर जैसे चौंक गयी। जानते तो हो गुसाईं, यह नाम मुझे नहीं लेना चाहिए।”
हँसकर बोला, “जानता हूँ। तुम्हारे मुँह से ही सुना है।”
वैष्णवी ने कहा, “पूछा, तुम्हारा मित्र देखने में कैसा है? उम्र क्या है? गुसाईं ने जो कुछ कहा उसका कुछ हिस्सा तो कानों में गया, और कुछ नहीं। पर हृदय के भीतर धड़कन होने लगी। तुम खयाल करते होगे कि ऐसा आदमी तो नहीं देखा तो नाम सुनकर ही पागल हो जाए। पर यह सच है। सिर्फ नाम सुनकर ही औरतें पागल हो जाती हैं गुसाईं!”
“उसके बाद?”
वैष्णवी ने कहा, “उसके बाद खुद भी हँसने लगी पर भूल न सकी। सब काम-काजों में मुझे केवल एक ही बात याद आने लगी कि तुम कब आओगे, तुम्हें अपनी ऑंखों से कब देख सकूँगी।”
सुनकर चुप रहा, पर उसके चेहरे की ओर देखकर हँस न सका।
वैष्णवी ने कहा, “अभी तो कल शाम को ही तुम आये हो, पर आज इस संसार में मुझसे ज्यादा तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता। पूर्वजन्म अगर सत्य न होता तो क्या एक दिन में यह असम्भव बात सम्भव हो सकती?”
कुछ ठहरकर उसने फिर कहा, “मैं जानती हूँ कि तुम रहने नहीं आये हो और रहोगे भी नहीं। चाहे जितनी भी प्रार्थना क्यों न करूँ, तुम दो-एक दिन बाद चले ही जाओगे। पर मैं केवल वही सोचती हूँ कि इस व्यथा को मैं कब तक सँभाले रहूँगी।” यह कहकर उसने सहसा ऑंचल से ऑंखें पोंछ डालीं।
मैं चुप हो रहा। इतने थोड़े-से समय में, इतनी स्पष्ट और प्रांजल भाषा में रमणी के प्रणय-निवेदन की कहानी इसके पहले न तो कभी किताब में पढ़ी थी और न लोगों की जुबानी ही सुनी थी। और अपनी ऑंखों से ही देख रहा हूँ कि यह अभिनय भी नहीं है। कमललता देखने में सुन्दर है, निरक्षर मूर्ख भी नहीं है, उसकी बात-चीत, उसका गाना, उसका आदर-प्यार और उसकी अतिथि-सेवा की आन्तरिकता के कारण वह मुझे अच्छी लगी है, और इस अच्छे लगने का प्रशंसा और रसिकता की अत्युक्ति से फैलाव करने में मैंने कंजूसी भी नहीं की है। पर देखते ही देखते यह परिणति इतनी गहरी हो जायेगी, वैष्णवी के आवेदन से, अश्रु-मोचन से और माधुर्य के उत्कंपठित आत्मप्रकाश से सारा मन ऐसी तिक्तता से परिपूर्ण हो जायेगा- यह क्या क्षणभर भी पहले जानता था। मानो मैं हतबुद्धि हो गया। यही नहीं कि सिर्फ लज्जा से ही सारा शरीर रोमांचित हो गया हो, बल्कि एक प्रकार की अनजान विपद की आशंका से हृदय में अब कतई शान्ति और निराकुलता न रही। पता नहीं कि किस अशुभ मुहूर्त में काशी से चला था जो एक पूँटू का जाल तोड़कर दूसरी पूँटू के फन्दे में बुरी तरह फँस गया। इधर उम्र यौवन की सीमा लाँघ रही है, ऐसे असमय में अयाचित नारी-प्रेम की ऐसी बाढ़ आ गयी कि सोच ही न सका कि कहाँ भागकर आत्मरक्षा करूँ! कल्पना भी न की थी कि पुरुष के लिए युवती-रमणी की प्रणय-भिक्षा इतनी अरुचिकर हो सकती है। सोचा, एकाएक मेरा मूल्य इतना कैसे बढ़ गया? आज राजलक्ष्मी का प्रयोजन भी मुझमें शेष नहीं होना चाहता यही मीमांसा हुई है कि वह अपनी वज्रमुष्टि को जरा भी ढीला कर मुझे निष्कृति नहीं देगी। पर अब यहाँ और नहीं रहना चाहिए। साधु-संग सिर-माथे, यही स्थिर किया कि इस स्थान को कल ही छोड़ दूँगा।
एकाएक वैष्णवी चकित हो उठी, “अरे वाह! तुम्हारे लिए चाय जो मँगाई है, गुसाईं ।”
“कहती क्या हो? कहाँ मिली?”
“आदमी को शहर भेजा था। जाऊँ, तैयार करके ले आऊँ, देखो, कहीं भाग न जाना।”
“नहीं, लेकिन बनाना जानती हो?”
वैष्णवी ने जवाब नहीं दिया, सिर्फ सिर हिलाकर हँसती हुई चली गयी। उसके चले जाने के बाद उस ओर देखने पर हृदय में न जाने कैसी एक चोट-सी लगी। चाय-पान आश्रम की व्यवस्था नहीं है, शायद मनाही है, तो भी उसे यह खबर लग गयी कि यह चीज मुझे अच्छी लगती है और शहर में आदमी भेजकर उसने मँगवा भी ली। उसके विगत जीवन का इतिहास नहीं जानता, और वर्तमान का भी नहीं। केवल यह आभास मिला है कि वह अच्छा नहीं है, वह निन्दा के योग्य है- सुनने पर लोगों को घृणा होती है। तथापि, वह उस कहानी को मुझसे छिपाना नहीं चाहती, सुनाने के लिए बार-बार जिद कर रही है, सिर्फ मैं ही सुनने को राजी नहीं हूँ। मुझे कुतूहल नहीं है, क्योंकि प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन उसी का है। अकेले बैठे हुए इस प्रयोजन के सम्बन्ध में सोचते हुए स्पष्टत: देखा कि मुझे बताए वगैर उसके हृदय की ग्लानि नहीं मिटेगी- मन में वह किसी तरह भी बल नही पा रही है। सुना है कि मेरा ‘श्रीकान्त’ नाम कमललता उच्चारण नहीं कर सकती। पता नहीं कि कौन यह उसका परमपूज्य गुरुजन है और उसने कब इस लोक से बिदा ले ली है। हमारे नाम की इस दैवी एकता ने ही शायद इस विपत्ति की सृष्टि की है और उसने तब से ही कल्पना में गत जन्म के स्वप्न सागर में डुबकी लगाकर संसार की सब यथार्थताओं को तिलांजलि दे दी है।
तो भी ऐसा लगता है कि इसमें विस्मय की कोई बात नहीं। रस की आराधना में आकण्ठ-मग्न रहते हुए भी उसकी एकान्त नारी-प्रकृति आज भी शायद रस का तत्व नहीं पा सकी है, वह असहाय अपरितृप्त प्रवृत्ति इस निरवच्छिन्न भाव-विलास के उपकरणों को संग्रह करने में शायद आज क्लान्त है- दुविधा से पीड़ित है। उसका वह पथभ्रष्ट विभ्रान्त मन अपने अनजान में ही न जाने कहाँ अवलम्ब खोजने में प्राणपण से जुटा हुआ है- वैष्णवी उसका पता नहीं जानती, इसीलिए आज वह बार-बार चौंककर अपने विगत-जन्म के रुद्ध द्वार पर हाथ फैलाकर अपराध की सान्त्वना माँग रही है। उसकी बातें सुनकर समझ सकता हूँ कि मेरे नाम ‘श्रीकान्त’ को ही पाथेय बनाकर आज वह अपनी नाव छोड़ देना चाहती है।
वैष्णवी चाय ले आयी। सब नयी व्यवस्था है, पीकर बहुत आनन्द मिला। मनुष्य का मन कितनी आसानी से परिवर्तित हो जाता है- अब मानो उसके खिलाफ कोई शिकायत नहीं!
पूछा, “कमललता, तुम क्या कलवार हो?”
कमललता ने हँसकर कहा, “नहीं, सुनार-बनियाँ। पर तुम्हारे निकट तो कोई प्रभेद नहीं है- दोनों ही एक हैं।”
“कम-से-कम मेरे निकट तो एक ही हैं। दोनों ही एक क्यों बल्कि सबके एक हो जाने पर भी कोई नुकसान नहीं।”
वैष्णवी ने कहा, “ऐसा ही तो लगता है। तुमने तो गौहर की माँ के हाथ का भी खाया है।”
“उन्हें तुम नहीं जानतीं। गौहर बाप की तरह का नहीं है, उसे अपनी माँ का स्वभाव मिला है। इतना शान्त, अपने को भूला हुआ, ऐसा अच्छा मनुष्य कभी देखा है? उसकी माँ ऐसी ही थी। एक बार बचपन में गौहर के पिता के साथ उनके झगड़े की बात मुझे याद है। उन्होंने किसी को छिपाकर बहुत से रुपये दे दिये थे। इसी वजह से झगड़ा खड़ा हुआ। गौहर के पिता बदमिजाज आदमी थे। हम तो डर के मारे भाग गये। कुछ घण्टे बाद धीरे-धीरे आकर देखा कि गौहर की माँ चुपचाप बैठी हैं। गौहर के पिता के बारे में पूछने पर पहले तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। पर हमारे मुँह की ओर ताकते हुए वे एक बार खिलखिलाकर हँस पड़ीं। ऑंखों से पानी की कुछ बूँदें नीचे गिर पड़ीं। यह उनकी आदत थी।”
वैष्णवी ने प्रश्न किया, “इसमें हँसने की कौन-सी बात हुई?”
“हमने भी तो यही सोचा। पर जब हँसी रुक गयी तो वे धोती से ऑंखें पोंछ कर बोलीं, “मैं कैसी मूर्ख औरत हूँ बेटा! वे तो मजे से पेट भर कर खुर्राटे ले रहे हैं, और मैं बिना खाये उपवास कर गुस्से में जल-भुन रही हूँ, बताओ, इसकी क्या जरूरत है!” और इस कहने के साथ ही उनका सारा अभिमान और क्रोध धुल-पुँछकर साफ हो गया। यह भुक्तभोगी के अलावा और कोई नहीं जानता कि औरतों का यह कितना बड़ा गुण है!”
वैष्णवी ने प्रश्न किया, “तुम क्या भुक्तभोगी हो, गुसाईं?”
मैं कुछ सिटपिटा गया। यह नहीं सोचा था कि उसको छोड़कर यह प्रश्न मेरे ही सिर आ पड़ेगा। कहा, “सब क्या खुद ही भोगना पड़ता है कमललता, दूसरों को देखकर भी तो सीखा जाता है। इस मोटी भौंहों वाले आदमी के निकट क्या तुमने कुछ नहीं सीखा?”
वैष्णवी ने कहा, “पर वह तो मेरे लिए पराया नहीं है।”
और कोई प्रश्न अब मेरे मुँह से नहीं निकला-बिल्कुमल निस्तब्ध हो गया।
वैष्णवी खुद भी कुछ देर चुप रही। फिर हाथ जोड़कर बोली, “तुमसे विनती करती हूँ गुसाईं, एक बार मेरी शुरू की बातें सुन लो…”
“अच्छी बात है, कहो।”
पर जब कहने चली तो देखा कि कहना उतना आसान नहीं है। मेरी तरह मुँह नीचा किये हुए उसे भी काफी देर तक चुप रहना पड़ा। पर उसने हार नहीं मानी। अन्तर्द्वन्द्व में विजयी होकर जब उसने एक बार मुँह ऊपर उठाकर देखा तो मुझे भी ऐसा लगा कि उसके स्वाभाविक सुश्री चेहरे पर मानो एक खास चमक आ गयी है। बोली, “अहंकार मर कर भी नहीं मरता गुसाईं! हमारे बड़े गुसाईं कहते हैं कि यह मानो फूस की आग है जो बुझकर भी नहीं बुझती। राख हटाते ही नजर आता है कि धक-धक धधक रही है, पर इसीलिए इसे फूँक देकर बढ़ा तो नहीं सकती। फिर तो मेरा इस पथ पर आना ही मिथ्या हो जायेगा। सुनो। किन्तु औरत हूँ न, इसलिए शायद सब बातें खोलकर न भी कह सकूँ।”
मेरे संकोच की सीमा न रही। अन्तिम बार विनती कर कहा, “औरतों के पैर फिसलने के विवरणों में मुझे दिलचस्पी नहीं है, उत्सुकता भी नहीं, और उन्हें सुनना मुझे कभी अच्छा भी नहीं लगा कमललता। मुझे नहीं मालूम कि तुम्हारी वैष्णव-साधना में अहंकार के नाश के लिए कौन से मार्ग का निर्देश महाजनों ने किया है, पर अपने गुप्त पापों को अनावृत्त करने की स्पर्ध्दित विनय ही अगर तुम्हारे प्रायश्चित्त का विधान हो, तो तुम्हें अनेक-व्यक्ति मिल जाँयगे जिन्हें ऐसी सब कहानियाँ सुनना बहुत रुचिकर लगता है। मुझे माफ करो, कमललता, इसके अलावा मैं शायद कल ही चला जाऊँगा, शायद फिर जीवन में कभी हम लोगों की मुलाकात भी नहीं होगी।”
वैष्णवी ने कहा, “तुमसे तो पहले ही कहा है गुसाईं, प्रयोजन तुम्हारा नहीं, मेरा है, पर यह क्या तुम सच कह रहे हो, कल के बाद हमारी मुलाकात नहीं होगी? नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता। मेरा मन कहता है कि फिर मुलाकात होगी- मैं यही आशा लेकर रहूँगी। पर क्या वास्तव में मेरे बारे में कुछ भी जानने की इच्छा तुम्हारी नहीं है? हमेशा क्या सिर्फ एक अनुमान और सन्देह को ही लिये रहोगे?”
प्रश्न किया, “आज वन में जिस आदमी से मेरी मुलाकात हुई, जिसे तुम आश्रम में घुसने नहीं देतीं, जिसके उपद्रव से तुम भागना चाहती हो- वह क्या वास्तव में तुम्हारा कोई नहीं होता? बिल्कुनल पराया है?”
“किस के डर से भाग रही हूँ, यह तुम समझ गये गुसाईं?”
“हाँ, ऐसा ही तो लगता है। पर वह है कौन?”
“वह कौन है? वह मेरे इह और परलोक की नरक-यन्त्रणा है। इसीलिए तो निरन्तर रोकर भगवान से कहती हूँ, प्रभु, मैं तुम्हारी दासी हूँ- मनुष्य के प्रति इतनी जबरदस्त घृणा मेरे मन से निकाल दो, जिससे मैं फिर आसानी से साँस लेकर जी सकूँ। नहीं तो मेरी सारी साधना व्यर्थ हो जायेगी।”
उसकी ऑंखों से जैसे आत्मग्लानि फूट पड़ी, मैं चुप हो रहा।
वैष्णवी ने कहा, “फिर भी, एक दिन उससे ज्यादा मेरा अपना कोई नहीं था- संसार में इतना प्यार किसी ने भी किसी को नहीं किया होगा।” उसका कथन सुनकर विस्मय की सीमा नहीं रही और इस सुरूपा रमणी की तुलना में उस प्रेम के पात्र की कुत्सित और भद्दी शक्ल को स्मरण कर मेरा मन बहुत ही संकुचित हो गया।
बुद्धिमती वैष्णवी ने मेरा मुँह देखकर यह ताड़ लिया। कहा, “ गुसाईं, यह तो उसका सिर्फ बाहर का परिचय है- उसके भीतर का परिचय सुनो।”
“कहो।”
वैष्णवी ने कहना शुरू किया, “मेरे और भी दो छोटे भाई हैं, पर माँ-बाप की मैं इकलौती बेटी थी। हम श्रीहट्ट के रहने वाले हैं, पर चूँकि पिताजी व्यापारी आदमी थे, उनका व्यापार कलकत्ते में था, इसलिए बचपन से ही मैं कलकत्ते में पली हूँ। गृहस्थी के साथ माँ गाँव के मकान में ही रहती थीं। मैं पूजा के दिनों में अगर कभी गाँव जाती तो महीने-भर से ज्यादा न रह पाती। वहाँ रहना मुझे अच्छा भी न लगता। कलकत्ते में ही मेरी शादी हुई और सत्रह वर्ष की उम्र में कलकत्ते में ही मैंने उन्हें खो दिया। उनके नाम की वजह से ही गुसाईं, तुम्हारा नाम गौहर गुसाईं के मुँह से सुनकर मैं चौंक पड़ी। इसलिए ‘नये गुसाईं’ के नाम से पुकारती हूँ, वह नाम जुबान पर नहीं ला सकती।”
“यह मैं समझ गया, उसके बाद?”
वैष्णवी ने कहा, “आज जिसके साथ तुम्हारी मुलाकात हुई थी उसका नाम मन्मथ है, वह हमारा मुनीम था।” कह कर वह क्षण भर के लिए मौन रही, फिर बोली, “जब मेरी उम्र इक्कीस साल की थी तब मेरे संतान होने की सम्भावना हुई…”
वैष्णवी कहने लगी, “मन्मथ का एक पितृहीन भतीजा हमारे ही मकान में रहता था। पिताजी उसे कॉलेज में पढ़ाते थे। उम्र में मुझसे जरा छोटा था। वह मुझे इतना प्यार करता था जिसकी सीमा नहीं। उसे बुलाकर कहा, ‘यतीन, तुमसे और कभी तो कुछ माँगा नहीं है भाई, इस विपत्ति में अन्तिम बार मुझे थोड़ी-सी मदद करो। मुझे एक रुपये का जहर खरीदकर ला दो।” पहले तो वह मेरी बात नहीं समझा, पर जब उसकी समझ में आया तो उसका चेहरा मुर्दे की तरह फीका पड़ गया। कहा, “देरी मत करो भाई, तुम्हें अभी खरीदकर ला देना होगा। इसके अलावा मेरे लिए और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।”
“यह सुनकर यतीन के रोने का तो क्या कहना। वह मुझे देवता समझता था और दीदी कहकर पुकारता था। उसे कितना आघात, कितनी व्यथा हुई, उसकी ऑंखों का पानी जैसे खत्म ही नहीं होना चाहता था। बोला, “उषा दीदी, आत्मघात से बढ़कर और कोई महापाप नहीं है। एक पाप के कन्धों पर और एक जबरदस्त पाप लादकर तुम रास्ता खोजना चाहती हो? पर लज्जा से बचने का यह तरीका ही अगर तुमने स्थिर किया हो दीदी, तो मैं कभी मदद नहीं करूँगा। इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी तुम आदेश दोगी, उसका मैं तत्काल पालन करूँगा।” उसी के कारण मैं मर न सकी।
“क्रमश: पिताजी के कानों में बात पहुँची। वे जैसे निष्ठावान वैसे ही शान्त और निरीह प्रकृति के मनुष्य थे। मुझसे कुछ नहीं कहा, पर दु:ख से, शर्म से दो तीन दिन तक बिछौने से न उठ सके। फिर गुरुदेव के परामर्श से मुझे लेकर नवद्वीप आये। यह ठहरा कि मैं और मन्मथ दीक्षा लेकर वैष्णव हो जाँय और तब फूलों की माला और तुलसी की माला अदल-बदलकर नयी रीति से हमारी शादी हो। उससे पाप का प्रायश्चित होगा या नहीं, यह नहीं जानती थी, पर इस भरोसे पर कि जो शिशु गर्भ में आया है उसकी माँ होकर हत्या नहीं करनी पड़ेगी, मेरी आधी वेदना दूर हो गयी। उद्योग आयोजन होने लगा, दीक्षा कहो या भेष कहो, या और कुछ कहो, मेरा नया नामकरण हुआ- कमललता। किन्तु, तब भी यह मालूम नहीं था कि दस हजार रुपये देने का वचन देकर ही पिताजी ने मन्मथ को राजी किया है। पर एकाएक न जाने क्यों शादी का दिन आगे बढ़ा दिया गया- शायद एक सप्ताह। मन्मथ बहुत कम दिखाई पड़ता, नवद्वीप के मकान में मैं अकेली ही रहती थी। ऐसे ही कई दिन कट गये, इसके बाद फिर शुभ दिन आया। स्नान करके पवित्र होकर शान्त मन से ठाकुर की अर्पित माला हाथ में लिये प्रतीक्षा में बैठी रही। उदास चेहरे से पिताजी एक बार देख गये, पर मन्मथ को जब नवीन वैष्ण्व के वेष में देखा, तो अचानक सारे मन के भीतर बिजली दौड़ गयी। यह ठीक नहीं जानती कि वह आनन्द की थी या व्यथा की, शायद दोनों ही थी। पर इच्छा हुई कि उठकर उसके पैरों की धूल माथे पर लगा लूँ। पर शर्म के कारण ऐसा नहीं हो सका।
“हमारी कलकत्ते की पुरानी दासी बहुत-सी चीजें ले आयी। उसी ने मेरी परवरिश की थी, उसी के मुँह से दिन बढ़ जाने का कारण सुना।”
कितनी पुरानी बात है, तो भी गला भारी हो गया और उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गये। मुँह फिराकर वैष्णवी ऑंसू पोंछने लगी।
पाँच-छह मिनट बाद पूछा, “उसने क्या कारण बताया?”
वैष्णवी ने कहा, “उसने बताया कि मन्मथ अचानक दस हजार के बदले बीस हजार रुपयों की माँग पेश कर बैठा। मुझे कुछ मालूम नहीं था, इसलिए चौंककर पूछा कि क्या मन्मथ रुपयों के बदले राजी हुआ है? और पिताजी भी बीस हजार रुपये देने को तैयार हैं? दासी ने कहा, उपाय क्या है दीदी रानी? मामला भी तो आसान नहीं है, जाहिर हो जाने पर जाति, कुल, मान-सब चला जायेगा। मन्मथ ने असली बात अन्त में जाहिर कर दी। कहा कि इसके लिए वह तो जिम्मेदार है नहीं, जिम्मेदार है उसका भतीजा यतीन। अत: यदि बिना दोष के उसे अपनी जाति छोड़नी ही है तो बीस हजार से कम में नहीं छोड़ सकता। फिर, दूसरे के लड़के का पितृत्व स्वीकार करना- यह भी तो कम मुश्किल नहीं है!
“यतीन अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था, उसे बुलाकर बात सुनाई गयी। सुनकर पहले तो वह हक्का-बक्का-सा हुआ खड़ा रहा। फिर बोला, झूठी बात है। चाचा मन्मथ गरज उठा, “पाजी, नीच, नमकहराम! जो व्यक्ति तुझे खाना-कपड़ा और कॉलेज में पढ़ा-लिखाकर आदमी बना रहा है, उसी का तूने सर्वनाश किया! कैसे काले साँप को मैं मालिक के घर में लाया! सोचा था कि माँ-बाप-हीन लड़का आदमी बनेगा। छी, छी, यह कहने के साथ-ही-साथ वह छाती और सिर पीटने लगा। बोला, यह बात उषा ने खुद अपने मुँह से कही है और तुम इनकार करते हो!
“यतीन चौंक उठा और बोला, “उषा दीदी ने खुद मेरा नाम लिया है? वह तो कभी झूठ नहीं बोलती-इतना बड़ा झूठा अपवाद तो उनके मुँह से कभी बाहर नहीं निकल सकता!”
“मन्मथ और एक बार चिल्ला उठा, ‘अब भी इनकार करता है पाजी, अभागा, शैतान, अपने मालिक से तो पूछ, वे क्या कहते हैं!” ‘
मालिक ने अनुमोदन करते हुए कहा, “हाँ।”
“यतीन ने पूछा, “खुद दीदी ने मेरा नाम लिया है?”
“मालिक ने फिर सिर हिलाकर कहा, “हाँ।”
“पिताजी को वह देवता-तुल्य मानता था। इसके बाद उसने और कोई प्रतिवाद नहीं किया। स्तब्ध हो कुछ देर तक खड़े रहने के बाद धीरे-धीरे चला गया। क्या सोचा, यह वही जाने।
“रात को किसी ने उसकी तलाश नहीं की। सुबह ही किसी ने आकर खबर दी। सब दौड़ पड़े और देखा कि हमारे टूटे अस्तबल के एक कोने में गले में रस्सी बाँधे यतीन झूल रहा है!”
वैष्णवी ने कहा, “यह नहीं जानती कि भतीजे की आत्महत्या के लिए शास्त्रों में चाचा के लिए शौच की विधि है या नहीं गुसाईं। शायद न हो, या शायद डुबकी लगाने से ही शुद्धि हो जाती हो, सो कुछ भी हो, शुभ दिन सिर्फ कुछ दिनों के लिए और आगे टल गया। इसके बाद गंगा-स्नान से शुद्ध और पवित्र हो माला और तिल लगाए हुए मन्मथ गुसाईं पापिनी के पाप-विमोचन का शुभ संकल्प लिये हुए नवद्वीप में आकर हाजिर हो गये।”
एक मुहूर्त के लिए मौन रहकर वैष्णवी फिर कहने लगी, “उस दिन ठाकुर की अर्पित माला ठाकुरजी के पाद-पद्मों में ही लौटा आयी। मन्मथ की अपवित्रता दूर हो गयी, पर पापिनी उषा की अपवित्रता इस जीवन में दूर न हुई नये गुसाईं।”
मैंने कहा, “उसके बाद?”
वैष्णवी ने मुँह फेर लिया, कोई जवाब नहीं दिया। समझ गया कि अब उसे सँभलने में देर लगेगी। काफी देर तक हम दोनों ही चुप बैठे रहे।
उसका शेष अंश सुनने का आग्रह प्रबल हो उठा। पर सोच रहा था कि प्रश्न करना उचित है या नहीं। वैष्णवी ने आर्द्र मृदु कण्ठ से खुद ही कहा, “गुसाईं, जानते हो, संसार में पाप नाम की चीज इतनी भयंकर क्यों है?”
“अपने खयालों के मुताबिक एक तरह से जानता हूँ, पर तुम्हारी धारणा के साथ शायद वह न मिले।”
उसने प्रत्तयुत्तर में कहा, “नहीं जानती कि तुम्हारा क्या खयाल है। पर उस दिन से मैंने अकेले ही अपने खयाल के अनुसार समझ लिया है गुसाईं, कि गर्व के साथ तुम कितने ही लोगों को कहते हुए सुनोगे कि कुछ भी नहीं होता। वे अनेक आदमियों का उदाहरण देकर अपनी बात प्रमाणित करना चाहेंगे। पर इसकी तो कोई जरूरत नहीं। इसका प्रमाण है मन्मथ और प्रमाण हूँ मैं खुद। अब भी हम लोगों का कुछ नहीं हुआ। अगर कुछ होता तो मैं इसे इतना भयंकर न कहती, पर ऐसा तो नहीं है, इसका दण्ड भोगते हैं निरपराध और निर्दोष लोग। यतीन को आत्महत्या का बड़ा डर था, पर उसी से; वह अपनी दीदी के अपराध का प्रायश्चित कर गया। कहो गुसाईं, इससे और अधिक भयंकर तथा निष्ठुर संसार में क्या है? पर ऐसा ही होता है, इसी तरह भगवान शायद अपनी सृष्टि की रक्षा करते हैं।”
इस विषय में बहस करने से कोई फायदा नहीं। युक्ति और भाषा- कोई भी प्रांजल नहीं है, तथापि यही खयाल किया कि दुष्कृति की शोकाच्छन्न स्मृति ने शायद इसी पथ पर चलकर पाप-पुण्य की उपलब्धि अर्जन की है और उससे सांत्वना पाईहै।
“कमललता, उसके बाद क्या हुआ?”
यह सुनकर वह सहसा मानो व्याकुल होकर कह उठी, “सच बताओ गुसाईं, इसके बाद भी मेरी बातें सुनने की इच्छा होती है?”
“सच ही कह रहा हूँ, होती है।”
वैष्णवी ने कहा, “मेरा भाग्य है जो इस जन्म में तुम्हारे दर्शन फिर हुए।” यह कह कुछ देर तक चुपचाप मेरी और देखते-देखते वह फिर कहने लगी, “कोई चार दिन बाद एक मरा हुआ लड़का पैदा हुआ। उसे गंगा के किनारे विसर्जित कर गंगा में नहाकर घर लौट आई। पिता जी ने रोकर कहा, “अब तो मैं नहीं रह सकता बेटी।”
“हाँ पिताजी, अब आप मत रहिए, आप घर लौट जाइए। बहुत दुख दिया, अब आप मेरी फिक्र न करें।”
पिताजी ने पूछा, “बीच में खबर दोगी न बेटी?”
“नहीं पिताजी ,मेरी खबर लेने की आप अब चेष्टा न कीजिएगा।”
“पर उषा, तुम्हारी माँ अब भी जीवित है!”
“मैं मरूँगी नहीं पिताजी, पर मेरी सती-लक्ष्मी माँ से कह देना कि उषा मर गयी। माँ को दु:ख तो होगा, पर लड़की जिन्दा है, जानकर और भी ज्यादा दु:ख होगा। ऑंखों के अश्रु पोंछकर पिताजी कलकत्ते चले गये।”
मैं चुप बैठा रहा, कमललता कहने लगी, “पास में रुपया था- मकान का किराया चुकाकर मैं भी निकल पड़ी। संगी-साथी मिल गये, सब श्रीवृंदावनधाम जा रहे थे, मैं भी साथ हो ली।”
वैष्णवी ने कुछ रुककर कहा, “इसके बाद कितने तीर्थ, कितने पथ, और कितने पेड़ों के नीचे अनेक दिन कट गये…”
“यह जानता हूँ, पर सैकड़ों साधुओं की ऑंखों की दृष्टि का विवरण तो तुमने बताया ही नहीं, कमललता!”
“वैष्णवी हँस पड़ी। बोली, “बाबाजी लोगों की दृष्टि अतिशय निर्मल है, उनके बारे में अश्रद्धा की बातें नहीं कहना चाहिए गुसाईं।”
“नहीं-नहीं, अश्रद्धा नहीं। अतिशय श्रद्धा के साथ ही उनकी कहानी सुनना चाहता हूँ कमललता।”
इस दफा वह नहीं हँसी, पर दबी हुई हँसी छिपा भी न सकी। बोली, “जो बाबाजी प्रेम करते हैं उनसे सब बातें खोलकर नहीं कही जातीं, हमारे वैष्णव-शास्त्र में मनाही है।”
“तो रहने दो। सब बातों का काम नहीं, पर एक बात बताओ। गुसाईं जी द्वारिका दास कहाँ मिले?”
कमललता ने संकोच से जीभ काटकर और कपाल पर हाथ देकर कहा, “मजाक नहीं करना चाहिए, वे मेरे गुरुदेव हैं गुसाईं।”
“गुरुदेव? तुमने उन्हीं से दीक्षा ली है?”
“नहीं, दीक्षा तो नहीं ली है, पर वे उतने ही पूजनीय हैं।”
“पर इतनी सारी वैष्णवियाँ-सेवादासियाँ क्या…”
कमललता ने फिर जीभ काटकर कहा, “वे सब मेरी ही तरह उनकी शिष्या हैं। उनका भी उन्होंने ही उद्धार किया है।”
“निश्चय ही किया है पर ‘परकीया साधना’ या कुछ ऐसी ही जो एक साधना-पद्धति तुम लोगों की है- उसमें तो कोई दोष नहीं…”
वैष्णवी ने मुझे रोककर कहा, “तुम लोगों ने दूर रहकर सिर्फ हमारा हँसी-मजाक ही उड़ाया है, नज़दीक आकर कभी कुछ देखा तो है नहीं, इसीलिए आसानी से व्यंग्य कर सकते हो। हमारे बड़े गुसाईं जी सन्यासी हैं, उनका उपहास करने से पाप होता है नूतन गुसाईं- ऐसी बातें फिर कभी ज़बान पर मत लाना।” उसकी बातों से और गम्भीरता से कुछ हतप्रभ हो गया। वैष्णवी ने यह लक्ष्य कर जरा मुस्कुराते हुए कहा, “दो दिन हम लोगों के पास यहीं रहो न गुसाईं। केवल बड़े गुसाईं जी के लिए ही नहीं कह रही हूँ, मुझे तो तुम प्यार करते हो, और कभी यदि मुलाकात न हो तो कम-से-कम यह तो देख जाओ कि संसार में कमललता
सचमुच में क्या लेकर संसार में रह रही है। यतीन को मैं आज भी नहीं भूली हूँ- दो दिन रहो, मैं कहती हूँ कि तुम यथार्थ में खुश होगे।”
चुप रहा। इन लोगों के बारे में एकदम ही कुछ न जानता होऊँ, सो बात नहीं है। असल वैष्णव की लड़की टगर की याद आ गयी। किन्तु मजाक करने की अब और प्रवृत्ति नहीं थी। यतीन के प्रायश्चित की घटना सारी अलोचना के बीच रह-रह कर जैसे मुझे भी उन्मना कर देती थी।
वैष्णवी ने अचानक प्रश्न किया, “क्यों गुसाईं, इस उम्र तक भी सचमुच तुमने कभी किसी को प्यार नहीं किया?”
“तुम्हारा क्या खयाल होता है कमललता?”
“मेरा खयाल होता है, नहीं। तुम्हारा मन असली
वैरागी का मन है- उदासीन का- तितली की तरह। तुम कभी किसी बन्धन को नहीं मानोगे।”
मैंने हँसकर कहा, “तितली की उपमा तो अच्छी नहीं है कमललता, यह तो सुनने में बहुत कुछ गाली जैसी है। मेरा प्रेमपात्र सचमुच में ही यदि कहीं कोई हो, तो उसके कानों में इसकी भनक पड़ने पर अनर्थ हो जायेगा।” वैष्णवी हँसी, बोली, “डर की कोई बात नहीं गुसाईं, वास्तव में यदि कोई होगी, तो मेरी बात का वह विश्वास नहीं करेगी, और तुम्हारी मधुमिश्रित चालाकी भी वह जीवन-भर नहीं पकड़ सकेगी।”
“तो फिर उसे दु:ख किस बात का? हो न चालाकी, परन्तु उसके निकट तो वही सही रहेगी।”
वैष्णणी ने सिर हिलाकर कहा, “ऐसा नहीं होता गुसाईं। सत्य का स्थान झूठ कभी नहीं ले सकता। वे भले ही न समझें, कारण भले ही उनके लिए स्पष्ट न हो, तो भी उनका अन्तर निरन्तर अश्रुमुख ही रहेगा। मिथ्या का काण्ड तो देखते ही हो; इसी तरह इस रास्ते पर न जाने कितने लोग आये। यह पथ जिनके लिए सत्य नहीं है, उनकी सारी साधना जल की धारा के तल की सूखी बालू की तरह हमेशा ही अलग-अलग रही है, कभी एकत्रित नहीं हुई।”
कुछ ठहरकर वह मानो अचानक मन ही मन बोल उठी, “वे रस के मर्म तक तो पहुँचते नहीं, इसीलिए प्राणहीन निर्जीव मूर्ति की निरर्थक सेवा करते-करते उनका जी दो दिन में ही हाँफ उठता है- सोचते हैं कि वह किस मोह के अन्धकार में अपने को दिन-रात ठगते हुए मरे जा रहे हैं। ऐसे लोगों को देखकर ही तुम लोग हमारा उपहास करना सीखते हो- पर मैं यह क्या फालतू बातें बक रही हूँ गुसाईं, इस सब असंलग्न प्रलाप की एक बात भी तुम नहीं समझोगे। पर यदि तुम्हारी कोई ऐसी है, तो तुम उसे भले ही भूल जाओ, पर वह तुम्हें नहीं भूल सकेगी, और न कभी उसकी ऑंखों का पानी ही सूखेगा।”
मैंने स्वीकार किया कि उसके वक्तव्य का प्रथम अंश मैंने समझा, पर अन्तिम अंश के प्रतिवाद में कहा, “तुम क्या मुझसे यही कहना चाहती हो कमललता, कि मुझको प्यार करने का नाम ही है दु:ख पाना?”
“दु:ख की बात तो नहीं कही गुसाईं, कही है ऑंखों के पानी की बात।”
“पर कमललता, वे दोनों तो एक ही हैं, सिर्फ शब्दों का हेर-फेर है।”
वैष्णवी ने कहा, “नहीं गुसाईं, वह दोनों एक नहीं हैं। न तो शब्दों का ही हेर-फेर है और न भाव का ही औरतें न इससे डरती ही हैं, और न उससे बचना ही चाहती हैं। पर तुम समझोगे कैसे?”
“जब कुछ नहीं समझूँगा तो फिर मुझसे यह सब कहती ही क्यों हो?”
“बिना कहे रहा भी नहीं जाता जी। प्रेम की वास्तविकता को लेकर मर्दों का दल जब अपनी बड़ाई किया करता है, तब सोचती हूँ कि हमारी जाति उनसे अलग है। तुम लोगों के और हम लोगों के प्यार की प्रकृति ही भिन्न है। तुम लोग चाहते हो विस्तार और हम चाहती हैं गम्भीरता, तुम लोग चाहते हो उल्लास और हम चाहती हैं शान्ति। जानते हो गुसाईं, कि प्रेम के नशे से हम भीतर ही भीतर कितना डरती हैं। उसके उन्माद से हमारे हृदय की धड़कन नहीं रुकती।”
मैं कुछ प्रश्न करना चाहता था, किन्तु उसने मेरी ओर ध्यासन ही नहीं दिया और भावों के आवेग में बोलना जारी रक्खा, “वह हमारा सत्य भी नहीं है, हमारा अपना भी नहीं है। वह दौड़-धूप की चंचलता जिस दिन रुकती है, केवल उसी दिन हम नि:श्वास छोड़कर आराम पाती हैं। ओ जी नये गुसाईं, प्रेम की बड़ी से बड़ी प्राप्ति, स्त्रियों के लिए, निर्भयता की अपेक्षा और कुछ नहीं है। पर यही चीज तुम लोगों से कोई कभी नहीं पाती?”
“यह निश्चयपूर्वक जानती हो, कि नहीं पाती?”
वैष्णवी ने कहा, “निश्चयपूर्वक जानती हूँ। इसलिए तो तुम्हारी बड़ाई मुझे सहन नहीं होती।”
आश्चर्य हुआ। कहा, “तुम्हारे निकट बड़ाई तो कभी नहीं की कमललता?”
उसने कहा, “जान बूझकर नहीं की, पर तुम्हारा यह उदासीन बैरागी-मन- जगत में इससे बढ़कर अहंकार से भरा हुआ और भी कुछ है क्या?”
“पर इन दो दिनों में ही तुमने मुझे इतना कैसे जान लिया?”
जान गयी, क्योंकि तुम्हें प्यार जो किया है।”
सुनकर मन-ही-मन कहा, तुम्हारे दु:ख और ऑंखों के अश्रुओं का प्रभेद इतनी देर बाद अब समझा हूँ कमललता! मालूम होता है, अविश्राम पूजा और रस की आराधना का परिणाम ऐसा ही होता है।
“प्यार किया है, यह क्या सच है कमललता?”
“हाँ, सच है।”
“पर तुम्हारा जप-तप, तुम्हारा कीर्तन, तुम्हारी रात-दिन की ठाकुर-सेवा- इन सबका क्या होगा, बताओ?”
वैष्णवी ने कहा, “तब ये सब मेरे लिए और भी सत्य, और भी सार्थक हो उठेंगे। चलो न गुसाईं, सब कुछ छोड़-छाड़कर दोनों जनें रास्ते पर निकल पड़ें।”
मैंने सिर हिलाकर कहा, “यह नहीं होगा कमललता, कल मैं चला जा रहा हूँ। पर जाने के पहले गौहर के बारे में जानने की इच्छा होती है।”
वैष्णवी ने सिर्फ नि:श्वास छोड़कर कहा, “गौहर के बारे में? नहीं, उसे सुनने का तुम्हारा काम नहीं। सचमुच ही कल जाओगे?”
“हाँ, सच ही कल जाऊँगा।”
क्षणभर के लिए स्तब्ध रहकर वैष्णवी ने कहा, “किन्तु इस आश्रम में यदि तुम फिर कभी आओगे साईं, तो कमललता को न खोज पाओगे।”
इस विषय में सन्देह न था कि अब यहाँ एक क्षण रहना भी उचित नहीं। पर उसी समय मानों कोई आड़ में खड़ा होकर ऑंख बन्द कर इशारे से निषेध करता है। कहता है, “जाओगे क्यों? यही सोचकर तो आये थे कि छह-सात दिन रहेंगे,- रहो न। तकलीफ तो कुछ है नहीं।”
रात को बिछौने पर लेटा हुआ सोच रहा था कि ये कौन हैं जो एक ही शरीर में वास करके एक ही वक्त ठीक उलटी राय देते हैं। किसकी बात ज्यादा सच है? कौन ज्यादा अपना है? विवेक, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति- ऐसे ही जाने कितने नाम हैं, इनकी न जाने कितनी दार्शनिक व्याख्याएँ हैं, पर सत्य को आज भी कौन नि:संशय प्रतिष्ठित कर सका है? जिसको सोचता हूँ, कि अच्छा है, इच्छा कर वहीं पर पैर बढ़ाने में बाधा क्यों डालती है? अपने ही अन्दर के इस विरोध- द्वन्द्व का शेष क्यों नहीं होता? मन कहता है कि मेरा चला जाना ही श्रेयस्कर है, चला जाना ही कल्याणकारी है। तो फिर दूसरे ही क्षण उस मन की दोनों ऑंखों में ऑंसू क्यों भर आते हैं? बुद्धि, विवेक, प्रवृत्ति, मन, इन सब बातों की सृष्टि करके सच्ची सांत्वना कहाँ रह जाती है?
फिर भी जाना ही चाहिए, पीछे हटने से काम नहीं चलेगा। और सो भी कल ही। यही सोचने लगा कि इस जाने को कैसे सम्पन्न करूँ। बचपन का एक रास्ता जानता हूँ वह है गायब हो जाना। बिदा की वाणी नहीं, लौटकर आने की झूठी दिलासा नहीं, कारण का प्रदर्शन नहीं, प्रयोजन का- कर्त्तव्य का विस्तृत विवरण नहीं; सिर्फ मैं था और अब मैं नहीं हूँ, इस सत्य घटना के आविष्कार का भार उन लोगों पर छोड़ देना जो पीछे रह गये हैं, बस। निश्चय कर लिया कि अब सोना तो होगा नहीं, ठाकुरजी की मंगल आरती शुरू होने के पहले ही अन्धकार में शरीर ढंककर प्रस्थान कर दूँगा। पर दिक्कत है कि पूँटू के दहेज का रुपया छोटे बैग समेत कमललता के पास है। लेकिन उसे रहने दो। कलकत्ते से, और नहीं तो बर्मा से चिट्ठी भेज दूँगा, उससे एक काम यह भी होगा कि जब तक उन्हें लौटा न देगी तब तक कमललता को बाध्यै होकर यहीं रहना पड़ेगा, पथ-विपथ पर जाने का सुयोग नहीं मिलेगा।
जो कुछ रुपये मेरे कुरते की जेब में पड़े हैं, वे कलकत्ते तक पहुँचने के लिए काफी हैं।
बहुत रात इसी तरह कट गयी। चूँकि बार-बार संकल्प किया था कि सोऊँगा नहीं, शायद इसी कारण न जाने कब सो गया! पता नहीं कि कितनी देर-तक सोया, पर अचानक ऐसा लगा कि स्वप्न में गाना सुन रहा हूँ। एक बार खयाल किया कि रात का व्यापार शायद अभी तक समाप्त नहीं हुआ है, फिर सोचा कि शायद प्रत्यूष की मंगल आरती शुरू हो गयी है, पर काँसे के घण्टे का सुपरिचित दु:सह निनाद नहीं है। असम्पूर्ण अपरितृप्त निद्रा टूटकर भी नहीं टूटती, ऑंखें खोलकर देखा भी नहीं जा सकता। किन्तु, कानों में प्रभाती के सुर में मीठे कण्ठ का सादा धीमा आह्नान पहुँचा-
जागिये गोपाल लाल, पंछी बन बोले।
रजनी कौ अन्त मयौ, दिनने पट खोले॥
“गुसाईं जी, और कितनी देर तक सोओगे? उठो।”
बिछौने पर उठ बैठा। मसहरी उठाई, पूर्व की खिड़की खुली हुई है- सामने की आम्र-शाखाओं में पुष्पित लवंग-मंजरी के कई बड़े-बड़े गुच्छ नीचे तक झूल रहे हैं। उनकी सैंधों में से दिखाई दिया कि आकाश में कई जगह हल्के लाल रंग का आभास है, जैसे अंधेरी रात में सुदूर ग्राम के अन्त में आग लग गयी हो। मन में कहीं कुछ व्यथा-सी होने लगी। कुछ चमगीदड़ उड़ करके अपने आवासों को लौट रहे हैं। उनकी पंखों की फड़फड़ाहट बार-बार कानों में आने लगी। ऐसा लगने लगा कि रात्रि खत्म हो रही है। यह नीलकण्ठों, बुलबुलों और श्यामा पक्षियों का देश है। मानो, यह उनकी राजधानी ‘कलकत्ता शहर’ है और यह विशाल बकुल-वृक्ष (मौलसिरी) उनके लेन-देन और काम-काज का ‘बड़ा बाजार’ है जहाँ दिन के वक्ती की भीड़ देखकर अवाक् हो जाना पड़ता है। तरह-तरह की शकलें, तरह-तरह की भाषा और रंग-बिरंगी पोशाक का बहुत ही विचित्र समावेश है। रात को अखाड़े के चारों ओर के वन में डाल-डाल कर उनके अगणित अड्डे हैं। नींद खुल जाने की आहट कुछ-कुछ पाई गयी। उससे मालूम हुआ कि मानो हाथ-मुँह धोकर वे तैयारी कर रहे हैं। अब सारे दिन चलने वाले नाच-गान का महोत्सव शुरू होगा। ये सब लखनऊ के उस्ताद हैं जो थकते भी नहीं और कसरत भी बन्द नहीं करते। भीतर वैष्णवों का कीर्तन शायद कभी बन्द भी हो जाय, परन्तु बाहर इस बला के बन्द दोने की सम्भावना नहीं है। यहाँ पर छोटे-बड़े, भले-बुरे का विचार नहीं है। इच्छा और समय चाहे हो या न हो, गाना तुम्हें सुनना ही पड़ेगा। इस देश की, मालूम होता है, यही व्यवस्था है, यही नियम है। याद आया, कल सारी दोपहरी-भर पीछे के बाँस के बन में दो पपीहों के उच्च गले की ‘पिया पिया’ पुकार की अविश्रान्त होड़ से मेरी दिवा-निन्द्रा में काफी विघ्न हुआ था; इस पर मेरी ही तरह क्षुब्ध हुआ कोई जल-काक नदी किनारे के वृक्ष पर और भी कठोर कण्ठ से बार-बार उनका तिरस्कार करके भी उन्हें चुप नहीं कर सका था। भाग्य अच्छा था कि इस देश में मोर नहीं है, नहीं तो उनके इस उत्सव के अखाड़े में आ पहुँचने पर तो मनुष्य टिक ही नहीं पाता। सो जो भी हो, दिन का उपद्रव अब भी शुरू नहीं हुआ था। शायद और भी थोड़ा-सा निर्विघ्न सो सकता किन्तु इसी समय गत रात्रि का संकल्प याद आ गया। परन्तु, अब चुपचाप खिसक चलने का भी मौका नहीं रहा, प्रहरियों की सतर्कता से काम बिगड़ चुका था। नाराज होकर बोला, “मैं ‘गोपाल’ भी नहीं हूँ और मेरे बिछौने में लाल भी नहीं हैं। इस समय आधी रात को सोते से जगाने की भला कहो तो क्या जरूरत थी?”
वैष्णवी ने कहा, “रात कहाँ है गुसाईं, तुम्हारी तो आज सुबह की गाड़ी से कलकत्ते जाने की बात थी! मुँह-हाथ धो लो, मैं चाय तैयार कर लाती हूँ। नहाना नहीं। आदत नहीं है, बीमार पड़ सकते हो।”
“हाँ, बीमार पड़ सकता हूँ। सुबह की गाड़ी से जब मेरी इच्छा होगी चला जाऊँगा, पर यह तो बताओ कि तुम्हें इस विषय में इतना उत्साह क्यों है?”
उसने कहा, “और किसी के उठने के पहले मैं तुम्हें बड़े रास्ते तक पहुँचा जो आना चाहती हूँ गुसाईं।” उसका चेहरा स्पष्टत: नहीं दिखाई दिया, पर बिखरे हुए बालों की ओर देखकर कमरे की इतनी कम रोशनी में भी यह जान गया कि वे गीले हैं, स्नान से निबटकर वैष्णवी तैयार हो गयी है।”
“मुझे पहुँचाकर फिर आश्रम में ही लौट आओगी न?”
वैष्णवी ने कहा, “हाँ।”
रुपयों की उस छोटी-सी थैली को बिछौने पर रख उसने कहा, “यह रहा तुम्हारा बैग। रास्ते में होशयारी रखना- रुपये एक बार देख लो।”
एकाएक कुछ कहने के लिए शब्द न सूझे। फिर कहा, “कमललता, तुम्हारा इस रास्ते पर आना मिथ्या है। एक दिन तुम्हारा नाम था उषा, आज भी वही उषा हो- जरा भी नहीं बदल सकी हो।”
“क्यों, बताओ?”
“तुम भी कहो कि मुझसे रुपये गिनने के लिए क्यों कहा? गिन सकता हूँ यह क्या तुम सच समझती हो? जो सोचते कुछ और हैं और कहते कुछ और हैं उन्हें कपटी कहते हैं। जाने के पहले मैं बड़े गुसाईंजी से शिकायत कर जाऊँगा कि आश्रम के खाते से तुम्हारा नाम काट दें। तुम वैष्णव-दल के लिए कलंक हो।”
वह चुप रही। मैं भी क्षणभर मौन रहकर बोला, “आज सुबह मेरी जाने की इच्छा नहीं है।’
“नहीं है? तो थोड़ी देर और सो लो। उठने पर मुझे खबर देना- क्यों?”
“पर तुम अभी क्या करोगी?”
“मुझे काम है। फूल चुनने जाऊँगी।”
“इस अन्धकार में? डर नहीं लगता?”
“नहीं, डर किसका? सुबह की पूजा के फूल मैं ही चुनकर लाती हूँ। नहीं तो उन लोगों की बड़ी तकलीफ होती है।”
‘उन लोगों’ के माने अन्यान्य वैष्णवियाँ। यहाँ दो दिन रहकर यह गौर कर रहा था कि सबकी आड़ में रहकर मठ का। समस्त गुरु-भार कमललता अकेली वहन करती है। सब व्यवस्थाओं में उसका कर्तृत्व है सबके ऊपर, किन्तु स्नेह से, सौजन्य से और सर्वोपरि सविनय कर्मकुशलता से यह कर्तृत्व इतनी सहज श्रृंखला में प्रवहमान है कि कहीं भी ईष्या-विद्वेष का जरा-सा भी मैल नहीं जमने पाता। यह सोचकर मुझे भी क्लेश हुआ कि यही आश्रम-लक्ष्मी आज उत्कण्ठ व्याकुलता के साथ जाऊँ-जाऊँ कर रही है। यह कितनी बड़ी दुर्घटना है, कितनी बड़ी निरुपाय दुर्गति में इतने निश्चिन्त नर-नारी गिर पड़ेंगे। इस मठ में सिर्फ दो दिन से हूँ, पर न जाने कैसा एक आकर्षण अनुभव कर रहा हूँ- ऐसा मनोभाव हो गया है कि मानो इसकी आन्तरिक शुभाकांक्षा चाहे बिना रह ही नहीं सकता। सोचा, लोग यह गलत कहते हैं कि सबको मिला कर आश्रम है और यहाँ सभी समान हैं। पर यह मानो ऑंखों के सामने ही देखने लगा कि इस एक के अभाव में केन्द्र भ्रष्ट उपग्रह की तरह समस्त आयतन ही दिशा-विदिशाओं में विच्छिन्न-विक्षित होकर टूट सकता है। कहा, “और नहीं सोऊँगा कमललता, चलो तुम्हारे साथ चलकर फूल चुन लाऊँ।”
वैष्णवी ने कहा, “तुमने स्नान नहीं किया है, कपड़े भी नहीं बदले हैं- तुम्हारे छुए हुए फूलों से पूजा होगी?”
मैंने कहा, “फूल मत तोड़ने देना, पर डाल को नीचा कर पकड़ने तो दोगी? यह भी तुम्हारी सहायता होगी।”
वैष्णवी ने कहा, “डाल नीची करने की जरूरत नहीं होती, छोटे-छोटे पेड़ हैं- मैं खुद ही कर लेती हूँ।”
कहा, “कम-से-कम साथ रहकर सुख-दु:ख की दो-चार बातें तो कर सकूँगा?” इसमें भी तुम्हारी मेहनत कम होगी।”
इस बार वैष्णवी हँसी। बोली, “एकाएक इतना दर्द हो आया गुसाईं। अच्छा, चलो। मैं डलिया ले आऊँ, इतने में तुम हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल लो।”
आश्रम के बाहर थोड़ी दूर पर फूलों का बगीचा है। घने छायादार आम्र-वन के भीतर से रास्ता है। सिर्फ अन्धकार के कारण ही नहीं बल्कि सूखे पत्तों के ढेरों के कारण पथ की रेखा विलुप्त हो गयी है। वैष्णवी आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे चला, तो डर लगने लगा कि कहीं साँप पर पैर न पड़ जाय।
कहा, “कमललता, रास्ता तो नहीं भूलोगी?”
“नहीं, कम-से-कम आज तो तुम्हारे लिए रास्ता पहचानकर चलना पड़ेगा।”
“कमललता, एक अनुरोध रखोगी?”
“कौन-सा अनुरोध?”
“यहाँ से तुम और कहीं नहीं जाओगी।”
“जाने से तुम्हारा क्या नुकसान है?”
जवाब नहीं दे सका, चुप हो रहा।
“मुरारी ठाकुर ने कहा है कि “हे सखी, अपने घर लौट जाओ, जिसने जीते हुए भी मर कर अपने को खो दिया है, उसे तुम अब क्या समझती हो?” गुसाईं, शाम को तुम कलकत्ते चले जाओगे, और अब यहाँ शायद एक प्रहर से ज्यादा ठहर न सकोगे- क्यों?”
“क्या पता, पहले सुबह तो होने दो।”
वैष्णवी ने जवाब नहीं दिया, कुछ देर बाद गुनगुनाकर गाने लगी-
चण्डिदास कहे सुन विनोदिनी, सुख-दुख दोनों भाई।
सुख के कारण प्रीति करे जो, दुख भी ता ढिग आई
रुकने पर कहा, “इसके बाद?”
“इसके बाद और नहीं याद।”
कहा, “तो कुछ और गाओ-”
वैष्णवी ने वैसे ही मृदु स्वर में गाया…
चण्डिदास कहे सुन विनोदिनी, प्रीति को बात न भावै।
प्रीति के कारन प्रान गँवावै, आखिर प्रीति ही पावै
इस बार उसके रुकने पर बोला, “इसके बाद?”
वैष्णवी ने जवाब दिया, “इसके बाद और नहीं है, यहीं शेष है।”
इसमें शक नहीं कि शेष ही है। दोनों ही चुप हो रहे। बहुत इच्छा होने लगी कि द्रुतपदों से नज़दीक जाकर और कुछ कहकर इस अन्धकार-पथ पर उसका हाथ पकड़कर चलूँ। जानता हूँ कि वह नाराज नहीं होगी, बाधा नहीं देगी, पर किसी भी तरह पैर नहीं चले, मुँह से भी एक शब्द नहीं निकला। जैसे चल रहा था वैसे ही धीरे-धीरे चुपचाप जंगल के बाहर आ पहुँचा।
रास्ते के किनारे बाँसों के घेर से घिरा हुआ आश्रम का फूलों का एक बगीचा है। ठाकुरजी की दैनिक पूजा के लिए यहीं से फूल आते हैं। खुली हुई जगह में अन्धकार नहीं है पर उजाला भी उतना नहीं हुआ है। फिर भी देखा कि अगणित खिले हुए चमेली के फूलों से सारा बगीचा मानो सफेद हो रहा है। सामने के पत्तों झड़े हुए मुण्डे चम्पे के झाड़ में तो फूल नहीं हैं, परन्तु, उसके पास ही कहीं कुछ रजनीगन्धा के फूल असमय में फूल रहे हैं जिनकी मधुर गन्ध से उस त्रुटि की पूर्ति हो गयी है। और सबसे अधिक मन को लुभा लेनेवाला था बीच का हिस्सा। रात्रि के अन्त में इस धुँधले आलोक में पहचाने जाते थे एक दूसरे से भिड़े हुए झुण्ड के झुण्ड गुलाब के झाड़- जिनमें बेशुमार फूल थे और जो सहस्रों फैली हुई लाल ऑंखों से बगीचे की दिशाओं की ओर मानो ताक रहे थे। पहले कभी इतने सबेरे शय्या छोड़कर नहीं उठा था, यह समय हमेशा निद्राच्छन्न जड़ता की अचेतनता में कट जाता है। बता नहीं सकता कि आज कितना अच्छा लगा। पूर्व के रक्तिम दिगन्त में ज्योतिर्मय का आभास मिल रहा है, और उसकी नि:शब्द महिमा से सारा आकाश शान्त हो रहा है। यह लतिकाओं और पत्तों से, शोभा और सौरभ से और अगणित फूलों से परिव्याप्त सम्मुख का उपवन- सभी मिलकर ऐसा लगा कि जैसे यह रात्रि की समाप्तप्राय वाक्यहीन बिदा की अश्रुरुद्ध भाषा हो। करुणा, ममता और अयाचित दाक्षिण्य से मेरा समस्त अन्तर पलक मारते ही परिपूर्ण हो उठा, सहसा कह उठा, “कमललता, जीवन में तुमने अनेक दु:ख-दर्द पाये हैं, प्रार्थना करता हूँ कि इस बार तुम सुखी होओ।”
वैष्णवी फूलों की डलिया को चम्पे की डाल पर लटका कर सामने की बाढ़ का दरवाजा खोल रही थी कि उसने आश्चर्य से लौटकर देखा और कहा, “अचानक तुम्हें हो क्या गया गुसाईं?” अपनी बातें अपने ही कानों में न जाने कैसी बेढंगी लग रही थीं, उस पर उसके सविस्मय प्रश्न से मन ही मन बहुत अप्रतिभ हो गया। कोई जवाब नहीं सूझा, लज्जा को ढकने के लिए एक अर्थहीन हँसी की चेष्टा भी ठीक तरह सफल नहीं हुई, अन्त में चुप हो रहा।
वैष्णवी ने भीतर प्रवेश किया, साथ ही मैंने भी। फूल तोड़ते हुए उसने खुद ही कहा, “मैं सुख में ही हूँ गुसाईं। जिनके पाद-पद्मों में अपने को निवेदन कर दिया है वे दासी का कभी परित्याग नहीं करेंगे।”
सन्देह हुआ कि अर्थ काफी साफ नहीं है, पर यह कहने का साहस भी नहीं हुआ कि स्पष्ट करके कहो। वह मृदु स्वर से गुनगुनाने लगी-
गले में श्याम माणिकों की मंजु मालाएँ डालूँगी,
और कानों में नवकुण्डल, श्याम-गुण-यश के धारूँगी।
श्याम के ही अनुराग-रँगे, पीत पट सुन्दर पहनूँगी,
योगिनी बन करके बन बन, और पथ पथ पर भटकूँगी
कहे यदुनाथदास-
गीत रोकना पड़ा। कहा, “यदुनाथदास को रहने दो, उधर झल्लीरी की आवाज सुन रही हो, लौटोगी नहीं?” उसने मेरी ओर देखकर मृदु हास्य से फिर शुरू कर दिया-
धर्म औ कर्म सभी जावें, नहीं डरती हूँ मैं इससे।
कहीं इस चक्कर में पड़कर, हाथ धो बैठूँ प्रीतमसे
“अच्छा, नये गुसाईं, जानते हो कि बहुत से भले आदमी औरतों का गाना नहीं सुनना चाहते, उन्हें बहुत बुरा लगता है?”
मैंने कहा, “जानता हूँ। किन्तु मैं उन ‘भले बर्बरों’ में नहीं हूँ।”
“तो बाधा डालकर मुझे रोका क्यों?”
“उधर तो शायद आरती शुरू हो गयी है- तुम्हारे न रहने से उसमें कमी रह जायेगी।”
“यह मिथ्या छलना है गुसाईं।”
“छलना क्यों है?”
“क्यों, सो तुम भी जानते हो। पर यह बात तुमसे कही किसने कि मेरे न रहने पर ठाकुरजी की सेवा में सचमुच ही कमी हो सकती है? इस पर क्या तुम विश्वास करते हो?”
“करता हूँ। मुझे किसी ने कहा नहीं कमललता, मैंने खुद अपनी ऑंखों से देखा है।”
उसने और कुछ नहीं कहा, न जाने कैसे अन्यमनस्क भाव से क्षणकाल तक वह मेरे मुँह की ओर ताकती रही और उसके बाद फूल तोड़ने लगी।
डलिया भर जाने पर बोली, “बस, अब और नहीं।”
“गुलाब नहीं चुने?”
“नहीं, उन्हें हम नहीं तोड़तीं, यहीं से भगवान को निवेदन कर देती हैं। चलो, अब चलें।”
उजाला हो गया है। पर यह मठ ग्राम के एकान्त में है- इधर कोई ज्यादा आता-जाता नहीं, इसलिए तब भी वह पथ जन-हीन था और अब भी है। चलते-चलते एक बार फिर वही प्रश्न किया, “तुम क्या सचमुच यहाँ से चली जाओगी?”
“बार-बार यह बात पूछने से तुम्हें क्या लाभ होगा गुसाईं?”
इस बार भी जवाब न दे सका, सिर्फ अपने आपसे पूछा, सच तो है, बार-बार यह बात क्यों पूछता हूँ? इससे मेरा लाभ?
मठ में लौटकर देखा कि इस बीच सभी लोग जाकर दैनिक कामों में लग गये हैं। उस वक्त झल्लरी की आवाज से व्यस्त होकर वृथा ही जल्दी मचाई थी। मालूम हुआ कि वह मंगल-आरती नहीं थी सिर्फ ठाकुरजी की निद्रा भंग करने का बाजा था। यह उन्हें ही सुहाता है।
हम दोनों को अनेकों ने देखा, पर किसी के भी देखने में कुतूहल नहीं था। कम-उम्र होने के कारण सिर्फ पद्मा एक बार मुस्कराई और फिर मुँह नीचा कर लिया। वह ठाकुरजी की माला गूँथती है। उसके पास डलिया रखकर कमललता ने सस्नेह कौतुक से तर्जन करके कहा, “हँसी क्यों जलमुँही?”
किन्तु उसने मुँह ऊपर नहीं उठाया। कमललता ने ठाकुरजी के कमरे में प्रवेश किया, और मैं भी अपने कमरे में दाखिल हुआ।
स्नान और आहार यथारीति और यथासमय सम्पन्न हुआ। शाम की गाड़ी से मेरे जाने की बात थी। वैष्णवी को खोजने गया तो देखा कि वह ठाकुरजी के कमरे में है और उन्हें सजा रही है। मुझे देखते ही बोली, “नये गुसाईं, यदि आए हो तो कुछ मेरी सहायता भी करो। पद्मा सिरदर्द लेकर पड़ी है और लक्ष्मी-सरस्वती दोनों बहिनों को एकाएक बुखार आ गया है, क्या होगा कुछ समझ में नहीं आता। वासन्ती रंग के इन दो कपड़ों में चुन्नट डाल दो न गुसाईं।”
अतएव ठाकुर के कपड़ों में चुन्नट डालने बैठ गया। उस दिन जाना न हो सका। दूसरे दिन भी नहीं और उसके बाद वाले दिन भी नहीं। मैं बड़े सबेरे वैष्णवी के फूल तोड़ने का साथी बन गया। प्रभात में, मधयाह्न में, संध्यान को-कुछ-कुछ काम वह मुझसे करा ही लेती है। इसी प्रकार स्वप्न की तरह दिन कटने लगे। सेवा में, सहृदयता में, आनन्द में, आराधना में, फूलों में, गन्ध में, कीर्तन में, पक्षियों के गान में- कहीं भी कोई छिद्र नहीं, फिर भी सन्दिन्ध मन बीच-बीच में सजग हो भर्त्सना कर उठता है कि यह क्या खिलावाड़ कर रहे हो? बाहर के सारे सम्बन्ध तोड़कर इन थोड़े से निर्जीव खिलौनों के पीछे यह कैसा पागलपन कर रहे हो? इतनी बड़ी आत्मवंचना में मनुष्य जीवित कैसे रहता है? फिर भी यह अच्छा लगता है, जाऊँ-जाऊँ करके भी पैर नहीं बढ़ा पाता। इस तरफ मलेरिया कम है, फिर भी इस समय अनेक लोग ज्वरग्रस्त हो रहे हैं। गौहर सिर्फ एक दिन आया था, फिर नहीं आया। उसकी खोज-खबर लेने का समय भी नहीं निकाल पाता! यह मेरी दशा अच्छी हुई!
सहसा मन भय और धिक्कार से भर गया- यह मैं कर क्या रहा हूँ? संगति-दोष से क्या एक दिन यह सब सत्य मान बैठूँगा? स्थिर किया, अब नहीं, चाहे कुछ भी क्यों न हो, कल यह जगह छोड़कर मुझे भागना ही पड़ेगा।
हर रोज रात के अन्त में वैष्णवी आकर जगा देती है। प्रभाती के स्वर में वैष्णव कवियों का नींद उड़ा देने वाला वह गीत भक्ति और प्रेम का कितना सकरुण आवेदन होता है! हठात् उत्तर नहीं देता, कान लगाकर सुनता रहता हूँ। ऑंखों के कोनों में ऑंसू आ जाना चाहते हैं। मसहरी उठाकर जब वह खिड़की और दरवाजा खोल देती है तब नाराज होकर उठ बैठता हूँ, और मुँह धो कपड़े बदलकर साथ चल देता हूँ।
कई दिनों की आदत की वजह से आज अपने आप ही नींद खुल गयी। कमरे में अन्धकार है। एक बार ऐसा लगा कि रात अभी खत्म नहीं हुई है, परन्तु फिर सन्देह हुआ। बिछौना छोड़कर बाहर आया- देखता हूँ कि रात कहाँ है, सबेरा हो गया है। किसी के खबर देते ही कमललता आकर खड़ी हो गयी। उसका ऐसा अस्नात प्रस्तुत चेहरा इसके पहले नहीं देखा था।
डर से पूछा, “तुम्हारी तबियत क्या अच्छी नहीं है?”
उसने म्लान हँसी हँसकर कहा, “गुसाईं, आज तुम जीत गये।”
“बताओ, कैसे?”
“तबियत आज वैसी अच्छी नहीं, वक्त पर नहीं उठ सकी।”
“तो आज फूल तोड़ने कौन गया?”
ऑंगन के एक ओर एक अधमरे तगर के पेड़ में कुछ थोड़े से फूल लगे थे, उन्हीं को दिखाकर बोली, “इस वक्त तो किसी तरह इन्हीं से काम चला जायेगा।”
“पर ठाकुर के गले की माला?”
“माला आज न पहना सकूँगी।”
सुनकर मन न जाने कैसा हो गया- उन्हीं निर्जीव खिलौनों के लिए! कहा, “नहाकर मैं तोड़ लाता हूँ।”
“तो जाओ, पर इतने सबेरे नहा नहीं सकोगे। बीमार पड़ जाओगे।”
“बड़े गुसाईंजी नहीं दिखाई देते?”
वैष्णवी ने कहा, “वे तो यहाँ हैं नहीं, परसों अपने गुरुदेव से मिलने नवद्वीप गये हैं।”
“कब लौटेंगे?”
“यह तो पता नहीं गुसाईं।”
इतने दिनों से मठ में रहते हुए भी बैरागी द्वारिकादास के साथ घनिष्ठता नहीं हुई, कुछ तो मेरे अपने दोष से और कुछ उनके निर्लिप्त स्वभाव के कारण। वैष्णवी के मुँह से सुनकर और अपनी ऑंखों से देखकर जान गया हूँ कि इस आदमी में न कपट है, न अनाचार और न मास्टरी करने का चाव। उनका अधिकांश समय अपने निर्जन कमरे में वैष्णव धर्म-ग्रन्थों के साथ व्यतीत होता है। इन लोगों के धर्म-मत पर न मेरी आस्था है, न विश्वास। पर इस व्यक्ति की बातें इतनी नम्र, देखने की भंगी इतनी स्वच्छ, गम्भीर तथा विश्वास और निष्ठा से अहर्निश ऐसी भरपूर रहती है कि उनके मत और पथ के विरुद्ध आलोचना करने में सिर्फ संकोच ही नहीं बल्कि दु:ख होता है। अपने आप ही यह समझ में आ जाता हैं कि यहाँ तर्क करना। बिल्कुसल निष्फल है। एक दिन एक मामूली-सी दलील करने पर वे मुस्कुराते हुए इस तरह चुपचाप देखते रह गये कि कुंठा के मारे मेरे मुँह से और शब्द ही न निकले। उसके बाद से ही मैं यथासाध्यै उनसे बचकर चला हूँ। फिर भी एक कुतूहल बना रहा। इच्छा थी कि जाने के पहले इतनी नारियों से घिरे रहने पर भी, निरविच्छिन्न रस के अनुशीलना में निमग्न रहने पर भी, चित्त की शान्ति और देह की निर्मलता को अक्षुण्ण बनाए रखने का रहस्य उनसे पूछ जाऊँगा। पर वह सुयोग इस यात्रा में अब शायद नहीं मिलेगा। मन ही मन सोचा कि फिर कभी यदि आना हुआ, तो देखा जायेगा।
वैष्णवों के मठों में भी ठाकुरजी की मूर्ति को आमतौर ब्राह्मण के अलावा और कोई स्पर्श नहीं कर सकता, पर हम आश्रम में यह रीति नहीं है। ठाकुर का एक वैष्णव पुजारी बाहर रहता है, आज भी वह आकर यथारीति पूजा कर गया। पर ठाकुर की सेवा का भार आज बहुत कुछ मुझ पर आ पड़ा। वैष्णवी बतलाती जाती है और मैं सब काम करता जाता हूँ, पर रह-रहकर सारा हृदय तिक्त हो उठता है। मुझ पर यह क्या पागलपन सवार हो रहा है! आज भी जाना बन्द रहा। अपने को शायद यह कहकर समझाया कि जब इतने दिनों से यहाँ हूँ, तब इस विपत्ति के समय इन लोगों को कैसे छोड़ जाऊँ? संसार में कृतज्ञता नाम की भी तो कोई चीज है।
और भी दो दिन कट गये, किन्तु अब और नहीं। कमललता स्वस्थ हो गयी है, पद्मा और लक्ष्मी-सरस्वती दोनों बहिनों की तबीयत भी ठीक हो गयी है। द्वारिका दास कल शाम को लौट आये हैं, उनसे बिदा माँगने गया। गुसाईंजी ने कहा, “आज जाओगे गुसाईं? अब कब आओगे?”
“यह तो नहीं जानता गुसाईंजी।”
“लेकिन कमललता तो रो-रोकर अधमरी हो जायेगी।”
यह जानकर मन ही मन बहुत बिगड़ा कि इनके कानों में भी हमारी बात पहुँच गयी है। कहा, “वह क्यों रोने लगी?”
गुसाईंजी ने जरा हँसकर कहा, “शायद तुम नहीं जानते?”
“नहीं।”
“उसका स्वभाव ही ऐसा है। किसी के चले जाने पर वह शोक में अधमरी हो जाती है।”
यह बात और भी बुरी लगी। कहा, “जिसकी आदत ही शोक करने की है वह तो करेगा ही। मैं उसे रोक कैसे सकता हूँ?” पर यह कहा और उनकी ऑंखों की तरफ देखकर मुँह फेरा ही था कि देखा, मेरे पीछे कमललता खड़ी है।
द्वारिकादास ने कुण्ठित स्वर में कहा, “उस पर नाराज होना गुसाईं, सुना है कि ये सब तुम्हारी सेवा नहीं कर सकीं और बीमार पड़कर तुमसे बहुत काम लिया, अनेक कष्ट भी दिये। यह कल मुझसे इसके लिए स्वयं ही दु:ख प्रकट कर रही थी। और फिर वैष्णव-बैरागियों के पास सेवा-सत्कार करने लायक है ही क्या। किन्तु अगर कभी तुम्हारा यहाँ आना हो तो भिखारियों को दर्शन दे जाना। दे जाओगे न गुसाईं?”
सिर हिलाकर बाहर निकला आया, कमललता वहीं पर वैसी ही खड़ी रही। पर अकस्मात् यह क्या हो गया! बिदा लेने के वक्त न जाने कितना क्या कहने और सुनने की कल्पना कर रक्खी थी!- सब नष्ट कर दी। अनुभव कर रहा था कि चित्त की दुर्बलता की ग्लानि अन्तर में धीरे-धीरे संचित हो रही है, किन्तु स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि झुँझलाया हुआ असहिष्णु मन ऐसी अशोभन रुक्षता से अपनी मर्यादा नष्ट कर बैठेगा!
नवीन आ पहुँचा। वह गौहर की तलाश में आया है, क्योंकि, वह कल से अब तक घर नहीं लौटा है। बड़ा अचरज हुआ, “यह क्या नवीन, वह तो यहाँ भी अब नहीं आता?”
नवीन विशेष विचलित न हुआ। बोला, “तो किसी बन-जंगल में घूम रहे होंगे, नहाना-खाना बन्द कर दिया है, अब कहीं साँप के काटने की खबर मिलेगी तो निश्चिन्त हुआ जायेगा।”
“पर नवीन, उसकी तलाश करना तो जरूरी है।”
“मालूम है कि जरूरी है, पर तलाश कहाँ करूँ? बाबू, जंगल में घूम घूमकर मैं अपनी जान तो दे नहीं सकता! पर वे कहाँ हैं? एक बार उनसे और पूँछ लूँ।”
“ ‘वे’ कौन?”
“वही कमललता।”
“पर उसे क्या मालूम होगा नवीन?”
“वे नहीं जानती? सब जानती हैं।”
और ज्यादा बहस न करके मैं उत्तेजित नवीन को मठ के बाहर ले आया। कहा, “वास्तव में नवीन, कमललता कुछ नहीं जानती। खुद बीमार होने के कारण वह तीन चार दिन से अखाड़े के बाहर भी नहीं निकली।”
नवीन ने विश्वास नहीं किया। नाराज होकर कहा, “नहीं जानती? वह सब जानती है। वैष्णवी कौन-सा मन्तर नहीं जानती? वह क्या नहीं कर सकती? यदि कहीं वह नवीन के पल्ले पड़ी होती तो उसका ऑंख-मुँह मटकाना और कीर्तन करना सब बाहर निकाल देता। लौंडे ने बाप के इतने रुपये पैसे मानो जादू से उड़ा दिये!”
उसे शान्त करने के लिए कहा, “कमललता रुपये लेकर क्या करेगी, नवीन? वैष्णवी है; मठ में रहती है, गाना गाकर, भीख माँगकर ठाकुर-देवता की सेवा करती है। दो दफे दो मुट्ठी खाती ही तो है और क्या! इसलिए मुझे तो ऐसा नहीं लगा कि वह रुपयों की भिखारिनी है नवीन!”
नवीन कुछ ठण्डा होकर बोला, “अपने लिए नहीं-यह तो हम भी जानते हैं। देखने में भी वह भले घर की लड़की जैसी लगती है। वैसा ही चेहरा और वैसी ही बातचीत। बड़े बाबाजी भी लोभी नहीं हैं, पर उन्होंने वैष्ण्वियों का पूरा एक झुण्ड का झुण्ड जो पाल रक्खा है! ठाकुर-सेवा के नाम पर उन लोगों को हुलुआ-पूड़ी और दूध-घी रोज जो चाहिए! नयन चाँद चक्रवर्ती के मुँह पर घुसफुस सुनी है कि अखाड़े के नाम बीस बीघा ज़मीन खरीदी गयी है! कुछ भी नहीं रहेगा बाबू, जो कुछ है सब एक दिन बैरागियों के पेट में चला जायेगा।”
कहा, “पर यह अफवाह शायद सच नहीं है। और तुम्हारा वह नयन चक्रवर्ती भी तो कम नहीं है!”
नवीन ने फौरन स्वीकार कर कहा, “यह ठीक है। वह धूर्त ब्राह्मण बड़ा झाँसेबाज है। पर कहिए, विश्वास कैसे न करूँ? उस दिन खामख्वाह मेरे ही लड़के के नाम दस बीघा ज़मीन दान कर दी। बहुत मना किया पर नहीं सुना। मानता हूँ कि बाप बहुत रख गया है, पर बाबू, इस तरह बाँटने से कितने दिन चलेगा? एक दिन क्या कहा, जानते हैं? कहा, हम फकीर के वंश के हैं, फकीरी तो हमसे कोई छीन नहीं लेगा? लीजिए, सुनिए इनकी बातें!”
नवीन चला गया। एक बात पर ध्यानन गया। यह उसने एक बार भी न पूछा कि मैं किसलिए इतने दिनों से मठ में पड़ा हुआ हूँ। नहीं जानता कि पूछता तो मैं क्या कहता, पर मन ही मन शर्मिन्दा हुआ। उससे ही और एक खबर मिली कि कालिदास बाबू के लड़के का ब्याह कल धूमधाम से हो गया। सत्ताईस तारीख का मुझे खयाल ही न रहा।
नवीन की बातों पर मन ही मन विचार करते-करते अकस्मात विद्युत-वेग से एक सन्देह उठ खड़ा हुआ- वैष्णवी किसलिए चली जाना चाहती है? कहीं उस मोटी भौंहों वाले कुरूप आदमी के डर से तो नहीं, जो कण्ठी बदलकर पाये हुए पतित्व का दावा करता है? और यह गौहर? मेरे यहाँ रहने के सम्बन्ध में ही शायद इसीलिए वैष्णवी ने इस दिन सकौतुक कहा था कि गुसाईं, मैं अगर तुम्हें पकड़कर रखे रहूँ तो वे नाराज़ नहीं होंगे। नाराज होनेवाले आदमी वे नहीं हैं। पर अब वह क्यों नहीं आता? उसने अपने मन ही मन न जाने क्या सोच लिया है। संसार में गौहर की आसक्ति नहीं है, अपना कहने को भी कोई नहीं है। रुपया-पैसा, धन-दौलत तो उसके लिए ऐसे हैं मानो उन्हें लुटा देने पर ही उसे चैन मिलेगी। प्रेम अगर उसने किया भी हो तो इस डर से वह मुँह खोलकर शायद किसी दिन कहेगा भी नहीं कि कहीं पीछे किसी अपराध का स्पर्श न हो जाए। वैष्णवी यह जानती है। उस अनतिक्रम्य बाधा से चिर-निरुद्ध प्रणय के निष्फल चित्त-दाह से इस शान्त और स्वयं को भूले हुए मनुष्य को बचाने के लिए ही शायद वह यहाँ से भाग जाना चाहती है। नवीन चला गया है और मैं बकुल के नीचे बैठकर उस टूटी वेदी के ऊपर अकेला बैठा हुआ सोच रहा हूँ। घड़ी खोलकर देखी। यदि पाँच बजे की ट्रेन पकड़ना है तो अब और देर नहीं की जा सकती। पर हर रोज न जाना ही इस तरह आदत में दाखिल हो गया था कि जल्दी से उठकर चल देने के लिए आज भी मन पीछे हटने लगा।
चाहे जहाँ भी रहूँ, पूँटू के बहू-भात के समय पहुँचकर अन्न ग्रहण करने का वादा किया था और भागे हुए गौहर को खोज लाना मेरा कर्त्तव्य है। इतने दिनों तक अनावश्यक अनुरोध बहुत माने हैं, पर आज जब सच्चा कारण विद्यमान है तब मान्य करने को कोई नहीं। देखा, पद्मा आ रही है। करीब आकर बोली, “तुम्हें एक बार दीदी बुला रही हैं, गुसाईं।”
फिर लौट आया। ऑंगन में खड़े होकर वैष्णवी ने कहा, “कलकत्ते पहुँचने में तुम्हें रात हो जायेगी, नये गुसाईं। ठाकुरजी का थोड़ा-सा प्रसाद सजा रक्खा है, कमरे में आओ।”
रोज की तरह सावधानी से तैयारी की गयी थी। बैठ गया। यहाँ खाने के लिए मनाने और जोर डालने की प्रथा नहीं है, आवश्यक होने पर माँग लेना होता है। बाकी नहीं छोड़ा जाता।
जाने के वक्त वैष्णवी ने कहा, “नये गुसाईं, फिर आओ न?”
“तुम रहोगी न?”
“तुम बताओ, मुझे कितने दिन तक रहना होगा?”
“तुम ही बताओ कि कितने दिनों बाद मुझे यहाँ आना होगा?”
“नहीं, यह मैं तुम्हें नहीं बताऊँगी।”
“न बताओ, पर एक दूसरी बात का जवाब दोगी, बोली?”
इस बार वैष्णवी ने जरा हँसकर कहा, “नहीं, वह भी मैं न दूँगी। इस समय तुम्हारी जो इच्छा हो सोच लो गुसाईं, एक दिन अपने आप ही उसका जवाब मिल जाएगा।”
कई बार इन शब्दों ने जबान पर आना चाहा, कि अब तो वक्त नहीं है कमललता, कल जाऊँगा- पर किसी भी तरह कह नहीं पाया। यही कहा कि “जाता हूँ।”
पद्मा निकट आकर खड़ी हो गयी। कमललता की देखा देखी उसने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया। वैष्णवी ने उससे नाराज होकर कहा, “हाथ जोड़कर नमस्कार क्या करती है जलमुँही, पैरों की धूल लेकर प्रणाम कर।”
इस बात से मानो मैं चौंक पड़ा। उसके मुँह की ओर नजर करते ही देखा कि उसने दूसरी ओर मुँह फेर लिया है। तब और कुछ न कहकर मैं उनका आश्रम छोड़कर बाहर चल दिया।
अध्याय 18
आज बे-वक्त कलकत्ते पहुँचने के लिए निकल पड़ा। उसके बाद इससे भी ज्यादा दुखमय है बर्मा का निर्वासन। वहाँ से लौटकर आने का शायद समय भी न होगा और प्रयोजन भी न होगा। शायद यह जाना ही अन्तिम जाना हो। गिनकर देखा, दस दिन बाकी हैं। दस दिन जीवन के लिहाज कितने से हैं! तथापि, मन में संदेह नहीं रहा कि दस दिन पहले जो यहाँ आया था और आज जो बिदा लेकर जा रहा है, दोनों एक नहीं हैं।
बहुतों को खेद के साथ कहते हुए सुना है कि यह किसने सोचा था अमुक व्यक्ति ऐसा हो जायेगा- अर्थात्, अमुक का जीवन मानो सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण की तरह उसके अनुमान के पंचांग में ठीक-ठीक गिनकर लिखा हुआ है, उसका ठीक न मिलना सिर्फ अचिन्त्य ही नहीं, अयुक्त भी है- मानो उनकी बुद्धि के हिसाब-किताब के बाहर दुनिया में और कुछ है ही नहीं। वे नहीं जानते कि संसार में केवल विभिन्न मनुष्य ही नहीं हैं, बल्कि इसका पता लगाना भी कठिन है कि एक-एक मनुष्य भी कितने विभिन्न मनुष्यों के रूप में रूपान्तरित हो जाता है- यहाँ पर एक क्षण भी तीक्ष्णता और तीव्रता में समस्त जीवन को अतिक्रम कर सकता है।
सीधा रास्ता छोड़कर वन-जंगलों में से इस उस रास्ते चक्कर लगाता हुआ स्टेशन जा रहा था- बहुत कुछ उसी तरह जिस तरह बचपन में पाठशाला को जाया करता था। ट्रेन का वक्त नहीं जानता, उसकी जल्दी भी नहीं है,- सिर्फ यह जानता हूँ कि वहाँ पहुँचने पर कोई न कोई ट्रेन, जब भी मिले, मिल ही जायेगी। चलते-चलते एकाएक ऐसा लगा कि सब रास्ते जैसे पहचाने हुए हैं, मानो कितने दिनों तक कितनी बार इन रास्तों से आया गया हूँ! पहले वे बड़े थे, अब न जाने क्यों संकीर्ण और छोटे हो गये हैं। अरे यह क्या, यह तो खाँ- लोगों का हत्यारा बाग है! अरे, वही तो है! और यह तो मैं अपने ही गाँव के दक्षिण के मुहल्ले के किनारे से जा रहा हूँ। उसने न जाने कब शूल की व्यथा के मारे इस इमली के पेड़ की ऊपर की डाल में रस्सी बाँधकर आत्महत्या कर ली थी। की थी या नहीं, नहीं जानता, पर प्राय: और सब गाँवों की तरह यहाँ भी यह जनश्रुति है। पेड़ रास्ते के किनारे है, बचपन में इस पर नज़र पड़ते ही शरीर में काँटे उठ आते थे, ऑंखें बन्द करके एक ही दौड़ में इस स्थान को पास कर जाना पड़ता था।
पेड़ वैसा ही है। उस वक्त ऐसा लगता था कि इस हत्यारे पेड़ का धड़ मानो पहाड़ की तरह है और माथा आकाश से जाकर टकरा रहा है। परन्तु आज देखा कि उस बेचारे में गर्व करने लायक कुछ नहीं है, और जैसे अन्य इमली के पेड़ होते हैं वैसा ही है। जनहीन ग्राम के एक ओर एकाकी नि:शब्द खड़ा है। शैशव में जिसने काफी डराया है, आज बहुत वर्षों बाद के प्रथम साक्षात् में उसी ने मानों बन्धु की तरह ऑंख मिचकाकर मजाक किया, कहो मेरे बन्धु, कैसे हो, डर तो नहीं लगता?
मैंने पास जाकर परम स्नेह के साथ उसके शरीर पर हाथ फेरा। मन ही मन कहा, अच्छा ही हूँ भाई। डर क्यों लगेगा, तुम तो मेरे बचपन के पड़ौसी हो- मेरे आत्मीय!
संध्याप का प्रकाश बुझता जा रहा था। मैंने बिदा लेते हुए कहा, भाग्य अच्छा था जो अचानक मुलाकात हो गयी, अब जाता हूँ बन्धु!
श्रेणीबद्ध बहुत से बगीचों के बाद जरा खुली जगह है। अन्यमनस्क होता तो इसे भी पार कर जाता, किन्तु सहसा अनेक दिनों की भूली हुई-सी परन्तु परिचित एक बहुत ही सुन्दर मीठी गन्ध से चौंक पड़ा-इधर-उधर निहारते ही नजर पड़ गयी- वाह! यह तो हमारी उसी यशोदा वैष्णवी के आऊस फूलों की गन्ध है! बचपन में इनके लिए यशोदा की कितनी आरजू-मिन्नत नहीं की थी? इस जाति का पेड़ इधर नहीं होता, क्या मालूम कहाँ से लाकर उसने इसको अपने ऑंगन के एक कोने में लगाया था। टेढ़ी-मेढ़ी और गाँठोंवाली, बूढ़े आदमी जैसी उसकी शकल थी। उस दिन की तरह आज भी उसकी वही एकमात्र सजीव शाखा है और ऊपर के कुछ थोड़े से हरे पत्तों के बीच वैसे ही थोड़े से कुछ सफेद फूल हैं। इसके नीचे यशोदा के स्वामी की समाधि थी। वैष्णव ठाकुर को हमने नहीं देखा था, हमारे जन्म के पहले वे स्वर्गधाम सिधार चुके थे। उनकी छोटी-मनिहारी की दुकान तब उनकी विधवा ही चलाती थी। दुकान तो नहीं थी, पर एक डलिया में यशोदा छोटी-छोटी आरसियाँ, कंघियाँ, नारे, महावर, तेल के मसाले, काँच के खिलौने, टीन की वंशी इत्यादि भरकर घर-घर घूमकर बेचा करती थी। इसके सिवाय उसके पास मछली पकड़ने का सामान भी रहता था- अधिक नहीं, एक-एक दो-दो पैसे की डोरियाँ और काँटे। इन्हें खरीदने जब हम उसके घर जाते, तो बहुत धूम मचाते। इस आऊस के पेड़ की एक सूखी डाल पर बनाए हुए मिट्टी के आले पर यशोदा संध्याम के समय दीपक जलाती थी और फूलों के लिए उपद्रव करने पर वह हमें समाधि दिखाकर कहती, “नहीं बच्चों, ये मेरे देवता के फूल हैं, तोड़ने पर नाराज होंगे।”
वैष्णवी अब नहीं है, पता नहीं कि वह कब मर गयी, शायद बहुत दिन नहीं हुए। पेड़ के एक किनारे और एक छोटे चबूतरे पर नज़र पड़ी, शायद यह यशोदा की समाधि होगी। बहुत सम्भव है कि सुदीर्घ प्रतीक्षा के बाद उसने भी पति के पास ही अपने लिए थोड़ा-सा स्थान कर लिया हो। स्तूप की खुदी हुई मिट्टी ज्यादा उर्ब्वर हो जाने के कारण बिच्छू खूब हो गये हैं और पेड़ को चमगीदड़ों ने छा दिया है- सँभालने वाला कोई नहीं है।
रास्ता छोड़कर शैशव के उस परिचित बूढ़े पेड़ के पास जाकर खड़ा हो गया। देखा कि शाम को जलने वाला वह दीपक नीचे पड़ा है और उसके ऊपर की वह सूखी डाल आज भी वैसी ही तेल से काली हो रही है।
यशोदा का छोटा-सा घर अभी तक पूरी तरह ढहा नहीं है- सहस्र-छिद्रमय और जीर्ण-शीर्ण फूस का छप्पर दरवाजे को ढककर औंधा पड़ा हुआ आज भी प्राणपण से रक्षा कर रहा है।
बीस-पच्चीस वर्ष पहले की न जाने कितनी बातें याद आ गयीं- बाँसों के घेर से घिरा हुआ लिपा-पुता यशोदा का ऑंगन, और वही छोटा-सा कमरा। उसकी आज यह दशा है! पर इससे भी बहुत ज्यादा एक करुण वस्तु अब भी देखने को बाकी थी। अकस्मात् देखा कि उसी घर के टूटे छप्पर के नीचे से एक कंकाल-शेष कुत्ता बाहर निकला। मेरे पैरों की आवाज से चकित होकर शायद उसने मेरे अनधिकार-प्रवेश का प्रतिवाद करना चाहा। पर उसकी आवाज इतनी क्षीण थी कि उसके मुँह में ही रह गयी।
कहा, “क्यों रे, मैंने अपराध तो नहीं किया?”
उसने मेरे मुँह की ओर देखकर न जाने क्या सोचा और फिर पूँछ हिलाना शुरू कर दिया। मैंने कहा, “अब भी तू यहीं है?”
उसने प्रत्युत्तर में सिर्फ दोनों मलिन ऑंखें खोलकर अत्यन्त निरुपाय की तरह मेरे मुँह की तरफ देखा।
इसमें शक नहीं कि यह यशोदा का कुत्ता है। फूलदार रंगीन किनारी का गल-पट्टा अब भी उसके गले में है। मैं समझ ही न सका कि उस नि:सन्तान रमणी के एकान्त स्नेह का धन यह कुत्ता आज भी इस परित्यक्त कुटी में क्या खाकर जीवित है। मुहल्लों में जाकर छीन झपट कर खाने का जोर तो उसमें है नहीं, आदत भी नहीं है, और स्वजाति के साथ मेल रखने की शिक्षा भी उसे नहीं मिली। लिहाजा भूखा और अधभूखा रहकर यहीं पड़ा पड़ा बेचारा शायद उसी की राह देख रहा है, जो उसको एक दिन प्यार करती थी। सोचता होगा कि कहीं न कहीं गयी है, एक न एक दिन लौटकर आयेगी ही। मन ही मन कहा, यही क्या ऐसा है? इस प्रत्याशा को बिल्कुदल ही पोंछ डालना संसार में क्या इतना आसान है?
जाने के पहले छप्पर की सैंध में से एक बार भीतर की ओर दृष्टि डाली। अन्धकार में और तो कुछ भी दिखाई न पड़ा, दीवार पर चिपकी हुई कुछ तसवीरें नजर आ गयी। राजा रानी से लेकर नाना जाति के देवी-देवताओं तक की तसवीरें हैं। कपड़े के नये थानों में से निहाल निकाल कर यशोदा इन्हें संग्रह करती थी और इस तरह वह अपना तस्वीरों का शौक मिटाती थी। याद आया कि बचपन में इनको अनेक बार मुग्ध दृष्टि से देखा है। बारिश से भीगकर, दीवार की मिट्टी से बिगड़ कर, ये आज भी किसी तरह टिकी हुई हैं।
और पड़ी हुई पास के ही छींके पर वैसी ही दुर्दशा में वह रंगीन हँड़िय जिसे देखते ही मुझे यह बात याद आ गयी कि इसमें उसके आलते के बंडल रहते थे। और भी इधर-उधर क्या-क्या पड़ा था, अन्धकार में पता नहीं पड़ा। वे सब चीजें मिलकर प्राणपण से मुझे न जाने किस बात का इंगित करने लगीं, पर उस भाषा से मैं अनजान था। कुछ ऐसा लगा कि मकान के एक कोने में मानो किसी मृत शिशु का खिलौना-घर है। घर-गृहस्थी की नाना टूटी-फूटी चीजों से यत्नपूर्वक सजाए हुए इस क्षुद्र संसार को वह छोड़ नया है। आज उन चीजों का आदर नहीं है, प्रयोजन भी नहीं, ऑंचल से बार-बार झाड़ने-पोंछने की जरूरत भी नहीं-पड़ा हुआ है सिर्फ जंजाल, इसलिए कि किसी ने उसे मुक्त नहीं किया है।
वह कुत्ता कुछ देर तक साथ-साथ आया और ठहर गया। जब तक दिखाई पड़ा तब तक बेचारा इस ओर टकटकी लगाये खड़ा देखता रहा है। उसके साथ का यह परिचय प्रथम भी है, और अन्तिम भी। फिर भी वह कुछ आगे बढ़कर बिदा देने आया है। मैं जा रहा हूँ किसी बन्धुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास के लिए, और वह लौट जायेगा अपने अन्धकारपूर्ण निराले टूटे हुए मकान में! दोनों के ही संसार में ऐसा कोई नहीं है जो राह देखते हुए प्रतीक्षा कर रहा हो!
बगीचे के पार ही जाने पर वह ऑंखों से ओझल हो गया, परन्तु पाँच ही मिनट के इस अभागे साथी के लिए हृदय भीतर ही भीतर रो उठा, ऐसी दशा हो गयी कि ऑंखों के ऑंसू न रोक सका।
चलते-चलते सोच रहा था कि ऐसा क्यों होता है? और किसी दिन यह सब देखता तो शायद कुछ विशेष खयाल न आता, पर आज मेरा हृदयाकाश मेघों के भार से भारातुर हो रहा है- जो उन लोगों के दु:ख की हवा से सैकड़ों धाराओं में बरस पड़ना चाहते हैं।
स्टेशन पहुँच गया। भाग्य अच्छा था, उसी वक्त गाड़ी मिल गयी, कलकत्ते के निवास-स्थान पर पहुँचने तक ज्यादा रात न होगी। टिकट खरीद कर बैठ गया और उसने सीटी देकर यात्रा शुरू कर दी। स्टेशन के प्रति उसे मोह नहीं, सजल ऑंखों से बार-बार घूमकर देखने की उसे जरूरत नहीं।
फिर वही याद आयी- मनुष्य के जीवन में दस दिन कितने-से हैं; फिर भी कितने बड़े हैं!
कल सुबह कमललता अकेली ही फूल तोड़ने जावेगी और उसके बाद उसकी सारे दिन चलने वाली देव-सेवा शुरू हो जायेगी! क्या मालूम, दस दिन के साथी नये गुसाईं को भूलने में उसे कितने दिन लगे।
उस दिन उसने कहा था, “सुख से ही तो हूँ गुसाईं। जिनके पाद-पद्मों पर अपने-आपको निवेदन कर दिया है वे दासी का कभी परित्याग नहीं करेंगे।” सो, यही हो। ऐसी ही हो।
बचपन से ही मेरे जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, बलपूर्वक किसी भी चीज की कामना करना मैं नहीं जानता- सुख-दु:ख सम्बन्धी मेरी धारणा भी अलग है। तथापि इतनी उम्र कट गयी सिर्फ दूसरों का अनुकरण करने में-दूसरों के विश्वास पर और दूसरों का हुक्म तामील करने में। इसलिए कोई भी काम मेरे द्वारा अच्छी तरह निर्वाहित नहीं होता। दुबिधा से दुर्बल मेरे सारे संकल्प और सारे उद्योग थोड़ी ही दूर चलते हैं और ठोकर खाकर रास्ते में ही चूर-चूर हो जाते हैं; तब सभी कहने लगते हैं, “आलसी है, किसी काम का नहीं।” शायद इसीलिए उन निकम्मे बैरागियों के अखाड़े में ही मेरा अन्तरवासी अपरिचित बन्धु अस्फुट छाया-रूप में मुझे दर्शन दे गया, मैंने बार-बार नाराज होकर मुँह फिरा लिया और उसने बार-बार स्मित हास्य से हाथ हिला-हिलाकर न जाने क्या इशारा किया।
और वह वैष्णवी कमललता! उसका जीवन मानों प्राचीन वैष्णव कवि चित्तों के ऑंसुओं का गीत है। छन्दों में मेल नहीं, व्याकरण में भूलें हैं, भाषा में भी अनेक त्रुटियाँ हैं, पर उसका विचार तो उस ओर से नहीं किया जा सकता। मानो उसी का दिया हुआ कीर्तन का सुर है- जिसके मर्म में पैठता है, उसे ही उसका पता चलता है। वह मानो गोधूलि के आकाश की रंगबिरंगी तसवीर है। उसका नाम नहीं, संज्ञा नहीं-कलाशास्त्र के सूत्रों के अनुसार उसका परिचय देना भी विडम्बना है।
मुझसे कहा था, “चलो न गुसाईं, यहाँ से चल दें, गीत गाते गाते पथ ही पथ पर दोनों के दिन कट जायेंगे।”
उसे कहने में तो कुछ नहीं लगा, पर वह मुझे खटका। मेरा नाम रक्खा है उसने ‘नये गुसाईं।” कहा, “असल नाम तो मैं मुँह से निकाल नहीं सकती गुसाईं।” उसका विश्वास है कि मैं उसके विगत-जीवन का बन्धु हूँ। मुझसे उसे डर नहीं, मेरे पास रहते हुए उसकी साधना में विघ्न नहीं आ सकता। वैरागी द्वारिकादास की वह शिष्या है, मालूम नहीं उन्होंने उसे किस साधना से सिद्धि-लाभ करने का मन्त्र दिया है।
एकाएक राजलक्ष्मी की याद आ गयी और उसकी उस कठोर चिट्ठी का खयाल आ गया जो स्नेह और स्वार्थ के मिश्रण से भरी हुई थी। तो भी जानता हूँ कि इस जीवन के पूर्व विराम पर वह मेरे लिए शेष हो गयी है। शायद यह अच्छा ही हुआ है। किन्तु उस शून्यता को भरने के लिए क्या कहीं भी कोई है? खिड़की के बाहर अन्धकार को ताकता हुआ चुपचाप बैठा रहा। एक-एक करके न जाने कितनी बातें और कितनी घटनाएँ याद आ गयीं। शिकार के आयोजन के लिए खड़ा किया हुआ कुमार साहब का वह तम्बू, वह दल-बल और अनेक वर्षों के बाद प्रवास में उस प्रथम साक्षात् के दिन की दीप्त काली ऑंखों में उसकी वह विस्मय-विमुग्ध दृष्टि! जिसे जानता था कि मर गयी है, जिसे पहिचान नहीं सका- उस दिन श्मशान के पथ पर उसी ने कितनी व्यग्र-व्याकुल विनती की थी और अन्त में क्रुद्ध निराशा का वह कैसा तीव्र अभिमान था! रास्ता रोककर कहा था, “जाना चाहते हो इसीलिए क्या मैं तुम्हें जाने दूँगी? देखूँ, कैसे जाते हो! इस विदेश में यदि कोई विपत्ति आ पड़ी, तो कौन देख-भाल करेगा? वे या मैं?”
इस दफा उसे पहिचाना। यह जोर ही उसका हमेशा का सच्चा परिचय है। जीवन में यह उससे फिर कभी न छूटा- इससे उसके निकट कभी किसी को अव्याहति नहीं मिली।
रास्ते के एक किनारे मरने को पड़ा था कि नींद टूटने पर ऑंखें खोलकर देखता हूँ कि वह सिरहाने बैठी है। तब सारी चिन्ताएँ उसे सौंपकर ऑंखें बन्द कर सो गया। यह भार उसका है, मेरा नहीं!
गाँव के मकान में आकर बीमार पड़ गया। यहाँ वह नहीं आ सकती थी-यहाँ वह मृत है-इससे बढ़कर और कोई लज्जा उसके लिए नहीं थी, फिर भी जिसे अपने निकट पाया वह वही राजलक्ष्मी थी।
चिट्ठी में लिखा है, “तुम्हारी देख-भाल कौन करेगा? पूँटू? और मैं सिर्फ नौकर की जुबानी खबर सुनकर लौट जाऊँगी? इसके बाद भी जीवित रहने के लिए कहते हो?”
इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया। इसलिए नहीं कि जानता नहीं, बल्कि इसलिए कि साहस नहीं हुआ।
मन ही मन कहा, क्या केवल रूप में ही? संयम में, शासन में, सुकठोर आत्मनियन्त्रण में उस प्रखर बुद्धिमती के निकट यह स्निग्धा सुकोमल आश्रमवासिनी कमललता कितनी-सी है! पर उस इतनी-सी में ही इस बार मानो मैंने अपने स्वभाव की प्रतिच्छवि देखी। ऐसा लगा कि उसके निकट ही है मेरी मुक्ति, मर्यादा और नि:श्वास छोड़ने का अवकाश। वह कभी मेरी सारी चिन्ताएँ, सारी भलाई-बुराइयाँ अपने हाथों में लेकर राजलक्ष्मी की तरह मुझे आच्छन्न नहीं कर डालेगी।
सोच रहा था कि विदेश जाकर क्या करूँगा? क्या होगा इस नौकरी से? कोई नहीं बात तो है नहीं- उस दिन भी ऐसा क्या पाया था जिसको फिर से पाने के लिए आज लोभ करना होगा? सिर्फ कमललता ने ही तो नहीं कहा, द्वार का गुसाईं ने भी आश्रम में रहने के लिए एकान्त समादर से आह्वान किया है। यह क्या सब वंचना है, मनुष्य को धोखा देने के अलावा क्या इस आमन्त्रण में कुछ भी सत्य नहीं है? अब तक जीवन जिस तरह कटा है, क्या यही उसका शेष है? क्या अब कुछ भी जाने को बाकी नहीं रहा, क्या मेरे लिए सब जानना समाप्त हो गया? हमेशा इसकी अश्रद्धा और उपेक्षा ही की है, कहा है, सब असार है, सब भूल है, पर सिर्फ अविश्वास और उपहास को ही मूल-धन मान लेने से ही संसार में कभी कोई बड़ी वस्तु किसी को मिली है?
गाड़ी आकर हावड़ा स्टेशन पर रुक गयी। स्थिर किया कि रात को घर रहकर जो कुछ चीजें हैं, जो कुछ लेना-देना है, वह सब चुका पटा कर कल फिर आश्रम को लौट जाऊँगा। गयी मेरी नौकरी, और रह गया मेरा बर्मा जाना। जब घर पहुँचा तब रात के दस बजे थे। आहार का प्रयोजन तो था, पर उपाय न था। हाथ-मुँह धोकर और कपड़े बदलकर बिछौना झाड़ रहा था कि पीछे से एक सुपरिचित कण्ठ की आवाज आयी, “बाबूजी, आ गये?”
सविस्मय घूमकर देखा, रतन, “कब आया रे?”
“शाम को ही आया हूँ। बरामदे में बड़ी अच्छी हवा थी, आलस्य में जरा सो गया था।”
“बहुत अच्छा किया। खाया नहीं है न?”
“जी नहीं।”
“तब तो रतन, तूने बड़ी मुश्किल में डाल दिया।”
रतन ने पूछा, “और आपने?”
स्वीकार करना पड़ा, “मैंने भी नहीं खाया है।”
रतन ने खुश होकर कहा, “तब तो अच्छा ही हुआ। आपका प्रसाद पाकर रात काट दूँगा।”
मन ही मन कहा कि यह नाई-बेटा विनय का अवतार है, किसी भी तरह हतप्रभ नहीं होता। कहा, “तो किसी पास की दुकान में खोज यदि कुछ प्रसाद जुटा सके। पर शुभागमन किसलिए हुआ? फिर भी कोई चिट्ठी है?”
रतन ने कहा, “जी नहीं, चिट्ठी लिखने में बड़ी झंझट है। जो कुछ कहना होगा वे खुद मुँह से ही कहेंगी।”
“इसका मतलब? मुझे फिर जाना होगा क्या?”
“जी नहीं। माँ खुद आई हैं।”
सुनकर घबड़ा गया। उसे इस रात में कहाँ ठहराऊँ? क्या बन्दोबस्त करूँ? कुछ समझ में न आया। पर कुछ तो करना ही चाहिए, पूछा, “जब से आई हैं तब से क्या घोड़ागाड़ी में ही बैठी हैं?”
रतन ने हँसकर कहा, “नहीं बाबू, हमें आये चार दिन हो गये, इन चार दिनों से आपके लिए दिन-रात पहरा दे रहा हूँ। चलिए।”
“कहाँ? कितनी दूर?”
“कुछ दूर तो जरूर है, पर मैंने गाड़ी किराये कर रक्खी है, कष्ट नहीं होगा।”
अतएव, दुबारा कपड़े पहनकर दरवाजे में ताला बन्द कर फिर यात्रा करनी पड़ी। श्यामबाजार की एक गली में एक दोमंजिला मकान है, सामने दीवार से घिरा हुआ एक फूलों का बगीचा है, राजलक्ष्मी के बूढ़े दरबान ने द्वार खोलते ही मुझे देखा, आनन्द की सीमा न रही, सिर हिलाकर लम्बा-चौड़ा नमस्कार कर पूछा, “अच्छे हैं बाबूजी?”
“हाँ तुलसीदास, अच्छा हूँ। तुम अच्छे हो?”
प्रत्युत्तर में फिर उसने वैसा ही नमस्कार किया। तुलसी मुंगेर जिले का है जात का कुर्मी, ब्राह्मण होने के नाते वह बराबर बंगाली रीति से मेरे पैर छूकर प्रणाम करता है।
हमारी बातचीत की वजह से शायद और भी एक हिन्दुस्तानी नौकर की नींद खुल गयी, रतन के जोर से धमकाने के कारण वह बेचारा हक्का-बक्का हो गया। बिना कारण दूसरों को डरा-धमका कर ही रतन इस मकान में अपनी मर्यादा कायम रखता है। बोला, “जब से आये हो, खाली सोते हो और रोटी खाते हो, तम्बाकू तक चिलम में सजाकर नहीं रख सकते? जाओ जल्दी…” यह आदमी नया है, डर से चिलम सजाने दौड़ गया। ऊपर सीढ़ी के सामने वाला बरामदा पार करने पर एक बहुत बड़ा कमरा मिला गैस के उज्ज्वल प्रकाश से आलोकित। चारों ओर कार्पेट बिछा हुआ है, उसके ऊपर फूलदार जाजम और दो-चार तकिये पड़े हैं। पास ही मेरा बहुव्यवहृत अत्यन्त प्रिय हुक्का और उससे थोड़ी ही दूर पर मेरे जरी के काम वाले मखमली स्लीपर सावधानी से रक्खे हुए हैं। ये राजलक्ष्मी ने अपने हाथ से बुने थे और परिहास में मेरे एक जन्मदिन के अवसर पर उपहार दिये थे। पास का कमरा भी खुला हुआ है, पर उसमें कोई नहीं है। खुले दरवाजे से एक बार झाँककर देखा कि एक ओर नयी खरीदी हुई खाट पर बिछौना बिछा हुआ है और दूसरी ओर वैसी ही नयी खूँटी पर सिर्फ मेरे ही कपड़े टँगे हैं। गंगामाटी जाने से पहले ये सब तैयार हुए थे। याद भी न थे, और कभी काम में भी नहीं आये।
रतन ने पुकारा, “माँ?”
“आती हूँ,” कहकर राजलक्ष्मी सामने आकर खड़ी हो गयी और पैरों की धूल लेकर प्रणाम करके बोली, “रतन, चिलम तो भर ला, तुझे भी इधर कई दिनों से बड़ी तकलीफ दी।”
“तकलीफ कुछ भी नहीं हुई माँ। राजी-खुशी इन्हें घर लौटा लाया, यही मेरे लिए बहुत है।” कहकर वह नीचे चला गया।
राजलक्ष्मी को नयी ऑंखों से देखा। शरीर में रूप नहीं समाता। उस दिन की पियारी याद आ गयी। इन कई वर्षों के दु:ख-शोक के ऑंधी-तूफान में नहाकर मानो उसने नया रूप धारण कर लिया है। इन चार दिनों के इस नये मकान की व्यवस्था से चकित नहीं हुआ, क्योंकि उसकी सुव्यवस्था से पेड़-तले का वास-स्थान भी सुन्दर हो उठता है। किन्तु राजलक्ष्मी ने मानो अपने आपको भी इन कई दिनों में मिटाकर फिर से बनाया है। पहले वह बहुत गहने पहिनती थी, बीच में सब खोल दिये थे- मानो संन्यासिनी हो। लेकिन आज फिर पहने हैं- कुछ थोड़े से ही- पर देखने पर ऐसा लगा कि मानो वे अतिशय कीमती हैं। फिर भी धोती ज्यादा कीमती नहीं है- मिल की साड़ी- आठों पहर घर में पहनने की। माथे के ऑंचल की किनारी के नीचे से निकलकर छोटे-छोटे बाल गालों के इर्द-गिर्द झूल रहे हैं। छोटे होने के कारण ही शायद वे उसकी आज्ञा नहीं मानते! देखकर अवाक्! हो रहा।
राजलक्ष्मी ने कहा, “इतना क्या देख रहे हो?”
“तुमको देख रहा हूँ।”
“नयी हूँ?”
“ऐसा ही तो लग रहा है।”
“और मुझे क्या लग रहा है, जानते हो?”
“नहीं।”
“इच्छा हो रही है कि रतन के चिलम तैयार कर लाने के पहले ही अपने दोनों हाथ तुम्हारे गले में डाल दूँ। डाल देने पर क्या करोगे बताओ?” कहकर हँस पड़ी। बोली, “उठाकर बाहर तो नहीं फेंक दोगे?”
मैं भी हँसी न रोक सका। कहा, “डालकर देख ही लो न! पर इतनी हँसी- कहीं भाँग तो नहीं खा ली है?”
सीढ़ियों पर पैरों की आवाज सुनाई दी। बुद्धिमान रतन जरा जोर से पैर पटकता हुआ चढ़ रहा था। राजलक्ष्मी ने हँसी दबाकर धीरे से कहा, “पहले रतन को चले जाने दो, फिर तुम्हें बताऊँगी कि भाँग खाई है या और कुछ खाया है।” पर कहते-कहते अचानक उसका गला भारी हो गया। कहा, “इस अनजान जगह में चार-पाँच दिन को मुझे अकेला छोड़कर तुम पूँटू की शादी कराने गये थे? मालूम है, ये रात-दिन मेरे किस तरह कटे हैं?”
“मुझे क्या मालूम कि तुम अचानक आ जाओगी?”
“हाँ जी हाँ, अचानक तो कहोगे ही। तुम सब जानते थे। सिर्फ मुझे तंग करने के लिए ही चले गये थे।”
रतन ने आकर हुक्का दिया, बोला, “बात तय हुई है माँ, बाबू का प्रसाद पाऊँगा। रसोइए से खाना लाने के लिए कह दूँ? रात के बारह बज गये हैं।”
बारह सुनकर राजलक्ष्मी व्यस्त हो गयी, “रसोइए से नहीं होगा, मैं खुद जाती हूँ। तुम मेरे सोने के कमरे में थोड़ी-सी जगह कर दो।”
खाने के लिए बैठते वक्त मुझे गंगामाटी के अन्तिम दिनों की बात याद आ गयी। तब यही रसोइया और यही रतन मेरे खाने की देख-रेख करते थे। राजलक्ष्मी को मेरी खबर लेने को वक्त नहीं मिलता था। पर आज इन लोगों से नहीं होगा- रसोई घर में खुद जाना होगा! पर यह उसकी प्रकृति है, वह थी विकृति। समझ गया कि कारण कुछ भी हो, किन्तु उसने अपने को फिर पा लिया है।
खाना खत्म होने पर राजलक्ष्मी ने पूछा, “पूँटू की शादी कैसी हुई?”
“ऑंखों से नहीं देखी पर कानों से सुनी है, अच्छी तरह हुई।”
“ऑंखों से नहीं देखी? इतने दिनों फिर कहाँ थे?”
विवाह की सारी घटना खोलकर सुनायी। सुनकर क्षणभर के लिए गाल पर हाथ रक्खे हुए उसने कहा, “तुमने तो अवाक् कर दिया! आने के पहले पूँटू को कुछ उपहार देकर नहीं आये?”
“मेरी तरफ से वह तुम दे देना।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तुम्हारी तरफ से क्यों, अपनी तरफ से ही लड़की को कुछ भेज दूँगी। पर थे कहाँ, यह तो बताया ही नहीं?”
कहा, “मुरारीपुर के बाबाओं के आश्रम की याद है?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “है क्यों नहीं। वैष्णवियाँ वहीं से तो मुहल्ले-मुहल्ले में भीख माँगने आती थीं। बचपन की बातें मुझे खूब याद हैं।”
“वहीं था।”
सुनकर जैसे राजलक्ष्मी के शरीर में काँटे उठ आये, “उन्हीं वैष्णवियों के अखाड़े में? अरे मेरी माँ!- क्या कहते हो जी? उनके विषय में तो भयंकर गन्दी बातें सुनी हैं!” कहकर वह सहसा उच्च कण्ठ से हँस पड़ी। अन्त में मुँह में ऑंचल दबाकर बोली, “तो तुम्हारे लिए असाध्य’ काम कोई नहीं है। आरा में जो तुम्हारी मूर्ति देखी है- माथे में जटा, सारे शरीर में रुद्राक्ष की माला, हाथों में पीतल के- वह अद्भुत…”
बात खत्म न कर सकी, हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयी। नाराज होकर उसे बैठा दिया। अन्त में हिचकी लेकर मुँह में कपड़ा ठूँसने पर जब बड़ी मुश्किल से हँसी रुकी तो बोली, ‘वैष्णवियों ने तुमसे क्या कहा? चपटी नाकोंवाली और गोदनों वालीं वहाँ बहुत-सी रहती हैं न जी…”
फिर वैसा ही हँसी का फौवारा छूटने वाला था, पर सतर्क कर दिया, “इस बार हँसने पर ऐसा कड़ा दण्ड दूँगा कि कल नौकरों को मुँह न दिखा सकोगी।”
राजलक्ष्मी डर से दूर हट गयी, और मुँह से बोली, “यह तुम सरीखे वीर पुरुषों का काम नहीं है। खुद ही शर्म के मारे बाहर नहीं निकल सकोगे। संसार में तुमसे ज्यादा भीरु पुरुष और कोई है?”
कहा, “तुम कुछ भी नहीं जानतीं लक्ष्मी। तुमने भीरु कहकर अवज्ञा की, पर वहाँ एक वैष्णवी मुझसे कहती थी अहंकारी- दम्भी!”
“क्यों, उसका क्या किया था?”
“कुछ भी नहीं। उसने मेरा नाम रक्खा था ‘नये गुसाईं’। कहती थी, “गुसाईं तुम्हारे उदासीन वैरागी मन की अपेक्षा अधिक दम्भी मन पृथ्वी में और दूसरा नहीं है।”
राजलक्ष्मी की हँसी रुक गयी “क्या कहा उसने?”
“कहा कि इस तरह के उदासी, वैरागी-मन के मनुष्य की अपेक्षा अधिक दम्भी व्यक्ति दुनिया में खोजने पर भी नहीं मिलेगा। अर्थात् मैं दुर्धर्ष वीर हूँ, भीरु कतई नहीं।”
राजलक्ष्मी का चेहरा गम्भीर हो गया। परिहास की ओर उसने ध्यावन ही न दिया। बोली, “तुम्हारे उदासीन मन की खबर उस हरामजादी ने कैसे पा ली?”
“वैष्णवियों के प्रति ऐसी अशिष्ट भाषा बहुत आपत्तिजनक है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “यह जानती हूँ। पर उसने तुम्हारा नाम तो रक्खा नये गुसाईं’, और उसका अपना नाम क्या है?”
“कमललता। कोई-कोई प्रेम से कमलीलता भी कहता है। लोग कहते हैं कि वह जादू जानती है, उसका कीर्तन सुनकर मनुष्य पागल हो जाता है और वह जो चाहती है वही दे देता।”
“तुमने सुना है?”
“सुना है। चमत्कार!”
“उसकी उम्र क्या है?”
“जान पड़ता है तुम्हारे ही बराबर होगी। कुछ ज्यादा भी हो सकती है।”
“देखने में कैसी है?”
“अच्छी। कम-से-कम खराब तो नहीं कही जा सकती। जिन चपटी नाकों और गोदनावालियों को तुमने देखा है, उनके दल की वह नहीं है। वह भले घर की लड़की है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “मैं उसकी बात सुनकर ही समझ गयी। जब तक तुम रहे, तब तक तुम्हारी सेवा करती थी न?”
“हाँ। मेरी कोई शिकायत नहीं है।”
राजलक्ष्मी ने एकाएक नि:श्वास छोड़कर कहा, “सो करने दो। जिस साधना से तुमको पाया जाता है उससे तो भगवान भी मिल सकते हैं। यह वैष्णव बैरागियों का काम नहीं है। मैं डरने जाऊँगी न जाने कहाँ की इस कमललता से? छी:!” कहकर वह उठी और बाहर चली गयी।
मेरे मुँह से भी एक दीर्घ नि:श्वास निकल गयी। शायद कुछ बेमन हो गया था, इस आवाज से होश में आया। मोटे तकिये को खींच चित लेटकर हुक्का पीने लगा।
ऊपर एक छोटा-सा मकड़ा घूम-घूम कर जाल बुन रहा था। गैस के उज्ज्वल प्रकाश में उसकी छाया बहुत बड़े बीभत्स जन्तु की तरह मकान की कड़ियों पर पड़ रही थी। आलोक के व्यवघान से छाया भी कई गुनी काया को अतिक्रम कर जाती है।
राजलक्ष्मी लौटकर मेरे ही तकिये के एक कोने में कोहनियों के बल झुककर बैठ गयी। हाथ लगाकर देखा कि उसके कपाल के बाल भीगे हुए हैं। शायद अभी-अभी ऑंख-मुँह धोकर आई है।
प्रश्न किया, “लक्ष्मी, एकाएक इस तरह कलकत्ते क्यों चली आयी?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “एकाएक कतई नहीं। उस दिन के बाद रात-दिन चौबीस घण्टे मन न जाने कैसा होने लगा कि किसी भी तरह रहा न गया, डर लगा कि कहीं हार्ट-फेल न हो जाय- इस जन्म में फिर कभी ऑंखों से नहीं देख सकूँ” कहकर उसने हुक्के की नली मेरे मुँह से निकालकर दूर फेंक दी। कहा, “जरा ठहरो। धुएँ के मारे मुँह तक दिखाई नहीं देता, ऐसा अन्धकार कर रक्खा है।”
हुक्के की नली तो गयी पर बदले में मेरी मुट्ठी में उसका हाथ आ गया।
पूछा, “बंकू आजकल क्या कहता है?”
राजलक्ष्मी ने जरा म्लान हँसी हँसकर कहा, “बहुओं के आने पर सब लड़के जो कहते हैं, वही।”
“उससे ज्यादा कुछ नहीं?”
“कुछ नहीं तो नहीं कहती, पर वह मुझे दु:ख क्या देगा? दु:ख तो सिर्फ तुम्हीं दे सकते हो। तुम लोगों के अलावा औरतों को सचमुच का दु:ख और कोई भी नहीं दे सकता।”
“पर मैंने क्या कभी कोई दु:ख दिया है लक्ष्मी?”
राजलक्ष्मी ने अनावश्यक ही मेरे कपाल में हाथ लगाया और उसे पोंछकर कहा, “कभी नहीं। बल्कि, मैंने ही आज तक तुमको न जाने कितने दु:ख दिए हैं। अपने सुख के लिए लोगों की नजरों में तुम्हें हेय बनाया, प्रवृत्तिवश तुम्हारा असम्मान होने दिया- उसका ही दण्ड है कि अब दोनों किनारे डूबे जा रहे हैं! देख तो रहे हो न?”
हँसकर कहा, “कहाँ, नहीं तो?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तो किसी ने मन्तर पढ़कर तुम्हारी दोनों ऑंखों पर पर्दा डाल दिया है।” फिर कुछ चुप रहकर कहा, “इतने पाप करके भी संसार में मेरे जैसा भाग्य किसी का कभी देखा है? पर मेरी आशा उससे भी नहीं मिटी। न जाने कहाँ से आ जुटा धर्म का पागलपन और हाथ आई लक्ष्मी अपने पैरों से ठुकरा दी। गंगामाटी से आकर भी चैतन्य नहीं हुआ, काशी से तुम्हें अनादर के साथ बिदा कर दिया।”
उसकी दोनों ऑंखों से टप-टप ऑंसू गिरने लगे, मेरे उन्हें हाथ से पोंछ देने पर बोली, “अपने ही हाथ से विष का पौधा लगाया था, अब उसमें फल लग गये हैं। खा नहीं सकती, सो नहीं सकती, ऑंखों की नींद हराम हो गयी, न जाने कैसे-कैसे असम्बद्ध डर होने लगे जिनका न सिर न पैर। गुरुदेव तब मकान में थे, उन्होंने कोई कवच जैसा हाथ में बाँध दिया, कहा, बेटी, सुबह एक ही आसन पर बैठकर तुमको दस हजार बार इष्ट नाम का जप करना होगा। पर कहाँ कर सकी? मन में तो आग जल रही थी, पूजा पर बैठते ही दोनों ऑंखों से ऑंसुओं की धार बह चलती- उसी समय आई तुम्हारी चिट्ठी और तब इतने दिनों बाद रोग पकड़ा गया।”
“किसी ने पकड़ा- गुरुदेव ने? इस बार शायद उन्होंने फिर एक कवच लिख दिया?”
“हाँजी, लिख दिया है और उसे तुम्हारे गले में बाँधने के लिए कहा है!”
ऐसा ही करना, बाँध देना, अगर तुम्हारा रोग अच्छा हो जाय।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “उस चिट्ठी को लेकर मेरे दो दिन कटे। कैसे कटे यह नहीं जानती। रतन को बुलाकर उसके हाथों चिट्ठी का जवाब भेज दिया। गंगास्नान कर अन्नपूर्णा के मन्दिर में खड़े होकर कहा, “माँ, ऐसा करो कि समय रहते उनके हाथों चिट्ठी पहुँच जाय, मुझे आत्महत्या न करनी पड़े’।” मेरे मुँह की ओर देखकर कहा, “मुझे इस तरह क्यों बाँधा था बोलो?”
सहसा इस जिज्ञासा का उत्तर न दे सका। इसके बाद कहा, “तुम औरतों के द्वारा ही यह सम्भव है। हम यह सोच भी नहीं सकते, समझ भी नहीं सकते।”
“स्वीकार करते हो?”
“हाँ।”
राजलक्ष्मी ने फिर एक बार क्षण-भर के लिए मेरी ओर देखकर कहा, “वाकई विश्वास करते हो कि यह हम लोगों के लिए ही सम्भव है, पुरुष यथार्थ में ऐसा नहीं कर सकते?”
कुछ देर तक दोनों स्तब्ध रहे। राजलक्ष्मी ने कहा, “मन्दिर से बाहर निकल कर देखा कि हमारा पटने का लछमन साहू खड़ा है। मेरे हाथ वह बनारसी कपड़े बेचा करता था। बूढ़ा मुझे बहुत चाहता था और मुझे बेटी कहकर पुकारता था। आश्चर्यान्वित हो बोला, “बेटी, आप यहाँ?” मुझे मालूम था कि कलकत्ते में उसकी दुकान है। कहा, “साहूजी, मैं कलकत्ते जाऊँगी, मेरे लिए एक मकान ठीक कर सकते हो?”
उसने कहा, “ कर सकता हूँ। बंगाली मुहल्ले में मेरा अपना एक मकान है, सस्ते में खरीदा था। चाहो तो उतने ही रुपयों में वह मकान दे सकता हूँ।” साहू धर्म-भीरु व्यक्ति है, उस पर मेरा विश्वास था, राजी हो गयी। घर पर बुलाकर रुपये दे दिए और उसने रसीद लिखकर दे दी। उसी के आदमियों ने यह सब चीजें खरीद दी हैं। छह-सात दिन बाद ही रतन को साथ लेकर यहाँ चली आयी। मन ही मन कहा, “माँ अन्नपूर्णा, तुमने मुझ पर दया की है, नहीं तो यह सुयोग कभी न मिलता। मुझे उनके दर्शन होंगे ही’ और आखिर दर्शन हो गये।”
कहा, “पर मुझे तो जल्दी ही बर्मा जाना होगा लक्ष्मी।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “ठीक है, तो चलो न। वहाँ अभया है, सारे देश में बुद्ध देव के बड़े-बड़े मन्दिर हैं-उन सबको देख आऊँगी।”
कहा, “पर वह बड़ा गन्दा देश है लक्ष्मी, शुचि-वायुग्रस्त लोगों के आचार-विचार वहाँ नहीं चलते। उस देश में तुम कैसे जाओगी?”
राजलक्ष्मी ने मेरे कान पर मुँह रखकर धीरे-धीरे न जाने क्या कहा, अच्छी तरह से समझ में नहीं आया। कहा, “जरा जोर से कहो तो सुनाई दे।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं।”
इसके बाद वह अवश भाव से उसी तरह पड़ी रही। सिर्फ उसके उष्ण धन नि:श्वास मेरे गले पर और मेरे गालों पर आकर पड़ने लगे।
“अजी, उठो। कपड़े बदलकर हाथ-मुँह धो लो। रतन चाय लिये खड़ा है।”
मेरा उत्तर न पाने पर राजलक्ष्मी ने फिर पुकारा, “कितनी देर हो गयी है- अब कब तक सोओगे?”
करवट बदलकर मैंने अवश कण्ठ से कहा, “तुमने सोने ही कब दिया? अभी अभी तो सोया हूँ।”
इतने में कानों में चाय की कटोरी की आवाज पहुँची जिसे रतन मेज पर रखकर शायद लज्जा के मारे भाग गया था।
राजलक्ष्मी ने कहा, “छी छी, तुम कितने बेहया हो। आदमी को झूठमूठ ही अप्रतिभ कर सकते हो! खुद रातभर कुम्भकर्ण की तरह सोये, बल्कि मैं ही जागकर पंखा करती रही कि गर्मी से कहीं तुम्हारी नींद न खुल जाय और मुझसे ही अब ऐसा कहते हो! जल्दी उठो, नहीं तो ऊपर पानी डाल दूँगी।”
उठ बैठा। यद्यपि देर नहीं हुई थी तो भी सबेरा हो गया था, खिड़कियाँ खुली हुई थीं। प्रात:काल के उस स्निग्ध प्रकाश में राजलक्ष्मी की अद्भुत मूर्ति दिखाई दी। उसका स्नान और पूजा-पाठ समाप्त हो चुका है, गंगा-घाट के उड़िया पण्डे का लगाया हुआ सफेद और लाल चन्दन का टीका उसके मस्तक पर है, शरीर पर नयी लाल बनारसी साड़ी है, पूर्व की खिड़की से आई हुई थोड़ी-सी सुनहरी धूप तिरछी होकर उसके मुँह के एक तरफ पड़ रही है, उसके होठों के कोने में सलज्ज कौतुक की दबी हुई हँसी है, फिर भी कृत्रिम क्रोध से सिकुड़ी हुई भौंहों के नीचे चंचल ऑंखों की दृष्टि मानो उछलते हुए आवेग से जगमगा रही है- देखकर आज भी आश्चर्य की सीमा न रही। एकाएक उसने कुछ हँसकर कहा, “अच्छा बताओ तो कि कल से इतने गौर से क्या देख रहे हो?”
“तुम्हीं बताओ न कि क्या देख रहा हूँ?”
राजलक्ष्मी ने फिर कुछ हँसकर कहा, “शायद यह देख रहे हो कि पूँटू मुझसे अधिक सुन्दर है या नहीं, या कमललता देखने में ज्यादा अच्छी लगती है कि नहीं- क्यों है न यही बात?”
“नहीं। यह बात आसानी से कही जा सकती है कि रूप के लिहाज से तो कोई तुम्हारे पास तक नहीं फटक सकता। इसके लिए इतने गौर से देखने की आवश्यकता नहीं।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “अच्छा, रूप की बात जाने दो। पर गुण में?”
“गुण में? हाँ, यह मानना ही होगा कि इस विषय में मतभेद की सम्भावना है।”
“गुणों के बारे में तो सुना है कि वह कीर्तन कर सकती है।”
“हाँ, बहुत बढ़िया।”
“यह तुमने कैसे समझा कि बढ़िया है।”
“वाह,- यह भी नहीं समझ सकता? विशुद्ध ताल, लय, सुर…”
राजलक्ष्मी ने बाधा देकर पूछा, “हाँ जी, ताल किसे कहते हैं?”
“ताल उसे कहते हैं जो बचपन में तुम्हारी पीठ पर पड़ती थी। याद नहीं है?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “क्या कहा-याद नहीं? खूब याद है। कल खामख्वाह भीरु कहकर तुम्हारी निंदा कर डाली। कमललता ने सिर्फ तुम्हारे उदासीन मन का ही पता पाया है, शायद तुम्हारी वीरता की कहानी नहीं सुनी?”
“नहीं, क्योंकि आत्मप्रशंसा खुद नहीं करनी चाहिए। वह तुम सुना देना। पर उसका गला मीठा है, इसमें सन्देह नहीं।”
“मुझे भी सन्देह नहीं है।” कहने के साथ ही एकाएक प्रच्छन्न कौतुक से उसके ऑंखें चमक उठीं। बोली, “हाँ जी, तुम्हें वह गाना याद है? वही जिसे पाठशाला की छुट्टी होने पर तुम गाते थे और हम सब मुग्ध होकर सुनते थे- वही, “कहाँ गये प्राणों के प्राण हे दुर्योधन रे-ए-ए-ए-ए-”
हँसी दबाने के लिए उसने ऑंचल से मुँह को छिपा लिया, मैं भी हँस पड़ा। राजलक्ष्मी ने कहा, “पर गाना बहुत भावमय है। तुम्हारे मुँह से सुनकर मनुष्यों की तो कौन कहे, गाय-बछड़ों तक की ऑंखों में पानी आ जाता था।”
रतन के पैरों की आहट सुनाई दी। अविलम्ब ही दरवाजे के पास खड़े होकर उसने कहा-”चाय का पानी फिर चढ़ा दिया है माँ, तैयार होने में देर नहीं लगेगी।” यह कह कमरे के अन्दर दाखिल हो उसने चाय की कटोरी उठा ली।
राजलक्ष्मी ने मुझसे कहा, “अब देरी मत करो, उठो। इस बार फिर चाय फेंके जाने पर रतन चिढ़ जायेगा। वह अपव्यय सहन नहीं कर सकता, क्यों ठीक है न रतन?”
रतन भी जवाब देना जानता है। बोला, “माँ, आपका बर्दाश्त नहीं कर सकता। पर बाबू के लिए मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ।” कहकर वह चाय की कटोरी लेकर चला गया। क्रोध में वह राजलक्ष्मी को ‘आप’ कहता था, अन्यथा ‘तुम’ कहकर ही पुकारता था।
राजलक्ष्मी ने कहा- “रतन सचमुच तुमको बहुत प्यार करता है।”
“मेरा भी यही खयाल है।”
“हाँ। जब तुम काशी से चले आये तो उसने झगड़ा करके मेरा काम छोड़ दिया। मैंने नाराज होकर कहा, “रतन मैंने तेरे साथ जो सलूक किया, उसका क्या यही प्रतिफल है?” उसने कहा, “माँ, रतन नमकहराम नहीं है। मैं भी बर्मा जा रहा हूँ, बाबू की सेवा करके तुम्हारा ऋण चुका दूँगा।” तब उसका हाथ पकड़ लिया और अपना अपराध स्वीकार कर उसे शान्त किया।”
कुछ ठहरकर कहा, “इसके बाद तुम्हायरे विवाह का निमन्त्रण-पत्र आया।”
बाधा देकर कहा, “झूठ न बोलो। तुम्हारी राय जानने के लिए…”
इस बार उसने भी बाधा देकर कहा, “हाँ जी हाँ, मालूम है। नाराज होकर यदि विवाह करने को लिख देती तो कर लेते न?”
“नहीं।”
“नहीं क्या। तुम लोग सब कुछ कर सकते हो।”
राजलक्ष्मी कहने लगी- “रतन न जाने क्या समझा, केवल यह देखा कि मेरे मुँह की ओर देखकर उसकी ऑंखें छलछला आई हैं। उसके बाद जब उसके चिट्ठी का जवाब डाक में डालने के लिए दिया, तो बोला, “माँ, इस चिट्ठी को डाक में न डाल सकूँगा, इसे मैं खुद ले जाकर उनके हाथ में दूँगा।” मैंने कहा, “व्यर्थ में रुपये खर्च करने से क्या फायदा होगा भइया?” रतन ने हठात् ऑंखें पोंछकर कहा, “माँ, मैं नहीं जानता कि क्या हुआ है, पर तुम्हें देखकर ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो पद्मा का किनारा कमजोर हो गया है- इसका कोई ठीक नहीं कि पेड़-पत्तों और मकानों को लेकर वह कब पानी में ढह जाय। तुम्हारी दया से मेरे अब कोई कमी नहीं है- यह रुपया तुम दोगी तो भी मैं न ले सकूँगा। अगर विश्वनाथ बाबा ने सिर उठाकर देख लिया, तो मेरे गाँव की झोंपड़ी में अपनी दासी को थोड़ा-सा प्रसाद भेज देना, वह कृतार्थ हो जायेगी।”
“नाई-बेटा कितना सयाना है!”
सुनकर राजलक्ष्मी ने होठ दबाकर सिर्फ हँस दिया और कहा- “अच्छा, अब देरी मत करो, जाओ।”
दोपहर को जब वह भोजन कराने बैठी तो मैंने कहा, “कल तो मामूली साड़ी पहने हुई थीं, पर आज सबेरे से ही यह बनारसी साड़ी का ठाठ क्यों है, बताओ भला?”
“तुम्हीं बताओ न?”
“मैं नहीं जानता।”
“जरूर जानते हो। इस साड़ी को पहिचान सकते हो?”
“हाँ, पहचान सकता हूँ। मैंने बर्मा से खरीदकर भेजी थी।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “उसी दिन मैंने विचार कर लिया था कि अपने जीवन के सबसे महान दिन पर इसे पहनूँगी- और कभी नहीं।”
“इसलिए आज पहनी है?”
“हाँ, इसीलिए आज पहनी है।”
हँसकर कहा, “किन्तु वह तो हो गया। अब उतार दो।” वह चुप हो रही। कहा, “सुना है कि तुम अभी-अभी कालीघाट जाओगी?”
“राजलक्ष्मी ने आश्चर्य के साथ कहा, “अभी? यह कैसे हो सकता है? तुम्हें खिला-पिलाकर सुलाने के बाद ही तो छुट्टी मिलेगी।”
“नहीं, तब भी नहीं मिलेगी। रतन कह रहा था कि तुम्हारा खाना-पीना प्राय: बन्द-सा हो गया है। सिर्फ कल जरा-सा खाया था और आज से फिर उपवास शुरू हो गया है। मालूम है, मैंने क्या स्थिर किया है? अब से तुम्हें कड़े शासन में रखूँगा। अब तुम्हारी जो खुशी होगी, न कर सकोगी।”
राजलक्ष्मी ने प्रसन्न मुख से कहा- “ऐसा हो तो जी जाऊँ महाशयजी, तब खूब खाऊँगी-पीऊँगी, किसी झंझट में न पड़ना होगा।”
“इसीलिए आज तुम कालीघाट भी न जा सकोगी।”
राजलक्ष्मी ने हाथ जोड़कर कहा, “तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, सिर्फ आज-भर के लिए माफ कर दो, आयन्दा पुराने जमाने के नवाब-बादशाहों की खरीदी हुई लौंडी की तरह रहूँगी- इससे अधिक तुमसे और कुछ भी न चाहूँगी।”
“अच्छा, यह तो बताओ कि इतना विनय क्यों?”
“विनय नहीं, यह सत्य है। अपनी औकात समझकर नहीं चली, और न तुम्हें मानकर ही चली, इसलिए अपराध के बाद अपराध करते-करते साहस बढ़ गया है। तुम्हारे ऊपर अब उस पहले वाली लक्ष्मी का अधिकार नहीं है- अपने ही दोष से उसे खो बैठी हूँ।”
देखा कि उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गये हैं। कहा, “केवल आज-भर के लिए जाने की आज्ञा दे दो मेरे राजा, मैं माँ की आरती देख आऊँ।”
कहा, “ऐसा ही है तो कल चली जाना। तुम्हीं ने तो कहा, कि कल सारी रात जागकर मेरी सेवा करती रहीं। आज तुम बहुत थकी हुई हो।”
“नहीं, मुझे कतई थकावट नहीं है। केवल आज ही नहीं, कितनी ही बार बीमारी के मौकों पर देखा है कि लगातार रातों के बाद रात जागने पर भी तुम्हारी सेवा में मुझे कोई कष्ट प्रतीत नहीं हुआ। न मालूम मेरी समस्त थकावट को कौन मिटा देता है। कितने दिन से देवी-देवताओं को भूल गयी थी, किसी में भी मन न लगा सकी। मेरे राजा, आज मुझे न रोको, जाने की आज्ञा दे दो।”
“तो चलो, दोनों एक साथ चलें।”
राजलक्ष्मी की दोनों ऑंखें आनन्द से चमक उठीं। बोली, “तो चलो, पर मन ही मन देवता की अवज्ञा तो नहीं करोगे?”
जवाब दिया, “शपथ तो नहीं ले सकता, परन्तु तुम्हारा रास्ता देखते हुए मैं मन्दिर के द्वार पर ही खड़ा रहूँगा। मेरी तरफ से तुम देवता से वर माँग लेना।”
“बताओ, क्या वर माँगूँ?”
अन्न का ग्रास मुँह में डालकर सोचने लगा, पर कोई भी कामना न सूझी।
“तुम्हीं बताओ न लक्ष्मी, मेरे लिए तुम क्या माँगोगी?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “आयु माँगूँगी, स्वास्थ्य माँगूँगी, और यह माँगूँगी कि तुम मेरे प्रति कठिन हो सको जिससे मुझे अधिक प्रश्रय देकर अब फिर मेरा सर्वनाश न करो। करने को ही तो बैठे थे!”
“लक्ष्मी, देखो यह तुम्हारे रूठने की बात है।”
“रूठना तो है ही। तुम्हारी वह चिट्ठी क्या कभी भूल सकूँगी?”
मुँह लटकाकर मैं चुप हो रहा।
उसने अपने हाथ से मेरा मुँह ऊपर उठाकर कहा, “पर इसलिए यह भी मै। नहीं सह सकती। किन्तु तुम कठोर तो हो नहीं सकोगे, तुम्हारा ऐसा स्वभाव ही नहीं है। लेकिन यह काम अब से मुझे ही करना पड़ेगा, अवहेला करने से काम नहीं चलेगा।”
पूछा, “कौन सा काम? और भी निर्जल उपवास?”
राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, “उपवास से राजा नहीं मिलती वरन् अहंकार बढ़ जाता है। अब मेरा पथ वह नहीं है।”
“तब तुमने कौन सा पथ ठहराया है?”
“ठीक नहीं कर सकी हूँ, खोज में घूम रही हूँ।”
“अच्छा, सचमुच तुम्हें यह विश्वास होता है कि मैं कभी कठोर हो सकता हूँ?”
“होता है जी, और खूब होता है।”
“नहीं, कभी नहीं होता, तुम झूठ कहती हो।”
राजलक्ष्मी सिर हिलाकर हँसते हुए बोली, “अच्छा, झूठ ही सही। किन्तु गुसाईंजी, यही तो मेरे लिए विपद की बात हैं तुम्हारी कमललता ने भी क्या खूब नाम रक्खा है! दिनभर “हाँ जी,” “ओ जी,” “सुनो जी,” करते-करते जान जाती थी, अब से मैं पुकारूँगी “नये गुसाईं” कहकर।”
“मजे से।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तब तो शायद कभी गलती से मुझे कमललता ही समझ लोगे- पर इससे भी शान्ति ही मिलेगी। कहो, ठीक है न?”
हँसकर कहा, “लक्ष्मी, मरने पर भी स्वभाव नहीं बदलता। ये ही बादशाही जमाने की लौंडी की-सी बातें हैं, अब तक तो वे तुम्हें जल्लाद के हाथ सौंप देते!”
सुनकर राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी। कहा, “जल्लाद के हाथों में खुद ही अपने आप को सौंप दिया है।”
“पर तुम सदा से इतनी दुष्ट रही हो कि तुम पर शासन करने की शक्ति किसी भी जल्लाद में नहीं है।”
राजलक्ष्मी प्रत्युत्तर में कुछ कहने जा ही रही थी कि एकाएक विद्युत वेग से उठ बैठी, “अरे, यह क्या! दूध कहाँ है? मेरे सिर की कसम, देखो, उठ न जाना।” और यह कहती हुई वह द्रुत गति से बाहर चली गयी।
नि:श्वास छोड़कर कहा, “कहाँ यह, और कहाँ कमललता!”
दो मिनट बाद ही हाथ में दूध की कटोरी लिये आ गयी और पत्तल के पास रखकर पंखे से हवा करने बैठ गयी। कहने लगी, “अब तक मालूम होता था, मेरे मन में कहीं पाप है। इसी कारण गंगामाटी में मन नहीं लगा, और काशी धाम लौट आयी। गुरुदेव को बुलाकर अपने बाल कटवा दिये, गहने उतार डाले और तपस्या में पूर्णत: तल्लीन हो गयी। सोचा, अब कोई चिन्ता नहीं, स्वर्ग की सोने की सीढ़ी तैयार होती ही है!- एक आफत तुम थे, सो भी बिदा हो गये। किन्तु उस दिन से नेत्रों के पानी ने किसी तरह रुकना ही न चाहा। इष्ट मन्त्र सब भूल गयी, देवता अर्न्तध्यारन हो गये, हृदय बिल्कु्ल शुष्क हो गया। भय हुआ कि यदि यही धर्म की साधना है, तो फिर यह सब क्या हो रहा है! अन्त में कहीं पागल तो न हो जाऊँगी!”
मैंने सिर उठाकर उसके मुँह की ओर देखा और कहा, “तपस्या के आरम्भ में देवता भय दिखाया करते हैं। उनके सामने टिके रहने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “सिद्धि की मुझे आवश्यकता नहीं, वह मुझे मिल गयी है।”
“कहाँ मिली?”
“यहीं। इसी मकान में।”
“विश्वास नहीं होता, प्रमाण दो।”
“प्रमाण दूँगी तुम्हें? मुझे क्या गरज पड़ी है?”
“किन्तु क्रीत दासियाँ ऐसी बातें नहीं किया करतीं।”
“देखो, क्रोध न दिलाओ। इस तरह बार-बार ‘क्रीत दासी’ कहकर पुकारोगे, तो अच्छा न होगा।”
“अच्छा जाओ, तुम्हें मुक्त कर दिया, अब से तुम स्वाधीन हुईं।”
राजलक्ष्मी फिर हँसी। बोली, “मैं कितनी स्वाधीन हूँ, सो इस दफा नस-नस में अनुभव कर रही हूँ। कल बातें करते-करते जब तुम सो गये, तब अपने गले पर से तुम्हारा हाथ हटाकर मैं उठ बैठी। हाथ लगाकर देखा, तुम्हारा माथा पसीने से तर हो रहा है, ऑंचल से पसीना पोंछकर मैं पंखा लेकर बैठ गयी। मन्द प्रकाश को तीव्र कर दिया; उस समय तुम्हारे निद्राभिभूत चेहरे की ओर देखकर ऑंखें हटा ही न सकी। इसके पहले क्यों नजर नहीं आया कि यह इतना सुन्दर है! अब तक क्या अन्धी थी? फिर सोचा, यदि यह पाप है तो फिर पुण्य की मुझे आवश्यकता नहीं; और यदि यह अधर्म है तो चूल्हे में जाय मेरी धर्म्मचर्चा; जीवन में यदि यह मिथ्या है तो ज्ञान होने के पूर्व ही किसके कहने से मैंने इन्हें वरण किया था?- अरे यह क्या, पीते क्यों नहीं? सारा दूध वैसा ही पड़ा है!”
“अब नहीं पिया जाता।”
“तो कुछ फल ले आऊँ?”
“नहीं, वह भी नहीं।”
“किन्तु कितने दुबले हो गये हो!”
“यदि दुबला हो भी गया हूँ, तो बहुत दिनों की अवहेलना से। एक दिन में ही सुधारना चाहोगी, तो व्यर्थ मारा जाऊँगा।”
वेदना से उसका चेहरा पीला पड़ गया, कहा, “अब गलती न होगी जो दण्ड मिला है उसे अब नहीं भूलूँगी। यही मेरा सबसे बड़ा लाभ है।” फिर कुछ देर मौन रहकर धीरे-धीरे कहने लगी, “प्रात:काल होने पर उठ आयी। भाग्य से कुम्भकर्ण की निद्रा जल्दी नहीं टूटती वरना लोभवश जगा ही तो डाला था! तब दरबान को भी साथ लेकर गंगा नहाने गयी, मालूम पड़ा, मानो माता ने समस्त ताप धो डाला है। घर आकर जब पूजा करने बैठी तब जाना कि केवल तुम अकेले ही नहीं लौट आये हो, साथ ही आ गया है मेरी पूजा का मन्त्र, आ गये हैं मेरे इष्ट देवता और गुरुदेव, और आ गये हैं मेरे श्रावण के मेघ। आज भी मेरी ऑंखों से जल बहने लगा, किन्तु वे अश्रु हृदय को मसोसकर निचोड़े हुए नहीं थे, बल्कि वह तो आनन्द से उमड़े हुए झरने की धारा थी जिसने मुझे सब ओर से विभोर कर दिया। जाऊँ, कुछ फल ले आऊँ? पास बैठकर अपने हाथ से तराशकर तुम्हें फल खिलाये हुए बहुत दिन हो गये। जाऊँ, क्यों?”
“अच्छा जाओ।”
राजलक्ष्मी वैसी ही द्रुत गति से चली गयी। मैंने एक बार फिर साँस छोड़कर कहा, “कहाँ यह और कहाँ कमललता!”
न जाने किसने जन्म के समय हजारों नामों में से चुनकर इसका राजलक्ष्मी नाम रक्खा था!
दोनों जिस समय कालीघाट से लौटे उस समय रात के नौ बज गये थे। राजलक्ष्मी स्नान कर और कपड़े बदलकर सहज भाव से पास आ बैठी। मैंने कहा, “राजसी पोशाक उतर गयी। चलो, जान बची।”
राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा, “हाँ, वह मेरे लिए राजसी पोशाक ही है, क्योंकि मेरे राजा ने जो दी है। जब मरूँ तब वही मुझे पहना देने के लिए कहना।”
“ऐसा ही होगा। पर तुम क्या आज सारा दिन स्वप्न देखने में ही बिता दोगी? अब कुछ खा लो।”
“खाती हूँ।”
“मैं रतन से कह देता हूँ कि तुम्हारा खाना रसोइए के हाथ यहीं भिजवा दे।”
“यहीं? जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन मैं तुम्हारे सामने बैठकर कैसे खाऊँगी? कभी खाते देखा है?”
“देखा तो नहीं है, पर देखने में बुराई क्या है?”
“भला ऐसा भी कहीं होता है! स्त्रियों का राक्षसी खाना तुम लोगों को हम देखने ही क्यों देंगी?”
“देखो लक्ष्मी, तुम्हारी यह चाल आज नहीं चलेगी। तुम्हें अकारण ही उपवास नहीं करने दूँगा। खाओगी नहीं तो मैं तुमसे नहीं बोलूँगा।”
“न बोलना।”
“मैं भी नहीं खाऊँगा।”
राजलक्ष्मी हँस पड़ी, बोली, “इस बार जीत गये, क्योंकि यह मैं न सह सकूँगी।”
रसोइया भोजन दे गया। फल, फूल, मिष्टान्न। नाम-मात्र भोजन कर वह बोली, “रतन ने शिकायत की है कि मैं खाती नहीं हूँ, परन्तु तुम ही बताओ, मैं खाती क्योंकर? हारे हुए मुकद्दमे की अपील करने कलकत्ते आई थी। रतन नित्य तुम्हारे यहाँ से वापिस आता था पर भय के मारे कुछ पूछने का साहस ही मेरा न होता था, क्योंकि, वह कहीं यह न कह दे कि मुलाकात हुई थी पर बाबू आये नहीं। जो दुर्व्यवहार किया है, उसके कारण मेरे पास तो कहने के लिए कुछ है नहीं।”
“कहने की आवश्यकता भी नहीं है। उस समय स्वयं घर आकर, जिस प्रकार काँचपोका* तिलचट्टे को पकड़ ले जाता है, तुम भी ले जातीं।”
“तिलचट्टा कौन-तुम?”
“यही तो समझता हूँ, ऐसा निरीह जीव संसार में और कौन है?”
एक क्षण चुप रहकर राजलक्ष्मी बोली, “किन्तु तो भी, मन ही मन मैं जितना तुमसे डरती हूँ उतना और किसी से नहीं।”
“यह परिहास है। पर इसका कारण पूछ सकता हूँ?”
राजलक्ष्मी फिर कुछ क्षण तक मेरी ओर देखती रही। बोली, “कारण यह है कि मैं तुम्हें भलीभाँति पहचानती हूँ। मैं जानती हूँ कि स्त्रियों के प्रति तुम्हारी सचमुच की आसक्ति जरा भी नहीं है, जो कुछ है वह केवल दिखाने का शिष्टाचार है। संसार में किसी के प्रति भी तुम्हें मोह नहीं है। यथार्थ प्रयोजन भी तुम्हें उसका नहीं है। तुम्हारे ‘ना’ कह देने पर किस प्रकार तुम्हें लौटाऊँगी?”
“लक्ष्मी, इसमें थोड़ी-सी भूल हो गयी है। पृथ्वी की एक वस्तु में आज भी मेरा मोह है, और वह हो तुम। केवल यहीं पर ‘ना’ नहीं कहा जाता। तुमने अब तक श्रीकान्त की यही बात न जानी कि केवल इसके लिए वह दुनिया की सब वस्तुओं को त्याग सकता है।”
“हाथ धो आऊँ,” कहकर राजलक्ष्मी जल्दी से उठकर चली गयी।
दूसरे दिन, और दिनान्त के सब काम निबटाकर, राजलक्ष्मी मेरे पास आ बैठी। कहने लगी, “कमललता की कहानी सुनूँगी, सुनाओ।” जो कुछ जानता था, सब सुना दिया, केवल अपने सम्बन्ध में कुछ कुछ छोड़ दिया, क्यों कि उससे गलतफहमी होने की सम्भावना थी।
मन लगाकर आद्योपान्त सारी बातें सुनकर उसने धीरे से कहा, “यतीन की मृत्यु ही उसे सबसे अधिक चुभी है, उसी के दोष से वह मारा गया।”
“उसका क्या दोष?”
“दोष कैसे नहीं है? अपना कलंक छुपाने के लिए उसी से आत्महत्या करने में सहायता माँगी थी। उस दिन तो यतीन स्वीकार नहीं कर सका, किन्तु एक दिन अपना कलंक छिपाने के लिए उसे भी वही मार्ग सबसे पहले नजर आया। ऐसा ही होता है, इसीलिए पाप में सहायता के लिए किसी मित्र को नहीं बुलाना चाहिए। इससे एक का प्रायश्चित दूसरे के गले पड़ जाता है। वह स्वयं तो बच गयी, किन्तु उसके स्नेह का धन मर गया।”
“युक्ति कुछ समय में नहीं आई, लक्ष्मी।”
“तुम कैसे समझोगे? समझा है कमललता ने और तुम्हारी राजलक्ष्मी ने।”
“ओ:-ऐसा है!”
“नहीं तो क्या। भला कहो तो हमारा जीवन कितना-सा है, उसका क्या मूल्य है, जब हम देखती हैं तुम्हारी तरफ…।”
“किन्तु कल तुमने ही तो कहा था कि मेरे मन की सब कालिख साफ हो गयी और अब कोई ग्लानि नहीं है, तो वह क्या झूठ था?”
“झूठ ही तो था। कालिख तो मरने पर ही पुछेगी, उससे पहले नहीं। मरना भी चाहा था, केवल तुम्हारे ही कारण न मर सकी।”
× हरे रंग का एक पतिंगा
“सब मालूम है, पर तुम यदि इसे लेकर बारम्बार दु:ख दोगी तो मैं इस तरह भाग जाऊँगा कि फिर ढूँढ़ने पर भी न पाओगी।”
राजलक्ष्मी ने भयभीत होकर मेरा हाथ पकड़ लिया और बिल्कुरल छाती के पास खिसक आयी। बोली, “अब ऐसी बात कभी मुँह पर भी नहीं लाना। तुम सब कुछ कर सकते हो, तुम्हारी निष्ठुरता कहीं भी बाधा नहीं मानती।”
“तब कहो कि अब ऐसी बात न कहोगी?”
“नहीं कहूँगी।”
“बोलो, सोचूँगी भी नहीं।”
“तुम भी कहो कि अब मुझे छोड़कर कभी नहीं जाओगे।”
“मैं तो कभी गया नहीं लक्ष्मी, और जब कभी गया हूँ तब केवल इसीलिए कि तुमने मुझे नहीं चाहा।”
“वह तुम्हारी लक्ष्मी नहीं, कोई और होगी।”
“उस किसी और से ही तो आज भय लगता है।”
“नहीं, अब उससे मत डरो, वह राक्षसी मर चुकी है।”
यह कहकर उसने मेरे उसी हाथ को जोर से पकड़ लिया और चुपचाप बैठी रही।
पाँच-छह मिनट तक इसी प्रकार बैठे रहने के पश्चात उसने दूसरी चर्चा छेड़ दी, कहा, “तुम क्या सचमुच बर्मा जाओगे?”
“हाँ, सचमुच ही जाऊँगा।”
“जाकर क्या करोगे- नौकरी? पर हम लोग तो सिर्फ दो ही प्राणी हैं- हम लोगों की आवश्यकताएँ ही कितनी हैं?”
“किन्तु उन कितनी का भी तो प्रबन्ध करना होगा?”
“वह भगवान दे देंगे। पर तुम नौकरी नहीं करने पाओगे, यह तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नहीं है।”
“नहीं कर सकूँगा तो वापिस चला आऊँगा।”
“जानती हूँ, वापिस तो आना ही पड़ेगा, केवल मुझको कष्ट देने के लिए हठपूर्वक इतनी दूर ले जाना चाहते हो।”
“चाहो तो कष्ट नहीं भी करो।”
राजलक्ष्मी ने एक क्रुद्ध कटाक्ष फेंककर कहा, “देखो, चालाकी मत करो!”
मैंने कहा, “चालाकी नहीं करता, चलने से तुम्हें वास्तव में कष्ट होगा। भोजन पकाना, बर्तन माँजना, घर-बार साफ करना, बिछौने बिछाना…।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तब दाई-नौकर क्या करेंगे?”
“दाई-नौकर कहाँ? उनके लिए रुपये कहाँ हैं?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “अच्छा न सही। तुम चाहे कितना ही भय दिखाओ, लेकिन मैं तो चलूँगी ही।”
“तो चलो। केवल मैं और तुम, काम के मारे न मिलेगा झगड़ा करने का अवसर और न मिलेगी पूजा तथा उपवास करने की फुर्सत।”
“न मिलने दो। मैं क्या काम से डरती हूँ?”
“सच है; डरती नहीं हो, पर तुम कर न सकोगी। दो दिन बाद ही वापिस आने के लिए आफत मचाना शुरू कर दोगी।”
“इसमें भी क्या कोई डर है? साथ लेकर जाऊँगी तथा साथ ही वापिस ले आऊँगी। कम से कम तुम्हें छोड़कर तो न आना होगा।” कहकर वह एक क्षण के लिए कुछ सोचने लगी, फिर बोली, “हाँ, यह ठीक रहेगा। एक छोटे से घर में केवल हम और तुम रहेंगे, न कोई दास होगा न दासी। जो खाने को दूँगी वही खाओगे, जो पहनने को दूँगी वही पहनोगे। नहीं? तुम देखना, मेरी आने की शायद इच्छा ही न होगी।”
सहसा वह मेरी गोदी में अपना सिर रखकर लेट गयी और बहुत देर तक ऑंखें बन्द कर निस्तब्ध पड़ी रही।
“क्या सोच रही हो?”
राजलक्ष्मी नेत्र खोलकर किंचित् मुस्कराई और बोली, “हम लोग कब चलेंगे?”
“इस मकान की कुछ व्यवस्था कर दो, फिर जिस दिन चाहो प्रस्थान कर दो।”
उसने सिर हिलाकर स्वीकृति जताई और फिर नेत्र मूँद लिये।
“फिर क्या सोच रही हो?”
राजलक्ष्मी ने ताकते हुए कहा, “सोच रही हूँ कि एक बार मुरारीपुर नहीं जाओगे?”
“हाँ, विदेश जाने से पूर्व एक बार उन्हें मिल आने का वचन तो दिया था।”
“तो चलो, कल ही दोनों चलें।”
“तुम भी चलोगी?”
“क्यों, इसमें डर क्या है? तुम्हें चाहती है कमललता और उसे चाहते हैं हमारे गौहर दादा। यह हुआ खूब है!”
“यह सब तुमसे किसने कहा?”
“तुम्हीं ने।”
“न, मैंने नहीं कहा।”
“हाँ, तुम्हीं ने कहा है, केवल तुम्हें यह खयाल नहीं है कि कब कहा है।” सुनकर संकोच से व्याकुल हो उठा। कहा, “खैर, जो कुछ भी हो, तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं है।”
“क्यों नहीं है?”
“उस बेचारी का मजाक करके तुम उसे तंग कर डालोगी।”
राजलक्ष्मी की भृकुटी तन गयी, उसने क्रोधित स्वर में कहा, “अब तक तुम्हें यही परिचय मिला है? मैं क्या उसे इसीलिए लज्जित करूँगी कि वह तुमसे प्रेम करती है? तुमसे प्रेम करना क्या अपराध है? मैं भी तो स्त्री हूँ। यह भी तो हो सकता है कि जाने पर मैं भी उसे चाहने लग जाऊँ!”
“तुम्हारे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है लक्ष्मी। चलो, तुम भी चलो।”
“हाँ, चलो, कल सवेरे की गाड़ी से ही हम दोनों चल दें। तुम कोई चिन्ता न करो, इस जीवन में मैं तुम्हें कभी दु:खी न करूँगी।”
इतना कहकर वह एक तरह विमना-सी हो गयी। ऑंखें बन्द हो गयीं, साँस रुकने लगा, सहसा न जाने वह कितनी दूर चली गयी।
भयभीत होकर उसे हिलाकर पूछा, “यह क्या?”
राजलक्ष्मी ऑंखें खोलकर किंचित् मुस्कराई और बोली, “कहाँ, कुछ भी तो नहीं!”
आज उसकी यह हँसी भी न जाने मुझे कैसी लगी!