तारास बुल्बा (उपन्यास) : निकोलाई गोगोल Part 1

तारास बुल्बा (उपन्यास) : निकोलाई गोगोल Part 1

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“अच्छा, ज़रा घुमो तो, बेटा! अच्छे ख़ासे चिड़ीमार लगते हो तुम भी! यह क्या पादरियों के नीचे पहनने के लबादे जैसी पोशाक पहन रखी है तुमने? क्या अकादमी में सभी लोग ऐसे ही कपड़े पहनते हैं?”
इन शब्दों से बूढ़े बुल्बा ने अपने दोनों बेटों का स्वागत किया जो कीएव की धर्मपीठ में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद बाप के पास अपने घर लौट आये थे।
उसके बेटे अभी-अभी अपने घोड़ों पर से उतरे थे। दोनों का शरीर गठीला था, दोनों देखने में शर्मीले लगते थे, जैसा कि धर्मपीठ में पढ़नेवाले सभी नौजवान लगते हैं। उनके दृढ़ता-भरे स्वस्थ चेहरों पर मर्दानगी का सबूत देनेवाले दाढ़ी के प्रथम कोमल रोएं उग आये थे, जिनका अभी तक उस्तुरे से पाला नहीं पड़ा था। बाप के इस तरह स्वागत करने पर वे दोनों बुरी तरह सिटपिटा गये थे और ज़मीन पर नज़रें गड़ाये चुपचाप खड़े थे।
“ठहरो! मैं तुम्हें ज़रा अच्छी तरह देख लूं,”वह उन्हें घुमा-घुमाकर कहता रहा। “कैसे लंबे-लंबे कोट पहन रखे हैं तुम लोगों ने! कमाल के कोट हैं! ऐसे तो दुनिया में किसी ने पहले कभी देखे भी न होंगे। ज़रा दौड़कर तो दिखाओ, तुममें से एक! मैं देखना चाहता हूँ कि तुम इसके दामन में उलझकर कैसे गिरते हो।”
“हम लोगों पर हँसिये नहीं, पापा, हँसिये नहीं!”आखि़रकार बड़े बेटे ने कहा। “देखो तो कैसा घमंडी हो गया है! भला क्यों न हँसूं मैं?””इसलिए कि, हालांकि आप हमारे बाप हैं, अगर आप हँसेंगे तो मैं, भगवान की क़सम खाकर कहता हूँ, आपकी पिटाई कर दूंगा!”
“क्या! शैतान की औलाद! तू अपने बाप को मारेगा?…”तारास बुल्बा ने चिल्लाकर कहा, और आश्चर्यचकित होकर कुछ क़दम पीछे हट गया।
“आप हमारे बाप हैं तो क्या हुआ? मैं किसी को इस बात की इजाज़त नहीं दे सकता कि वह मेरा अपमान करे।”
“और तुम मुझसे किस तरह लड़ोगे? अपने घूंसों से , क्यों?”
“किसी भी तरह।”
“अच्छा तो फिर घूंसों से ही सही!”तारास बुल्बा अपनी आस्तीनें चढ़ाता हुआ बोला। “मैं भी देखता हूँ कि तुम घूंसे चलाने में कितने मर्द हो।”और बाप-बेटे इतने दिन तक अलग रहने के बाद मिलने पर ख़ुश होकर एक-दूसरे को गले लगाने के बजाय एक-दूसरे की पसलियों पर, पेट पर और सीने पर मुक्कों की बौछार करने लगे। कभी वे पीछे हटकर एक-दूसरे को घूरने लगते, और फिर थोड़ी ही देर में नया हमला कर बैठते।
“देखो तो, भले लोगो! बूढ़े की तो मति मारी गयी है! बिल्कुल पागल हो गया है!”लड़कों की पीले चेहरेवाली, दुबली-पतली, नेक मां चिल्लायी, वह दरवाज़े पर खड़ी थी और उसे अभी तक अपने प्यारे बच्चों को गले लगाने का भी मौक़ा नहीं मिला था। “बच्चे अभी तो घर आये हैं, साल-भर से हमने उन्हें देखा नहीं है, और इसके दिमाग़ में न जाने क्या समायी कि उनसे लड़ने लगा!”
“अरे, अच्छा ख़ासा लड़ता है!”बुल्बा ने रुककर कहा। “भगवान की क़सम, बहुत अच्छा लड़ता है!”अपने कपड़े झाड़ते हुए वह कहता रहा। “इतना अच्छा लड़ता है कि शायद मेरे लिए बेहतर यही था कि मैं उससे लड़ता ही नहीं। आगे चलकर बहुत अच्छा कज़ाक बनेगा! अच्छा, बेटा, घर आने पर तुम्हारा स्वागत! अब अपने बाप को एक प्यार तो दे दो!”और बाप-बेटे एक-दूसरे को चूमने लगे। “यह बात हुई, बेटा! जैसे मेरी धुनाई की है उसी तरह सबकी पिटाई करना। किसी के साथ दया मुरव्वत न करना! लेकिन तुम्हारी यह पोशाक है बिल्कुल मसख़रांे जैसी। यह यहां रस्सी क्या लटक रही है? और तुम, बुद्धू, तुम ख़ाली हाथ झुलाते वहां खड़े क्या कर रहे हो?”उसने छोटे बेटे को पुकारकर कहा। “आओ, शिकारी कुत्ते की औलाद, तुम मेरी धुनाई नहीं करोगे?”
“तुम्हें तो बस इसके अलावा कुछ सूझता ही नहीं है!”माँ ने चिल्लाकर कहा, उसने इसी बीच अपने छोटे बेटे को सीने से लगा लिया था। “भला किसी ने ऐसा सुना है कि बेटे ख़ुद अपने बाप से लड़ें? जैसे उसके पास करने को इससे अच्छा कोई काम है ही नहींः अभी बच्चा है, इतनी दूर से आया है, थक गया है…”वह बच्चा बीस बरस से ज़्यादा उम्र का था और अच्छा ख़ासा छः फ़ुट लंबा था। “कुछ आराम करेगा, कुछ खायेगा, तुम्हें लड़ने की पड़ी है!”
“और, तुम बल्किुल दुधमुंहे हो, मैं समझ गया!”बुल्बा बोला। “अपनी माँ की बात न सुनना, बेटाः वह तो औरत है, कुछ भी नहीं जानती। क्या तुम जि़ंदगी-भर दूध-पीते बच्चे बने रहना चाहते हो?”खुला मैदान और बढि़या घोड़ा-यह होगी तुम्हारी जि़ंदगी। इस तलवार को देखो- यह है तुम्हारी माँ! तुम्हारे दिमाग़ में जो कुछ ठूंस दिया गया है वह सब कूड़ा है- तुम्हारी अकादमी, तुम्हारी सारी किताबें, और फ़लसफ़ा और न जाने क्या-क्या, मैं उन सब पर थूकता हूँ!”यहां पर बुल्बा ने एक ऐसा शब्द कहा जो छपाई में इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। “बेहतर यही होगा कि हद से हद अगले हफ़्ते मैं तुम्हें ज़ापोरोज्ये भेज दूं। वहीं तुम्हें वह शिक्षा मिल सकेगी जिसकी तुम्हें ज़रूरत है! वहां तुम्हारे मतलब का स्कूल है, वहीं तुम्हें अक़ल मिलेगी!”
“क्या ये लोग हफ़्ते-भर ही घर पर रहेंगे?”मरियल बुढि़या ने आंखों में आंसू भरकर उदास भाव से पूछा। “बेचारे लड़कों को अपने घर लौटने की खु़शी मनाने का भी मौक़ा नहीं मिलेगा, खुद अपने घर को जानने-पहचानने का भी वक़्त नहीं मिलेगा, और मुझे उन्हें देखकर अपनी आंखें सेंकने का भी वक़्त नहीं मिलेगा!”
“बंद कर अपना यह रोना-धोना, बुढि़या! कज़ाक अपनी जि़ंदगी औरतों के साथ बिताने के लिए पैदा नहीं होते। तुम्हारा तो जी चाहता है कि इन दोनों को अपने लहंगे में छिपा लो, और बैठकर उन्हें वैसे ही सेती रहो जैसे मुर्गी अंडे सेती है। अब जाओ, जाकर घर में जो कुछ है वह मेज़ पर लगा दो। हमें तुम्हारी पकौडि़याँ, शहद के केक, खसखस की टिकियाँ और तुम्हारी पेस्ट्रियाँ नहीं चाहिये। हमें चाहिये पूरी भेड़, एक बकरा, चालीस साल पुरानी शहद की शराब, हां, और ढेरों वोद्का, जिसमें तुम्हारा कोई ताम-झाम, तुम्हारे मुनक़्क़े और कोई कूड़ा-करकट न हो, बल्कि ख़ालिस झागदार वोद्का जो चमकती है और मस्त होकर सनसनाती है।”
बुल्बा अपने बेटों को घर के सबसे अच्छे कमरे में ले गया, जहां से लाल हार पहने हुए दो खूबसूरत नौकरानियां, जो घर ठीक-ठाक कर रही थीं, जल्दी से निकलकर भागीं। वे या तो अपने नौजवान मालिकों के आ जाने से डर गयी थीं, जो सबके साथ इतना सख़्ती से पेश आते थे, या वे सिर्फ़ किसी मर्द को देखते ही चीख़कर भाग जाने और बाद में देर तक शरमाकर आस्तीन से अपना मुंह छिपा लेने के औरतों के आम चलन को निभाना चाहती थीं। कमरा उस ज़माने की पसंद के हिसाब से सजा हुआ था, उस ज़माने की जो सिर्फ़ उन गीतों और लोककथाओं में जि़ंदा है, जिन्हें अब उक्राइन में वे अंधे, दाढ़ीवाले बूढ़े गवैये भी नहीं गाते हैं जो पहले उन्हें लोगों की भीड़ के बीच घिरे रहकर बंदूरे की हल्की झंकर की लय पर गाया करते थे, युद्ध और कठोरता के उस ज़माने के फ़ैशन के हिसाब से जब उक्राइन के सवाल पर अपनी पहली लड़ाइयाँ लड़ रहा था। दीवारों पर, फ़र्श पर और छत पर बड़े सुथरे ढंग से रंगीन मिट्टी पुती हुई थी। दीवारों पर तलवारें, चाबुकें, चिडि़यां और मछलियां पकड़ने के जाल, बंदूकें, पच्चीकारी के बहुत नफ़ीस कामवाला बारूद रखने का खोखला सींग, एक सुनहरी लगाम, और चांदी की कडि़योंवाली बागें टंगी हुई थीं। कमरे की खिड़कियाँ छोटी-छोटी थीं जिनमें गोल कटे हुए धुंधले शीशे लगे थे, जैसे कि आज-कल सिर्फ़ बहुत पुराने गिरजाघरों में पाये जाते हैं और जिनके पार सिर्फ़ खिड़की के कांचदार पट को ऊपर उठाकर ही देखा जा सकता था। खिड़कियों और दरवाज़ों के चारों ओर लाल रंग की गोट थी। कोनों में खुली अल्मारियों के पटरों पर हरे और नीले कांच की हांडि़याँ, बोतलें और सुराहियां, चांदी के नक़्क़ाशीदार जाम और भांति-भांति की-वेनिस की, तुर्की की, चेर्केस की-कारीगरी के सुनहरे प्याले रखे हुए थे, जो बुल्बा के क़ब्जे़ में अलग-अलग तरीक़ों से, तीन-चार हाथों से होते हुऐ, पहुंच थे, जो कि जांबाज़ी के उन दिनों में बिल्कुल आम बात थी। कमरे में चारों दीवारों के किनारे बिछी हुई बर्च-वृक्ष की लकड़ी की बेंचें, सामनेवाले कोने में देव-प्रतिमाओं के नीचे रखी हुई बड़ी-सी मेज़, चौड़ा-सा चूल्हा जिसमें कई ताक़ थे जिस पर रंग-बिरंगी टाइलें लगी हुई थीं, इन सब चीज़ों से हमारे दोनों नौजवान भली भांति परिचित थे, जो हर साल छुट्टियों में पैदल चलकर घर आते थे। हां, वे पैदल ही चलकर आते थे, क्योंकि उनके पास अभी तक अपने घोड़े नहीं थे और इसलिए कि धर्मपीठ में पढ़नेवाले लड़कों को घोड़े की सवारी करने देने का दस्तूर नहीं था। अपनी मर्दानगी सबूत देने के लिए उनके सिर पर सिर्फ़ चोटियां थीं, जिन्हें हथियार लेकर चलनेवाले किसी भी कज़ाक को खींचने का अधिकार होता है। धर्मपीठ की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद ही बुल्बा ने अपने झुंड में से उन्हें दो जवान घोड़े भिजवा दिये थे।
अपने बेटों की वापसी के उपलक्ष्य में बुल्बा ने उन सारे सैनिकों और अपनी रेजिमेंट के उन सारे अफ़सरों को बुलवा भेजा था जो उस वक़्त अपने घरों पर थे, और जब उनमें से दो उसके पुराने साथी कैप्टेन ùित्रो तोव्काच के साथ आ पहुंचे तो उसने उसी वक़्त यह कहकर उनसे अपने बेटों का परिचय कराया, “देखो तो, कितने अच्छे छोकरे हैं! मैं इन्हें जल्दी ही सेच भेजनेवाला हूँ।”मेहमानों ने बुल्बा को और उन दोनों नौजवानों को भी बधाई दी और कहा कि वे ठीक ही कर रहे थे, कि किसी भी नौजवान के लिए ज़ापोरोज्ये के सेच से अच्छा स्कूल था ही नहीं।
“अच्छा, अफ़सर भाइयों, तुम लोग जिसका जहां जी चाहे मेज़ पर बैठ जाओ। अब, बेटों, सब से पहले हम थोड़ी-सी वोद्का पियें!”बुल्बा ने ये शब्द कहे। “हम पर भगवान की ड्डपादृष्टि बनी रहे! तुम्हारी सेहत के नाम, मेरे बेटोः तुम्हारी, ओस्ताप, और तुम्हारी, अन्द्रेई। भगवान लड़ाई में तुम्हें भाग्यशाली रखे कि तुम सारे विधर्मियों को नीचा दिखा सकोः तुर्कों को, और तातारों को, और पोलिस्तानियों को भी – अगर पोलिस्तानी हमारे धर्म के खि़लाफ़ कोई हरकत शुरू करें! अच्छा, अपने प्याले बढ़ाओ, वोद्का अच्छी है न? लैटिन में वोद्का को क्या कहते हैं? अरे, देख लिया न, बेटा, लैटिन लोग तो बेवकू़फ़ थेः उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि दुनिया में वोद्का भी होती है। क्या नाम था उस आदमी का जो लैटिन में कविताएं लिखता था? मैं बहुत विद्वान नहीं हूँ, इसलिए मुझे ठीक से पता नहीं है- होरेस था न?”
“ऐसी ही हैं इनकी बातें!”बड़े बेटे ओस्ताप ने सोचा। “सब मालूम है इस बूढ़े कुत्ते को, फिर भी बनता ऐसा है जैसे कुछ जानता ही नहीं।”
“मेरा ख़्याल है कि मठाधीश ने तो तुम लोगों को वोद्का सूंघने भी नहीं दी होगी,”तारास कहता रहा। “सच-सच बताना, मेरे बच्चो, बर्च की और चेरी की हरी कमचियों से पीठ पर और कज़ाक के पास जो कुछ भी और होता है उस पर तुम्हारी अच्छी तरह पिटाई होती थी न?”और शायद जब तुम लोग ज़रूरत से ज़्यादा चालाक हो गये होगे तब वे कोड़ों से भी तुम्हारी मरम्मत करते होंगे? और, मैं समझता हूँ, सनीचर के दिन ही नहीं, बल्कि उसके अलावा बुध और जुमेरात को भी?”
“बीते दिनों की बातें करने से कोई फ़ायदा नहीं,”ओस्ताप ने शांत भाव से जवाब दिया। “जो बीत गया सो बीत गया।”
“अब कोई कोशिश करके तो देखो,”अन्द्रेई बोला, “अब कोई आदमी मुझे हाथ तो लगाये! अरे, जैसे ही किसी तातार पर मेरी नज़र पड़ेगी मैं उसे दिखा दूंगा कि कज़ाक तलवार क्या चीज़ होती है!”
“क्या ख़ूब कहा, बेटे, खूब कहा, भगवान की क़सम! और चूंकि अब ऐसी बात है तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा! भगवान की क़सम चलूंगा। मैं यहां रहकर आखि़र करूंगा क्या? कूटू बोऊंगा, घर की रखवाली करूंगा, भेड़ंे और सुअर पालूंगा और अपनी बीवी के लहंगे पहनूंगा? भाड़ में जाये वह! मैं कज़ाक हूँ, मैं यह कुछ भी बर्दाश्त नहीं कर सकता! अगर इस वक़्त कोई लड़ाई नहीं हो रही है तो क्या हुआ? मैं यों ही तुम्हारे साथ ज़ापोरोज्ये जाऊंगा और वहां मौज उड़ाऊंगा। क़सम खाकर कहता हूँ, मैं ऐसा ही करूंगा।”और बूढ़े बुल्बा का जोश बढ़ता गया, यहां तक कि आखि़रकार जब उसे सचमुच गु़स्सा आ गया तो वह मेज़ पर से उठा, और बड़े रोब से उसने अपना पांव पटका। “हम कल ही जायेंगे! हम इसे टालें क्यों? यहां हम किस दुश्मन का इंतज़ार कर सकते हैं? हमें इस झोंपड़ी से क्या सरोकार? इन सब चीज़ों से हमारा क्या मतलब? इन सब भीड़े-बर्तनों से हमें क्या काम?”ये शब्द कहकर उसने हांडि़यों और बोतलों को चूर-चूर करके ज़मीन पर फेंकना शुरू कर दिया।
बेचारी बुढि़या, जो अपने शौहर की हरकतों की आदी हो चुकी थी, बेंच पर बैठी उदास भाव से देखती रही। उसकी कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी, लेकिन जब उसने अपने लिए इतना डरावना फैसला सुना तो वह अपने आंसू न रोक सकी, वह एकटक अपने बच्चों को देखती रही जिनसे उसे इतनी जल्दी बिछुड़ना था, और उसकी आंखों में और उसके कसकर भिंचे हुए होंठों में जो मूक निराशा कांपती हुई मालूम हो रही थी, उसकी तीव्रता को शब्दों में बयान नहीं किया जा कसता।
बुल्बा बला का जि़द्दी था। वह उन पात्रों में से था जो सिर्फ़ भयानक पंद्रहवी शताब्दी में यूरप के आधे ख़ानाबदोश कोने में उभर सकते थे, जब पूरा आदिम दक्षिण रूस, जिसे उसके राजे-रजवाड़े छोड़कर चले गये थे, मंगोलियाई लुटेरों के प्रचंड हमलों की वजह से तबाह हो गया था और जलाकर राख कर दिया गया था, जब अपने घर-बार लुट जाने पर यहां के लोग ज़्यादा दिलेर हो गये थे, जब वे अपने घरों के खंडहरों पर ताक़तवर दुश्मनों और लगातार ख़तरों के बीच फिर से बस गये थे और उन ख़तरों का बेझिझक सामना करने के आदी हो गये थे और इस बात को भूल गये थे कि दुनिया में डर जैसी भी चीज़ होती है, जब स्लाव लोगों की आत्माओं में, जो कई शताब्दियों तक शांतिमय रही थी, युद्ध की ज्वाला धधक उठी थी और उन्होंने कज़ाकियत को जन्म दिया, जो रूसी चरित्र में से निकली एक उन्मुक्त, उद्वेग-भरी शाख थी- और जब नदियों के सारे तटों पैदल या नाव पर पार उतरने के घाटों, और नदियों वाले इलाक़े के हर उपयुक्त स्थान पर कज़ाक थे,जिनकी संख्या भी किसी को नहीं मालूम थी, और उनके दिलेर साथियों ने सुल्तान के उनकी संख्या पूछने पर ठीक ही जवाब दिया थाः “कौन जाने! हम तो सारे स्तेपी में फैले हुए हैं, हर टीले पर आपको एक कज़ाक मिल जायेगा।”यह सचमुच रूसी शक्ति की एक सराहनीय अभिव्यक्ति थी, जो लोगों के सीनों में से घोर मुसीबत के फ़ौलाद से ढालकर निकाली गयी थी। पुरानी जागीरों और छोटे-छोटे शहरों की जगह, जो शिकारियों और हंकवा करनेवालों से भरे हुए थे, छोटे-मोटे रजवाड़ों की जगह, जो एक-दूसरे के खि़लाफ़ लड़ते रहते थे और आपस में अपने शहरों की अदला-बदली करते रहते थे, भयंकर बस्तियां बसीं और हरदम लड़ाई में जूझे रहनेवाले कुरेन¹ उभरे जो इस आधार पर एकता के सूत्र में बंधे हुए थे कि उन सबके सामने एक जैसा ख़तरा था और उन सभी को विधर्मी आक्रमणकारियों से एक जैसी नफ़रत थी। जैसा कि हम सब इतिहास से जानते हैं। इन्हीं के निरंतर संघर्ष और अशांति से भरी ज़िंदगी की बदौलत यूरप उन पाशविक अतिक्रमणों से बच सका जो किसी भी वक़्त उसे अपने लपेट में ले सकते थे। पोलैंड के राजाओं ने, जो रजवाड़ों की जगह इन विस्तृत भूखंडों के सार्वभौम शासक बने, भले ही वे उनसे बहुत दूर थे और बहुत कमज़ोर थे, कज़ाकों के मूल्य को और उनके लड़ाकू और चौकस जि़ंदगी के ढर्रे के महत्त्व को पहचाना। उन्होंने इन लोगों को सराहा और उनके तौर-तरीकों को बढ़ावा दिया। उनके दूरस्थ शासन के अंतर्गत ख़ुद कज़ाकों के बीच से चुने गये हेटमैनों ने इन बस्तियों और कुरेनों को रेजिमेंटों और सैनिक क्षेत्रों में बदल दिया। यह कोई बाक़ायदा स्थायी सेना नहीं थी, उसका कहीं नाम-निशान नहीं था, लेकिन युद्ध छिड़ जाने पर सिर्फ़ आठ दिन के अंदर हर आदमी सिर से पांव तक हथियारों से लैस होकर अपने-अपने घोड़े पर सवार हाजि़र हो जाता था, और राजा से बस एक ड्यूकट ही पाकर कोई भी सेवा करने को तत्पर रहता था, और दो हफ़्तों के अंदर इस तरह लामबंदी हो जाती थी जैसे कोई भी नियमित विशाल सेना संगठित नहीं की जा सकती थी। लड़ाई ख़त्म हो जाने पर ये सिपाही अपने-अपने खेतों और चरागाहों में द्नेपर नदी के घाटों पर लौट जाते थे, मछलियों का शिकार करने लगते थे, व्यापार करने लगते थे, या बियर बनाने लगते थे, और एक बार फिर आज़ाद कज़ाक बन जाते थे। उनके विदेशी समकालीन उनके इस अद्भुत गुण पर ठीक ही आश्चर्य करते थे। कोई ऐसा शिल्प नहीं था जिसे कज़ाक जानता न होः वह शराब बना सकता था, गाड़ी बना सकता था, बारूद पीस सकता था, लोहार और ठठेरे का काम सकता था और इसके अलावा वह इस तरह शराब पी सकता था और खूब मस्त होकर इतना ऊधम मचा सकता था, जैसे सिर्फ़ रूसी ही कर सकते हैं- इन सब बातों में वह माहिर था। उन कज़ाकों के अलावा जिनके नाम दर्ज थे, जिन्हें लड़ाई छिड़ जाने पर सेना में भरती होना पड़ता था, फ़ौरन ज़रूरत पड़ने पर घुड़सवार स्वयंसेवकों के लश्कर भी जुटाये जा सकते थे। इसके लिए येसऊलों को बस सभी बस्तियों और गांवों के हर बाज़ार और चौक का चक्कर लगाना पड़ता था और गाड़ी पर खड़े होकर पूरी आवाज़ से चिल्लाना पड़ता थाः “ऐ, बियर बनानेवाले! बंद करो अपना बियर बनाना, चूल्हों के चबूतरों पर बैठकर समय गवाँना और अपनी मोटी लाशें मक्खियों को खिलाना! आओ और आकर सूरमाओं जैसी शोहरत और इज़्ज़त कमाओ! और हल जोतनवालो, कूटू बोनवालो, भेड़ें चरानेवालो, औरतों से प्यार करनेवालो! हल के पीछे-पीछे भागना और अपने पीले-पीले जूतों को कीचड़ में सानना छोड़ो, औरतों के पीछे भागना और अपनी सूरमाओं जैसी ताक़त बर्बाद करना छोड़ो! कज़ाकोंवाला गौरव पाने की घड़ी आ पहुंची है!”और ये शब्द सूखी लकड़ी पर चिंगारी का काम करते। हलवाहे अपना हल तोड़ देते, बियर बनानेवाले अपनी नांदे फेंक देते और अपने पीपे चकनाचूर कर देते, दस्तकार और दुकानदार अपने हुनर और अपनी दुकानों पर लानत धरते और अपने घरों के बर्तन-भांड़े तोड़ डालते। और हर आदमी अपने घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ता। सारांश यह कि यहां पर रूसी चरित्र अपने महानतम और सबसे सशक्त रूप में अपना परिचय देता।
तारास पुराने ढंग के कर्नलों में से एक था, जो बेचैन, लड़ाकू भावना लेकर पैदा हुआ और जो अपने अक्खड़ और मुंहफट तौर-तरीक़ों के लिए मशहूर था। उस ज़माने में रूसी अभिजात वर्ग पर पोलिस्तानी प्रभावों ने अपने छाप डालना शुरू कर दिया था। अभिजात वर्ग के बहुत-से लोग पोलिस्तानी तौर-तरीक़े अपनाते जा रहे थे, उनकी जि़ंदगी में ऐयाशी के सामान, ठाठदार नौकर-चाकरों, शिकारों, शिकारियों, दावतों, दरबारों का चलन बढ़ता जा रहा था। यह बात बुल्बा को पसंद नहीं थी। उसे कज़ाकों की सीधी-सादी जिंदगी से प्यार था, और अपने उन तमाम साथियों से उसका झगड़ा हो गया था जिनका झुकाव वारसा की ओर था, वह उन्हें पोलिस्तानी मालिकों के टुकड़ख़ोर कहता था। वह चैन से बैठना तो जानता ही नहीं था, और कट्टरपंथी धर्म की रक्षा करना अपना अधिकार समझता था। वह अपनी मर्जी से घोड़े पर बैठकर किसी भी ऐसे गांव में पहुंच जाता जहां से उसे शिकायत मिलती कि पट्टेदार ज़ुल्म कर रहे हैं या घर के ऊपर कोई नया टैक्स लगा दिया गया है और अपने कज़ाकों की मदद से इंसाफ़ लागू करता। उसने यह क़ायदा बना दिया था कि तलवार तीन मौक़ों पर ज़रूर खींची जाये- जब पोलिस्तानी टैक्स वसूल करनेवाले बड़े-बूढ़े कज़ाकों के प्रति उचित सम्मान प्रकट न करें और उनके सामने टोपी पहने खड़े रहें, जब कट्टरपंथी धर्म का अपमान करें या पूर्वजों के समय से चली आ रही किसी परंपरा को भंग किया जाये, और तीसरे, जब दुश्मन मुसल्मान या तुर्क हों, जिनके खि़लाफ़ वह किसी भी हालत में ईसाई-धर्म को गौरवान्वित करने के लिए हथियार उठाना उचित समझता था।
इस समय वह पहले से ही इस बात पर खुश हो रहा था कि वह किस तरह अपने बेटों के साथ सेच जायेगा और कहेगाः “देखो, मैं तुम्हारे लिए कैसे अच्छे नौजवान लाया हूँ!”किस तरह वह अपने सभी पुराने, लड़ाई में तपे हुए साथियों से उनका परिचय करायेगा, किस तरह वह युद्ध-कला में और शराब पीने में उनके प्रथम कारनामे देखेगा, जिन्हें वह सूरमाओं के मुख्य गुण मानता था। पहले उसका इरादा उन्हें अकेले भेजने का था, लेकिन उनकी ताज़गी, उनका लंबा डील, और ताक़त से भरपूर उनकी मर्दाना खूबसूरती देखकर उसकी लड़ाकू भावना को जोश आ गया और उसने अगले दिन खुद उनके साथ जाने का फ़ैसला किया, हालांकि खुद उसके जि़द्दी स्वभाव ने उसे यह फ़ैसला करने के लिए उकसाया। उसने हुक्म देना शुरू कर दिया था, अपने नौजवान बेटों के लिए घोड़े और साज़-सामान पसंद करना, अस्तबलों और गोदामों में जाना, और उन नौकरों को चुनना अभी से शुरू कर दिया था जिन्हें अगले दिन उनके साथ जाना था। उसने अपने सारे अधिकार येसऊल तोव्काच को सौंप दिये और सख्त हिदायत कर दी जैसे ही वह रेजिमेंट को बुलवाये वैसे ही फ़ौरन उसे लेकर वह सेच चला आये। वह कोई चीज़ नहीं भूला था हालांकि वह नशे में था, वोद्का के भभके अभी तक उसके दिमाग़ में बसे हुए थे। उसने यह भी हुक्म दिया कि घोड़ों को पानी पिला दिया जाये और उनकी नांदें सबसे बढि़या बड़े दाने के गेहूं से भर दी जायें। जब वह ये सारे काम करके लौटा तो वह बिल्कुल थक गया था।
“अच्छा, बच्चो, अब हमें सो जाना चाहिये और कल जैसी भगवान की इच्छा होगी वैसा ही करेंगे। तुम पलंगों की फि़क्र न करो, बूढ़ा, हम लोग बाहर खुले में सो जायेंगेऋ”
रात ने अभी आसमान को गले लगाया ही था, लेकिन बुल्बा हमेशा जल्दी सो जाता था। वह एक कालीन पर लेट गया और उसने भेड़ की खाल का एक लंबा कोट ओढ़ लिया, क्योंकि रात की हवा में ताज़गी थी और जब वह घर पर होता था तब उसे गर्म बिस्तर पर सोना अच्छा लगता था। थोड़ी ही देर में वह ख़र्राटे भरने लगा, और आंगन में जितने लोग थे सब वैसा ही करने लगे, अलग-अलग कोनों से जहां वे लेटे थे तरह-तरह के ख़र्राटे की आवाज़ें आने लगीं, सबसे पहले जो सो गया वह था चौकीदार, क्योंकि नौजवान मालिकों के घर आने की ख़ुशी में उसने सबसे ज़्यादा शराब पी थी।
बेचारी मां ही अकेली ऐसी थी जो नहीं सोयी। वह अगल-बग़ल लेटे हुए अपने बेटों के सिरों पर झुकी बैठी रही, उनके उलझे हुए अस्त-व्यस्त बालों में कंघी करती रही और उन्हें अपने आंसुओं से भिगोती रही। वह अपनी समस्त आत्मा को आंखों में समेटकर, अपनी सारी चेतना को ही नहीं बल्कि अपने सारे अस्तित्व को दृष्टि के रूप में ढालकर उन्हें एकटक देखती रही, फिर भी वह उन्हें जी भरकर न देख सकी। उसने उन्हें अपनी छाती से दूध पिलाया था, उसने उन्हें जान से बढ़कर चाहा था, उसने उन्हें पाला-पोसा था- और अब उसे उन्हें बस एक क्षण के लिए ही देखने का मौक़ा मिल रहा था! “मेरे बेटो, मेरे जान से प्यारे बेटो! तुम्हारा क्या होगा? तुम्हारे भाग्य में क्या बदा है?”उसने व्यथा-भरे स्वर में कहा और उन झुर्रियों में आंसू कांपने लगे जिन्होंने उसके चेहरे को, जो कभी ख़ूबसूरत हुआ करता था, बिल्कुल बदल दिया था। और, सचमुच, वह बहुत दुखी थी, जैसा कि उन युद्ध के दिनों में सभी औरतें दुखी थीं। केवल एक कुछ क्षण के लिए उसने अपनी जि़ंदगी में प्यार पाया था, केवल आवेशों के पहले उबाल के समय, जवानी की पहली लहर में, और फिर उसके कठोर-हृदय चितचोर ने उसे छोड़कर अपनी तलवार, अपने साथियों और शराब की महफि़लों का दामन पकड़ लिया था। साल-भर ग़ायब रहने के बाद बस दो-तीन दिन के लिए उसे उसकी सूरत देखना नसीब होता थी और फिर बरसों उसे उसकी कोई ख़बर न मिलती थी। और जब वह उसे देखती थी, जब वे साथ-साथ रहते थे तब उसकी ज़िंदगी कैसी निखर उठती थी? वह अपमान सहती और मार तक खाती, कभी-कभार अगर उसे लाड़-प्यार मिल जाता तो वह दान के टुकड़ों से अधिक कुछ नहीं होता था। बिना बीवियों के सूरमाओं की उस बिरादरी में वह एक विचित्र जीव थी, जिस पर उच्छृंखल जीवन बितानेवाले ज़ोपोरोज्ये ने अपना क्रूर रंग चढ़ा दिया था। उसकी बेरंग जवानी चुटकी बजाते बीत गयी थी और ताज़गी से भरपूर उसके सुंदर गालों ने और उसके वक्षस्थल ने चुंबनों को तरसते हुए अपना निखार खो दिया था और समय से पहले ही वे मुरझा गये थे और उन पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। उसका सारा प्यार, उसकी सारी भावनाएं, हर वह चीज़ जो नारी में कोमल और प्रबल होती है, केवल एक भावना में बदलकर रह गयी थी- मां के प्यार में। वह अपने हृदय में अथाह प्रेम और पीड़ा लिये स्तेपी की चिडि़यों की तरह अपने बच्चों के इर्द-गिर्द मंडराती रहती थी। उसके बेटे, उसके प्यारे बेटे उससे छिने जा रहे थे, और, शायद, वह अब उन्हें कभी नहीं देख पायेगी! कौन कह सकता है- शायद कोई तातार उनकी पहली लड़ाई में ही उनके सिर काट दे, और उसे पता भी न चले कि उनकी लावारिस लाशें कहां पड़ी हैं, शायद गिध उन्हें नोच-नोचकर खा जायेंगे, फिर भी उनके खून की एक बंद के लिए भी वह दुनिया में अपना सब कुछ निछावर कर देने को तैयार थी। बिलख-बिलखकर रोते हुए वह उनकी आंखों में घूरती रही जो नींद के प्रबल प्रहार से बंद होने लगी थीं, और वह सोचने लगीः “आह, काश ऐसा हो जाये कि जब बुल्बा की आंख खुले तो वह अपना जाना एक-दो दिन के लिए टाल दे, शायद उसने इतनी जल्दी घोड़े कसकर चल पड़ने का फ़ैसला बहुत ज़्यादा पी जाने की वजह से ही किया है।”
आकाश की ऊंचाई पर चमकता हुआ चाँद सोते हुए कज़ाकों से भरे हुए पूरे आंगन पर, बेदवृक्षों के घने झुरमुट पर और आंगन के चारों ओर की मुंडेर को पूरी तरह ढक लेनेवाली लंबी-लंबी घास पर न जाने कब से अपनी रोशनी बिखेर रहा था। वह अब भी अपने लाड़ले बेटों के सिरहाने बैठी हुई थी, उसने एक क्षण के लिए भी उनकी ओर से नज़रें नहीं हटायी थीं, और न ही सोने का विचार उसके मन में उठा था। घोड़ों ने भोर निकट होने का आभास पाकर दाना खाना छोड़ दिया था और घास पर लेट गये थे, बेदवृक्षों की सबसे ऊपरवाली पत्तियां कानाफूसी करने लगी थीं और धीरे-धीरे उनकी यह कानाफूसी सबसे नीचे की टहनियों तक उतर आयी थी। दिन निकलने तक वह वहीं बैठी रही, वह तनिक भी नहीं थकी और यही कामना करती रही कि रात कभी ख़त्म न हो। स्तेपी से किसी बछेड़े के हिनहिनाने की गूूंजती हुई आवाज़ आ रही थी, आसमान के आर-पार गहरे लाल रंग की धारियों की तेज़ चमक दिखायी दे रही थी।
बुल्बा अचानक जाग पड़ा और उछलकर खड़ा हो गया। उसे अच्छी तरह याद था कि कल रात उसने क्या-क्या हुक्म दिये थे।
“अच्छा, लड़को, अब तुम बहुत सो लिये! वक़्त हो गया है! घोड़ों को पानी पिला दो! बूढ़ा कहां हैं?”वह अपनी बीवी को यह कहने का आदी था। “जल्दी करो, बूढ़ा, हमें कुछ खाने को दो-हमारे सामने बहुत लंबा सफ़र है।”
बेचारी बुढि़या अपनी आखि़री उम्मीद खोकर उदास भाव से किसी तरह पांव घसीटती हुई अंदर आयी। जितनी देर वह आंखों में आंसू भरे नाश्ते के लिए सारी चीजं़ंे तैयार करती रही उतनी देर बुल्बा सबको हुक्म देता रहा, अस्तबलों में जाकर जल्दी मचाता रहा और अपने बच्चों के लिए खुद सबसे बढि़या साज़-सामान चुनता रहा। धर्मपीठ के लड़कों की अचानक काया ही पलट गयी थीः उनके कीचड़ में सने लंबे-लंबे जूतों के बजाय उनमें से हर एक के पांवों में अब लाल चमड़े के रूपहली गोटवाली एडि़यों के जूते थे उनके पतलूनों में, जिनका फैलाव काले सागर जितना था, और जिनमें हज़ारों झोल और चुन्नटें थीं, सुनहरे कमरबंद लगे हुए थे, इन कमरबंदों से लबी-लंबी चमड़े की धज्जियां लटक रही थीं जिनमें फुंदने और पाइप पीने के काम का भांति-भाति का ताम-झाम लगा हुआ था। उनके भड़कीले लाल रंग के कज़ाकोंवाले ढीले कुर्तों को सजावटी पेटियों से कमर पर कस दिया गया था, जिनमें नक़्क़ाशीदार तुर्की पिस्तौल खुंसे हुए थे, उनकी एडि़यों से टकराकर तलवारें झनझना रही थीं। उनके चेहरे, जो अभी तक तेज़ धूप से संवलाये नहीं थे, ज़्यादा खू़बसूरत और गोरे लग रहे थे, जवानी की सारी सेहतमंदी और मज़बूती से भरपूर उनकी खाल का गोरापन उनकी जवान काली मूंछों के सामने और खिल उठा था, काली भेड़ की खाल की टोपियां पहने जिन पर ज़री की कलगियां लगी थीं, वे बहुत खू़बसूरत लग रहे थे। बेचारी मां! जब उसने उन्हें देखा तो वह एक शब्द भी न कह सकी, और उसकी आंखों में आंसू डबडबा आये।
“अच्छा, बेटो, सब तैयारी पूरी हो गयी है, अब हमें वक़्त ख़राब नहीं करना चाहिये!”आखि़रकार बुल्बा ने कहा। “लेकिन सबसे पहले, अपनी ईसाई परंपरा को निभाते हुए सफ़र पर रवाना होने से पहले हम सब लोग बैठ जायें।”
हर आदमी बैठ गया, यहां तक कि नौकर-चाकर भी जो बड़े अदब से दरवाजे़ पर कसे हुए खड़े थे।
“अब अपने बच्चों को आशीर्वाद दो, माँ!”बुल्बा ने कहा। “भगवान से प्रार्थना करो कि वे बहादुरी से लड़ें, कि वे सूरमाआवाली अपनी आन-बान हमेशा बनाये रखें, और हमेशा ईसा के धर्म की रक्षा करें। और अगर ऐसा न हो-तो वे मिट जायें और इस धरती पर उनका नाम-निशान भी बाक़ी न रहे! अपनी मां के पास जाओ, बच्चो, मां की प्रार्थना जल-थल में हर जगह मनुष्य की रक्षा करती है।”
माँ ने, जो सभी मांओं की तरह कमज़ोर थी, उन्हें सीने से लगा लिया, दो छोटी-छोटी देव-प्रतिमाएं लीं और रोते हुए उन्हें उनकी गर्दनों में पहना दिया।
“देवी-माता… तुम्हारी रक्षा करें।। अपनी माँ को न भूलना, मेरे बेटो… मुझे अपने बारे में ख़बर भेजते रहना।।”वह इससे ज़्यादा कुछ न कह सकी।
“अच्छा, बच्चो, अब चलें!”बुल्बा न कहा।
घोड़े दरवाजे़ पर जी़न कसे हुए खड़े थे। बुल्बा उछलकर अपने शैतान पर सवार हो गया, जो अपनी पीठ पर अपने सवार का बेहद ज़्यादा बोझ महसूस करके, क्योंकि तारास बहुत ही भारी और हट्टा-कट्टा था, चमक गया और घबराकर एक तरफ़ को हट गया।
जब मां ने देखा कि उसके बेटे भी घोड़ों पर सवार हो गये हैं, तो वह छोटेवाले की ओर लपकी, जिसके चेहरे के भाव में अधिक कीमलता थी, वह उसकी रकाब थामकर ज़ीन से चिमट गयी और आंखों में निराशा भरे हुए वह उसे किसी तरह छोड़ने को तैयार नहीं थी। दो तगड़े कज़ाकों ने हौले से उसे उठाकर झोंपड़े के अंदर पहुंचा दिया, लेकिन जब वे घोड़ों पर सवार होकर फाटक से गुज़रे तो वह अपने बुढ़ापे के बावजूद जंगली बकरे जैसी तेज़ी से उनके पीछे भागी, अविश्वसनीय शक्ति लगाकर उसने घोड़े को रोक दिया और उन्माद भरे अदम्य भावावेश के साथ अपने एक बेटे के गले में बांहें डाल दीं। उसे एक बार फिर वहां से हटा ले जाया गया।
नौजवान कज़ाक बाप के डर के मारे अपने आंसू रोके हुए भारी मन से अपने घोड़े आगे बढ़ाते रहे, दिल तो थोड़ा-बहुत बाप का भी हिल गया था, लेकिन वह कोशिश कर रहा था कि कोई इस बात को देख न पाये। बहुत नीरस दिन था, लेकिन स्तेपी की हरी घास में कठोर चमक थी, और ऐसा लगता था कि सारी चिडि़यां बेसुरे ढंग से चहक रही हैं। थोड़ी देर बाद उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, ऐसा लग रहा था कि उनका छोटा-सा गांव धरती में समा गया है, उन्हें धरती के ऊपर अपने मामूली घर की दो चिमनियों और उन पेड़ों की फुनगियों के अलावा कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था जिसकी डालों पर कभी वे गिलहरियों की तरह चढ़ जाया करते थे। और फिर सिर्फ़ बहुत दूर चरागाह ही दिखायी देती रही-वह चरागाह जिसे देखकर अपने बीते हुए जीवन के सारे साल उनकी कल्पना में उभर आते थे, उस वक़्त तक जब वे काली आंखोंवाली किसी कज़ाक लड़की की वहां राह देखते रहते थे, जो डरकर अपने फुर्तीले जवान पांवों से भागकर तीर की तरह चरागाह को पार कर जाती। और अब तो सिर्फ़ आकाश की पृष्ठभूमि पर कुएं के ऊपर लगा हुआ वह अकेला बांस दिखायी दे रहा था जिसकी चोटी पर एक चखऱ्ी लगी हुई थी, और उनके पीछे का मैदान दूर से पहाड़ जैसा लग रहा था और वह हर चीज़ को नज़रों से ओझल कर देता है।
विदा, बचपन, विदा, खेल-कूल, और हर चीज़, और हर आदमी, और सब कुछ!

2
तीनों सवार चुपचाप अपने घोड़े बढ़ाये चले जा रहे थे। बूढ़ा तारास बीते हुए पुराने दिनों को याद कर रहा था, उसकी नज़रों के सामने से उसकी जवानी, वे बीते हुए साल गुज़र रहे थे- वे साल जिन्हें याद करके हर कज़ाक रोता है, क्योंकि वह चाहता है कि उसकी सारी ज़िंदगी जवानी हो। वह सोच रहा था कि किन-किन पुराने साथियों से सेच में उसकी मुलाक़ात होगी। वह उन लोगों को याद करने लगा जो मर चुके थे और उन्हें जिनके अभी तक जि़दा होने की उसे उममीद थी। आंसुओं से उसकी आंखें धुंधली हो गयीं और उसका सफ़ेद बालोवाला सिर उदास भाव से झुक गया।
उसके बेटे दूसरी बातों के बारे में सोच रहे थे। लेकिन पहले उनके बारे में कुछ और बता दिया जाये। बारह साल की उम्र में [1]उन्हें कीएव अकादमी में भेज दिया गया था, क्योंकि उस ज़माने में ऊंची हैसियतवाले सभी लोग बेटों को पढ़ाना-लिखाना अपना कर्त्तव्य समझते थे- भले ही आगे चलकर वे अपना सीखा हुआ सब कुछ भूल जायें। शुरू-शुरू में, धर्मपीठ में भरती होनेवाले सभी लड़कों की तरह, वे उद्दंड थे, जिस वातावरण में वे पले थे उसमें किसी क़ाय़दे-क़ानून की पाबंदी नहीं थी, लेकिन वहां रहकर उनमें कुछ परिष्कार आ गया, और चूंकि यह परिष्कार सभी लड़कों में था इसलिए वे सभी एक-दूसरे जैसे लगते थे। बड़े बेटे ओस्ताप ने अपना छात्र-जीवन इस तरह शुरू किया कि वह पहले साल ही भाग आया। उसे वापस लाकर बड़ी बेरहमी से कोड़े लगाये गये, और फिर किताबें पढ़ने पर लगा दिया गया। चार बार उसने अपनी पहली किताब ज़मीन में गाड़ दी, और चार बार उसकी बड़ी बेदर्दी से पिटाई की गयी और उसे नयी किताब लाकर दी गयी। यक़ीनन उसने पांचवीं किताब भी ज़मीन में गाड़ दी होती अगर उसके बाप ने बड़ी संजीदगी से यह धमकी न दी होती कि वह उसे मठ में भरती करा देगा और उसे वहां पूरे बीस साल तक शिक्षा दिलायेगा, और अगर उसके बाप ने यह क़सम न दी होती कि जब तक वह अकादमी में पढ़ायी जानेवाली सारी विद्याएं न सीख लेगा तब तक वह कभी ज़ापोरोज्ये की तरफ़ आंख उठाकर देखेगा भी नहीं। अजीब बात है कि यह सब कुछ जिस आदमी ने कहा वह वही तारास बुल्बा था जो हर तरह की पढ़ाई-लिखाई के खि़लाफ़ बकता रहता था और अपने बच्चों को सलाह देता था, जैसा कि हम देख चुके हैं, कि वे इसकी ओर तनिक भी ध्यान न दें। लेकिन उसके बाद से ओस्ताप अपनी नीरस किताबें असाधारण तन्मयता से पढ़ने लगा और जल्दी ही वह धर्मपीठ के सबसे अच्छे लड़कों के बराबर पहुंच गया। उन दिनों शिक्षा और वास्तविक जीवन-पðति में ज़मीन आसमान का अंतर था, विद्वता, व्याकरण, साहित्य-शास्त्र और तर्क-शास्त्र की सभी बारीकियों का समय की गति के साथ निश्चित रूप से कोई भी संबंध नहीं था और जीवन में उनका किसी भी तरह का कोई उपयोग नहीं था। छात्र अपने ज्ञान का, जिसमें विद्वता का अंश सबसे कम होता था उसका भी, कोई उपयोग नहीं कर सकते थे। शिक्षक स्वयं बाक़ी लोगों से भी अधिक अज्ञान थे क्योंकि व्यवहार से उनका दूर-दूर का भी कोई नाता नहीं था। इसके साथ ही अकादमी के जनतांत्रिक ढांचे, हट्टे-कट्टे और तंदुरुस्त नौजवानों के इतने विशाल समूह का परिणाम इसके अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता था कि धर्मपीठ के विद्यार्थी पाठ्यक्रम से बिल्कुल बाहर की गतिविधियों में हिस्सा लें। दुर्व्यवहार, बार-बार भूखा रखे जाने की सज़ा, ताज़गी और शक्ति से भरपूर लड़के में उठनेवाले अनेक उद्वेग- इन सब बातों की वजह से कुछ कर दिखाने की साहसी भावना प्रस्फुटित हुई जो बाद में चलकर ज़ापोरोज्ये में ख़ूब फली-फूली। कीएव की सड़कों पर किसी बात में घूमते हुए धर्मपीठ के भूखे लड़के नागरिकों के लिए एक निरंतर मुसीबत बन गये। बाज़ार की औरतें धर्मपीठ के किसी लड़के को पास से गुज़रता देखकर हमेशा अपनी कचौरियां, केक और कद्दू के बीज अपने हाथों से उसी तरह ढक लेती थीं जैसे मादा गिð अपने बच्चों की रक्षा करती है। विद्यार्थियों के मुखिये का कर्त्तव्य होता था कि वह स्कूल के अपने साथियों पर नज़र रखे, लेकिन उसके पतलून की जेबें खुद इतनी बड़ी थीं कि वह बाज़ार की औरत की पूरी फैली हुई दुकान उसमें ठूंस सकता था। धर्मपीठ के इन लड़कों की दुनिया ही अलग थी, उन्हें समाज के ऊंचे क्षेत्रों में नहीं घुसने दिया जाता था, जिनमें रूसी और पोलिस्तानी अभिजात वर्ग के लोग होते थे। खुद गवर्नर आदम कीसेल ने, हालांकि वह अकादमी के संरक्षकों में से थे, आदेश जारी कर दिया था कि उन्हें समाज से दूर रखा जाये और उन पर कड़ी नज़र रखी जाये। यह आखि़री हिदायत बिल्कुल फ़ालतू थी क्योंकि छड़ी या कोड़ा इस्तेमाल करने में न रेक्टर कोई कसर उठा रखता था और न ही धर्मपीठ के पादरी प्रोफ़ेसर, और अकसर उनके आदेश पर मुखियों के सहायक अपने मुखियों को इतने ज़ोर से कोड़े लगाते थे कि ये विद्यार्थियों के मुखिये बाद में हफ़्तों तक अपने पतलून खुजाते रहते थे। कई लोगों के लिए यह बहुत मामूली बात होती थी और चुटकी-भर काली मिर्च मिली हुई अच्छाी वोद्का से बस थोड़ी ही तेज़ मालूम होती थी, दूसरे लोग, आखि़रकार, लगातार मरम्मत से तंग आ जाते थे और ज़ापोरोज्ये भाग जाते थे- अगर वह रास्ता खोज पाने में कामयाब हो जाते थे और रास्ते में पकड़े नहीं जाते थे। ओस्ताप बुल्बा हालांकि खूब जी लगाकर तर्कशास्त्र पढ़ता था, यहां तक कि धर्मविज्ञान भी, लेकिन बेरहम डंडे की मार से वह भी नहीं बच पाता था। स्वाभाविक रूप से इन सब बातों की वहज से उसके चरित्र में एक कठोरता आ गयी और उसमें वह दृढ़ता पैदा हो गयी जो हमेशा से कज़ाकों का विशिष्ट गुण रही है। ओस्ताप को आम तौर पर सबसे अच्छे साथियों में गिना जाता था। शायद ही कभी ऐसा होता था कि वह ऐसे दुस्साहसिक पराक्रमों में अपने साथियों की अगुवाई करे कि उन्हें लेकर किसी के निजी फलों के बग़ीचे या किसी के बाग़ पर धावा बोले दे, लेकिन कुछ कर दिखाने का साहस रखनेवाले धर्मपीठ के किसी भी विद्यार्थी की टोली में शामिल हो जाने में वह सबसे आगे रहता था, और कभी, किसी भी हालत में, वह अपने साथियों के साथ विश्वासघात नहीं करता था। छड़ी या कोड़े की कितनी भी मार उसे ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती थी। वह लड़ने और शराब पीकर बदमस्त हो जाने के अलावा हर तरह के प्रलोभनों से दूर रहता था, कम से कम इतना तो ज़रूर था कि अगर हुआ तो वह शायद ही कभी किसी और चीज़ के बारे में सोचता था। अपने बराबरवालों के प्रति वह अपने मन में कोई छल-कपट नहीं रखता था। वह दयालु था- जिता दयालु उसके ज़माने में उसके स्वभाव का आदमी हो सकता था। अपनी बेचारी मां के आंसू देखकर सचमुच उसका मन पसीज उठता था। और इस समय यही एक बात थी जिसने उसके मन को उदास कर दिया था और जिसकी वजह से विचारमग्न होकर वह अपना सिर झुकाये हुए था।
उसके छोटे भाई अन्द्रेई की भावनाएं कुछ अधिक स्फूर्तिमय और परिपक्व थीं। वह अधिक सहज भाव से चीज़ों को सीखता था और इसके लिए उसे वह प्रयास भी नहीं करना पड़ता था जो आम तौर पर दृढ़ और गंभीर चरित्रवाले आदमी के लिए ज़रूरी होता है। वह अपने भाई के मुक़ाबले ज़्यादा सूझ-बूझवाला आदमी था और अकसर जोखिम के कामों में अगुवा बन जाता था, अपनी हाजि़रजवाबी की वजह से वह सज़ा पाने से बच निकलता था, जबकि उसका भाई ओस्ताप झूठे बहाने गढ़ने से नफ़रत करता था और दया की भीख माँगने की बात कभी मन में लाये बिना ही झट से कोट उतारकर ज़मीन पर लेट जाता था। अन्द्रेई भी बहादुरी के कारनामे करने के लिए तड़पता रहता था, लेकिन उसके दिल में दूसरी भावनाओं के लिए भी जगह थी। जब उसने अपनी उम्र का अट्ठारहवां साल पार कर लिया, तब उसके हृदय में प्रेम की लालसा भड़क उठी। उसके जोशीले सपनों में औरत बार-बार दिखायी देने लगीः दार्शनिक शास्त्रार्थ सुनते समय भी वह उसकी आंखों के आगे फिरती रहती-ताज़गी से भरपूर, काली आंखोंवाली, सुकोमल। उसकी झिलमिलाती हुई सख़्त छातियां, कधों तक खुली उसकी नर्म बांहें, उसके कुंआरे लेकिन सशक्त अंगों से चिपका हुआ उसका लिबास भी सपनों में उसे न जाने क्यों कामोत्तेजक लगता था। अपनी आवेगपूर्ण युवा आत्मा की इन लालसाओं को वह अपने साथियों से बड़ी सवधानी से छिपाकर रखता था क्योंकि उस ज़माने में किसी भी कज़ाक के लिए लड़ाइयों में हिस्सा लेने से पहले औरत और प्यार-मुहब्बत का विचार भी मन में लाना बड़ी शर्म और बेइज़्ज़ती की बात थी। अकादमी में अपने अंतिम वर्षों के दौरान उसने शायद ही कभी किसी दुस्साहसिक गिरोह की अगुवाई की थी, बल्कि ज़्यादातर यह होता था कि वह कीएव के उन दूर-दराज़ कोनों में अकेला घूमता रहता था, जहां चेरी के बाग़ों में छिपे हुए नीची-नीची छतोंवाले मकान दूसरों का ललचाते हुए सड़क की ओर झांकते रहते थे। वह हिम्मत करके रईसों के इलाक़े में भी गया था, जो अब पुराना कीएव है जहां उक्राइनी और पोलिस्तानी अमीर-उमरा रहा करते थे और जहां मकान ज़्यादा आलीशान ढंग से बनाये जाते थे। एक बार जब वह मुंह बाये वहां खड़ा था, वह किसी पोलिस्तानी रईस की बग्घी के नीचे कुचलते-कुचलते बचा, और ऊपर की सीट पर बैठे हुए भयानक मूछोंवाले कोचवान ने निशाना ताककर उसके एक चाबुक जड़ दी थी। धर्मपीठ के नौजवान विद्यार्थी को ताव आ गयाः कुछ सोचे-समझे बिना उसने जान हथेली पर रखकर गाड़ी का पिछला पहिया पकड़ लिया और बग्घी रोक दी। कोचवान हरजाना भरने के डर से घोड़ों पर चाबुक बरसाने लगा, वे सरपट भागे और अन्द्रेई, जिसने सौभाग्य से किसी तरह अपना हाथ खींच लिया था, मुंह के बल कीचड़ में गिर पड़ा। उसे कहीं ऊपर से किसी के हँसने की मधुरतम और बेहद सुरीली गूंज सुनायी। उसने नज़र ऊपर उठायी और देखा कि खिड़की में एक इतनी खू़बसूरत लड़की खड़ी है जैसी उसने इससे पहले कभी नहीं देखी थी- काली-काली आंखें, ऊषा की गुलाबी अरुणाई लिये बफऱ् जैसा गोरा रंग। वह दिल खोलकर हँस रही थी, और उसकी यह हँसी उसके चकाचौंध कर देनेवाले साैंदर्य को चार चाँद लगा रही थी। वह ठगा-सा खड़ा रहा। वह बेहद बौखलाकर उस लड़की को एकटक देखता रहा, और बदहवासी में अपने मुंह पर से कीचड़ पोंछता रहा, जिसकी वजह से उसका चेहरा और मैला होता गया। वह सुंदर लड़की कौन थी? उसने नौकरों से यह जानकारी हासिल करने की कोशिश की, जो अपनी भड़कीली वर्दियाँ पहने एक नौजवान बंदूरा बजानेवाले को घेरे फाटक पर खड़े थे। लेकिन उसका कीचड़ में सना चेहरा देखकर वे हँस पड़े और उन्होंने कोई जवाब देना गवांरा नहीं किया। आखिरकार किसी तरह उसे पता चला कि वह कोव्नो के गवर्नर की बेटी थी, जो वहां कुछ दिन के लिए आये हुए थे। अगली रात को वह धर्मपीठ के छात्रों की ख़ास ढिठाई के साथ चुपके से चारदीवारी पार करके बाग़ में जा पहुंचा और एक पेड़ पर चढ़ गया जिसकी डालें उस मकान की छत पर फैली हुई थीं, पेड़ पर से वह छत पर जा पहुंचा और धुँआंरे के रास्ते सीधा उस सुंदर लड़की के सोने के कमरे में उतर गया, जो उस वक़्त एक मोमतत्तती के सामने बैठी अपने कानों की बहुमूल्य बालियां उतार रही थी। अचानक एक अजनबी को देखकर वह सुंदर पोलिस्तानी लड़की इतनी बुरी तरह डर गयी कि वह अवाक् रह गयी, लेकिन जब उसने देखा कि धर्मपीठ का छात्र नज़रें झुकाये ऐसा भीगी बिल्ली की तरह खड़ा है कि उंगली भी नहीं उठा सकता, जब उसने पहचाना कि यह तो वही लड़का था जो उसकी आंखों के सामने सड़क पर लुढ़क गया था तो उसे फिर हँसी आ गयी। और फिर, अन्द्रेई की शक्ल-सूरत भी तो बिल्कुल डरावनी नहीं थी- वह बहुत खू़बसूरत था। इसलिए वह दिल खोलकर हँसी और बड़ी देर तक अन्द्रेई का कज़ाक़ उड़ाकर अपना मन बहलाती रही। वह सुंदर लड़की सभी पोलिस्तानी लड़कियों की तरह चुलबुली थी, लेकिन उसकी आंखें-उसकी अद्भुत, निर्मल और बेधती हुई आंखें-अपनी तीर जैसी नज़रों से खुद निरंतरता जैसी लंबी मार करती थीं। धर्मपीठ का छात्र मूर्तिवत् निश्चल खड़ा रहा, मानो किसी ने उसे बोरे में बंद कर दिया हो, गवर्नर की बेटी बेझिझक चलती हुई उसके पास आयी, उसने अपना जगमगाता हुआ मुकुट उसके सिर पर रख दिया, अपनी कानों की बालियां उसके होंठों पर लटका दीं, और उसे ज़री की झालर लगी हुई बारीक मलमल की एक झीनी-सी कुरती पहना दी। उसने उसे पहना-ओढ़ाकर सजाया-संवारा और उसके साथ हज़ारों शरारतें कीं, और सब ऐसी बच्चों जैसी बेबाकी से जो चंचल पोलिस्तानी महिलाओं की विशेषता होती है, और जिनकी वजह से वह बेचारा धर्मपीठ का लड़का और बौखला उठा। मुंह खोले और उसकी चमकदार आंखों में घूरते हुए वहां खड़ा वह बेहद हास्यास्पद लग रहा था। दरवाजे़ पर दस्तक सुनकर वह चौंक पड़ी। उसने उससे पलंग के नीचे सरक जाने को कहा, और जैसे ही ख़तरे के बादल छंट गये उसने अपनी ख़ास नौकरानी को बुलाया, जो एक तातार बांदी थी, और उसे हुक्म दिया कि उसको चुपके से बाग़ में और वहां से चारदीवारी के पार पहुंचा दे, लेकिन इस बार धर्मपीठ का छात्र अहाते का जंगला पार करने में उतना भाग्यशाली नहीं रहा, और चौकीदार की आंख खुल गयी और उसने उसकी टांगों पर ज़ोर से वार किया, सारे नौकर भागकर बाहर निकल आये और बड़ी देर तक सड़क पर उसकी अच्छी तरह मरम्मत करते रहे, जब तक कि वह वहां से तेज़ी से भागकर ख़तरे के बाहर नहीं निकल गया। इसके बाद उस घर के सामने से होकर गुज़रना भी ख़तरनाक हो गया क्योंकि गवर्नर के नौकर-चाकर बेशुमार थे। उसने उस लड़की को एक बार फिर पोलिस्तानी रोमन कैथोलिक गिरजाघर में देखा, उसकी नज़र भी उस पर पड़ी और उसकी तरफ़ देखकर उसने ऐसी मुग्ध कर लेने-वाली मुस्कराहट बिखेरी जैसे वह कोई पुराना परिचित हो। उसने बस एक बार और उसकी झलक देखी थी, लेकिन उसके कुछ ही समय बाद कोव्नो के गवर्नर साहब वहां से सिधार गये, और उस काली आंखोंवाली पोलिस्तानी सुंदरी के बजाय उसकी खिड़कियों में से एक मोटा बदसूरत चेहरा झांकने लगा। अन्द्रेई इस वक़्त अपना सिर झुकाये और अपने घोड़े के अयालों पर नज़रें जमाये इसी के बारे में सोच रहा था।
इसी बीच स्तेपी उन सबको न जाने कबका अपनी हरी गोद में समेट चुका था, और उनके चारों ओर उगी हुई लंबी-लंबी घास ने उन्हें छिपा लिया था, यहां तक कि उसके ऊपर सिर्फ़ उनकी काली-काली कज़ाकोंवाली टोपियां दिखायी दे रही थीं।
“ऐ, सुनते हो! तुम इतने चुप-चुप क्यों हो, मेरे बच्चो?”बुल्बा ने आखि़रकार ख़ुद अपने विचारों की तंद्रा से जाकर कहा। “तुम लोग तो बिल्कुल संन्यासियों की तरह गंभीर हो गये हो! अपनी सारी चिंताओं को भाड़ में झोंक दो। अपने पाइप दांतों में दबाकर सुलगा लो, और चलो, अपने घोड़ों को एड़ लगाकर किसी भी चिडि़या से तेज़ उड़ चलें!”
और कज़ाक अपने घोड़ों की पीठ पर झुककर घास के बीच आंखों से ओझल हो गये। अब तो उनकी काली टोपियां भी दिखायी नहीं दे रही थीं, और जिधर से वे तेज़ी से होकर गुज़रे थे वहां रौंदी हुई घास की सिर्फ़ एक लकीर दिखायी दे रही थी।
सूरज बहुत देर से साफ़ आसमान पर से झांकने लगा था और उसने पूरे स्तेपी को अपनी गर्मी और तेज़ होती हुई रोशनी में नहला दिया था। जो कुछ धुंधला और स्वप्निल था वह पलक झपकते कज़ाकों के दिमाग़ से ग़ायब हो गया, उनके दिल सीनों में चिडि़यों की तरह फड़फड़ाने लगे।
स्तेपी का लिपटा हुआ विस्तार खुलकर जितनी दूर तक फैलता गया वह उतना ही ख़ूबसूरत होता गया। उस ज़माने में काले सागर तक दक्षिण का सारा इलाक़ा जो अब नोवोरोस्सिया है, एक ही हरा-भरा, अछूता निर्जन विस्तार था। जंगली उपज की उन सीमाहीन लहरों को कभी किसी हल के फाल ने नहीं छुआ था। सिर्फ़ घोड़े लंबी-लंबी घास को रौंदते हुए उसमें इस तरह ग़ायब हो जाते थे जैसे जंगल में खो गये हों। प्रड्डति में इससे सुंदर कोई चीज़ नहीं हो सकती थी। धरती का चेहरा एक हरे-सुनहरे सागर जैसा लग रहा था जिसमें से लाखों फूल फ़व्वारों की तरह ऊपर उभर रह थे। घास की लंबी-लंबी कोमल डंठलों के बीच से नीले, कासनी और बैंगली फूलों की बालियां झांक रही थीं, कांस के फूलांे के पीले गुच्छे अपना सिर बाहर निकाले खड़े थे, मैदान में जहां-तहां बनमेथी की सफ़ेद छतरी जैसी टोपियां बिखरी हुई थीं, झाड़ी में गेहूं की एक बाल, जो न जाने कहां से वहां आ गयी थी, पक रही थी। नाज़ुक डंठलों के बीच तीतर अपनी गर्दनें ताने इधर-उधर घूमते-फिरते थे। हवा में हज़ारों तरह की चिडि़यों की आवाज़ें बसी हुई थीं। आसमान पर बाज़ अपने पंख पसारे निश्चल लटके हुए थे, उनकी आंखें नीचे घास पर एकटक जमी हुई थीं। क्षितिज के एक ओर मंडराते हुए जंगली कलहंसों की डार की चीख़ भगवान जाने किस दूरस्थ झील से प्रतिध्वनित हो रही थी। घास में से सधे हुए ढंग से अपने पंख फड़फड़ाती हुई चिल्ली ऊपर उठी और हवा की नीली लहरों में जी भरकर नहाती रही। देखो, अब वह आसमान की ऊंचाइयों में ग़ायब हो गयी यहां तक कि अब सिर्फ़ एक काला धब्बा दिखायी दे रहा है, अब वह अपने पंख के सहारे मुड़ी और एक क्षण के लिए धूप में चमक उठी…ओ स्तेपी, तुम कितने सुंदर हो!…।।
हमारे यात्री खाना खाने के लिए बस कुछ मिनट के लिए ही रुकते थे, जब उनके साथ चलनेवाले दस कज़ाक अपने घोड़ों से उतरकर वोद्का के लकड़ी के पीपे और कद्दू की तूँबियां खोलते जो कटोरों का काम देती थीं। वे सुअर की चरबी के साथ सिर्फ़ रोटी और गेहूं के पकौड़े खाते थे, और फिर से ताज़ादम हो जाने के लिए सिर्फ़ एक-एक प्याला वोद्का पीते थे, क्योंकि तारास बुल्बा कभी किसी को रास्ते में नशे में धुत हो जाने की इजाज़त नहीं देता था, और उसके बाद वे लोग फिर शाम तक के लिए अपने सफ़र पर निकल पड़ते थे। शाम को स्तेपी बिल्कुल बदल जाता था। उसके सारे बहुरंगी विस्तार पर सूरज की अंतिम दहकती हुई लाल छाया फैल जाती थी और धीरे-धीरे गहरी होती जाती थी, यहां तक कि शाम का झुटपुटा उस पर छाता हुआ दिखायी देने लगता था और उसे काही रंग में रंग देता था, हवा बोझल हो जाती थीः हर फूल हर जड़ी-बूटी अपने उच्छ्वास के साथ सुगंध बिखेरती थी, और सारा स्तेपी अपनी सांसों में महक लुटाने लगता था। अंधेरे, नीलवर्ण आकाश के आर-पार गुलाबी सोने की चौड़ी-चौड़ी धारियां फैल जाती थीं, जैसे किसी ने विशाल तूलिका से उन्हें वहां पोत दिया हो, जहां-तहां मखमली पारदर्शी बादलों की धज्जियाँ अपनी सफ़ेद ज्योति से चमकती रहती थीं, और बेहद ताज़ा और अत्यंत मनमोहक हवा के मंद-मंद झोंके समुद्र की लहरों जैसी कोमल घास को बस हौले से छेड़कर गुज़र जाते थे, और गालों को बड़ी नरमी से गुदगुदा देते थे। वह संगीत, जो दिन को सुनायी देता था, ख़ामोश हो जाता था और इसकी जगह एक दूसरा संगीत ले लेता था। चित्तीदार मैदानी चूहे बिलों से बाहर निकलकर अपनी पिछली टांगों पर खड़े होते थे और इनकी सीटियों से पूरा स्तेपी गूंजने लगता था। टिड्डों की चूं-चूं की आवाज ज़्यादा तेज़ हो जाती थी। कभी-कभी किसी दूर की झील से राजहंस की आवाज़ हवा में एक रुपहली झंकार पैदा करती हुई सुनायी देती थी। राही खुले मैदान में कहीं रुक जाते थे और अपने रात के पड़ाव के लिए कोई अच्छी-सी जगह चुन लेते थे। फिर अलाव जलाते थे, उस पर देग चढ़ा देते थे और अपना दलिया पकाते थे। भाप चक्कर खाती हुई एक तिरछे से खंभे की शक्ल में ऊपर उठती थी। खाने के बाद कज़ाक अपने घोड़ों की टांगें बांधकर उन्हें घास पर चरने के लिए छोड़ देते थे और खुद अपने लबादों पर टांगे पसारकर सोने लेट जाते थे। सितारे ऊपर से उन्हें ताकते थे। उनके कानों में अनगिनत कीड़े-मकोड़ों की दुनिया, जिससे घास भरपूर थी, गूंजने लगती थी। इनकी टर-टर, चूं-चूं और सीटियां हवा के ख़ामोश होने की वजह से और भी तीखी होकर रात को साफ़ और खरी सुनायी देती थीं और नींद में मदमाते कानों को लोरियां देती थीं। अगर इनमें कोई संयोग से ज़रा सी देर को जागकर उठ जाता तो वह स्तेपी को इधर तक जुगनुओं की चमकदार चिंगारियों से जगमगाता पाता। कभी-कभी दूर नदी के किनारे और चरागाहों में जलते हुए सूखे सरकंडों की लपटें रात के आसमान को कहीं-कहीं आलोकित कर देती थीं और उस समय राजहंसों के उत्तर की तरफ़ उड़ते हुए काले झुंड एकबारगी एक रूपहली-सी गुलाबी रोशनी से चमक उठते थे और ऐसा लगता था कि जैसे काले आसमान पर लाल रूमाल उड़ रहे हों।
राही किसी असाधारण घटना के बग़ैर बढ़ते गये। उन्हें रास्ते में एक पेड़ भी नहीं मिला। हर जगह और हर समय वही अनंत स्तेपी, आज़ाद और ख़ू़बसूरत स्पेती और बस। कभी-कभी ही उनको दूर जंगलों का ऊपरी नीला हिस्सा नज़र आ जाता, उन जंगलों का जो द्नेपर के किनारे-किनारे फैले हुए थे। सिर्फ़ एक बार ही तारास ने अपने बेटों को दूर घास के बीच एक छोटा-सा काला धब्बा दिखाया और कहाः “देखो बच्चो, वहां घोड़े पर सवार एक तातार जा रहा है।”छोटे-से मूंछोंवाले चेहरे ने दूर से उन्हें अपनी छोटी-छोटी भिंची आंखों से देखा, शिकारी कुत्ते की तरह हवा को सूंघा और यह देखकर कि कज़ाक गिनती में तेरह थे हिरन की सी तेज़ी से ग़ायब हो गया। “क्यों लड़को, क्या तुम उस तातार से आगे निकल सकते हो?… बेहतर है कोशिश ही न करो, तुम उसे कभी नहीं पकड़ सकोगेः उसका घोड़ा मेरे शैतान से ज़्यादा तेज़ रफ़्तार है।”लेकिन, बुल्बा को डर था कि कहीं कोई उनकी घात में छुपा न बैठा हो, इसलिए उसने चालबाज़ी से काम लिया। वे लोग घोड़ों को सरपट दौड़ाकर तातारका नामक एक छोटी-सी नदी के किनारे पहुंचे जो द्नेपर से जा मिलती थी और घोड़ों समेत पानी में फांद पड़े और बहुत दूर तक ऐसे ही तैरते रहे ताकि किसी को पता न चले कि वे किधर होकर गये हैं। इसके बाद वे फिर अपने घोड़ों पर सवार होकर नदी के बाहर किनारे पर आ गये और फिर से अपने रास्ते पर चलने लगे।
तीन दिन में वे अपनी मंजि़ल के करीब पहुंच गये। हवा में अचानक ठंड पैदा हो गयीः उन्होंने महसूस किया कि द्नेपर, पास ही है। अब वह दूर चमकती हुई दिखायी दे रही थी और एक अंधेरी पट्टी की शक्ल में क्षितिज से अलग पहचानी जाती थी। उसकी सांस से हवा में ठंडी-ठंडी लहरें पैदा हो रही थीं और वह पास, और पास आती जा रही थी। आखि़रकार वह आधी ज़मीन पर छा गयी। यहां द्नेपर, जो पहले ढलानों और उतारों में घिरी हुई थी, अंत में उनसे जीतकर समद्र की तरह गरजती हुई दूर-दूर तक बह निकलती है, यहां वे टापू, जो इसके बीचोंबीच लगता है फेंक दिये गये हैं, द्नेपर को अपने किनारों को तोड़कर और भी चौड़ा होकर बहने पर मजबूर कर देते हैं और इसकी लहरें जिनके रास्ते में न कोई पहाड़ी है न ढलवां चट्टान, आज़ादी से ज़मीन पर बह निकलती हैं। कज़ाक अपने घोड़ों से उतरे और एक नाव पर सवार होकर तीन घंटे के सफ़र के बाद ख़ोरतित्सा टापू पर पहुंच गये, जहां इस समय खानाबदोश सेच का पड़ाव था।
लोगों का एक झुंड नदी के किनारे मल्लाहों से लड़-झगड़ रहा था। हमारे कज़ाकों ने अपने घोड़ों की ज़ीन के तस्मे और कम दिये। तारास ने बड़े रोब से अपनी पेटी ज़ोर से कसी और गर्व से मूंछों पर हाथ फेरा। उसके कमउम्र बेटों ने भी एक अस्पष्ट चिंता और सुखद आशा की मिली-जुली भावना के साथ अपने आपको सर से पांव तक एक नज़र देखा। फिर वे सब लोग सेच के आसपास के इलाक़े में दाखिल हुए। यहां से सेच आधे वेर्स्ता की दूरी पर था। वहां पहुंचते ही पचास लोहारों के हथौड़ों ने इनके कान बिल्कुल बहरे कर दिये। ये हथौड़े ज़मीन में खुदी हुई फूस की छतवाली पच्चीस भट्ठियों में खट-खट कर रहे थे। मज़बूत हाथ-पांववाले खालें साफ़ करनेवाले सड़क पर निकले हुए बरसाती के छज्जे के नीचे बैठे अपने ताक़तवर गठीले हाथों से बैलों की खालों को मल रहे थे। व्यापारी अपने खेमों में चक़मक और फौ़लाद के ढेरों और बारूद के पीपों से घिरे हुए बैठे हुए थे। कहीं किसी आरमीनियन ने अपने महँगे रूमाल टांग रखे थे तो कहीं कोई तातार आटे में लिपटे भेड़ के गोश्त के टुकड़े सीखों पर भून रहा था। एक यहूदी अपना सिर आगे बढ़ाये लकड़ी के पीपे में से वोद्का निकाल रहा था। लेकिन पहला आदमी जो कज़ाकों को मिला वह एक ज़ापोरोजी कज़ाक था जो सड़क के बीचों बीच हाथ-पांव पसारे बेख़बर पड़ा सो रहा था। तारास बुल्बा रुककर उसे सराहे बिना न रह सका।
“वाह, देखने में कैसा बढि़या लग रहा है, “उसने घोड़े को रोककर कहा, “कैसा मतवाला, शानदार मर्द मालूम हो रहा है! “और सचमुच वह तसवीर थी ख़ासी प्रभावशालीः कज़ाक पांव फैलाये शेर की तरह सड़क पर लेटा था और उसकी चोटी बड़े गर्व से ज़मीन पर पूरे एक फुट जगह में फैली हुई थी। उसके चौड़े पतलून पर तारकोल के धब्बे थे-मानो वह पतलून के क़ीमती लाल कपड़े के लिए उसके घोर तिरस्कार की घोषणा कर रहा हो! कज़ाक को दिल भरकर सराहने के बाद बुल्बा एक तंग गली में घुसा जो अपने-अपने कामों में व्यस्त कारीगरों और हर कौंम के लोगों से खचाखच भरी हुई थी। ये सब लोग सेच के आसपास के इस इलाक़े में रहते थे जो एक मेले जैसे लगता था और जो सेज के लिए खाने-कपड़े का इंतजाम करता था क्योंकि सेच के लोगों को तो बदूंक चलाने और शराब पीने के सिवा कुछ भी नहीं आता था।
अंत में उन्होंने यह इलाका भी पीछे छोड़ दिया और अब उन्हें इधर-उधर बिखरे हुए कुछ कज़ाकी कुरेन नज़र आने लगे जिन पर फूस के छप्पर पड़े हुए थे या जिन पर तातारी ढंग की नमदे से ढकी छतें थीं। इनमें से कुछ छतों पर तोपें लगी हुई थीं। वहां कहीं भी जंगले या उपनगरीय क्षेत्र की तरह छोटे-छोटे लकड़ी के खंभों पर टिके छज्जोंवाले नीचे-नीचे मकान दिखाई नहीं देते थे। एक नीचा-सा पुश्ता और काटे हुए वृक्षों की लकडि़यां गाड़कर बनाया गया घेरा, जिस पर कोई पहरा नहीं था, बेहद लापरवाही का सबूत दे रहा था। कुछ हट्टे-कट्टे कज़ाकों ने, जो मुंह में पाइप दबाये सड़क के बीचों-बीच इठला रहे थे, लापरवाही से इन लोगों की तरफ़ देखा मगर अपनी जगह से हिलने का नाम भी लिया। तारास और उसके बेटे सावधानी से उनके बीच से रास्ता बनाते हुये और “सलाम भाइयो “, कहते हुए गुजरे। “सलाम! “कज़ाकों ने जवाब दिया। तमाम मैदान में जगह-जगह रंगारंग लोगों की टुकडि़यां बिखरी हुई थीं। उनके सांवले चेहरों से पता चलता था कि वे लड़ाइयों की आग में तपकर फ़ौलाद बने हैं और हर किस्म की कठिनाइयों में आज़माये जा चुके हैं। तो यह सच था सेच! यह था वह कछार जहां शेरों जैसे शक्तिशाली और गर्बीले लोगों की बस्ती थी! यही थी वह जगह जहां से आजादी और कज़ाक-भावना पूरे उक्राइन में फैली थी!
मुसाफि़र एक बहुत बड़े चौक में पहुंचे जहाँ आम तौर पर कज़ाकों की पंचायत रादा जुटती थी। एक ज़ापोरोजी वहां बड़े-से उल्टे पीपे पर बैठा था , उसने अपनी कमीज़ उतार रखी थी और उसमें जो छेद हो गये थे उनको वह धीरे-धीरे सी रहा था। उन लोगों को एक बार फिर बाजेवालों की टोली की वजह से रुकना पड़ा, जिसके बीच एक जवान ज़ापोरोजी अपनी बांहें फैलाये नाच रहा था। उसकी टोपी सिर पर ऐसे बांकपन से लगी थी जैसे उसको किसी की परवाह न हो। वह बार-बार चिल्ला रहा था, “साजिंदो, और जल्दी-जल्दी बजाओ। और फ़ोमा, तुम इन ईसाइयों को वोद्का देने में कंजूसी मत करो।”और फ़ोमा ने, जिसकी एक आंख झगड़े में चोट लगने से सूजकर नीली पड़ गयी थी, जो भी उसके पास आया, उसे एक बड़ा वोद्का का जग दे दिया। जवान ज़ापोरोजी के इर्द-गिर्द चार बूढे़ काफी फुर्ती से ठुमक रहे थे, कभी आंधी की तरह एक ओर उछलकर वे लगभग साजिंदों के सिरों के ऊपर पहुंच जाते थे और कभी अचानक मस्त होकर बैठकर नाच नाचने लगते थे और बड़े जोर-शोर से अपनी रूपहले किनारेवाली एडि़यों को सख़्त ज़मीन पर पटकने लगते थे। ज़मीन दूर-दूर तक शोरोगुल से गूंज रही थी और कीलें जड़े हुए बूटों से पैदा होनेवाली गोपाक और त्रेपाक नाचों की धुनें हवा में गूंज रही थीं। लेकिन इनमें से एक आदमी औरों से ज़्यादा जानदार तरीके से चिल्ला रहा था और ज़्यादा तेज़ी से उछल-उछलकर नाच रहा था। उसकी चोटी हवा में उड़ रही थी और उसका गठीला सीना बिलकुल नंगा था। वह सिर्फ़ जाड़े के काबिल भेड़ की खाल का एक गर्म कोट पहने था और उसके जिस्म से पसीने की धाराएं बह रही थीं।
“अपना कोट उतार फेंको!”आखिरकार तारास ने कहा, “देखो तो कितना पसीना बह रहा है!”
“मैं नहीं उतार सकता! “ज़ापोरोजी ने चिल्लाकर जवाब दिया।
“क्या? “
“बस नहीं उतार सकता। मेरा स्वभाव ही ऐसा है। मैं जो चीज उतारता हूँ उसकी क़ीमत से वोद्का खरीदता हूँ। “
और सचमुच उस नौजवान के पास न तो टोपी थी, न उसके काफतान पर पेटी बंधी थी और न ही उसके पास कोई कढ़ा हुआ रूमाल था- सब कुछ अपने ठिकाने पहुंच चुका था। भीड़ बढ़ती जा रही थी और ज़्यादा लोग नाचनेवालों में शामिल होते जा रहे थे , यह नामुमकिन था कि दुनिया के इस सबसे ज़्यादा दीवाने और आज़ाद नाच को देखकर, जो अपने महान रययिताओं के नाम पर कजाचोक कहलाता है, किसी भी तमाशाई के दिल में जोश और उमंग पैदा न हो।
“काश मैं इस वक्त घोड़े पर सवार न होता!”तारास चिल्लाया, “तो मैं खुद भी इस नाच में शामिल हो जाता!”
इसी बीच भीड़ में बूढ़े, संजीदा कज़ाक भी दिखायी देने लगे थे, जिनकी अपने कारनामों की वजह से तमाम सेच में इज़्ज़त की जाती थी- सफ़ेद चोटियोंवाले बूढ़े, जिन्हें कई-कई बार सरदार चुना जा चुका था। तारास को जल्द ही बहुत-से जाने-पहचाने चेहरे नज़र आने लगे। ओस्ताप और अन्द्रेई ने उसके सिवा और कुछ नहीं सुना: “अरे, पेचेरीत्सा, तुम हो! सलाम कोज़ोलुप! “- “खुदा तुम्हें यहां कहां से ले आया, तारास?”- “दोलोतो, तुम यहां कैसे?””सलाम, किर्द्यागा! सलाम, गुस्ती! मुझे आशा नहीं थी कि तुमसे फिर कभी मुलाकात होगी, रेमेन!”और इन सूरमाओं ने, जो पूर्वी रूस के स्तेपी से आकर यहां जमा हुए थे, एक-दूसरे को चूमा , और उसके बाद तारास ने सवालों की झड़ी लगा दीः “और कस्यान का क्या बना? बोरोदाव्का कहां है? कोलोप्योर का क्या हुआ ? पिद्सिशोक का क्या हालचाल है ? लेकिन तारास ने इसके अलावा और किसी कि़स्म के जवाब नहीं सुने कि बोरोदाव्का को तोलोपान में फांसी पर चढ़ा दिया गया था, कोलोप्योर की किजिकिरमेन के पास खाल खींच दी गयी थी, पिद्सिशोक का सिर काटकर उसमें नमक लगाकर पीपे में रखकर कुस्तुनतूनिया भेज दिया था। बूढ़े बुल्बा ने अपना सिर झुका लिया और सोच में पड़कर कहा , आह, लेकिन वे सब अच्छे कज़ाक थे!”

3
तारास बुल्बा और उसके बेटे सेच में लगभग एक हफ्ता गुजार चुके थे। ओस्ताप और अन्द्रेई फा़ैजी ट्रेनिंग में बहुत कम समय गुजारते थे। सेच फ़ौजी कवायद में ज़्यादा सिर खपाना और उस पर वक़्त गवांना पसंद नहीं करता था। सेच के नौजवान सिर्फ़ तजुरबे के दौरान सीखते थे और लड़ाइयों की आग में तपकर निखरते थे। इसी वजह से लड़ाइयों की कभी कोई कमी नहीं होती थी। दो लड़ाइयों के बीच के समय में किसी भी तरह की युद्व-कला का अध्ययन और अभ्यास करना कज़ाकों के लिए दिलचस्प नहीं होता था, सिवाय निशानेबाजी और कभी-कभी घुड़दौड़ के, और स्तेपी और चरागाहों में जंगली जानवारों के पीछा करने के। उनका बाक़ी तमाम वक़्त रंगरेलियों में गुज़रता था- और यह उनकी आत्माओं के अनंत विस्तार का प्रमाण था। सेच एक असाधारण दृश्य प्रस्तुत करता था- लगातार मौज़ और मस्ती का दृश्य, बड़े धूम-धड़ाके से शुरू होने वाला जश्न जिसका कोई अंत दिखायी न देता हो। कुछ लोग अपने-अपने धंधे में लग जाते थे, कुछ लोग दुकान लगा लेते थे और व्यापार करने लगते थे, लेकिन ज़्यादातर लोग सुबह से शाम तक पीने-पिलाने में लगे रहते थे- जब तक उनकी जेब में सिक्के खनकते रहते और उनका लूट का माल व्यापारियों और शराबखाने के मालिकों की नज़र नहीं हो जाता था। इस जश्ने-आम में कोई बहुत ही मस्त कर देनेवाली बात थी। यह कोई अपने दुख को शराब में डुबोनेवाले शराबियों की महफिल नहीं थी बल्कि मस्तियों का एक तूफ़ान था जो उबला पड़ता था। हर वह आदमी जो यहां आता था अपनी तमाम चिन्ताओं को भुला देता था और पीछे छोड़ देता था। वह मानो अपनी पिछली ज़िंदगी पर थूक देता था और शराबियों जैसी लापरवाही के साथ अपने ही जैसे फक्कड़ लोगों की सोहबत में बंधनों से आज़ाद जि़ंदगी में कूद पड़ता था- उन लोगों की सोहबत में, जिनका न घरबार था न बीवी-बच्चे, जिनके पास खुले आसमान और अपनी रूहों की सदाबहार मस्ती और ऐशपसंदी के सिवा कुछ भी न था। इसी ने उस प्रचंड मस्ती को जन्म दिया था जो और किसी òोत से कभी पैदा ही नहीं हो सकती थी। काहिली से ज़मीन पर लेटे हुए कज़ाकों के बीच जिन कहानियों और इधर-उधर की बातों की चर्चा चलती रहती थी वे इतनी चटपटी रंगीन और हँसानेवाली होती थी कि ज़ापोरोजियों को इतना संजीदा बना रहने में, कि मूंछ ज़रा भी न फड़के,बेहद ज़ब्त से काम लेना पड़ता था-और यह एक ऐसी लाक्षणिक विशेषता है जिसकी वजह से दक्षिणी रूसी आज तक अपने दूसरे भाइयों से अलग पहचाने जाते हैं। यहां नशे में चूर, शोर-गुल और हुल्लड़ की मस्ती तो जरूर थी लेकिन यह कोई उदास शराबखाना नहीं था जहां आदमी घिनौनी और झूठी मस्ती में अपने आप को खो देता है। यह स्कूली साथियों का जत्था था जिसमें सब एक-दूसरे के करीब थे। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि अपने उस्ताद की इशारे की छड़ी के साथ नज़रें दौड़ाने और उसके घिसेपिटे सब़कों को सुनने के बजाय ये लोग पांच हज़ार घोड़ों पर सवार होकर कहीं धावा बोलने चल देते थे , और गेंद खेलने के मैदानों के बजाय इसके पास अपनी सरहदें थीं जिन पर कभी कोई पहरा नहीं रहता था, जहां चुस्त तातार सिर उठाते रहते थे और जिन पर हरे साफ़ोंवाले तुर्क अपनी सख्त नज़रें गड़ाये रहते थे। फ़र्क़ असल में यह था कि दूसरों की मजबूर कर देनेवाली मर्जी के बजाय जिसने उन्हें धर्मपीठ में इकट्ठा किया था, यहां वे खुद अपनी मर्जी से अपने-अपने ख़ानदानी मकानों से भागकर आये थे और अपने मां-बांप को छोड़ बैठे थे। यहां वे लोग थे जो अपनी गरदनों में फांसी का फंदा महसूस कर चुके थे और जिन्होंने अब मौत के पीले चेहरे के बजाय ज़िंदगी को उसकी भरपूर ऐशपरस्ती के साथ – देख लिया था। यहां वे लोग थे जिनकी जेबों में अमीरी के क़ायदे के मुताबिक एक फूटी कौड़ी भी नहीं टिकती थी , यहां वे लोग थे जो एक ड्यूकट को भी बहुत बड़ी दौलत समझते थे और जिनकी जेबें यहूदी सूदखोरों की मेहरबानी से इस बात के किसी ख़तरे के बिना कि उनमें से कुछ गिरेगा बड़े इतमीनान से उलटी जा सकती थीं। यहां वे सब विद्यार्थी थे जो उस्ताद की छड़ी को सह नहीं सके थे और धर्मपीठ से अपने साथ एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं लाये थे। लेकिन उनके साथ-साथ यहां ऐसे लोग भी थे जो होरेस और सिसेरो और रोमन प्रजातंत्र के बारे में जानते थे। यहां बहुत से ऐसे अफ़सर थे, जिन्होंने बाद में पोलिस्तान के राजा के झंडे तले यश कमाया और बहुत-से ऐसे अनुभवी छापेमार भी थे जो इस उदात्त सिðांत के माननेवाले थे कि असल चीज़ लड़ना है, इससे बहस नहीं कि कहां लड़ा जाये, क्योंकि लड़ाई के बिना जीना एक शरीफ़ मर्द की शान के खि़लाफ़ है। यहां बहुत-से ऐसे लोग भी थे जो सेच की तरफ़ सिर्फ़ इसलिए आये थे कि बाद में कह सकें कि वे वहां रह चुके हैं और अब पक्के सूरमा बन चुके हैं। लेकिन यहां कौन नहीं था? इस अनोखे प्रजातंत्र को वक़्त के तक़ाजे़ ने पैदा किया था। लड़ाई की ज़िंदगी, सोने की सुराहियों, क़ीमती ज़री और ड्यूकटों और सुनहरे सिक्कों के शैदाइयों को यहां हमेशा कोई न कोई काम मिल सकता था। बस सिर्फ़ औरतों की पूजा करनेवालों के लिए यहां कोई काम नहीं था क्योंकि कोई औरत सेच के कहीं आस-पास भी अपनी सूरत दिखाने की हिम्मत नहीं कर सकती थी।
ओस्ताप और अन्द्रेई को यह बात बहुत ही अजीब मालूम हुई कि उनकी उपस्थिति में लोगों का एक बड़ा हुजूम सेच में दाखि़ल हुआ था लेकिन किसी ने भी उनसे नहीं पूछा कि तुम कौन हो, कहां से आये हो, तुम्हारा नाम क्या है। वे यहां इस तरह आये जैसे अपने ज़ाती घर वापस आ रहे हों, जहां से वे अभी घंटा भर पहले निकलकर कहीं गये हों। हर नया आनेवाला बस सिर्फ़ कोशेवोई आतामान¹ के सामने अपने आप को पेश करता था और अतामान आम तौर पर पूछता थाः
“आओ, भले आदमी! क्या तुम ईसा मसीह पर यक़ीन रखते हो?”
“रखता हूँ,”नया आनेवाला जवाब देता था।
“और क्या तुम ट्रिनिटी पर विश्वास रखते हो?”
“रखता हूँ!”
“और तुम चर्च जाते हो?”
“जी हां।”
“ज़रा सलीब का निशान बनाकर तो दिखाओ!”
नया आनेवाला सलीब का निशान बनाता।
“अच्छा, ठीक है,”कोशेवोई कहता था, “अब जाओ और जो कुरेन चाहो अपने लिए चुन लो।”
और इस तरह रस्म पूरी हो जाती। सारा सेच एक ही गिरजाघर में प्रार्थना करता था और उसकी रक्षा के लिए अपने खू़न की आखिरी बूंद तक बहाने को तैयार था, हालांकि वह व्रत-उपवास और परहेज़-गारी का नाम भी सुनना पसंद नहीं करता था। सिर्फ़ बहुत ही लालची यहूदी, आर्मीनियाई और तातार ही सेच के आस-पास रहने और व्यापार करने की हिम्मत करते थे, क्योंकि ज़ापोरोजी कभी मोल-तोल नहीं करते थे और जितना पैसा जेब से निकल आता था सबका सब फेंक देते थे। लेकिन इन लालची व्यापारियों का अंत बहुत ही दुखदायी होता था। वे उन लोगों की तरह थे जो वेसूवियस पहाड़ की घाटी में आबाद हो गये थे क्योंकि जैसे ही ज़ापोरोजी अपना पैसा उड़ा चुकते थे, वे मनचले दुकानों को तोड़-फोड़ डालते थे और जो दिल चाहता था मुफ़्त झपट लेते थे। सेच साठ से ज़्यादा कुरेनों से मिलकर बना था, जिनमें से हर एक अलग एक स्वाधीन प्रजातंत्र जैसा था और उससे भी ज़्यादा उन धर्मपीठों से मिलता-जुलता था, जहां छात्रों को रहकर पढ़ना पड़ता है। किसी भी आदमी को गृहस्थी बनाने या धन-दौलत जमा करने का ख़्याल भी नहीं आता था। हर चीज़ कुरेन के आतामान के हाथ में होती थी जो इसी वजह से बात्को यानी बाप कहलाता था। रुपये-पैसे कपड़े-लत्ते, खाना-पीना, जिसमें दलिया और लपसी तक शामिल थी, यानी हर चीज़ का इंतज़ाम आतामान के हाथ में था, यहां तक कि ईंधन का भी। लोग अपना रुपया-पैसा सब उसी के पास रखवा देते थे। कुरेन अकसर आपस में लड़ पड़ते थे। ऐसी सूरतों में वे फ़ौरन बातों से गुज़रकर मारपीट पर आ जाते थे। कुरेन पूरे चौक में भर जाते थे और एक दूसरे की ख़ूब मरम्मत करते थे यहां तक कि उनमें से एक जीत जाता था, और फिर वे सब मिलकर शराब का दौर चलाते थे। सो ऐसा था सेच, जिसमें नौजवानों के लिए दिलचस्पी के इतने सामान थे।
ओस्ताप और अन्द्रेई जवानी के भरपूर जोश और उमंग के साथ ऐश और मस्ती के इस सागर में कूद पड़े और फ़ौरन ही उन्होंने अपने बाप के घर को, धर्मपीठ को और हर उस ख़्याल को भुला दिया जो उस वक़्त तक उनके दिमागों पर छाया हुआ था और खुद को अपनी नयी जि़ंदगी के सुपुर्द कर दिया। यहां हर चीज़ इनके लिए दिलचस्प थी-सेच की बदमस्ताना आदतें, उसका सीधा-सादा इंतज़ाम और उसके क़ानून जो उनको कभी-कभी इतने स्वाधीन प्रजातंत्र के लिए हद से ज़्यादा सख़्त मालूम होते थे। किसी कज़ाक पर चोरी का जुर्म साबित हो जाना, चाहे वह कितनी ही मामूली चोरी क्यों न हो, तमाम कज़ाकों के लिए बदनामी समझी जाती थीः इस ज़लील आदमी को कलंक के खंभे से बांध दिया जाता था और उसके पास एक डंडा रख दिया जाता था, जिससे हर आने-जानेवाले आदमी के लिए उसे पीटना ज़रूरी था यहां तक कि वह इस तरह डंडे खाते-खाते मर जाता था। जो कज़ाक अपना क़र्ज़ अदा नहीं करता था उसे तोप से बांध दिया जाता था और वह तब तक वहीं बंधा रहता था जब तक कि उसके साथी उसका क़र्ज़ अदा करके उसे छुड़ा न लायें। लेकिन अन्द्रेई पर किसी चीज़ का इतना गहरा असर नहीं हुआ जितना क़त्ल के जुर्म की भयानक सज़ा का। उसकी आंखों के सामने एक गड्ढा खोदा गया। क़ातिल को उसमें जि़ंदा ढकेल दिया गया और एक ताबूत, जिसमें क़त्ल किये हुए आदमी लाश रखी हुई थी उसके ऊपर रख दिया गया। इस भयानक मौत की सज़ा और उस आदमी का ख़्याल जिसे ख़ौफ़नाक ताबूत के साथ जि़ंदा गाड़ दिया गया था, अन्द्रेई को बार-बार सताता रहा।
जल्द ही दोनों नौजवानों ने कज़ाकों की नज़रों में बहुत इज़्ज़त हासिल कर ली। वे अकसर अपने कुरेन के कुछ साथियों के साथ, कभी-कभी पूरे के पूरे कुरेन और दूसरे पड़ोसी कुरेनों के साथ भी, घोड़ों पर सवार होकर, स्तेपी के तरह-तरह के पक्षियों और हिरनों और बकरियों का शिकार करने के लिए स्तेपी में जाया करते थे या फिर वे झीलों, नदियों और सहायक नदियों पर जाते थे, चुनाव करके अलग-अलग कुरेनों के नाम कर दी जाती थीं और वहां वे अपने जाल डालकर अपने कुरेन की ख़ूराक का भंडार बढ़ाने के लिए बहुत-सी मछलियां पकड़-पकड़कर लाते थे। इनमें किसी काम में भी हालांकि कोई ऐसी बात नहीं थी जो इनके कज़ाक होने का इम्तहान ले सके, लेकिन उन दोनों ने बहुत जल्दी दूसरे नौजवानों में अपनी हिम्मत और दिलेरी की वजह से और अपनी खुशकि़स्मती से बहुत ऊंचा स्थान हासिल कर लिया। वे निडर और अच्छे निशानेबाज़ थे और द्नेपर नदी को उसके बहाव के खि़लाफ़ तैरकर पार कर लेते थे- और यह एक ऐसा कारनामा था जिसकी वजह से नौसिखिये को बड़ी धूमधाम से कज़ाक बिरादरी में शामिल कर लिया जाता था।
लेकिन बूढ़ा तारास दिल में इनके लिए कुछ और ही कारनामे सोचे हुए था। यह भोग-विलास का जीवन जो वे गुज़ार रहे थे तारास के स्वभाव के खि़लाफ़ था, वह असली कारनामों की इच्छा रखता था। वह बराबर यह सोचता रहता था कि किसी तरह सेच को ऐसे बहादुर काम के लिए उभारा जाये जिसमें बांके सूरमाओं का शान के लायक़ जवांमर्दी का सबूत दिया जा सके। आखिरकार एक दिन वह कोशेवोई के पास गया और उससे सीधे-सीधे पूछाः
“क्यों कोशेवोई, हम ज़ापोरोजियों का लड़ाई के मैदान में कूदने का वक़्त आ गया है न?”
“कोई लड़ाई का मैदान है ही नहीं,”कोशेवोई ने अपना छोटा-सा पाइप मुंह से निकालकर एक तरफ़ थूकते हुए जवाब दिया।
“कोई लड़ाई का मैदान नहीं! हम तुर्कों या तातारों से टक्कर ले सकते हैं।”
“हम न तुर्कों से टक्कर ले सकते हैं और न तातारों से,”कोशेवोई से अपना पाइप दोबारा मुंह में लेते हुए शांत भाव से जवाब दिया।
“क्यों नहीं लड़ सकते?”
“इसलिए कि हमने सुल्तान को शांति का वचन दे रखा है।”
“लेकिन वह विधर्मी है और खुदा और पवित्र बाइबिल दोनों ने हमें तमाम विधर्मियों को सज़ा देने का हुक्म दिया है।”
“हमें इसका कोई हक़ नहीं है। अगर हमने अपने धर्म की क़सम न खायी होती तो हम ऐसा कर सकते थे लेकिन अब नहीं, अब हम ऐसा नहीं कर सकते।”
“क्यों नहीं कर सकते? यह कहने से तुम्हारा मतलब क्या है कि हम नहीं कर सकते? तुम जानते हो मैं दो बेटों का बाप हूँ और वे दोनों जवान हैं। दोनों में से एक ने भी लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया है और तुम कहते हो कि हमें कोई हक़ नहीं है। क्या तुम्हारा मतलब है कि ज़ापोरोजी लोग लड़ ही नहीं सकते?”
“हां, ऐसा ही करना पड़ेगा।”
“तो क्या कज़ाकी ताक़त बेकार नष्ट होने के लिए है? क्या आदमी कोई भी बहादुरी का कारनामा किये बिना, अपने वतन और ईसाई दुनिया को ज़रा भी फ़ायदा पहुंचाये बिना कुत्ते की मौत मर जाये? आखि़र हम किसलिए जीते हैं? मुझे बताओ न, आखि़र हम किसलिए जीते हैं तुम समझदार आदमी हो, तुम्हें कोशेवोई यूं ही नहीं चुन लिया गया था, सो तुम मुझे बताओ तो सही हम किसलिए ज़िंदा हैं?”
कोशेवोई ने इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। वह एक खुदराय कज़ाक था। वह कुछ देर चुप रहा और फिर बोलाः
“बहरहाल लड़ाई तो होगी नहीं।”
“तुम कहते हो जंग नहीं होगी?”तारास ने फिर पूछा।
“नहीं।”
“और उसके बारे में सोचना बेकार है?”
“बिल्कुल बेकार।”
“ठहरो ज़रा, शैतान की औलाद,”बुल्बा ने दिल में सोचा।
“मैं तुम्हें अच्छी तरह बताऊंगा।”और उसने फ़ौरन कोशेवोई से बदला लेने की ठान ली।
दूसरे कई साथियों से बातें करके तारास ने ज़ापोरोजियों को बहुत-सी शराब पिलायी और थोड़ी ही देर बाद नशे में चूर कज़ाकों का यह गिरोह चौक की तरफ़ चल पड़ा जहां खंभे से बंधा हुआ वह नगाड़ा रखा था, जो रादा को इकट्ठा करने के लिए बजाया जाता था। जब इन लोगों को नगाड़े को बजानेवाली लकडि़यां नहीं मिलीं क्योंकि उन्हें नगाड़ा बजानेवाला हमेशा अपने साथ रखता था, तो उनमें से हर एक ने लकड़ी का एक-एक टुकड़ा लिया और नगाड़े पर चोटें मारनी शुरू कर दीं। नगाड़े की आवाज़ पर जो आदमी सबसे पहले भागा हुआ आया वह नगाड़ा बजानेवाला ही था। वह एक लंबे क़द का आदमी था और इस वक़्त अपनी कानी आंख के बावजूद अपने आपको नींद में चूर दिखाने में कामयाब हो गया।
“किसने नगाड़ा बजाने की हिम्मत की?”उसने चिल्लाकर पूछा।
“ख़ामोश! जब तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है तो अपनी लकडि़यां लो और नगाड़ा बजाना शुरू कर दो!”नशे में चूर सरदारों ने जवाब दिया।
नगाड़ा बजानेवाले ने, जिसको अच्छी तरह मालूम था कि ऐसी घटना का क्या अंजाम होता है, फ़ौरन अपनी जेब से लकडि़यां निकालीं। नगाड़े की आवाज़ गूंजने लगी और जल्द ही काले भंवरों की तरह ज़ाजोरोजियों के झुंड के झुंड उस तरफ़ आने लगे। वे सब एक घेरे में जमा हो गये और आखिरकार तीसरी पुकार पर सरदार दिखाई दिये-कोशेवोई हाथ में चोब लिये हुए, जो उसके ओहदे का निशान था, जज फ़ौजी मोहर लिये हुए, अरज़ी लिखनेवाला अपनी दवात के साथ और येसऊल अपनी गदा के साथ। कोशेवोई और दूसरे सरदारों ने अपनी टोपियां उतार लीं और चारों तरफ़ मुड़-मुड़कर कज़ाकों के सामने झुकने लगे जो वहां कमर पर हाथ रखे हुए बहुत अकड़कर खड़े थे।
“इस सभा का क्या मतलब है? भाइयो, आप लोग क्या चाहते हैं?”कोशेवोई ने पूछा। चीखांे और गालियों ने उसे चुप कर दिया।
“अपना चोब रख दो! उसे फ़ौरन रख दो, शैतान की औलाद! हमें अब तुम्हारी ज़रूरत नहीं है!”भीड़ में से कज़ाक चिल्लाये।
जिन कुरेनों ने नहीं पी रखी थी उनमें से कुछ ऐसा लगता था, सहमत नहीं थे। आखिरकार सारे कुरेन, जो पिये हुए थे और जो होश में थे दोनों ही, आपस में मारपीट करने लगे। हर तरफ़ शोर मचने लगा और चीख-पुकार शुरू हो गयी।”
कोशेवोई ने बोलने की कोशिश की लेकिन चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी, वह जानता था कि बहुत मुमकिन था कि यह बिफरी हुई और अपनी धुन की पक्की भीड़ उसे मारकर ख़त्म कर दे, जैसा कि ऐसे मौक़ों पर लगभग हमेशा ही होता था, सो वह ज़मीन तक झुका और अपना चोब रखकर भीड़ में खो गया।
“भाइयो, क्या आप लोग हमें भी हुक्म देते हैं कि हम अपने-अपने ओहदों की निशानियां नीचे रख दें?”जज, अरज़ी लिखनेवाले और येसऊल ने पूछा और दवात, फ़ौजी मोहर और गदा को हाथ में रखने के लिए तैयार हो गये।
“नहीं, तुम लोग अपनी-अपनी जगह संभाले रहो!”भीड़ चिल्लायी, हम सिर्फ़ कोशेवोई को अलग करना चाहते थे क्योंकि वह तो सच्चा मर्द नहीं, एक औरत है और हमें कोशेवोई की जगह के लिए मर्द की ज़रूरत है।
“अब किसे कोशेवोई चुना जायेगा?”सरदारों ने पूछा।
“कुकूबेनको को चुना जाये।”एक तरफ़ के लोग चिल्लाये।
“हम कुकूबेनको को नहीं चुनना चाहते!”दूसरी तरफ़वाले चीखे। “वह बहुत जवान है, अभी उसके मुंह से मां के दूध की महक आती है!”
“शीलो को आतामान बना दो! “कुछ लोग चिल्लाये! शीलो को कोशेवोई चुन लो।”
“क्या कहा!”भीड़ में से चीखों और गालियों की आवाज़ आयी। “वह तो ऐसा कज़ाक है कि तातारों की तरह चोरी करता है, कुत्ते का बच्चा! जहन्नुम में जाये शराबी शीलो! उसका सिर फोड़ दो!”
“बोरोदाती! चलो बोरोदाती को अपना कोशेवोई बनाते हैं!”
“हमें बोरोदाती नहीं चाहिये! लानत है उस हरामी पर।”
“किर्द्यागा के लिए आवाज़ उठाओ! लानत है उस हरामी पर।”
“किर्द्यागा! किर्द्यागा!”भीड़ चिल्लायी। “बोरोदाती! बोरोदाती! किर्द्यागा! किर्द्यागा! शीलो! जहन्नुम में जाये शीलो! किर्द्यागा!”
सारे उम्मीदवार, जैसे ही उन्होंने लोगों को अपना नाम चिललाते हुए सुना वैसे ही भीड़ के बाहर निकलकर अलग खड़े हो गये ताकि कोई यह न सोचे कि उन्होंने अपने चुनाव में स्वयं कोई ज़ोर डाला हो।
“किर्द्यागा! किर्द्यागा!”यह पुकार और ज़ोर से सुनायी पड़ने लगी। “बोरोदाती!”
इस झगड़े को तय करने के लिए लोग ज़बरदस्त हाथापाई पर उतर आये जिसमें किर्द्यागा की जीत हुई।
“जाओ, किर्द्यागा को ले आओ!”भीड़ में आवाज़ें सुनायी दीं।
कोई दर्जन-भर कज़ाक भीड़ से अलग निकल आये-उनमें से कुछ इतनी वोद्का चढ़ाये हुए थे कि वे ठीक से खड़े भी नहीं हो पा रहे थे- वे सीधे किर्द्यागा के पास उसके चुनाव की ख़बर देने के लिए चल दिये।
किर्द्यागा, जो बूढ़ा होने के बावजूद सूझ-बूझ रखनेवाला कज़ाक था, बड़ी देर से अपने कुरेन में बैठा हुआ था मानो उसे कुछ पता ही न हो कि क्या हो रहा है।
“भाइयो, आप लोग क्या चाहते हैं?”उसने पूछा।
“आओ चलोः तुम्हें कोशेवोई चुन लिया गया है!।।”
“मुझ पर रहम कीजिये, भाइयो!”किर्द्यागा ने कहा। “भला मैं इस इज़्ज़त के क़ाबिल कहां हूँ! मैं क्या ख़ाक कोशेवोई बनूंगा! मेरे पास ऐसे ओहदे के लायक़ सूझ-बूझ ही नहीं है! क्या उनको पूरी फ़ौज में कोई और बेहतर आदमी नहीं मिला?”
“चलो, चलो, हम जो तुमसे कह रहे हैं।”ज़ापोरोजी चिल्लाये। उनमें से दो आदमियों ने उसकी बांहें पकड़ लीं अैर उसके अडि़यल टट्टू की तरह अड़ने और रुकने के बावजूद उसे घसीटकर चौक तक ले गये और उसे आगे बढ़ाने को लगातार घूंसों, लातों, गालियों और नसीहतों से काम लेते रहेः “अड़ मत, शैतान की औलाद! अब तुझे इज़्ज़त बख़्शी जा रही है, कुत्ते, तो लेता क्यों नहीं!”
इस तरह किर्द्यागा को कज़ाकों के घेरे में पहुंचा दिया गया।
“क्यों, भाइयो,”उसे लानेवालों ने सब लोगों से गूंजती आवाज़ में पूछा, “आप सब इस कज़ाक को अपना कोशेवोई बनाने पर राज़ी हैं?”
“हम सब राज़ी हैं!”भीड़ ने जवाब में गरजकर कहा और मैदान बहुत देर तक इस गरज से गूंजता रहा।
सरदारों में से एक ने चोब उठाकर नये चुने गये कोशेवोई के सामने पेश किया। किर्द्यागा ने क़ायदे के मुताबिक इसे लेने से इंकार किया। सरदार ने दोबारा उसे पेश किया। किर्द्यागा ने फिर उसे लेने से इंकार किया और तीसरी बार आखि़रकार उसने चोब ले ही लिया। सारी भीड़ ने समर्थन के नारे लगाये जो पूरे मैदान में गंूज उठे। इसके बाद भीड़ में से चार सबसे बुज़ुर्ग कज़ाक आगे बढ़े जिनकी मूंछें और चोटियां सफ़ेद थीं ;सेच में बहुत ज़्यादा बूढ़े लोग तो दिखायी नहीं पड़ते थे क्योंकि कोई ज़ापोरोजी कभी अपनी मौत करता ही नहीं थाद्ध, उनमें से हर एक ने मुट्ठी-भर मिट्टी उठा ली- जिसे हाल ही में बारिश ने कीचड़ बना दिया था-और उसे किर्द्यागा के सिर पर रख दिया। कीचड़ उसके सिर पर से बह-बहकर मूंछों और गालों पर आ गया और उसके पूरे चेहरे पर फैल गया। लेकिन किर्द्यागा ने चूं तक नहीं की और उसने इस सम्मान के लिए जो उसे दिया गया था कज़ाकों का शुक्रिया अदा किया।
इस तरह शोर-गुल के बीच चुनाव ख़त्म हुआ। मालूम नहीं कि इस चुनाव के नतीजे से कोई और आदमी उतना खुश हुआ कि नहीं जितना कि बुल्बा। बुल्बा ने पुराने कोशेवोई से बदला ले लिया था और इसके अलावा किर्द्यागा उसका पुराना साथी भी था, ज़मीन पर और समुद्र में कितनी ही लड़ाइयों में वह बुल्बा के साथ रह चुका था और दोनों ने एक साथ सैनिक जीवन की कठिनाइयों और मुसीबतों को झेला था। भीड़ फ़ौरन चुनाव की खुशी मनाने के लिए बिखर गयी और फिर तो ऐसा हंगामा मचा जैसा ओस्ताप और अन्द्रेई ने पहले कभी नहीं देखा था। शराबखानों को लूट लिया गया, शहद की शराब, वोद्का और बियर लोग बग़ैर पैसे दिये उठा ले गये, शराबखानों के मालिक खुश थे कि जान बची लाखों पाये। रात-भर वे लोग चीखते-चिल्लाते और फ़ौजी गीत गाते रहे। उभरता हुआ चाँद गाने-बजानेवालों की टोलियों को, जो सड़कों पर बंदूरे, इकतारे और गोल बलालायका लिये घूम रहे थे, और उन गानेवालों को देखता रहा, जो सेच में इसलिए रखे जाते थे कि चर्च में भजन और ज़ापोरोजियों के कारनामों के गीत गायें। आखि़रकार नशे और थकन ने इन सिरफिरे लोगों को भी आ दबोचा। कहीं कोई कज़ाक ज़मीन पर गिरा पड़ रहा था। कहीं कोई कज़ाक किसी साथी से लिपट जाता यहां तक कि दोनों नशे में भावुक हो जाते और फूट-फूटकर रोने तक लगते और दोनों लुढ़क जाते। कहीं कोई पूरी की पूरी टोली ज़मीन पर ढेर थी, तो किसी और तरफ़ एक आदमी सोने की मुनासिब जगह खोजते-खोजते एक हौज़ में पांव पसार कर सो गया था। सबसे ज़्यादा सख्तजान कज़ाक अब तक अनाप-शनाप बुड़बुड़ा रहा था मगर आखि़रकार उसे भी नशे ने आ दबोचा और वह भी लड़खड़ाकर ज़मीन पर जा गिरा-और अब सारा सेच सो रहा था।

4
अगले ही दिन तारास बुल्बा ने नये कोशेवोई से इसके बारे में बातचीत करना शुरू कर दी कि ज़ापोरोजियों को काम में लगाने का सबसे अच्छा तरीक़ा क्या हो सकता है। कोशेवोई ने, जो चालाक और समझदार कज़ाक था और ज़ापोरोजियों की नस-नस पहचानता था, इस तरह बात शुरू कीः “हम किसी भी हालत में अपनी क़सम नहीं तोड़ सकते, किसी भी हालत में नहीं।”फिर कुछ देर ठहरकर उसने बात आगे बढ़ायी, “लेकिन एक रास्ता है हम अपनी क़सम तो नहीं तोड़ेंगे, फिर भी मुमकिन है कि हम कोई न कोई हल सोच निकालें। ज़रा लोगों को जमा कर दो लेकिन मेरे हुक्म से नहीं बल्कि उनकी अपनी मजऱ्ी से। तुम अच्छी तरह जानते हो कि यह काम कैसे किया जाये। मैं और दूसरे सरदार चौक की तरफ़ इस तरह भागे हुए आयेंगे जैसे हमें इसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं।”
उनकी इस बातचीत के बाद घंटे भर के अंदर ही नगाड़ों पर चोटें पड़ रही थीं। कज़ाक, बुरी तरह नशे में चूर और बौखलाये हुए, फ़ौरन आकर जमा हो गये। एक साथ लाखों कज़ाक टोपियां चौक में फुदक रही थीं। एक मधिम-सी भनभनाहट गूंज उठीः “कौन?… किसलिए?… क्यों इकट्ठा किया?”किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। आखि़रकार भीड़ के अलग-अलग हिस्सों से असंतुष्ट आवाजें उठने लगीं, “हमारी कज़ाकी ताक़त बेकार जा रही हैः कहीं कोई लड़ाई नहीं हो रही है!… सरदार काहिल हो गये हैं, उनकी आंखें पर चर्बी छा गयी है। इस दुनिया में कोई इंसाफ़ नहीं है!”दूसरे कज़ाक पहलेे तो सुनते रहे, फिर उन्होंने ख़ुद बुड़बुड़ाना शुरू कर दियाः “हां, सच है, इस दुनिया में इंसाफ़ नहीं है!”सरदारों ने इन शब्दों पर आश्चर्य प्रकट किया। आखि़रकार कोशेवोई आगे बढ़ा और बोलाः
“भाइयो, ज़ापोरोजियो, मुझको बोलने की इजाज़त दीजिये!”
“बोलिये!”
“नेक भाइयो, मेरे बोलने का उद्देश्य यह है कि आपको बता दूं… लेकिन शायद आप मुझसे ज़्यादा जानते हैं… कि बहुत से ज़ापोरोजी यहूदी शराबानों के और ख़ुद अपने भाइयों के कजऱ् में इतनी बुरी तरह डूब गये हैं कि अब कोई भूलकर भी उन्हें कर्ज़ नहीं देगा। इसके अलावा मेरे बोलने का उद्देश्य यह है कि आपको बता दूं कि हमारे यहां ऐसी नयी कोंपलें भी हैं जिन्हें ज़रा भी पता नहीं है कि लड़ाई होती क्या है, और यह तो आप जानते ही हैं, भाइयो, कि कोई नौजवान लड़ाई के बग़ैर जि़ंदा नहीं रह सकता। वह भला कैसा ज़ापारोजी जिसने कभी किसी विधर्मी को पछाड़ा न हो?”
“भाषण अच्छा देता है,”बुल्बा ने सोचा।
“लेकिन भाइयो,यह न समझ लीजियेगा कि मैं यह सब कुछ-खु़दा न करे-शांति भंग करने के लिए कह रहा हूँ। मैं तो सिर्फ़ वैसे ही रहा हूँ। और फिर ज़रा यह भी देखिये कि हमारे गिरजाघर की क्या हालत है, यह हमारे लिए डूब मरने की बात है, सेच भगवान की मेहरबानी से बरसों से मौजूद है, मगर हमारे गिरजाघर के बाहरी रूप को तो छोडि़ये, इसके अंदर जो देव-प्रतिमाएं हैं उनको भी आज तक कोई सजावट का सामान नसीब नहीं हुआ है। किसी को उनके लिए चाँदी के चौखटे तक बनवा देने का ख़्याल नहीं आया! हमारे गिरजाघर को उन चीज़ों के अलावा जो कुछ कज़ाक अपने वसीयतनामों में उसके नाम लिख गये हैं और कुछ भी नहीं मिला है। हां, और यह दान भी बहुत मामूली था क्योंकि देनेवाले अपनी जि़ंदगियों में ही अपनी लगभग तमाम दौलत शराब में उड़ा चुके थे। लेकिन मेरे बोलने का मतलब यह नहीं है कि आपसे विधर्मियों के खि़लाफ़ जंग करने को कहूं। हमने सुल्तान को शांति का वचन दिया है और हमारी आत्माओं पर गुनाह का भारी बोझ चढ़ जायेगा क्यांेकि हमने अपने धर्म की क़सम खायी है!”
“इस बकवास का क्या मतलब है?”बुल्बा ने हैरान होकर सोचा।
“तो आपने देखा, भाइयो, कि हम लड़ाई नहीं छेड़ सकते, हमारी सूरमाओं वाली आन-बान इसकी इजाज़त नहीं देती। मेरे छोटे-से दिमाग़ में यह बात आती है कि हम अपने नौजवानों को नावों पर भेज दें कि वे जाकर अनातोलिया के समुद्रतट से कुछ खुरच लायें। इसके बारे मेंआपकी क्या राय है, भाइयो?”
“ले चलो, हम सबको ले चलो,”भीड़ में हर तरफ़ से आवाज़ें उठीं। “अपने धर्म के लिए हम अपने सिर तक कटाने को तैयार है!
कोशेवोई डर गया। इस तरह सारे के सारे ज़ापोरोज्ये को उकसा देने का उसका कोई इरादा नहीं था, वह शांति भंग करने को ग़लत समझता था।
“भाइयो, मुझे थोड़ा और बोलने की इजाज़त दीजिये!”
“बस, काफ़ी है!”ज़ापोराजी चिल्लाये, “पहलेवाली बात को तबाह करने को रहने दो!”
“अगर आप लोग यही चाहते हैं तो यही सही। मैं तो आपकी मर्ज़ी का गु़लाम हूँ। हर शख्स जानता है और बाइबिल में भी यही कहा गया है कि जन-वाणी को देव-वाणी समझो। सब लोगों की मिली-जुली राय से बेहतर कोई राय नहीं होती। मगर मैं यह सोच रहा थाः आप जानते हैं, भाइयो, कि सुल्तान हमारे जवानों के इस छोटे-से खिलवाड़ पर सज़ा दिये बग़ैर नहीं रहेगा। और इस अरसे में हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिये, हमारी फ़ौज को ताज़ादम हो जाना चाहिये और हमें किसी से भी डरने की कोई वजह नहीं होनी चाहिये। इसके अलावा, जब हम बाहर होंगे उस वक़्त तातार सेच पर धावा बोल सकते हैं, जब मालिक घर पर हो तो तुर्की कुत्ते कभी आने की हिम्मत नहीं करेंगे, लेकिन वे पीछे से आकर हमारी एडि़यों पर काटेंगे और बड़ी ज़ोर से काटेंगे। और अगर सच बात कही जाये तो हमारे पास नावें काफ़ी नहीं हैं और न ही इतनी बारूद पीसी गयी है जो सबके लिए पूरी पड़े। जहां तक मेरा सवाल है, मैं तो इसके पक्ष में हूँ क्योंकि मैं तो आप सबकी मजऱ्ी का गु़लाम हूँ।”
चालाक आतामान चुप हो गया। भीड़ अलग-अलग टोलियों में बंटकर इस सवाल पर बातचीत करने लगी, कुरेनों के आतामान सिर जोड़कर बैठे। सौभाग्य से नशे में धुत्त लोगों की गिनती कम ही थी और इसीलिए फ़ैसला यह हुआ कि समझदारी की इस राय को मान लिया जाये।
कुछ लोगों को फ़ौरन ही द्नेपर के दूसरे किनारे पर फ़ौजी खज़ाने में भेजा गया जहां फ़ौज की दौलत और दुश्मानों से लूटे हुए कुछ हथियार पानी के नीचे और सरकंडों के बीच बहुत संभालकर छिपा दिये थे। बाक़ी सब लोग नावों की ओर दौड़ पड़े कि उनकी जांच-पड़ताल करके उन्हें सफ़र के लिए तैयार कर दें। पलक झपकते नदी का पूरा तट लोगों से भर गया। बढ़ई हाथों में कुल्हाडि़यां लेकर निकल आये। धूप में संवलाये हुए, चौड़े कंधों और मज़बूत टांगांेवाले बुज़ुर्ग ज़ापोरोजी, जिनमें से कुछ की मूंछें अभी काली थीं और कुछ की सफ़ेद हो चली थीं, घुटनों-घुटनों पानी में खड़े होकर मोटे-मोटे रस्सों को ज़ोर लगाकर खींचने लगे और नावों को पानी में उतारने लगे। दूसरे लोग सूखे हुए लट्ठों और हाल ही में गिराये गये पेड़ों को घसीटने लगे। कहीं लोग किसी नाव में नये तख्ते लगा रहे थे तो दूसरी जगह किसी उलटी हुई नाव की दरारों को भरकर उस पर तारकोल पोत रहे थे, कहीं कज़ाकी दस्तूर के हिसाब से नावों में सरकंडों के लंबे-लंबे गट्ठे बांधे जा रहे थे ताकि समुद्र की लहरें नावों को डुबो न सकें। तट पर इधर से उधर तक अलाव जल रहे थेऔर तांबे की देगों में नावों पर पोतने के लिए तारकोल खौलाया जा रहा था। बूढ़े और अनुभवी लोग नौजवानों को सलाह दे रहे थे। हर तरफ़ से काम करने वालों को शोर उठ रहा था। इस चहल-पहल से मानो पूरे तट में जान पड़ गयी थी।
उसी वक़्त एक बड़ी-सी नाव किनारे की ओर आती हुई दिखायी दी। उसमें खड़े हुए लोगों की भीड़ दूर ही से हाथ हिलाने लगी थी। वे फटे-पुराने कपड़े पहने हुए कज़ाक थे- उनमें से कुछ तो सिर्फ़ एक कमीज़ पहने हुए थे और मुंह में छोटे-छोटे पाइप दबाये थे। इससे मालूम होता था कि या तो वे अभी-अभी किसी दुर्घटना से बचकर निकले थे या उन्होंने अपने सब कपड़े-लत्ते शराब-कबाब में गवां दिये थे। उनमें से एक छोटे क़द का, मोटा, चौड़े कंधोंवाला, लगभग पचास साल का कज़ाक आगे बढ़ा। वह औरों से भी ऊंची आवाज़ में चिल्ला रहा था और ज़्यादा तेज़ी से अपना हाथ हिला रहा थाः लेकिन उसकी बात काम करनेवालों के शोर-गुल में डूबकर रह गयी।
“तुम क्या खबर लेकर आये हो?”जब नाव तेज़ी से किनारे के पास आने लगी तो कोशेवोई ने पूछा।
सब काम करनेवाले लोग अपना-अपना काम रोककर कुल्हाडि़यां और छेनियां ऊपर उठाये हुए इंतज़ार करते हुए उधर देखने लगे।
“बुरी खबर!”वह नाटा और मोटा कज़ाक नाव पर से चिल्लाया।
“क्या खबर है?”
“ज़ापोरोजी भाइयो, क्या आप मुझे बोलने की इजाज़त देते हैं?”
“बोलो, बोलो!”
“या शायद आप रादा को बुलाना चाहें?”
“बोलो, हम सब यहीं हैं! “
लोग एक-दूसरे के पास आ गये।
“क्या आप लोग नहीं जानते कि हेटमैनी में क्या हो रहा है?”
“वहां क्या हो रहा है?”एक कुरेन के आतामान ने पूछा।
“अरे, क्या? लगता है कि तातारों ने तुम लोगों के कानों में रूई ठूंस दी है, जभी तुम लोगों ने कुछ नहीं सुना।”
“कुछ कहो तो सही वहां क्या हो रहा है? “
“वहां ऐसी-ऐसी चीजें़ हो रही हैं जो इस दुनिया में पैदा होनेवाले किसी भी आदमी ने, जिसका बपतिस्मा हो चुका हो, कभी न देखी होंगी।”
“कुछ मुंह से तो फूटे कि आखिर वहां क्या हो रहा है, कुत्ते के बच्चे!”भीड़ में से एक आदमी अधीर होकर चिल्लाया।
“हमारे ऊपर ऐसा वक़्त आ पड़ा है कि अब हमारे पवित्र गिरजाघर भी हमारे नहीं रहे।”
“हमारे कैसे नहीं रहे?”
“अब उन्हें पट्टे पर यहूदियों को दे दिया गया है। यहूदी को पेशगी दिये बिना वहां प्रार्थना नहीं हो सकती।”
“यह आदमी बकवास कर रहा है!”
“और जब तक मनहूस यहूदी कुत्ता अपने अशुð हाथों से हमारी ईस्टर की पवित्र रोटी पर अपना निशान न लगा दे तब तक उस पर पवित्र पानी छिड़का नहीं जा सकता।”
“यह झूठ बोल रहा है, भाइयो। यह हो ही नहीं सकता कि कोई विधर्मी यहूदी पवित्र ईस्टर की रोटी पर अपना निशान लगाये।”
“सुनो तो सही!… इतना ही नहीं। रोमन पादरी टमटमों में बैठकर सारे उक्राइन में घूम रहे हैं। खराबी टमटमों में नहीं है, खराबी असल में यह है कि वह अब टमटमों में घोड़े नहीं जोतते बल्कि कट्टर-पंथी ईसाइयों को जोतते हैं। और सुनो! अभी तो मैंने पूरी बात बतायी ही नहीं। लोग कहते हैं कि यहूदिनें हमारे पादरियों की पोशाकों से अपने लिए पेटीकोट सिल रही हैं। सो, भाइयो, यह हो रहा है उक्राइन में! और तुम लोग यहां ज़ापोरोज्ये में बैठे रंगरेलियां मना रहे हो, और मालूम होता है कि तातारों ने तुम्हें इतना डरा दिया है कि तुम्हारे पास अब न आंखें रही हैं, न कान, न और कुछ। तुम कुछ भी नहीं जानते कि दुनिया में क्या हो रहा है।”
“ठहरो, ठहरो!”कोशेवोई, जो दूसरे ज़ापोरोजियों की तरह अब तक ज़मीन पर नज़रें गड़ाये खड़ा था, बोल पड़ा क्योंकि ज़ापोरोजी महत्त्वपूर्ण और गंभीर अवसरों पर कभी जल्दी नहीं भड़कते बल्कि शांत रहते हैं और इस बीच में धीरे-धीरे उन पर गु़स्सा चढ़ता है। “ठहरो! मैं भी तुमसे दो शब्द बोलूं। मुझे यह तो बताओ कि तुम लोग क्या कर रहे थे- शैतान तुम्हारे बापों के जिस्मों के टुकड़े-टुकड़े कर दे- तुम खुद क्या कर रहे थे? क्या तुम्हारे पास तलवारें नहीं थीं? आखिर तुमने ऐसा गै़रक़ानूनी अंधेर होने कैसे दिया?”
“हमने कैसे होने दिया? क्या तुम उन्हें रोक सकते थे जबकि पचास हज़ार तो पोलिस्तानी थे और जब-अपने गुनाहों पर परदा डालने से कोई फ़ायदा नहीं-खुद हमारे अपने लोगों में ऐसे कुत्ते थे जो उनका धर्म मान चुके थे?”
“और तुम्हारा हेटमैन, तुम्हारे कर्नल-वे कहां थे?”
“भगवान हम सबको उस दुर्गति से बचाये जो हमारे कर्नलों की हुई।”
“क्यों?”
“हमारा हेटमैन तो इस वक़्त वारसा में एक तांबे के बैल के अंदर कबाब बना पड़ा है।¹ और हमारे कर्नलों के हाथ और सिर नुमाइश के लिए मेले से दूसरे, और दूसरे से तीसरे में ले जाये जा रहे हैं। यह हुआ हमारे कर्नलों का अंजाम।”
पूरी भीड़ में जान-सी पड़ गयी। पहले तो नदी के किनारे पर कुछ ऐसी ख़मोशी छा गयी जैसी कि ज़बर्दस्त तूफ़ान से पहले छा जाती है और फिर एकदम आवाजें उभरीं और सारा तट एकदम से बोलने लगा।
“क्या! यहूदी ईसाइयों के गिरजाघरों को पट्टे पर लें! रोमन पादरी कट्टरपंथी ईसाइयों को अपनी टमटमों में जोतें! क्या! कमबख्त विधर्मियों की वजह से रूस की ज़मीन पर ऐसी-ऐसी यातनाएं सहने पर मजबूर करने की छूट दे दी जाये! उन्हें अपने हेटमैन और अपने कर्नलों के साथ ऐसा सुलूक करने दिया जाये! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं होगा!”
भीड़ के हर हिस्से में इसी तरह की चर्चाएं हो रही थीं। ज़ापोरोजी अपना गु़स्सा दिखाने लगे, वे अपनी ताक़त के बारे में सजग हो उठे। अब यह जोश बेवकू़फ़ी का जोश नहीं रह गया था, यह मज़बूत और दृढ़ चरित्रवाले लोगों का जोश था जो आसानी से नहीं उबलता था, मगर जब उबलता था तो देर तक और हठधर्मी से खौलता रहता था।
“सारे यहूदियों को फांसी चढ़ा दो!”भीड़ में से एक आवाज़ आयी। “उन्हें पादरियों की पोशाक से अपनी यहूदिनों के पेटीकोट बनाने का मज़ा चखा दो! उन्हें हमारी पवित्र ईस्टर की रोटी पर अपना निशान लगाने का मज़ा चखा दो! सब विधर्मियों को द्नेपर में डुबो दो!”
ये शब्द जो भीड़ में से किसी एक की ज़बान से निकले थे बिजली की लहर की तरह सारे लोगों के दिमाग़ों में कौंध गये और भीड़ सारे यहूदियों को मौत के घाट उतारने पर उपनगर की ओर दौड़ पड़ी।
बेचारी इज़राइल की संतान अपनी रही-सही हिम्मत भी खो बैठी और वोद्का के खाली पीपों के अंदर, तंदूरों में छिप गयी, और हद तो यह है कि अपनी औरतों के पेटीकोटों तक के अंदर घुसकर बैठ गयी। लेकिन कज़ाकों ने उन्हें हर जगह से ढंूढ़ निकाला।
“मेहरबान हज़रात!”बांस की तरह लंबा और दुबला-पतला एक यहूदी अपने साथियों की टुकड़ी के बीच से अपना दयनीय भयभीत चेहरा आगे करके चिल्लाया। “मेहरबान, हज़रात, मुझे एक शब्द कहने दीजिये, बस एक शब्द! हम आपको एक ऐसी बात बतायेंगे जो आपने पहले कभी न सुनी होगी, एक ऐसी बात जो इतनी ज़रूरी है कि शब्दों में बताना भी मुमकिन नहीं है कि वह कितनी ज़रूरी है!”
“अच्छा, इन्हें बोलने दो!”बुल्बा ने कहा। वह हमेशा यह सुनने को तैयार रहता था कि अभियोगी को अपनी सफ़ाई में क्या कहना है।
“मेहरबान, हज़रत!”यहूदी ने कहा। “ऐसे शरीफ़ लोग तो आज तक कभी देखे नहीं गये-भगवान की क़सम, कभी नहीं! ऐसे मेहरबान, ऐसे नेक और ऐसे बहादुर लोग तो पहले इस दुनिया में हुए ही नहीं!…”उसकी आवाज़ डर के मारे कांप रही थी और लड़खड़ा रही थी। “हम ज़ापोरोजियों के बारे में भला कोई बुरा ख़्याल दिल में ला भी सकते हैं? उक्राइन में जो पट्टेदार हैं वे हमारे आदमी बिल्कुल नहीं हैं! भगवान की क़सम, नहीं हैं! वे यहूदी हैं ही नहीं, भगवान ही जाने कि वे क्या हैं! वे तो इस क़ाबिल हैं कि उन पर सिर्फ़ थूका जाये और उनसे कोई वास्ता ही न रखा जाये। यहां जितने लोग हैं सब यही कहेंगे। मैं ठीक कह रहा हूँ न, श्ल्योमा? ठीक है न, श्मुल?”
“भगवान की क़सम, बिल्कुल सच है!”श्ल्योमा और श्मुल ने भीड़ में से जवाब दिया। वे दोनों चंदिया पर मढ़ी हुई फटी-पुरानी टोपियां ओढ़े थे और दोनों का रंग खरिया मिट्टी की तरह सफ़ेद था।
“हमने आज तक कभी आपके दुश्मनों से कोई नाता नहीं रखा है।”लंबा दुबला-पतला यहूदी फिर बोला। “और जहां तक कैथोलिकों का सवाल है तो हम तो उन्हें जानना तक नहीं चाहते-शैतान उनकी नींद हराम करे! हम और ज़ापोरोजी तो भाइयों की तरह हैं…”
“क्या कहा? ज़ापोरोजी तुम्हारे भाई हैं?”भीड़ में से कोई चिल्लाया। “यह कभी हो नहीं सकता, कमबख्त यहूदियो! द्नेपर में डुबो दो इन सबको! डुबो दो इन सब विधर्मियों को! “
इन शब्दों ने इशारे का काम किया। लोगों ने यहूदियों का पकड़-पकड़कर लहरों के हवाले करना शुरू कर दिया। हर तरफ़ से दर्दनाक चीखें सुनायी देने लगीं, लेकिन बेरहम ज़ापोरोजी यहूदियों की टांगों को उनके जूतों और मोज़ों समेत हवा में छटपटाता देखकर हँस रहे थे। वह अभागा बोलनेवाला, जो अपने हाथों अपने सिर पर मुसीबत लाया था, उछलकर अपने कोट में से, जो किसी की पकड़ में आ चुका था, बाहर निकल आया और सिर्फ़ तंग वास्कट पहने खड़ा रह गया। उसने बुल्बा के पांव पकड़ लिये और गिड़गिड़ाकर दर्द-भरी आवाज़ में बोलाः
“हुजूर, मेहरबान सरकार ! मैं आपके स्वर्गीय भाई दोरोश को जानता था! वह सारे सूरमाओं की दुनिया के सरताज थे। जब एक बार उन्हें तुर्कों की क़ैद से छुटकारा पाने केलिए पैसों की ज़रूरत पड़ी थी तो मैंने उन्हें आठ सौ सेक्विन¹ दिये थे।”
“तुम मेरे भाई को जानते थे?”तारास ने पूछा।
“भगवान की क़सम मैं उनको जानता था! वह बड़े दयालु आदमी थे।”
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“यांकेल।”
“अच्छा,”तारास ने कहा, फिर कुछ देर सोचने के बाद वह कज़ाकों की तरफ़ मुड़ा और बोलाः “इस यहूदी को फांसी पर तो कभी भी चढ़ा सकते हैं- जब भी हमारा जी चाहेगा, लेकिन इस वक़्त तो इसे मुझे दे दो।”यह कहकर तारास उसे अपनी गाडि़यों की क़तार की तरफ़ ले गया जहां उसके कज़ाक खड़े थे। “अच्छा, गाड़ी के नीचे घुसकर लेट जाओ और बिल्कुल हिलना-डुलना नहीं। और भाइयो, तुम देखना यह कहीं जाने न पाये।”
यह कहकर वह चौक की तरफ़ चला जहां बहुत देर से भीड़ जमा हो रही थी। हर आदमी फ़ौरन नावों को और नदी के किनारे को छोड़कर चला आया था क्योंकि अब समुद्री मुहिम के बजाय ज़मीन के रास्ते मुहिम की तैयारी करनी थी और उसके लिए अब उन्हें जहाज़ों और डोंगियों की नहीं, बल्कि घोड़ों और गाडि़यों की ज़रूरत थी। अब तो बूढ़े और जवान सभी इस मुहिम में हिस्सा लेना चाहते थे, बड़े-बूढ़ों, कुरेनों के आतामानों और कोशेवोई की राय पर और पूरी ज़ापोरोजी फ़ौज के एक-एक आदमी के हामी भरने पर सबने फ़ैसला किया कि सीधे पोलैंड पर चढ़ाई कर दी जाये और कज़ाकों के धर्म और कज़ाकी शान को जो ठेस पहुंची है और जो बेइज़्ज़ती हुई है उसका बदला लिया जाये, हर शहर को लूटा जाये, गांवों और खेतों को आग लगा दी जाये और स्तेपी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक अपनी धाक बिठा दी जाये। सब लोगों ने फ़ौरन कमर कस ली और हथियार संभाल लिये। कोशेवोई का क़द पहले से बालिश्त भर और ज़्यादा मालूम होने लगा। अब वह मनमौजी, बेलगाम लोगों की बेकार की हर सनक को चुपचाप पूरा कर देनेवाला नहीं था, बल्कि इन लोगों का असली सरदार था। वह निरंकुश शासक था जो बस हुक्म देना जानता था। सारे मनमौजी और ऐश करनेवाले सूरमा अब बड़े अदब से सिर झुकाये अनुशासित क़तारों में खड़े थे, जब कोशेवोई हुक्म दे रहा था उस वक़्त उनकी हिम्मत अपनी नज़रें ऊपर उठाने तक की नहीं हो रही थीं। कोशेवोई शांत भाव से, कोई शोर मचाये बिना और बग़ैर किसी हड़बड़ी के आदेश दे रहा था और नपे-तुले शब्दों में बोल रहा था, जैसे शब्दों में एक बूढ़े अनुभवी कज़ाक सूरमा को बोलना चाहिये जो पहले भी बड़ी होशियारी से योजना बनाकर चलायी गयी कई मुहिमों की अगुवाई कर चुका हो।
“अच्छी तरह देख लो, खूब अच्छी तरह हर चीज़ की देखभाल कर लो,”वह बोला। “अपनी गाडि़यों और अपनी तारकोल की बाल्टियों की मरम्मत करो और अपने हथियारों को जांच लो। अपने साथ ज़्यादा कपड़े-लत्ते लेकर मत चलोः एक-एक कमीज़, दो-दो पतलून और एक-एक पतीली गेहूं का दलिया और एक-एक पतीली बाजरे का आटा हर आदमी ले ले- इससे ज़्यादा कोई कुछ न ले चले। गाडि़यों में ज़रूरत की हर चीज़ काफ़ी होगी। हर कज़ाक के पास दो घोड़े होने चाहिये। और हमारे पास बैलों की दो सौ जोडि़यां होनी चाहिये, क्योंकि दलदलों और घाटों को पार करने में उनकी ज़रूरत होगी। और सबसे बड़ी बात यह है, भाइयो, कि आप क़ायदे-क़ानून के पाबंद रहिये। मैं जानता हूँ कि आप लोगों में कुछ ऐसे हैं जो भगवान का दिया लूट का माल सामने आते ही नानकीन और क़ीमती मखमल को फाड़-फाड़कर अपने पांव के लिए पट्टियां बनाने लगते हैं। इस कमबख्त आदत को छोड़ दीजिये, पेटीकोटों को छोडि़ये और सिर्फ़ हथियार लीजिये, अगर वे अच्छे हों- या फिर सोने या चाँदी के सिक्कों पर क़ब्जा कीजिये क्योंकि वे कम जगह घेरते हैं और आगे चलकर काम आ सकते हैं। यह मैं आप लोगों को पहले से बताये दे रहा हूँ कि जो आदमी रास्ते में पीकर बदमस्त होगा उसकी खैरियत नहीं है। मैं कुत्ते की तरह उसे गर्दन से गाड़ी के साथ बंधवा दूंगा, चाहे वह कोई भी हो, फ़ौज का सबसे बहादुर कज़ाक ही क्यों न हो। मैं उसे वहीं के वहीं कुत्ते की तरह गोली से उड़वा दूंगा और उसकी लाश कफ़न-दफ़न के बिना वहीं पड़ी रहने दूंगा ताकि गिð उसकी बोटियां नोच-नोचकर खायें। क्योंकि फ़ौजी कूच पर बदमस्त होनेवाले ईसाई को कफ़न-दफ़न का हक़ नहीं होता। और, ऐ नौजवानों, तुम्हें सब बातों में अपने से बड़ों का हुक्म मानना चाहिये। अगर तुम्हें गोली लग जाये या तलवार का जख्म लग जाये- चाहे सिर में हो या जिस्म के किसी और हिस्से में- तो उसकी ज़्यादा परवाह मत करना। बस वोद्का के प्याले में थोड़ा-सा बारूद मिलाकर एक घूंट में चढ़ा लेना, सब ठीक हो जायेगा-न बुख़ार चढ़ेगा, न ही कोई और गड़बड़ होगी और अगर घाव ज़्यादा गहरा न हो तो उस पर बस थोड़ी-सी मिट्टी लगा देना। पहले मिट्टी को हथेली में लेकर उसमें थोड़ा-सा थूक मिला लेना और फिर घाव पर लगा लेना-वह बिलकुल सूख जायेगा। अच्छा, जवानो, अब काम शुरू हो जाना चाहिये, बेकार जल्दबाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं है, हर काम ठीक से होना चाहिये।”
कोशेवोई ने ये बातें कहींः ज्यों ही उसका भाषण खत्म हुआ सारे के सारे कज़ाक अपने-अपने कामों में जुट गये। पूरे सेच ने फ़ौरन पीने-पिलाने से हाथ खींच लिया, किसी जगह कोई शराबी नज़र नहीं आता था, मानो कज़ाकों में कभी कोई मस्त और शराबी रहा ही न हो… कुछ लोग पहियों की मरम्मत करने और गाडि़यों के धुरे बदलने में लग गये, कुछ और लोग उनमें रसद के बोरे और हथियार लादने लगे, बाक़ी आदमी घोड़ों और बैलों को हंकाकर लाने लगे। हर तरफ़ घोड़ों की टापों की आवाज़, बंदूकों को आज़माने के लिए उनको दाग़ने का शोर, तलवारों की खड़खड़ाहट, बैलों के डकारने की आवाज़, सड़क पर निकलती गाडि़यों की चरख-चूं, कज़ाकों की गूंजदार ऊंची आवाज़ें और गाड़ीवानों की टख-टख की आवाजंे़ सुनायी दे रही थीं। जल्द ही क़ाफि़ला पूरे मैदान में इधर से उधर तक फैल गया और अगर कोई भी उसके अगले छोर से पिछले छोर तक दौड़ता तो उसे बहुत लंबी दौड़ लगानी पड़ती। छोटे-से लकड़ी के गिरजाघर में पादरी ने विदाई की प्रार्थना करायी और हर एक पर पवित्र पानी छिड़का। सबने सलीब को चूमा। जब क़ाफि़ला चलने लगा और सेच से विदा होने लगा तो तमाम ज़ापोरोजियों ने पीछे मुड़कर देखा।
“अलविदा, ऐ वतन!”उन्होंने लगभग एक सांस में कहा, “भगवान तुम्हें हर आफ़त और मुसीबत से बचाये!”
अब तारास बुल्बा अपने घोड़े पर सवार उपनगर से होकर गुज़रा तो उसने देखा कि उसके कमबख्त यहूदी यांकेल ने छज्जे के नीचे एक दुकान लगा ली थी और चक़मक़, पेंचकश, बारूद और वे सब दूसरी चीज़ें बेच रहा था, जिसकी कूच पर सिपाहियों को ज़रूरत होती है- यहां तक कि नानपाव और डबलरोटी भी। “कैसा बदमाश है यह यहूदी!”तारास ने सोचा और घोड़े को उसके पास लाते हुए उससे कहाः
“तुम यहां क्यों बैठे हो, अहमक़? क्या गौरैया की तरह गोली का निशाना बनना चाहते हो?”
इसके जवाब में यांकेल तारास बुल्बा के और पास आ गया और दोनों हाथों से कुछ ऐसा इशारा करते हुए जैसे कोई भेद बतानेवाला हो, बोलाः
“हुजू़र, बस आप चुप रहिये और किसी से कुछ न कहिये। कज़ाकों की गाडि़यों के बीच मेरी गाड़ी भी है। मैं कज़ाकों के लिए रसद का सारा जरूरी सामान ले जा रहा हूँ और रास्ते में हर चीज़ का इंतज़ाम कर दूंगा, उससे कहीं सस्ते दामों में जितना आज तक किसी यहूदी ने किया होगा। भगवान की क़सम, ऐसा ही करूंगा, क़सम भगवान की, ऐसा ही होगा।”
तारास बुल्बा ने अपने कंधे उचकाये और यहूदियों की व्यापार करने की क्षमता पर मन ही मन आश्चर्य करता हुआ अपनी टुकड़ी में जा मिला।

5
थोड़े ही दिन के अंदर पूरा दक्षिण-पश्चिमी पोलैंड आतंक का शिकार हो गया। हर तरफ़ यह अफ़वाह फैल चुकी थी। “ज़ापोरोजी! ज़ापोरोजी आ रहे हैं!”जो लोग उठे और तितर-बितर हो गये जैसा कि इस अव्यवस्थित और निश्चिंत ज़माने का आम चलन था जब गढि़यां और कि़ले नहीं बनाये जाते थे बल्कि आदमी अपने लिए किसी तरह जोड़-बटोरकर फूस की काम-चलाऊ झोंपड़ी बना लेता था। वह सोचता थाः “अच्छे मकान पर पैसा और मेहनत लगाने से क्या फ़ायदा जब तातारों के धावे में आखि़रकार उसे ढह तो जाना ही है!”सब लोग घबराकर इधर-उधर भाग रहे थे, कोई अपने हल-बैल के बदले एक घोड़ा और एक बंदूक़ लेकर अपनी रेजिमेंट में जा मिलता था तो कोई अपने मवेशियों को हंकाकर और जो कुछ समेट सकता था, समेटकर कहीं जाकर छुप जाता था। कुछ लोग ऐसे भी थे जो इन अजनबियों का मुक़ाबला करने के लिए हथियारबंद होकर उठ खड़े हुए, लेकिन ज़्यादातर उनके सामने दुम दबाकर भाग गये। सब जानते थे कि इस खूंखार अैर लड़ाकू गिरोह से लड़ना कोई हँसी-खेल नहीं था, जो ज़ापोराजी फ़ौज के नाम से मशहूर था, उसकी बाहरी अव्यवस्था और स्वच्छंदता के पीछे समझ-बूझ से रचा गया अनुशासन था जो लड़ाई के लिए अत्यंत उपयुक्त था। कज़ाक घुड़सवार इस बात का बहुत ख़्याल रखते थे कि अपने घोड़ों पर ज़्यादा बोझ न डालें और उनको ज़्यादा थकने न दें। बाक़ी कज़ाक गंभीर मुद्रा बनाये गाडि़यों के पीछे-पीछे चलते रहते थे। पूरी फ़ौज सिर्फ़ रात को कूच करती थी और दिन के वक़्त निर्जन मैदानों और सूनसान जंगलों में आराम करती थी, जिनकी इस ज़माने में कोई कमी नहीं थी। जासूस और भेदिये इस बात का पता लगाने के लिए पहले ही से भेज दिये जाते थे कि दुश्मन कहां हैं और उसकी ताक़त कितनी है। और अकसर ज़ापोरोजी अचानक ऐसी जगहों में जा धमकते थे जहां उनके आने की सबसे कम उम्मीद होती थी, और अपने पीछे वे मौत के अलावा कुछ भी नहीं छोड़ जाते थे। वे गांवों में आग लगा देते थे, मवेशी और घोड़े या तो फ़ौज हंका ले जाती थी या उन्हें वहीं काट डाला जाता था। फ़ौजी मुहिम से ज़्यादा यह एक खूनी जश्न मालूम होता था। अत्याचारों और तबाही का वह भयानक सिलसिला देखकर, जो हर उस जगह नज़र आता था जहां ज़ापोरोजियों के क़दम पहुंचते थे और जो उस अर्ध-बर्बर युग में एक आम बात थी, आज तो आदमी के रोंगटे खड़े हो जायें। क़त्ल किये हुए बच्चे, औरतों की छातियां कटी हुई, आज़ाद कर दिये गये लोगों की टांगों पर से उधड़ी हुई खाल-सचमुच, कज़ाक अपने क़जऱ् पूरी तरह चुका रहे थे। एक मठ के पादरी ने कज़ाकों के आने की ख़बर पाकर दो पादरियों को उनके पास यह कहने के लिए भेजा कि उनका व्यवहार सरासर ग़लत है, कि ज़ापोरोजियों और सरकार में आपस में सुलह है, कि वे न सिर्फ़ राजा के प्रति अपने कर्तव्य का उल्लंघन कर रहे हैं बल्कि आम क़ानून के खि़लाफ़ भी जा रहे हैं।
“पादरी से मेरी और तमाम ज़ापोरोजियों की तरफ़ से कह दो,”कोशेवोई ने कहा, “कि उनके लिए डरने की कोई बात नहीं है। कज़ाक तो बस ज़रा अपने पाइप जलाने के लिए आग सुलगा रहे हैं।”और कुछ ही दिन बाद विनाशकारी आग ने उस शानदार मठ को अपनी बांहों में समेट लिया और उस मठ की बड़ी-बड़ी, गॉथिक शैली की खिड़कियां धधकती आग की लपटों के पार उदास निगाहों से देखती रहीं। उन तमाम शहरों में शरणार्थी पादरियों, यहूदियों और औरतों के झुंड के झुंड जमा होने लगे जिनकी रखवाली करनेवाले फ़ौजी दस्तों और हथियारबंद लोगों से उम्मीद की जा सकती थी कि वे उनकी रक्षा करेंगे। कभी-कभी सरकार वक़्त गुज़र जाने के बाद थोड़ी-बहुत फ़ौजों की शक्ल में मदद भेज देती थी लेकिन या तो ज़ापोरोजी इन फ़ौजों के हाथ ही नहीं आते थे या फिर वे फ़ौजें पहली ही मुठभेड़ में अपने तेज़ दौड़नेवाले घोड़ों पर दुम दबाकर भाग लेती थीं। फिर कभी-कभी ऐसा हुआ कि बादशाह के बहुत-से कप्तानों ने, जो पिछली लड़ाइयों में नाम कमा चुके थे, अपनी फ़ौजों को एक में मिलाकर ज़ापोरोजियों का डटकर मुक़ाबला करने का फ़ैसला किया। तब जाकर हमारे नौजवान कज़ाकों ने-जिन्हें जूट-मार, तहस-नहस और कमज़ोर दुश्मन से नफ़रत थी और जिनके दिल में अपने बड़ों के सामने अपने जौहर दिखाने की इच्छा आग की तरह धधक रही थी- सचमुच अपने कसबल की आज़माइश की, उनमें से हर एक किसी न किसी बड़बोले और जियाले पोलिस्तानी के साथ, जो हवा में लहराती हुई अपने लबादे की ढीली-ढीली आस्तीनों के साथ शानदार घोड़े पर बैठा बड़ा रोबीला लगता था, आमने-सामने भिड़ गया। लड़ाई का हुनर सीखना नौजवान कज़ाकों के लिए खेल जैसा था। घोड़ों का ढेरों साज़-सामान और बहुत-सी क़ीमती तलवारें और बंदूकें वे पहले ही हासिल कर चुके थे। एक ही महीने में इन चूज़ों के बाल और पर निकल आये थे, वे मर्द बन गये थे। उनका नाक-नक़्शा जिस पर अब तक तरुणाई की कोमलता थी अब गंभीर और सशक्त हो गया था। बूढ़ा तारास अपने दोनों बेटों को सबसे आगे देखकर बेहद खुश था। ओस्ताप तो ऐसा लगता था कि पैदा ही हुआ था लड़ाई के रास्ते पर चलने और उसकी दुरूह कला के शिखरों पर चढ़ने के लिए। कभी किसी भी हालत में न उसके क़दम डगमगाते थे, न वह घबराता था और न पीछे हटता था। ऐसे शांत भाव से, जो एक बाईस बरस के लड़के के लिए स्वाभाविक नही था, वह किसी भी मुश्किल में खतरों का अंदाज़ा फ़ौरन लगा लेता था और तुरंत उसमें से निकलने का कोई रास्ता ढूंढ निकालता था ताकि आखिर में उसकी जीत ज़्यादा पक्की हो जाये। अब वह जो कुछ भी करता था उस पर अनुभव से पैदा होनेवाले आत्म-विश्वास की छाप थी और उसके हर काम से उसमें आगे चलकर नेता बनने की क्षमता का संकेत मिलता था। उसके रोम-रोम से शक्ति फूटी पड़ती थी, उसके वीरोचित गुण निखरकर प्रबल और शेरों जैसे गुण बन चुके थे।
“अरे, यह तो बड़ा अच्छा कर्नल बनेगा!”बूढ़ा तारास कहा करता था, “हां! हां! यह तो अपने बाप से भी बाज़ी ले जायेगा!”
तलवारों और बंदूकों के संगीत ने अन्द्रेई को मंत्रमुग्ध कर दिया था। वह नहीं जानता था कि पहले से अपनी और अपने दुश्मन की ताक़त के बारे में सोचना, उसका हिसाब लगाना और उसकी थाह लेना क्या होता है। उसे तो लड़ाई के प्रचंड उल्लास और हर्षोन्माद ने चकाचौंध कर दिया था, उसके लिए वे क्षण उत्सव के क्षण होते थे जब आदमी के लिए और दिमाग़ में आग-सी लगी हो-जब हर चीज़ उसकी आंखों के सामने नाचती और तैरती हो, जब सिर कट-कटकर गिर रहे हों, जब घोड़े धम से ज़मीन पर ढेर हो जाते हों और वह एक मस्त शराबी की तरह गोलियों की सनसनाहट और तलवारों की बिजली जैसी कौंध के बीच घोड़े पर सरपट दौड़ता, दायंे-बायें वार करता और खुद अपने ऊपर होनेवाले वारों की बौछार को बिल्कुल महसूस न करता हो। कई बार तो अन्द्रेई के बाप को उस पर बहुत अचंभा भी हुआ जब उसने देखा कि वह मानो सिर्फ़ लड़ने के चाव से प्रेरित होकर अपने आपको ऐसे-ऐसे खतरों में झोंक देता था जिनमें कोई विवेकशील और समझदार आदमी कभी न कूदता और केवल अपने उन्मत्त प्रहार की ढिठाई के बल पर वह ऐसे-ऐसे हैरान कर देनेवाले कारनामे कर दिखाता था जिन पर मंझे हुए पुराने सूरमा सिपाही भी दंग रह जाते। बूढ़ा तारास उसे सराहते हुए कहताः
“यह भी अच्छा सिपाही है- भगवान इसे सलामत रखे! उतना अच्छा तो नहीं है जिनता ओस्ताप है, फिर भी अच्छा सिपाही है।”
फ़ौज ने सीधे दुबनो शहर पर धावा बोलने का फ़ैसला किया जिसके बारे में सुना जाता था कि वहां अकूत खज़ाने हैं और जहां के निवासी बहुत धनवान हैं। डेढ़ दिन में रास्ता तै हो गया और ज़ापोरोजी शहर के सामने पहुंच गये। वहां के रहनेवालों ने ठान लिया था कि वे आखिरी दम तक उनका मुकाबला करेंगे, अपने चौकों में और सड़कों पर और अपनी चौखटों के सामने जान दे देंगे लेकिन दुश्मन को अपने घरांे में घुसने नहीं देंगे। शहर के चारों ओर मिट्टी का ऊंचा-सा परकोटा बना हुआ था , जहां कहीं यह दीवार ज़रा नीची थी वहां कोई पत्थर की दीवार खड़ी थी या कोई मकान मोर्चे का काम दे रहा था, या कुछ नहीं तो बलूत की लकड़ी का कोई कटहरा ही बना हुआ था। शहर की रक्षा करनेवाली फ़ौज मजबूत थी और उसे अपने कर्तव्य की गंभीरता का पूरा आभास था। ज़ापोरोजियों ने एकदम धावा बोलकर परकोटे पर क़ब्जा करना चाहा लेकिन उन पर गोलियों की बौछार होने लगी। वहां के निवासी और नागरिक, मालूम होता था, बेकार बैठना नहीं चाहते थे क्योंकि वे झुंड के झुंड परकोटे पर खड़े थे। उनकी आंखों में जान की बाजी लगाकर मुक़ाबला करने का इरादा झलक रहा था। औरतों ने भी शहर की रक्षा करने में हिस्सा लेने का फ़ैसला कर लिया था और ज़ापोरोजियों के सिरों पर पत्थर, पीपे, हांडियां, खौलता हुआ तारकोल और रेत से भरे बोरे बरसा रही थीं, जिसकी वजह उन्हें कुछ दिखायी नहीं देता था। ज़ापोरोजी कि़लों से जूझना बहुत नापसंद करते थे , घेरेबंदी उनके बस का काम नहीं था। कोशेवोई ने उन्हें पीछे हटने का आदेश दिया और कहा:
“कोई परवाह नहीं, भाइयो, हम पीछे हटे जाते हैं। लेकिन अगर हम इनमें से एक आदमी को भी शहर से बाहर निकलने दें तो मुझे ईसाई नहीं, विधर्मी तातार समझना। इन सब कुत्तों को भूखा मर जाने दो!”
फ़ौज पीछे हट गयी, शहर की घेरेबंदी कर ली गयी और कोई दूसरा काम न होने से वे आसपास के इलाक़े की लूट-मार में लग गये। फ़ौज ने आसपास के गांवों में और खेतों में लगे हुए गेहूं के ढेरों में आग लगा दी, घोड़ों के झुंडों को खड़ी फ़सलवाले उन खेतों में चरने के लिए छोड़ दिया जिन्हें अभी तक दरांती ने छुआ तक नहीं था और जहां मानो हँसी उड़ाने को गेहूं की भरपूर बालियां अपना सिर हिला रही थीं- यह बेहद अच्छी और मालामाल फ़सल उस साल सारे किसानों को उनकी मेहनत के फल के रूप में इनाम में मिली थी। शहरवाले अपने जीवन के साधनों को इस तरह तबाह होते देखकर आतंकित हो उठे थे। इसी बीच ज़ापोरोजियों ने शहर के चारों तरफ़ अपनी गाडि़यों का दोहरा घेरा डालकर इस तरह पड़ाव डाला जैसे वे सेच में अपने-अपने कुरेन में हों , वे पाइप पीते, लूट के हथियार की अदला-बदली करते, कूद-फांद और एक दूसरे के ऊपर छलांग मारकर खेल खेलते और प्रलयंकारी शांत भाव से शहर को देखते। रात को अलाव जल जाते। हर कुरेन में बावर्ची बड़े-बड़े तांबे की देगों में दालिया उबारते। संतरी आग के पास चौकस खड़े रहते, जो रात भर जलती रहती। लेकिन थोड़े ही दिनों में ज़ापोरोजी बेकार बैठे रहने और इतने दिनों तक शराब से परहेज की इस ज़िंदगी से उकता गये जिसमें लड़ने का कोई मौक़ा नहीं था। कोशेवोई ने तो यहां तक किया कि शराब का भत्ता हर आदमी के लिये दुगना कर दिया, जैसा कि कभी-कभी फ़ौज में ऐसे मौक़ों पर किया जाता है जब फ़ौरन कोई बड़ा मोर्चा न सर करना हो या कूच न करना हो। यह जि़ंदगी नौजवान कज़ाकों को पसंद नहीं थी, ख़ास तौर पर तारास बुल्बा के बेटों को-अन्द्रेई तो बिल्कुल उकता गया था।
“अरे, सिरफिरे!”तारास ने उससे कहा, “सब कुछ सहो, कज़ाक, तुमको आतामान बनना है। अच्छा सिपाही वह नहीं होता जो घमासान से घमासान लड़ाई में हिम्मत नहीं हारता है बल्कि अच्छा सिपाही वह होता है जो बेकार बैठे रहना भी झेल सकता है, जो सब कुछ सहता है और हर तरह की मुश्किलों के बावजूद आखिर में कामयाब होता है।”
मगर जोशीली जवानी और बुढ़ापा कभी सहमत नहीं होते। दोनों की प्रकृति अलग-अलग है और वे एक ही चीज़ को अलग-अलग नज़रों से देखते हैं।
इस अरसे में बुल्बा की रेजिमेंट, जिसकी अगुवाई तोव्काज कर रह था, लश्कर से आ मिली, उसके साथ दो और येसऊल, अरज़ी लिखने वाला और रेजीमेंट के दूसरे अफसर भी थे। कुल मिलाकर कज़ाकों ने चार हजार आदमी जुटा लिये थे। इनमें बहुत से ऐसे घुड़सवार भी थे जो किसी तरह के बुलावे के बिना यह भनक पाते ही कि क्या हो रहा है फ़ौरन अपनी मरजी से कमर कसकर उठ खड़े हुये थे। बूल्वा के दोनों बेटों के लिये येसऊल उनकी बूढ़ी मां की दुआएंऔर कीएव के मेजीगोर्स्क के मठ से सरो की लकड़ी की बनी हुई एक-एक पवित्र प्रतिमा लाये थे। दोनों भाइयों ने पवित्र प्रतिमाएं गलों में पहन लीं और दोनों अपनी बूढ़ी मां को याद करके अनायास ही दुखी हो गये। मां की दुआओं का क्या मतलब था, वे किस बात का संकेत दे रही थीं ? क्या वे दुश्मन पर उसकी जीत की और इसके बाद उनके लूटे हुए माल और शान और शोहरत के साथ , जिसका बंदूरा बजानेवाले हमेशा गुणगान करेंगे? या फिर वह … लेकिन भविष्य को कौन जानता है। वह आदमी के सामने दलदल के ऊपर उठते हुये शरद ॠतु के कोहरे की तरह खड़ा रहता है जिसमें पक्षी अंधों की तरह अपने पंख फड़फड़ाते और ऊपर-नीचे उड़ते रहते हैं और कभी एक-दूसरे को नहीं देख सकते- न बाज फ़ाख्ता को देख पाता है और न फ़ाख्ता बाज को और कोई कभी यह नहीं जान पाता कि वह मौत से कितनी दूर उड़ रहा है…
ओस्ताप बहुत पहले अपना काम निबटाने के लिए कुरेन में वापस चुका जा था। लेकिन अन्द्रेई के दिल पर एक दम घोटनेवाला बोझ सा खड़ा हुआ था, उसे खुद भी नहीं मालूम था क्यों। कज़ाक अपना रात का खाना खा चुके थे, शाम काफ़ी देर हुए ढल चुकी थी , चारों ओर जुलाई की सुहानी रात छा गयी थी लेकिन अन्द्रेई फिर भी न कुरेनों की तरफ़ गया और न ही सोने लेटा, उसके सामने जो तस्वीर थी उसे उसने मंत्रमुग्ध कर लिया था। आकाश पर अनगिनत साफ़ और चमकते हुए तारे जगमगा रहे थे। मैदान पर इधर से उधर तक दुश्मन से हासिल किये गये लूट के माल से लदी हुई गाडि़यां बिखरी हुई थीं जिनके नीचे तारकोल की टपकटी हुई बाल्टियां लटक रही थीं। गाडि़यों के आसपास हर जगह ज़ापोरोजी घास पर पांव पसारे घास पर लेटे हुये दिखाई पड़ रहे थे। वे बड़े दिलचस्प अंदाज में सोते थे। किसी का सिर बोरी पर टिका था तो किसी का टोपी पर या फिर सिर्फ़ अपने किसी साथी के पहलू पर रखा हुआ था। तलवार, तोड़ेदार बंदूक, छोटी नली का पीतल की पच्चीकारी का पाइप, लोहे का बुरूश और चकमक का डिब्बा कभी किसी कज़ाक से अलग नहीं किये जा सकते। भारी बैल अपनी टांगे नीचे सिकोड़े बड़े-बड़े सफेद ढेरों की तरह पड़े हुये थे और खेतों की ढलानों पर बिखरे हुए सुरमई पत्थरों जैसे लग रहे थे। हर तरफ़ से सोते हुए सिपाहियों के जोरदार ख़र्राटों की आवाज़ें आनी शुरू होगयी थीं और इनके जवाब में खेत की तरफ़ से घोड़ों की हिनहिनाहट गूंज रही थी जो अपनी टांगें बांध दिये जाने पर बहुत झंुझलाये हुए थे। और इस अरसे में जुलाई की रात की खू़बसूरती एक शानदार और डरवनी बात पैदा हो गयी थी। यह आसपास के उन इलाकों की रोशनी थी जो अब तक जलकर राख नहीं हुये थे। कहीं लपटें धीरे-धीरे शाही ठाठ से उठकर आसमान तक फैल रही थीं, तो कहीं और राह में जल्दी आग पकड़नेवाली किसी चीज के आ जाने की वजह से वे एकदम तूफ़ान की तरह फूटी पड़ रही थीं और चटक कर दूर ऊपर सितारों की तरफ़ लपक रही थीं, और उनकी कटी हुई ज़बानें आसमान के ऊंचे फैलाव में पहुंचकर ही ख़त्म होती थीं। इधर झुलसा हुआ मठ किसी कठोर पादरी की तरह खड़ा हुआ हर नयी लपट के भड़क उठने पर अपने उदास वैभव का प्रदर्शन कर रहा था , उधर मठ का बाग़ धू-धू करके जल रहा था। धुएं की लपेट में आये हुए पेड़ों से आवाज़-सी निकलती हुई सुनायी देती थी , और जब आग एकदम भड़क उठती थी तो वह पके हुए आलूचों के गुच्छों को एक गर्म चमकदार, ऊदी रोशनी से चमका देती थी या कहीं-कहीं पीली नाशपातियों को शुद्ध सोने के रंग में रंग देती थी, और इन सब चीज़ों के बीच, इमारत की दीवार पर या किसी डाल से लटका हुआ किसी बेचारे यहूदी या पादरी का काला जला हुआ जिस्म दिखाई दे जाता था जिसे इमारत के साथ लपटें निगले ले रही थीं। धधकती हुई आग से दूर बहुत ऊंचे मंडराती हुई चिडि़यां जलते हुये मैदान के ऊपर छोटी-छोटी सलीबों के झुंड जैसी दिखायी दे रही थीं। घेरेबंद शहर सोया हुआ लग रहा था। दूर भड़कती हुई आग की रोशनी में उसकी छतें, गिरजाघर के कलश, जंगले और दीवारें चुपचाप झिलमिला रही थीं। अन्द्रेई कज़ाकों की गाडि़यों की क़तारों के इर्द-गिर्द टहल रहा था। अब किसी भी समय अलाव बुझने वाले थे और संतरी खुद भी गहरी नींद सोये पड़े थे। उन्होंने सच्चे कज़ाकों की तरह गेहूं का दलिया और गलूश्की ठंूस-ठूंसकर खायी थीं। इस लापरवाही पर हैरान होकर अन्द्रेई ने मन ही मन सोचाः “अच्छा ही है यहां कोई जबरदस्त दुश्मन आसपास नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जिससे डर हो।”आखिरकार वह एक गाड़ी के पास जाकर उसमें चढ़ गया और पीठ के बल अपने दोनों हाथ सिर के नीचे रखकर लेट गया। लेकिन वह सो न सका और बड़ी देर तक आसमान को ताकता रहा। उसके सामने खुला आसमान फैला हुआ था , हवा साफ़ और निर्मल थी। आकाश-गंगा के सितारांे के झुरमुट जिसने आसमान को चारों ओर से घेर रखा था रोशनी में दमक रहा था। कभी-कभी अन्द्रेई को कुछ झपकी-सी आ जाती थी , ज़रा-सी देर के लिए नींद की हल्की-सी धुंध उसके सामने के आसमान को आंखों से ओझल कर देती थी, मगर थोड़ी ही देर में धुंध साफ़ हो जाती थी और आसमान फिर दिखाई देने लगता था।
एक ऐसे ही क्षण में एक अजीब-सा इंसानी चेहरा अन्द्रेई को अपनी आंखों के सामने तेजी से गुजरता हुआ लगा। यह सोचकर यह नींद का भ्रम होगा और फ़ौरन ही ग़ायब हो जायेगा उसने अपनी आंखें अच्छी तरह खोल लीं और तब देखा एक दुबला, सूखा, झुर्रियों से भरा चेहरा सचमुच उसके ऊपर झुका हुआ है और उसकी आंखों में आंखें डालकर देख रहा है। सिर पर पड़ी हुई काली नकाब के नीचे लंबे-लंबे, कोयले की तरह काले बिखरे हुए उलझे-उलझे बाल लटक रहे थे। आंखों की एक अजीब-सी चमक और तीखे नाक-नक्शेवाले वाली चेहरे की वह मौत जैसी कालिख यक़ीनन किसी भूत-प्रेत की हो सकती थी। अनायास अन्द्रेई का हाथ अपनी बंदूक की ओर बढ़ा और उसने लगभग हड़बड़ाकर पूछाः
“तुम कौन हो? अगर तुम कोई प्रेतात्मा हो तो फ़ौरन मेरी आंखों से दूर हो जाओ , और अगर इंसान हो और जिंदा हो तो तुम्हारा यह मजाक बेवक्त है। भाग जाओ, वरना मैं एक ही गोली से तुम्हारा काम तमाम कर दूंगा! “
इसके जवाब में उस परछाई ने अपने होठों पर उंगली रख ली और ऐसा लगा जैसे वह उससे चुप रहने की प्रार्थना कर रही हो। अन्द्रेई ने अपना हाथ नीचे कर लिया और इस भूत जैसे आदमी को ज़्यादा पास से देखा। उसके लंबे बालों, गर्दन और अधखुले सीने से अन्द्रेई ने इतना तो पहचान लिया कि वह कोई औरत है। लेकिन वह इधर की रहने वाली नहीं थी। उसका मुरझाया हुआ चेहरा काला था , उसके चिपके गालों के ऊपर चौड़ी-चौड़ी हड्डियां उभरी हुई थीं। और कमान जैसी संकरी आंखें ऊपर की ओर मुड़ गयी थीं। अन्द्रेई ने जितना ज़्यादा ग़ौर से उसको देखा उतना ही वह जाना-पहचाना हुआ लगा। आखिरकार अन्द्रेई अधीर होकर पूंछ ही बैठा:
“बताओ, तुम कौन हो? मुझे ऐसा लगता है कि मैंने तुम्हें पहले कहीं देखा है या पहले कभी मैं तुम्हें जानता था।”
“दो साल पहले कीएव में।”
“दो साल पहले… कीएव में… “अन्द्रेई ने अकादमी में गुजरी अपनी पिछली ज़िंदगी की हर घटना को याद करने की कोशिश करते हुए दोहराया। उसने उस औरत को एक बार फिर ग़ौर से देखा और सहसा ज़ोर से चिल्ला पड़ा:
“तुम वह तातार औरत हो – उस लड़की की, गवर्नर की बेटी की नौकरानी ! …”
“चुप रहो!”तातार औरत ने फुसफुसाकर कहा और मिन्नत करते हुए अपने दोनों हाथ कसकर भींच लिए। वह सिर से पांव तक कांप रही थी और उसने चारों तरफ़ सिर घुमाकर देखा कि कहीं अन्द्रेई की ज़ोर की चींख से कोई जाग तो नहीं पड़ा है।
“बताओ, बताओ, किसलिए-आखिर तुम यहां क्यों आई हो?”अन्द्रेई ने आंतरिक भावावेग की वजह से उखड़ी-उखड़ी धीमी आवाज़ में हांपते हुए कहा। “तुम्हारी मालकिन कहां है? वह जिंदा-सलामत तो है?”
“वह यहीं हैं, शहर में।”
“शहर में? वह फिर लगभग चीखा, उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसका पूरा खू़न एकदम दिल की तरफ़ दौड़ आया है। “वह शहर में क्यों है?”
“क्योंकि बड़े सरकार भी शहर ही में हैं। वह पिछले डेढ़ साल से दुबनो शहर के गवर्नर हैं।”
“और क्या उसकी शादी हो गई है ? बोलो! तुम भी अजीब हो! अब उसका क्या हालचाल है?”
“उन्होंने दो दिन से कुछ नहीं खाया है।”
“कैसे?…”
“बहुत दिनों से शहर में किसी को रोटी का एक टुकड़ा भी नसीब नहीं हुआ है। अरसे से किसी के पास मिट्टी के सिवा और कुछ खाने को नहीं है।”अन्द्रेई अवाक रह गया।
“मेरी मालकिन ने शहर की दीवार पर से ज़ापोरोजियों के बीच आपको भी देखा था। उन्होंने मुझसे कहा: ‘जाओ और सूरमा से कहो अगर उनको मेरी याद आती है तो मेरे पास आयें । और अगर उनको याद नहीं तो उनसे मेरी बूढ़ी मां के लिए रोटी का एक टुकड़ा तो लेती ही आना, क्योंकि मैं अपनी बूढ़ी मां को अपनी आंखों के सामने मरता नहीं देखूंगी। इससे तो अच्छा है कि मैं पहले मर जाऊं और वह बाद में मरें। उनसे मिन्नत करना , उनके पांव पकड़ लेना। उनकी भी एक बूढ़ी मां है, वह उसी के नाम पर हमें रोटी दे दें।”
नौजवान कज़ाक के सीने में बहुत-सी परस्पर विरोधी भावनाएं भड़क उठीं और सुलगने लगीं।
“मगर तुम यहां कैसे ? तुम यहां आयी कैसे?”
“जमीन के नीचे सुरांग के रास्ते।”
“यहां कोई सुरांग है?”
“हां, है।
“कहां?”
“तुम मुझे दगा तो नहीं दोगे, सूरमा?”
“मैं पवित्र सलीब की कसम खाता हूँ।”
“अच्छा तो उस घाटी की तरफ, नदीं के उस पार जाओ जहां सरकंडे उगे है।”
“यह रास्ता सीधे शहर को जाता है?”
“सीधे शहर के मठ में। “
“चलो, फौरन चलें।”
मगर ईसा मसीह और पवित्र मरियम के नाम पर पहले रोटी का एक टुकड़ा!”
“ठीक है , तुम्हें रोटी मिल जायेगी। यहां गाड़ी के पास खड़ी रहो, बल्कि बेहतर तो यह है कि इसके अंदर लेट जाओ। कोई तुम्हें नहीं देखेगा- सब सो रहे हैं। मैं अभी वापस आता हूँ।”
और वह उन गाडि़यों की तरफ़ गया जहां उसके कुरेन की रसद ज़मा थी। उसका दिल जोर से धड़क रहा था। पूरा अतीत, हर वह चीज़ जिसे उसकी मौजूदा कज़ाक जिंदगी की कठिनाइयों ने पीछे धकेल दिया था, अब तेज़ी से उभरकर ऊपर आ गयी और अब उसने उसके वर्तमान को डुबो दिया। एक बार फिर वह स्वाभिमानी औरत, जैसे समुद्र की अंधेरी गहराइयों से निकलकर उसकी आंखों के सामने उभर आयी। उसकी खू़बसूरत बाहें, उसकी आंखें, उसके हँसते हुए ओंठ, उसके गहरे बादामी रंग के घने बाल जिनकी घुंघराली लटें उसके सीने पर पड़ी रहती थीं और उसका लचीला सांचे में ढला हुआ अछूता कुंवारा शरीर एक बार फिर अंद्रेई की यादों में जगमगाने लगा। नहीं, यह सब कुछ कभी उसके दिल से दूर ही नहीं हुआ था, कभी मिटा ही नहीं था , उसने तो बस थोड़ी देर के लिए दूसरी प्रबल भावनाआंे को जगह दे दी थी, लेकिन कितनी बार, ओह, कितनी बार, इन यादों ने नौजवान कज़ाक की गहरी नींद को भंग किया था! और कितनी ही बार ऐसा होता था कि वह सोते-सोते जाग पड़ता था और आंखें खोले पड़ा रहता था, न जाने क्यों।
जैसे-जैसे वह चलता गया उसका दिल और ज़ोर से धड़कने लगा और उसको फिर से देखने के ख़्याल से उसके घुटने कांपने लगे। जब वह गाडि़यों के पास पहुंचा तो बिल्कुल भूल चुका था कि वह किसलिए आया था। उसने अपना हाथ उठाया और यह याद करने की कोशिश में कि वह क्या करने आया था बहुत देर तक अपने माथे पर हाथ फेरता रहा। फिर वह डर के मारे सिर से पांव तक कांपने लगा, उसे एकदम ख़्याल आया कि वह भूख से मर रही है। वह लपककर एक गाड़ी की तरफ़ गया और कई बड़ी-बड़ी काली रोटियां लेकर उसने अपने बगल में दबा लीं, लेकिन फौरन ही उसे ख्याल आया कि ऐसा खाना एक तंदुरूस्त, हट्टे-कट्टे ज़ापोरोजी की सादा पसंद के लिये भले ही ठीक हो लेकिन उस नाजुक बदन के लिए बहुत मोटा-छोटा और बिल्कुल ठीक नहीं होगा। फिर उसको याद आया कि एक दिन पहले कोशेवोई ने बावर्चियों को डांटा था कि उन्होंने सारा का सारा कूटू का आटा एक ही बार के खाने में खर्च कर दिया था जबकि वह तीन बार के खाने के लिए काफी हो सकता था। उसे यक़ीन था कि देगों में बहुत-सा दलिया बचा पड़ा होगा। उसने अपने बाप का खाने का बरतन उठाया और उसे लेकर अपने कुरेन के बावर्ची के पास गया। बावर्ची दो बड़ी-बड़ी देगों के पास, जिनमें से हर एक की समाई दस बाल्टियों की थी, सोया पड़ा था और देगों के नीचे अब तक अंगारे चमक रहे थे। उसने देगों में झांका तो यह देखकर हैरान रह गया कि वे दोनों की दोनों खाली पड़ी थीं। उनको खत्म करना आम इंसानों के बस की बात तो थी नहीं, और इसलिए और भी कि उनके कुरेन में दूसरे कुरेनों से कम लोग थे। उसने दूसरे कुरेनांे की देगों को देखा। वहां भी कुछ नहीं था। उसे बरबस यह कहावत याद आ गयीः “ज़ापोरोजी बच्चों की तरह होते हैं, जब खाना होता है तो वे उसे खा लेते हैं, और जब ज्यादा होता है तो वे कुछ भी नहीं छोड़ते।”क्या किया जाये? मगर उसके बाप की रेजीमेंट की किसी गाड़ी में कहीं गेहूं की रोटी का एक बोरा रखा था जो मठ के तन्दूरों को लूटते वक्त मिला था। वह सीधा अपने बाप की गाड़ी की तरफ़ गया मगर बोरा वहां नहीं था। ओस्ताप ने उसे अपने सिर के नीचे रख लिया था, वह ज़मीन पर टांगें पसारे लेटा था और सारा मैदान उसके खर्राटे से गूंज रहा था। अन्द्रेई ने बोरे को एक हाथ से पकड़कर उसे इतने जोर से झटका देकर एक तरफ खींचा कि ओस्ताप का सिर जमीन पर जा लगाः वह सोते-सोते चौक उठा और आंखें बंद किये ही उठकर बैठ गया और गले का पूरा जोर लगाकर चिल्लायाः “पकड़ो, पकड़ो, इस पोलिस्तानी शैतान को! और घोड़ा भी पकड़ लो! पकड़ लो! – “चुप रहो, नहीं तो मैं तुम्हें मार डालूगा,”अन्द्रेई डर के मारे बोरे को ओस्ताप की ओर फेकतें हुए चिल्लाया। लेकिन इसकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि ओस्ताप ने अपनी बात बीच में ही ख़त्म कर दी। वह धम से ज़मीन पर जा गिरा और इतना जोरदार खर्राटा लिया कि उसके आसपास की घास भी कांप गयी। अन्द्रेई ने बड़ी सावधानी से अपने चारों ओर नज़र दौड़ायी यह देखने के लिए कि ओस्ताप की नींद की बड़-बड़ ने किसी कज़ाक को जगा तो नहीं दिया था। सबसे पास के कुरेन में एक लंबी चुटियावाला सिर ऊपर उठा, उसने आंखें घुमायीं और फिर ज़मीन पर जा पड़ा। दो-तीन मिनट इंतज़ार करने के बाद अन्द्रेई अपने बोझ को उठाकर चल पड़ा। तातार औरत वहां डर के मारे दम साधे लेटी थी।
“चलो उठो! सब सो रहे हैं, डरो मत! अगर मैं ये सारी रोटियां न ले जा सकूं तो क्या तुम इनमें से एक रोटी ले चलोगी?”
यह कहकर उसने बोरे अपनी पीठ पर डाल लिये और चलते-चलते एक गाड़ी में से एक और बाजरे से भरा बोरा भी निकाल लिया और यहीं नही बल्कि उनसे वे रोटियां भी अपने हाथ में ले लीं जो वह तातार औरत को ले चलने के लिए देना चाहता था, और वह खुद अपने बोझ से झुका हुआ सोये हुए ज़ापोरोजियों के क़तारों के बीच से बेझिझक गुजरता हुआ आगे बढ़ने लगा।
“अन्द्रेई!”जब वे दोनों उसके पास से गुजरे तो बुल्बा ने आवाज दी।
अन्द्रेई का दिल धक् से रह गया। वह रुक गया और सिर से पांव तक कांपते हुए मरी आवाज़ में बोलाः
“क्या है?”
“तुम्हारे साथ कोई औरत है! मैं उठकर तुम्हारी खाल खींच लूंगा। औरतों के चक्कर में तुम्हारा कोई भला नहीं हो सकता।”यह कहते हुये बुल्बा ने अपना सिर बाजू पर रख लिया और ऩकाबपोश तातार औरत को घूरने लगा।
अन्द्रेई को काटो तो खू़न नहीं। उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि वह अपने बाप के चेहरे की ओर देखे। और जब उसने आंखें उठाकर अपने बाप की ओर देखा तो बुल्बा अपना सिर हथेली पर टिकाये सो रहा था।
अन्द्रेई ने अपने सीने पर सलीब का निशान बनाया। उसका डर उतनी ही जल्दी उसके दिल से दूर हो गया जितनी जल्दी उसने उसमें घर किया था। जब वह तातार औरत को देखने के लिये मुड़ा तो वह सिर से लेकर पांव तक बुरके में लिपटी काले पत्थर की मूरत की तरह उसके सामने खड़ी थी और बहुत दूर जो आग जल रही थी उसकी रोशनी सिर्फ उसकी आंखों में पड़ रही थी जो मुर्दे की आंखों की तरह पथराई हुई लग रही थी। अन्द्रेई ने उसकी आस्तीन खींची और वे दोनों क़दम-क़दम पर पीछे मुड़कर देखते हुए आगे बढ़ते रहे यहां तक कि वे एक गहरे खड्ड की ढलान से नीचे उतर आये जिसकी तली में एक छोटी नदी, जिस पर कहीं-कहीं काई जम गयी थी और जगह-जगह घास उगी हुई थी, धीरे-धीरे सांप की तरह लहराती बह रही थी। खड्ड के नीचे पहुंच जाने पर वे ज़ापोरोजियों के पड़ाव से दिखाई नहीं दे सकते थे। कम से कम अन्द्रेई ने पीछे मुड़कर देखा तो उसको नदी का किनारा एक ऊंची दीवार की तरह पीछे खड़ा दिखाई दिया। उसकी चोटी पर स्तेपी के घास के कुछ डंठल लहरा रहे थे। और उनके ऊपर चमकता हुआ चांद खरे सोने की तिरछी दरांती की तरह दिखाई दे रहा था। स्तेपी से आती हवा के हल्के-हल्के झांेके चेतावनी दे रहे थे कि पौ फटने में ज़्यादा देर नहीं रह गयी थी। लेकिन दूर से किसी मुर्गे की बांग सुनायी नहीं दे रही थी। क्योंकि बहुत दिन से शहर में और आसपास के बरबाद इलाकों में कोई मुर्गा बाकी नहीं रहा था। इन्होंने एक छोटे से लकड़ी के गट्ठे पर नदीं को पार किया। सामने का किनारा और भी ज्यादा ऊंचा लग रहा था। और उसकी ऊंचाई कुछ ज़्यादा खड़ी मालूम हो रही थी। ऐसा लगता था कि यह शहर की किलेबंदी की एक बहुत मजबूत और प्राड्डतिक रूप से सुरक्षित जगह थी क्योंकि यहां परकोटे की कच्ची दीवार नीची थी और उसके पीछे शहर की रक्षा के लिये तैनात फ़ौज का कोई भी हिस्सा दिखाई नहीं देता था, लेकिन थोड़ा ही और आगे चलकर मठ की मोटी दीवार बहुत ऊपर तक चली गई थी। खड़ा किनारा जंगली घास से ढका हुआ था और किनारे और नदी के बीच जो घाटी की पतली सी पट्टी थी उस पर आदमी के कद के बराबर ऊंचे सरकंडे उगे हुए थे। ढलान की चोटी पर खपचियों के एक जंगल के अवशेष दिखायी दे रहे थे जो कभी किसी बाग़ के चारों तरफ़ लगा था। उसके सामने एक कांटेदार पौधे के चौड़े-चौड़े पत्ते उगे हुए थे, उसके पीछे गोखरू, बिच्छूबूटी और सूरजमुखी के पौधे थे जो औरों से ज़्यादा ऊंचे थे। यहां तातार औरत ने जूते उतार दिये और बहुत सावधानी से अपना साया समेटकर नंगे पाव चलने लगी क्योंकि वहां दलदल थी और पानी भरा हुआ था। सरकंडों के बीच से गुज़रने के बाद वे दोनों घनी झाडि़यों और लकडि़यों के गट्ठों के एक ढेर के सामने रुक गये। उन्होंने झाडि़यों को एक तरफ़ सरकाया तो कच्ची मेहराब-सी दिखायी दी-एक खुली जगह जो नानबाई के तंदूर के मुंह से बड़ी नहीं थी। पहले तातार औरत सिर झुकाकर अंदर घुसी, उसके पीछे अन्द्रेई घुसा। वह जितना हो सकता था उतना झुका हुआ था ताकि अपने बोरों समेत अंदर घुस सके और जल्द ही दोनों बिल्कुल अंधेरे में पहुंच गये।

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