तितली (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद
1
मधुबन और रामदीन दोनों ही, उस गार्ड की दया से, लोको ऑफिस में कोयला ढोने की नौकरी पा गए। हबड़ा के जनाकीर्ण स्थान में उन दोनों ने अपने को ऐसा छिपा लिया, जैसे मधु-मक्खियों के छत्ते में कोई मक्खी। उन्हें यहाँ कौन पहचान सकता था। सारा शरीर काला, कपड़े काले और उनके लिए संसार भी काला था। अपराध करके वे छिपना चाहते थे।
संसार में अपराध करके प्राय: मनुष्य अपराधों को छिपाने की चेष्टा नित्य करते हैं। जब अपराध नहीं छिपते ब उन्हें ही छिपना पड़ता है और अपराधी संसार उनकी इसी दशा से संतुष्ट होकर अपने नियमों की कड़ाई की प्रशंसा करता है। वह बहुत दिनों से सचेष्ट है कि संसार से अपराध उन्मूलित हो जाए। किंतु अपनी चेष्टाओं से वह नए-नए अपराधों की सृष्टि करता जा रहा है।
हाँ, तो वे दोनों अपराधी थे। कोयले की राख उनके गालों और मस्तक पर लगी रहती, जिसमें आंखें विलक्षणता से चमका करतीं। मधुबन प्राय: रामदीन से कहा करता और किया उसका फल तो खूब मिला। मुँह में कालिख लगाकर देश-निकाला इसी को न कहते हैं ?
भइया, सबका दिन बदलता है !कभी हम लोगों का दिन पलटेगा -रामदीन ने कहा।
उस दिन दोनों को छुट्टी मिल गई थी। उनके टीन से बने मुँहल्ले में अभी सुन्नाटा था। अन्य कुली काम पर से नहीं आए थे। सूर्य की किरणें उनकी छाजन के नीचे हो गई थीं। उनका घर पूर्व के द्वार वाला था। सामने एक छोटा-सा गढ़ा था, जिसमें गंदला पानी भरा था। उसी में वे लोग अपने बरतन मांजते थे। एक बड़ा-सा र्इंटों का ढेर वहीं पड़ा था, जो चौतरे का काम देता है। मधुबन मुँह साफ करने के लिए उसी गढ़े के पास आया। घृणा से उसको रोमांच हो आया। उसकी आंखों में ज्वाला थी। शरीर भी तप रहा था। ज्वर के पूर्व लक्षण थे। वह अंजलि में पानी भरकर उंगलियों की संधि से धीरे-धीरे गिराने लगा। रामदीन एक पीतल का तसला मांज रहा था। वहाँ चार र्इंटों की एक चौकी थी। चिरकिट उस चौकी पर अपना पूर्ण अधिकार समझता था। वह जमादार था। आज उसके न रहने पर ही रामदीन वहीं बैठकर तसला धो रहा था।
मधुबन ने कहा-रामदीन, उस बम्बे से आज एक बाल्टी पानी ले आओ। मुझे ज्वर हो आया। उसमें से एक लोटा गरम करके मेरे सिरहाने रख देना !मैं सोने जाता हूँ।
भइया, अभी तो किरन डूब रही है। तनिक बैठे रहो। अभी दीया जल जाने दो।- रामदीन ने अभी इतना ही कहा कि चिरकिट ने दूर से ललकारा-
कौन है रे चौतरिया पर बैठा ?
रामदीन उठने लगा था। मधुबन ने उसे बैठे रहने का संकेत किया। वह कुछ बोला भी नहीं, उठा भी नहीं। चिरकिट यह अपमान कैसे सह सकता। उसने आते ही अपना बरतन रामदीन के ऊपर दे मारा। मधुबन को कोयले की कालिमा से जितनी घृणा थी, उससे अधिक थी चिरकिट के घमंड से। वह आज कुछ उत्तेजित था। मन की स्वाभाविक क्रिया कुछ तीव्र हो उठी। उसने कहा-यह क्या चिरकिट ! तुमने उस बेचारे पर अपने जूठे बरतन फेंक दिए।
फेंक तो दिए, जो मेरे चौतरिया पर बैठेगा वही इस तरह… वह आगे कुछ कह न सके, इसलिए मधुबन ने कहा-चुप रहो-चिरकिट तुम पाजीपन भी करते हो और सबसे टर्राते हो ! वह बरतन मांजकर ईंटें नहीं उठा ले जाएगा। हट जाता है तो तुम भी मांज लेना।
नहीं, उसको अभी हटना होगा।
अभी तो न हटेगा। गरम न हो। बैठ जाओ। वह देखो, तसला धुल गया।
क्रोध से उन्मत्त चिरकिट ने कहा-यहाँ धांधली नहीं चलेगी। ढोएंगे कोयला, बनेंगे ब्राह्मण, ठाकुर। तुम्हारा जनेऊ देखकर यहाँ कोई न डरेगा। यह गांव नहीं है, जहाँ घास का बोझ लिए जाते भी तुमको देखकर खाट से उठ खड़ा होना पड़ेगा !
मधुबन ने अपने छोटे कुर्ते के नीचे लटकते हुए जनेऊ को देखा, फिर उस चिरकिट के मुँह की ओर। चिरकिट उस विकट दृष्टि को न सह सका। उसने मुँह नीचे कर लिया था, तब भी झापड़ लगा ही। वह चिल्ला उठा-अरे मनवा, दौड़ रे ! मार डाला रे !
कुली इकट्ठे हो गए। मधुबन उन सबों में अविचल खड़ा रहा। उसने सोचा कि ”अभी समय है। यदि झगड़ा बढ़ा और पुलिस तक पहुंचा तो फिर …? क्षण-भर में उसने कर्त्तव्य निश्चित कर लिया। कड़ककर बोला-सुना चिरकिट ! समय पड़ने पर मेहनत-मजूरी करके खाने से जनेऊ नीचा नहीं हो जाएगा। आज से फिर कभी तुम ऐसी बात न बोलना, और तुमके मेरा यहाँ रहना बुरा लगता हो तो लो, हम लोग चले। जहाँ हाथ-पैर चलावेंगे वहीं पैसा लेंगे।
रामदीन समझ चुका था। उसने कंबल की गठरी बांधी, दोनों चले। मधुबन को रोककर कुलियों को उससे झगड़ा करने का उत्साह न हुआ। उसकी भी कलकत्ते में रहने की इच्छा थी। हावड़ा के पुल पर आकर उसने एक नया संसार देखा। जनता का जंगल ! सब मनुष्य जैसे समय और अवकाश का अतिक्रमण करके, बहुत शीघ्र, अपना काम कर डालने में व्यस्त हैं। वह चकित-सा चला जा रहा था। घूमता हुआ जब मछुआ बाजार के भीड़ से आगे बढ़ा तो उसको ज्वर अच्छी तरह हो आया था। फिर भी उसे विश्राम के लिए इस जनाकीर्ण नगर में कहीं स्थान न था।
पटरी पर एक जगह भीड़ लग रही थी। एक लड़का अपनी भद्दी संगीत-कला से लोगों का मनोरंजन कर रहा था। रामधारी पांडे एक मारवाड़ी कोठी का जमादार था। उसके साथ दस-बाहर बलिष्ठ युवक रहते थे। उसके नाम के लिए तो नौकरी थी, परंतु अधिक लाभ तो उसको इन नवयुवकों के साथ रहने का था। सब लोग, इस कानून के युग में भी, बाहुबल से कुछ आशा, भय और सहानुभूति रखते थे। सुरती-चूना मलते हुए प्राय: तमोली की दुकान पर वह बैठा दिखाई पड़ता और एक-न-एक तमाशा लगाए रहने से बाजार उसके बहुत-से काम सधा करते थे। रहीम नाम का एक बदमाश मछुआ में उन दिनों बहुत तप रहा था। इसीलिए रामधारी की पांचों उंगलियां घी में थीं !
रहीम के दल का ही वह लड़का था। उसका काम था कहीं भी खड़े होकर नाच-गाकर कुछ भीड़ इकट्ठी कर लेना। उसी समय उसके अन्य साथी गिरहकट लड़के जेब कतरते थे। उन सबों की रक्षा के लिए रहीम के दो-एक चर भी रहते थे, जो आवश्यकता होने पर दो-चार हाथ इधर-उधर चलाकर लड़कों के भागने में सहायता करते थे। रामधारी और रहीम में संधि थी। साधारण बातों पर वे लोग कभी झगड़ते न थे। जिससे पूरी थैली मिलती, उनके लिए कभी-कभी दो-चार खोपड़ियों का रक्त निकाल दिया जाता था, वह भी केवल दिखाने के लिए !
कलकत्ता में यह व्यापार खुली सड़क पर चला करता। हाँ, तो वह लड़का गा रहा था। भीड़ इकट्ठी थी। कोई अच्छी-सी ठुमरी का टुकड़ा, उसके कोमल कंठ से निकलकर, लोगों को उलझाए था। इतने ही में भीड़ के उसी ओर, जिधर मधुबन खड़ा था, गड़बड़ी मची। किसी मारवाड़ी युवक का जेब कटा। उसने गिरहकट का हाथ नोट के पुलिंदों के साथ पकड़ा, साथ ही चमड़े के हंटर की गांठ उसके सिर पर बैठी। वह अभी तिलमिला ही रहा था कि रामधारी ने देखा कि उसे युवक की कोठी से कुछ मिलता है। अब उसका बोलना धर्म हो गया। उसने ‘हाँ-हाँ’ करते हुए उछलकर मारने वालों को पकड़ ही लिया। फिर भी पांडे ने भूल की। उसका कोई साथी वहाँ न था। उधर रहीम के दल वाले वहाँ उपस्थित थे। फिर क्या, चल गई। रामधारी पूरी तरह से घिर गया, और वह अधेड़ भी था। तब भी उसकी वीरता देखते ही बनी। मधुबन तो इस अवसर से अपने को कभी वंचित नहीं कर सकता था। वह भी एक कोना पकड़कर यह दृश्य देखने लगा। तीन-चार मिनट में एक कांड हो गया। कई दर्शकों के भी सिर फटे और रामधारी केले के छिलके पर फिसलकर गिर चुका था। सहसा मधुबन ने रहीम के दल वाले के हाथ से लकड़ी छीन ली और उधर नटखट रामदीन ने उस लड़के के हाथ से नोटों का बंडल पहले ही झटक लिया था। मधुबन ने जब रहीम के दल को भागने के लिए बाध्य किया, तब तक रामधारी के साथ और उधर से रहीम के दल वाले और भी जुट गए थे। इतने में पुलिस का हल्ला भी पहुंचा।
अब तक जो युवक चुपचाप बड़ी तन्मयता से मधुबन के शरीर और उसके लाठी चलाने को देख रहा था, उसके पास आकर बोला-तुम पकड़े जाना न चाहते हो तो मेरे साथ आओ।
मधुबन समझ गया। युवक के पीछे मधुबन और रामदीन एक दूसरी गली में घुस गए।
उस गली के भीतर भी, कितने मोड़ों से घूमते हुए वे लोग जब एक छोटे-से घर के किवाड़ों को खोलकर भीतर घुसे, तो मधुबन ने देखा कि यहाँ दरिद्रता का पूरा साम्राज्य है। एक गगरी में जल और फटे हुए गूदड़ का बिछावन, बस और कुछ नहीं !
युवक ने कहा-मैं समझता हूँ कि तुमको नोटों की आवश्यकता नहीं है , क्यों उन्हें लेकर जब तुम कहीं भुनाने जाओगे, तुरंत वहीं पकड़ लिए जाओगे, इसलिए उन्हें तो मेरे पास रख छोड़ो। और लो यह पांच रुपए। अपने लिए सामान रखकर दो-चार दिन यहीं कोठरी में पड़े रहो। फिर देखा जाएगा।
इतना कहकर उसने एक हाथ तो नोटों के लेने के लिए बढ़ाया और दूसरे से पांच रुपए देने लगा। मधुबन चकित होकर उसका मुँह देखने लगा-कैसे नोट ?
इतने में रामदीन ने नोटों का बंडल निकालकर सामने रख दिया। मधुबन ने पूछा-अरे तूरे इतने नोट कहाँ से पाए ? क्या उससे तूने छीन लिया पाजी ! क्या फिर यहाँ चोरी पकड़वाएगा।
यह है कलकत्ता ! मालूम होता है कि तुम लोग अभी नए आए हो। भाई यहाँ तो छीना-झपटी चल ही रही है। तुम्हें धर्म के नाम पर भूखे मरना हो तो चले जाओ गंगा-किनारे। लाखों पर हाथ साफ करके सवेरे नहाने वाले किसी धार्मिक की दृष्टि पड़ जाएगी तो दो-एक पाई तुम्हें दे ही देगा। नहीं तो हाथ साफ करो, खाओ, पियो, मस्त पड़े रहो।
मधुबन आश्चर्य से उसका मुँह देख रहा था। युवक ने धीरे से ही नोटों के बंडल को उठाते हुए फिर कहा-आनंद से यहीं पड़े रहो। देखो, उधर जो काठ का टूटा संदूक है, उसे मत छूना। मैं कल फिर आऊंगा। कोई पूछे तो कह देना कि बीरू बाबू ने मुझे नौकर रखा है। बस।
वह युवक फिर और कुछ न कहकर चला गया ! मधुबन हक्का-बक्का सा स्थिर दृष्टि से उस भयानक और गंदी कोठरी को देखने लगा। उसका सिर घूम रहा था। वह किस भूलभुलैया में आ गया। यह किस नरक में जाने का द्वार है ? यही वह बार-बार अपने मन से पूछ रहा था। उसने परदेश में फिर वही मूर्खतापूर्ण कार्य क्यों किया, जिसके कारण उसे घर छोड़कर इधर-उधर मुँह छिपाना पड़ रहा है। मरता वह, मुझे क्या जो दूसरे का झगड़ा मोल लेकर यहाँ भी वही भूल कर बैठा जो धामपुर में एक बार कर चुका था। उसे अपने ऊपर भयानक क्रोध आया। उसके घाव भी ठंडे होकर दुख रहे थे। रामदीन भी सन्न हो गया था। फिर भी उसका चंचल मस्तिष्क थोड़ी ही देर में काम करने लगा। उसने धीरे से एक रुपया उठा लिया, और उस घर के बाहर निकल गया।
मधुबन अपनी उधेड़बुन में बड़ा हुआ अपने ऊपर झल्ला रहा था। रामदीन बाजार से पूरी-मिठाई लेकर आया। उसने जब मधुबन के सामने खाना खाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाया तब उसका ध्यान टूटा। भूख लगी थी, कुछ न कहकर वह खाने लगा।
दोनों सो गए। रात कब बीती, उन्हें मालूम नहीं। हारमोनियम का मधुर स्वर उनकी निद्रा का बाधक हुआ। मधुबन ने आंख खोलकर देखा कि उसी घर के आंगन में छ:सात युवक और बालक खड़े होकर मधुर स्वर से भीख मांगने वाला गाना आरंभ कर चुके हैं, और बीरू बाबू उनके नायक की तरह ही गेरुआ कपड़ा सिर से बांधे बीच में खड़े हैं !
मधुबन जैसे स्वप्न देख रहा था। उसका सम्मिलित गान बड़ा आकर्षक था वे धीरे-धीरे बाहर हो गए। दो लड़कों के हाथ में गेरुए कपड़े का झोला था। एक गले में हारमोनिया डाले था, बाकी गा रहे थे। भिखमंगों का यह विचित्र दल अपने नित्य कर्म के लिए जब बाहर चला गया तब मधुबन अंगड़ाई ले उठ बैठा।
आज सवेरे से बदली थी। पानी बरसने का रंग था। रामदीन सरसों का तेल लेकर मधुबन के शरीर में लगाने लगा। वह इस अनायास की अमीरी का आंख मंदूकर आनंद ले रहा था। वह जैसे एक नए संसार में आश्चर्य के साथ प्रवेश करने का उपक्रम कर रहा था। उसके जीवन की स्वचेतना जो उसे अभी तक प्राय: समझा बुझाकर चलने के लिए संकेत किया करती थी – इस आकस्मिक घटना से अपना स्थान छोड़ चुकी थी। जीवन के आदर्शवाद मस्तिष्क से निकलने की चिंता में थे। दोपहर होने आया, वह आलसी की तरह बैठा रहा।
बीरू बाबू का दल लौट आया। झोली में चावल और पैसे थे, जो अलग कर लिए गए। बीरू पैसों को लेकर साग भाजी लेने चला गया। और लोग भात बनाने में जुट गए। बड़ा-सा चूल्हा दालान में जलने लगा और चावल धोते हुए ननीगोपाल ने कहा -बीरू आज भी मछली लाता है कि नहीं। भाई, आज तीन दिन हो गए, साग खाकर हारमोनियम गले में डाले गली-गली नहीं घूमा जा सकता। क्यों रे सुरेन !
सुरेन हंस पड़ा। ननी फिर बौखला उठा-पाजी कहीं का, तुझसे कहा था न मैंने कि दो-चार आने उनमें से टरका देना।
और बीरू और सुरेन, मैं तो जाता हूँ अड्डे पर। देखूं एकाध चिलम, चरस …।
बीरू के प्रवेश करते ही सब वाद-विवाद बंद हो गया था। उसने तरकारी की गठरी रखते हुए कहा-
आज भी मछली की ब्योंत नहीं लगी।
मैं तो बिना मछली के आज खा नहीं सकता – कहते हुए मधुबन ने एक रुपया अपनी कोठरी में से फेंक दिया। वह निर्विकार मन से इन बातों को सुनने का आनंद ले रहा था। ननी दौड़ पड़ा-रुपए की ओर। उसने कहा-
वाह चाचा ! तुम कहाँ से मेरी दुर्बुद्धि की तरह इस घर की खोपड़ी में छिपे थे। तो खाली मछली ही न कि और भी कुछ।
बीरू ने ललकारा-क्यों ने ननी, तरकारी न बनेगी ? कहाँ चला ?
जब एक भलेमानस कुछ अपना खर्च करके खाने-खिलाने का प्रबंध कर रहे हैं तब भी बीरू चाचा ! चूल्हें में डाल दूंगा तुम्हारा सूखा भात…हाँ-कहते हुए रुपया लेकर दौड़ गया। मधुबन मुस्करा उठा। वह आज पूरी अमीरी करना चाहता है।
ठाट-बाट से बीरू के दल की ज्योनार उस दिन हुई। भोजन करके सबको एक-एक बीड़ा सौंफ और लौंग पड़ा हुआ पान मिला। नारियल भी गुड़गुड़ाया जाने लगा। ताश भी निकला। मधुबन को बातों में ही मालूम हुआ कि उस घर में रहने वाले सब ठलुए बेकार हैं। इस दल से संयोजक हैं ‘बीरू बाबू’। उन्होंने परोपकार-दृष्टि से ही इस दल का संघटन किया है। उनकी आस्तिक बुद्धि बड़ी विलक्षण है। अपने दल के सामने जब वह व्याख्यान देते हैं तो सदा ही मनुस्मृति का उद्धरण देते हैं। जब अनायास, अर्थात बिना किसी पुलिस के चक्कर में पड़े, कोई दल का सदस्य अर्थलाभ कर ले आता है, उसे ईश्वर को धन्यवाद देते हुए वे पवित्र धन समझते हैं। उसे ईश्वर की सहायता समझकर दरिद्रों के लिए, अपने दल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए, व्यय करने में कोई संकोच नहीं करते। चाहे वह किसी तरह से आया हो। उन्होंने स्कूल की सीमा पर खड़े होकर कॉलेज को दूर से ही नमस्कार कर दिया था। वह तब भी व्याख्यान वाचस्पति थे। लेखक-पुंगव थे। बंगाल की पत्रिकाओं में दरिद्र के लिए बराबर लेख लिखा करते थे। मधुबन की उदारता को संदेह की दृष्टि से देखते हुए उस दिन संघ के धन को मितव्ययिता से खर्च करने का उपदेश देते हुए जब अंत में कहा कि ईश्वर सबका निरीक्षण करता है, उसके पास एक-एक दाने का हिसाब रहता है, तब झल्लाते हुए ननी ने कहा-
अरे भाई, तुमने मनुष्य को अच्छी तरह समझ लिया क्या, जो अब ईश्वर के लिए अपनी बुद्धि की लंगड़ी टांग अड़ा रहे हो ? हम लोग हैं भूखे, सब तरह के अभावों से पीडि़त। पहले हम लोगों की आवश्यकता पूरी होने दो। जब ईश्वर हमसे हिसाब मांगेंगे तब हम लोग भी उनसे समझ लेंगे। एक दिन मछली सो सात एकादशी के बाद मिली, वह भी तुमसे देखा नहीं जाता।
बीरू ने देखा कि उसके बड़प्पन में बट्टा लगता है। उसने सम्हलकर हंसते हुए कहा-अरे तुम चिढ़ गए। अच्छा भाई, वही सही। अच्छी बात का प्रमाण यही है कि वह सबकी समझ में नहीं आती तो ठीक है।
मधुबन चुपचाप इस विचित्र परिवार का दृश्य देख रहा था। उसके मन में समय-समय पर निर्भय होकर निश्चिंत भाव से संसार यात्रा करते रहने का विचार घनीभूत होता जा रहा था। उसमें अन्य मनुष्यों से सहायता मिलने का लोभ भी छिपा था, वह मानसिक परावलंबन की ओर ढुलक रहा था। मनुष्य को कुछ चाहिए। वह किसी तरह से आ रहा है, इस पर ध्यान देने की इच्छा नहीं रह गई। दूसरे दिन बीरू ने एक रिक्शा-गाड़ी मधुबन के लिए खरीद दी। मधुबन रात को उसे लेपकर निकलता। वह सरलता से दो-तीन रुपए ले आने लगा। रामदीन उस दल का सेवक बन गया। दिन को कोई काम न करके, रात को निकलने में मधुबन को कोई असुविधा न थी। कुछ लोग भीख मांगते हुए, कुछ लोग अवसर मिलने पर रात को कुली का काम भी कर लेते। महीनों के भीतर ही एक रिक्शा और आ गई। अच्छी आय होने लगी। उस दल के उड़िया, बंगाली और युक्तप्रांतीय आनंद से एक में रहते थे।
रात के दस बजे थे। हबड़ा से चांदपाल घाट को जानेवाली सड़क पर मधुबन अपनी रिक्शा लिए धीरे-धीरे चला जा रहा था। वह बैंड बजने वाले मड़ो पर खड़ा होकर गंगा की धारा की क्षण-भर के लिए देखने का प्रयत्न करने लगा। इतने में एक स्त्री का हाथ पकड़े हुए एक बाबू साहब लड़खड़ाती चाल से रिक्शा के सामने आकर खड़े हो गए। मधुबन रुककर आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा। दोनों ही मदिरा के नशे में झूम रहे थे। मधुबन ने पूछा-हबड़ा ?
तुम पूछकर क्या करोगे, मैं जिधर चलता हूँ उधर चलो।
क्या ? – मधुबन ने पूछा।
बड़ा बकवादी है।
तो फिर बैठ जाइए।
दोनों रिक्शा पर बैठ गए। मधुबन उन्हें खींच ले चला। हाँ, उन मदोन्मत्त विलासी धनियों के लिए वह पशु बन गया था। गंगा का स्पर्श करके आती हुई शीतल वायु धीरे-धीरे बह रही थी। मधुबन रिक्शा खींचते हुए सोच रहा था –
यदि मैं न छिपता तो फांसी होती। और न होगी, कभी मैं न पहचान लिया जाऊंगा, इसी पर कैसे विश्वास कर लूं। यह दुष्ट मनुष्यों का बोझ मैं गधों की तरह ढो रहा हूँ। मेरी शिक्षा !मेरा वह उन्नत हृदय ! सब कहाँ गया। क्या मैं छाती ऊंची करके दंड झेलने में असमर्थ था। और भय का वह पहला झोंक, उसी में मैना ने मुझे भगाने के लिए .. हाँ, मैना, वह वैश्या ! उसने मुझसे रुपए भी लिए और मुझे उस समय निकाल बाहर भी किया। मैं पापी था, अछूत था, पर वह चांदी के चमकीले टुकड़े-उनमें पाप कहाँ ! धीरे से उन्हें वह रख आई। और मैं भगा दिया गया।
रिक्शा पर बैठे हुए बाबू साहब ने कहा-अरे बहुत धीरे-धीरे चलता है।
मधुबन अड़ियल टट्टू की तरह रुक गवा। उसने कहा-तो बाबू साहब, मैं घोड़ा नहीं हूँ। आप उतरकर चले जाइए।
मारे हंटरों के खाल खींच लूंगा। नवाबी करने की इच्छा थी तो रिक्शा क्यों खींचने लगा। चल, तुझे दौड़कर चलना होगा।
अच्छा, उतरो नहीं तो.. मधुबन को आगे कुछ करने से रोककर उस स्त्री ने कहा-बड़ा हठी है। थोड़ी दूर तो हबड़ा का पुल है। वहीं तक चल।
नहीं इसे सूतापट्टी के मोड़ तक चलना होगा मैना ! अनवरी के दवाखाने तक !ठीक, वहाँ तक बिना पहुंचे श्यामलाल उतरने के नहीं।
मधुबन के शरीर में बिजली सी दौड़ गई। मैना ! और यह श्यामलाल वहीं दंगल वाले बाबू श्यामलाल ! यही कलकत्ता में .. ठीक तो ! उसके क्रोध के कितने कारण एकत्र हो गए थे। अब वह अपने को रोक न सका। उसने रिक्शा छोड़ दी। वह झटके से पृथ्वी पर आ गिरा, और मैना के साथ बाबू श्यामलाल भी।
मैना भी गहरे नशे में थी, श्यामलाल का तो कहना ही क्या था। दोनों रिक्शा से लुढ़ककर नीचे आ गिरे। मधुवन की पशु-प्रवृत्ति उत्तेजित हो उठी। उसने एक लात कसकर मारते हुए कहा-पाजी। श्यामलाल गों-गों करने लगा। उसकी पंसली चरमरा गई थी। किंतु मैना चिल्ला उठी। थोड़ी दूर खड़ी पुलिस उधर जब दौड़कर आने लगी तो मधुवन अपना रिक्शा खींचकर आगे बढ़ा। पुलिस ने उसे दौड़कर पकड़ लिया। मधुबन को विवश होकर, फिर उन्हीं दोनों को लादकर पुलिस के साथ जाना ही पड़ा।
दूसरे दिन हवालात में मैना और मधुबन ने एक-दूसरे को देखा। मैना चिल्ला उठी – मधुबन !
मैना ! मधुबन ने उत्तर दिया।
दोनों चुप थे। पुलिस ने दोनों का नाम नोट किया। श्यामलाल और मैना अनवरी के दवाखाने में पहुंचाई गई। मधुबन पर अभियोग लगाया गया। केवल उसी घटना के आधार पर नहीं पुलिस के पास उस भगोड़े के लिए भी वारंट था, जिसने बिहारीजी के महंत के यहाँ डाका डालकर रुपए लिए थे और उनकी हत्या की चेष्टा की थी। पुलिस के सुविधानुसार उपयुक्त न्यायालय में मधुबन की व्यवस्था हुई। उसके ऊपर डाके डालने के दोनों अभियोग थे। न्यायालय में जब मैना ने उसे पहचानते हुए कहा कि उस रात में रुपयों की थैली लेकर छिपने के लिए मधुबन मेरे यहाँ अवश्य आया था, पर मैंने उसे अपने यहाँ रहने नहीं दिया, वह रुपए लेकर उसी समय चला गया, तो मधुबन उसके मुँह को एकटक देख रहा था। मैना ! वही तो बोल रही थी। वह वहाँ धन की प्यासी पिशाची उसका संकेत, उसकी सहृदयता, सब अभिनय ! रुपए पचा लेने की कारीगरी !
मधुबन को काठ मार गया। वह चेतना-विहीन शरीर लेकर उस अद्भुत अभिनय को देख रहा था। उसे दस वर्ष सपरिश्रम कठोर कारावास का दंड मिला।
बीरू बाबू ने रिक्शा खरीदने की रसीद दिखाकर रिक्शा पर अपना अधिकार प्रमाणित कर दिया। रिक्शा उन्हें मिल गया। उस परोपकार संघ में मूर्ख रामदीन फिर रिक्शा खींचने लगा। हाँ, ननीगोपाल उस संघ से अलग हो गया। उसे बीरू बाबू से अत्यंत घृणा हो गई !
2
नील-कोठी में इधर कई दिनों से भीड़ लगी रहती है। शैला की तत्परता से चकबंदी का काम बहुत रुकावटों में भी चलने लगा। महंगू इस बदले के लिए प्रस्तुत न था। उसकी समझ में यह बात न आती थी। उसके कई खेत बहुत ही उपजाऊ थे। रामजस का खेत उसके घर से दूर था, पर वह तीन फसल उसमें काटता था। उसको बदलना पड़ेगा। यह असंभव है। वह लाठी टेकता हुआ भीड़ में घुसा।
वाट्सन के साथ बैठी हुई शैला मेज पर फैले गांव के नक्शे को देख रही थी ! किसानों का झुंड सामने खड़ा था। महंगू ने कहा-दुहाई सरकार मर जाएंगे।
शैला ने चौंककर उसकी ओर देखा।
मेरा खेत ! उसी से बाल बच्चों की रोटी चलती है। उस टुकड़े को मैं बदलूंगा।
महंगू की आंखों में आंसू तो अब बहुत शीघ्र यों ही आते थे। वृद्धावस्था में मोह और भी प्रबल हो जाता है। आज जैसे आंसू की धारा ही नहीं रुकती थी।
शैला ने वाट्सन की ओर देखा। उस देखने में एक प्रश्न था। किंतु वाट्सन ने कहा-नहीं, तुम्हारा वह खेत तुम्हारी चरनी और कोल्हू से बहुत दूर है। उसको तो तुम्हें छोड़ना ही पड़ेगा। तुम अपने समीप का एक टुकड़ा क्यों नहीं पसंद करते।
वाट्सन ने नक्शे पर उंगली रखी। शैला चुप रही। इतने में तितली एक छोटा-सा बच्चा गोद में लिए यहीं आई। उसे देखते ही दूसरी कुर्सी पर बैठने का संकेत करते हुए शैला ने कहा-वाट्सन ! यही मेरी बहन ‘तितली’ है। जिसके लिए मैंने तुमसे कहा था। कन्या-पाठशाला की यही अध्यापिका है। बीस लड़कियां तो उसमें बोर्ड की हिंदी परीक्षा के लिए इस साल प्रस्तुत हो रही हैं। और छोटी-छोटी कक्षाओं में कुल मिलाकर चालीस होंगी।
ओहो, आप बैठिए। मुझे तो यह पाठशाला देखनी ही होगी। यह सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। कहते हुए वाट्सन ने फिर बैठने के लिए कहा।
किंतु तितली वैसी ही खड़ी रही। उसने कहा-आपकी कृपा है। किंतु मैं इस समय आपके पास एक दूसरे काम से आई हूँ। मेरा कुछ खेत महंगू महतो जोत रहे हैं। मैं नहीं जानती कि मेरे पति ने वह खेत किन शर्तों पर उन्हें दिया है। किंतु मुझे आवश्यकता है अपने स्कूल के लिए और भी विस्तृत भूमि की। बनजरिया पर लगान तो लग ही गया है। उसमें लड़कियों के खेलने की जगह बनाने से मेरी खेती की भूमि कम हो गई है। मैं चाहती हूँ महंगू के पास जो मेरा खेत है, वह महंगू को दे दिया जाय।
वाट्सन ने घूमकर शैला से कहा-मैं तो समझता हूँ कि उस बदले से यह अच्छा होगा। क्यों महंगू ? तुमको तो यह प्रस्ताव मान लेनी चाहिए।
शैला चुपचाप तितली और अपने संबंध को विचार रही थी। वह सोच रही थी कि तितली क्यों मुझसे इतना अलग रहना चाहती है। मैं पकहती हूँ कि ‘यहाँ बैठ जाओ’ तो वह बैठना ही अपमान समझती है।
वाट्सन ने शैला के कान में धीरे-से कहा-तुम चुप क्यों हो ? यह तो वही लड़की मालूम होती है, जिसके ब्याह में मैं उपस्थित था। ठीक है न ?
शैला ने दु:ख से कहा- हाँ, इसका शेरकोट तो जमींदार ने बेदखल करा लिया। अब बनजरिया बची है उस पर भी लगान लग गया। पहले माफी थी! और वाट्सन ! तुमने तो यह न सुना होगा कि इसके पति को डकैती के अपराध में कारावास का दंड मिला है।
वाट्सन ने एक बार फिर उस तेजस्विनी तितली को देखा। वही एक किसान थी, जिसने सबके पहले बदले को प्रसन्नता से स्वीकार किया है। महंगू तो इस प्रस्ताव को सुनकर और भी क्रुद्ध हो गया। उसे अपने खेत जहाँ पर हैं वहीं रहना अच्छा मालूम होता है, क्योंकि उसके अंतर में यह अज्ञात भावना है कि उसके लड़के-पोते एक में न रहेंगे, फिर एक जगह खेत इकट्ठा लेकर क्या होगा। उसने गुर्राकर कहा-साहब !आप मालिक हैं, जो चाहें कीजिए। कहिए तो गांव ही छोड़कर चले जाएं।
वाट्सन इस उत्तर से अव्यवस्थित हो गए। उसके मन में झटका लगा-क्या हम किसानों के हित के विरुद्ध कुछ करने जा रहे हैं ? तुरंत ही उन्होंने तितली से घूमकर पूछा –
क्या दूसरा खेत तुम नहीं पसंद कर सकती ? और भी तो खेत तुम्हारे पास हैं ?
नहीं, दूसरे खेत मेरे काम के नहीं ! यदि बदलना हो तो उसी से बदल लूंगी ?
वाट्सन ने देखा कि यही पहला अवसर है कि एक किसान बदलने का प्रस्ताव करता है- वह भी उचित, तो फिर अस्वीकार कैसे किया जए।
वाट्सन ने कहा-यह बदला फिर मान लिया जाय, क्योंकि खेत के परते में भी कोई अंतर नहीं है।
महंगू खिसिया गया। उसकी आंखों में फिर आंसू निकलने लगे। तब तितली ने अपने बच्चे को लहराते हुए कहा-तो मैं जाती हूँ, बच्चा भूखा है ! धन्यवाद !
शैला ने देखा कि एक ठोकर खाया हुआ हृदय अपनी दुरवस्था में उपेक्षा से उनका तिरस्कार कर रहा है, शैला इंद्रदेव से ब्याह कर लेने पर बहुत दिनों तक धामपुर नहीं आई। लिखा-पढ़ी करने पर इस सरदी में वाट्सन अपना काम पूरा करने आए। तब तो उसकी आना ही पड़ा, और आकर भी वह तितली से मिलने का अवसर न पा सकी, क्योंकि वाट्सन साथ ही आए थे। इधर इंद्रदेव ने भी बड़े दिनों में वहीं आने के लिए कह दिया था। शैला कुछ-कुछ मानसिक चंचलता में थी। तितली को यह अखर गया। वह दुर्बल थी, असहाय थी। उसकी खोज लेना बड़े लोगों का धर्म हो जाता है इसीलिए तितली काम करके तुरंत लौट जाना चाहती थी। उसने जो वाक्य अपने जाने के लिए कहा, वह भी सीधे शैला से नहीं। तब भी शैला कुर्सी से उठकर तितली के पास आई। उसका हाथ पकड़े हुए दूसरे कमरे में चली गई।
वाट्सन ने तितली को एक शुभ लक्षण समझा। भला इस स्त्री ने पहले-पहले उस काम की महत्ता को समझा तो। काम आरंभ हो गया। अब धीरे-धीरे वह किसानों को सांचे में ढ़ाल लेगा। उसे शैला की मनसंतुष्टि के लिए क्या-क्या नहीं कर लेना चाहिए। उसने काम को आगे बढ़ाया।
शैला ने तितली के बच्चे को उसकी गोद से लेकर कहा-बड़ा सुंदर और प्यारा बच्चा है !
परंतु अभागा है-तितली ने कहा।
तुम क्या अभी उसको प्यार करती हो ? वह ..शैला आगे कुछ बुरे शब्द मधुबन के लिए न कह सकी।
तितली ने कहा-वह !डाकू, हत्यारा और चोर था या नहीं, सो तो मैं नहीं कह सकती, क्योंकि चौबीसों घंटे में साथ रही, फिर भी शैला। वह…।
आगे वह भी कुछ न बोल सकी, उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। शैला ने बात का ढंग बदलने के लिए कहा-अच्छा, तुमसे एक बात पूछती हूँ।
क्या ?
यही कि उस दिन तुम बिना कहे-सुने क्यों चली आई। इंद्रदेव ने तो तुम्हारी सहायता करने के लिए कहा था न ?
मैं यह सब समझती हूँ। वे कुछ करते भी, इसका मुझे विश्वास है, परंतु मैंने यही समझा कि मुझे दूसरों के महत्व प्रदर्शन के सामने अपनी लघुता न दिखानी चाहिए। मैं भाग्य के विधान से पीसी जा रही हूँ। फिर उसमें तुमको, तुम्हारे सुख से घसीट कर, क्यों अपने दुख का दृश्य देखने के लिए बाध्य करूं ? मुझे अपनी शक्तियों पर अवलंब करके भयानक संसार से लड़ना अच्छा लगा। जितनी सुविधा उसने दी है, उसी की सीमा में लडूंगी, अपने अस्तित्व के लिए। तुमको साल भर पर अब यहाँ आने का अवसर मिला है। तो मेरे समीप जो है उसी को न मैं पकड़ सकूंगी। वह बनजरिया ! वे ही थोड़े-से वृक्ष ! और साधारण-सी खेती ! तब मुझे यहाँ पाठशाला चलानी पड़ी। जानती हो, आज मेरे परिवार में कितने प्राणी हैं ? दो तुम यहीं देख रही हो। राजो, मलिया और तीन छोटी-छोटी अनाथ लड़कियां, जिनमें कोई भी छ: माह से अधिक बड़ी नहीं है ! और अभी जेल से छूटकर आया हुआ रामजस, जिसके लिए न एक बित्ता भूमि है और न एक दाना अन्न !
तीन छोटी-छोटी लड़कियां हैं ? वे कहाँ से आ गई ? शैला ने आश्चर्य से पूछा।
संसार भर में परम अछूत ! समाज की निर्दय महत्ता के काल्पनिक दंभ का निदर्शन ! छिपाकर उत्पन्न किए जाने योग्य सृष्टि के बहुमूल्य प्राणी, जिन्हें उनकी माताएं भी छूने में पाप समझती हैं। व्यभिचार की संतान !
शैला की आंखें जैसे बढ़ गईं। उसने तितली का हाथ पकड़कर कहा-बहन ! तुम यथार्थ में बाबाजी की बेटी हो। तुम्हारा काम प्रशंसनीय है, यहाँ वाले क्या तुम्हारे काम से प्रसन्न हैं ?
हों या न हों, मुझे इसकी चिंता नहीं। मैंने अपनी पाठशाला चलाने का दृढ़ निश्चय किया है। कुछ लोगों ने इन लड़कियों के रख लेने पर प्रवाद फैलाया। परंतु वे इसमें असफल रहे। मैं तो कहती हूँ, कि यदि सब लड़कियां पढ़ना बंद कर दें, तो मैं साल भर में ही ऐसे कितनी ही छोटी-सी अनाथ लड़कियां एकत्र कर लूंगी, जिनसे मेरी पाठशाला और खेती-बारी बराबर चलती रहेगी। मैं इसे कन्या-गुरुकुल बना दूंगी।
तितली का मुँह उत्साह से दमकने लगा, और शैला विमुग्ध होकर उसकी मन-ही-मन सराहना कर रही थी। फिर शैला ने कहा-तितली ! मेरी एक बात मानोगी ! मैं इंद्रदेव के आने पर तुमको बुलाऊंगी। मैं चाहती हूँ कि तुम उनसे एक बार कहो कि वे मधुबन के लिए अपील करें।
मुझे पहले ही जब लोगों ने यह समाचार नहीं मिलने दिया कि उनका मुकद्दमा चल रहा है, तो अब मैं दूसरों के उपकार का बोझ क्यों लूं ? मैं !कदापि नहीं। बहन शैला !अब उसमें क्या धरा है ? उनके यदि अपराध न भी होंगे, तो चार-छ: बरस ब्रह्मा के दिन नहीं। आंच में तपकर सोना और भी शुद्ध हो जाएगा। कहकर तितली उठने लगी।
तो फिर बात और मैं कह लूं। बैठ जाओ। मैं कहती हूँ कि मेरे साथ आकर यहीं नील-कोठी में काम करो। यहीं मैं बालिकाओं की पाठशाला भी अलग खुलवा दूंगी।
तितली बैठी नहीं, उसने चलते-चलते कहा-मुझे अपना दुख-सुख अकेली भोग लेने दो। मैं द्वार-द्वार पर सहायता के लिए घूमकर निराश हो चुकी हूँ। मुझे अपनी निस्सहायता और दरिद्रता का सुख लेने दो। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे हृदय में मेरे लिए एक स्थान है। परंतु मैं नहीं चाहती कि मुझे कोई प्यार करे। मुझसे घृणा करो बहन !
शैला आश्चर्य से देखती रहगई और तितली चली गई। दूसरी ओर से इंद्रदेव ने प्रवेश किया। शैला ने मीठी मुस्कान से उनका स्वागत किया।
इसके कई दिन बाद बनजरिया की खपरैल में जब लड़कियां पढ़ रही थीं, तब उसी पके पास एक छोटे-से मिट्टी के टीले को काटकर ईंटें बन रही थीं। मलिया मिट्टी का लोंदा बनाकर सांचे में भर रही थी और रामजस उससे ईंटें निकालता जा रहा था। राजो एक मजूर से बैलों के लिए जोन्हरी का ढेंका कटवा रही थी। सिरस से पेड़ में एक झूला पड़ा था, उसमें तीन भाग थे। छोटे-छोटे निरीह शिशु उसमें पड़े हुए धूप खा रहे थे, और तितली अपने बच्चों को गोद में लिए लड़कियों को पहाड़ा रटा रही थी। उसी समय वाट्सन, शैला और इंद्रदेव वहाँ आए। वाट्सन ने टाट पर बैठकर पढ़ती हुई लड़कियों को देखा। उनको देखते ही तितली उठ खड़ी हुई। अपने हाथ से बनाए हुए मोढ़े लाकर लड़कियों ने रख दिए। सब लोगों के पास बैठने पर इंद्रदेव ने कहा-शैला ! तुमने प्रबंध में इस पाठशाला के कोई व्यवस्था नहीं की है ?
नहीं, यह सहायता लेना ही नहीं चाहती।
क्यों ?
वह तो मैं नहीं कह सकती।
सचमुच यह सराहनीय उद्योग है। वाट्सन ने कहा-मुझे तो यह अद्भुत मालूम पड़ता है, बड़ा ही मधुर और प्रभावशाली भी। क्यों तुम कोई सहायता नहीं लेना चाहती ? मुझे कुछ बता सकती हो ?
आप उसे सुनकर क्या करेंगे ? वह बात अच्छी न लगे तो मुझे और भी दुख होगा। आप लोगों की सहानुभूति ही मेरे लिए बड़ी भारी सहायता है ! तितली ने सिर नीचा कर कृतज्ञ-भाव से कहा।
परंतु ऐसी अच्छी संस्था थोड़े-से धनाभाव के कारण अच्छी तरह न चले सके, तो बुरी बात है। मैं क्या इस उदासीनता का कारण नहीं सुन सकता ?
मैं विवश होकर कहती हूँ। मैं अपनी रोटियां इससे लेती हूँ। तब मुझे किसी की सहायता लेने का क्या अधिकार है ? मैं दो आने महीना लड़कियों से पाती हूँ। और उतने से पाठशाला का काम अच्छी तरह चलता है। कुछ मुझे बच भी जाता है। जमींदार ने मेरी पुरखों की डीह ले ली। मुझे माफी पर भी लगान देना पड़ रहा है। और मुझे इस विपत्ति में डालने वाले हैं यहाँ के जमींदार और तहसीलदार साहब ! तब भी आप लोग कहते हैं कि मैं उन्हीं से सहायता लूं !
हाँ, मैं तो उचित समझता हूँ। इस अवस्था में तो तुम्हें और भी सहायता मिलनी चाहिए और तुमने तो मेरे चकबंदी के काम में…।
सहायता की है .. यही न आप कहना चाहते हैं ? वह तो मेरे हित की बात थी, मेरे स्वार्थ था। देखिए, उस खेत के मिल जाने से मैं अपना पुराना टीला खुदवाकर उसकी मिट्टी से ईंटें बनवा रही हूँ। उधर समतल होकर वह बनजरिया को रामजस वाले खेत से मिला देगा।
तुमसे मैं और भी सहायता चाहता हूँ।
मैं क्या सहायता दे सकूंगी ?
तुम कम-से-कम स्त्री-किसानों को बदले के लिए समझा सकती हो, जिससे गांव में सुधार का काम सुगमता से चले।
जमींदार साहब के रहते वह सब कुछ नहीं हो सकेगा। सरकार कुछ कर हीं सकती। उन्हें अपने स्वार्थ के लिए किसानों में कलह कराना पड़ेगा। अभी-अभी देखिए न, घूर के लिए मुकदमा हाईकोर्ट में लड़ रहा है! तहसीलदार को कुछ मिला ! उसने वहाँ से एक किसान को उभाड़कर घूर न फेंकने के लिए मार-पीट करा दी। वह घूर फेंकना बंद कर उस टुकड़े को नजराना लेकर दूसरे के साथ बंदोबस्त करना चाहता है। यदि आप लोग वास्तविक सुधार करना चाहते हों, तो खेतों के टुकड़ों को निश्चित रूप में बांट दीजिए और सरकार उन पर मालगुजारी लिया करे। कहते हुए तितली ने व्यंग्य से इंद्रदेव की ओर देखा और फिर उसने कहा-क्षमा कीजिए, मैंने विवश होकर यह सब कहा।
इंद्रदेव हतप्रभ हो रहे थे, उन्होंने कहा-अरे, मैं तो अब जमींदार नहीं हूँ। हाँ, आप जमींदार नहीं है तो क्या, आपने त्याग किया होगा। किंतु उससे किसानों को तो लाभ नहीं हुआ। घुटते ही तितली ने कहा।
उसका बच्चा रोने लगा था। एक बड़ी-सी लड़की उसे लेकर राजो के पास चली गई।
किंतु तुम तो ऐसा स्वप्न देख रही हो जिसमें आंख खुलने की देर है। वाट्सन ने कहा।
यह ठीक है कि मरने वाले को कोई जिला नहीं सकता। पर उसे जिलाना ही हो, तो कहीं अमृत खोजने के लिए जाना पड़ेगा। तितली ने कहा।
उधर शैला मौन होकर तितली के उस प्रतिवाद करने वाले रुप को चकित होकर देख रही थी। और इंद्रदेव सोच रहे थे-तितली ! यही तो है, एक दिन मेरे साथ इसी के ब्याह का प्रस्ताव हुआ था। उस समय मैं हंस पड़ा था, संभवत: मन-ही-मन। आज अपनी दुर्बलता में, अभावों और लघुता में, दृढ़ होकर खड़ी रहने में यह कितनी तत्पर है ! यही तो हम खोज रहे थे न। मनुष्य गिरता है। उसका अंतिम पक्ष दुर्बल है- संभव है कि वह इसीलिए मर जाता है। परंतु … परंतु जितने समय तक वह ऐसी दृढ़ता दिखा सके, अपने अस्तित्व का प्रदर्शन कर सके, उतने क्षण तक क्या जिया नहीं। मैं तो समझता हूँ कि उसके जन्म लेने का उद्देश्य सफल हो गया। तितली वास्तव में महीयसी है, गरिमामयी है। शैला ! वह अपने लिए सब कुछ कर लेगी। स्वावलंबन ! हाँ, वह उसे भी पूरा कर लेगी। किंतु स्त्री का दूसरा पक्ष पति ! उसके न रहने पर भी उसकी भावना की पूरी करते रहना, शैला से भी न हो सकेगा। वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है, किंतु दूसरे को अवलंब नहीं दे सकती।
वाट्सन भी चुपचाप होकर सोच रहे थे। उन्होंने कहा- मैंने कागज-पत्र देखकर निश्चय कर लिया है कि शेरकोट पर तुम्हारा स्वत्व है। क तुम उसके बदले यह सटी हुई परती ले लोगी ? मैं जमींदार को इसके लिए बाध्य करूंगा।
बिना रूके हुए तितली ने कहा-वह मेरा घर है, खेत नहीं, उसको मैं उसके ही स्वरूप में ले सकती हूँ। उससे बदला नही हो सकता।
वाट्सन हतबुद्धि होकर चुप हो गए। शैला ने तितली को ईर्श्या से देखा। यह गंवार लड़की। अपनी वास्तविक स्थिति में कितनी सरलता से निर्वाह कर रही है। सो भी पूरी स्वतन्त्रता के साथ !और मैं, मैंने अपना जीवन, थोड़ा-सा काल्पनिक सुख पाने के लिए, जैसे बेच दिया। उस दरिद्र भूतकाल ने मुझे सुख के लिए लोलुप बना दिया। क्या मैं सचमुच इंद्रदेव को प्यार करती हूँ। मैं उतना ही कर सकती हूँ, जितना मधुबन के लिए तितली कर रही है ! उसके भीतर से जैसे किसी ने कहा ‘ना’। वह अपनी नग्न मूर्ति देखकर भयभीत हो गई। उसने चारों ओर अवलंब खोजने के लिए आंख उठाकर देखा। ओह !वह कितनी दुर्बल है। यह वाट्सन ! इस सुंदर व्यापार में कहाँ से आ गया। और अब तो मेरे जीवन के गणित में यह प्रधान अंक है। तो ? उसने इंद्रदेव को और भयभीत होकर देखा, क्या वह कुछ समझने लगा है।
इंद्रदेव ने कहा-मैं तो समझता हूँ कि अब हम लोगों को चलना चाहिए, क्योंकि आज ही रात को मुझे शहर लौट जाना है। कल एक अपील में मेरा वहाँ रहना आवश्यक है।
शैला ने समझा कि यह पिंड छुड़ाना चाहता है। उसे क्या संदेह होने लगा है ? हो सकता है। एक बार इसी वाट्सन को लेकर भ्रम फैल चुका है। किंतु यह कितनी बुरी बात है। जिसने मेरे लिए सब त्याग किया….!
वाट्सन ने बीच में कहा-अच्छा, तो मैं इस समय जाता हूँ। हाँ, सुनो, परती के लिए एक बात और भी कह देना चाहता हूँ। क्या उसे थोड़े से लगान पर तुम ले लेना स्वीकार करोगी ? इससे तुम्हारा यह खेत पूरा बन जाएगा। चाहोगी तो थोड़ा-सा परिश्रम करने पर यहाँ पेड़ लगाए जा सकेंगे और तब तुम्हारी खेती-बारी दोनों अच्छी तरह होने लगेगी।
हाँ, तब मैं ले सकूंगी। आपको इस न्यायपूर्ण सम्मति के लिए मैं धन्यवाद देती हूँ।
तितली ने नमस्कार किया। इंद्रदेव, वाट्सन और शैला, सबने एक बार उस स्वावलंब के नीड़-बनजरिया-को देखा, और देखा उस गर्व से भरी अबला को !
सब लोग चले गए।
तितली सांस फेंककर एक विश्राम का अनुभव करने लगी। इस मानसिक युद्ध में वह जैसे थक गई थी। उसने लड़कियों को छुट्टी देकर विश्राम किया।
3
इंद्रदेव चले गए। अधिकार खो बैठने का जैसे उन्हें कुछ दुख हो रहा था। संपत्ति का अधिकार ! अब वह धामपुर के कुछ नहीं थे। परिवार से बिगाड़ और संपत्ति से भी वंचित ! मां की दृष्टि में वह बिगड़े हुए लड़के रह गए। उन्होंने देखा कि सम्मिलित कुटुंब के प्रति उनकी जितनी घृणा थी, वह कृत्रिम थी, रामजस, मालिया, राजो और तितली, उनके साथ ही और भी कई अनाथ स्वेच्छा से एक नया कुटुंब बनाकर सुखी हो रहे हैं।
शैला को वाट्सन के साथ कुछ नवीनता का अनुभव होने लगा। इंद्रदेव के लिए उसके हृदय में जो कुछ परकीयत्व था, उसका यहाँ कहीं नाम नहीं। वह मनोयोगपूर्वक बैंक और अस्पताल तथा पाठशाला की व्यवस्था में लगी। वाट्सन का सहयोग ! कितना रमणीय था। शैला के त्याग में जो नीरसता थी, वह वाट्सन को देखकर अब और भी स्पष्ट होने लगी। वह संसार के आकर्षण में जैसे विवश होकर खिंच रही थी। वाट्सन का चुंबकत्व उसे अभिभूत कर रहा था। अज्ञात रूप से वह जैसे एक हरी-भरी घाटी में पहुँचने पर,आंख खोलते ही, वसंत की प्रफुल्लता, सजीवता और मलय-मारुत, कोकिल का कलरव, सभी का सजीव नृत्य अपने चारों ओर देखने लगी। खेतों की हरियाली में उसके हृदय की हरियाली मिल जाती। वाट्सन के साथ सायंकाल में गंगा के तट पर वह घंटों चुपचाप बिता देती।
वाट्सन का हृदय तब भी बांध से घिरी हुई लंबी-चौड़ी झील की तरह प्रशांत और स्निग्ध था। उसमें छोटी-छोटी बीचियों का भी कहीं नाम नहीं। अद्भुत! शैला उसमें अपने को भूल जाती। इंद्रदेव, धीरे-धीरे भूल चले थे। रात की डाक से नंदरानी का एक पत्र शैला को मिला। उसमें लिखा था। – बहूरानी !
तुम दूसरों की सेवा करने के लिए इतनी उत्सुक हो, किंतु अपने घर का भी कुछ ध्यान है ? मैं समझती हूँ कि तुम्हारे देश में स्वतंत्रता के नाम पर बहुत-सा मिथ्या प्रदर्शन भी होता है। क्या तुम इस वातावरण में उसे भूल नहीं सकी हो ? यदि नहीं, तो मैं उसे तुम्हारा सौभाग्य कैसे कहूँ ? मैं तो जानती हूँ कि स्त्री, स्त्री ही रहेगी। कठिन पीड़ा से उद्धिग्न होकर आज का स्त्री-समाज जो करने जा रहा है, वह क्या वास्तविक है ? वह तो विद्रोह है सुधार के लिए। इतनी उद्दंडता ठीक नहीं। तुम इंद्रदेव के स्नेही हृदय में ठेस न पहुंचाओगी। ऐसा तो मुझे विश्वास है। पर जब से वह धामपुर से लौट आए हैं, उदास रहते हैं। कारण क्या है, तुम कुछ सोचने का कष्ट करोगी ?
हाँ, एक बात और है। तुम्हारी सास अपनी अंतिम सांसों को गिन रही है। क्या तुम एक बार इंद्रदेव के साथ उनके पास न जा सकोगी ?
तुम्हारी स्नेहमयी
नंदरानी
दूसरे दिन बड़े सवेरे -जब पूर्व दिशा की लाली को थोड़े-से काले बादल ढंग रहे थे, गंगा में स निकलती हुई भाप पर थोड़ा-थोड़ा सुनहरा रंग चढ़ रहा था, तब शैला चुपचाप उस दृश्य को देखती हुई मन-ही-मन कह उठी-नहीं, अब साफ-साफ हो जाना चाहिए। कहीं यह मेरा भ्रम तो नहीं ? मुझे निराधार इस भाप की लता की तरह बिना किसी आलंबन के इस अनंत में व्यर्थ प्रयास नहीं ही करना चाहिए। इन दो-एक किरणों से तो काम नहीं चलने का। मुझे चाहिए संपूर्ण प्रकाश ! मैं कृतज्ञ हूँ, इतना ही तो ! अब मुझसे क्या मांग है ? इंद्रदेव के साथ क्या निभने का नहीं ? वह स्वतंत्रता का महत्व नहीं समझ सके। उनके जीवन के चारों ओर सीमा की टेढ़ी-मेढ़ी रेखा अपनी विभीषिका से उन्हें व्यस्त रखती है। उनको संदेह है, और होना भी चाहिए। क्या मैं बिल्कुल निष्कपट हूँ ? क्या वाट्सन ? नहीं-नहीं वह केवल स्निग्ध भाव और आत्मीयता का प्रसार है। तो भी मैं इंद्रदेव से विरक्त क्यों हूँ ? मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं। इतने थोड़े-से समय में यह परिवर्तन ! मैंने इंद्रदेव के समीप होने के लिए जितना प्रयास किया था, जितनी साधना की थी, वह सब क्या ऊपरी थी ? और वाट्सन! फिर वही वाट्सन !
उसने झल्लाकर दूसरी ओर मुँह फेर लिया।
उधर से ही एक डोंगी पर वाट्सन, अपने हाथ से डांड़ा चलाते हुए, आ रहे थे। सामने-मल्लाह सिकुड़ा हुआ बैठा था। बादल फट गया था। सूर्य का बिंब पूरा निकल आया था। गंगा धीरे-धीरे बह रही थी। संकल्प विकल्प के कुलों में मधुर प्रणय-कल्पना सी वह धारा सुंदर और शीतल थी।
वाट्सन ने डोंगी तीर पर लगा दी। शैला ने झुझलाहट से उसकी ओर देखना चाहा, परंतु वह मुस्कुराकर नाव पर चढ़ गई।
अब मांझी खेने लगा। दोनों आस-पास बैठे थे। दोनों चुप थे। नाव धीरे-धीरे बह रही थी।
वाट्सन ने हंसी से कहा-शैला ! तो तुम गंगा-स्नान करने सवेरे नहीं आतीं। फिर कैसी हिंदू !
नाव बीच में चली जा रही थी। शैला ने देखा, एक ब्राह्मण परिवार तट पर उस शीतकाल में नहा रहा है। शैला ने हंसकर कहा-तुम भी प्रति रविवार को गिरजे में नहीं जाते, फिर कैसे ईसाई !
बस केवल स्त्री और पुरुष !- सहसा शैला के मुँह से अचेत अवस्था में निकल गया। वाट्सन ने चौंककर उसकी ओर देखा। शैला झेंप-सी गई। वाट्सन हंस पड़े।
नाव चली जा रही थी। कुछ काल तक दोनों ही चुप हो गए, और गंभीरता का अभिनय करने लगे। फिर ठहरकर वाट्सन ने कहा- शैला तुम बुरा तो न मानोगी ?
पूछो न क्या है ?
तुम इस विवाह से सुखी हो!- अरे- मैंने कहा, संतुष्ट हो न?
शैला ने दीनता से वाट्सन को देखा। उसके हृदय में सूनापन था, वही अट्टाहस कर उठा। वाट्सन ने सांत्वना के स्वर में कहा- शैला तुमने भूल की है, तो उसका प्रतिकार भी है। मैं समझता हूँ कि तुमने ब्याह की रजिस्ट्री सिविल मैनेज के अनुसार अवश्य करा ली होगी।
शैला को जैसे थप्पड़ लगा, वाट्सन के प्रश्न में जो गूढ़ रहस्य था; वह भयानक होकर शैला के सामने मूर्तिमान हो गया। उसने दोनों हाथों में अपना मुँह छुपा लिया। उसने कहा- वाट्सन, मुझे क्षमा करोगे। स्त्रियों को सब जगह ऐसी ही बाधाएं होंगी। क्या तुम उनकी दुर्बलता को सहानुभूति से नहीं देख सकोगे?
इसीलिए मैं आज तक अविवाहित हूँ। संभव है कि जीवन भर ऐसा ही रहूं। मुझसे यह अत्याचार न हो सकेगा। उहूँ, कदापि नहीं।
शैला का स्वप्न भंग हो चला! उसने जैसे आंखें खोलकर बंद कमरे में अपने चारों ओर अंधकार ही पाया। वह कंपित हो उठी। किंतु वाट्सन अचल थे। उनका निर्विकार हृदय शांत और स्मितिपूर्ण था। शैला निरवलंब हो गई।
शैला के मन में ग्लानि हुई। वह सोचने लगी-घृणा ! हाँ, वास्तव में मुझसे घृणा करता है। यह कुलीन और मैं दरिद्र बालिका! तिस पर भी एक हिंदू से ब्याह कर चुकी हूँ और मेरा पिता जेल-जीवन बिता रहा है। तब ! यह इतनी ममता क्यों दिखाता है? दया! दया ही तो; किंतु इसे मुझ पर दया करने का क्या अधिकार है?
उसने उद्विग्न होकर कहा- अब उतरना चाहिए।
वाट्सन ने मल्लाह से नाव को तट से लगा देने की आज्ञा दी। दोनों उतर पड़े। दोनों ही चुपचाप पथ पर चल रहे थे।
कुहरा छंट गया था। सूर्य की उज्ज्वल किरणें चारों ओर नाच रही थीं। वह ग्राम का जन-शून्य प्रांत अपनी प्राकृतिक शोभा में अविचल था- ठीक वाट्सन के हृदय की तरह।
घूमते-फिरते वे दोनों बनजारिया में जा पहुंचे। वहाँ उत्साह और कर्मण्यता थी। सब काम तीव्रगति से चल रहे थे। खेत की टूटी हुई मेड़ पर मिट्टी चढ़ाई जा रही थी। कहीं पेड़ रोपे जा रहे थे। आवां फूंकने के लिए ईंधन इकट्ठा हो गया था। पाठशाला की खपरैल में से लड़कियों का कोलाहल सुनाई पड़ता था।
शैला रुकी। वाट्सन ने कहा- तो मैं चलता हूँ, तुम ठहरकर आना। मुझे बहुत-सा काम निबटाना है।
वह चले गए, और चुपचाप जाकर तितली के पास एक मोढ़े पर बैठ गई। तितली ने शीघ्रता से पाठ समाप्त कराकर लड़कियों को कुछ लिखने का काम दिया, और शैला का हाथ पकड़कर दूसरी ओर चली। अभी वह भट्ठे के पास पहुंची होगी कि उसे दूर से आते हुए एक मनुष्य को देखकर रुक जाना पड़ा। वह कुछ पहचाना-सा मालूम पड़ता था। शैला भी उसे देखने लगी।
शैला ने कहा- अरे यह तो रामदीन है!
रामदीन ने पास आकर नमस्कार किया। तब जैसे सावधान होकर तितली ने पूछा- रामदीन, तू जेल से छूट आया?
जेल से छूटकर लोग घर लौट आते हैं, इस विश्वास में आशा और सांत्वना थी। तितली का हृदय भर आया था।
रामदीन ने कहा- मैं तो कलकत्ता से आ रहा हूँ। चुनार से तो मैं छोड़ दिया गया था। वहाँ मैं अपने मन से रहता था। रिफार्मेटरी का कुछ काम करता था। खाने को मिलता था। वहीं पड़ा था। मधुबन बाबू से एक दिन भेंट हो गई। वह कलकत्ता जा रहे थे। उन्हीं के संग चला गया था।
तितली की आखों में जल नहीं आया, और न उसकी वाणी कांपने लगी।
उसने पूछा- तो क्या तू भी उनके साथ ही रहा?
हाँ, मैं वहाँ रिक्शा खींचता था। फिर मधुबन बाबू के जेल जाने पर भी कुछ दिन रहा। पर बीरू से मेरी पटी नहीं। वह बडा ढोंगी और पाजी था। वह बड़ा मतलबी भी था। जब तक हम लोग उसको कमाकर कुछ देते थे, वह दादा की तरह मानता था। पर जब मधुबन बाबू न रहे तो वह मुझसे टेढ़ा-सीधा बर्ताव करने लगा। मैं भी छोड़कर चला आया।
तितली को अभी संतोष नहीं हुआ था। उसने पूछा- क्यों रे रामदीन! सुना है तुम लोगों ने वहाँ पर भी डाका और चोरी का व्यवसाय आरंभ किया था। क्या यह सच है?
रिक्शा खींचते-खींचते हम लोगों की नश ढीली हो गई। कहाँ का डाका और कहाँ की चोरी। अपना-अपना भाग्य है। राह चलते भी कलंक लगता है। नहीं तो मधुबन बाबू ने वहाँ किया ही क्या। यहाँ जो कुछ हुआ हो , उसे तो मैं नहीं जानता। वहाँ पर तो हम लोग मेहनत-मजूरी करके पेट भरते थे।
तितली ने गर्व से शैला की ओर देखा। शैला ने पूछा- अब क्या करेगा रामदीन ?
अब, यहीं गांव में रहूँगा। कहीं नौकरी करूंगा।
क्या मेरे यहाँ रहेगा?- शैला ने पूछा।
नहीं मेम साहब ! बड़े लोगों के यहाँ रहने में जो सुख मिलता है, उसे मैं भोग चुका।
अरे दाना रस के लिए दीदी ने पूछा है कि… कहती हुई मलिया पीछे से आकर सहसा चुप हो गई। उसने रामदीन को देखा।
तितली ने स्थिर भाव से कहा- कहती क्यों नहीं? बोल न, क्यों लजाती है। लिवा जा, पहले अपने रामदीन को कुछ खिला।
जाओ बहन!- कहकर वह घूम पड़ी।
रामदीन! बनजरिया में बहुत-सा काम है। जो काम तुमसे हो सके करो। चना-चबेना खाकर पड़े रहो। – तितली ने कहा।
शैला ने देखा, वह कहीं भी टिकने नहीं पाती है। कुछ लोगों को उसने पराया बना रखा है। और कुछ लोग उसे ही परकीया समझते हैं। वह मर्माहत होकर जाने के लिए घूम पड़ी।
तितली ने कहा- बैठो बहन! जल्दी क्या है?
तितली, तुमने भी मुझसे स्नेह का संबंध ढीला कर दिया है! मेरा हृदय चूर हो रहा है। न जाने क्यों, मेरे मन में ऐसी भावना उठती है कि मुझे मैं ‘जैसी हूँ- उसी रूप में’ स्नेह करने के लिए कोई प्रस्तुत नहीं। कुछ-न-कुछ दूसरा आवरण लोग चाहते हैं।
इंद्रदेव बाबू भी?
उनका समर्पण तो इतना निरीह है कि मैं जैसे बर्फ की-सी शीतलता में चारों ओर से घिर जाती हूँ। मैं तुम्हारी तरह का दान कर देना नहीं सीख सकी। मैं जैसे ओर कुछ उपकरणों से बनी हूँ ! तुम जिस तरह मधुबन को …
अरे सुनो तो, मेरी बात लेकर तुमने अपना मानसिक स्वास्थ्य खो दिया है क्या ? वह तो एक कर्त्तव्य की प्रेरणा है। तुम भूल गई हो। बापू का उपदेश क्या स्मरण नहीं है ? प्रसन्नता से सब कुछ ग्रहण करने का अभ्यास तुमने नहीं किया। मन को वैसा हम लोग अन्य कामों के लिए तो बना लेते हैं, पर कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं जिनमें हम लोग सदैव संशोधन चाहते हैं। जब संस्कार और अनुकरण की आवश्यकता समाज में मान ली गई, तब हम परिस्थिति के अनुसार मानसिक परिवर्तन के लिए क्यों हिचकें ? मेरा ऐसा विश्वास है कि प्रसन्नता से परिस्थिति को स्वीकार करके जीवन यात्रा सरल बनाई जा सकती है। बहन ! तुम कहीं भूल तो नहीं कर रही हो ? तुम धर्म के बाहरी आवरण से अपने को ढंककर हिंदू-स्त्री बन गई हो सही, किंतु उसकी संस्कृति की मूल शिक्षा भूल रही हो। हिंदू-स्त्री का श्रद्धापूर्ण समर्पण उसकी साधना का प्राण है। इस मानसिक परिवर्तन को स्वीकार करो। देखो, इंद्रदेव बाबू कैसे देव-प्रकृति के मनुष्य हैं। उस त्याग को तुम अपने प्रेम से और भी उज्जवल बना सकती हो।
यही तो मुझे दु:ख है। मैं कभी-कभी सोचती हूँ कि मुझ बन-विहंगिनी को पिंजड़े में डालने के लिए उनको इतना कष्ट सहना पड़ा। किसी तरह में अपने को मुक्त करके उनका भी छुटकारा करा सकती !
तुम अपने जीवन को, स्त्री-जीवन को, और भी जटिल न बनाओ। तुम इंद्रदेव के स्नेह को अपनी ओर से अत्याचार मत बनाओ। मैं मानती हूँ कि कभी-कभी हित-चिंता समाज में पति-पत्नी पर, पिता-पुत्र पर, भाई-भाई पर, अपने स्नेहातिरेक को अत्याचार बना डालना है, परंतु उस स्नेह को उसके वास्तविक रूप में ग्रहण कर लेने पर एक प्रकार का सुख-संतोष होता ही है।
तो तुम मधुबन को अब भी प्यार करती हो ?
इसका तो कोई प्रश्न नहीं है। बहन शैला ! संसार भर उनको चोर हत्यारा और डाकू कहे, किंतु मैं जानती हूँ कि वह ऐसे नहीं हो सकते। इसलिए मैं कभी उससे घृणा नहीं कर सकती। मेरे जीवन का एक-एक कोना उनके लिए, उस स्नेह के लिए, संतुष्ट है। मैं जानती हूँ कि वह दूसरी स्त्री को प्यार नहीं करते। कर भी नहीं सकते। कुछ दिनों तक मैना को लेकर जोप्रवाद चारों ओर फैला था, मेरा मन उस पर विश्वास नहीं कर सका। हाँ, मैं दु:खी अवश्य थी कि उन्हें क्यों लोग संदेह की दृष्टि से देखते हैं। उतनी-सी दुर्बलता भी मेरे लिए अपकार ही कर गई। उनको मैं आगे बढ़ने से रोक सकती थी। किंतु तुम वैसी भूल न करोगी। इंद्रदेव को भग्नहृदय बनाकर कल्याण के मार्ग को अवरुद्ध न करो। मानव के अंतरतम में कल्याण के देवता का निवास है। उसकी संवर्धना ही उत्तम पूजा है। मैं इधर मनोयोगपूर्वक पढ़ रही हूँ। जितना ही मैं अध्ययन करती हूँ उतना ही यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है जो कुछ सुंदर और कल्याणमय है, उसके साथ यदि हम हृदय की समीपता बढ़ाते रहे तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा।
तितली का मुँह प्रसन्नता से दमक रहा था।
शैला को अपने मन का समस्त बल एकत्र करके उसके आदर्श ग्रहण करने का प्रयत्न किया। वह एक क्षण में ही सुंदर स्वप्न देखने लगी, जिसमें आशा की हरियाली थी। अपनी सेवावृत्ति को जागरूक करने की उसने दृढ़ प्रतिज्ञा की। उसने तितली का हाथ पकड़कर कहा-क्षमा करना बहन ! मैं अपराध करने जा रही थी। आज जैसे बाबाजी की आत्मा ने तुम्हारे द्वारा फिर से मेरा उद्धार किया। हम दोनों ने एक ही शिक्षा पाई है सही, परंतु मुझमें कमी है, उसे पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है।
उस निर्जन ग्राम-प्रांत में, जब धूप खेल रही थी, दो हृदयों ने अपने सुख-दु:ख की गाथा एक-दूसरे को सुनाकर अपने को हल्का बनाया। आंसू भरी आंखें मिलीं और वे दुर्बल-किंतु दृढ़ता से कल्याण-पथ पर बढ़ने वाले-हृदय, स्वस्थ होकर, परस्पर मिले।
शैला नील-कोठी की ओर चली। उसके मन में नया उत्साह था। नील-कोठी की सीढि़यों पर वह फुर्ती से चढ़ी जा रही थी। बीच ही में वाट्सन ने उसे रोका और कहा-मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूँ।
उसने अपने भीतर के जब से एक पत्र निकालकर शैला के हाथ में दिया। उसे पढ़ते-पढ़ते शैला रो उठी। उसने वाट्सन के दोनों हाथ पकड़कर व्यग्रता से पूछा-वाट्सन ! सच कहो, मेरे पिता का ही पत्र है, या धोखा है ? मैं उनकी हस्तलिपि नहीं पहचानती। जेल से भी कोई पत्र मुझे पहले नहीं मिला था। बोलो, यह क्या है ?
शैला ! अधीर न हो। वास्तव में तुम्हारे पिता स्मिथ का ही यह पत्र है। मैं छुट्टी लेकर जब इंग्लैंड गया था, तब मैं उससे जेल में मिला था।
ओह ! यह कितने दु:ख की बात है। शैला उद्धिग्न हो उठी थी।
शैला ! तुम्हारा पिता अपने अपराधों पर पश्चाताप करता है। वह बहुत सुधर गया है। क्या तुम उसे प्यार न करोगी ?
करूंगी, वाट्सन ! वह मेरा पिता है। किंतु, मैं कितनी लज्जित हो रही हूँ। और तुम्हारी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए मैं क्या करूं ? बोला !
कुछ नहीं, केवल चंचल मन को शांत करो। पत्र तो मुझे बहुत दिन पहले ही मिल चुका था। किंतु मैं तुमको दिखाने का साहस नहीं करता था। संभव है कि तुमको …।
मुझको बुरा लगता ! कदापि नहीं। सब कुछ होने पर भी वह पिता है। वाट्सन !
तो चलो, वह कमरे में बैठे हुए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
ऐ, सच कहना ! कहती हुई शैला कमरे में वेग से पहुंची।
एक बूढ़ा, किंतु बलिष्ठ पुरुष, कुर्सी से उठकर खड़ा हुआ। उसकी बांहें आलिंगन के लिए फैल गईं। शैला ने अपने को उसकी गोद में डाल दिया। दोनों भर पेट रोए।
फिर बूढ़े ने सिसकते हुए कहा-शैला ! जेन के अभिशाप का दंड मैं आज तक भोगता रहा। क्या बेटी, तू मुझे क्षमा करेगी ? मैं चाहता हूँ कि तू उसकी प्रतिनिधि बनकर मुझे मेरे पश्चाताप और प्रायश्चित में सहायता दे। अब मुझको मेरे जीते जी मत छोड़ देना।
शैला ने आंसू भरी आंखों से उसके मुख को देखते हुए कहा-पापा !
वह और कुछ न कह सकी, अपनी विवशता से वह कुढ़ने लगी। इंद्रदेव का बंधन ! यदि वह न होता ? किंतु यह क्या, मैं अभी तितली से क्या कह आई हूँ ? तब भी मेरा बूढ़ा पिता! आह ! उसके लिए मैं क्या करूं ? उसे लेकर मैं …।
उसकी विचार-धारा को रोकते हुए वाट्सन ने कहा-शैला ! मैंने सब ठीक कर लिया है। तुम अब विवाहित हो चुकी हो, वह भी भारतीय रीति से, तब तुमको अपने पति के अनुकूल रहकर ही चलना चाहिए, और उसके स्वावलंबपूर्ण जीवन में अपना हाथ बटाओ। नील-कोठी का काम तुम्हारे योग्य नहीं है। मिस्टर स्मिथ यहाँ पर अपने पिछले थोड़े-से दिन शांति सेवा-कार्य करते हुए बिता लेंगे, और तुमसे दूर भी न रहेंगे। शैला ने अवाक् होकर वाट्सन को देखा। उसका गला भर आया था। उपकार और इतना त्यागपूर्ण स्नेह ! वाट्सन मनुष्य है ?
हाँ, वह मनुष्य अपनी मानवता में संपूर्ण और प्रसन्न खड़ा मुस्कुरा रहा था। शैला ने कृतज्ञता से उसका हाथ पकड़ लिया। वाट्सन ने फिर कहा-मोटर खड़ी है। जाओ, अपनी मरती हुई सास का आशीर्वाद ले लो। जब तुम लौट आओगी, तब मैं यहाँ से जाऊंगा। तब तक मैं यहाँ सब काम इन्हें समझा दूंगा। मिस्टर स्मिथ उसे सरलता से कर लेंगे। चलो कुछ खा-पीकर तुरंत चली जाओ।
उसी दिन संध्या को इंद्रदेव के साथ शैला, श्यामदुलारी के पलंग के पास खड़ी थी। उसके मस्तक पर कुंकुम का टीका था। वह नववधू की तरह सलज्ज और आशीर्वाद से लदी थी।
श्यामदुलारी का जीवन अधिकार और संपत्ति के पैरों से चलता आता था। वह एक विडंबना था या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। वह मन-ही-मन सोच रही थी।
जिस माता-पिता के पास स्नेह नहीं होता, वही पुत्र के लिए धन का प्रलोभन आवश्यक समझते हैं। किंतु यह भीषण आर्थिक युग है। जब तक संसार में कोई ऐसी निश्चित व्यवस्था नहीं होती कि प्रत्येक व्यक्ति बीमारी में पथ्य और सहायता तथा बुढ़ापे में पेट के लिए भोजन पाता रहेगा, तब तक माता-पिता को भी पुत्र के विरुद्ध अपने लिए व्यक्तिगत संपत्ति की रक्षा करनी होगी।
श्यामदुलारी की इस यात्रा में धन की आवश्यकता नहीं रही। अधिकार के साथ उसे बड़प्पन से दान करने की भी श्लाघा होती है। तब आज उनके मन में त्याग था।
वृद्धा श्यामदुलारी ने अपने कांपते हाथों से एक कागज शैला को देते हुए कहा-बहू, मेरा लड़का बड़ा अभिमानी है। वह मुझे सब कुछ देकर अब मुझसे कुछ लेना नहीं चाहता। किंतु मैं तो तुमको देकर ही जाऊंगी। उसे तुमको लेना ही पड़ेगा। यही मेरा आशीर्वाद है, लो।
शैला ने बिना इंद्रदेव की ओर देखे उस कागज को ले लिया।
अब श्यामदुलारी ने माधुरी की ओर देखा। उसने एक सुंदर डिब्बा सामने लाकर रख दिया। श्यामदुलारी ने फिर तनिक-सी कड़ी दृष्टि से माधुरी को देखकर कहा-अब इसे मेरे सामने पहना भी दे माधुरी ! यह तेरी भाभी है।
मानव-हृदय की मौलिक भावना है स्नेह। कभी-कभी स्वार्थ की ठोकर से पशुत्व की, विरोध की, प्रधानता हो जाती है। परिस्थितियों ने माधुरी को विरोध करने के लिए उकसाया था। आज की परिस्थिति कुछ दूसरी थी। श्यामलाल और अनवरी का चरित्र किसी से छिपा नहीं था। वह सब जान-बूझकर भी नहीं आए। तब ! माधुरी के लिए संसार में कोई प्राणी स्नेह-पात्र न रह जाएगा। श्यामदुलारी तो जाती ही है।
प्रेम-मित्रता की भूखी मानवता। बार-बार अपने को ठगा कर भी वह उसी के लिए झगड़ती है। झगड़ती हैं, इसलिए प्रेम करती है। वह हृदय को मधुर बनाने के लिए बाध्य हुई। उसने अपने मुँह पर सहज मुस्कान लाते हुए डिब्बे को खोला।
उसने मोतियों का हार, हीरों की चूडि़यां शैला को पहना दीं, और सब गहने उसी में पड़े रहे। शैला ने धीरे-से पहनाने के लिए माधुरी से कहा-माधुरी ने भी धीरे-से उसकी कपोल चूमकर कहा-भाभी !
शैला ने उसे गले से लगा लिया। फिर उसने धीरे-से श्यामदुलारी के पैरों पर सिर रख दिया। श्यामदुलारी ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।
और, इंद्रदेव इस नाटक को विस्मय-विमुग्ध होकर देख रहे थे। उन्हें जैसे चैतन्य हुआ। उन्होंने मां के पैरों पर गिरकर क्षमा याचना की।
श्यामदुलारी की आंखों में जल भर आया।
4
जेल का जीवन बिताते मधुबन को कितने बरस हो गए हैं। वह अब भावना-शून्य होकर उस ऊंची दीवार की लाल-लाल र्इंटों को देखकर उसकी ओर से आंखें फिरा लेता है। बाहर भी कुछ है या नहीं, इसका उसके मन में कभी विचार नहीं होता। हाँ, एक कुत्सित चित्र उसके दृश्य-पट में कभी-कभी स्वयं उपस्थित होकर उसकी समाधि में विक्षेप डाल देता था। वह मलिन चित्र था मैना का ! उसका स्मरण होते ही मधुबन की मुट्ठियां बंध जातीं। वह कृतघ्न हृदय ! कितनी स्वार्थी है। उसको यदि एक बार शिक्षा दे सकता !
जंगले में से बैठे-बैठे, सामने की मौलसिरी के पेड़ पर बैठे हुए पक्षियों को चारा बांट कर खाते हुए वह देख रहा था। उसके मन में आज बड़ी करुणा थी। वह अपने अपराध पर आज स्वयं विचार कर रहा था। यदि मेरे मन में मैना प्रति थोड़ा-सा भी स्निग्ध भाव न होता, तो क्या घटना की धरा ऐसी ही चल सकती थी ! यही तो मेरा एक अपराध है। तो क्या इतना-सा विचलन भी मानवता का ढोंग करने वाला निर्मम संसार या क्रूर नियति नहीं सहन कर सकती ? वह अपेक्षा करने के योग्य साधारण-सी बात नहीं थी कया ? मेरे सामने कैसे उच्च आदर्श थे ! कैसे उत्साहपूर्ण भविष्य का उज्ज्वल चित्र मैं खींचता था ! वह सब सपना हो गया, रह गई यह भीषण बेगारी। परिश्रम से तो मैं कभी डरता न था। तब क्या रामदीन के नोटों का झिटक लेना मेरे लिए घातक सिद्ध हुआ ? हाँ, वह भी कुछ है तो, मैंने क्यों उसे फेंक देने के लिए कहा। और कहता भी कैसे। मैंने तो स्वयं महंत की थैली ले ली थी। हे भगवान ! मेरे बहुत-से अपराध हैं। मैं तो केवल एक की ही गिनती कर सकता था। सब जैसे साकार रूप धारण करके मेरे सामने उपस्थित हैं। गिनती कर सकता था। सब जैसे साकार रूप धारण करके मेरे सामने उपस्थित हैं। हाँ, मुझे प्रमाद हो गया था। मैंने अपने मन को निर्विकार समझ लिया था। यह सब उसी का दंड है।
उसकी आंखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे। वह घंटों अपनी काल-कोठरी में चुपचाप जंगले से टिका हुआ आंसू बहाता रहा। उसे कुछ झपकी-सी लग गई। स्वप्न में तितली का शांतिपूर्ण मुखमंडल दिखाई पड़ा। वह दिव्य ज्योति से भरा था। जैसे उसके मन में आशा का संचार हुआ। उसका हृदय एक बार उत्साह से भर गया। उसने आंखें खोल दीं। फिर उसके मन में विकार उत्पन्न हुआ। ग्लानि से उसका मन भर गया। उसे जैसे अपने-आप से घृणा होने लगी -क्या तितली मुझसे स्नेह करेगी ? मुझ अपराधी से उसका वही संबंध फिर स्थापित हो सकेगा? मैंने उसका ही यदि स्मरण किया होता -जीवन के शून्य अंश को उसी के प्रेम से केवल उसकी पवित्रता से, भर लिया होता – तो आज यह दिन मुझे न देखना पड़ता । किंतु क्या वही तितली होगी ? अब भी वैसी ही पवित्र ! इस नीच संसार में, जहाँ पग-पग प्रलोभन है, खाई है, आनंद की-सुख की लालसा है। क्या वह वैसी ही बनी होगी ?
जंगले के द्वार पर कुछ खड़खड़ाहट हुई। प्रधान कर्मचारी ने भीतर आकर कहा –
मधुबन, तुम्हारी अच्छी चाल-चलन से संतुष्ट होकर तुमको दो बरस की छूट मिली है। तुम छोड़ दिए गए।
मधुबन ने अवाक् होकर कर्मचारी को देखा। वह उठ खड़ा हुआ। बेड़ियां झनझना उठीं। उसे आश्चर्य हुआ अपने शीघ्र छूटने पर। वह अभी विश्वास नहीं कर सका था। उसने पूछा-तो मैं छूट कर क्या करूंगा।
फिर डाके न डालना, और जो चाहे करना।- कहकर वह कोठरी के बाहर हो गया। मधुबन भी निकाला गया। फाटक पर उसका पुराना कोट और कुछ पैसे मिले। उस कोट को देखते ही जैसे उसके सामने आठ बरस पहले की घटना का चित्र खिंच गया। वह उसे उठाकर पहन न सका। और पैसे ? उन्हें कैसे छोड़ सकता था। उसने लौकरकर देखा तो जेल का जंगलेदार फाटक बंद हो गया था। उसके सामने खुला संसार का एक विस्तृत कारागार के सदृश झांय-झांय कर रहा था।
उसकी हताश आंखों के सामने उस उजले दिन में भी चारों ओर अंधेरा था। जैसे संध्या चारों ओर से घिरती चली आ रही थी। जीवन के विश्राम के लिए शीतल छाया की आवश्यकता थी। किंतु वह जेल से छुटा हुआ अपराधी ! उसे कौन आश्रय देगा ? वह धीरे-धीरे बीरू बाबू के अड्डे की ओर बढ़ा। किंतु वहाँ जाकर उसने देखा कि घर में ताला बंद है। वह उन पैसों से कुछ पूरियां लेकर पानी की कल के पास बैठकर खा ही रहा था कि एक अपरिचित व्यक्ति ने पुकारा मधुबन !
उसने पहचानने की चेष्टा की, किंतु वह असफल रहा। फिर उदास भाव से उसने पूछा-क्या है भाई, तुम कौन हो ?
अरे ! तुम ननीगोपाल को भूल गए क्या ? बीरू बाबू के साथ !
अरे हाँ ननी ! तुम हो ? मैं तो पहचान ही न सका। इस साहबी ठाट में कौन तुमको ननीगोपाल कहकर पुकारेगा ? कहो बीरू बाबू कहाँ हैं
क्या फिर रिक्शा खींचने का मन है ? बीरू बाबू तो बड़े घर की हवा खा रहे हैं। उनका परोपकार का संघ पूरा जाल था। उन्होंने भर पेट पैसा कमाकर अपनी प्रियतमा मालती दासी का संदूक भर दिया। फिर क्या, लगे गुलछर्रे उड़ाने ! एक दिन मालती दासी से उनकी कुछ अनबन हुई। वह मार-पीट कर बैठे। उस दिन वह मदिरा में उन्मत्त थे। तुम आश्चर्य करोगे न ? हाँ वही बीरू जो हम लोगों को कभी अच्छी शाक-भाजी भी न खाने का, सादा भोजन करने का उपदेश देते थे, मालती के संग में भारी पियक्कड़ बन गए। दूसरों को सदुपदेश देने में मनुष्य बड़े चतुर होते हैं। हाँ तो वह उसी मार-पीट के कारण जेल भेज दिए गए हैं !
अच्छा भाई ! तुम क्या करते हो ? मधुबन ने जल के सहारे बासी और सूखी पूरियां गले में ठेलते हुए पूछा।
तुम्हारे लिए बीरू से एक बार फिर लड़ाई हुई। मैंने उनसे जाकर कहा कि मधुबन के मुकदमे में कोई वकील खड़ा कीजिए। इतना रुपया उसने छाती का हाड़ तोड़कर अपने लिए कमाया है। उन्होंने कहा, मुझसे चोरों-डकैतों का कोई संबंध नहीं ! मैं भी दूसरी जगह नौकरी करने लगा।
कहाँ काम करते हो ननी ! कोई नौकरी मुझे भी दिला सकोगे ?
नौकरी की तो अभी नहीं कह सकता। हाँ, तुम चाहो तो मेरे साबुन के कारखाने की दुकान हरिहर क्षेत्र के मेले में जा रही है, मेरे साथ वहाँ चल सकते हो। फिर वहाँ से लौटने पर देखा जायगा। पर भाई वहाँ भी कोई गड़बड़ न कर बैठना।
तो क्या तुमको विश्वास है कि मैंने उस पियक्कड़ को लूटा था और रिक्शा से घसीटकर पीटा भी था ?
मधुबन उत्तेजित हो उठा। उसने फिर कहा-तो भाई तुम मुझे न लिवा जाओ।
यह लो तुम बिगड़ गए। अरे मैंने तो हंसी की थी। लो वह मेरा सामान भी आ गया। चलो तुम भी, पर ऐसे नंगधड़ंग कहाँ चलोगे ! पहले एक कुरता तो तुम्हें पहना दूं। अच्छा लारी पर बैठकर चलो हबड़ा, मैं कुरता लिए आता हूँ।
ननी ने सामान से लदी हुई लारी पर उसे बैठा दिया।
मधुबन नियति के अंधड़ में उड़ते हुए सूखे पत्ते की तरह निरुपाय था। उसके पास स्वतंत्र रूप से अपना पथ निर्धारित करने के लिए कोई साधन न था। वह जेल से छूटकर हरिहरक्षेत्र चला।
कई कोस वह मेला न जाने भारतवर्ष के किस अतीत के प्रसन्न युग का स्मरण चिन्ह है। संभव है, मगध के साम्राज्य की वह कभी प्रदर्शनी रहा हो। किंतु आज भी उसमें क्या नहीं बिकता। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि अब इस युग में भी वहाँ भूत-प्रेम बिकते हैं।
मधुबन ने अपनी दाढ़ी नहीं बनवाई थी। उसके बाल भी वैसे ही बढ़े थे। वह दुकान की चौकीदारी पर नियुक्त था।
साबुन की दूकान सजी थी। मधुबन मोटा-सा डंडा लिए एक तिपाई पर बैठा रहता। वह केवल ननी से ही बोलता। उसका स्वभाव शांत हो गया था, या अतीत क्रुद्ध, यह नहीं ज्ञात होता था। ननी के बहुत कहने-सुनने पर एक दिन वह गंगा-स्नान करने गया। वहाँ से लौटकर हाथियों के झुंडों के देखता हुआ वह धीरे-धीरे आ रहा था।
वहाँ उसने दो-तीन बड़े सुंदर हाथी के बच्चों को खेलते हुए देखा। वह अनमना-सा होकर मेले में घूमने लगा। मनुष्य के बच्चे भी कितने सुंदर होते होंगे जब पशुओं के ऐसे आकर्षक हैं। यही सोचते-सोचते उसे अपनी गृहस्थी का स्मरण हो आया।
उड़ती हुई रेत में वह धूसरित होकर उन्मत्त की तरह पालकी, घोड़े, बैल, ऊंट और गायों की पंक्ति को देखता रहा। देखता था, पर उसकी समझ में यह बात नहीं आती थी कि मनुष्य क्यों अपने लिए इतना संसार जुटाता है। वह सोचने के लिए मस्तिष्क पर बोझ डालता था, फिर विरक्त हो जाता था। केवल घूमने के लिए वह घूमता रहा।
संध्या हो आई। दुकानों पर आलोक-माला जगमगा उठी। डेरों में नृत्य होने लगा। गाने की एक मधुर तान उसके कानों में पड़ी। वह बहुत दिनों पर ऐसा गाना सुन सका था। डेरे के बहुत-से लोग खड़े थे। वह भी जाकर खड़ा हो गया।
मैना ही तो है, वही… अरे कितना मादक स्वर है।
एक मनचले ने कहा-वाह, महंतजी बड़े आनंदी पुरुष हैं।
मधुबन ने पूछा-कौन महंतजी
धामपुर के महंत को तुम नहीं जानते ? अभी कल ही तो उन्होंने तीन हाथी खरीदे हैं। राजा साहब मुँह देखते रह गए। हजार-हजार रुपए दाम बढ़ाकर लगा दिया। राजसी ठाट है। एक-से-एक पंडित और गवैये उनके साथ हैं। यह मैना भी तो उन्हीं के साथ आई है। लोग कहते हैं, वह सिद्ध महात्मा है। जिधर आंख उठा दे, लक्ष्मी बरस पड़े।
मधुबन को थप्पड़-सा लगा। मैना और महंत। तब वह यहाँ क्यों खड़ा है ? उस बड़े-से-डेरे के दूसरी ओर वह चला।
आस-आस छोटी-छोटी छोलदारियां खड़ी थीं। मधुबन उन्हीं में घूमने लगा। वह अपने हृदय को दबाना चाहता था। पर विवश होकर जैसे उस डेरे के आस-पास चक्कर काटने लगा।
इतने में एक दूसरा परिचित कंठ स्वर सुनाई पड़ा। हाँ, चौबे ही तो थे। किसी से कह रहे थे। तहसीलदार साहब! महंतजी से जाकर कहिए कि पूजा का समय हो गया। ठाकुरजी के पास भी आवें। मैना तो कहीं जा नहीं रही है।
मरे महंतजी, यह जितना ही बूढ़ा होता जा रहा है उतना ही पागल होने लगा है। रुपया बरस रहा है, और कोई रोकने वाला नहीं। तहसीलदार ने उत्तर दिया।
मधुबन के अंग से चिनगारियां छूटने लगीं। उसके जीवन को विषाक्त करने वाले सब विषैले मच्छर एक जगह। उसके शरीर में जैसे भूला हुआ बल चैतन्य होने लगा।
उसने सोचा मैं तो संसार के लिए मृतप्राय हूँ ही। फिर प्रेतात्मा की तरह मेरे अदृश्य जीवन का क्या उद्देश्स है ? तो एक बार इन सबों का …।
फिर ऐंठनेवाले हृदय पर अधिकार किया। वह प्रकृतिस्थ होकर ध्यान से उसकी बातों को सुनने लगा। अभी अफसर लोग डेरे में हैं। महंतजी नहीं आ सकते। एक नौकर ने आकर चौबे से कहा।
तहसीलदार ने कहा-महराज ! क्यों आप घबराते हैं, कुछ काम तो करना नहीं है। इसके साथ हम लोगों के रहने का यह तात्पर्य तो है नहीं कि वह सुधारा जाय। खाओ-पीओ, मौज लो। देखते नहीं, मैं चला था धामपुर के जमींदार को सुधारने, क्या दशा हुई। आज वही मेरे सर्वस्व की स्वामिनी है। और मैं निकाल बाहर किया गया। गांव में किसी की दाल नहीं गलती। किसान लोगों के पास लम्बी चौड़ी खेती हो गई। वे अब भला कानूनगो और तहसीलदारों की बात क्यों सुनेंगे !अमीरों के यहाँ तो यह सब होता ही रहता है। हम लोग मंदिर के सेवक हैं। चलने दो।
चलने दें, ठीक तो हैं। पर कुछ नियम संसार में हैं अवश्य। उनको तोड़कर चलने का क्या फल होता है, यह आपने अभी नहीं देखा क्या ? देखिये, हम लोगों ने अधिकार रहने पर धामपुर में कैसा अंधेरा मचाया था। अब किसी तरह रोटी के टुकड़ों पर जी रहे हैं। कहाँ वह इंद्रदेव की सरलता और कहाँ इसकी पिशाचलीला ! आपने देखा नहीं मुंशीजी, वह लड़की, देहाती बालिका, तितली जिसकी गृहस्थी हम लोगों ने सत्यानाश कर देने का संकल्प कर लिया था, आज कितने सुख से-और सुख भी नहीं, गौरव से जी रही है। उसकी गोद में एक सुंदर बच्चा है, और गांव भर की स्त्रियों में उसका सम्मान है !
मधुबन और भी कान लगाकर सुनने लगा।
बच्चा ! अरे वह न जाने किसका है। उसकी टीम-टाम से कोई बोलता नहीं। पहले का समय होता तो कभी गांव के बाहर कर दी गई होती, और तुम आज उसकी बड़ी प्रशंसा कर रहे हो। उसी के पति मधुबन ने तो तुम्हारी यह दुर्दशा की थी। बुरा हो चांडाल मधुबन का ! उसने भाई बायां हाथ ही झूठा कर दिया। वह तो कहो, किसी तरह काम चला लेते हो।
हाँजी, अपने लोगों को क्या।
तो चलो, हम लोग भी वहीं बैठकर गाना सुनें। यहाँ क्या कर रहे हैं।
तहसीलदार ने चौबे का हाथ पकड़कर उठाया। दोनों बड़े डेरे की ओर चले।
मधुबन अंधकार में हट गया। उसका मन उद्धिग्न था। वह किसी तरह उसको शांत कर रहा था।
मैना की स्तर -लहरी वायु-मंडल में गूंज रही थी। किंतु मधुबन के मन में तितली और उसके लड़के के विषय में विकट द्वंद्व चलने लगा था। वह पागल की तरह लड़खड़ाता हुआ ननीगोपाल के पास पहुंचा।
कहा-ननी बाबू ! छुट्टी दीजिए। मैं अब जाता हूँ।
क्यों मधुबन ! क्या तुमको यहाँ कोई कष्ट है?
नहीं, अब मैं यहाँ नहीं रह सकता।
तो भी रात को कहाँ जाओगे ? कल सवेरे जहाँ जाना हो, वहाँ के लिए टिकट दिला दूंगा ! ननी ने पुचकारते हुए कहा।
मधुबन ने रात किसी तरह काट लेना ही मन में स्थिर किया। वह चुपचाप लेट रहा।
मेले का कोलाहल धीरे-धीरे शांत हो गया था। रात गंभीर हो चली थी।
मधुबन की आंखों में नींद नहीं थी। प्रतिशोध लेने के लिए उसका पशु सांकल तुड़ा रहा था, और वह बार-बार उसे शांत करना चाहता था। भयानक द्वंद्व चल रहा था। सहसा अब उसे झपकी आने लगी थी, एक हल्ला सा मचा-हाथी ! हाथी !!
रात की अंधियारी में चारों ओर हलचल मच गई। साटे-बर्दार दौड़े। पुलिस का दल कमर बांधने लगा। लोग घबराकर इधर-उधर भागने लगे।
मधुबन चौंककर उठ बैठा। उसके मस्तक में एक पुरानी घटना दौड़धूप मचाने लगी-मैना भी उसमें थी और हाथी भी बिगड़ा था, और तब मधुबन ने उसकी रक्षा की थी, वहीं से उसके जीवन में परिवर्तन का आरंभ हुआ था।
तो आज क्या होगा ? ऊंह!जो होना हो, वह होकर रहे। मधुबन को ही क्यों न हाथी कुचल दे। सारा झगड़ा मिट जाय, सारी मनोवेदना की इतिश्री हो जाय।
वह अविचल बैठा रहा।
घंटों में कोलाहल शांत हुआ। कोई कहता था, बीसों मनुष्य कुचल गए। कोई कहता, नहीं कुल दस ही तो। इस पर वाद-विवाद चलने लगा।
किंतु मधुबन स्थिर था। उसने सोचा, जिसकी मृत्यु आई उसे संसार से छुट्टी मिली। चलो उतने तो जीवन-दंड से मुक्त हो गए।
सवेरे जब वह जाने के लिए प्रस्तुत था, ननीगोपाल से एक ग्राहक कहने लगा-भाई, मैं तो इस मेले से भागना चाहता हूँ। यहाँ पशु और मनुष्य में भेद नहीं। सब एक जगह बुरी तरह एकत्र किए गए हैं। कब किसकी बारी आवेगी, कौन कह सकता है। सुना है तुमने महंत का समाचार ? उनकी वेश्या, पुजारी और तहसीलदार नाम का एक कर्मचारी तो हाथी से कुचलकर मर गए। महंत के सिर में चोट आई है। उसके भी बचने के लक्षण नहीं हैं। उसी के हाथी बिगड़े, तीनों के तीनों पागल हो गए। कुछ लोग तो कहते हैं, जो राजा इन हाथियों को लेना चाहता था उसी ने कुछ इन्हें खिलवा दिया।
ननी ने कहा-मरें भी ये पापी। हाँ, तो तुमको तीन दर्जन चाहिए ? बांध दो जी।
नौकर साबुन बांधने लगे। मधुबन स्तब्ध खड़ा था। ननी ने उससे पूछा-तो तुम जाना ही चाहते हो ?
हाँ।
कुछ चाहिए ?
नहीं, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं चला !
मधुबन सिर झुकाकर धीरे-धीरे मेले से बाहर हो गया। उसके मन में यही बात रह-रह कर उठती थी। मरते तो सभी हैं, फिर भगवान उन्हें पाप करने के लिए उत्पन्न क्यों करता है, जो मरने पर भी पाप ही छोड़ जाते हैं। और तितली। उसके लड़का कैसा !कब हुआ ! हे भगवान ! मरते-मरते भी ये सब मन में संदेह का विष उंड़ेल गए।
वह निरुद्देश्य चल पड़ा।
5
शैला की तत्परता से धामपुर का ग्राम संघटन अच्छी तरह हो गया था। इन्हीं कई वर्षों में धामपुर एक कृषि प्रधान छोटा-सा नगर बन गया। सड़कें साफ-सुधरी, नालों पर पुल, करघों की बहुतायत, फूलों के खेत, तरकारियों की क्यारियां, अच्छे फलों के बाग-वह गांव कृषि प्रदर्शनी बन रहा था !खेतों के सुंदर टुकड़े बड़े रमणीय थे। कोई भी किसान ऐसा न था, जिसके पास पूरे एक हल की खेती के लिए पर्याप्त भूमि नहीं थी। परिवर्तन में इसका ध्यान रखा गया था कि एक खेत कम से कम एक हल से जोतने बोने लायक हो।
पाठशाला, बंक और चिकित्सालय तो थे ही, तितली की प्रेरणा से दो-एक रात्रि-पाठशालाएं भी खुल गयी थीं। कृषकों के लिए कथा के द्वारा शिक्षा का भी प्रबंध हो रहा था। स्मिथ उस प्रांत में ‘बूढ़ा बाबा’ के नाम से परिचित था। उसके जीवन में नया उल्लास और विनोदप्रियता आ गई थी। हंसा-हंसाकर वह ग्रामीणों को अपने सुधार पर चलने के लिए बाध्य करता।
हाँ, उसने ग्रामीणों में अखाड़े और संगीत-मंडलियों का खूब प्रचार किया। वह स्वयं अखाड़े जाता, गाने-बजाने में सम्मिलित होता, उनके रोगी होने पर कटिबद्ध होकर सेवा करता। युवकों में स्वयं-सेवा का भाव भी उसने जगाया।
धामपुर स्वर्ग बन गया। इंद्रदेव ने तो मां के लौटा देने पर भी उसकी आय अपने लिए कभी नहीं ली। शैला के सामने धामपुर का हिसाब पड़ा रहता। जिस विभाग में कमी होती, वहीं खर्च किया जाता। वह प्राय: धामपुर आया करती। नंदरानी की प्रेरणा से शैला एक चतुर भारतीय गृहिणी बन गई थी। इंद्रदेव के स्वावलंबन में वह अपना अंश तो पूरा कर ही देती। बैरिस्टरी की आय, उन लोगों के निजी व्यय के लिए पर्याप्त थी।
और तितली ? उसके और खेत बनजरिया से मिल जाने पर बीसों बीघे का एक चक हो गया था, जिसमें भट्ठों की जगह बराबर करके धान की क्यारी बना दी गई थी। उसका बालिका-विद्यालय स्वतंत्र और सुंदर रूप से चल रहा था। दो जोड़ी अच्छे बैल, दो गायें और एक भैंस उसकी पशुशाला में थी। साफ-सुधरी चरनी, चरी के लिए अलग गोदाम, रामजस के अधीन था। अन्न की व्यवस्था राजो करती। मलिया और रामदीन की सगाई हो गई थी। उनके सामने एक छोटा-सा बालक खेलने लगा।
किंतु तितली अपनी इस एकांत साधना में कभी-कभी चौंक उठती थी। मोहन के मुँह पर गंभीर विषाद की रेखा कभी-कभी स्पष्ट होकर तितली को विचलित कर देती थी।
मोहन का अभिन्न मित्र था रामजस। वह अभी तीस बरस का नहीं हुआ था, किंतु उसके मुँह पर वृद्धों की-सी निराशा थी। उसके हृदय में उल्लास तभी होता, जब मोहन के साथ किसी संध्या में गंगा की कछार रौंदते हुए वह घूमता था। वह चलता जाता था। और उसकी पुरानी बातों का अंत न था। किस तरह उसका खेत चला गया, कैसे लाठी चली, कैसे मधुबन भइया ने उसकी रक्षा की, वही उसकी बात-चीत का विषय था। मोहन ध्यानमग्न तपस्वी की तरह उन बातों को सुना करता।
मोहन भी अब चौदह बरस का हो गया था। वह सबसे तो नहीं, किंतु राजो से नटखटपट किए बिना नहीं मानता था। उसे चिढ़ाता, मुँह बनाता, कभी-कभी नोच-खसोट भी करता। पर उस दुलार से कृत्रिम रोष प्रकट करके भी बाल-विधवा राजो एक प्रकार का संतोष ही पाती थी।
सच तो यह है कि राजो ने ही उसे यह सब सिखाया था। तितली कभी-कभी इसके लिए राजो को बात भी सुनाती। पर वह कह देती कि चल, तुझसे तो यह पाजीपन नहीं करता। इतना ही पाजी तो मधुबन भी था लड़कपन में, यह भी अपने बाप का बेटा है न।
राजो के मन में मधुबन के बाल्यकाल का स्नेहपूर्ण चित्र उपस्थित करते हुए मोहन उसको सांत्वना दिया करता।
मोहन कभी-कभी माता के गंभीर प्यार से ऊबकर रामजस के साथ घूमने चला जाता। वह आज गंगा के किनारे-किनारे घूम रहा था। संध्या समीप थी। सेवार और काई की गंध गंगा के छिछले जल से निकल रही थी। पक्षियों के झुंड उड़ते हुए, गंगा की शांत जलधारा में अपना क्षणिक प्रतिबिंब छोड़ जाते थे। वहाँ की वायु सहज शीतल थी। सब जैसे रामजस के हृदय की तरह उदास था।
रामजस को आज कुछ बात-चीत न करते देखकर मोहन उद्धिग्न हो उठा। उसे इतना चलना खलने लगा। न जाने क्यों, उसको रामजस से हंसी करने को सूझी। उसने पूछा-चाचा ! तुमने ब्याह क्यों नहीं किया ? बुआ तो कहती थी, लड़की बड़ी अच्छी है। तुम्हीं ने नाहीं कर दी।
हाँ रे मोहन ! लड़की अच्छी होती है, यह तू जानने लगा। कह तो, मैं ब्याह करके क्या करूंगा ? उसको खाने के लिए कौन देगा ?
मैं दूंगा, चाचा !यह सब इतना-सा अन्न कोठरी में रखा रहता है। हर साल देखता हूँ कि उसमें घुन लगते हैं, तब बुआ उसको पिसाकर इधर-उधर बांटती फिरती हैं। चाची को खाना न मिलेगा ! वाह, मैं बुआ की गर्दन पर जहाँ, सीधे से थाली परोस देंगी।
तुम बड़े बहादुर हो। क्या कहना ! पर भाई, अब तो मैं तुम्हारा ही ब्याह करूंगा ! अपना तो चिता पर होगा।
छी-छी चाचा, तुम्हीं न कहते हो कि बुरी बात न कहनी चाहिए। और अब तुम्हीं देखो, फिर ऐसी बात करोगे तो मैं बोलना छोड़ दूंगा।
रामजस की आंखों में आंसू भर आए। उसे मधुबन का स्मरण व्यथित करने लगा। आज वह इस अमृत-वाणी का सुख लेने के लिए क्यों नहीं अंधकार के गर्त से बाहर आ जाता। उसकी उदासी और भी बढ़ गई।
धीरे-धीरे धुंधली छाया प्रकृति के मुँह पर पड़ने लगी। दोनों घूमते-घूमते शेरकोट के खंड़हर पर पहुँच गए थे। मोहन ने कहा-चाचा ! यह तो जैसे कोई मसान है ?
लंबी सांस लेकर रामजस ने कहा-हाँ बेटा ! मसान ही है। इसी जगह तुम्हारे वंश की प्रभुता की चिंता जल रही है। तुमको क्या मालूम, यही तुम्हारे पुरुषों की डीह है। तुम्हारी ही यह गढ़ी है।
मेरी ?- मोहन ने आश्चर्य से पूछा।
हाँ तुम्हारी, तुम्हारे पिता मधुबन का ही घर है।
मेरे पिता। दुहाई चाचा। तुम एक सच्ची बात बताओगे ? मेरे पिता थे ! फिर स्कूल में रामनाथ ने उस दिन क्यों कह दिया था कि-चल, तेरे बाप का भी ठिकाना है !
किसने कहा बेटा ! बता, मैं उसकी छाती पर चढ़कर उसकी जीभ उखाड़ लूं। कौन यह कहता है?
अरे चाचा !उसे तो मैंने ही ठोंक दिया। पर वह बात मेरे मन में कांटे की तरह खटक रही है। पिताजी हैं कि मर गए, यह पूछने पर कोई उत्तर क्यों नहीं देता। बुआ चुप रह जाती हैं। मां आंखों में आंसू भर लेती हैं। तुम बताओगे, चाचा।
बेटा, यही शेरकोट का खंडहर तेरे पिता को निर्वासित करने का कारण है। हाँ, यह खंडहर ही रहा। न इस पर बंक बना, न पाठशाला बनी। अपने भी उजड़कर यह अभागा पड़ा है, और एक सुंदर गृहस्थी को भी उजाड़ डाला !
तो चाचा ! कल से इसको बसाना चाहिए। यह बस जाएगा तो पिताजी आ जाएंगे ?
कह नहीं सकता।
तब आओ, हम लोग कल से इसमें लपट जाएं। इधर तो स्कूल में गर्मी की छुट्टी है। दो-तीन घर बनाते कितने दिन लगेंगे।
अरे पागल ! यह जमींदार के अधिकार में है ! इसमें का एक तिनका भी हम छू नहीं सकते।
हम तो छुएंगे चाचा ! देखो, यह बांस की कोठी है। मैं इसमें से आज ही एक कैन तोड़ता हूँ। कहकर मोहन, रामजस के ‘हाँ-हाँ’ करने पर भी पूरे बल से एक पतली-सी बांस की कैन तोड़ लाया। रामजस ने ऊपर से तो उसे फटकारा, पर भीतर वह प्रसन्न भी हुआ। उसने संध्या की निस्तब्धता को आंदोलित करते हुए अपना सिर हिलाकर मन-ही-मन कहा-है तू मधुबन का बेटा !
रामजस का भूला हुआ बल, गया हुआ साहस, लौट आया। उसने एक बार कंधा हिलाया। अपनी कल्पना के क्षेत्र में ही झूमकर वह लाठी चलाने लगा, और देखता है कि शेरकोट में सचमुच घर बन गया। मोहन के लिए उसके बाप-दादों की डीह पर एक छोटा-सा सुंदर घर प्रस्तुत हो ही गया।
अंधकार पूरी तरह फैल गया था। उसने उत्साह से मोहन का हाथ पकड़ हिला दिया, और कहा-चलो मोहन ! अब घर चलें।
वे दोनों घूमते हुए उसी घाट पर के विशाल वृक्ष के नीचे आए। उसके नीचे पत्थर पर मलिन मूर्ति का भ्रम मोहन को हुआ। उसने धीरे-से रामजस से कहा-चाचा, वह देखो, कौन है ?
रामजस ने देखकर कहा-होगा कोई, चलो, अब रात हो रही है। तेरी बुआ बिगड़ेगी।
बुआ !वह तो बात-बात में बिगड़ती हैं। फिर प्रसन्न भी हो जाती है। हाँ, मां से मुझे…।
डर लगता है ? नहीं बेटा ! तितली के दुखी मन में एक तेरा ही तो भरोसा है। वह बेचारी तुम्हीं को देखकर तो जी रही है। हे भगवान ! चौदह बरस पर तो रामचंद्र जी बनवास झेलकर लौट आए थे। पर उस दुखिया का …।
वे लोग बातें करते हुए दूर निकल गए थे। वृक्ष के नीचे बैठी हुई मलिन मूर्ति हिल उठी।
बनजरिया के पास पहुँचते-पहुचंते रात हो गई। मोहन ने कहा-चाचा ! क्या वह भूत था। तुमने मुझे देख लेने क्यों नहीं दिया ? इसी से लोग डर जाते हैं ?
पागल ? डर की कौन बात है ? तेरा बाप तो डरना जानता ही न था?
हाँ, मैं भी डरता नहीं पर तुमने देखने क्यों नहीं दिया।
मोहन के मन में एक तरह का कुतूहल-मिश्रित भय उत्पन्न हो गया था। वह सुन चुका था कि एकांत में वृक्षों के पास भूत-प्रेत रहते हैं। तब भी वह अपने स्वाभाविक साहस को एकत्र कर रहा था।
तितली ने डांटकर पूछा-क्यों, तू इतनी देर तक कहाँ घूमता रहा? छुट्टी है तो क्या घर पर पढ़ने को नहीं है ?
उसने मां की गोद में मुँह छिपाकर कहा-मां, मैं आज अपनी पुरानी डीह देखने चला गया था। शेरकोट !
दीपक के धुंधले प्रकाश में तितली ने उदासी से रामजस की ओर देखते हुए कहा-रामजस ! इस बच्चे के मन में तुम क्यों असंतोष उत्पन्न कर रहे हो? शेरकोट को भूल जाने से क्या उनकी कुछ हानि होगी ?
भाभी, शेरकोट मोहन का है। तुमको उसे भी लौटा लेना पड़ेगा, जैसे हो तैसे। मुझे उसके लिए मरना पड़े, तो भी मैं प्रस्तुत हूँ। कल मैं स्मिथ साहब के पास जाऊंगा। न होगा तो लगान पर ही उसको मांग लूंगा। मधुबन भइया लौटकर आवेंगे, तो क्या कहेंगे।
उसको हटाने के लिए तितली ने कहा-अच्छा, जाओ। तुम लोग खा-पी लो। कल देखा जाएगा।
तितली एकांत में बैठकर आज रोने लगी। मधुबन आवेंगे ? यह कैसी दुराशा उसके मन में आज भीषण रूप से जाग उठी। पुरुषोचित साहस से उसने इन चौदह बरसों से संसार का सामना किया था। किसी से न झुकने की टेक, अविचल कर्तव्य-निष्ठा और अपने बल पर खड़े होकर इतनी सारी गृहस्थी उसने बना ली पर क्या मधुबन लौट आवेंगे? आकर उसके संयम और उसकी साधना का पुरस्कार देंगे? एक स्नेहपूर्ण मिलन उसके फूटे भाग्य में है ?
निष्ठुर विधाता !बचपन अकाल की गोद में ! शैशव बिना दुलार का बीता ! यौवन के आरंभ में अपने बाल-सहचर ‘मधुवा’ का थोड़ा-सा प्रणयमधु जो मिला, वह क्या इतना अमर कर देना वाला है कि यंत्रणा में पीड़ित होकर वह अनंतकाल तक प्रतीक्षा करती हुई जीती रहेगी ?
उसे अपनी संसार-यात्रा की वास्तविकता में संदेह होने लगा। वह क्यों इतनी धूम-धाम से हलचल मचाकर संसार के नश्वर लोक में अपना अस्तित्व सिद्ध करने की चेष्टा करती रही? जिएगी, तो झेलेगा कौन ? यह जीवन कितनी विषम घटियों से होकर धीरे-धीरे अंधकार की गुफा में प्रवेश कर रहा है। मैं निरालंब होकर चलने का विफल प्रयत्न कर रही हूँ क्या ?
गांव भर मुझसे कुछ लाभ उठाता है, और मुझे भी कुछ मिलता है, किंतु उसके भीतर एक छिपा हुआ तिरस्कार का भाव है। और है मेरा अलक्षित बहिष्कार ! मैं स्वयं ही नहीं जानती, किंतु यह क्या मेरे मन का संदेह नहीं है? मुझे जीभ दबाकर लोग न जाने क्या-क्या कहते हैं ! यह सब चल रहा है, तो भी मैं अपने में जैसे किसी तरह संतुष्ट हो लेती हूँ।
मेरी स्व-चेतना का यही अर्थ है कि मैं और लोगों की दृष्टि में लघुता से देखी जाती हूँ, मैं और उसकी जानकारी से अपने को अछूती रखना चाहती हूँ। किंतु वह ‘लुक-छिप’ कब तक चला करेगी? एक बार ध्वंस होकर यह खंडहर भी शेरकोट की तरह बन जाय !
शैला ! कितनी प्यारी और स्नेह-भरी सहेली है। किंतु उससे भी मन खोलकर मैं नहीं मिल सकती। वह फिर भी सामाजिक मर्यादा में मुझसे बड़ी है, और मुझे वैसा कोई आधार नहीं। है भी तो केवल एक मोहन का। वह कोमल अवलंब ! अपनी ही मानसिक जटिलताओं से अभी से दुर्बल हो चला है। वह सोचने लगा है, कुढ़ने लगा है, किसी से कुछ कहता नहीं। जैसे लज्जा की छाया, उसके सुंदर मुख पर दौड़ जाती है। मुझसे, अपनी मां से, अपनी मन की व्यथा खोलकर नहीं कह सकता। हे भगवान !
वह रोने लगी थी। हाँ, हाँ, रोने में आज उसे सुख मिलता था। किंतु वह रोने वाली स्त्री न थी। वह धीरे-धीरे शांत होकर प्रकृतिस्थ होने लगी थी। सहसा दौड़ता हुआ मोहन आया। पीछे राजो थी। वह कह रही थी-देख न, रोटी और दूध दे रही हूँ। यह कहता है, आज तरकारी क्यों नहीं बनी। अपने बाप की तरह यह भी मुझको खाने के लिए तंग करता ही है।
मोहन तितली के पास आ गया था। तितली ने उसके सिर पर हाथ रखा, वह जल रहा था। उसने कहा-मां, मुझे भूख नहीं है।
अरे तुमको तो ज्वर हो रहा है ! तितली ने भयभीत स्वर में कहा।
क्या ? अब तो इसको आज खाने को नहीं देना चाहिए।
यह कहकर राजो चली गयी, और मोहन मां की गोद में भयभीत हरिणशावक की तरह दुबक गया।
तितली ने उसे कपड़ा ओढ़ाकर अपने पास सुला लिया। वह भी चुपचाप पड़ा मां का मुँह देख रहा था। दीप-शिखा के स्निग्ध आलोक में उसकी पुतली, सामना पड़ जाने पर, चमक उठती थी। तितली, उसके शरीर को सहलाती रही, और मोहन उसके मुंह को देखता ही रहा।
सो जा बेटा ! तितली ने कहा।
नींद नहीं आ रही है। मोहन ने कहा। उसकी आंखों में जिज्ञासा भरी थी।
क्या है रे ? तितली ने दुलार से पूछा।
मां मैंने पेड़ के नीचे, शेरकोट के पास जो घाट पर बड़ा सा पेड़ है उसी के नीचे, आज संध्या को एक विचित्र …।
क्या तू डर गया है ? पागल कहीं का !
नहीं मां, मैं डरता नहीं। पर शेरकोट के पास कौन बैठा था। मेरे मन में जैसे बड़ा …
जैसे बड़ा, जैसा बड़ा ! क्या बड़े खाएगा ? तू भी कैसा लड़का है। साफ-साफ नहीं कहता ? तितली का कलेजा धक्-धक् करने लगा।
मां ! मैं एक बात पूछूं ?
पूछ भी -तितली ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। उसका पसीना अपने अंचल से पोंछकर वह उसकी जिज्ञासा से भयभीत हो रही थी।
मां !…
कह भी ! मुझे जीते-जी मार न डाल ! पूछ ! तुझे डर किस बात का है ? तेरी मां ने संसार में कोई ऐसा काम नहीं किया है कि तुझे उसके लिए लज्जित होना पड़े।
मां, पिताजी !…
हाँ बेटा, तेरे पिताजी जीवित हैं। मेरा सिंदूर देखता नहीं ?
फिर लोग क्यों ऐसा कहते हैं ?
बेटा ! कहने दे, मैं अभी जीवित हूँ। और मेरा सत्य अविचल होगा तो तेरे पिताजी भी आवेंगे।
तितली का स्वर स्पष्ट था। मोहन को आश्वासन मिला। उसके मन में जैसे उत्साह का नया उद्गम हो रहा था। उसने पूछा-मां, हमीं लोगों का शेरकोट है न ?
हाँ बेटा, शेरकोट तेरे पिताजी के आते ही तेरा हो जाएगा। कल मैं शैला के पास जाऊंगी। तू अब सो रह !
तितली को जीवन भर में इतना मनोबल कभी एकत्र नहीं करना पड़ा था। मोहन का ज्वर कम हो चला था। उसे झपकी आने लगी थी।
उसी कोठरी से सटकर एक मलिन मूर्ति बाहर खड़ी थी। सुकुमार लता उस द्वार के ऊपर बंदनवार-सी झुकी थी। उसी की छाया में वह व्यक्ति चुपचाप मानो कोई गंभीर संदेश सुन रहा था।
तितली की आंखों में एक क्षणिक स्वप्न आया और चला गया। उसकी आंखें फिर शून्य होकर खुल पड़ीं। वह बेचैन हो गयी। उसने मोहन का सिर सहलाया। वह निर्मल हल्के से ज्वर में सो रहा था। तब भी कभी-कभी चौंक उठता था। धीरे-धीरे उसके होठ हिल जाते थे। तितली जैसे सुनती थी कि वह बालक ‘पिताजी’ कह रहा है। वह अस्थिर होकर उठ बैठी। उसकी वेदना अब वाणी बनकर धीरे-धीरे प्रकट होने लगी –
नहीं ! अब मेरे लिए यह असंभव है। इसे मैं कैसे अपनी बात समझा सकूंगी। हे नाथ !यह संदेह का विष, इसके हृदय में किस अभागे ने उतार दिया। ओह !भीतर-ही-भीतर यह छटपटा रहा है। इसको कौन समझा सकता है। इसके हृदय में शेरकोट, अपने पुरखों की जन्मभूमि के लिए उत्कट लालसा जगी है। ..ओह, संभव है, यह मेरे जीवन का पुण्य मुझे ही पापिनी और कलंकिनी समझाता हो तो क्या आश्चर्य। मैंने इतने धैर्य से इसीलिए संसार का सब अत्याचार सहा कि एक दिन वह आवेंगे, और मैं उनकी थाती उन्हें सौंपकर अपने दु:खपूर्ण जीवन से विश्राम लूंगी। किंतु अब नहीं। छाती में झंझरिया बन गयी हैं। इस पीड़ा को कोई समझने वाला नहीं। कभी एक मधुर आश्वासन ! नहीं, नहीं, वह नहीं मिला, और न मिले ! किंतु अब मैं इसको नहीं संभाल सकती। जिसने इसे संसार में उत्पन्न किया हो वही इसको संभाले। तो अभी नारी जीवन का मूल्य मैंने इस निष्ठुर संसार को नहीं चुकाया क्या ?
ठहर जाऊं ? कुछ दिन और भी प्रतीक्षा करूं, कुछ दिन और भी हत्यारे मानव-समाज की निंदा और उत्पीड़न सहन करूं। क्या एक दिन, एक घड़ी, एक क्षण भी मेरा, मेरे मन का नहीं आवेगा। जब मैं अपने जीवन मरण के दु:ख-सु:ख में साथ रहने की प्रतिज्ञा करने वाले के मुँह से अपनी सफाई सुन लूं ?
नहीं वह नहीं आने का। तो भी मनुष्य के भाग्य में वह अपना समय कब आता है, यह नहीं कहा जा सकता। रो लूं ? नहीं, अब रोने का समय नहीं है। बेचारा सो रहा है। तो चलूं। गंगा की गोद में।
तितली इस उजड़े उपवन से उड़ जाए।
उसने पागलों की तरह मोहन को प्यार किया, उसे चूम लिया।
अचेत मोहन करवट बदलकर सा रहा था। तितली ने किवाड़ खोला।
आकाश का अंतिम कुसुम दूर गंगा की गोद में चू पड़ा, और सजग होकर सब पक्षी एक साक कलरव कर उठे।
तितली इतने ही से तो नहीं रुकी। उसने और भी देखा, सामने एक चिरपरिचित मूर्ति ! जीवन-युद्ध का थका हुआ सैनिक मधुबन विश्राम-शिविर के द्वार पर खड़ा था।