कंकाल (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) चतुर्थ खंड : जयशंकर प्रसाद (1) वह दरिद्रता और अभाव के गार्हस्थ्य जीवन की कटुता में दुलारा गया था। उसकी माँ चाहती थी कि वह अपने हाथ से दो रोटी कमा लेने के योग्य बन जाए, इसलिए वह बार-बार झिड़की सुनता। जब क्रोध से उसके आँसू निकलते और जब उन्हें अधरों से पोंछ …

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कंकाल (उपन्यास) तृतीय खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) तृतीय खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) तृतीय खंड : जयशंकर प्रसाद (1) श्रीचन्द्र का एकमात्र अन्तरंग सखा धन था, क्योंकि उसके कौटुम्बिक जीवन में कोई आनन्द नहीं रह गया था। वह अपने व्यवसाय को लेकर मस्त रहता। लाखों का हेर-फेर करने में उसे उतना ही सुख मिलता जितना किसी विलासी को विलास में। काम से छुट्टी पाने पर थकावट …

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कंकाल (उपन्यास) द्वितीय खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) द्वितीय खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) द्वितीय खंड : जयशंकर प्रसाद (1) एक ओर तो जल बरस रहा था, पुरवाई से बूँदें तिरछी होकर गिर रही थीं, उधर पश्चिम में चौथे पहर की पीली धूप उनमें केसर घोल रही थी। मथुरा से वृन्दावन आने वाली सड़क पर एक घर की छत पर यमुना चादर तान रही थी। दालान में …

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कंकाल (उपन्यास) प्रथम खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) प्रथम खंड : जयशंकर प्रसाद

कंकाल (उपन्यास) प्रथम खंड : जयशंकर प्रसाद (1) प्रतिष्ठान के खँडहर में और गंगा-तट की सिकता-भूमि में अनेक शिविर और फूस के झोंपड़े खड़े हैं। माघ की अमावस्या की गोधूली में प्रयाग में बाँध पर प्रभात का-सा जनरव और कोलाहल तथा धर्म लूटने की धूम कम हो गयी है; परन्तु बहुत-से घायल और कुचले हुए …

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