गबन (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद (अध्याय 5)

गबन (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद (अध्याय 5)

गबन (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद (अध्याय 5) अध्याय 5 (41)रतन पत्रों में जालपा को तो ढाढ़स देती रहती थी पर अपने विषय में कुछ न लिखती थी। जो आप ही व्यथित हो रही हो, उसे अपनी व्यथाओं की कथा क्या सुनाती! वही रतन जिसने रूपयों की कभी कोई हैसियत न समझी, इस एक ही महीने …

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गबन (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद (अध्याय 3-अध्याय 4 )

गबन (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद (अध्याय 1-अध्याय 2 )

अध्याय 3 (21)अगर इस समय किसी को संसार में सबसे दुखी, जीवन से निराश, चिंताग्नि में जलते हुए प्राणी की मूर्ति देखनी हो, तो उस युवक को देखे, जो साइकिल पर बैठा हुआ, अल्प्रेड पार्क के सामने चला जा रहा है। इस वक्त अगर कोई काला सांप नज़र आए तो वह दोनों हाथ फैलाकर उसका …

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गबन (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद (अध्याय 1-अध्याय 2 )

गबन (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद

अध्याय 1 (1)बरसात के दिन हैं, सावन का महीना। आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई हैं। रह – रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है। अभी तीसरा पहर है; पर ऐसा मालूम हों रहा है, शाम हो गयी। आमों के बाग़ में झूला पड़ा हुआ है। लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और उनकी माताएँ भी। दो-चार …

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