गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 4

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 4

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 4 अध्याय-17 आनंदमई से विनय ने कहा, “देखो माँ, मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ, जब-जब भी मैं मूर्ति को प्रणाम करता रहा हूँ मन-ही-मन मुझे न जाने कैसी शर्म आती रही है। उस शर्म को मैंने छिपाए रखा है- बल्कि उल्टे मूर्ति-पूजा के समर्थन में …

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गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 3

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 3

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 3 अध्याय-11 ललिता के पास से लौटकर उस दिन विनय के मन में एक शंका रह-रहकर काँटे-सी चुभ रही थी। वह सोचने लगा- परेशबाबू के घर में मेरा आना-जाना किसी को अच्छा लगता है या नहीं, ठीक-ठीक यह जाने बिना मैं ज़बरदस्ती वहाँ जाता रहता …

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गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 2

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 2

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 2 “ अध्याय-6 गोरा ने दो-तीन घंटे की नींद के बाद जागकर देखा कि विनय पास ही सोया हुआ है, देखकर उसका हृदय आनंद से भर उठा। कोई प्रिय वस्तु सपने में खोकर, जागकर यह देखे कि वह वस्तु खोई नहीं है, तब मन को …

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गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 1

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 1

गोरा (बांग्ला उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर – अनुवाद: अज्ञेय Part 1 अध्याय-1 वर्षाराज श्रावण मास की सुबह है, बादल बरसकर छँट चुके थे, निखरी चटक धूप से कलकत्ता का आकाश चमक उठा है। सड़कों पर घोड़ा-गाड़ियाँ लगातार दौड़ रही हैं, फेरी वाले रुक-रुककर पुकार रहे हैं। जिन्हें दफ्तर, कॉलेज और अदालत जाना है उनके लिए …

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