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आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 4 – प्रेमचंद
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 31
एक दिन पिछले पहर से खटमलों ने मियाँ खोजी के नाक में दम कर दिया। दिन भर का खून जोंक की तरह पी गए। हजरत बहुत ही झल्लाए। चीख उठे, लाना करौली, अभी सबका खून चूस लूँ। यह हाँक हो औरों ने सुनी, तो नींद हराम हो गई। चोर का शक हुआ। लेना-देना, जाने न पाए। सराय भर में हुल्लड़ मच गया। कोई आँखें मलता हुआ अँधेरे में टटोलता है, कोई आँखें फाड़-फाड़ कर अपनी गठरी को देखता है, कोई मारे डर के आँखें बंद किए पड़ा है। मियाँ खोजी ने जो चोर-चोर की आवाज सुनी, तो खुद भी गुल मचाना शुरू किया – लाना मेरी करौली। ठहर! मैं भी आ पहुँचा। पिनक में सूझ गई कि चोर आगे भागा जाता है, दौड़ते-दौड़ते ठोकर खाते हैं तो अररर धों! गिरे भी तो कहाँ, जहाँ कुम्हार के हंडे रखे थे। गिरना था कि कई हंडे चकनाचूर हो गए। कुम्हार ने ललकारा कि चोर-चोर। यह उठने ही को थे कि उसने आकर दबोच लिया और पुकारने लगा – दौड़ो-दौड़ो, चोर पकड़ लिया। मुसाफिर और भठियारे सब के सब दौड़ पड़े। कोई डंडा लिए है, कोई लट्ठ बाँधे। किसी को क्या मालूम कि यह चोर है, या मियाँ खोजी। खूब बेभाव की पड़ी। यार लोगों ने ताक-ताक कर जन्नाटे के हाथ लगाए। खोजी की सिट्टी-पिट्टी भूल गई, न करौली याद रही, न तमंचा। जब खूब पिट पिटा चुके, तो एक मुसाफिर ने कहा – भई, यह तो खोजी मालूम होते हैं। जब चिराग जलाया गया, तो आप दबके हुए नजर आए। मियाँ आजाद से किसी ने जा कर कह दिया कि तुम्हारे साथ खोजी चोरी की इल्लत में फँसे हैं, किसी मुसाफिर की टोपी चुराई थी। दूसरे ने कहा – नहीं-नहीं, यह नहीं हुआ। हुआ यह कि एक कुम्हार की हाँडियाँ चुराने गए थे। मुल जाग हो गई।
मियाँ आजाद को यह बात कुछ जँची हीं। सोचे, खोजी बेचारे चोरी-चकारी क्या जानें। फिर चोरी भी करते तो हाँडियों की? दिल में ठान ली कि चलें और खोजी को बचा लाएँ। चारपाई से उतरे ही थे कि देखा, खोजी साहब झूमते चले आते हैं और बड़बड़ाते जाते हैं – हत तेरी गीदी की, बड़ा आजाद बना है। चारपाई पर पड़ा जर्र-खर्र किया और हमारी खबर ही नहीं।
आजाद – खैर, हमको तो पीछे गालियाँ देना, पहले यह बताओ कि हाथ-पाँव तो नहीं टूटे?
खोजी – हाथ-पाँव! अजी, आप उस वक्त होते तो देखते कि बंदे ने क्या-क्या जौहर दिखाए। पचास आदमी घेरे हुए थे, पूरे पचास, एक कम न एक ज्यादा, और मैं फुलझड़ी बना हुआ था। बस, यह कैफियत थी कि किसी को अंटी दी धम से जमीन पर, किसी को कूले पर लाद कर मारा। दो-चार मेरे रोब में आ कर थरथरा के गिर ही तो पड़े। दस-पाँच की हड्डी-पसली चकना-चूर कर दी। जो सामने आया, उसे नीचा दिखाया।
आजाद – सच?
खोजी – खुदाई भर में कोई ऐसा जीवटदार आदमी दिखा तो दीजिए।
आजाद – भई, खुदाई भर का हाल तो खुदा ही को खूब मालूम है। मगर इतनी गवाही हो हम भी देंगे कि आप-सा बेहया दुनिया भर में न होगा।
दोनों आदमी इस वक्त सो रहे, दूसरे दिन सवेरे नवाब साहब के यहाँ पहुँचे।
आजाद – जनाब, रुख्सत होने आया हूँ। जिंदगी है, तो फिर मिलूँगा।
नवाब – क्या कूच की तैयारी कर दी? भई, वापस आना, तो मुलाकात जरूर करना।
आजाद और खोजी रुख्सत हुए, तो खोजी पहुँचे जनानी ड्योढ़ी पर और दरबान से बोले – यार, जरा बुआ जाफरान को नहीं बुला देते। दरबान ने आवाज दी – बुआ जाफरान, तुम्हारे मियाँ आए हैं।
बुआ जाफरान के मियाँ खोजी से बिलकुल मिलते-जुलते थे, जरा फर्क नहीं। वही सवा बालिश्त का कद, वही दुबले-पतले हाथ-पाँव। जाफरान उनसे रोज कहा करती थी – तुम अफीम खाना छोड़ दो। वह कब छोड़नेवाले थे भला। इसी सबब से दोनों में दम भर नहीं बनती थी। जाफरान ने जो बाहर आ कर देखा, तो हजरत पिनक ले रहे हैं। जल-भुनकर खाक ही तो हो गई। जाते ही मियाँ खोजी के पट्टे पकड़ कर एक, दो, तीन, चार, पाँच चाँटे लगा ही तो दिए। खोजी का नशा हिरन हो गया। चौंक कर बोले – लाना तो करौली, खोपड़ी पिलपिली हो गई। हाथ छुड़ाकर भागना चाहा; मगर वह देवनी नवाब कामाल खा-खा कर हथनी बनी फिरती थी। इनको चुरमुर कर डाला। इधर गुल-गपाड़े की आवाज हुई, तो बेगम साहबा, मामा, लौंडियाँ, सब परदे के पास दौड़ीं।
बेगम – जाफरान, आखिर यह है क्या? रुई की तरह इस बेचारे को धुन के धर दिया।
मामा – हुजूर, जाफरान का कसूर नहीं, यह उस मरदुए का कसूर है जो जोरू के हाथ बिक गया है। (खोजी के कान पकड़ कर) जोरू के हाथ से जूतियाँ खाते हो, ओर जरा चूँ नहीं करते?
खोजी – हाय अफसोस! अजी, यह जोरू किस मरदूद की है। खुदा-खुदा करो! भला मैं इस हुड़दंगी, काली-कलूटी डाइन के साथ ब्याह करता! मार-मार के भुरकस निकाल लिया।
बुआ जाफरान ने जो ये बातें सुनीं, तो वह आवाज ही नही है। गौर करके देखती हैं, तो यह कोई और ही है। दाँतों के तले उँगली दबाकर खामोश हो रहीं।
लौंडी – ऐ वाह बुआ जाफरान! इतनी भी नहीं पहचानतीं। यह बेचारे तो नवाब साहब के यहाँ बने रहते थे। आखिर तुमको सूझी क्या।
बेगम साहब ने भी जाफरान को खूब आड़े हाथों लिया। इतने में किसी ने नवाब साहब से सारा किस्सा कह दिया! महफिल भर में कहकहा पड़ गया।
नवाब – जाफरान की सजा यही है कि खोजी को दे दी जायँ।
खोजी – बस, गुलाम के हाल पर रहम कीजिए। गजब खुदा का! मियाँ के धोखे-धोखे में तो इसने हमारे हाथ-पाँव ढीले कर दिए और जो कहीं सचमुच मियाँ ही होते, तो चटनी ही कर डालती। क्या कहें, कुछ बस नहीं चलता, नहीं नवाबी होती, तो इतनी करौलियाँ भोंकी होती कि उम्र भर याद करती। यहाँ कोई ऐसे-वैसे नहीं। घास नहीं खोदा किए हैं।
बड़ी देर तक अंदर-बाहर कहकहे पड़े, तब दोनों आदमी फिर से रुख्सत हो कर चले। रास्ते में मियाँ आजाद मारे हँसी के लोट-लोट गए।
खोजी – जनाब, आप हँसते क्या हैं? मैंने भी ऐसी-ऐसी चुटकियाँ ली हे कि जाफरान भी याद ही करती होगी।
आजाद – मियाँ, डूब मरो जाकर। एक औरत से हाथापाई में जीत न पाए!
खोजी – जी, वह औरत सौ मर्द के बराबर है। चिमट पड़े, तो आपके भी हवास उड़ जायँ।
दोनों आदमी सराय पहुँच कर चलने की तैयारी करने लगे। खाना खा कर बोरिया-बकचा सँभाल स्टेशन को चले।
खोजी – हजरत, चलने को तो हम चलते हैं, मगर इतनी शर्ते आपको कबूल करनी होंगी –
(1) करौली हमको जरूर ले दीजिए।
(2) बरस भर के लिए अफीम ले लीजिए। मैं अपने लादे-लादे फिरूँगा। वर्ना जँभाइयों पर जँभाइयाँ आएगी और बेमौत मर जाऊँगा। आप तो औरतों की तरह नशे के आदी नहीं मगर मैं बगैर अफीम पिए एक कदम न चलूँगा। परदेस में अफीम मिले, या न मिले, कहाँ ढूँढ़ता फिरूँगा?
(3) इतना बता दीजिए कि वहाँ बुआ जाफरान की सी डंडपेल देवनियाँ तो नजर न आएँगी? वल्लाह, क्या कस-कस के लातें लगाई हैं, और क्या तान-तान के मुक्केबाजी की है कि पलेथन ही निकाल डाला।
(4) सराय में हम अब तमाम उम्र न उतरेंगे, और जो जहाज पर कुम्हार हुए तो हम डूब ही मरेंगे। हम ठहरे आदमी भारी-भरकम, कहीं पाँव फिसल गया और एक-आध हँडा टूट गया, तो कुम्हार से ठाँय-ठाँय हो जाएगी।
(5) जिस रईश की सोहबत में बजाज आते होंगे, वहाँ हम न जायँगे।
(6) जहाँ आप चलते हैं, वहाँ काँजीहौस तो नहीं है कि गधे के धोखे में कोई हमको कान पकड़ के काँजीहौस पहुँचा दे।
(7) टट्टू पर हम सवार न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय।
(8) मीठे पुलाव रोज पकें।
(9) हमको मियाँ खोजी न कहना। जनाब ख्वाजा साहब कहा कीजिए। यह खोजी के क्या माने?
(10) मोरचे पर हम न जायँगे। लूट-मार में जो कुछ हाथ आए, वह हमारे पास रखा जाय।
(11) गोली खाने के तीन घंटे पहले और मरने के दो घड़ी पहले हमें बतला देना।
(12) अगर हम मर जायँ, तो पता लगा कर हमारे वालिद के पास ही हमारी लाश दफन करना। अगर पता न लगे, तो किसी कबरिस्तान में जा कर सबसे अच्छी कबर के पास हमको दफन करना। और लिख देना कि यह इनके वालिद की कबर है।
(13) पिनक के वक्त हमको हरगिज न छेड़ना।
आजाद – तुम्हारी सब शर्तें मंजूर। अब तो चलिएगा।
खोजी – एक बात और बाकी रह गई।
आजाद – लगे हाथों वह भी कह डालिए।
खोजी – मैं अपनी दादीजन से तो पूछ लूँ।
आजाद – क्या वह अभी जिंदा हैं? खुदा झूठ न बुलाए, तो आप कोई पचास के पेटे में होंगे? और वह इस हिसाब से कम से कम क्या डेढ़ सौ बरस की भी न होंगी?
खोजी – अजी, मैं दिल्लगी करता था। उनकी तो हड्डियों तक का पता न होगा।
स्टेशन पर पहुँचे। गुल-गपाड़ा मचा हुआ था। दोनों आदमी भीड़ काट कर अंदर दाखिल हुए, तो देखा, एक आदमी गेरुए कपड़े पहने खड़ा है। फकीरों की सी दाढ़ी, बाल कमत तक, मूँछें मुड़ी हुई, कोई पचास के पेटे में। मगर चेहरा सुर्ख, जैसे लाल अंगारा; आँखें आगभभूका।
आजाद – (एक सिपाही से) क्यों भई, क्या यह कोई फकीर हैं?
सिपाही – फकीर नहीं, चंडाल है। कोई चार महीने हुए, यहाँ आया और एक आदमी को सब्जबाग दिखा कर अपना चेला बनाया। रफ्ता-रफ्ता और लोग भी शागिर्द हुए। फिर तो हजरत पुजने लगे। अब कोई तो कहता है कि बाबा जी ने दस सेर मिठाई दरिया में डाल दी और दूसरे दिन जा कर कहा – गंगा जी, मारी अमानत हमको वापस कर दो। दरिया लहरें मारता हुआ बाबा जी के पास आया और दस सेर गरमागरम मिठाई किसी ने आप ही आप उनके दामन में बाँध दी। कोई कसमें खा-खा कर कहता है कि कई मुर्दे इन्होंने जिंदा कर दिए। एक साहब ने यहाँ तक बढ़ाया कि एक दिन मूसलाधार मेंह बरस रहा था और इन पर बूँद ने असर न किया। कोई फरिश्ता इन पर छतरी लगाए रहा।
आजाद – चिकने घड़े बन गए।
सिपाही – कुछ पूछिए नहीं। उन लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि यह कैदखाने से निकल जायँगे; मगर तीन दिन से हवालात में हैं, और अब सिट्टी-पिट्टी भूली हुई है। मैं जो उधर से आऊँ-जाऊँ, तो रोज देखूँ कि भीड़ लगी हुई हैं; मगर औरतें ज्यादा और मर्द कम। जो आता है, वह सिजदा करता है आपकी देखा-देखी मैं गया,मेरी देखा-देखी आप गए। बाबा जी के यहाँ रोज दरबार लगने लगा।
एक दिन का जिक्र है कि बाबा जी ने अपनी कोठरी में टाट के नीचे दस-पाँच रुपए रख दिए और चुपके से बाहर निकल आए। जब दरबार जम गया, तो एक आदमी ने कहा – बाबा जी, हमको कुछ दिखाइए। बिना कुछ देखे हम एक न मानेंगे। बाबा जी ने आँखें नीली-पीली कीं और शेर की तरह गरजे – लोगों के होश उड़ गए। दो-चार डरपोक आदमियों ने तो मारे डर के आँखें बंद कर लीं। एक आदमी ने कहा – बाबा, अनजान है। इस पर रहम कीजिए। दूसरा बोला – नादान है, जाने दीजिए।
फकीर – नहीं, इससे पूछो, क्या देखेगा?’
आदमी – बाबा, मैं तो रुपए का भूखा हूँ।’
फकीर – बच्चा, फकीरों को दौलत से क्या काम? मगर तेरी खातिर करना भी जरूरी है। चल, चल, चल। बरसो, बरस, बरसो। खन, खन, खन। अच्छा बच्चा, कुटी में देख; टाट का कोना उठा। खुदा ने तेरे लिए कुछ भेजा ही होगा। मगर दाहना सुर चलता हो, तभी जाना; नहीं तो धोखा खायगा। वहाँ कोई डरावनी सूरत दिखाई दे, तो डर मत जाना; नहीं तो मर जायगा।
बाबा जी ने कुटी के एक कोने में परदा डाल दिया था और उस परदे में एक आदमी का मुँह काला करके बिठा दिया था। अब तो आदमी डरा कि न जाने कैसी भयानक सूरत नजर आएगी। कहीं डर जाऊँ, तो जान ही जाती रहे। बाबा जी एक-एक से कहते हैं, मगर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। तब एक नौजवान ने उठ कर कहा – लीजिए, मैं जाता हूँ।
फकीर – बच्चा, जाता तो है, मगर जरा सँभल कर जाना।
नौजवान बेधड़क कोठरी में घुस गया। टाट के नीचे से रुपए निकाल कर जेब में रख लिए और चलने ही को था कि परदे में से वह काला आदमी निकल पड़ा और जवान की तरफ मुँह खोल कर झपटा। जवान ने आव देखा न ताव, लकड़ी उसकी हलक में डाल दी और इतनी चोटें लगाईं कि बौखला दिया। जब वह रुपए लिए अकड़ता हुआ बाहर निकला, तो हवाली मवाली सब दंग कि यह तो खुश-खुश आते हैं और हम समझते थे कि अब इनकी लाश देखेंगे।
नौजवान – (फकीर से) कहिए हजरत, और कोई करामात दिखाइएगा?
फकीर – बच्चा, तुम्हारी जवानी पर हमें तरस आ गया।
नौजवान – पहले जा कर अंदर देखिए तो आपके देव साहब की क्या हालत है? जरा मरहम-पट्टी कीजिए।
अगर वहाँ समझदार लोग होते, तो समझ जाते कि बाबा जी पूरे ठग हैं, मगर वहाँ तो सभी जाहिल थे। वे समझे, बेशक बाबा जी ने नौजवान पर रहम किया। खैर बाबा जी ने खूब हाथ-पाँव फैलाए। एक दिन किसी महाजन के यहाँ गए। वहाँ महल्ले भर के मर्द और औरतें जमा हो गईं। रात को जब सब लोग चले गए, तो इन्होंने महाजन के लड़के से कहा – हम तुमसे बहुत खुश हैं। जो चाहे माँग ले। लड़का इनके कदमों पर गिर पड़ा। आपने फरमाया कि एक कोरी हाँडी लाओ, चूल्हा गरम करो; मगर लकड़ी न हो, कंडे हों। कुम्हार ने सब सामान चुटकियों में लैस कर दिया। तब आपने लोहे का एक पत्तर मँगवाया। उसे हाँडी में पानी भर कर डाल दिया। पानी को ले कर कुछ पढ़ा। थोड़ी देर के बाद एक पुड़िया दी और कहा – वह सफेद दवा उसमें डाल दे। थोड़ी देर के बाद जब महाजन का लड़का अंदर गया, तो बाबा जी ने लोहे का पत्तर निकाल दिया और अपने पास से सोने का पत्तर हाँड़ी में डाल दिया, और चल दिए। महाजन का लड़का बाहर आया, तो बाबा जी का पता नहीं। हाँड़ी को जो देखो, तो लोहे का पत्तर गायब, सोने का थक्का मौजूद। महल्ले भर में शोर मच गया। लोग बाबा जी को ढूँढ़ने लगे। आखिर यहाँ तक नौबत पहुँची कि एक मालदार की बीवी ने चकमें में आ कर अपना पाँच-छः हजार का जेवर उतार दिया। बाबा जी जेवर ले कर उड़ गए। साल भर तक कहीं पता न चला। परसों पकड़े गए हैं।’
थोड़ी देर के बाद गाड़ी आई। दोनों आदमी जा बैठे।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 32
सुबह को गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर रुकी। नए मुसाफिर आ-आ कर बैठने लगे। मियाँ खोजी अपने कमरे के दरवाजे पर खड़े घुड़कियाँ जमा रहे थे – आगे जाओ, यहाँ जगह नहीं है; क्या मेरे सिर पर बैठोगे? इतने में एक नौजवान दूल्हा बराती कपड़े पहने आ कर गाड़ी में बैठ गया। बरात के और आदमी असबाब लदवाने में मसरूफ थे। दुलहिन और उसकी लौंडी जनाने कमरे में बैठाई गई थीं। गाड़ी चलनेवाली ही थी कि एक बदमाश ने गाड़ी में घुस कर दूल्हे की गरदन पर तलवार का ऐसा हाथ लगाया कि सिर कट कर धड़ से अलग हो गया। उस बेगुनाह की लाश फड़कने लगी। स्टेशन पर कुहराम मच गया। सैकड़ों आदमी दौड़ पड़े और कातिल को गिरफ्तार कर लिया। यहाँ तो यह आफत थी, उधर दुलहिन और महरी में और ही बातें हो रही थीं।
दुलहिन – दिलबहार, देखो तो, यह गुल कैसा है? जरी झाँक कर देखना तो!
दिलबहार – हैं-हैं! किसी ने आदमी को मार डाला है। चबूतरा सारा लहू-लुहान है।
दुलहिन – अरे गजब। क्या जाने, कौन था बेचारा।
दिलबहार – अरे! बात क्या है! लाश के सिरहाने खड़े तुम्हारे देवर रो रहे हैं।
एक दफे लाश की तरफ से आवाज आई – हाय, भाई, तू किधर गया! दुलहिन का कलेजा धक-धक करने लगा। भाई-भाई करके कौन रोता है। अरे गजब! वह घबरा कर रेल से उतरी और छाती पीटती हुई चली। लाश के पास पहुँच कर बोली – हाय, लुट गई! अरे लोगो, यह हुआ क्या?
दिलबहार – हैं-हैं दुलहिन, तुम्हारा नसीब फूट गया।
इतने में स्टेशन की दो-चार औरतें-तार-बाबू की बीबी, गार्ड की लड़की ड्राइवर की भतीजी वगैरह ने आ कर समझाना शुरू किया। स्टेशन मातमसरा बन गया। लोग लाश के इर्द-गिर्द खड़े अफसोस कर रहे थे। बड़े-बड़े संगदिल आठ-आठ आँसू रो रहे थे। सीना फटा जाता था। एकाएक दुलहिन ने एक ठंडी साँस ली, जोर से हाय करके चिल्लाई और अपने शौहर की लाश पर धम से गिर पड़ी। चंद मिनट में उसकी लाश भी तड़प कर सर्द हो गई। लोग दोनों लाशों को देखते थे, और हैरत से दाँतों उँगली दबाते थे। तकदीर के क्या खेल हैं, दुलहिन के हाथ-पाँव में मेहँदी लगी हुई, सिर से पाँव तक जेवरों से लदी हुई; मगर दम के दम में कफन की नौबत आ गई। अभी स्टेशन से एक पालकी पर चढ़ कर आई थी, अब ताबूत में जायगी। अभी कपड़ों से इत्र की महक आ रही थी कि काफूर की तदबीरें होने लगीं। सुबह को दरवाज पर रोशनचौकी और शहनाई बज रही थी, अब मातम की सदा है। थोड़ी ही देर हुई कि शहर के लोग छतों और दूकानों से बरात देख रहे थे, अब जनाजा देखेंगे। दिलबहार दोनों लाशों के पास बैठी थी; मगर आँसुओं का तार बँध हुआ था। वह दुलहिन के साथ खेली थी। दुनिया उसकी नजरों में अँधेरी हो गई थी। दूल्हा के खिदमतगार कातिल को जोर-जोर से जूते और थप्पड़ लगा रहे थे और मरनेवाले को याद करके ढाड़ें मार-मार के रोते थे। खैर, स्टेशन मास्टर ने लाशों को उठवाने का इंतजाम किया। गाड़ी तो चली गई। मगर बहुत से मुसाफिर रेल पर से उतर आए। बला से टिकट के दाम गए। उस कातिल को देख कर सबकी आँखों से खून टपकता था। यही जी चाहता था कि इसको इसी दम पीस डालें। इतने में लाल कुर्ती का एक गोरा, जो बड़ी देर से चिल्ला-चिल्ला कर रो रहा था, गुस्से को रोक न सका, जोश में आके झपटा और कातिल की गरदन पकड़ कर उसे खूब पीटा।
आजाद और मियाँ खोजी भी रेल से उतर पड़े थे। दोनों लाशों के साथ उनके घर गए। राह में हजारों आदमियों की भीड़ साथ हो गई। जिन लोगों ने उन दोनों की सूरत ख्वाब में भी न देखी थी, जानते भी न थे कि कौन हैं और कहाँ रहते हैं, वे भी जार-जार रोते थे। औरतें बाजारों, झरोखों और छतों पर से छाती पीटती थीं कि खुदा ऐसी घड़ी सातवें दुश्मन को भी न दिखाए। दुकानदारों ने जनाजे को देखा और दुकान बढ़ा के साथ हुए। रईसजादे सवारियों पर से उतर-उतर पड़े और जनाजे के साथ चले। जब दोनों लाशें घर पर पहुँचीं, तो सारा शहर उस जगह मौजूद था। दुलहिन का बाप हाय-हाय कर रहा था और दूल्हे का बाप सब्र की सिल छाती पर रखे उसे समझाता था – भाई सुनो, हमारी और तुम्हारी उम्र एक है, हमारे मरने के दिन नजदीक हैं। और दो-चार बरस बेहयाई से जिए तो जिए, वर्ना अब चल चलाव है। किसी को हम क्या रोएँ। जिस तरह तुम आज अपनी प्यारी बेटी को रो रहे हो, इसी तरह हजारों आदमियों को अपनी औलाद का गम करते देख चुके हो। इसका अफसोस ही क्या? वह खुदा की अमानत थी, खुदा के सिपुर्द कर दी गई।
उधर कातिल पर मुकदमा पेश हुआ और फाँसी का हुक्म हो गया। सुबह के वक्त कातिल को फाँसी के पास लाए। फाँसी देखते ही बदन के रोएँ खड़े हो गए। बड़ी हसरत के साथ बोला – सब भाइयों को सलाम। यह कह कर फाँसी की तरफ नजर की और ये शेर पढ़े –
कोई दम कीजिए किसी तौर से आराम कहीं;
चैन देती ही नहीं गरदिशे अय्याम कहीं।
सैद लागर हूँ, मेरी जल्द खबर ले सैयाद;
दम निकल जाय तड़प कर न तहे दाम कहीं।
खोजी – क्यों मियाँ, शेर तो उसने कुछ बेतुके से पढ़े। भला इस वक्त शेर का क्या जिक्र था।
आजाद – चुप भी रहो। उस बेचारे की जान पर बन आई है, और तुमको मजाक सूझता है –
उन्हें कुछ रहम भी आता है या रब, वक्ते खूँ-रेजी;
छुरी जब हल्के-आजिज पर रवाँ जल्लाद करते हैं।
कातिल फाँसी पर चढ़ा दिया गया और लाश फड़कने लगी। इतने में लोगों ने देखा कि एक आदमी घोड़ा कड़कड़ाता सामने से आ रहा है। वह सीधा जेलखाने में दाखिल हुआ और चिल्ला कर बोला – खुदा के वास्ते एक मिनट की मुहलत दो। मगर वहाँ तो लाश फड़क रही थी। यह देखते ही सवार धम से घोड़े से गिर पड़ा और रो कर बोला – यह तीसरा था। जेल के दारोगा ने पूछा – तुम कौन हो? उसने फिर आहिस्ता से कहा – यह तीसरा था। अब एक-एक आदमी उससे पूछता है कि मियाँ, तुम कौन हो और रोक लो, रोक लो की आवाज क्यों दी थी? वह सबको यही जवाब देता है – यह तीसरा था।
आजाद – आपकी हालत पर अफसोस आता है।
सवार – भई, यह तीसरा था।
इनसान का भी अजब हाल है। अभी दो ही दिन हुए कि शहर भर इस कातिल के खून का प्यासा था। सब दुआ कर रहे थे कि इसके बदन को चील-कौए खायँ। वे भी इस बूढ़े की हालत देख कर रोने लगे। कातिल को बेरहमी याद न रही। सब लोग उस बूढ़े सवार से हमदर्दी करने लगे! आखिर, जब बूढ़े के होश-हवास दुरुस्त हुए, तो यों अपना किस्सा कहने लगा –
मैं कौम का पठान हूँ। तीन ऊपर सत्तर बरस का सिन हुआ। खुदा ने तीन बेटे दिए। तीनों जवान हुए और तीनों ने फाँसी पाई। एक ने एक काफिले पर छापा मारा। उस तरफ लोग बहुत थे। काफिलेवालों ने उसे पकड़ लिया और अपने-आप एक फाँसी बना कर लटका दिया। जिस वक्त उसकी लाश को फाँसी पर से उतारा मैं भी वहाँ जा पहुँचा। लड़के की लाश देख कर गश की नौबत आई मगर चुप। अगर जरा उन लोगों को मालूम हो जाय कि यह उसका बाप है; तो मुझे भी जीता न छोड़ें। एकाएक किसी ने उनसे कह दिया कि यह उसका बाप है। यह सुनते ही दस-पंद्रह आदमी चिपट गए और आग जला कर मुझसे कहा कि अपने लड़के की लाश को इसमें जला। भाई, जान बड़ी प्यारी होती है। इन्हीं हाथों से, जिनसे लड़के को पाला था, उसे आग में जला दिया।
अब दूसरे लड़के का हाल सुनिए – वह रावलपिंडी में राह-राह चला जाता था कि एक आदमी ने, जो घोड़े पर सवार था, उसको चाबुक से हटाया! उसने झल्लाकर तलवार म्यान से खींची और उसके दो टुकड़े कर डाले। हाकिम ने फाँसी का हुक्म दिया। और आज का हाल तो आप लोगों ने खुद ही देखा। इस लड़की के बाप ने करार किया था कि मेरे बेटे के साथ निकाह पढ़वावेगा। लड़के ने जब देखा कि यह दूसरे की बीवी बनी, तो आपे से बाहर हो गया!’
मियाँ आजाद और खोजी बड़ी हसरत के साथ वहाँ से चले।
खोजी – चलिए, अब किसी दुकान पर अफीम खरीद लें।
आजाद – अजी, भाड़ में गई आपकी अफीम। आपको अफीम की पड़ी है, यहाँ मारे गम के खाना-पीना भूल गए।
खोजी – भई, रंज घड़ी दो घड़ी का है। यह मरना-जीना तो लगा ही रहता है।
दोनों आदमी बातें करते हुए जा रहे थे, तो क्या देखते हैं कि एक दुकान पर अफीम झड़ाझड़ बिक रही है। खोजी की बाँछें खिल गईं, मुरादें मिल गईं। जाते ही एक चवन्नी दुकान पर फेंकी। अफीम ली, लेते ही घोली और घोलते ही गट-गट पी गए।
खोजी – अब आँखें खुलीं।
आजाद – यों नहीं कहते कि अब आँखें बंद हुई!
खोजी – क्यों उस्ताद, जो हम हाकिम हो जायँ, तो बड़ा मजा आए। मेरा कोई अफीमची भाई किसी को कत्ल भी कर आए, तो बेदाग छोड़ दूँ।
आजाद – तो फिर निकाले भी जल्द जाइए।
दोनों आदमी यही बातें करते हुए एक सराय में जा पहुँचे। देखा, एक बूढ़ा हिंदू जमीन पर बैठा चिलम पी रहा है।
आजाद – राम-राम भई, राम-राम!
बूढ़ा – सलाम साहब, सलाम। सुथना पहने हो और राम-राम कहते हो?
आजाद – अरे भाई, राम और खुदा एक ही तो हैं। समझ का फेर है। कहाँ जाओगे।
बूढ़ा – गाँव यहाँ से पाँच चौकी है। पहर रात का घर से चलने, नहावा, पूजन कीन, चबेना बाँधा और ठंडे-ठंडे चले आयन। आज कचहरी मौं एक तारीख हती। साँझ ले फिर चले जाब। जमींदारी माँ अब कचहरी धावे के सेवाय और का रहिगा?
आजाद – तो जमींदार हो? कितने गाँव हैं तुम्हारे?
बूढ़ा – ऐ हुजूर, अब यो समझो, कोई दुइ हजार खरच-बरच करके बच रहत हैं।
आजाद ने दिल में सोचा कि दो हजार साल की आमदनी और बदन पर ढंग के कपड़े तक नहीं! गाढ़े की मिरजई पहने हुए है; इसकी कंजूसी का भी ठिकाना है? यह सोचते हुए दूसरी तरफ चले, तो देखा, एक कालीन बड़े तकल्लुफ से बिछा और और एक साहब बड़े ठाट से बैठे हुए हैं। जामदानी का कुरता, अद्धी का अँगरखा, तीन रुपए की सफेद टोपी, दो-ढाई सौ की जेब घड़ी, उसकी सोने की जंजीर गले में पड़ी हुई। करीब ही चार-पाँच भले आदमी और बैठे हुए हें और दोसेरा तंबाकू उड़ा रहे हैं। आजाद ने पूछा, तो मालूम हुआ आप भी एक जमींदार हैं। पाँच-छह कोस पर एक कसबे में मकान है। कुछ ‘सीर’ भी होती है। जमींदारी से सौ रुपए माहवार की बचत होती है।
आजाद – यहाँ किस गरज से आना हुआ।
रईस – कुछ रुपए कर्ज लेना था, मगर महाजन दो रुपए सैकड़ा सूद माँगता है।
मियाँ आजाद ने जमींदार साहब के मुंशी को इशारे से बुलाया, अलग ले जा कर यों बातें करने लगे –
आजाद – हजरत, हमारे जरिये से रुपया लीजिए। दस हजार, बीस हजार, जितना कहिए; मगर जागीर कुर्क करा लेंगे और चार रुपए सैकड़ा सूद लेंगे।
मुंशी – वाह! नेकी और पूछ-पूछ! अगर आप चौदह हजार भी दिलवा दें, तो बड़ा एहसान हो। और, सूद चाहे पाँच रुपए सैकड़ा लीजिए तो कोई परवा नहीं। सूद देने में तो हम आँधी हैं।
आजाद – बस, मिल चुका। यह सूद की क्या बात-चीत है भला? हम कहीं सूद लिया करते हैं? मुनाफा नहीं कहते?
मुंशी – अच्छा हुजूर, मुनाफा सही।
आजाद – अच्छा, यह बताओ कि जब सौ रुपए महीना बच रहता है, तो फिर चौदह हजार कर्ज क्यों लेते हैं?
मुंशी – जनाब, आपसे तो कोई परदा नहीं। सौ पाते हैं, और पाँच सौ उड़ाते हैं। अच्छा खाना खाते हैं, बारीक और कीमती कपड़े पहनते हें, यह सब आए कहाँ से। बंक से लिया, महाजनों से लिया; सब चौदह हजार के पेटे में आ गए। अब कोई टका नहीं देता।
आजाद दिल में उस बूढ़े ठाकुर का इन रईस साहब से मुकाबिला करने लगे। यह भी जमींदार, यह भी जमींदार; उनकी आमदनी डेढ़ सौ से ज्यादा, इनकी मुश्किल से सौढ़े की धोती और गाढ़े की मिरजई पर खुश हैं। और यह शरबती और जामदानी फड़काते हैं। वह ढाई तल्ले का चमरौध जूता पहनते हैं, यहाँ पाँच रुपया की सलीमशाही जूतियाँ। वह पालक और चने की रोटियाँ खाते हें और यह दो वक्त शीरमाल और मुर्गपुलाव पर हाथ लगाते हैं, वह टके गज की चाल चलते हैं। यहाँ हवा के घोड़ों पर सवार। दोनों पर फटकार! वह कंजूस और यह फजूलखर्च। वह रुपए को दफन किए हुए, यह रुपए लुटाते फिरते हैं। वह खा नहीं सकते, तो यह बचा नहीं सकते।
शाम को दोनों आदमी रेल पर सवार हो कर पूना जा पहुँचे।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 33
रेल से उतर कर दोनों, आदमियों ने एक सराय में डेरा जमाया और शहर की सैर को निकले। यों तो यहाँ की सभी चीजें भली मालूम होती थीं, लेकिन सबसे ज्यादा जो बात उन्हें पसंद आई, वह यह थी कि औरतें बिला चादर और घूँघट के सड़कों पर चलती-फिरती थीं। शरीफजादियाँ बेहिजाब नकाब उठाए; मगर आँखों में हया और शर्म छिपी हुई।
खोजी – क्यों मियाँ, यह तो कुछ अजब रस्म है? ये औरतें मुँह खोले फिरती हैं। शर्म और हया सब भून खाई। वल्लाह, क्या आजादी है!
आजाद – आप खासे अहमक हैं। अरब में, अजम में अफगानिस्तान में, मिसर में, तुर्किस्तान में, कहीं भी परदा है? परदा तो आँख का होता है। कहीं चादर हया सिखाती है? जहाँ घूँघट काढ़ा, और नजर पड़ने लगी।
खोजी – अजी, मैं दुनिया की बात नहीं चलाता। हमारे यहाँ तो कहारियाँ और मालिनें तक परदा करती हैं, न कि शरीफजादियाँ ही! एक कदम तो बेपरदे के जाती नहीं।
आजाद – अरे मियाँ, नकाब को शर्म से क्या सरोकार? आँख की हया से बढ़ कर कोई परदा ही नहीं; हमारे मुलक में तो परदे का नाम नहीं; मगर हिंदुस्तान का तो बाबा आदम ही निराला है।
खोजी – आपका मुल्क कौन? जरा आपके मुल्क का नाम तो सुनूँ।
आजाद – कशमीर। वही कशमीर जिसे शायरों ने दुनिया का फिरदौस माना है। वहाँ हिंदू-मुसलमान औरतें बुरका ओढ़ कर निकलती हैं; मगर यह नहीं कि औरतें घर के बाहर कदम ही न रखें। यह रोग तो हिंदुस्तान ही में फैला है! हम तो जब तुर्की से आयँगे, तो यहीं बिस्तर जमाएँगे और हुस्नआरा को साथ ले कर आजादी के साथ हवा खायँगे।
खोजी – यार बात तो अच्छी है, मगर मेरी बीवी तो इस लायक ही नहीं कि हवा खिलाने ले जाऊँ। कौन अपने ऊपर तालियाँ बजवाए? फिर अब तो बूढ़ी हुई और रंग भी ऐसा साफ नहीं।
आजाद – तो इसमें शरम की कौन सी बात है? आप उनके काले मुँह से झेंपते क्यों है।
खोजी – जब हब्श जाऊँगा, तो वहाँ हवा खिलाऊँगा। आप नई रोशनी के लोग हैं। आपकी हुस्नआरा आपसे भी बढ़ी हुई, जो देखे फड़क जाय कि क्या चाँद-सूरज की जोड़ी है। ऐसी शक्ल-सूरत हो, तो हवा खिलाने में कोई मुजायका नहीं। हम अब क्या जोश दिखाएँ; न वह उमंग है, न वह तरंग।
आजाद – हम कहते हैं, बुआ जाफरान को ब्याह लो और एक टट्टू ले दो। बस, इसी तरह वह भी बाजारों में हवा खायँ।
खोजी – (कान पकड़ कर) या खुदा बचाइयो। पीच पी, हजार निआमत खाई। मारे चपतों के खोपड़ी गंजी कर दी थी। क्या वह भूल गया?
आजाद – यहाँ से बंबई भी तो करीब है।
खोजी – अरे गजब! क्या जहाज पर बैठना होगा? तो भई, मेरे लिए अफीम ले दो।
पूने से बंबई तक दिन में कई गाड़ियाँ जाती थीं। दोनों आदमियों ने सराय में पहुँच कर खाना खाया और बंबई रवाना हुए। शाम हो गई थी। एक होटल में जा कर ठहरे। आजाद तो दिन भर के थके हुए थे, लेटते ही खर्राटे लेने लगे। खोजी अफीमची आदमी, नींद कहाँ? इसी फिक्र में बैठे हुए थे कि नींद को क्योंकर बुलाऊँ। इतने में क्या देखते हैं कि एक लंबी-तड़ंगी, पँचहत्थी औरत चमकती-दमकती चली आती है। पूरे सात फुट का कद, न जौ-भर कम, न जौ-भर ज्यादा। धानी चादर ओढ़े, इठला-इठला कर चलती हुई मियाँ खोजी के पास आ कर खड़ी हो गई। खोजी ने उसकी तरफ नजर डाली, तो उसने एक तीखी चितवन से उनको देखा और आगे चली। आपको शरारत जो सूझी तो सीटी बजाने लगे। सीटी को आवाज सुनते ही वह इनकी तरफ झुक पड़ी और छमाछम करती हुई कमरे में चली आई। अब मियाँ खोजी के हवास पैतरे हुए कि अगर आजाद की आँख खुल गई, तो ले ही डालेंगे; और जो कहीं रीझ गए, तो हमारी खैरियत नहीं। हम बस, नींबू और नोन चाट कर रह जायँगे। इशारे से कहा – जरी आहिस्ता बोलो।
औरत – अरे वाह मियाँ! अच्छे मिले।
खोजी – मियाँ आजाद सोए हुए हैं।
औरत – इनका बड़ा लिहाज करते हो; क्या बाप है तुम्हारे?
खोजी – खुदा के वास्ते चुप भी रहो।
औरत – चलो, हम-तुम दूसरी कोठरी में चल कर बैठें।
दोनों पास की एक कोठरी मे जा बैठे। औरत ने अपना नाम केसर बतलाया और बोली – अल्लाह जानता है, तुम पर मेरी जान जाती है। खुदा की कसम, क्या हाथ-पाँव पाए हैं कि जी चाहता है, चूम लूँ। मगर दाढ़ी मुड़वा डालो।
खोजी – (अकड़ कर) अभी क्या, जवानी में देखना हमको!
क्या खूब अभी जवानी शायद आनेवाली है। कुछ ऊपर पचास का सिन हुआ, और आप अभी लड़के ही बने हुए हैं। उस औरत ने आपको उँगलियों पर नचाना शुरू किया, लेकिन आप समझे कि सचमुच रीझ ही गई और भी बफलने लगे।
औरत – डील-डौल कितना प्यारा है कि जी खुश हो गया। मगर दाढ़ी मुड़वा डालो।
खोजी – अगर मैं कसरत करूँ, तो अच्छे-अच्छे पहलवानों को लड़ा दूँ।
औरत – जरा कान तो फटफटा लो, शाबाश!
खोजी – एक बात कहूँ, बुरा तो न मानोगी?
औरत – बुरा मानूँगी, तो जरा खोपड़ी सहला दूँगी।
खोजी – जाँबख्शी करो, तो कहूँ।
औरत – (चपत लगा कर) क्या कहता है, कह।
खोजी – भई, यह धौल-धप्पा शरीफों में जायज नहीं।
औरत – तुम मुए को कौन निगोड़ी शरीफ समझती है।
एक चपत और पड़ी। खोजी ने त्योरियाँ बदल कर कहा – भई, आदत मुझे पसंद नहीं। मुझे भी गुस्सा आ जायगा।
औरत – आँखें क्या नीली-पीली करता है? फोड़ दूँ दोनों आँखें?
खोजी – अब हमारा मतलब तो इस झंझट में खब्त हुआ जाता है। अब तो बताओ, कुछ माँगें, तो दोगी?
औरत – हाँ, क्यों नहीं, एक लप्पड़ इधर और दूसरा उधर। क्या माँगते हो?
खोजी – कहना यह है कि – मगर कहते हुए दिल काँपता है।
औरत – अब मैं तुमको ठीक न बनाऊँ कहीं?
खोजी – तुम्हारे साथ ब्याह करने को जी चाहता है।
औरत – ऐ, अभी तुम बच्चे हो। दूध के दाँत तक तो टूटे नहीं। ब्याह क्या करोगे भला?
खोजी – वाह-वाह! मेरे दो बच्चे खेलते हैं। अभी तक इनके नजदीक लौंडे ही हैं हम।
औरत – अच्छा, कुछ कमाई-वमाई तो निकाल, और दाढ़ी मुड़वा।
खोजी – (दस रुपए दे कर) लो, यह हाजिर है।
औरत – देखूँ। ऊँह, हाथी के मुँह में जीरा!
खोजी – लो, यह पाँच और लो। अजी, मैं तुमको बेगम बना कर रखूँगा।
औरत – अच्छा, एक शर्त से शादी करूँगी। तड़के तक के मुझे सात बार सलाम करना और मैं सात चपतें लगाऊँगी।
खोजी – अजी, बल्कि और दस।
औरत – अच्छा, इसी बात पर कुछ और निकालो।
खोजी – लो, यह पाँच और लो। तुम्हारे दम के लिए सब कुछ हाजिर है। औरत ने झठ से मियाँ खोजी को गोद में उठा लिया और बगल में दबा कर ले चली, तो खोजी बहुत चकराए। लाख हाथ-पाँव मारे, मगर उसने जो दबाया, तो इस तरह ले चली, जैसे कोई चिड़ीमार जानवरों को फड़फड़ाते हुए ले चले।
अब सारा जमाना देख रहा है कि खोजी फड़कते हुए जाते हैं और वह औरत छम-छम करती चली जाती है।
खोजी – अब छोड़ती है, या नहीं?
औरत – अब उम्र-भर तो छोड़ने का नाम न लूँगी। हम भलेमानसों की बहू-बेटियाँ छोड़ देना क्या जानें। बस, एक के सिर हो रहीं। भागे कहाँ जाते हो मियाँ।
खोजी – मैं कुछ कैदी हूँ?
औरत – (चपत लगा कर) और नहीं, कौन है तू? अब मैं कहीं जाने भी दूँगी?
खोजी पीछे हटने लगे, तो उसने पट्टे पकड़ कर खूब बेभाव की लगाई। अब यह झल्लाए और गुल मचाया कि कोई है? लाना करौली? बहुत से तमाशाई खड़े हँस रहे थे।
एक – क्या है मियाँ? यह धर पकड़ कैसी?
औरत – आप कोई काजी हैं? यह हमारे मियाँ हैं, हम चाहे चपतियाएँ चाहे पीटें! किसी को क्या?
दूसरा – मेहरारू गर्दन दाबे उठाए लिए जात है, वह करौली निकारत है।
खोजी – बुरे फँसे!यारो, जरा मियाँ आजाद को सरा से बुलाना।
औरत ने फिर खोजी को गोद में उठाया और मशक की तरह पीठ पर रख कर ‘मसक दरियाव, ठंडा पानी’ कहती हुई ले चलीं।
एक आदमी – कैसे मर्द हो जी! औरत से जीत नहीं पाते? बस, इज्जत डुबो दी बिलकुल।
खोजी – अजी, इस औरत पर शैतान की फटकार। यह तो मरदों के कान काटती है।
इतने में मियाँ आजाद की नींद खुली, तो खोजी गायब। बाहर निकले, तो देखा खोजी को एक औरत दबाए खड़ी है। ललकार कर कहा – तू कौन है! उन्हें छोड़ती क्यों नहीं?
औरत ने खोजी को छोड़ दिया और सलाम करके बोली – हुजूर, मेरा इनाम हुआ। मैं बहुरूपिया हूँ।
दूसरे दिन खोजी मियाँ आजाद के साथ शहर की सैर करने चले, तो शहर भर के लौंडे-लहाड़िये साथ, पीछे-पीछे तालियाँ बजाते जाते हैं। एक बोला – कहो चड्डा, बीबी ने चाँद गंजी कर दी न? हत तेरे की! दूसरा बोला – कहो उस्ताद, खोपड़ी का क्या रंग है?
बेचारे खोजी को रास्ता चलना मुश्किल हो गया। दो-चार आदमियों ने बहुरूपिए की तारीफ की, तो खोजी जल-भुन कर खाक हो गए अब किसी से न बोलते हैं, न चालते। दुम दबाए, डग बढ़ाए, गर्दन झुकाए पत्तातोड़ भाग रहे हैं। वारे खुदा-खुदा करके दोपहर को फिर सराय में आए। नीम की ठंडी-ठंडी छाँह में लेट गए, तो एक भठियारी ने मुसकिरा के कहा – गाज पड़े ऐसी औरत पर, जो मियाँ को गोद में उठाए और बाजार भर में नचाए। गरज सराय को भठियारियों ने खोजी को ऐसा उँगलियों पर नचाया कि खुदा की पनाह! ऐसे झेंपे कि करौली तक भूल गए।
इतने में क्या देखते हैं कि एक लंबू डील-डौल का खूबसूरत जवान तमंचा कम से लगाए, ऊँची पगड़ी सिर पर जमाए, बाँकी-तिरछी छवि दिखाता हुआ अकड़ता चला आता है। भठियारियाँ छिप-छिप के झाँकने लगीं। समझीं कि मुसाफिर है, बोलीं – मियाँ, इधर आओ, यहाँ बिस्तर जमाओ। मियाँ मुसाफिर, देखो, कैसा साफ-सुथरा मकान है! पकरिया की ठंडी-ठंडी छाँह है, जरा तो तकलीफ होगी नहीं। सिपाही बोला – हमें बाजार से कुछ सौदा खरीदना है। कोई हमारे साथ चले, तो सौदा खरीद कर हम आ जायँ। एक भठियारी बोली – चलिए, हम चलते हैं। दूसरी बोली – लौंडी हाजिर है। सिपाही ने कहा – मैं किसी पराई औरत को नहीं ले जाना चाहता। कोई पढ़ा-लिखा मर्द चले, तो पाँच रुपए दें। मियाँ खोजी के कान में जो भनक पड़ी, तो कुलबुला कर उठ बैठे और कहा – मैं चलता हूँ, मगर पाँचों नकद गिनवा दीजिए। मैं अलसेट से डरता हूँ। सिपाही ने झट से पाँचों गिन दिए। रुपए तो खोजी ने टेंट में रखे और सिपाही के साथ चले। रास्ते में जो इन्हें देखता है, कहकहा लगाता है – बचा की खोपड़ी जानती होगी, छठी का दूध याद आ गया होगा! जब चारों और से बौछारें पड़ने लगीं तो खोजी बहुत ही झल्लाए और गुल मचा कर एक-एक को डाँटने लगे। चलते-चलते एक अफीम की दुकान पर पहुँचे।
सिपाही – कहो भई जवान, है शौक! पिलवाऊँ?
खोजी – अजी, मैं तो इस पर आशिक हूँ।
सिपाही ने मियाँ खोजी को खूब अफीम पिलाई। जब खूब सरूर गँठे तो सिपाही ने उनको साथ लिया और चला। बातें होने लगी। खोजी बोले – भई, अफीम पिलाई है, तो मिठाई भी खिलवाओ। एहसान करे, तो पूरा।
सिपाही – अजी, अभी लो। ये चार गंडे की पँचमेल मिठाई हलवाई की दुकान से लाओ।
हलवाई की दुकान से खोजी ने लड़-लड़ के खूब मिठाई ली और झूमते हुए चले। भूख के मारे रास्ते ही में डलियाँ निकाल कर चखनी शुरू कर दीं। सिपाही कनखियों से देखता जाता था; मगर आँख चुरा लेता था। आखिर दोनों आदमी एक बजाज की दुकान पर पहुँचे। सिपाही ने खोजी की तरफ इशारा करके कहा – इनके अँगरखे के बराबर जामदानी निकाल दीजिए।
बजाज – हुजूर, अपने अँगरखे के लिए लें, तो कुछ हमें भी मिल रहे। इनका तो अँगरखा और पाजामा सब गज भर में तैयार हैं।
खोजी – निकालो, जामदानी निकालो। बहुत बातें न बनाओ। अभी एक धक्का दूँ, तो पचास लुढ़कनियाँ खाओ।
बजाज – लीजिए, क्या जामदानी है। बहुत बढ़िया! मोल-तोल दस रुपए गज। मगर सात रुपए गज से कौड़ी कम न होगी।
सिपाही – भई, हम तो पाँच रुपए के दाम देंगे।
बजाज – अब तकरार कौन करे। आप छह के दाम दे दें।
सिपाही – अच्छा, दो गज उतार दो।
सिपाही ने बजाज से सब मिला कर कोई पचीस रुपए का कपड़ा लिया और गट्ठा बाँध कर उठ खड़ा हुआ।
बजाज – रुपए?
सिपाही – अभी घर से आकर देंगे? जरा कपड़े पसंद तो करा लाएँ। यह हमारा साला बैठा है, हम अभी आए।
वह तो ले-दे कर चल दिया। खोजी अकेले रह गए। जब बहुत देर हो गई, तो बजाज ने गर्दन नापी – कहाँ चले आप! कहाँ, चले कहाँ?
खोजी – हम क्या किसी के गुलाम हैं?
बजाज – गुलाम नहीं हो तो और हो कौन? तुम्हारे बहनोई तुमको बिठा कर कपड़ा ले गए हैं।
खोजी पिनक से चौंके थे। सिपाही और बजाज में जब बातें हो रही थीं तब वह पिनक में थे। झल्ला कर बोले – अबे किसका बहनोई? और कौन साला? कुछ वाही हुआ है?
इतने में एक आदमी ने आ कर खोजी से कहा – तुम्हारे बहनोई तुम्हें यह खत दे गए हैं। खोजी ने खोल कर पढ़ा तो लिखा था –
‘हत् तेरे की, क्यों? खा गया न झाँसा? देख, अबकी फिर फाँसा। तब की बीवी बनके चपतियाया, अब की बहनोई बनके झाँसा दिया। और अफीम खाओगे?’
खोजी ‘अरे!’ करके रह गए। वाह रे बहुरूपिए, अच्छा घनचक्कर बनाया। खैर, और तो जो हुआ, वह हुआ, अब यहाँ से छुटकारा कैसे हो। बजाज इस दम टटरूँ-टूँ, और करौली पास नहीं। मगर एक दफे रोब जमाने की ठानी। दुकान के नीचे उतर कर बोले – इस फेर में भी न रहना! मैंने बड़े-बड़ों की गर्दनें ढीली कर दी है।
बजाज – यह रोब किसी और पर जमाइएगा। जब तक आप के बहनोई न आएँगे, दुकान से हिलने न दूँगा।
बारे थोड़ी ही देर में एक आदमी ने आ कर बजाज को पचीस रुपए दिए और कहा – अब इनको छोड़ दीजिए।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 34
इधर तो ये बातें हो रही थीं, उधर आजाद से एक आदमी ने आकर कहा – जनाब, आज मेला देखने न चलिएगा? वह-वह सूरतें देखने में आती हैं कि देखता ही रह जाय।
नाज से पायँचे उठाए हुए, शर्म से जिस्म को चुराए हुए!
नशए-बादए शबाब से चूर, चाल मस्ताना, हुस्न पर मगरूर।
सैकड़ों बल कमर को देती हुई, जाने ताऊस कब्क लेती हुई।
चलिए और मियाँ खोजी को साथ लीजिए। आजाद रँगीले थे ही, चट तैयार हो गए। सज-धज कर अकड़ते हुए चले। कोई पचास कदम चले लोंगे कि एक झरोखे से आवाज आई –
खुदा जाने यह आराइश करेगी कत्ल किस-किसको;
तलब होता है शानः आईने को याद करते हैं।
मियाँ आजाद ने जो ऊपर नजर की, तो झरोखे का दरवाजा खोजी की आँख की तरह बंद हो गया। आजाद हैरान कि खुदा, यह माजरा क्या है? यह जादू था, छलावा था, आखिर था क्या? आजाद के साथी ने यह रंग देखा, तो आहिस्ते से कहा – हजरत, इस फेर में न पड़िएगा।
इतने में देखा कि वह नाजनीन फिर नकाब उठाए झरोखे पर आ खड़ी हुई और अपनी महरी से बोली – फीनस तैयार कराओ, हम मेले जायँगे।
आजाद कुछ कहनेवाले ही थे कि ऊपर से एक कागज नीचे आया। आजाद ने दौड़ कर उठाया, तो मोटे कलम से लिखा था –
‘दिल्लगी करती हैं परियाँ मेरे दीबाने से’।
आजाद पढ़ते ही उछल पड़े। यह शेर पढ़ा –
‘हम ऐसे हो गए अल्लाहो-अकबर! ऐ तेरी कुदरत;
हमारे नाम से अब हाथ वह कानों पै धतरे हैं।’
इतने में एक महरी अंदर से आई और मुसकिरा कर मियाँ आजाद को इशारे से बुलाया। आजाद खुश-खुश महताबी पर पहुँचे, तो दिल बाग बाग हो गया। देखा, एक हसीना बड़े ठाट-बाट से एक कुर्सी पर बैठी है। मियाँ आजाद को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और बोली – मालूम होता है, आप चोट खाए हैं; किसी के जुल्फ में दिल फँसा है –
खुलते हैं कुछ इश्तियाक के तौर;
रुख मेरी तरफ, नजर कहीं और।
आजाद ने देखा तो इस नाजनीन की शक्ल व सूरत हुस्नआरा से मिलती थी। वही सूरत, वही गुलाब सा चेहरा! वही नशीली आँखें! बाल बराबर भी फर्क नहीं। बोले – बरसों इस कूचे की सैर की; मगर अब दिल फँसा चुके।
हसीना – तो बिसमिल्लाह, जाइए।
आजाद – जैसी हुजूर की मरजी।
हसीना – वाह री बददिमागी! कहिए, तो आपका कच्चा चिट्ठा कह चलूँ? मियाँ आजाद आप ही का नाम है न? हुस्नआरा से आप ही की शादी होनेवाली है न?
आजाद – ये बातें आपको कैसे मालूम हुई?
हसीना – क्यों, क्या पते की कहीं! अब बता ही दूँ? हुस्नआरा मेरी छोटी चचाजाद बहन है। कभी-कभी खत आ जाता है। उसने आपकी तसवीर भेजी और लिखा है कि उन्हें बंबई में रोक लेना। अब आप हमारे यहाँ ठहरें। मैं आपको आजमाती थी कि देखूँ, कितने पानी में हैं। अब मुझे यकीन आ गया कि हुस्नआरा से आपको सच्ची मुहब्बत है।
आजाद – तो फिर मैं यहीं उठ आऊँ?
हसीना – जरूर।
आजाद – शायद आपके घर में किसी को नागवार गुजरे?
हसीना – वाह, आप खूब जानते हैं कि कोई शरीफजादी किसी अजनबी आदमी को इस रह बेधड़क अपने यहाँ न बुलाएगी। क्या मैं नहीं जानती कि तुम्हारे भाई साहब किसी गैर आदमी को बैठे देखेंगे, तो उनकी आँखों से खून टपकने लगेगा? मगर वह तो खुद इस वक्त तुम्हारी तलाश में निकले हैं। बहुत देर से गए हुए हैं, आते ही होंगे। अब आप मेरे आदमी को भेज दीजिए। आपका असबाब ले आए।
आजाद ने खोजी के नाम रुक्का लिखा –
ख्वाजा साहब,
असबाब ले कर इस आदमी के साथ चले आइए। यहाँ इत्तिफाक से हुस्नआरा की बहन मिल गईं। यार, हम-तुम दोनों हैं किस्मत के धनी। यहाँ अफीम की दुकान भी करीब ही है।
तुम्हारा
आजाद।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 35
खोजी ने दिल में ठान ली कि अब जो आएगा, उसको खूब गौर से देखूँगा। अब की चकमा चल जाय, तो टाँग की राह निकल जाऊँ। दो दफे क्या जानें, क्या बात हो गई कि वह चकमा दे गया। उड़ती चिड़िया पकड़नेवाले हैं। हम भी अगर यहाँ रहते होते, तो उस मरदूद बहुरूपिए को चचा ही बना कर छोड़ते।
इतने में सामने एकाएक एक घसियारा घास का गट्ठा सिर पर लादे, पसीने में तर आ खड़ा हुआ और खोजी से बोला – हुजूर, घास तो नहीं चाहिए?
खोजी – (खूब गौर से देख कर) चल, अपना काम कर। हमें घास-वास कुछ नहीं चाहिए। घास कोई ओर खाते होंगे।
घसियारा – ले लीजिए हुजूर, हरी दूब है।
खोजी – चल बे चल, हम पहचान गए। हमसे बहुत चकमेबाजी न करना बचा। अब की पलेथन ही निकाल डालूँगा। तेरे बहुरूपिए की दुम में रस्सा।
इत्तिफाक से घसियारा बहरा था। वह समझा, बुलाते हैं। इनकी तरफ आने लगा। तब तो मियाँ खोजी गुस्सा जब्त न कर सके और चिल्ला उठे – ओ गीदी, बस, आगे न बढ़ना; नहीं तो सिर धड़ से जुदा होगा। यह कह कर लपके और गट्ठा उनके ऊपर गिर पड़ा। तब आप गट्ठे के नीचे से गुर्राने लगे – अबे ओ गीदी, इतनी करौलियाँ भोंकूँगा कि छठी का दूध याद आ जाएगा। बदमाश ने नाकों दम कर दिया। बारे बड़ी मुश्किल से आप गट्ठे के नीचे से निकले और मुँह फुलाए बैठे थे कि आजाद का आदमी आ कर बोला – चलिए, आपको मियाँ आजाद ने बुलाया है।
खोजी – किससे कहता है? कंबख्त अबकी सँदेसिया बन कर आया। तब की घसियारा बना था। पहले औरत का भेस बदला! फिर सिपाही बना। चल, भाग।
आदमी – रुक्का तो पढ़ लीजिए।
खोजी – मैं जलती-बलती लड़की से दाग दूँगा, समझे? मुझे कोई लौंडा मुकर्रर किया है? तेरे जैसे बहुरूपिए यहाँ जेब में पड़े रहते हैं।
आदमी ने जा कर आजाद से सारा हाल कहा-हुजूर, वह तो कुछ झल्लाय से मालूम होते हैं। मैं लाख-लाख कहा किया, उन्होंने एक तो सुनी नहीं। बस, दूर ही दूर से गुर्राते रहे।
आजाद – खत का जवाब लाए?
आदमी – गरीबपरवर, कहता जाता हूँ कि करीब फटकने तो दिया नहीं जवाब किससे लाता?
ये बातें हो ही रही थीं कि उस हसीना के शौहर आ पहुँचे और कहने लगे – शहर भर घूम आया, सैकड़ों चक्कर लगाए, मगर मियाँ आजाद का कहीं पता न चला। सराय में गया, तो वहाँ खबर मिली कि आए हैं। एक साहब बैठे हुए थे, उनसे पूछा तो बड़ी दिल्लगी हुई। ज्यों ही मैं करीब गया, तो वह कुलबुला कर उठ खड़े हुए – कौन? आप कौन? मैंने कहा – यहाँ मियाँ आजाद नामी कोई साहब तशरीफ लाए हैं? बोले – फिर आपसे वास्ता? मैंने कहा – साहब, आप तो काटे खाते हैं! तो मुझे गौर से देख कर बोले – इस बहुरूपिए ने तो मेरी नाक में दम कर दिया। आज भलेमानस की सूरत बना कर आए हैं।
बेगम – जरी ऊपर आओ देखो, हमने मियाँ आजाद को घर बैठे बुलवा लिया। न कहोगे।
आजाद – आदाब बजा लाता हूँ।
मिरजा – हजरत, आपको देखने के लिए आँखें तरसती थीं।
आजाद – मेरी वजह से आपको बड़ी तकलीफ हुई।
मिरजा – जनाब, इसका जिक्र न कीजिए। आपसे मिलने की मुद्दत से तमन्ना थी।
उधर मियाँ खोजी अपने दिल में सोचे कि बहुरूपिए को कोई ऐसा चकमा देना चाहिए कि वह भी उम्र भर याद करे। कई घंटे तक इसी फिक्र में गोते खाते रहे। इतने में मिरजा साहब का आदमी फिर आया। खोजी ने उससे खत ले कर पढ़ा, तो लिखा था – आप इस आदमी के साथ चले आइए, वर्ना बहुरूपिया आपको फिर धोखा देगा। भाई, कहा मानो, जल्द आओ। खोजी ने आजाद की लिखावट पहचानी, तो असबाब वगैरह, समेट कर खिदमतगार के सिपुर्द किया और कहा – तू जा, हम थोड़ी देर में आते हैं। खिदमतगार तो असबाब ले कर उधर चला, इधर आप बहुरूपिया के मकान का पता पूछते हुए जा पहुँचे। इत्तिफाक से बहुरूपिया घर में न था, और उसकी बीवी अपने मैके भेजने के लिए कपड़ों को एक पार्सल बना रही थी। तीस रुपए की एक गड्डी भी उसमें रख दी थी। पार्सल तैयार हो चुका, तो लौंडी से बोली – देख, कोई पढ़ा-लिखा आदमी इधर से निकले, तो इस पार्सल पर पता लिखवा लेना। लौंडी राह देख रही थी कि मियाँ खोजी जा निकले।
खोजी – क्यों नेकबख्त, जरा पानी पिला दोगी?
लौंडी यह सुनते ही फूल गई। खोजी की बड़ी खातिरदारी की, पान खिलाया, हुक्का पिलाया और अंदर से पार्सल ला कर बोली – मियाँ, इस पर पता तो लिख दो।
खोजी – अच्छा, लिख दूँगा। कहाँ जायगा। किसके नाम है? कौन भेजता है?
लौंडी – मैं बीबी से सब हाल पूछ आऊँ, बतलाऊँ।
खोजी – अच्छी बात है, जल्द आना।
लौंडी दौड़ कर पूछ आई और पता-ठिकाना बताने लगी।
खोजी चकमा देने तो गए ही थे, झट पार्सल पर अपना लखनऊ का पता लिख दिया और अपनी राह ली। लौंडी ने फौरन डाकखाने में पार्सल दिया और रजिस्ट्री कराके चलती हुई। थोड़ी देर के बाद बहुरूपिया जो घर में घुसा, तो बीवी ने कहा – तुम भी बड़े भुलक्कड़ हो। पार्सल पर पता तो लिखा ही न था। हमने लिखवा कर भेज दिया।
बहुरूपिया – देखूँ, रसीद कहाँ है? (रसीद पढ़ कर) ओफ! मार डाला। बस, गजब ही हो गया।
बीवी – खैर तो है?
बहुरूपिया – तुमसे क्या बताऊँ? यह वही मर्द है, जिससे मैंने कई रुपए ऐंठे थे। बड़ा चकमा दिया।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 36
मियाँ आजाद मिरजा साहब के साथ जहाज की फिक्र में गए। इधर खोजी ने अफीम की चुस्की लगाई और पलंग पर दराज हुए। जैनब लौंडी जो बाहर आई, तो हजरत को पिनक में देख कर खूब खिलखिलाई और बेगम से जाकर बोली – बीबी, जरी परदे के पास आइए, तो लोट-लोट जाइए। मुआ खोजी अफीम खाए औंधे मुँह पड़ा हुआ है। जरी आइए तो सही। बेगम ने परदे के पास से झाँका; तो उनको एक दिल्लगी सूझी। झप से एक बत्ती बनाई और जैनब से कहा कि ले, चुपके से इनकी नाक में बत्ती कर। जैनब एक ही शरीर; बिस की गाँठ। वह जा कर बत्ती में तीता मिर्च लगा लाई और खोजी की खटिया के नीचे घुस कर मियाँ खोजी की नाक में आधी बत्ती दाखिल ही तो कर दी। उफ! इस वक्त मारे हँसी के लिखा नहीं जाता। खोजी जो कुलबुला कर उठे, तो आःछी, छीं-छीं, ओ गेद-अःछीः। ओ गीदी कहने को थे कि छींक ने जबान बंद कर दी। इत्तिफाक से पड़ोस में एक पुराने फैशन के भले आदमी नौकरी की तलाश में एक हाकिम के पास जानेवाले थे। वह जैसे ही सामने आए, वैसे ही खोजी ने छींका। बेचारे अंदर चले गए। पान खाया, जरा देर इधर-उधर टहले। फिर ड्योढ़ी तक पहुँचे कि छींक पड़ी। फिर अंदर गए। चिकनी डली खाई। रवाना होने ही को थे कि इधर आःछीं की आवाज आई और उधर बीवी ने लौंडी दौड़ायी कि चलिए, अंदर बुलाती हैं। अंदर जाके उन्होंने जूते बदले, पानी पिया और रुख्सत हुए। बाहर आ कर इक्के पर बैठने ही को थे कि खोजी ने नाक की दुनाली बंदूक से एक और फैर दाग दी। तब तो बहुत ही झल्लाए। हत तेरी नाक काटूँ और पाऊँ तो कान भी साफ कतर लूँ। मर्दक ने मिर्चों की नास ली है क्या? नाक, क्या नाक छीनकी की झाड़ी है। मनहूस ने घर से निकलना मुश्किल कर दिया। बीवी अंदर से बोली कि नाक ही कटे मुए की। जरी जैनब को बुला कर पूछो तो कि यह किस नकटे को बसाया है? अल्लाह करे, गधे की सवारी नसीब हो।
मियाँ-बीवी पानी पी-पी कर बेचारे को कोस रहे थे। उधर खोजी का छींकते-छींकते हुलिया बिगड़ रहा था। बेगम साहबा घर के अंदर हँसी के मारे लोटी पड़ती थीं। मगर वाह री जैनब! वह दम साधे अब तक चारपाई के नीचे दबकी पड़ी थी। मगर मारे हँसी के बुरा हाल था। जब छींकों का जोर जरा कम हुआ, तो उन्होंने गुल मचाया, ओ गीदी, भला बे बहुरूपिए, निकाली न कसर तूने! अच्छा बचा, चचा ही बना कर छोड़ूँ तो सही। चारपाई से उठे, मुँह-हाथ धोया। ठंडे-ठंडे पानी से खूब तरेड़े दिए; खोपड़ी पर खूब पानी डाला, तब जरा तसकीन हुई। बैठ कर बहुरूपिए को कोसने लगे – खुदा करे, साँप काटे मरदूद को। न जाने मेरे साथ क्या जिद पड़ गई है। कल तेरे छप्पर पर चिनगारी न रख दी, तो कहना।
यों कोसते हुए उन्होंने सब दरवाजे बंद कर लिए कि बहुरूपिया फिर न आ जाय। अब तो जैनब चकराई। कलेजा धक-धक करने लगा और करीब था कि चीख कर निकल भागे, मगर जब मियाँ खोजी चारपाई पर दराज हो गए और नाक पर हाथ रख लिया, तो जैनब की जान में जान आई। चुपके से खिसकती हुई निकली और अंदर भागी।
बेगम – जाओ, फिर नाक में बत्ती करो।
जैनब – ना बीबी, अब मैं नहीं जाने की। सिड़ी-सौदाई आदमी के मुँह कौन लगे।
जैनब का देवर दस बरस का छोकड़ा बड़ा ही शरीर था। नस-नस में शरारत भरी हुई थी। कमरे में जाके झाँका, तो देखा, हजरत पिनक ले रहे हैं। कुत्ता घर में बँधा था। झट उसको जंजीर से खोल जंजीर में रस्सी बाँधी और बाहर ले जा कर चारपाई के पाए में कुत्ते को बाँध दिया। खोजी की टाँग में भी वही रस्सी बाँध दी और चंपत हो गया। कुत्ते ने जो भूँकना शुरू किया, तो खोजी चौक कर उठे। देखते हैं तो टाँग में रस्सी और रस्सी में कुत्ता। अब इधर खोजी चिल्लाते हैं, उधर कुत्ता चिल्ल-पों मचाता है। जैनब दौड़ी हुई घर में से आई। खैर तो है! क्या हुआ? अरे, तुम्हारी टाँग में कुत्ता कौन बाँध गया?
खोजी – यह उसी बहुरूपिए मर्दक का काम है, किसी और को क्या पड़ी थी?
जैनब – मगर, मुआ आया किधर से? किवाड़े तो सब बंद पड़े हुए हैं।
खोजी – यही तो मुझे भी हैरत है। मगर अब की मैंने भी नाक पर इस जोर से हाथ रखा कि बहुरूपिया भी मेरा लोहा मान गया होगा। मगर यह तो सोचो कि आया किस तरफ से?
जैनब – मियाँ, कहते डर मालूम होता है। इस जगह एक शैतान रहता है।
खोजी – शैतान! अजी नहीं, यह उस बहुरूपिए ही का काम है।
जैनब – अब तुम यों थोड़े ही मानोगे। एक दिन शैतान चारपाई उलट देगा, तो मालूम होगा।
खोजी – यह बात थी, तो अब तक हमसे क्यों न कहा भला! जान लोगी किसी की?
जैनब – मैं भी कहूँ कि बंद दरवाजे से कुत्ता आया कैसे? मेरा माथा ठनका था, मुदा बोली नहीं।
खोजी – अब आजाद आए, तो उनको आड़े हाथों लूँ। वह भूत चुड़ैल एक के भी कायल नहीं। सोएँ तो मालूम हो।
खोजी तो इसी फिक्र में बैठे-बैठे पिनक लेने लगे। आजाद और मिरजा साहब आए, तो उनहें ऊँघते देख कर दोनों हँस पड़े।
आजाद – (खोजी के कान में) क्या पहुँच गए?
खोजी ने हाँक लगाई – ‘बहुरूपिया, बहुरूपिया’, और इस जोर से आजाद का हाथ पकड़ लिया कि अपने हिसाब चोर को गिरफ्तार किया था। आँखें तो हजरत की बंद है, मगर बहुरूपिया बहुरूपिया गुल मचाते जाते हैं। मियाँ आजाद ने इस जोर से झटका दिया कि हाथ छूट गया और खोजी फट से मुँह के बल जमीन पर आ रहे। आजाद ने गुल मचाया कि भागा, भागा, वह बहुरूपिया भागा जाता हे। खोजी भी ‘लेना-लेना’ कहते हुए लपके। दस ही पाँच कदम चल कर आप हाँफ गए और बोले – ‘निकल गया, निकल गया।’ मैंने तो गर्दन नापी थी, मगर नाली बीच में आ गई इससे बच गया, वर्ना पकड़ ही लेता।
आजाद – अजी, मैं तो देख ही रहा था कि आप बहुरूपिए के कल्ले तक पहुँच गए थे।
इतने में एक काजी साहब मियाँ आजाद से मिलने आए। आजाद ने नाम पूछा, तो बोले – अब्दुल कुद्दूस।
खोजी – क्या! उस्तु खुद्दूस! यह नई गढ़त का नाम है।
आजाद – निहायत गुस्ताख आदमी हो तुम। बस, चोंच सँभालो।
खोजी की आँखें बंद थीं। जब आजाद ने डाँट बताई तो आपने आँखें खोल दीं। काजी साहब पर नजऱ पड़ी। देखते ही आग हो गए और बकने लगे – और देखिएगा जरी, मरदूद आज मौलाना बन कर आया है। भई, गिरगिट के से रंग बदलता है। उस दिन घसियारा बना था; आज मौलवी बन बैठा।
काजी साहब बहुत झेंपे। मगर आजाद ने कहा कि जनाब, यह दीवाना है। यों ही ऊलजलूल बका करता है।
जब काजी साहब चले गए, तब आजाद ने खोजी को खूब ललकारा – नामाकूल! बिना देखे-भाले, बेसमझे-बूझे, जो चाहता है, बक देता है। कुछ पढ़े-लिखे होते, तो आदमियों की कद्र करते। लिखे न पढ़े, नाम मुहम्मद फाजिल।
खोजी – जी हाँ, बस, अब आप ही बड़े लुकमान बने हैं। हमको यह समझाते हैं कि कोई गधा है। और यहाँ अरबी चाटे बैठे हैं। अफआल, फालुआ मा फालअत। और सुनिए -गल्लम्, गल्लमा, गल्लूम।
मिरजा – यह कौन सीगा है भाई?
खोजी – जी, यह सीगा अल्लम-गल्लम है। यहाँ दीवान के दीवान जबान पर हैं। मगर मुफ्त की शेखी जताने से क्या फायदा!
मिरजा साहब के घर के सामने एक तालाब था। खोजी अभी अपने कमाल की डींग मार ही रहे थे कि शोर मचा – एक लड़का डूब गया। दौड़ो, दौड़ो। पैराक अपने करतब दिखाने लगे। कोई पुल पर से कूदा धम। कोई चबूतरे से आया तड़। कोई मल्लाही चीरता है, कोई खड़ी लगा रहा है। नौसिखिये अपने किनारे ही पर हाथ पाँव मारते हैं, और डरपोक आदमी तो दूर से ही सैर देख रहे हैं। भई, पानी और आग से जोर नहीं चलता, इनसे दूर ही रहना चाहिए।
आजाद ने जो शोर सुना तो दौड़े हुए पुल पर आए और धम से कूद पड़े। गोता लगाते ही उस लड़के का हाथ मिल गया। निकाल कर किनारे लाए, तो देखा, जान बाकी है। लोगों ने मिल कर उसको उलटा लटकाया। जब पानी निकल गया, तो लड़के को होश आया।
अब सुनिए कि वह लड़का बंबई के एक पारसी रईस रुस्तम जी का एकलौता लड़का था। अभी आजाद लड़के को होश में लाने की फिक्र ही कर रहे थे कि किसी ने जाकर रुस्तम जी को यह खबर सुनाई। बेचारे दौड़े आए और आजाद को गले से लगा लिया।
रुस्तम – आपने अपने लड़के को डूबने से बचाया। बंदा आपका बहुत शुक्रगुजार है।
आजाद – अगर आपस में इतनी हमदर्दी भी न हो, तो आदमी ही क्या?
खोजी – सच है, सच है। हम ऐसे शेरों के तुम ऐसे शेर ही होते हैं। मैं भी अगर यहाँ होता, तो जरूर कूद पड़ता। मगर यार, अब दुआ माँगनी पड़ी कि यह मोटी तोंदवाला भी किसी दिन गोता खाय, तो फिर यारों के गहरे हैं।
आजाद – (पारसी से) मैं बड़े मौके से पहुँच गया!
रुस्तम – अपने को बड़ी खुशी का बातचीत।
खोजी – कुछ उल्लू का पट्ठा मालूम होता है।
रुस्तम – काल आप आवे, तो हमारा लेडी लोग आपको गाना सुनावें।
खोजी – अजी, क्या बेवक्त की शहनाई बजाते हो? अजी, कुछ अफीम घोलो, चुस्की लगाओ, मिठाई मँगवाओ। रईस की दुम बने हैं।
आजाद – कल मैं जरूर आऊँगा।
रईस – आप तो अपना का बाप है।
खोजी – बल्कि दादा। खूब पहचाना, वाह पट्ठे!
रुस्तम जी आजाद से यह वादा ले कर चले गए, तो खोजी और आजाद भी घर आए। शाम को रुस्तम जी ने पाँच हजार रुपयों की एक थैली आजाद के पास भेजी और खत में लिखा कि आप इसे जरूर कबूल करें। मगर आजाद ने शुक्रिये के साथ लौटा दिया।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 37
जरा ख्वाजा साहब की भंगिमा देखिएगा। वल्लाह, इस वक्त फोटो उतारने के काबिल है। न हुआ फोटो। सुबह का वक्त है। आप खारुए की एक लुंगी बाँधे पीपल के दरख्त के साये में खटिया बिछाए ऊँघ रहे हैं, मगर गुड़गुड़ी भी एक हाथ में थामे हैं। चाहे पिएँ न, मगर चिलम पर कोयले दहकते रहें? इत्तिफाक से एक चील ने दरख्त पर से बीट कर दी। तब आप चौंके और चौंकते ही आ ही गए। बहुत उछले-कूदे और इतना गुल मचाया कि मुहल्ला भर सिर पर उठा लिया। हत तेरे गीदी की, हमें भी कोई वह समझ लिया है। आज चील बन कर आया है। करौली तो वहाँ तक पहुँचेगी नहीं; तोड़ेदार बंदूक होती, तो वह ताक के निशाना लगाता कि याद ही करता।
आजाद – यह किस पर गर्म हो रहे हो ख्वाजा साहब?
खोजी – और ऊपर से पूछते हो, किस पर गर्म हो रहे हो? गर्म किस पर होंगे! वही बहुरूपिया है, जो मौलवी बन कर आया था।
मिरजा – तो फिर अब उसे कुछ सजा दीजिए।
खोजी – सजा क्या खाक दूँ! मैं जमीन पर, वह आसमान पर। कहता तो हूँ कि तोड़ेदार बंदूक मँगवा दीजिए, तो फिर देखिए, कैसा निशाना लगाता हूँ। मगर आपको क्या पड़ी है। जाएगा तो गरीब ख्वाजा के माथे ही।
मिरजा – हम बताएँ, एक जीना मँगवा दें और आप पेड़ पर चढ़ जायँ; भाग कर जायगा कहाँ?
खोजी – (उछल कर) लाना हाथ।
मिरजा साहब ने आदमी से कहा कि बड़ा जना अंदर से ले आओ; मगर जल्द लाना। ऐसा न हो कि बैठ रहो।
खोजी – हाँ मियाँ, इसी साल आना। मेरे यार, देखो, ऐसा न हो कि गीदी भाग निकले।
आदमी जब अंदर सीढ़ी लेने गया, बेगम ने पूछा – सीढ़ी क्या होगी?
आदमी – हुजूर, वही जो सिड़ी हैं खफकान, उन पर कहीं चील ने बीट कर दी; तो अब सीढ़ी लगा कर पेड़ पर चढ़ेंगे।
हँसोड़ औरत, खूब ही खिलखिलाईं और फौरन, छत पर जा पहुँची। आबी दुपट्टा खिसका जाता है, जूड़ा खुला पड़ता है और जैनब को ललकार रही हैं कि उससे कहो, जल्द सीढ़ी ले जाय। मियाँ खोजी ने सीढ़ी देखी, तो कमर कसी और काँपते हुए जीने पर चढ़ने लगे। जब आखिरी जीने पर पहुँच कर दरख्त की टहनी पर बैठे, तो चील की तरफ मुँह करके बोले – गाँस लिया, गाँस लिया; फाँस लिया, फाँस लिया, हत तेरे गीदी की, अब जाता कहाँ है? ले, अब मैं भी कल्ले पर आ पहुँचा। बचा, आज ही तो फँसे हो। रोज झाँसे देकर उड़छू हो जाया करते थे। अब सोचो तो, जाओगे किधर से? ले, आइए बस; अब चोट के सामने। मैंने भी करौली तेज कर रखी है।
इतने में पीछे फिर कर जो देखते हैं, तो जीना गायब। लगे सिर पीटने। इधर चील भी फुर से उड़ गई। इधर के रहे न उधर के। बेगम साहबा ने जो यह कैफियत देखी, तो तालियाँ बजा कर हँसने लगीं।
खोजी – यह मिरजा साहब कहाँ गए। जारी चार आँखें तो कीजिए हमसे। आखिर हमको आसमान पर चढ़ा कर गायब कहाँ हो गए? अरे यारो, कोई साँस डकार ही नहीं लेता। अरे मियाँ आजाद! मिरजा साहब! कोई है, या सब मर गए? आखिर हम कब तक यहाँ टँगे रहें?
बेगम – अल्लाह करे, पिनक आए।
खोजी – यह कौन बोला? (बेगम को देख कर) वाह हुजूर, आपको तो ऐसी दुआ न देनी चाहिए।
मियाँ आजाद सोचे कि खोजी अफीमी आदमी, ऐसा न हो, ऐसा न हो, पाँव डगमगा जायँ, तो मुफ्त का खून हमारी गर्दन पर हो। आदमी से कहा – जीना लगा दो। बेगम ने जो सुना, तो हजारों कसमें दीं – खबरदार, सीढ़ी न लगाना। बारे सीढ़ी लगा दी गई और खोजी नीचे उतरे। अब सबसे नाराज हैं। सबको आँखें दिखा रहे हैं – आप लोगों ने क्या मुझे मसखरा समझ लिया है। आप लोगों जैसे मेरे लड़के होंगे।
इतने में एक आदमी ने आ कर मिरजा साहब को सलाम किया।
मिरजा – बंदगी। कहाँ रहे सलारी, आज तो बहुत दिन के बाद दिखाई दिए।
सलारी – कुछ न पूछिए खुदावंद, बड़ी मुसीबत में फँसा हूँ।
मिरजा – क्या है क्या? कुछ बताओ?
सलारी – क्या बताऊँ, कहते शर्म आती है। परसों मेरा दामाद मेरी लड़की को लिए गाँव जा रहा था। जब थाने के करीब पहुँचा, तो थानेदार साहब घोड़े पर सवार हो कर कहीं जा रहे थे। इनको देखते ही बाग रोक ली और मेरे दामाद से पूछा – तुम कौन हो? उसने अपना नाम बताया। अब थानेदार साहब इस फिक्र मे हुए कि मेरी लड़की को बहला कर रख लें और दामाद को धता बता दें। बोले – बदमाश, यह तेरी बीवी नहीं हो सकती। सच बता, यह कौन है? और तू इसे कहाँ से भगा लाया है?
दामाद – यह मेरी जोरू है।
थानेदार – सूअर, हम तेरा चालान कर देंगे। तेरी ऐसी किस्मत कहाँ कि यह हसीना तुझको मिले! अगर तू हमारी नौकरी कर ले तो अच्छा; नहीं तो हम चालान करते हैं। (औरत से) तुम कौन हो, बोलो?
दामाद – दरोगा जी, आप मुझसे बातें कीजिए।
मेरी लड़की मारे शर्म के गड़ी जाती थी। गर्दन झुका कर थर-थर काँपती थी अपने दिल में सोचती थी कि अगर जमीन में गढ़ा हो जाता, तो मैं धँस जाती। सिपाही अलग ललकार रहा है और थानेदार अलग कल्ले पर सवार।
दामाद – मेरे साथ किसी सिपाही को भेज दीजिए। मालूम हो जाय कि यह मेरी ब्याहता बीवी है या नहीं।
थानेदार – चुप बदमाश, मैं बदमाशों की आँख पहचान जाता हूँ। तुम कहाँ के ऐसे खुशनसीब हो कि ऐसी परी तुम्हारे हाथ आई। यह सब बनावट की बातें हैं।
सिपाही – हाँ, दारोगा जी, यही बात है।
आखिर थानेदार साहब मेरी लड़की को एक दरख्त की आड़ में ले गए ओर सिपाही ने मेरे दामाद को दूसरी तरफ ले जाके खड़ा किया। थानेदार बोला – बीवी, जरा गर्दन तो उठाओ। भला तुम इस परकटे के काबिल हो! खुदा ने चेहरा तो नूर सा दिया है, लेकिन शौहर लंगूर सा।
लड़की – मुझे वह लंगूर ही पसंद है।
इधर तो थानेदार साहब यह इजहार ले रहे थे, उधर सिपाही मेरे दामाद को और ही पट्टी पढ़ा रहे थे। भाई, सुनो, सूबेदार साहब के सामने तो मैं उनकी सी कह रहा था। न कहूँ, तो जाऊँ कहाँ? मगर इनकी नीयत बहुत खराब है। छटा हुआ गुरगा है।
दामाद – और कुछ नहीं, बस, मैं समझ गया कि फाँसी जरूर पाऊँगा। अब तो मुझे चाहे जाने दे या न जाने दे मैं इसे बेमारे न रहूँगा। अब बेइज्जती में बाकी क्या रह गया।
थानेदार – सिपाही, सिपाही, यह कहती हैं कि यह आदमी इन्हें भगा लाया है।
लड़की – जिसने यह कहा हो, उस पर आसमान फट पड़े।
दामाद – अब आपकी मरजी क्या है? जो हो, साफ-साफ कहिए।
खैर, थानेदार साहब एक कुर्सी पर डट गए और मेरी लड़की से कहा कि तुम इस सामनेवाली कुर्सी पर बैठो। अब खयाल कीजिए कि गृहस्थ औरत बिना घूँघट निकाले कुएँ तक पानी भरने भी नहीं जाती, वह इतने आदमियों के सामने कुर्सी पर कैसे बैठती। सिपाही झुक-झुक कर देख रहे थे और वह बेचारी गर्दन झुकाए बुत की तरह खड़ी थी। तब थानेदार ने धमक कर कहा – तुम दस बरस के लिए भेजे जाओगे। पूरे दस बरस के लिए!
दामाद – जब कोई जुर्म साबित हो जाय।
थानेदार – हाँ, आप कानून भी जानते हैं? तो हम अब जाब्ते की कार्रवाई करें।
दामाद – यह कुल कार्रवाई जाब्ते ही की तो है। खैर, इस वक्त तो आपके बस में हूँ, जो चाहे कीजिए। मगर मेरा खुदा सब देख रहा है।
थानेदार – तुम हमारा कहा क्यों नहीं मान लेते? हम बस, इतना चाहते हैं कि तुम नौकरी कर लो और अपनी जोरू को ले कर यहीं रहा करो।
दामाद – आपसे मैं अब भी मिन्नत से कहता हूँ कि इस बात को दिल से निकाल डालिए। नहीं तो बात बढ़ जायगी।
इतने में किसी ने पीछे से आ कर मेरे दामाद की मुश्कें कस लीं और ले चले; और एक सिपाही मेरी लड़की को थानेदार साहब के घर की तरफ ले चला। अब रात का वक्त है। एक कमरे में थानेदार लड़की के पैरों पर गिर पड़ा। उसने एक ठोकर दी और झपट कर इस तेजी से भागी कि थानेदार के होश उड़ गए। अब गौर कीजिए कि कमसिन औरत, परदेस का वास्ता, अँधेरी रात, रास्ता गुम, मियाँ नदारद। सोची, या खुदा कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? कभी मियाँ की मुसीबत पर रोती, कभी अपनी हालत पर। इस तरह गिरती पडती चली जाती थी कि एक तिलंगे से भेंट हो गई। बोला – कौन जाता है? कौन जाता है छिपा हुआ? लड़की थर-थर काँपने लगी। डरते-डरते बोली – गरीब औरत हूँ। रास्ता भूल कर इधर निकल आई। आखिर बड़ी मुश्किल से कानों का करन-फूल दे कर अपना गला छुड़ाया। आगे बढ़ी, तो उसका शौहर मिल गया। सिपाहियों ने उसे एक मकान में बंद कर दिया था, मगर वह दीवार फाँद कर निकल भागा आ रहा था। दोनों ने खुदा का शुक्र किया और एक सराय में रात काटी। सुबह को मेरे दामाद ने थानेदार को घोड़े पर से खींच कर इतनी लकड़ियाँ मारीं कि बेदम हो गया। गाँववाले तो थानेदार के दुश्मन थे ही, एक ने भी न बचाया; बल्कि जब देखा कि अधमरा हो गया, तो दो-चार ने लातें भी जमाईं। अब मेरा दामाद मेरे घर में छिपा बैठा है। बतलाइए, क्या करूँ?
खोजी – मुझे तो मालूम होता है कि यह भी उसी बहुरूपिए की शरारत थी।
सलारी – कौन बहुरूपिया?
मिरजा – तुम्हारी समझ में न आएगा। यह किस्सा-तलब बात है।
सलारी – तो फिर मुझसे क्या हुक्म होता है? हम तो गरीब टके के आदमी हैं। मगर आबरूदार हैं।
आजाद – बस, जा कर चैन करो। जब शोर-गुल मचे, तो आना। सलाह की जायगी।
सलारी ने सलाम किया और चला गया।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 38
खोजी ने एक दिन कहा – अरे यारो, क्या अंधेर है। तुम रूम चलते-चलते बुड्ढे हो जाओगे। स्पीचें सुनीं, दावतें चखीं, अब बकचा सँभालो और चलो। अब चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, हम एक न मानेंगे। चलिए, उठिए। कूच बोलिए।
आजाद – मिरजा साहब, इतने दिनों में खोजी ने एक यही तो बात पक्की कही। अब जहाज का जल्द इंतिजाम कीजिए।
खोजी – पहले यह बताइए कि कितने दिनों का सफर है?
आजाद – इससे क्या वास्ता? हम कभी जहाज पर सवार हुए हों तो बताएँ।
खोजी – जहाज! हाय गजब! क्या तरी-तरी जाना होगा? मेरी तो रूह काँपने लगी। भैया, मैं नहीं जाने का।
आजाद – अजी, चलो भी, वहाँ तुरकी औरत के साथ तुम्हारा ब्याह कर देंगे।
खोजी – खुश्की-खुश्की चलो तो भई, मैं चलूँगा। समुद्र में जाते पाँव डगमगाता है।
मिरजा – जनाब, आपको शर्म नहीं आती? इतनी दूर तक साथ आए, अब साथ छोड़ देते हो? डूब मरने की बात है।
खोजी – क्या खूब! यों भी डूबूँ और वों भी डूबूँ। खुश्की ही खुश्की क्यों नहीं चलते?
मिरजा – आप भी वल्लाह, निरे चोंच ही रहे। खुश्की की राह से कितने दिनों में पहुँचोगे भला? खुश्की की एक ही कही।
खोजी – अब आपसे हुज्जत कौन करे। जहाज का कौन एतबार। जरा किसी सूराख की राह से पानी आया, और बस, पहुँचे जहन्नुम सीधे।
आजाद – तो न चलोगे? साफ-साफ बता दो। अभी सवेरा है।
खोजी – चलें तो बीच खेत, मगर पानी का नाम सुना और कलेजा दहल उठा। भला क्यों साहब, यह तो बताइए कि समुद्र का पाट गंगा के पाट से कोई दूना होगा या कुछ कम-बेश?
मिरजा – जी, बस और क्या। चलिए, आपको समुंदर दिखलावें न, थोड़े ही फासले पर है।
खोजी – क्यों नहीं। हमको ले चलिए और झप से चपरगट्टू करके जहाज पर बिठा दीजिए। एक शर्त से चलते हैं। बेगम साहबा जमानत करें। हमारे सिर की कसम खायँ कि जबरदस्ती न करेंगे।
आजाद – इसमें क्या दिक्कत है। चलिए, हम बेगम साहबा से कहलाए देते हैं। आप और आपके बाप, दोनों के सिर की कसम खा लें तो सही।
मिरजा – हाँ-हाँ, वह जमानत कर देंगी। आइए, उठिए।
मियाँ आजाद और मिरजा, दोनों मिल कर गए और बेगम से कहा – इस सिड़ी से इतना कह देना कि तू जहाज देखने जा। ये लोग जबरदस्ती सवार न करेंगे। बेगम साहबा ने जो सारी दास्तान सुनी, तो तिनक कर बोलीं कि हम न कहेंगे। आप लोगों ने जरा सी बात न मानी और सीढ़ी हटा ली। अच्छा, खैर, परदे के पास बुला लो।
खोजी ने परदे के पास आ कर सलाम किया; मगर जवाब कौन दे। बेगम साहबा तो मारे हँसी के लोटी जाती हैं। मियाँ आजाद के खयाल से अपनी चुलबुलाहट पर लजाती भी हैं और खिलखिलाती भी। शर्म और हँसी, दोनों ने मिल कर रुखसारों को और भी सुर्ख कर दिया। इतने में खोजी ने फिर हाँक लगाई कि हुजूर ने गुलाम को क्यों याद फरमाया है?
मिरजा – कहती हैं कि हम जमानत किए लेते हैं।
खोजी – आप रहने दीजिए, उन्हीं को कहने दीजिए।
बेगम – ख्वाजा साहब, बंदगी। आप क्या पूछते हैं।
खोजी – ये लोग मुझे जहाज-दिखाने लिए जाते हैं। जाऊँ या न जाऊँ? जो हुक्म हो, वह करूँ।
बेगम – कभी भूले से न जाना। नहीं फिर के न आओगे।
खोजी – आप इनकी जमानत करती हैं।
बेगम – मैं किसी को जामिन-वामिन नहीं होती। ‘जर दीजिए जामिन न हूजिए’। ये डुबो ही देंगे। मुई करौली रखी ही रहेगी।
खोजी – चलिए, बस, हद हो गई। अब हम नहीं जाने के।
आजाद – भई, तुम जरा साथ चल कर सैर तो देख आओ।
खोजी – वाह! अच्छी सैर है। किसी की जान जाय, आपने नजदीक सैर है। उस जानेवाले पर तीन हरफ।
खैर, समझा-बुझा कर दोनों आदमी खोजी को ले चले। जब समुद्र के किनारे पहुँचे तो खोजी उसे देखते ही कई कदम पीछे हटे और चीख पड़े। फिर दस पाँच कदम पीछे खिसके और रोने लगे। या खुदा बचाइए! लहरें देखते ही किसी ने कलेजे को मसोस लिया।
मिरजा – क्या लुत्फ है! खुदा की कसम, जी चाहता है, फाँद ही पड़ूँ।
खोजी – कहीं भूल से फाँदने वाँदने का इरादा न करना। हयाबार के लिए एक चुल्लू काफी है।
आजाद – अजब मसखरा है भई एक आँख से रोता है, एक आँख से हँसता है।
इतने में दो-चार मल्लाह सामने आए। खोजी ने जो उन्हें गौर से देखा, तो मिरजा साहब से बोले – ये कौन है भई? इनकी तो कुछ वजा ही निराली है। भला, ये हमारी बोली समझ लेंगे?
मिरजा – हाँ, हाँ, खूब। उर्दू खूब समझते हैं।
खोजी – (एक मल्लाह से) क्यों भई माँझी, जहाज पर कोई जगह ऐसी भी है, जहाँ समुंदर नजर न आए और हम आराम से बैठे रहें? सच बताना उस्ताद! अजी, हम पानी से बहुत डरते हैं भई!
माँझी – हम आपको ऐसी जगह बैठा देंगे, जहाँ पानी क्या, आसमान तो सूझ ही न पड़े।
खोजी – अरे, तेरे कुरबान। एक बात और बता दो। गन्ने मिलते जायँगे राह में या उनका अकाल है?
माँझी – गन्ने वहाँ कहाँ? क्या कुछ मंडी है? अपने साथ चाहे जितने ले चलिए।
खोजी – हाथ, गँड़ेरियाँ ताजी-ताजी खाने में न आएँगी। भला हलवाई की दुकान तो होगी? आखिर ये इतने शौकीन अफीमची जो जाते हैं, तो खाते क्या हैं?
माँझी – अजी, जो चाहो, साथ रख लो।
खोजी – और जो मुँह-हाथ धोने को पानी की जरूरत हो तो कहाँ से आवे?
आजाद – पागल है पूरा! इतना नहीं समझता कि समुदंर में जाता है और पूछता है कि पानी कहाँ से आएगा।
खोजी – तो आप क्यों उलझ पड़े? आपसे पूछता कौन है? क्यों यार माँझी, भला हम गन्ने यहाँ से बाँध ले चले और जहाज पर चूसें, मगर छिलके फेकेंगे कहाँ। आखिर हम दिन भर में चार-छह पौंड़े खाया ही चाहें।
आजाद – यह बड़ी टेढ़ी खीर है, गन्नों के छिलके खाने पड़ेंगे।
खोजी – आपसे कौन बोलता है? क्यों भई, जो करौली बाँधे तो हर्ज तो नहीं है कुछ?
माँझी – लैसन ले लीजिएगा, और क्या हर्ज है?
खोजी – देखिए, एक बात तो मालूम हुई न! अच्छा यह बताओ कि बहुरूपिए तो जहाज पर नहीं चढ़ने पाते?
माँझी – चाहे जो सवार हो। दाम दे, सवार हो ले।
खोजी – यह तो तुमने बेढब सुनाई। जहाज पर कुम्हार तो नहीं होते?
माँझी – आज तलक कोई कुम्हार नहीं गया।
खोजी – ऐ, मैं तेरी जबान के कुरबान। बड़ी ढारस हुई। खैर कुम्हार से तो बचे। बाकी रहा बहुरूपिया। उस गीदी को समझ लूँगा। इतनी करौलियाँ भोंकूँ कि याद ही करे। हाँ, बस एक और बात भी बता देना। यह कैद तो नहीं है कि आदमी सुबह-शाम जरूर ही नहाय?
माँझी – मालूम देता है, अफीम बहुत खाते हो?
खोजी – हाँ खूब पहचान गए। यह क्योंकर बूझ गए भाई? शौक हो, तो निकालूँ?
माँझी – राम-राम! हम अफीम छूते तक नहीं।
खोजी – ओ गीदी! टके का आदमी और झख मारता है। निकालूँ करौली?
मिरजा – हाँ, हाँ, ख्वाजा साहब! देखिए, जरी करौली म्यान ही में रहे।
खोजी – खैर, आप लोगों की खातिर है। वर्ना उधेड़ कर धर देता पाजी को। आप लोग बीच में न पड़ें, तो भुरकुस ही निकाल दिया होता।
इतने में घोड़े पर सवार एक अंगरेज आ कर आजाद से बोला – इस दरख्त का क्या नाम है ?
आजाद – इसका नाम तो मुझे मालूम नहीं। हम लोग जरा इन बातों की तरफ कम ध्यान देते हैं।
अंगरेज – हम अपने मुल्क की सब घास फूस पहचानता है।
खोजी – विलायत का घसियारा मालूम होता है।
अंगरेज – चिड़िया का इल्म जानता है आप?
आजाद – जी नहीं यह इल्म यहाँ नहीं सिखाया जाता।
अंगरेज – चिड़िया का इल्म हम खूब जानता है।
खोजी – चिड़ीमार है लंदन का। बस, कलई खुल गई।
अंगरेज घोड़ा बढ़ा कर निकल गया। इधर आजाद और मिरजा साहब के पेट में हँसते-हँसते बल पड़ गए।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 39
शाम के वक्त मिरजा साहब की बेगम ने परदे के पास आ कर कहा – आज इस वक्त कुछ चहल-पहल नहीं है; क्या खोजी इस दुनिया से सिधार गए?
मिरजा – देखो खोजी, बेगम साहबा क्या कह रही हैं।
खोजी – कोई अफीम तो पिलवाता नहीं, चहल-पहल कहाँ से हो? लतीफे सुनाऊँ, तो अफीम पिलवाइएगा?
बेगम – हाँ, हाँ, कहो तो। मरो भी, तो पोस्ते ही के खेत में दफनाए जाओ। काफूर की जगह अफीम हो, तो सही।
खोजी – एक खुशनसीब थे। उनके कलम से ऐसे हरूफ निकलते थे, जैसे साँचे के ढले हुए। मगर इन हजरत में एक सख्त ऐब यह था कि गलत न लिखते थे।
आजाद – कुछ जाँगलू हो क्या?
खोजी – खुदा इन लोगों से बचाए। भई, मेरे तो नाकों दम हो गया। बात पूरी सुनी नहीं और एतराज करने को मौजूद। बात काटने पर उधार खाए हुए हो। मेरा मतलब यह था कि वह गलत न लिखते थे; मगर ऐब यह था कि अपनी तरफ से कुछ मिला देते थे। एक दफे एक आदमी को कुरान लिखाने की जरूरत हुई। सोचे कि इनसे बढ़ कर कोई खुशनसीब नहीं, अरग दस-पाँच रुपए ज्यादा भी खर्च हों, तो बला से, लिखवाएँगे इन्हीं से।
बेगम – ऐ वाह री अकल! कोई आप ही के से जाँगलू होंगे। गली-गली तो छापेखाने हें। कोई छपा हुआ कुरान क्यों न मोल ले लिया?
खोजी – हुजूर, वह सीधे-सादे मुसलमान थे। मंतिक (न्याय) नहीं पढ़े थे। खैर, साहब खुशनवीस के पास पहुँचे और कहा – हजरत, जो उजरत माँगिए, दूँगा; मगर अर्ज यह है, कहिए, कहूँ, कहिए, न कहूँ। खुशनवीस ने कहा – जरूर कहिए। खुदा की कसम, ऐसा लिखें कि जो देखे, फड़क जाय। वह बोले – हजरत, यह तो सही है, लेकिन अपनी तरफ से कुछ न बढ़ा दीजिएगा। खुशनवीस ने कहा – क्या मजाल; आप इतमीनान रखिए, ऐसा न होने पावेगा। खैर, वह हजरत तो घर गए, इधर मियाँ खुशनवीस लिखने बैठे। जब खतम कर चुके, तो किताब ले कर चले। लीजिए हुजूर कुरान मौजूद है। उन्होंने पूछा – एक बात साफ फरमा दीजिए। कहीं अपनी तरफ से तो कुछ नहीं मिला दिया? खुशनवीस ने कहा -जनाब, बदलते या बढ़ाते हुए हाथ काँपते थे। मगर इसमें जगह-जगह शैतान का नाम था। मैंने सोचा, खुदा के कलाम में शैतान का क्या जिक्र? इसलिए कहीं आपके बाप का नाम लिख दिया, कहीं अपने बाप का।
बेगम – बस, यही लतीफा है? यह तो सुन चुकी हूँ।
खोजी – इस धाँधली की सनद नहीं। जब अफीम पिलाने का वक्त आया तो धाँधली करने लगीं!
मिरजा साहब बोले – अजी, यह पिलवावें या न पिलवावें, मैं पिलवाए देता हूँ। यह कह कर उन्होंने एक थाली में थोड़ा सा कत्था घोल कर खोजी को पिला दिया। खोजी को दिन को तो ऊँट सूझता न था; रात को कत्थे और अफीम के रंग में क्या तमीज करते। पूरा प्याला चढ़ा लिया और अफीम पीने के खयाल से पिनक लेने लगे। मगर जब रात ज्यादा गई तो आपको अँगड़ाइयाँ आने लगी; जम्हाइयों की डाक बैठ गई, आँखों से पानी जारी हो गया। डिबिया जेब से निकाली कि शायद कुछ खुरचन-उरचन पड़ी-पड़ाई हो, तो इस दम जी जायँ। मगर देखा, तो सफाचट! बस, सन से जान निकल गई। आधी रात का वक्त, अब अफीम आए तो कहाँ से? सोचे, भई, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, अफीम कहीं न कहीं से ढूँढ़ ही लावेंगे। दन से चल ही तो खड़े हुए। गली में सिपाही से मुठभेड़ हुई।
सिपाही – कौन?
खोजी – हम हैं ख्वाजा साहब।
सिपाही – किस दफ्तर में काम करते हो?
खोजी – पुलिस के दफ्तर में। मानिकजी-भाईजी की जगह पर आज से काम करते हैं। यार, इस वक्त कहीं से जरा सी अफीम लाओ, तो बड़ा एहसान हो। आखिर उस्ताद, पाला हमीं से पड़गा। तुम्हारे ही दफ्तर में हैं।
सिपाही – हाँ, हाँ, लीजिए, इसी दम। मैं तो खुद अफीम खाता हूँ। अफीम तो लो यह है, मगर इस वक्त धोलिएगा काहे में?
खोजी – वाह! सिपाहियों कि बातें? घर की हुकूमत है! सरकारी सिपाही सभी मानते हैं।
सिपाही – अच्छा, चलो, पिला दें।
खोजी – वाह सूबेदार साहब! बड़े बुरे वक्त काम आए। हम, आप जानिए, अफीमची आदमी, शाम को अफीम खाना भूल गए, आधी रात को याद आया। डिबिया खोली, तो सन्नाटा। ले, कहीं से पानी और प्याली दिलवाओ, तो जी उठें।
खैर, सिपाही ने खोजी को खूब अफीम पिलवाई। यहाँ तक कि घर को लौटे, तो रास्ता भूल गए। एक भलेमानस के दरवाजे पर पहुँचे, तो पिनक में सूझी कि यही मिरजा साहब का मकान है। लगे जंजीर खड़खड़ाने – खोलो, खोलो। भई, अब तो खड़ा नहीं रहा जाता। दरवाजा खोल देना।
ख्वाजा साहब तो बाहर खड़े गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते हैं, और अंदर उस मकान में मियाँ का दम निकला जाता है। कोई एक ऊपर दस बरस का सिन, खेल-कूद के दिन, खोजी के भी चचा, दुबले-पतले हाथ-पाँव, कद तीन कम सवा दो इंच का। सिवा हड्डी मुसंडी, बड़े डील-डौल की औरत, उठती, जवानी मगर एक आँख की कानी। एक घूँसा तान के लगावे, तो शीदी लंधौर का भुरकस निकल जाय। कोई दो-तीन कम बीस बरस की उम्र। दोनों मीठी नींद सो रहे थे कि खोजी ने धमधमाना शुरू किया।
मियाँ – या खुदा बचाइयो। इस अँधेरी रात में कौन आया? मारे डर के रूह काँपती है; मगर जो बीवी को जगाऊँ और मर्दाने कपड़े पहना कर ले जाऊँ, तो यह हजरत भी काँपने लगें।
खोजी – खोलो, मीठी नींद सोने वालो, खोलो। यहाँ जाते देर नहीं हुई, और किवाड़े झप से बंद कर लिए? खटिया-वटिया सब गायब कर दी?
मियाँ – बेगम,बेगम, क्या सो गईं?
वहाँ सुनता कौन है, जवानी की नींद है कि दिल्लगी। कोई चारपाई भी उलट दे, तो कानों-कान खबर न हो। सिर पर चक्की चले। तो भी आँख न खुले। मियाँ आँखों को मारे डर के एक हाथ से बंद किए बीवी के सिरहाने खड़े हैं; मगर थर-थर काँप रहे हैं। आखिर एक बार किचकिचा के खूब जोर से कंधा हिलाया और बोले – ओ बेगम, सुनती हो कि नहीं? जगी हैं, मगर दम साधे पड़ी हैं।
बेगम – (हाथ झटक कर) ऐ हटो, लेके कंधा उखाड़ डाला। अल्लाह करे, ये हाथ टूटे। हमारी मीठी मीठी नींद खराब कर दी। खुदा जानता है, मैं तो समझी, हालाडोला आ गया। खुदा-खुदा करके जरा आँख लगी, तो यह आफत आई। अब की जगाया, तो तुम जानोगे। फिर अपने दाँव को तो बैठ कर रोते हैं। बेहया, चल दूर हो।
मियाँ – अरे, क्या फिर सो गई? जैसे नींद के हाथों बिक गई हो। बेगम, सुनती हो कि नहीं?
बेगम – क्या है क्या? कुछ मुँह से बोलोगे भी? बेगम-बेगम की अच्छी रट लगाई है। डर लगता हो तो मुँह ढाँप कर सो रहो। एक तो आप न सोएँ, दूसरे हमारी नींद भी हराम करें।
खोजी – अरे, भई खोलो! मर गया पुकारते-पुकारते।
मियाँ – बेगम खुदा करे, बहरी हो जायँ। देखो तो यहाँ किवाड़ कौन तोड़े डालता है? बंदा तो इस अंधियारी में हुमसने वाला नहीं। जरी तुम्हीं दरवाजे तक जा कर देख लो।
बेगम – जी! मेरी पैजार उठती है। तुम्हारी तो वही मसल हुई कि ‘रोटी खाय दस-बारह, दूध पिए मटका सारा, काम करने को नन्हा बेचारा।’ पहले तो मैं औरत जात डर गई तो फिर कैसी हो? चोर-चाकर से बीवी को भिड़वाते हैं। मर्द बने हैं, जोरुआ से कहते हैं कि बाहर जा कर चोर से लड़ो।
खोजी – अजी, बेगम साहब, खुदा की कसम, अफीम लाने गया था। जरी दरवाजा खुलवा दीजिए। यह मिरजा साहब, और मौलाना आजाद तो मेरी जान के दुश्मन हैं।
बेगम ने जो अफीम का नाम सुना, तो आग-भभूका हो गईं। उठ कर मियाँ के एक लात लगाई और ऊपर से कोसने लगीं। इस अफीम को आग लगे, पीनेवाले का सत्यानाश हो जाय। एक तो मेरे माँ बाप ने इस निखट्टू के खूँटे में बाँधा, दूसरे इसके माँ-बाप ने अफीम इसी घुट्टी में डाल दी। क्यों जी, तुमने तो कसम खाई थी कि आज से अफीम न पिऊँगा? न तुम्हारी कसम का एतबार, न जबान का। कसम भी क्या मूली-गाजर हैं कि कर-कर करके चबा गए!
मियाँ -(गर्द झाड़-पोंछ कर) क्यों जी, और जो मैं भी एक लात कसके जमाने के लायक होता तो फिर कैसी ठहरती?
बीवी – मैं तो पहले बातों से समझाती हूँ और कोई न समझे तो फिर लातों से खबर लेती हूँ। मैं तो इस फिक्र में हूँ कि तुमको खिला-पिला कर हट्टा-कट्टा बना दूँ, पड़ोसी ताने न दें। और तुम पियो अफीम तो जी जले या न जले?
मियाँ साहब दिल ही दिल में अपने माँ-बाप को गालियाँ दे रहे थे। यहाँ धान पान आदमी, बीबी लाके बिठा दी देवनी। वे तो ब्याह करके छुट्टी पा गए, लाते हमें खानी पड़ती हैं। में तो समझा कि अपना काम ही तमाम हो गया; मगर बेहया ज्यों का त्यों मौजूद। बोले – तुम्हारी जान की कसम, कौन मरदूद चंडू के करीब भी गया हो। आज या कभी अफीम की सूरत भी देखी हो। और यों खामख्वाह बदगुमानी का कौन सा इलाज है। जरी चलके देखो तो! आखिर है कौन? आव देखा न ताव, कस कर एक लात जमा दी, बस। और जो कहीं कमर टूट जाती?
खोजी पिनक में जंजीर पकड़े थे। इधर मियाँ-बीवी चले, तो इस तरह कि बीवी आगे-आगे चिमटा हाथ में लिए हुए और मियाँ पीछे-पीछे मारे डर के आँखें बंद किए हुए। दरवाजा खुला, तो खोजी धम से गिरे सिर के बल और मियाँ मारे खौफ के खोजी पर अर-र-र करके आ रहे। बीवी ने ऊपर से दोनों को दबोचा। खोजी का नशा हिरन हो गया। निकल कर भागे तो नाक की सीध पर चलते हुए मिरजा साहब के मकान पर दाखिल। वहाँ देखा, खिदमतगार पड़ा खर्राटे ले रहा है। चुपके से अपनी खटिया पर दराज हुए; मगर मारे हँसी के बुरा हाल था। सोचे, हम तो थे ही, यह मियाँ हमारे भी चचा निकले।
आजाद-कथा : भाग 1 – खंड 40
सुबह का वक्त था। मियाँ आजाद पलंग से उठे तो देखा, बेगम साहबा मुँह खोले बेतकल्लुफी से खड़ी उनकी ओर कनखियों से ताक रही हैं। मिरजा साहब को आते देखा, तो बदन को चुरा लिया, और छलाँग मारी, तो जैनब की ओट में थीं।
मिरजा – कहिए, आज क्या इरादे हैं?
आजाद – इस वक्त हमको किसी ऐसे आदमी के पास ले चलिए, जो तुरकी के मामलों से खूब वाकिफ हो। हमें वहाँ का कुछ हाल मालूम ही नहीं। कुछ सुन तो लें। वहाँ के रंग-ढंग तो मालूम हों।
मिरजा – बहुत खूब; चलिए, मेरे एक दोस्त हेडमास्टर हैं। बहुत ही जहीन और यारबाश आदमी हैं।
आजाद तैयार हुए तो बेगम ने कहा – ऐ, तो कुछ खाते तो जाओ। ऐसी अभी क्या जल्दी है?
आजाद – जी नहीं। देर होगी।
बेगम – अच्छा, चाय तो पी लीजिए।
थोड़ी देर में दोनों आदमियों ने चाय पी, पान खाए और चले। हेडमास्टर का मकान थोड़ी ही दूर था, खट से दाखिल। सलाम-वलाम के बाद आजाद ने रूम और रूस की लड़ाई का ताजा हाल पूछा।
हेडमास्टर – तुरकी की हालत बहुत नाजुक हो गई है।
खोजी – यह बताइए कि वहाँ तोप दग रही है या नहीं? दनादन की आवाज कान में आती है या नहीं?
हेडमास्टर – दनादन की आवाज तो यहाँ तक आ चुकी; मगर लड़ाई छिड़ गई है और खूब जोरों से हो रही है।
खोजी – उफ्, मेरे अल्लाह! यहाँ तो जान ही निकल गई।
आजाद – मियाँ, हिम्मत न हारो। खुदा ने चाहा, तो फतह है।
खोजी – अजी, हिम्मत गई भाड़ में, यहाँ तो काफिया तंग हुआ जाता है।
आजाद – लड़ाई रूस से हो रही है, या आपस में?
हेडमास्टर- आपस ही में समझिए। अक्सर सूबे बिगड़ गए और लड़ाई हो रही है।
आजाद – यह तो बुरी हुई।
खोजी – बुरी हुई, तो फिर जाते क्यों हो? क्या तबाही आई है?
हेडमास्टर – सर्बिया की फौज सरहद को पार कर गई। तुरकों से एक लड़ाई भी हुई। सुना है कि सर्बिया हार गया। मगर उसका कहना है कि यह सब गलत है। हम डटे हुए हैं, और तुरकों की बोस्निया की सरहद पर जक दी।
खोजी – अब मेरे गए बगैर बेड़ा न पार होगा। कसम खुदा की, इतनी करौलियाँ भोंकी हों कि परे के परे साफ हो जायँ। दिल्लगी है कुछ।
हेडमास्टर – दूसरी खबर यह है कि सर्बिया और तुरकों में सख्त लड़ाई हुई, मगर न कोई हारा, न जीता। सर्बियावाले कहते हैं कि हमने तुरकों को भगा दिया।
खोजी – भई आजाद, सुनते हो? वापस चलो। अजी, शर्त तो यही है न कि तमगे लटका कर आओ? आप वापस चलिए मैं एक तमगा बनवा दूँगा।
कुछ देर तक मियाँ आजाद और हेडमास्टर साहब में यही बाते होती रहीं। दस बजते-बजते यहाँ से रुख्सत हो कर घर आए। जब खाना खा कर बैठे तो बेगम साहबा ने आजाद से कहा – हजरत, जरा इस मिसरे पर कोई मिसरा लगाइए –
इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
आजाद – हाँ-हाँ सुनिए –
गैर देखे उनक सूरत इसकी ताब आई नहीं;
इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
उसकी फुरकत जेहन में अपने कभी आई नहीं;
इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
बेगम – कहिए, आपकी खातिर से तारीफ कर दें। मगर मिसरे जरा फीके हैं।
आजाद – अच्छा, ले आप ही कोई चटपटा मिसरा कहिए।
बेगम – ऐ, हम औरतजात, भला शेर-शायरी क्या जानें। और जो आपकी यही मरजी है, तो लीजिए –
लौहे-दिल ढूँढ़ा किए पर हाथ ही आई नहीं,
इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
खोजी – वाह, बेगम साहब! आपने तो सुलेमान सावजी के भी कान काटे। पर अब जरा मेरी उपज भी सुनिएगा –
पीन के-अफयूँ से टुक फुरसत कभी पाई नहीं,
इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
इस मिसरे का सुनना था कि मिरजा साहब, उनकी हँसोड़ बीवी और मियाँ आजाद- हँसते-हँसते लोट गए। अभी यही चर्चा हो रही थी कि इतने में एक आदमी ने बाहर से आवाज दी। मिरजा ने जैनब से कहा कि जाओ, देखो तो कौन है? मियाँ खलीफा हों तो कहना, इस वक्त हम बाल न बनवाएँगे। तीसरे पहर को आ जाइए। जैनब आटा गूँध रही थी। ‘अच्छा’ कह कर चुप हो रही। आदमी ने फिर बाहर से आवाज दी। तब तो जैनब को मजबूर हो कर उठना ही पड़ा। नाक भौं चढ़ाती, नौकर को जली-कटी सुनाती चली। जो है, मेरी ही जान का गाहक है। जिसे देखो, मेरा ही दुश्मन। वाह, एक काम छोड़ दूसरे पर लपको। अबकी चाँद हो, तो मैं तन्ख्वाह लेके अपने घर बैठ रहूँ। क्यों, निगोड़ी नौकरी का भी कुछ अकाल है? जैनब का कायदा था कि काम सब करती थी, मगर बड़बड़ा कर। बात-बात पर तिनक जाना तो गोया उसकी घूँटी में पड़ा था। मगर अपने काम में चुस्त थी। इसलिए उसकी खातिर होती थी। मुँह फुला कर बाहर गई। पहले तो जाते ही खिदमतगार को खूब आड़े हाथों लिया – क्या घर भर में मैं ही अकेली हूँ? जो पुकारता है, मुझी को पुकारता है। मुए उल्लू के मुँह में नाम पड़ गया है।
खिदमतगार ने कहा – मुझसे क्यों बिगड़ी हो? यह मियाँ आए है; हुजूर से जाकर इनका पैगाम कह दो। मगर जरा समझ-बूझ कर कहना। सब बातें सुन लो अच्छी तरह।
जैनब – (उस आदमी से) कौन हो जी? क्या कहते हो? तुम्हें भी इसी वक्त आना था?
आदमी – मल्लाह हूँ, और हूँ कौन? जा कर अपने मियाँ से कह दो, आज जहाज रवाना होगा। अभी दस घंटे की देर है। तैयार हो जाइए।
जैनब ने अंदर जा कर यह खबर दी। बेगम साहबा ने जहाज का नाम सुना, तो धक से रह गईं। चेहरे का रंग फीका पड़ गया। कलेजा धड़-धड़ करने लगा। अगर जब्त न करतीं, तो आँसी जारी हो जाते।
मिरजा – लीजिए हजरत, अब कूच की तैयारी कीजिए।
आजाद – तैयार बैठा हूँ। यहाँ कोई बड़ा लंबा चौड़ा सामान तो करना नहीं। एक बैग, एक दरी, एक लोटा, एक लकड़ी। चलिए, अल्लाह-अल्लाह, खैरसल्लाह। वक्त पर दन से खड़ा हूँगा।
खोजी – यहाँ भी वही हाल है। एक डिबिया, एक प्याली, चंडू पीने की एक निगाली; एक कतार, एक दोना मिठाई का, एक चाकू, एक करौली; बस, अल्लाह-अल्लाह, खैरसल्लाह। बंदा भी कील-काँटे से दुरुस्त है।
यह सुन कर मियाँ आजाद और मिरजा साहब दोनों हँस पड़े। मगर बेगम साहबा के होठों पर हँसी न आई। मिरजा साहब, तो उसी वक्त मल्लाह से बातें करने के लिए बाहर चले गए और यहाँ मियाँ आजाद और बेगम साहबा, दोनों अकेले रह गए। कुछ देर तक बेगम ने मारे रंज के सिर तक न उठाया। फिर बहुत सँभल कर बोलीं – मेरा तो दिल बैठा जाता है।
आजाद – आप घबराइए नहीं, मैं जल्दी वापस आऊँगा।
बेगम – हाय, अगर इतनी ही उम्मीद होती, तो रोना काहे का था?
आजाद – सब्र को हाथ से न जाने दीजिए। खुदा बड़ा कारसाज है।
बेगम – आँखों में अँधेरा सा छा गया। क्या आज ही जाओगे? आज ही? तुम्हारे जाने के बाद मेरी न जाने क्या हालत होगी?
आजाद – खुदा ने चाहा, तो हँसी-खुशी फिर मिलेंगे।
इतने में मिरजा साहब ने आ कर कहा कि सुबह को तड़के जहाज रवाना होगा।
बेगम – यों जाने को सभी जाते हैं, लाखों मर्द-औरत हर साल हज कर आते है; मगर लड़ाई में शरीक होना! बस, यही खयाल तो मारे डालता है।
आजाद – ये लाखों आदमी जो लड़ने जाते हैं, क्या सब के सब मर ही जाते हैं? फिर कजा का वक्त कौन टाल सकता है? जैसे यहाँ, वैसे वहाँ।
मिरजा – भई, मेरा तो दिल गवाही देता है कि आप सुर्खरू हो कर आएँगे। और यों तो जिंदगी और मौत खुदा के हाथ है।
बेगम – ये सब बातें तो मैं भी जानती हूँ! मगर समझाऊँ किसे?
मिरजा – जब जानती हो, तब रोना-धोना बेकार है। हाथ-मुँह धो डालो। जैनब, पानी लाओ। यही तो तुममें ऐब है कि सुबह का काम शाम को और शाम का काम सुबह को करती हो। लाओ पानी झटपट।
जैनब – या अल्लाह! अब आलू छीलूँ या पानी लाऊँ!
आखिर जैनब दिल ही दिल में बुरा-भला कहती पानी लाई। बेगम ने मुँह धोया और बोलीं – अब मैं कोई ऐसी बात न कहूँगी, जिससे मियाँ आजाद को रंज हो।
खोजी – अजी मियाँ आजाद! चलने का वक्त करीब आया। कुछ मेरी भी फिक्र है? वह करौली लेते ही लेते रह गए? अफीम का क्या बंदोबस्त किया? यार, कहीं ऐसा न हो कि अफीम राह में न मिले और हम जीते जी मर मिटें। जरी जैनब को बाजार तक भेज कर कोई साठ-सत्तर कतारे तो नर्म नर्म मँगवा दीजिए। नहीं तो मैं जीता न फिरूँगा।
जैनब – हाँ, जैनब ही तो घर भर में फालतू हैं। लपक कर बाजार से ले क्यों नहीं आते? क्या चूड़ियाँ टूट जायँगी? और मैं औरतजात अफीम लेने कहाँ जाऊँगी भला?
बेगम – रास्ते में इस पगले के सबब से खूब चहल-पहल रहेगी।
आजाद – हाँ, इसीलिए तो लिए जाता हूँ। मगर देखिए, क्या-क्या बेहूदगियाँ करते हैं?
खोजी – अजी, आपसे सौ कदम आगे रहूँ, तो सही।
मिरजा – इसमें क्या शक है? लेकिन उस तरफ कोई बहुरूपिया हुआ, तो कैसी ठहरेगी।
खोजी – सच कहता हूँ, इतनी करौलियाँ भोकूँ कि याद करे। मैं दगानेवाली पलटन में रिसालदार था। अवध में खुदा जाने कितनी गढ़ियाँ जीत लीं।
बेगम – ऐ रिसालदार साहब, आपकी करौली क्या हुई? मोरचा खा गई हो तो साफ कर लीजिए। ऐसा न हो, मोरचे पर म्यान ही में रहे।
जैनब – रिसालदार साहब, हमारे लिए वहाँ से क्या लाइएगा?
खोजी – अजी, जीते आवें, तो यही बड़ी बात है। यहाँ तो बदन काँप रहा है।
इन्हीं बातों में चलने का वक्त आ गया। आजाद ने अपना और खोजी का सामान बाँधा। बग्घी तैयार हुई। जब मियाँ आजाद ने चलने के लिए लकड़ी उठाई, तो बेगम बेचारी बेअख्तियार रो दीं। काँपते हुए हाथों से इमामजामिन की अशरफी बाँधी और कहा – जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह भी दिखाना।
मियाँ आजाद, मिरजा और खोजी जा कर बग्घी पर बैठे। जब गाड़ी चली, तो खोजी बोले – हमसे कोई नहाने को कहेगा, तो हम करौली ही भोंक देंगे।
मिरजा – तो जब कोई कहे न?
खोजी – हाँ, बस, इतना याद रखिएगा जरा। और, हम यह भी बताए देते हैं कि गन्ना चूस-चूस कर समुंदर के बाप में फेकेंगे, और जो कोई बोलेगा, तो दबोच बैठेंगे। हाँ, ऐसे-वैसे नहीं हैं यहाँ!
सामने समुद्र नजर आने लगा।