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आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 8 – प्रेमचंद
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 71
आजाद तो साइबेरिया की तरफ रवाना हुए, इधर खोजी ने दरख्त पर बैठे-बैठे अफीम की डिबिया निकाली। वहाँ पानी कहाँ? एक आदमी दरख्त के नीचे बैठा था। आपने उससे कहा – भाईजान, जरा पानी पिला दो। उसने ऊपर देखा, तो एक बौना बैठा हुआ है। बोला – तुम कौन हो? दिल्लगी यह हुई कि वह फ्रांसीसी था। खोजी उर्दू में बात करते थे, वह फ्रांसीसी में जवाब देता था।
खोजी – अफीम घोलेंगे मियाँ! जरा सा पानी दे डालो भाई!
फ्रांसीसी – वाह, क्या सूरत है! पहाड़ पर न जा कर बैठो?
खोजी – भई वाह रे हिंदोस्तान! वल्लाह, इस फसल में सबीलों पर पानी मिलता है, केवड़े का बसा हुआ। हिंदू पौसरे बैठाते हैं और तुम जरा पानी भी नहीं देते।
फ्रांसीसी – कहीं ऊपर से गिर न पड़ना।
खोजी – (इशारे से) अरे मियाँ पानी-पानी!
फ्रांसीसी – हम तुम्हारी बात नहीं समझते।
खोजी – उतरना पड़ा हमें! अबे, ओ गीदी, जरा सा पानी क्यों नहीं दे जाता? क्या पाँवो में मेहँदी गिर जायगी?
फ्रांसीसी ने जब अब भी पानी न दिया तो खोजी ऊपर से पत्ते तोड़-तोड़ फेंकने लगे। फ्रांसीसी झल्ला कर बोला – बचा, क्यों शामतें आई हैं। ऊपर आ कर इतने घूँसे लगाऊँगा कि सारी शरारत निकल जायगी। खोजी ने ऊपर से एक शाख तोड़ कर फेंकी। फ्रांसीसी ने इतने ढेले मारे कि खोजी की खोपड़ी जानती होगी। इतने में एक तुर्क आ निकला। उसने समझा-बुझा कर खोजी को नीचे उतारा। खोजी ने अफीम घोली, चुस्की लगाई और फिर दरख्त पर जा कर एक मोटी शाख से टिक कर पिनक लेने लगे। अब सुनिए कि तुर्कों और रूसियों में इस वक्त खूब गोले चल रहे थे। तुर्कों ने जान तोड़ कर मुकाबिला किया, मगर फ्रांसीसी तोपखाने ने उनके छक्के छुड़ा दिए और उनका सरदार आसफ पाशा गोली खा कर गिर पड़ा। तुर्क तो हार कर भाग निकले। रूसियों की एक पलटन ने इस मैदान में पड़ाव डाला। खोजी पिनक से चौंक कर यह तमाशा देख रहे थे कि एक रूसी जवान की नजर उन पर पड़ी। बोला-कौन? तुम कौन हो? अभी उतर आओ।
खोजी ने सोचा, ऐसा न हो कि फिर ढेले पड़ने लगें। गीचे उतर आए। अभी जमीन पर पाँव भी न रखा था कि एक रूसी ने इनको गोद में उठा कर फेंका तो धम से जमीन पर गिर गए।
खोजी – ओ गीदी, खुदा तुमसे और तुम्हारे बाप से समझे!
एक रूसी – भई, यह पागल है कोई।
दूसरा – इसको फौज के साथ रखो। खूब दिल्लगी रहेगी।
रूसियों ने कई तुर्क सिपाहियों को कैद कर लिया था। खोजी भी उन्हीं के साथ रख दिए गए। तुर्कों को देख कर उन्हें जरा तसकीन हुई। एक तुर्क बोला – तुम तो आजाद के साथ आए थे न? तुम उनके कौन हो?
खोजी – मेरा लड़का है जी, तुम नौकर बनाते हो।
तुर्क – ऐं, आप आजाद पाशा के बाप हैं!
खोजी – हाँ, हाँ, तो इसमें ताज्जुब की कौन बात है। मैंने ही तो आजाद को मार-मार कर लड़ना सिखाया।
तुर्कों ने खोजी को आजाद का बाप समझ कर फौजी कायदे से सलाम किया। तब खोजी रोने लगे – अरे यारो, कहीं से तो हमें लड़के की सूरत दिखा दो। क्या तुमको इसी दिन के लिए पाल-पोस कर इतना बड़ा किया था? अब तुम्हारी माँ को क्या सूरत दिखाऊँगा?
तुर्क – आप ज्यादा बेचैन न हो। आजाद जरूर छूटेंगे।
खोजी – भई, मेरी इतनी इज्जत न करो। नहीं तो रूसियों को शक हो जायगा कि यह आजाद पाशा के बाप हैं। तब बहुत तंग करेंगे।
तुर्क – खुदा ने चाहा हो अफसर लोग आपको जरूर छोड़ देंगे।
खोजी – जैसी मौला की मरजी!
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 72
बड़ी बेगम का बाग परीखाना बना हुआ है। चारों बहनें रविशों में अठखेलियाँ करती हैं। नाजो-अदा से तौल-तौल कर कदम धरती हैं। अब्बासी फूल तोड़-तोड़ कर झोलियाँ भर रही है। इतने में सिपहआरा ने शोखी के साथ गुलाब का फूल तोड़ कर गेतीआरा की तरफ फेंका। गेतीआरा ने उछाला तो सिपहआरा की जुल्फ को छूता हुआ नीचे गिरा। हुस्नआरा ने कई फूल तोड़े और जहाँनारा बेगम से गेंद खेलने लगीं। जिस वक्त गेंद फेंकने के लिए हाथ उठाती थीं, सितम ढाती थीं। वह कमर का लचकाना और गेसू का बिखरना, प्यारे-प्यारे हाथों की लोच और मुसकिरा-मुसकिरा कर निशाने बाजी करना अजब लुत्फ दिखाता था।
अब्बासी – माशा-अल्लाह, हुजूर किस सफाई के साथ फेंकती हैं!
सिपहआरा – बस अब्बासी, अब बहुत खुशामद की न लो। क्या जहाँनारा बहन सफाई से नहीं फेंकतीं? बाजी जरी झपटती ज्यादा हैं। मगर हमसे न जीत पाएँगी। देख लेना।
अब्बासी – जिस सफाई से हुस्नआरा बेगम गेंद खेलती हैं, उस सफाई से जहाँनारा बेगम का हाथ नहीं जाता।
सिपहआरा – मेरे हाथ से भला फूल गिर सकता है! क्या मजाल!
इतने में जहाँनारा बेगम ने फूल को नोच डाला और उफ कह कर बोलीं – अल्लाह जानता है, हम तो थक गए।
सिपहआरा – ऐ वाह, बस इतने में ही थक गईं? हमसे कहिए, शाम तक खेला करें।
अब सुनिए कि एक दोस्त ने मिरजा हुमायूँ फर को जा कर इत्तिला दी कि इस वक्त बाग में परियाँ इधर से उधर दौड़ रही हैं। इस वक्त की कैफियत देखने काबिल है। शाहजादे ने यह खबर सुनी तो बोले – भई, खुशखबरी तो सुनाई, मगर कोई तदबीर तो बताओ। जरा आँखें ही सेंक लें। हाँ, हीरा माली को बुलाओ। जरा देखें।
हीरा ने आ कर सलाम किया।
शाहजादा – भई, इस वक्त किसी हिकमत से अपने बाग की सैर कराओ।
हीरा – खुदावंद, इस वक्त तो माफ करों, सब वहीं हैं।
शाहजादा – उल्लू ही रहे, अरे मियाँ, वहाँ सन्नाटा होता तो जा कर क्या करते! सुना है, चारों परियाँ वहीं हैं! बाग परिस्तान हो गया होगा! हीरा, ले चल, तुझे अपने नारायन की कसम! जो माँगे, फौरन दूँ।
हीरा – हुजूर ही का नमक खाता हूँ या किसी और का? मगर इस वक्त मौका नहीं है।
शाहजादा – अच्छा, एक शेर लिख दूँ, वहाँ पहुँचा दो।
यह कह कर शाहजादा ने यह शेर लिखा –
छकाया तूने आलम को साकी जामे-गुलगूँ से,
हमें भी कोई एक सागर, हम भी हैं उम्मेदवारों में।
हीरा यह रुक्का ले कर चला। शाहजादे ने समझा दिया कि सिपहआरा को चुपके से दे देना। हीरा गया तो देखा कि अब्बासी और बूढ़ी महरी में तकरार हो रही है। सुबह के वक्त अब्बासी हुस्नआरा के लिए कुम्हारिन के यहाँ से दो झँझरियाँ लाई थी। दाम एक आना बताया। बड़ी बेगम ने जो यह झँझरियाँ देखीं तो महरी को हुक्म दिया कि हमारे वास्ते भी लाओ। महरी वैसी ही झँझरियाँ दो आने की लाई। इस वक्त अब्बासी डींग मारने लगी कि मैं जितनी सस्ती चीज लाती हूँ, कोई दूसरा भला ला तो दे। महरी और अब्बासी में पुरानी चश्मक थी। बोली – हाँ भई, तुम क्यों न सस्ती चीज लाओ! अभी कमसिन हो न?
अब्बासी – तुम भी तो किसी जमाने में जवान थीं। बाजार भर को लूट लाई होगी। मेरे मुँह न लगना।
महरी – होश की दवा कर छोकरी! बहुत बढ़-बढ़ कर बातें न बना मुई! जमाने भर की अवारा! और सुनो?
अब्बासी – देखिए हुजूर, यह लाम काफ जबान से निकालती हैं। और मैं हुजूर का लिहाज करती हूँ। जब देखो, ताने के सिवा बात ही नहीं करतीं।
महरी – मुँह पकड़ कर झुलस देती मुरदार का!
अब्बासी – मुँह झुलस अपने होतों-सोतों का।
महरी – हुजूर, अब हम नौकरी छोड़ देंगे। हमसे ये बातें न सुनी जायँगी।
अब्बासी – ऐं, तुम तो बेचारी नन्हीं हो। हमीं गरदन मारने के काबिल हैं! सच है, और क्या!
सिपहआरा – सारा कुसूर महरी का है। यही रोज लड़ा करती हैं अब्बासी से।
महरी – ऐ हुजूर, पीच पीं हजार गेमत पाई! जो मैं ही झगड़ालू हूँ तो बिस्मिल्लाह, हुजूर लौंडी को आजाद कर दें। कोई बात न चीत, आप ही गालीगुफ्ते पर आमादा हो गई।
जहाँनारा – ‘लड़ेंगे जोगी-जोगी और जायगी खप्पड़ों के माथे।’ अम्माँजान सुन लेंगी तो हम सबकी खबर लेंगी।
अब्बासी – हुजूर इनसाफ से कहें। पहल किसी तरफ से हुई।
जहाँनारा – पहल तो महरी ने की। इसके क्या मानी कि तुम जवान हो इससे सस्ती चीज मिल जाती है। जिसको गाली दोगी, वह बुरा मानेगी ही।
हुस्नआरा – महरी, तुम्हें यह सूझी क्या? जवानी का क्या जिक्र था भला!
अब्बासी – हुजूर, मेरा कसूर हो तो जो चोर की सजा वह मेरी सजा।
महरी – मेरे अल्लाह, औरत क्या, बिस की गाँठ है।
अब्बासी – जो चाहो सो कह लो, मैं एक बात का भी जवाब न दूँगी।
महरी – इधर की उधर और उधर की इधर लगाया करती है। मैं तो इसकी नसनस से वाकिफ हूँ!
अब्बासी – और मैं तो तेरी कब्र तक से वाकिफ हूँ!
महरी – एक को छोड़ा, दूसरे को बैठी, उसको खाया, अब किसी और को चट करेगी। और बातें करती है!
सत्तर… के बाद कुछ कहने ही को थी कि अब्बासी ने सैकड़ों गालियाँ सुनाईं। ऐसी जामे से बाहर हुई कि दुपट्टा एक तरफ और खुद दूसरी तरफ। हीरा माली ने बढ़ कर दुपट्टा दिया तो कहा – चल हट, और सुनो! इस मुए बूढ़े की बातें! इस पर कहकहा पड़ा। शोर सुनते ही बड़ी बेगम साहब लाठी टेकती हुई आ पहुँची, मगर यह सब चुहल में मस्त थीं। किसी को खबर भी न हुई।
बड़ी बेगम – यह क्या शोहदापन मचा था? बड़े शर्म की बात है। आखिर कुछ कहो तो? यह क्या धमाचौकड़ी मची थी? क्यों महरी, यह क्या शोर मचा था?
महरी – ऐ हुजूर, बात मुँह से निकली और अब्बासी ने टेंटुआ लिया। और क्या बताऊँ।
बड़ी बेगम – क्यों अब्बासी, सच-सच बताओ! खबरदार!
अब्बासी – (रो कर) हुजूर!
बड़ी बेगम – अब टेसुए पीछे बहाना, पहले हमारी बात का जवाब दो।
अब्बासी, हुजूर, जहाँनारा बेगम से पूछ लें, हमें आवारा कहा, बेसवा कहा, कोसा, गालियाँ दी, जो जबान पर आया। कह डाला। और हुजूर, इन आँखों की ही कसम खाती हूँ, जो मैंने एक बात का भी जवाब दिया हो। चुप सुना की।
बड़ी बेगम – जहाँनारा, क्या बात हुई थी? बताओ साफ-साफ।
जहाँनारा – अम्माँजान, अब्बासी ने कहा कि हम दो झँझरियाँ एक आने को लाए और महरी ने दो आने दिए, इसी बात पर तकरार हो गई।
बड़ी बेगम – क्यों महरी, इसके क्या माने? क्या जवानों को बाजार वाले मुफ्त उठा देते हैं? बाल सफेद हो गए, मगर अभी तक अवारापन की बू नहीं गई। हमने तुमको मौकूफ किया, महरी! आज ही निकल जाओ।
इतने में मौका पा कर हीरा ने सिपहआरा को शाहजादे का खत दिया। सिपहआरा ने पढ़ कर यह जवाब लिखा – भई, तुम तो गजब के जल्दबाज हो। शादी-ब्याह भी निगोड़ा मुँह का नेवाला है! तुम्हारी तरफ से पैगाम तो आता ही नहीं।
हीरा खत ले कर चल दिया।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 73
कोठे पर चौका बिछा है और एक नाजुक पलंग पर सुरैया बेगम सादी और हलकी पोशाक पहने आराम से लेटी हैं। अभी हम्माम से आई हैं। कपड़े इत्र में बसे हुए हैं। इधर-उधर फूलों के हार और गजरे रखे हैं, ठंडी-ठंडी हवा चल रही है। मगर तब भी महरी पंखा लिए खड़ी है। इतने में एक महरी ने आ कर कहा – दारोगा जी हुजूर से कुछ अर्ज करना चाहते हैं। बेगम साहब ने कहा – अब इस वक्त कौन उठे। कहो, सुबह को आएँ। महरी बोली – हुजूर कहते हैं, बड़ा जरूरी काम है। हुक्म हुआ कि दो औरतें चादर ताने रहें और दारोगा साहब चादर के उस पार बैठें। दारोगा साहब ने आ कर कहा – हुजूर, अल्लाह ने बड़ी खैर की। खुदा को कुछ अच्छा ही करना मंजूर था। ऐसे बुरे फँसे थे कि क्या कहें!
बेगम – अरे, तो कुछ कहोगे भी?
दारोगा – हुजूर, बदन के रोएँ खड़े होते हैं।
इस पर अब्बासी ने कहा – दारोगा जी, घास तो नहीं खा गए हो! दूसरी महरी बोली – हुजूर, सठिया गए हैं। तीसरी ने कहा – बौखलाए हुए आए हैं। दारोगा साहब बहुत झल्लाए। बोले – क्या कदर होती है, वाह! हमारी सरकार तो कुछ बोलती ही नहीं और महरियाँ सिर चढ़ी जाती हैं। हुजूर इतना भी नहीं कहतीं कि बूढ़ा आदमी है। उससे न बोलो।
बेगम – तुम तो सचमुच दीवाने हो गए हो। कहना है, वह कहते क्यों नहीं?
दारोगा – हुजूर, दीवाना समझें या गधा बनाएँ, गुलाम आज काँप रहा हैं। वह जो आजाद है, जो यहाँ कई बार आए भी थे, वह बड़े मक्कार, शाही चोर, नामी डकैत, परले सिरे के बगड़ेबाज, काले जुआरी, धावत शराबी, जमाने भर के बदमाश, छटे हुए गुर्गे, एक ही शरीर और बदजात आदमी हैं। तूती का पिंजड़ा ले कर वही औरत के भेस में आया था। आज सुना, किसी नवाब के यहाँ भी गए थे। वह आजाद जिनके धोखे में आप हैं, वह तो रूम गए हैं। इनका उनका मुकाबिला क्या! वह आलिम-फाजिल, यह बेईमान-बदमाश। यह भी उसने गलत कहा कि हुस्नआरा बेगम का ब्याह हो गया।
बेगम – दारोगा, बात तो तुम पते की कहते हो, मगर ये बातें तुमसे बताईं किसने?
दारोगा – हुजूर, वह चंडूबाज जो आजाद मिरजा के साथ आया था। उसी ने मुझसे बयान किया।
बेगम – ऐ है, अल्लाह ने बहुत बचाया।
महरी – और बातें कैसी चिकनी-चुपड़ी करता था?
दारोगा साहब चले गए तो बेगम ने चंडूबाज को बुलाया। महरियों ने परदा करना चाहा तो बेगम ने कहा – जाने भी दो। बूढ़े खूसट से परदा क्या?
चंडूबाज – हुजूर, कुछ ऊपर सौ बरस का सिन है।
बेगम – हाँ, आजाद मिरजा का तो हाल कहो।
चंडूबाज – उसके काटे का मंतर ही नहीं।
बेगम – तुमसे कहाँ मुलाकात हुई?
चंडूबाज – एक दिन रास्ते में मिल गए।
बेगम – वह तो कैद में थे! भागे क्योंकर?
चंडूबाज – हुजूर, यह न पूछिए, तीन-तीन पहरे थे। मगर खुदा जाने, किस जादू-मंतर से तीनों को ढेर कर दिया और भाग निकला।
बेगम – अल्लाह बचाए ऐसे मूजी से।
चंडूबाज – हुजूर, मुझे भी खूब सब्जबाग दिखाया।
महरी – अल्लाह जानता है, मैं उसकी आँखों से ताड़ गई थी कि बड़ा नटखट है।
चंडूबाज – हुजूर, यह कहना तो भूल ही गया था कि कैद से भाग कर थानेदार के मकान पर गया और उसे भी कत्ल कर दिया।
बेगम – सब आदमियों में से निकल भागा?
महरी – आदमी है कि जिन्नात?
अब्बासी – हुजूर, हमें आज डर मालूम होता है। ऐसा न हो, हमारे यहाँ भी चोरी करे।
चंडूबाज रुख्सत हो कर गए तो सुरैया बेगम सो गईं। महरियाँ भी लेटीं, मगर अब्बासी की आँखों में नींद न थी। मारे खौफ के इतनी हिम्मत भी न बाकी रही कि उठ कर पानी तो पीती। प्यास से तालू में काँटे पड़े थे। मगर दबकी पड़ी थी। उसी वक्त हवा के झोंकों से एक कागज उड़ कर उसकी चारपाई के करीब खड़खड़ाया तो दम निकल गया!
सिपाही ने आवाज दी – ‘सोनेवाले जागते रहो।’ और यह काँप उठी। डर था, कोई चिमट न जाए। लाशें आँखों-तले फिरती थीं। इतने में बारह का गजर ठनाठन बजा। तब अब्बासी ने अपने दिल में कहा, अरे, अभी बारह ही बजे। हम समझे थे, सवेरा हो गया। एकाएक कोई विहाग की धुन में गाने लगा –
सिपहिया जागत रहियो,
इस नगरी के दस दरवाजे निकस गया कोई और।
सिपहिया जागत रहियो।
अब्बासी सुनते-सुरते सो गई; मगर थोड़ी देर में ठनाके की आवाज आई तो जाग उठी। आदमी की आहट मालूम हुई। हाथ-पाँव काँपने लगे। इतने में बेगम साहब ने पुकारा – अब्बासी, पानी पिला। अब्बासी ने पानी पिलाया और बोली – हुजूर, अब कभी लाशों-वाशों का जिक्र न कीजिएगा। मेरा तो अजब हाल था। सारी रात आँखों में ही कट गई।
बेगम – ऐसा भी डर किस काम का, दिन को शेर, रात को भेड़।
बेगम साहब सोने को ही थीं कि एक आदमी ने फिर गाना शुरू किया।
बेगम – अच्छी आवाज है।
अब्बासी – पहले भी गा रहा था।
महरी – ऐं, यह वकील हैं!
कुछ देर तक तीनों बातें करते-करते सो गईं! सवेरे मुँह-अँधेरे महरी उठी तो देखा कि बड़े कमरे का ताला टूटा पड़ा है। दो संदूक टूटे-फूटे एक तरफ रखे हुए हैं और असबाब सब तितर-बितर। गुल मचा कर कहा – अरे! लुट गई, हाय लोगों, लुट गई! घर में कुहराम मच गया। दारोगा साहब दौड़ पड़े। अरे, यह क्या गजब हो गया। बेगम की भी नींद खुली। यह हालत देखी तो हाथ मल कर कहा – लुट गई! यह शोरगुल सुन कर पड़ोसिनें गुल मचाती हुई कोठे पर आईं और बोलीं – बहन, यह बमचख कैसा है! क्या हुआ? खैरियत तो है!
बेगम – बहन, मैं तो मर मिटी।
पड़ोसिन – क्या चोरी हो गई? दो बजे तक तो मैं आप लोगों की बातें सुनती रही। यह चोरी किस वक्त हुई?
अब्बासी – बहन, क्या कहूँ, हाय!
पड़ोसिन – देखिए तो अच्छी तरह। क्या-क्या ले गया, क्या-क्या छोड़ गया?
बेगम – बहन किसके होश ठिकाने हैं।
अब्बासी – मुझ जलम जली को पहले ही खटका हुआ था। कान खड़े हो गए फिर कुछ सुनाई न दिया। मैंने कुछ खयाल न किया।
दारोगा – हुजूर, यह किसी शैतान का काम हैं। पाऊँ तो खा ही डालूँ।
महरी – जिस हाथ से संदूक तोड़े, वह कट कर गिर पड़े। जिस पाँव से आया उसमें कीड़े पड़ें। मरेगा बिलख-बिलख कर।
अब्बासी – अल्लाह करे, अठवारे ही में खटिया मचमचाती निकले।
महरी – मगर अब्बासी, तुम भी एक ही कलजिमी हो। वही हुआ।
सुरैया बेगम ने असबाब की जाँच की तो आधे से ज्यादा गायब पाया। रो कर बोलीं – लोगों, मैं कहीं की न रही। हाय मेरे अब्बा, दौड़ो। तुम्हारी लाड़िली बेटी आज लुट गई। हाय मेरी अम्माँजान! सुरैया बेगम अब फकीरिन हो गई।
पड़ोसिन – बहन, जरा दिल को ढारस दो। रोने से और हलाकान होगी।
बेगम – किस्मत ही पलट गई। हाय!
पड़ोसिन – ऐ! कोई हाथ पकड़ लो। फिर फोड़े डालती हैं। बहन, बहन। खुदा के वास्ते सुनो तो! देखो, सब माल मिला जाता है। घबराओ नहीं।
इतने में एक महरी ने गुल मचा कर कहा – हुजूर, यह जोड़ी कड़े की पड़ी है।
अब्बासी – भागते भूत की लँगोटी ही सही।
लोगों ने सलाह दी कि थानेदार को बुलाया जाय, मगर सुरैया बेगम तो थानेदार से डरी हुई थी; नाम सुनते ही काँप उठीं और बोलीं – बहन, माल चाहे यह भी जाता रहे, मगर थाने वालों को मैं अपनी डयोढ़ी न लाँघने दूँगी। दारोगा जी ने आँख ऊपर उठाई तो देखा, छत कटी हुई है। समझ गए कि चोर छत काट कर आया था। एकाएक कई कांस्टेबिल बाहर आ पहुँचे। कब वारदात हुई? दौ दफे तो हम पुकार गए। भीतर-बाहर से बराबर आवाज आई। फिर यह चोरी कब हुई? दारोगा जी ने कहा – हमको इस टाँय-आँय से कुछ वास्ता नहीं है जी? आए वहाँ से रोब जमाने! टके का आदमी और हमसे जबान मिलाता है। पड़े-पड़े सोते रहे और इस वक्त तहकीकात करने चले हैं? साठ हजार का माल गया। कुछ खबर भी है!
कांस्टेबिलों ने जब सुना कि साठ हजार की चोरी हुई तो होश उड़ गए। आपस में यों बातें करने लगे –
एक – साठ हजार! पचास और दुई साठ? काहे?
दूसरा – पचास दुई साठ नहीं; पचास और दस साठ!
तीसरा – अजी खुदा-खुदा करो। साठ हजार। क्या निरे जवाहिरात ही थे? ऐसे कहाँ के सेठ हैं!
दारोगा – समझा जायगा, देखो तो सही? तुम सबकी साजिश है।
एक – दारोगा, तरकीब तो अच्छी की! शाबास!
दूसरा – बेगम सहब के यहाँ चोरी हुई तो बला से। तुम्हारी तो हाड़ियाँ चढ़ गईं। कुछ हमारा भी हिस्सा है?
इतने में थानेदार साहब आ पहुँचे और कहा, हम मौका देखेंगे। परदा कराया गया। थानेदार साहब अंदर गए तो बोले – अक्खाह, इतना बड़ा मकान है! तो क्यों न चोरी हो?
दारोगा – क्या? मकान इतना बड़ा देखा और आदमी रहते हैं सो नहीं देखते!
थानेदार – रात को यहाँ कौन सोया था?
दारोगा – अब्बासी, सबके नाम लिखवा दो।
थानेदार – बोलो अब्बासी महरी, रात को किस वक्त सोई थीं तुम?
अब्बासी – हुजूर, कोई ग्यारह बज आँखें लगीं।
थानेदार – एक-एक बोटी फड़कती है। साहब के सामने इतना न चमकना।
अब्बासी – यह बातें मैं नहीं समझती। चमकना-मटकना बाजारी औरतें जानें। हम हमेशा बेगमों में रहा किए हैं। यह इशारे किसी और से कीजिए। बहुत थानेदारी के बल पर न रहिएगा। देखा कि औरतें ही औरतें घर में हैं तो पेट से पाँव निकाले।
थानेदार – तुम तो जामे से बाहर हुई जाती हो।
बेगम साहब कमरे में खड़ी काँप रही थीं। ऐसा न हो, कहीं मुझे देख ले। थानेदार ने अब्बासी से फिर कहा – अपना बयान लिखवाओ।
अब्बासी – हम चारपाई पर सो रहे थे कि एक बार आँख खुली। हमने सुराही से पानी उँड़ेला और बेगम साहब को पिलाया।
थानेदार – जो चाहो, लिखवा दो। तुम पर दरोगहलफी का जुर्म नहीं लग सकता।
अब्बासी – क्या ईमान छोड़ना है? जो ठीक-ठाक है वह क्यों छिपाएँ?
अब्बासी ने अँगुलियाँ मटका-मटका कर थानेदार को इतनी खरी-खोटी सुनाईं कि थानेदार साहब की शेखी किरकिरी हो गई। दारोगा साहब से बोले – आपको किसी पर शक हो तो बयान कीजिए। बे-भेदिए के चोरी नहीं हो सकती। दारोगा ने कहा – हमें किसी पर शक नहीं। थानेदार ने देखा कि यहाँ रंग न जमेगा तो चुपके से रुखसत हुए।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 74
खोजी आजाद के बाप बन गए तो उनकी इज्जत होने लगी। तुर्की कैदी हरदम उनकी खिदमत करने को मुस्तैद रहते थे। एक दिन एक रूसी फौजी अफसर ने उनकी अनोखी सूरत और माशे-माशे भर के हाथ-पाँव देखे तो जी चाहा कि इनसे बातें करें। एक फारसीदाँ तुर्क को मुतरज्जिम बना कर ख्वाजा साहब से बातें करने लगा।
अफसर – आप आजाद पाशा के बाप हैं?
खोजी – बाप तो क्या हूँ, मगर खैर, बाप ही समझिए। अब तो तुम्हारे पंजू में पड़ कर छक्के छूट गए।
अफसर – आप भी किसी लड़ाई में शरीक हुए थे?
खोजी – वाह, और जिंदगी-भर करता क रहा? तुम जैसा गौखा अफसर आज ही देखा। हमारा कैंडा ही गवाही देता है कि हम फौज के जवान हैं। कैंडे से नहीं पहचानते? इसमें पूछने की क्या जरूरत है! दगलेवाली पलटन के रिसालदार थे। आप हमसे पूछते हैं, कोई लड़ाई देखी है! जनाब, यहाँ वह-वह लड़ाइयाँ देखी हैं कि आदमी की भूख-प्यास बंद हो जाय।
अफसर – आप गोली चला सकते हैं?
खोजी – अजी हजरत, अब फस्द खुलवाइए। पूछते हैं गोली चलाई है! जरा सामने आ जाइए तो बताऊँ। एक बार एक कुत्ते से और हमसे लाग-डाट हो गई। खुदा की कसम, हमसे कुत्ता ग्यारह-बारह कदम पर पड़ा था। धरके दागता हूँ तो पों-पों करता हुआ भाग खड़ा हुआ।
अफसर – ओ हो! आप खूब गोली चलाता है।
खोजी – अजी, तुम हमको जवानी में देखते!
अफसर ने इनकी बेतुकी बातें सुन कर हुक्म दिया कि दोनाली बंदूक लाओ। तब तो मियाँ खोजी चकराए। सोचे कि हमारी सात पीढ़ियों तक तो किसी ने बंदूक चलाई नहीं और न हमको याद आता है कि बंदूक कभी उम्र भर छुईं भी हो, मगर इस वक्त तो आबरू रखनी चाहिए। बोले इस बंदूक में गज तो नहीं होता?
अफसर – उड़ती चिड़िया पर निशाना लगा सकते हो?
खोजी – उड़ती चिड़िया कैसी! आसमान तक के जानवरों को भून डालूँ।
अफसर – अच्छा तो बंदूक लो।
खोजी – ताक कर निशाना लगाऊँ तो दरख्त की पत्तियाँ गिरा दूँ?
यह कह कर आप टहलने लगे।
अफसर – आप निशाना क्यों नहीं लगाता? उठाइए बंदूक।
खोजी ने जमीन में खूब जोर से ठोकर मारी और एक गजल गाने लगे। अफसर दिल में खूब समझ रहा था कि यह आदमी महज डींगे मारना जातना है। बोला – अब बंदूक लेते हो या इसी बंदूक से तुमको निशाना बनाऊँ?
खैर, बड़ी देर तक दिल्लगी रही। अफसर खोजी से इतना खुश हुआ कि पहरेवालों को हुक्म दे दिया कि इनपर बहुत सख्ती न रखना। रात को खोजी ने साचा कि अब भागने की तदबीर सोचनी चाहिए वरना लड़ाई खत्म हो जायगी और हम न इधर के रहेंगे, न उधर के। आधी रात को उठे और खुदा से दुआ माँगने लगे कि ऐ खुदा! आज रात को तू मुझे इस कैद से नजात दे। तुर्कों का लश्कर नजर आए और मैं गुल मचा कर कहूँ कि हम आ पहुँचे; आ पहुँचे। आजाद से भी मुलाकात हो और खुश-खुश वतन चलें।
यह दुआ माँग कर खोजी रोने लगे। हाय, अब वह दिन कहाँ नसीब होंगे कि नवाबों के दरबार में गप उड़ रहे हों। वह दिल्लगी, वह चुहल अब नसीब हो चुकी। किस मजे ने कटी जाती थी और किस लुत्फ से गड़ेरियाँ चूसते थे! कोई खुटियाँ खरीदता है, कोई कतारे चुकाता है। शोर गुल की यह कैफियत है कि कान पड़ी आवाज नहीं सुनाई देती, मक्खियों की भिन्न भिन्न एक तरफ, छिलकों का ढेर दूसरी तरफ, कोई औरत चंडूखाने में आ गई तो और भी चुहल होने लगी।
दो बजे खोजी बाहर निकले तो उनकी नजर उक छोटे से टट्टू पर पड़ी। पहरेवाले सो रहे थे। खोजी टट्टू के पास गए और उसकी गरदन पर हाथ फेर कर कहा – बेटा, कहीं दगा न देना। माना कि तुम छोटे-मोटे टट्टू हो और ख्वाजा साहब का बोझ तुमसे न उठ सकेगा, मगर कुछ परवा नहीं, हिम्मते मरदाँ मददे खुदा। टट्टू को खोला और उस पर सवार होकर आहिस्ता-आहिस्ता कैंप से बाहर की तरफ चले। बदन काँप रहा था, मगर जब कोई सौ कदम के फासिले पर निकल गए तो एक सवार ने पुकारा – कौन जाता है? खड़ा रह!
खोजी – हम हैं जी ग्रासकट, सरकारी घोड़ों की घास छीलते हैं।
सवार – अच्छा तो चला जा।
खोजी जब जरा दूर निकल आए तो दो-चार बार खूब गुल मचाया – मार लिया, मार लिया! ख्वाजा साहब दो करोड़ रूसियों में से बेदाग निकले आते हैं। लो भई तुर्कों, ख्वाजा साहब आ पहुँचे।
अपनी फतह का डंका बजा कर खोजी घोड़े से उतरे और चादर बिछा कर सोए तो ऐसी मीठी नींद आई कि उम्र भर न आई थी। घड़ी भर रात बाकी थी कि उनकी नींद खुली। फिर घोड़े पर सवार हुए और आगे चले। दिन निकलते-निकलते उन्हें एक पहाड़ के नजदीक एक फौज मिली। आपने समझा कि तुर्कों की फौज है। चिल्ला कर बोले – आ पहुँचे; आ पहुँचे! अरे यारो दौड़ो। ख्वाजा साहब के कदम धो-धो कर पीओ, आज ख्वाजा साहब ने वह काम किया कि रुस्तम के दादा से भी न हो सकता। दो करोड़ रूसी पहरा दे रहे थे और मैं पैंतरे बदलता हुआ दन से गायब, लकड़ी टेकी और उड़ा। दो करोड़ रूसी दौड़े, मगर मुझे पकड़ पाना दिल्लगी नहीं। कह दिया, लो हम लंबे होते हैं, चोरी से नहीं चले, डंके की चोट कह कर चले।
अभी वह यह हाँक लगा ही रहे थे कि पीछे से किसी ने दोनों हाथ पकड़ लिए और घोड़े से उतार लिया।
खोजी – ऐं, कौन है भई? मैं समझ गया मियाँ आजाद हैं।
मगर आजाद वहाँ कहाँ, यह रूसियों की फौज थी। उसे देखते ही खोजी का नशा हिरन हो गया। रूसियों ने उन्हें देख कर खूब तालियाँ बजाईं। खोजी दिल ही दिल में कटे जाते थे, मगर बचने की कोई तदबीर न सूझती थी। सिपाहियों ने खोजी को चपतें जमानी शुरू कीं। उधर देखा, इधर पड़ी। खोजी बिगड़ कर बोले – अच्छा गीदी, इस वक्त तो बेबस हूँ, अबकी फँसाओ तो कहूँ। कसम है अपने कदमों की, आज तक कभी किसी को नहीं सताया। और सब कुछ किया, पतंग उड़ाए, चंडू पिया, अफीम खाया, चरस के दम लगाए, मदक के छींटे उड़ाए, मगर किस मरदूद ने किसी गरीब को सताया हो!
यह सोच कर खोजी की आँखों से आँसू निकल आए।
एक सिपाही ने कहा – बस, अब उसको दिक न करो। पहले पूछ लो कि यह है कौन आदमी। एक बोला – यह तुर्की है, कपड़े कुछ बदल डाले हैं। दूसरे ने कहा – यह गोइंदा है, हमारी टोह में आया है।
औरों को भी यही शुबहा हुआ। कई आदमियों ने खोजी की तलाशी ली।
अब खोजी और सब असबाब तो दिखाते हैं, मगर अफीम की डिबिया नहीं खोलते।
एक रूसी – इसमें कौन चीज है? क्यों तुम इसको खोलने नहीं देते? हम जरूर देखेंगे।
खोजी – ओ गीदी, मारूँगा बंदूक, धुआँ उस पार हो जायगा। खबरदार जो डिबिया हाथ से छुई! अगर तुम्हारा दुश्मन हूँ तो मैं हूँ। मुझे चाहे मारो, चाहे कैद करो, पर मेरी डिबिया में हाथ न लगाना।
रूसियों को यकीन हो गया कि डिबिया में जरूर कोई कीमती चीज है। खोजी से डिबिया छीन ली। मगर अब उनमें आपस में लड़ाई होने लगी। एक कहता था, डिबिया में जो कुछ निकले वह सब आदमियों में बराबर-बराबर बाँट दी जाय। गरज डिबिया खोली गई तो अफीम निकली। सब के सब शर्मिंदा हुए। एक सिपाही ने कहा – इस डिबिया को दरिया में फेंक दो। इसी के लिए हममें तलवार चलते-चलते बची।
दूसरा बोला – इसे आग में जला दो।
खोजी – हम कहे देते हैं, डिबिया हमें वापस कर दो, नहीं हम बिगड़ जायँगे तो क्यामत आ जायगी। अभी तुम हमें नहीं जानते!
सिपाहियों ने समझ लिया कि यह कोई दीवाना है, पागलखाने से भाग आया है। उन्होंने खोजी को एक बड़े पिंजरे में बंद कर दिया। अब मियाँ खोजी की सिट्टी-पिट्टी भूल गई। चिल्ला कर बोले – हाय आजाद! अब तुम्हारी सूरत न देखेंगे। खैर, खोजी ने नमक का हक अदा कर दिया। अब वह भी कैद की मुसीबतें झेल रहा है और सिर्फ तुम्हारे लिए। एक बार जालिमों के पंजे से किसी तरह मार-कूट कर निकल भागे थे, मगर तकदीर ने फिर कैद में ला फँसाया। जवाँमरदों पर हमेशा मुसीबत आती है, इसका तो गम नहीं; गम इसी का है कि शायद अब तुमसे मुलाकात न होगी। खुदा तुम्हें खुश रखे, मेरी याद करते रहना –
शायद वह आएँ मेरे जनाजे प’ दोस्तो,
आँखें खुली रहें मेरी दीदार के लिए।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 75
मियाँ आजाद कासकों के साथ साइबेरिया चले जा रहे थे। कई दिन के बाद वह डैन्यूब नदी के किनारे जा पहुँचे। वहाँ उनकी तबीयत इतनी खुश हुई कि हरी-हरी दूब पर लेट गए और बड़ी हसरत से यह गजल पढ़ने लगे –
रख दिया सिर को तेगे कातिल पर,
हम गिरे भी तो जाके मंजिल पर।
आँख जब बिसमिलों में ऊँची हो,
सिर गिरे कटके पाय कातिल पर।
एक दम भी तड़प से चैन नहीं,
देख लो हाथ रखके तुम दिल पर।
यह गजल पढ़ते-पढ़ते उन्हें हुस्नआरा की याद आ गई और आँखों से आँसू गिरने लगे। कासक लोगों ने समझाया कि भई, अब वे बातें भूल जाओ, अब यह समझो कि तुम वह आजाद ही नहीं हो। आजाद खिल-खिला कर हँसे और ऐसा मालूम हुआ कि वह आपे में नहीं हैं। कासकों ने घबरा कर उनको सँभाला और समझाने लगे कि यह वक्त सब्र से काम लेने का है। अगर होश-हवास ठीक रहे तो शायद किसी तदबीर से वापस जा सको वरना खुदा ही हाफिज हे। साइबेरिया से कितने ही कैदी भाग आते हैं, मगर तुम तो अभी से हिम्मत हारे देते हो।
इतने में वह जहाज जिस पर सवार हो कर आजाद को डैन्यूब के पार जाना था, तैयार हो गया। तब तो आजाद की आँखों से आँसुओं का ऐसा तार बँधा कि कासकों के भी रूमाल तर हो गए। जिस वक्त जहाज पर सवार हुए दिल काबू में न रहा। रो-रो कर कहने लगे – हुस्नआरा, अब आजाद का पता न मिलेगा। आजाद अब दूसरी दुनिया में हैं, अब ख्वाब में इस आजाद की सूरत न देखोगी जिसे तुमने रूम भेजा।
यह कहते-कहते आजाद बेहोश हो गए। कासकों ने उनको इत्र सुँघाया और खूब पानी के छींटे दिए तब जा कर कहीं उनकी आँखें खुलीं। इतने में जहाज उस पर पहुँच गया तो आजाद ने रूम की तरफ मुँह करके कहा – आज सब झगड़ा खत्म हो गया। अब आजाद की कब्र साइबेरिया में बनेगी और कोई उस पर रोने वाला न होगा।
कासकों ने शाम को एक बाग में पड़ाव डाला और रात भर वहीं आराम किया। लेकिन जब सुबह को कूच की तैयारियाँ होने लगीं तो आजाद का पता न था। चारों तरफ हुल्लड़ मच गया, इधर-उधर सवार छूटे, पर आजाद का पता न पाया। वह बेचारे एक नई मुसीबत में फँस गए थे।
सबेरे मियाँ आजाद की आँख जो खुली तो अपने को अजब हालत में पाया। जोर की प्यास लगी हुई थी, तालू सूखा जाता था, आँखें भारी, तबीयत सुस्त, जिस चीज पर नजर डालते थे, धुंधली दिखाई देती थी। हाँ, इतना अलबत्ता मालूम हो रहा था कि उनका सिर किसी के जानू पर है। मारे प्यास के ओठ सूख गए थे, गो आँखें खोलते थे, मगर बात करने की ताकत न थी। इशारे से पानी माँगा और जब पेट भर पानी पी चुके तो होश आया। क्या देखते हैं कि एक हसीन औरत सामने बैठी हुई है। औरत क्या, हूर थी। आजाद ने कहा, खुदा के वास्ते बताओ कि तुम कौन हो? हमें कैसे यहाँ फाँस लाई, मेरी तो कुछ समझ ही में नहीं आता, कासक कहाँ हैं? डैन्यूब कहाँ है? मैं यहाँ क्यों छोड़ दिया गया? क्या साइबेरिया इसी मुकाम का नाम है? हसीना ने आँखों से इशारे से कहा – सब्र करो, सब कुछ मालूम हो जायगा। आप तुर्की हैं या फ्रांसीसी?
आजाद – मैं हिंदी हूँ। क्या यह आप ही का मकान है?
हसीना – नहीं, मेरा मकान पोलेंड में है, मगर मुझे यह जगह बहुत पसंद है। आइए, आपको मकान की सैर कराऊँ।
आजाद ने देखा कि पहाड़ की एक ऊँची चोटी पर कीमती पत्थरों की एक कोठी बनी है। पहाड़ ढालू था और उस पर हरी-हरी घास लहरा रही थी। एक मील के फासिले पर एक पुराना गिरजा का सुनहला मीनार चमक रहा था। उत्तर की तरफ डेन्यूब नदी अजब शान से लहरें मारती थी! किश्तियाँ दरिया में आती हैं। रूस की फौजें दरिया के पार जाती हैं। मेढा हवा से उछल रहा है। कोठी के अंदर गए तो देखा कि पहाड़ को काट कर दीवारें बनी हैं। उसकी सजावट देख कर उनकी आँखें खुल गईं। छत पर गए तो ऐसा मालूम हुआ कि आसमान पर जा पहुँचे। चारों तरफ पहाड़ों की ऊँची-ऊँची चोटियाँ हरी-हरी दूब से लहरा रही थीं। कुदरत का यह तमाशा देख कर आजाद मस्त हो गए और यह शेर उनकी जबान से निकला –
लगी है मेंह की झड़ी, बाग में चलो झूल,
कि झूलने का मजा भी इसी बहार में है।
यह कौन फूटके रोया कि दर्द की आवाज,
रची हुई जो पहाड़ों के आबशार में है।
हसीना – मुझे यह जगह बहुत पसंद है। मैंने जिंदगी भर यहीं रहने का इरादा किया है, अगर आप भी यहीं रहते तो बड़े मजे से जिंदगी कटती!
आजाद – यह आपकी मिहरबानी है! मैं तो लड़ाई खत्म हो जाने के बाद अगर छूट सका तो वतन चला जाऊँगा।
हसीना – इस खयाल में न रहिएगा, अब इसी को अपना वतन समझिए।
आजाद – मेरा यहाँ रहना कई जानों का गाहक हो जायगा। जिस खातून ने मुझे लड़ाई में शरीक होने के लिए यहाँ भेजा है, वह मेरे इंतजार में रो-रो कर जान दे देगी।
हसीना – आपकी रिहाई अब किसी तरह मुमकिन नहीं। अगर आपको अपनी जान की मुहब्बत है तो वतन का खयाल छोड़ दीजिए, वरना सारी जिंदगी साइबेरिया में काटनी पड़ेगी।
आजाद – इसका कोई गम नहीं, मगर कौल जान के साथ है।
हसीना – मैं फिर समझाए देती हूँ। आप पछताएँगे।
आजाद – आपको अख्तियार है।
यह सुनते ही उस औरत ने आजाद को फिर कैदखाने में भेजवा दिया।
अब मियाँ खोजी का हाल सुनिए। रूसियों ने उन्हें दीवाना समझ कर जब छोड़ दिया तो आप तुर्कों की फौज में पहुँच कर दून की लेने लगे। हमने यों रूसियों से मुकाबिला किया और यों नीचा दिखाया। एक रूसी पहलवान से मेरी कुश्ती भी हो गई, बहुत बफर रहा था। मुझसे न रहा गया। लँगोट कसा और खुदा का नाम ले कर ताल ठोंक के अखाड़े में उतर पड़ा, वह भी दाँव-पेंच में बक था और हाथ-पाँव ऐसे कि क्या कहूँ। मेरे हाथ-पाँव से भी बड़े।
एक सिपाही – ऐं,अजी हम न मानेंगे आपके हाथ-पाँव से ही हाथ-पाँव तो देव के भी न होंगे!
खोजी – बस, ज्यों ही उसने हाथ बढ़ाया, मैंने हाथ बाँध लिया। फिर जो जोर करता हूँ तो हाथ खट से अलग!
सिपाही – अरे, हाथ ही तोड़ डाले। बेचारे को कहीं का न रखा!
खोजी – बस, फिर दूसरा आया, मैंने गरदन पकड़ी और अंटी दी, धम से गिरा। तीसरा आया, चपत जमाई और धर दबाया। चौथा आया, अड़ंगा मारा और धम से गिरा दिया। पाँचवाँ आया और मैंने मारे करौलियों के कचूमर निकाल लिया।
सिपाही – आपने बुरा किया। ताकतवर लोग कमजोरों पर रहम किया करते हैं।
खोजी – तब कई सवार तोपें लिए हुए आए; मगर मैंने सबको पटका। आखिर कोई सत्तर आदमी मिल कर मुझ पर टूट पड़े तब जाके कहीं मैं गिरफ्तार हुआ।
सिपाही – बस, सत्तर ही! सत्तर आदमियों को तो आप पीस कर धर देते। कम से कम कोई दो सौ तो जरूर होंगे!
खोजी – झूठ न बोलूँगा, मुझे सबों ने रखा बड़ी इज्जत के साथ। रात भर तो में वहीं रहा, सबेरा होते ही करौली ले कर ललकारा कि आ जाओ जिसको आना हो, बंदा चलता है। बस कोई दो करोड़ रूसी निकल पड़े – लेना-लेना! अरे मैंने कहा कि किसका लेना और किसका देना, आ जा जिसे आना हो। खुदा की कसम जो किसी ने चूँ भी की हो। सब के सब डर गए।
तुर्क समझ गए कि निरा जाँगलू हैं। खोजी ने यही समझा कि मैंने इन सबों को उल्लू बनाया। दिन भर तो पिनक लेते रहे, शाम के वक्त हवा खाने निकले। इत्तिफाक से राह में एक गधा मिल गया। आप फौरन गधे पर सवार हुए और टिक-टिक करते चले। थोड़ी ही दूर गए थे कि एक आदमी ने ललकारा – रोक ले गधा, कहाँ लिए जाता है?
खोजी – हट जा सामने से।
जवान – उतर गधे से। उतरता है या मैं दूँ खाने भर को?
खोजी – तू नहीं छोड़ेगा, निकालूँ करौली फिर?
आखिर, उस जवान ने खोजी को गधे से ढकेल दिया, तब आप चोर-चोर का गुल मचाने लगे। यह गुल सुन कर दो-चार आदमी आ गए और खोजी को चपतें जमाने लगे।
खोजी – तुम लोगों की कजा आई है, मैं धुनके रख दूँगा।
जवान – चुपके से घर की राह लो, ऐसा न हो, तुम्हें तुम्हारी खोपड़ी सुहलानी पड़े।
इत्तिफाक से एक तुर्की सवार का उस तरफ से गुजर हुआ। खोजी ने चिल्ला कर कहा – दोहाई है सरकार की! यह डाकू मारे डालते हैं।
सवार ने खोजी को देख कर पूछा – तुम यहाँ कहाँ?
खोजी – ये लोग मुझे तुर्की का दोस्त समझ कर मारे डालते हें।
सवार ने उन आदमियों को डाँटा और अपने साथ चलने का हुक्म दिया। खोजी शेर हो गए। एक के कान पकड़े और कहा, आगे चल। दूसरे पर चपत जमाई और कहा, पीछे चल।
इस तरह खोजी ने इन बेचारों की बुरी गत बनाई, मगर पड़ाव पर पहुँच कर उन्हें छोड़वा दिया।
जब सब लोग खा कर लेटे तो खोजी ने फिर डींग मारनी शुरू की। एक बार मैं दरिया नहाने गया तो बीचोबीच में जा कर ऐसा गोता लगाया कि तीन दिन पानी से बाहर न हुआ।
एक सिपाही – तब तो आप यों कहिए कि आप गोताखोरों के उस्ताद हैं। कल जरा हमें भी गोता ले कर दिखाइए।
खोजी – हाँ-हाँ, जब कहो।
सिपाही – अच्छा तो कल की रही।
खोजी ने समझा, यह सब रोब में आ जायँगे। मगर वे एक छटे गुर्गे। दूसरे दिन उन सबों ने खोजी को साथ लिया और दरिया नहाने को चले। पड़ाव से दरिया साफ नजर आता था। खोजी के बदन के रोंगटे खड़े हो गए। भागने ही को थे कि एक आदमी ने रोक लिया और दो तुर्कों ने उनके कपड़े उतार लिए। खोजी की यह कैफियत थी कि कलेजा थरथर काँप रहा था, मगर जबान से बात न निकलती थी। जब उन्होंने देखा कि अब गला न छूटेगा तो मिन्नतें करने लगे – भाइयो, मेरी जान के क्यों दुश्मन हुए हो? अरे यारो, मैं तुम्हारा दोस्त हूँ, तुम्हारे सबब से इतनी जहमत उठाई, कैद हुआ और अब तुम लोग हँसी-हँसी में मुझे डुबो देना चाहते हो। गरज खोजी बहुत गिड़गिड़ाए, मगर तुर्कों ने एक न मानी। खोजी मिन्नतें करते-करते थक गए तो कोसने लगे – खुदा तुमसे समझे! यहाँ कोई अफसर भी नहीं है। न हुई करौली, नहीं इस वक्त जीता चुनवा देता। खुदा करे, तुम्हारे ऊपर बिजली गिरे। सब के सब कपड़े उतार लिए, गोया उनके बाप का माल था। अच्छा गीदी, अगर जीता बचा तो समझ लूँगा। मगर दिल्लगीबाजों ने इतने गोते दिए कि वे बेदम हो गए और एक गोता खा कर डूब गए।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 76
आजाद को साइबेरिया भेज कर मिस क्लारिसा अपने वतन को रवाना हुई और रास्ते में एक नदी के किनारे पड़ाव किया। वहाँ की आब-हवा उसको ऐसी पसंद आई कि कई दिन तक उसी पड़ाव पर शिकार खेलती रही। एक दिन मिस-कलरिसा ने सुबह को देखा कि उसके खेमे के सामने एक दूसरा बहुत बड़ा खेमा खड़ा हुआ है। हैरत हुई कि या खुदा, यह किसका सामान है। आधी रात तक सन्नाटा था, एकाएक खेमे कहाँ से आ गए! एक औरत को भेजा कि जा कर पता लगाए कि ये कौन लोग है। वह औरत जो खेमे में गई तो क्या देखती है कि एक जवाहिरनिगार तख्त पर एक हूरों को शरमाने वाली शाहजादी बैठी हुई है। देखते ही दंग हो गई। जा कर मिस क्लारिसा से बोली – हुजूर, कुछ न पूछिए, जो कुछ देखा, अगर ख्वाब नहीं तो जादू जरूर है। ऐसी औरत देखी कि परी भी उसकी बलाएँ ले।
क्लारिसा – तुमने कुछ पूछा भी कि हैं कौन?
लौंडी – हुजूर, मुझ पर तो ऐसा रोब छाया कि मुँह से बात ही न निकली। हाँ, इतना मालूम हुआ कि एक रईसजादी है और सैर करने के लिए आई है।
इतने में वह औरत खेम से बाहर निकल आई। क्लारिसा ने झुक कर उसको सलाम किया और चाहा कि बढ़ कर हाथ मिलाएँ, मगर उसने क्लारिसा की तरफ तेज निगाहों से देख कर मुँह फेर लिया। वह कोहीक्राफ की परी मीडा थीं। जब से उसे मालूम हुआ कि क्लारिसा ने आजाद को साइबेरिया भेजवा दिया है, वह उसके खून की प्यासी हो रही थी। इस वक्त क्लारिसा को देखकर उसके दिल ने कहा कि ऐसा मौका फिर हाथ न आएगा, मगर फिर सोचा कि पहले नरमी से पेश आऊँ। बातों-बातों में सारा माजरा कह सुनाऊँ, शायद कुछ पसीजे।
क्लारिसा – तुम यहाँ क्या करने आई हो?
मीडा – मुसीबत खींच लाई है, और क्या कहूँ। लेकिन आप यहाँ कैसे आईं?
क्लारिसा – मेरा भी वही हाल है। वह देखिए, सामने जो कब्र है उसी में वह दफन है जिसकी मौत ने मेरी जिंदगी को मौत से बदतर बना दिया है। हाय! उसकी प्यारी सूरत मेरी निगाह के सामने हैं, मगर मेरे सिवा किसी को नजर नहीं आती।
मीडा – मैं भी उसी मुसीबत में गिरफ्तार हूँ। जिस जवान को दिल दिया, जान दी, ईमान दिया, वह अब नजर नहीं आता, उसको एक जालिम बागवान ने बाग से जुदा कर दिया। खुदा जाने, वह गरीब किन जंगलों में ठोकरें खाता होगा।
क्लारिसा – मगर तुम्हें यह तसकीन तो हैं कि तुम्हारा यार जिंदा है और कभी न कभी उससे मुलाकात होगी। मैं तो उसके नाम को रो चुकी। मेरे और उसके माँ-बाप शादी करने पर राजी थे, हम खुश थे कि दिल की मुरादें पूरी होंगी, मगर शादी के एक ही दिन पहले आसमान टूट पड़ा, मेरे प्यारे को फौज में शरीक होने का हुक्म मिला। मैंने सुना तो जान सी निकल गई। लाख समझाया, मगर उसने एक न सुनी। जिस रोज यहाँ से रवाना हुआ, मैंन खूब मातम किया और रुखसत हुई। यहाँ रात-दिन उसकी जुदाई में तड़पा करती थी, मगर अखबारों में लड़ाई के हाल पढ़ कर दिल को तसल्ली देती थी। एका-एक अखबार में पढ़ा कि उसकी एक तुर्की पाशा से तलवार चली, दोनों जख्मी हुए, पाशा तो बच गया, मगर वह बेचारा जान से मारा गया। उस पाशा का नाम आजाद है। यह खबर सुनते ही मेरी आँखों में खून उतर आया, दिल में ठान लिया कि अपने प्यारे के खून का बदला आजाद से लूँगी। यह तय करके यहाँ से चली और जब आजाद मेरे हाथों से बच गया तो मैंने उसे साइबेरिया भेजवा दिया।
मीडा यह सुन कर बेहोश हो गई।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 77
जिस वक्त खोजी ने पहला गोता खाया तो ऐसे उलझे कि उभरना मुश्किल हो गया। मगर थोड़ी ही देर में तुर्कों ने गोते लगा कर इन्हें ढूँढ़ निकाला। आप किसी कदर पानी पी गए थे। बहुत देर तक तो होश ही ठिकाने न थे। जब जरा होश आया तो सबको एक सिरे से गालियाँ देना शुरू कीं। सोचे कि दो-एक रोज में जरा टाँठा हो लूँ तो इनसे खूब समझूँ। डेरे पर आ कर आजाद के नाम खत लिखने लगे। उनसे एक आदमी ने कह दिया था कि अगर किसी आदमी के नाम खत भेजना हो और पता न मिलता हो तो खत को पत्तों में लपेट दरिया कि किनारे खड़ा हो और तीन बार ‘भेजो-भेजो’ कह कर खत को दरिया में डाल दे, खत आप ही आप पहुँच जायगा। खोजी के दिल में यह बात बैठ गई। आजाद के नाम एक खत लिख कर दरिया में डाल आए। उस खत में आपने बहादुरी के कामों की खूब डींगे मारी थीं।
रात का वक्त था, ऐसा अँधेरा छाया हुआ था, गोया तारीकी का दिल सोया हो। ठंडी हवा के झोंके इतने जोर से चलते थे कि रूह तक काँप जाती थी। एकाएक रूस की फौज से नक्कारे की आवाज आई। मालूम हुआ कि दोनों तरफ के लोग लड़ने को तैयार हैं। खोजी घबरा कर उठ बैठे और सोचने लगे कि यह आवाजें कहाँ से आ रही हैं? इतने में तुर्की फौज भी तैयार हो गई और दोनों फौजें दरिया के किनारे जमा हो गईं। खोजी ने दरिया की सूरत देखी तो काँप उठे। कहा – अगर खुश्की की लड़ाई होती तो हम भी आज जौहर दिखाते। यों तो सब अफसर और सिपाही ललकार रहे थे, मगर खोजी की उमंगें सबसे बढ़ी हुई थीं। चिल्ला-चिल्ला कर दरिया से कह रहे थे कि अगर तू खुश्क हो जाय तो मैं फिर मजा दिखलाऊँ। एक हाथ में परे के परे काट कर रख दूँ।
गोला चलने लगा। तुर्कों की तरफ से एक इंजीनियर ने कहा कि यहाँ से आध मील के फासिले पर किश्तियों का पुल बाँधना चाहिए। कई आदमी दौड़ाए गए कि जा कर देखें, रूसियों की फौजें किस-किस मुकाम पर हैं। उन्होंने आ कर बयान किया कि एक कोस तक रूसियों का नाम-निशान नहीं है। फौरन पुल बनाने का इंतजाम होने लगा। यहाँ से डेढ़ कोस पर पैंतीस किश्तियाँ मौजूद थीं। अफसर ने हुक्म दिया कि उन किश्तियों को यहाँ लाया जाय। उसी दम दो सवार घोड़े कड़कड़ाते हुए आए। उनमें से एक खोजी थे।
खोजी – पैंतीस किश्तियाँ यहाँ से आधा कोस पर मुस्तैद हैं। मैंने सोचा, जब तक सवार तुम्हारे पास पहुँचेंगे और तुम हुक्म दोगे कि किश्तियाँ आएँ तब तक यहाँ खुदा जाने क्या हो जाय, इसलिए एक सवार को ले कर फौरन किश्तियों को इधर लो आया।
फौज के अफसर ने यह सुना तो खोजी की पीठ ठोंक दी और कहा – शाबाश! इस वक्त तो तुमने हमारी जान बचा दी।
खोजी अकड़ गए। बोले – जनाब, हम कुछ ऐसे-वैसे नहीं हैं! आज हम दिखा देंगे कि हम कौन हैं। एक-एक को चुन-चुन कर मारूँ!
इतने में इंजीनियरों ने फुर्ती के साथ किश्ती का पुल बाँधने का इंतजाम किया। जब पुल तैयार हो गया तो अफसर ने कुछ सवारों को उस पार भेजा। खोजी भी उनके साथ हो लिए। जब पुल के बीच में पहुँचे तो एक दफा गुल मचाया – ओ गीदी, हम आ पहुँचे।
तुर्कों ने उनका मुँह दबाया और कहा – चुप!
इतने में तुर्कों का दस्ता उस पार पहुँच गया। रूसियों को क्या खबर थी कि तुर्क लोग क्या कर रहे हैं। इधर खोजी जोश में आ कर तीन-चार तुर्कों को साथ ले दरिया के किनारे-किनारे घुटनों के बल चले। जब उनको मालूम हो गया कि रूसी फौज थक गई तो तुर्कों ने एक दम से धावा बोल दिया। रूसी घबरा उठे। आपस में सलाह की कि अब भाग चलें। खोजी भी घोड़े पर सवार थे, रूसियों को भागते देखा तो घोड़े को एक एड़ दी और भागते सिपाहियों में से सात आदमियों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। तुर्की फौज में वाह-वाह का शोर मच गया। ख्वाजा साहब अपनी तारीफ सुन कर ऐसे खुश हुए कि परे में घुस गए और घोड़े को बढ़ा-बढ़ा कर तलवार फेंकने लगे। दम के दम में रूसी सवारों ने मैदान खाली कर दिया। तुर्की फौज में खुशी के शादियाने बजने लगे। ख्वाजा साहब के नाम फतह लिखी गई। इस वक्त उनके दिमाग सातवें आसमान पर थे। अकड़े खड़े थे। बात-बात पर बिगड़ते। हुक्म दिया – फौज के जनरल से कहो, आज हम उनके साथ खाना खाएँगे। खाना खाने बैठे तो मुँह बनाया, वाह! इतने बड़े अफसर और यह खाना। न मीठे चावल, न फिरनी, न पोलाव। खाना खाते वक्त अपनी बहादुरी की कथा कहने लगे – वल्लाह, सबों के हौसले पस्त कर दिए। ख्वाजा साहब हैं कि बातें! मेरा नाम सुनते ही दुश्मनों के कलेजे काँप गए। हमारा बार कोई रोक ले तो जानें। बरसों मुसीबतें झेली हैं तब जा के इस काबिल हुए कि रूसियों के लश्कर में अकेले घुस पड़े! और हमें डर किसका है? बहिश्त के दरवाजे खुले हुए हैं।
अफसर – हमने वजीर-जंग से दरख्वास्त की है कि तुमको इस बहादुरी का इनाम मिले।
खोजी – इतना जरूर लिखना कि यह आदमी दगले वाली पलटन का रिसालदार था।
अफसर – दगलेवाली पलटन कैसी? मैं नहीं समझा।
खोजी – तुम्हारे मारे नाक में दम है और तुम हिंदी की चिंदी निकालते हो। अवध का हाल मालूम है या नहीं? अवध से बढ़ कर दुनिया में और कौन बादशाहत होगी?
अफसर – हमने अवध का नाम नहीं सुना। आपको कोई खिताब मिले तो आप पसंद करेंगे?
खोजी – वाह, नेकी और पूछ-पूछ!
उस दिन से सारी फौज में खोजी की धूम मच गई। एक दिन रूसियों ने एक पहाड़ी पर से तुर्कों पर गोले उतारने शुरू किए। तुर्क लोग आराम से लेटे हुए थे। एकाएक तोप की आवाज सुनी तो घबरा गए। जब तक मुकाबला करने के लिए तैयार हों तब तक उनके कई आदमी काम आए। उस वक्त खोजी ने अपने सिपाहियों को ललकारा, तलवार खींच पहाड़ी पर चढ़ गए और कई आदमियों को जख्मी किया, इससे उनकी और भी धाक बैठ गई। जिसे देखो, उन्हीं की तारीफ कर रहा था।
एक सिपाही – आपने आज वह काम किया है कि रुस्तम से भी न होता। आपके वास्ते कोई खिताब तजवीजा जायगा।
खोजी – मेरा आजाद आ जाय तो मेरी मिहनत ठिकाने लगे, वरना सब हेच है।
अफसर – जिस वक्त तुम घोड़े से गिरे, मेरे होश उड़ गए।
खोजी – गिरते ही सँभल भी गए थे।
अफसर – चित गिरे थे?
खोजी – जी नहीं। पहलवान जब गिरेगा, पट गिरेगा।
अफसर – जरा सा तो आप का कद है और इतनी हिम्मत!
खोजी – क्या कहा, जरा सा कद, किसी पहलवान से पूछिए। कितनी ही कुश्तियाँ जीत चुका हूँ।
अफसर – हमसे लड़िएगा?
खोजी – आप ऐसे दस हों तो क्या परवा?
फौज के अफसर ने उसी दिन वजीर-जंग के पास खोजी की सिफारिश लिख भेजी।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 78
खोजी थे तो मसखरे, मगर वफादार थे। उन्हें हमेशा आजाद की धुन सवार रहती थी। बराबर याद किया करते थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि आजाद को पोलैंड की शाहजादी ने कैद कर दिया है तो वह आजाद को खोजने निकले। पूछते-पूछते किसी तरह आजाद के कैदखाने तक पहुँच ही तो गए। आजाद ने उन्हें देखते ही गोद में उठा लिया।
खोजी – आजाद, आजाद, अरे मियाँ, तुम कौन हो?
आजाद – ओ-हो-हो!
खोजी – भाईजान, तुम भूत हो या प्रेत, हमें छोड़ दो। मैं अपने आजाद को ढूँढ़ने जाता हूँ।
आजाद – पहले यह बताओ कि यहाँ कैसे पहुँचे?
खोजी – सब बतलाएँगे मगर पहले यह तो बताओ कि तुम्हारी यह गति कैसी हो गई?
आजाद ने सारी बातें खोजी को समझाईं, तो आपने कहा – वल्लाह, निरे गाउदी हो। अरे भाईआन, तुम्हारी जान के लाले पड़े हैं, तुमको चाहिए कि जिस तरह मुमकिन हो, शाहजादी को खुश करो, तुमको तो यह दिखाना चाहिए कि शाहजादी को छोड़ कर कहीं जाओगे ही नहीं। खूब इश्क जताओ, तब कहीं तुम्हारा ऐतबार होगा।
आजाद – हो सिड़ी तो क्या हुआ, मगर बात ठिकाने की करते हो, मगर यह तकरीर कौन करे?
खोजी – और हम आए क्या करने हैं?
यह कह कर आप शाहजादी के सामने आ कर खड़े हो गए। उसने इनकी सूरत देखी तो हँस पड़ी। मियाँ खोजी समझे कि हम पर रीझ गई। बोले – क्या लड़वाओगी क्या? आजाद सुनेगा तो बिगड़ उठेगा। मगर वाह रे मैं! जिसने देखा, वही रीझा और यहाँ यह हाल है कि किसी से बोलने तक नहीं। एक हो तो बोलूँ, दो हो तो बोलूँ, चार निकाह तक तो जायज हैं, मगर जब इंद्र का अखाड़ा पीछे पड़ जाय तो क्या करूँ?
शाहजादी – जरा बैठ तो जाइए। यह तो अच्छा नहीं मालूम होता कि मैं बैठी रहूँ और आप खड़े रहें।
खोजी – पहले यह बताओ कि दहेज क्या दोगी?
हबशिन – और अकड़ते किस बिरते पर हो। सूखी हड्डियों पर यह गरूर?
खोजी – तुम पहलवानों की बातें क्या जानो। यह चोर-बदन कहलाता है; मैं अखाड़े में उतर पड़ूँ तो फिर कैफियत देखो।
हबशिन – टेनी मुर्ग के बराबर तो आपका कद है और दावा इतना लंबा चौड़ा!
खोजी – तुम गँवारिन हो, ये बातें क्या जानो। तुम कद को देखा चाहो और यहाँ लंबे आदमी को लोग बेवकूफ कहते हैं। शेर को देखो और ऊँट को देखो। मिस्र में एक बड़े ग्रांडील जवान को पटकनी बताई। मारा,चारों खाने चित। उठ कर पानी भी न माँगा।
खैर; बहुत कहने-सुनने से आप कुरसी पर बैठे तो दोनों टाँगें कुरसी पर रख लीं और बोले – अब दहेज का हाल बताओ। लेकिन मैं एक शर्त से शादी करूँगा, इन सब लौंडियों को महल बनाऊँगा और इनके अच्छे-अच्छे नाम रखूँगा। ताऊस-महल, गुलाम-महल…।
शाहजादी – तो आप अपनी शादी के फेर में हैं, यह कहिए।
खोजी – हँसती आप क्या हैं, अगर हमारा करतब देखना हो किसी पहलवान को बुलाओ। अगर हम कुश्ती निकालें तो शादी मंजूर?
शाहजादी ने एक मोटी-ताजी हबशिन को बुलाया। खोजी ने आँख ऊपर उठाई तो देखते हैं कि एक काली-कलूटी देवनी हाथ में एक मोटा सोटा लिए चली आती हैं। देखते ही उनके होश उड़ गए। हबशिन ने आते ही इनके कंधे पर हाथ रखा तो इनकी जान निकल गई। बोले – हाथ हटाओ।
हबशिन – दम हो तो हाथ हटा दो।
खोजी – मेरे मुँह न लगना, खबरदार!
हबशिन ने उनका हाथ पकड़ लिया और मरोड़ने लगी। खोजी झल्ला-झल्ला कर कहते थे, हाथ छोड़ दे। हाथ टूटा तो बुरी तरह पेश आऊँगा, मुझसे बुरा कोई नहीं।
हबशिन ने हाथ छोड़ कर उनके दोनों कान पकड़े और उठाया तो जमीन से छः अंगुल ऊँचे!
हबशिन – कहो, शादी पर राजी हो या नहीं?
खोजी – औरत समझ कर छोड़ दिया। इसके मुँह कौन लगे!
इस पर हबसिन ने ख्वाजा साहब को गोद में उठाया और ले चली। उन्होंने सैकड़ों गालियाँ दीं – खुदा तेरा घर खराब करे, तुम पर आसमान टूट पड़े, देखो, मैं कहे देता हूँ कि पीस डालूँगा। मैं सिर्फ इस सबब से नहीं बोलता कि मर्द हो कर औरत जाति से क्या बोलूँ। कोई पहलवान होता तो मैं अभी समझ लेता, और समझता क्या? मारता चारों खाने चित।
हबशिन – खैर, दिल्लगी तो हो चुकी, अब यह बताओ कि आजाद से तुमने क्या कहा? वह तो आपके दोस्त हैं।
खोजी – ऊँह, तुमको किसी ने बहका दिया, वह दोस्त नहीं, लड़के हैं। मैंने उसके नाम एक खत लिखा है, ले जाओ और उसका जवाब लाओ!
हबशिन आपका खत ले कर आजाद के पास पहुँची और बोली – हुजूर, आपके वालिद ने इस खत का जवाब माँगा है।
आजाद – किसने माँगा है? तुमने यह कौन लफ्ज कहा?
हबशिन – हुजूर के वालिद ने…। वह जो ठेंगने से आदमी हैं।
आजाद – वह सुअर मेरे घर का गुलाम है। वह मसखरा है। हम उसके खत का जवाब नहीं देते।
हबशिन ने आ कर खोजी से कहा – आपका खत पढ़ कर आपके लड़के बहुत ही खफा हुए।
खोजी – नालायक है कपूत, जी चाहता है, अपना सिर पीट लूँ।
शाहजादी ने कहा – जा कर आजाद पाशा को बुला लाओ, इस झगड़े का फैसला हो जाय।
जरा देर में आजाद आ पहुँचे। खोजी ने उन्हें देख कर सिटपिटा गए।
इधर तो शाहजादी खोजी के साथ यों मजाक कर रही थी। उधर एक लौंडी ने आकर कहा – हुजूर, दो सवार आए हैं और कहते हैं कि शाहजादी को बुलाओ। हमने बहुत कहा कि शाहजादी साहब को आज फुरसत नहीं है, मगर वह नहीं सुनते।
शाहजादी ने खोजी से कहा कि बाहर जा कर इन सवारों से पूछो कि वह क्या चाहते हैं? खोजी ने जा कर उन दोनों को खूब गौर से देखा और आ कर बोले – हुजूर, मुझे तो रईसजादे मालूम होते हैं। शाहजादी ने जा कर शाहजादों को देखा तो आजाद भूल गए। उन्हें एक दूसरे महल में ठहराया और नौकरों को ताकीद कर दी कि इन मेहमानों को कोई तकलीफ न होने पाए। आजाद तो इस खयाल में बैठे थे कि शाहजादी आती होगी और शाहजादी नए मेहमानों की खातिरदारी का इंतजाम कर रही थी। लौंडियाँ भी चल दीं, खोजी और आजाद अकेले रह गए।
आजाद – मालूम होता है, उन दोनों लौंडों को देख कर लट्टू हो गई।
खोजी – तुमसे तो पहले ही कहते थे, मगर तुमने ने माना। अगर शादी हो गई होती तो मजाल थी कि गैरों को अपने घर में ठहराती।
आजाद – जी चाहता है, इसी वक्त चल कर दोनों के सिर उड़ा दूँ।
खोजी – यही तो तुममे बुरी आदत है। जरा सब्र से काम लो, देखो क्या होता है।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 79
इन दोनों शाहजादों में एक का नाम मिस्टर क्लार्क था और दूसरे का हेनरी! दोनों की उठती जवानी थी। निहायत खूबसूरत। शाहजादी दिन के दिन उन्हीं के पास बैठी रहती, उनकी बातें सुनने से उसका जी न भरता था। मियाँ आजाद तो मारे जलन के अपने महल से निकलते ही न थे। मगर खोजी टोह लेने के लिए दिन में कई बार यहाँ आ बैठते थे। उन दोनों को भी खोजी की बातों में बड़ा मजा आता।
एक दिन खोजी दोनों शाहजादों के पास गए, तो इत्तिफाक से शाहजादी वहाँ न थी। दोनों शाहजादों ने खोजी की बड़ी खातिर की। हेनरी ने कहा – ख्वाजा साहब, हमको पहचाना?
यह कह कर उसने टोप उतार दिया! खोजी चौंक पड़े। यह मीडा थी। बोले – मिस मीडा, खूब मिलीं।
मीडा – चुप-चुप! शाहजादी न जानने पाए। हम दोनों इसलिए आए हैं कि आजाद को यहाँ से छुड़ा ले जायँ।
खोजी – अच्छा, क्या यह भी औरत हैं?
मीडा – यह वही औरत हैं जो आजाद को पकड़ ले गई थीं।
खोजी – अक्खाह, मिस क्लारिसा! आप तो इस काबिल हैं कि आपका बायाँ कदम ले।
मीडा – अब यह बताओ कि यहाँ से छुटकारा पाने की भी कोई तदबीर है?
खोजी – हाँ, वह तदबीर बताऊँ कि कभी पट ही न पड़े! यह शाहजादी बड़ी पीनेवाली है, इसे खूब पिलाओ और जब बेहोश हो जाय तो ले उड़ो।
खोजी – ने जा कर आजाद से यह किस्सा कहा। आजाद बहुत खुश हुए। बोले – मैं दोनों की सूरत देखते ही ताड़ गया था।
खोजी – मिस क्लारिस कहीं तुम्हें दगा न दे।
आजाद – अजी नहीं, यह मुहब्बत की घातें हैं।
खोजी – अभी जरा देर में महफिल जमेगी। न कहोगे, कैसी तदबीर बताई!
खोजी ने ठीक कहा था। थोड़ी ही देर में शाहजादी ने इन दोनों आदमियों को बुला भेजा। ये लोग वहाँ पहुँचे तो शराब के दौर चल रहे थे।
शाहजादी – आज हम शर्त लगा कर पिएँगे।
हेनरी – मंजूर। जब तक हमारे हाथ से जाम न छूटे तब तक तुम भी न छोड़ो। जो पहले छोड़ दे वह हारा।
क्लार्क – (आजाद से) तुम कौन हो मियाँ, साफ बोलो!
आजाद – मैं आदमी नहीं हूँ, देवजाद हूँ। परियाँ मुझे खूब जानती हैं।
क्लारिसा –
उड़ता है मुझसे ओ सितमईजाद किस लिए,
बनता है आदमी से परीजाद किस लिए?
क्लारिसा ने शाहजादी को इतनी शराब पिलाई कि वह मस्त हो कर झूमने लगी। तब आजाद ने कहा – ख्वाजा साहब, आप सच कहना, हमारा इश्क सच्चा है या नहीं। मीडा, खुद जानता है, आज का दिन मेरी जिंदगी का सबसे मुबारक दिन है। किसे उम्मेद थी कि इस कैद में तुम्हारा दीदार होगा?
खोजी – बहुत बहको न भाई, कहीं शाहजादी सुन रही हो तो आफत आ जाय।
आजाद – वह इस वक्त दूसरी दुनिया में हैं।
खोजी – शाहजादी साहब, यह सब भागे जा रहे हैं, जरा होश में तो आइए।
आजाद – अबे चुप रह नालायक। मीडा, बताओ, किस तदबीर से भागोगी? मगर तुमने तो यह रूप बदला कि खुदा की पनाह! मैं यही दिल में सोचता था कि ऐसे हसीन शाहजादे कहाँ से आ गए, जिन्होंने हमारा रंग फीका कर दिया। वल्लाह, जो जरा भी पहचाना हो। मिस क्लारिसा, तुमने तो गजब ही कर दिया। कौन जानता था कि साइबेरिया भेज कर तुम मुझे छुड़ाने आओगी!
मीडा – अब तो मौका अच्छा है; रात ज्यादा आ गई है। पहरे वाले भी सोते होंगे, देर क्यों करें।
आजाद अस्तबल में गए और चार तेज घोड़े छाँट कर बाहर लाए। दोनों औरतें तो घोड़ों पर सवार हो गईं, मगर खोजी की हिम्मत छूट गई, डरे कि कहीं गिर पड़ें तो हड्डी-पसली चूर हो जाय। बोले – भई, तुम लोग जाओ; मुझे यहीं रहने दो। शाहजादी को तसल्ली देने वाला भी तो कोई चाहिए। मैं उसे बातों में लगाए रखूँगा जिसमें उसे कोई शक न हो। खुदा ने चाहा तो एक हफ्ते के अंदर कुस्तुनतुनिया में तुमसे मिलेंगे।
यह कह कर खोजी तो इधर चले और वे तीनों आदमी आगे बढ़े। कदम-कदम पर पीछे फिर-फिर कर देखते थे कि कोई पकड़ने न आ रहा हो। सुबह होते-होते ये लोग डैन्यूब के किनारे आ पहुँचे और घोड़ों से उतर हरी-हरी घास पर टहलने लगे। एकाएक पीछे से कई सवार घोड़े दौड़ाते आते दिखाई पड़े। इन लोगों ने अपने घोड़े चरने को छोड़ दिए थे। अब भागें कैसे? दम के दम में सब के सब सवार सिर पर आ पहुँचे और इन तीनों आदमियों को गिरफ्तार कर लिया। अकेले आजाद भला तीस आदमियों को क्या मुकाबला करते!
दोपहर होते-होते ये लोग शाहजादी के यहाँ जा पहुँचे। शाहजादी तो गुस्से से भरी बैठी थी। अंदर ही से कहला भेजा कि आजाद को कैद कर दो। यह हुक्म दे कर शाहजादों को देखने के लिए बाहर निकली तो शाहजादों की जगह दो शाहजादियाँ खड़ी नजर आईं? धक से रह गई। या खुदा, यह मैं क्या देख रही हूँ!
क्लारिसा – बहन, मर्द के भेस में तो तुम्हें प्यार कर चुके। अब आओ, बहनें-बहनें मिल कर प्यार करें। हम वही हैं जिनके साथ तुम शादी करने वाली हो।
शाहजादी – अरे क्लारिसा, तुम यहाँ कहाँ?
क्लारिसा – आओ गले मिलें। मुझे खौफ हैं कि कहीं तुम्हारे ऊपर कोई आफत न आ जाय। ऐसे नामी सरकारी कैदी को उड़ा लाना तुम्हें मुनासिब न था। वजीरजंग को यह खबर मिल गई है। अब तुम्हारी खैरियत इसी में है कि उस तुर्की जवान को हमारे हवाले कर दो।
शाहजादी समझ गई कि अब आजाद को रुखसत करना पड़ेगा। आजाद से जा कर बोली – प्यारे आजाद, मैंने तुम्हारे साथ जो बुराइयाँ की हैं, उन्हें माफ करना। मैंने जो कुछ किया, दिल की जलन से मजबूर हो कर किया। तुम्हारी जुदाई मुझसे बरदाश्त न होगी। जाओ, रुखसत।
यह कह कर उसने क्लारिसा से कहा – शाहजादी, खुदा के लिए उन्हें साइबेरिया न भेजना। वजीरजंग से तुम्हारी जान-पहचान है! वह तुम्हारी बात मानते हैं, अगर तुम माफ कर दोगी, तो वह जरूर माफ कर देंगे।
आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 80
उधर आजाद जब फौज से गायब हुए तो चारों तरफ उनकी तलाश होने लगी। दो सिपाही घूमते-घामते शाहजादी के महल की तरफ आ निकले। इत्तिफाक से खोजी भी अफीम की तलाश में घूम रहे थे। उन दोनों सिपाहियों ने खोजी को आजाद के साथ पहले देखा था। खोजी को देखते ही पकड़ लिया और आजाद का पता पूछने लगे।
खोजी – मैं क्या जानूँ कि आजाद पाशा कौन है। हाँ, नाम अलबत्ता सुना है।
एक सिपाही – तुम आजाद के साथ हिंदोस्तान से आए हो और तुमको खूब मालूम है कि आजाद पाशा कहाँ हैं।
खोजी – कौन आजाद के साथ आया है? मैं पठान हूँ, पेशावर से आया हूँ, मुझसे आजाद से वास्ता?
मगर वह दोनों सिपाही भी छँटे हुए थे, खोजी के झाँसे में न आए। खोजी ने जब देखा कि इन जालिमों से बचना मुश्किल है तो सोचे कि सिड़ी बन जाओ। कुछ का कुछ जवाब दो। मरना है तो दूसरे को ले कर मरो। मरना न होता तो अपना वतन छोड़ कर इतनी दूर आते ही क्यों। खास मजे में नवाब के यहाँ दनदनाते थे। उल्लू बना-बना कर मजे उड़ाते थे। चीनी की प्यालियों में मालवे की अफीम घुलती थी, चंडू के छींटे उड़ते थे, चरस के दम लगते थे। वह सब मजे छोड़-छाड़ कर उल्लू बने, मगर फँसे सो फँसे!
सिपाही – तुम्हारा नाम क्या है? सच-सच बता दो।
खोजी – कल तक दरिया चढ़ा था, आज चिड़िया दाना चुगेगी।
सिपाही – तुम्हारे बाप का क्या नाम था?
खोजी – हमको अपना नाम तो याद ही नहीं। बाप के नाम को कौन कहे?
सिपाही – तुम यहाँ किसके साथ आए?
खोजी – शैतान के साथ?
सिपाहियों ने जब देखा कि यह ऊल-जलूल बक रहा है तो उन्हें एक मोटे से दरख्त में बाँधा और बोले – ठीक-ठीक बतलाते हो तो बतला दो वरना हम तुम्हें फाँसी दे देंगे।
खोजी की आँखों से आँसू निकल पड़े। खुदा से दुआ माँगने लगे कि ऐ खुदा, मैं तो अब दुनिया से जा रहा हूँ, मगर मरते वक्त दुआ माँगता हूँ कि आजाद का बाल भी बाँका न हो।
आखिर सिपाहियों को खोजी के सिड़ी होने का यकीन आ ही गया। छोड़ दिया। खोजी के सिर से यह बला टली तो चहकने लगे। तुम लोग जिंदगी के मजे क्या जानो, हमने वह-वह मजे उड़ाए हैं कि सुनो तो फड़क जाओ। नवाब साहब की बदौलत बादशाह बने फिरते थे, सुबह से दस बजे तक चंडू के छींटे उड़े, फिर खाना खाया, सोए तो चार बजे की खबर लाए, चार बजे से अफीम घूमने लगी, पौंडे छोले और गँड़ेरियाँ चूसीं, इतने में नवाब साहब निकल आए। वैसे रईस यहाँ कहाँ? वहाँ के एक अदना कहार ने बीस लाख की शराब अपनी बिरादरी वालों को एक रात में पिला दी। एक कहार ने सोने-चाँदी की कुज्जियों में शराब पिलाई। इस पर एक बूढ़े खुर्राट ने कहा – न भाई पंचो, आपन मरजाद न छोड़ब। हमरे बाप यही कुज्जी माँ पिहिन। हमरे दादा पिहिन, अब हम कहाँ के बड़े रईस होइ गयन! महरा ने सोने-चाँदी की प्यालियाँ मँगवाईं और फकीरों को बाँट दीं। दस हजार प्यालियाँ चाँदी की थीं और दस हजार सोने की। जब बादशाह को यह खबर मिली तो हुक्म दिया कि जितने कहार आए हों, सबको एक-एक लहँगा दिलवा दिया जाय। अब इस गई-गुजरी हालत पर भी जो बात वहाँ है वह कहीं नहीं है।
सिपाही – आपके मुल्क में सिपाही तो अच्छे-अच्छे होंगे?
खोजी – हमारे मुल्क में एक से एक सिपाही मौजूद हैं। जो हैं अपने वक्त का रुस्तम।
सिपाही – आप भी तो वहाँ के पहलवान ही मालूम होते हैं।
खोजी – इस वक्त तो सर्दी ने मार डाला है, अब बुढ़ापा आया। जवानी में अलबत्ता मैं भी हाथी की दुम पकड़ लेता था तो हुमस नहीं सकता था। अब न वह शौक, न वह दिल, अब तो फकीरी अख्तियार की।
सिपाही – आपकी शादी भी हुई है?
खोजी – आपने भी वही बात पूछी! फकीर आदमी, शादी हुई न हुई, बराबर के लड़के हैं।
सिपाही – आप कुछ पढ़े-लिखे भी हैं?
खोजी – ऊह, पूछते हैं, पढ़े-लिखे हैं। यहाँ बिला पड़े ही आलिमफाजिल हैं; पढ़ने का मरज नहीं पालते, यह आरजा तो यहीं देखा, अपने यहाँ तो चंडू, चरस; मदक के चरचे रहते हैं। हाँ, अगले जमाने में पढ़ने-लिखने का भी रिवाज था।
सिपाही – तो आपका मुल्क जाहिलों ही से भरा हुआ है?
खोजी – तुम खुद गँवार हो। हमारे यहाँ एक-एक पहलवान ऐसे पड़े हैं जो तीन-तीन हजार हाथ जोड़ी के हिलाते हैं। दंडों पर झुक गए तो चार पाँच हजार दंड पेल डाले। गुलचले ऐसे कि अँधेरी रात में सिर्फ आवाज पर तीर लगाया और निशाना खाली न गया।
ये बातें करके, खोजी ने अफीम घोली और रूसियों से पीने के लिए कहा। और सबों ने तो इनकार किया, मगर एक मुसाफिर की शामत जो आई तो उसने एक चुस्की लगाई। जरा देर में नशे ने रंग जमाया तो झूमने लगा। साथियों ने कहकहा लगाया।
खोजी – एक दिन का जिक्र है कि नवाब साहब के यहाँ हम बैठे गप्पें उड़ा रहे थे। एक मौलवी साहब आए। यहाँ उस वक्त सरूर डटा हुआ था, हमने अर्ज की, मौलवी साहब, अगर हुक्म हो तो एक प्याली हाजिर करूँ। मौलवी ने आँखें नीली-पीली कीं और कहा – कोई मसखरा है बे तू! मैंने कहा – यार, ईमान से कह दो कि तुमने कभी अफीम पी है या नहीं? मौलवी साहब इतने जामे से बाहर हुए कि मुझे हजारों गालियाँ सुनाईं। आज बड़ी सर्दी है, हम ठिठुरे जाते हैं।
सिपाही – यह वक्त हवा खाने का है।
खोजी – खुदा की मार इस अक्ल पर। यह वक्त हवा खाने का है? यह वक्त आग तापने का है। हमारे मुल्क के रईस इस वक्त खिड़कियाँ बंद करके बैठे होंगे। हवा खाने की अच्छी कही, यहाँ तो रूह तक काँप रही है और आपको हवा खाने की सूझती है।
सिपाही – एक मुसाफिर ने हमसे कहा था कि हिंदोस्तान में लोग पुरानी रस्मों के बहुत पाबंद हैं। अब तक पुरानी लकीरें पीटते जाते हैं।
खोजी – तो क्या हमारे बाप-दादे बेवकूफ थे? उनकी रस्मों को जो न माने वह कपूत, जो रस्म जिस तरह पर चली आती है उसी तरह रहेगी।
सिपाही – अगर कोई रस्म खराब हो तो क्या उसमें तरमीम की जरूरत नहीं?
खोजी – लाख जरूरत हो तो क्या, पुरानी रस्मों में कभी तरमीम न करनी चाहिए। क्या वे लोग अहमक थे? एक आप ही बड़े अक्लमंद पैदा हुए!
रूसियों को खोजी की बातों में बड़ा मजा आया। उन्हें यकीन हो गया कि यह कोई दूसरा आदमी है। आजाद का दोस्त नहीं। खोजी को छोड़ दिया और कई दिन के बाद यह कुस्तुनतुनिया पहुँच गए।