Contents
- 1 48. सोम की भाव-धारा : वैशाली की नगरवधू
- 2 49. मार्ग-बाधा : वैशाली की नगरवधू
- 3 50. श्रावस्ती : वैशाली की नगरवधू
- 4 51. वर्षकार का यन्त्र : वैशाली की नगरवधू
- 5 52. सोण कोटिविंश : वैशाली की नगरवधू
- 6 53. गृहपति अनाथपिण्डिक : वैशाली की नगरवधू
- 7 54. मगध-महामात्य की कूटनीति : वैशाली की नगरवधू
- 8 55. मागध विग्रह : वैशाली की नगरवधू
- 9 56. नापित-गुरु : वैशाली की नगरवधू
- 10 57. शालिभद्र : वैशाली की नगरवधू
- 11 58. सर्वजित् महावीर : वैशाली की नगरवधू
- 12 59. शालिभद्र का विराग : वैशाली की नगरवधू
- 13 60. पांचालों की परिषद् : वैशाली की नगरवधू
- 14 61. जैतवन में तथागत : वैशाली की नगरवधू
- 15 62. अजित केसकम्बली : वैशाली की नगरवधू
वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 5
48. सोम की भाव-धारा : वैशाली की नगरवधू
बाहर आकर सोम थकित भाव से एक सूने चैत्य के किनारे एक वट-वृक्ष के सहारे आ बैठे। अपना विशाल खड्ग उन्होंने लापरवाही से एक ओर फेंक दिया। वह शून्य दृष्टि से आकाश को ताकते रहे। उस गलती हुई रात में उस एकांत भीषण स्थान में बैठे हुए सोम बहुत-सी बातें विचारते रहे। ओस से भीगे हुए गुलाब के पुष्प की भांति कुमारी का शोकपूर्ण मुख उनकी दृष्टि से घूम रहा था। एक प्रबल राज्य के राजा की राजनन्दिनी किस भांति उसी के उद्योग और यत्न के कारण इस अवस्था को पहुंची, यही सब सोच-सोचकर उनका नवीन, भावुक, तरुण और वीर हृदय आहत हो रहा था। रह-रहकर उन्हें आचार्य काश्यप की बातें याद आ रही थीं। राजतन्त्र की इस कुत्सा पर उन्हें अभी कुछ सोचने का अवसर ही न आया था। असुरप्री में तथा चंपा में वह कुण्डनी का अद्भुत कौशल, साहस और सामर्थ्य देख चुके थे। वह जान गए थे कि आचार्य की बात झूठी नहीं, इस अकेली कुण्डनी ही में एक भारी सेना की सामर्थ्य निहित है। राज्यों की लिप्सा में किस प्रकार निरीह-निर्दोष हृदय-कुसुम इस प्रकार दलित होते हैं, यह सोच-सोचकर सोम का हृदय मर्माहत हो रहा था, परन्तु बात केवल भूत-दया तक ही सीमित न थी। सोम का तारुण्य भी कुमारी को देखकर जाग्रत हुआ था। कुण्डनी के उत्तप्त साहचर्य से यत्किंचित् उनका सुप्त यौवन जाग्रत हुआ था, परन्तु उसे विषकन्या जान तथा भगिनी-भावना से वह वहीं ठिठक गया था। अब इस अमल-धवल कुसुम-कोमल सुकुमारी कुमारी के चंपकपुष्प के समान नवल देह और लज्जा, संकोच, दुःख और शोक से परिपूर्ण मूर्ति पर उनका सम्पूर्ण तारुण्य जैसे चल-विचल हो गया। उन्होंने प्रण किया मेरे ही कारण कुमारी की यह दुर्दशा हुई है। मैं ही इसका प्रतिरोध करूंगा।
बहुत देर तक सोम यही सोचते रहे। उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि कोई उनके निकट है। पर कुण्डनी छाया की भांति उनके साथ थी। बहुत देर बाद कुण्डनी ने कहा—
“क्या सोच रहे हो सोम!”
सोम ने अचकचाकर कुण्डनी की ओर देखा। फिर शांत-संयत स्वर में कहा—”कुण्डनी, कुछ हमारे ऊपर भी चम्पा की कुमारी की विपन्नावस्था का दायित्व है।”
“मूर्खता की बातें हैं। हम मगध राज-तन्त्र के यन्त्र हैं। हमें भावुक नहीं होना चाहिए।”
कुछ देर सोम चुपचाप आकाश को ताकते रहे, फिर वह एक लंबी सांस लेकर बोले—
“तुम कदाचित् ठीक कहती हो कुण्डनी, परन्तु मेरा तो अभी से सारा पुरुषार्थ गल गया और अब संभवतः राजनीति में भाग लेने की मुझमें शक्ति ही नहीं रह गई।”
“यह तुम क्या कहते हो सोम? आर्य अमात्य को तुमसे बड़ी-बड़ी आशाएं हैं। अभी हम जिस गुरुतर कार्य में नियुक्त हैं, हमें उधर ध्यान देना चाहिए।”
“अब तुम राजगृह लौट जाओ कुण्डनी, अब मेरे तुम्हारे मार्ग दो हैं।”
“परन्तु उद्देश्य एक ही है।”
“संभवतः वे भी दो हैं। तुम राजसेवा करो।”
“और तुम?”
“मैं राजकुमारी की सेवा करूंगा।”
कुण्डनी हंस दी। उसने निकट स्नेह से सोम के सिर पर हाथ रखा और स्निग्ध स्वर में कहा—
“सोम, तुम्हें मालूम है, कुण्डनी तुम्हारी भगिनी है।”
“जानता हूं।”
“सो तुम्हारा एकान्त हित कुण्डनी को छोड़ और दूसरा कौन करेगा?”
“तो तुम मेरा हित करो।”
“क्या करूं, कहो?”
“राज-सेवा त्याग दो।”
कुण्डनी ने हंसकर कहा—”और तुम्हारे साथ रहकर राजकुमारी की सेवा करूं?”
“इसमें हंसने की क्या बात है कुण्डनी? क्या यह सेवा नहीं है?”
“है।”
“फिर?”
“उनकी सेवा कर दी गई।”
“अर्थात् उन्हें रानी से राह की भिखारिणी और अनाथ बना दिया गया?” सोम ने उत्तेजित होकर कहा।
“यह कार्य तो हमारा नहीं था, राजकार्य था प्रिय। हमने तो विपन्नावस्था में उनका मित्र के समान साथ दिया है।”
“तो कुण्डनी, अब उनका क्या होगा? सोचो तो!”
“कुछ हो ही जाएगा। जल्दी क्या है! अभी तो हम श्रावस्ती जा ही रहे हैं।”
“नहीं, मैं राजकुमारी को वहां नहीं ले जाऊंगा।”
“उन्हें कहां ले जाओगे?”
“पृथ्वी के उस छोर पर जहां हम दोनों अकेले रहें।”
“कुण्डनी को कहां छोड़ोगे?” कुण्डनी हंस दी, उसने फिर सोम के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा—
“यह ठीक नहीं है, प्रिय।”
“तब?”
“विचार करो, राजकुमारी क्या सहमत होंगी?”
“मैं कह दूंगा कि मैं दास नहीं हूं…”
“… और मागध हूं, उसका पितृहन्ता और राज्यविध्वंसक शत्रु!”
“किन्तु, किन्तु…”
सोम उत्तेजित होकर पागल की भांति चीख उठे, उन्होंने कहा—
“मैं उन्हें चम्पा की गद्दी पर बैठाऊंगा। मैं मगध से विद्रोह करूंगा।”
“यह तो बहुत अच्छी योजना है सोम। फिर तुम अनायास ही चम्पाधिपति बन जाओगे। किन्तु राजकुमारी क्या तुम्हें क्षमा कर देंगी?”
“इतना करने पर भी नहीं?”
“ओह, तुम उनका मूल्य उन्हीं को चुकाओगे और फिर उन्हें अपनी दासी बनाकर रखोगे?”
“दासी बनाकर क्यों?”
“और किस भांति? तुम राजकुमारी की विचार-भावना की परवाह बिना किए अपनी ही योजना पर चलते जाओगे और समझोगे कि राजकुमारी तुम्हारी अनुगत हो गईं।”
“तो कुण्डनी, मैं राजकुमारी के लिए प्राण दूंगा।”
“सो दे देना, बहुत अवसर आएंगे। अभी तुम चुपचाप श्रावस्ती चलो। राजकुमारी को निरापद स्थान पर सुरक्षित पहुंचाना सबसे प्रथम आवश्यक है। हम लोग छद्मवेशी हैं, पराये राज्य में राजसेवा के गुरुतर दायित्व से दबे हुए हैं, राजकुमारी को अपने साथ रखने की बात सोच ही नहीं सकते। फिर तुम एक तो अज्ञात-कुलशील, दूसरे मागध, तीसरे असहाय हो; ऐसी अवस्था में तुम राजकुमारी को कैसे ले जा सकते हो? और कहां? हां, यदि उनकी विपन्नावस्था से लाभ उठाकर उन पर बलात्कार करना हो तो वह असहाय अनाथिनी कर भी क्या सकती है? परन्तु सोम, यह तुम्हारे लिए शोभनीय नहीं होगा।” सोम ने कुण्डनी के चरण छुए। उनके दो गर्म आंसू कुण्डनी के पैरों पर टपक पड़े। सोम ने कहा—”कुण्डनी, स्वार्थवश मैं अधम विचारों के वशीभूत हो गया। तुम ठीक कहती हो, उन्हें निरापद स्थान पर पहुंचाना ही हमारा प्रथम धर्म है।”
“तो अब तुम सोचो। बहुत रात हो गई। हमें एक पहर रात रहते ही यह स्थान त्यागना होगा। मैं शंब को जगाती हूं। वह प्रहरी का कार्य करेगा।”
सोम ने और हठ नहीं किया। वह वहीं वृक्ष की जड़ में लंबे हो गए। कुण्डनी ने स्नेहपूर्वक उत्तरीय से उनके अंग को ढक दिया और फिर एक स्निग्ध दृष्टि उन पर फेंककर मठ में चली गई।
49. मार्ग-बाधा : वैशाली की नगरवधू
तीन दिन तक ये यात्री अपनी राह निरन्तर चलते रहे। वे अब रात्रि-भर चलते और दिन निकलने पर जब धूप तेज होती तो किसी वन या पर्वत-कंदरा में आश्रय लेते, आखेट भूनकर खा लेते। श्रावस्ती अब भी काफी दूर थी। चौथे दिन प्रहर रात्रि गए जब उन्होंने यात्रा प्रारम्भ की, तब आकाश में एकाध धौले बादलों की दौड़-धूप हो रही थी। षष्ठी का क्षीण चन्द्र उदय हुआ था। राह पथरीली और ऊबड़-खाबड़ थी, इसलिए चारों यात्री धीरे-धीरे जा रहे थे। इसी समय अकस्मात् सामने दाहिने पार्श्व पर कुछ अश्वारोहियों की परछाईं दृष्टिगोचर हुई।
सोम ने कहा—”सावधान हो जाओ कुण्डनी! नहीं कहा जा सकता कि ये मित्र हैं या शत्रु। दस्यु भी हो सकते हैं।” उन्होंने खड्ग कोश से निकाल लिया। कुण्डनी और शंब ने धनुष पर बाण सीधे कर लिए। इसी समय एक बाण सनसनाता हुआ सोम के कान के पास से निकल गया। तत्काल कुण्डनी ने बाण संधान किया। उसे संकेत से रोककर सोम फुर्ती से वाम पार्श्व में घूम गए। वहां एक चट्टान की आड़ में उन्होंने आश्रय लिया। कुण्डनी और राजकुमारी को वहां छिपाकर तथा शंब को उनकी रक्षा का भार देकर अश्व को चट्टान के ऊपर ले गए। उन्होंने देखा, शत्रु पचास से भी ऊपर हैं और उन्होंने उन्हें देख लिया है और वे उस चट्टान को घेरने का उपक्रम कर रहे हैं। सामने एक घाटी और उसके उस पार प्रशस्त मार्ग है। घाटी बहुत तंग और लम्बी है। यह सब देखकर वे तुरन्त ही कुण्डनी के निकट आ गए। उन्होंने कहा—”शत्रु पचास से भी अधिक हैं और सम्भवतः उन्होंने हमें आते देख लिया है।”
“क्या करना होगा?” कुण्डनी ने स्थिर स्वर से कहा।
सोम ने व्यग्र भाव से कहा—”कुण्डनी, चाहे भी जिस मूल्य पर हमें राजकुमारी की रक्षा करनी होगी। हम चार हैं और शत्रु बहुत अधिक। यदि किसी तरह हम घाटी के उस पार पहुंच जाएं तो फिर कुछ आशा हो सकती है। राजकुमारी को साहस करना होगा। पहले तुम, पीछे राजकुमारी, उसके बाद शंब और फिर मैं, घाटी को पार करेंगे। हम तीनों में जो भी जीवित बचे, वह राजकुमारी को श्रावस्ती पहुंचा दे। मैं शत्रु का ध्यान आकर्षित करता रहूंगा। तुम तीर की भांति पार जाकर चट्टान की आड़ में हो जाना। मैं उधर जाकर शत्रु पर तीर फेंकता हूं। तीर की ओर शत्रु का ध्यान जाते ही तुम घूमकर घाटी पार हो जाना। मेरे दूसरे तीर पर राजकुमारी और तीसरे पर शंब।”
इतना कह सोम धनुष पर बाण चढ़ा चट्टान की दूसरी ओर चले गए। और वहां से कान तक खींचकर बाण फेंका। बाण एक योद्धा की पसली में घुस गया, वह चीत्कार करके पृथ्वी पर गिर पड़ा। कुण्डनी ने एक मर्मभेदनी दृष्टि राजकुमारी पर डाली। अश्व पर आसन जमाया और एक एड़ मारी। सैन्धव अश्व तीर की भांति छलांग लगाकर घाटी के पार हो गया। उस पार जाकर कुण्डनी ने संकेत किया और चट्टान की आड़ में हो गई। सोम ने संतोष की सांस ली और कुमारी के निकट आकर अवरुद्ध कण्ठ से कहा—”अब आप राजनन्दिनी, साहस कीजिए। आपका धूम्रकेतु असाधारण अश्व है। ज्यों ही मैं तीर फेंकू, आप अश्व को छोड़ दीजिए।” उसने धूम्रकेतु की पीठ थपथपाई। राजनन्दिनी ने दांतों से होंठ काटे और उत्तरीय भली-भांति सिर पर लपेटा। सोम ने बाण छोड़ा और राजकुमारी ने अश्व की वल्गु का एक झटका दिया। अश्व हवा में तैरता हुआ पार हो गया—सोम का मुख आनन्द से खिल गया। अब उन्होंने शम्ब की ओर मुड़कर कहा—”शम्ब, यदि मैं असफल होऊं तो तू प्राण रहते राजकुमारी की रक्षा करना!”
शम्ब ने स्वामी के चरण छुए। सोम ने फिर बाण फेंका, शम्ब ने अश्व को संकेत किया। अश्व हवा में उछला और पार हो गया। अब सोम की बारी थी। परन्तु अब शत्रु निकट आकर फैल गए थे।
सोम ने अश्व को थपथपाया और एड़ लगाई, अश्व उछला और इसी समय एक बाण आकर सोम की गर्दन में घुस गया और सोम वायु से टूटे वृक्ष की भांति घाटी में गिर गया। शम्ब चीत्कार करके दौड़ पड़ा, राजकुमारी हाय कर उठीं। कुण्डनी का मुंह फक् हो गया। राजकुमारी घाटी की ओर लपकीं, परन्तु कुण्डनी ने हाथ पकड़कर उन्हें रोककर कहा—”क्षण-भर ठहरो हला, शम्ब उनकी सहायता पर है।” उधर से बाणों का मेह बरस रहा था, उनमें से अनेक शम्ब के शरीर में घुस गए। उसके शरीर से रक्त की धार बह चली। पर उसने इसकी कोई चिन्ता नहीं की। वह मूर्छित सोम को कन्धे पर लादकर इस पार ले आया।
“और अश्व, शम्ब?” कुण्डनी ने उद्वेग से कहा—”दोनों अश्व मर गए।” शम्ब ने हांफते-हांफते कहा। बाण वहां तक आ रहे थे और शत्रु घाटी पार करने की चेष्टा कर रहे थे। कुण्डनी ने कहा—”शम्ब, इन्हें राजकुमारी के घोड़े पर रखो और तुम मेरे साथ-साथ आओ। एक क्षण का विलम्ब भी घातक होगा।”
इसी समय सोम की मूर्छा भंग हुई। उसने राजकुमारी को सामने देखकर सूखे कण्ठ से कहा—”कुण्डनी, तुम राजकुमारी को लेकर भागो। हम लोग—मैं और शम्ब—तब तक शत्रु को रोकेंगे।”
राजकुमारी ने आंखों में आंसू भरकर कहा—”नहीं, आप मेरे अश्व पर आइए।”
“व्यर्थ है, हम सब मारे जाएंगे।”
इसी बीच शम्ब ने तीर मारकर दो शत्रुओं को धराशायी कर दिया। सोम ने साहस करके तीर खींचकर कण्ठ से निकाल दिया। खून की धार बह चली। राजकुमारी ने लपककर अपना उत्तरीय सोम के कण्ठ से बांध दिया और कहा—”उठो भद्र, मेरे अश्व पर।”
“नहीं राजकुमारी, तुम भागो। एक-एक क्षण बहुमूल्य है।”
“मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊंगी।” और वह सोम के वक्ष पर गिर गई।
सोम के घाव से अब भी रक्त निकल रहा था। एक शत्रु घाटी के इस पार आ गया था, उसे शम्ब ने बाण से मारकर कहा—
“बहुत शत्रु इस पार आ रहे हैं।”
सोम ने कांपते हाथों से राजकुमारी को अलग करके कहा—”ईश्वर के लिए कुमारी, प्राण और प्रतिष्ठा लेकर भागो।”
“तो हम लोग साथ ही मरें।”
“नहीं राजनन्दिनी, इस अधम का मोह न करो, प्राण लेकर भागो।”
“किन्तु मैं तुम्हें…”
“ओह कुमारी, कुछ मत कहो, जीवन रहा तो फिर मिलेंगे।”
“पर मैं जीते जी तुम्हें नहीं छोड़ सकती।”
वह सोम के शरीर से लिपट गई।
सोम ने सूखे कण्ठ से कहा—”तुम्हें भ्रम हुआ है कुमारी, मैं मागध हूं तुम्हारा शत्रु।”
मार्ग में पड़े हुए सर्प को अकस्मात् देखकर जैसे मनुष्य चीत्कार कर उठता है, उसी भांति चीत्कार करके कुमारी सोम को छोड़कर दो कदम पीछे हट गई और भीत नेत्रों से सोम की ओर देखने लगी।
सोम ने कुण्डनी को संकेत किया और एक चट्टान का ढासना लेकर धनुष संभाला। कुमारी की ओर से उसने मुंह फेर लिया और धनुष पर तीर चढ़ाते हुए कहा—”शम्ब, तुम दाहिने, मैं बाएं।”
परन्तु सोम बाण लक्ष्य पर न छोड़ सके। धनुष से बाण छटकर निकट ही जा गिरा। उधर सोम एकबारगी ही बहुत-सा रक्त निकल जाने से मूर्छित हो गए। उनकी आंखें पथरा गईं और गर्दन नीचे को लुढ़क गई।
शम्ब ने एक बार स्वामी को और फिर शत्रु को भीत दृष्टि से देखा। सामने कुण्डनी एक प्रकार से राजकुमारी को घसीटती हुई अश्व पर सवार करा अपने और कुमारी के अश्व को संभालती चट्टान के मोड़ पर पहुंच चुकी थी। राजकुमारी अश्व पर मृतक की भांति झुक गई थीं। शत्रु घाटी के इस पार आ चुके थे। कुण्डनी ने एक बार शंब की ओर देखा। शंब ने उसे द्रुत वेग से भागने का संकेत करके सोम को कन्धे पर उठा लिया और वह तेजी से पर्वत-कन्दरा की ओर दौड़ गया। एक सुरक्षित गुफा में सोम को लिटा, आप धनुष-बाण लेकर गुफा के द्वार पर बैठ गया।
परन्तु इतनी तत्परता, साहस एवं शौर्य भी कुछ काम न आ सका। शत्रुओं ने शीघ्र ही राजकुमारी और कुण्डनी को चारों ओर से घेर लिया। भागने का प्रयास व्यर्थ समझकर कुण्डनी अब मूर्छिता कुमारी की शुश्रूषा करने लगी।
दस्युओं में से एक ने आगे बढ़कर दोनों के अश्व थाम दिए। चन्द्रमा के क्षीण प्रकाश में अश्वारोहियों को देखकर प्रसन्न मुद्रा से उसने कहा—
“वाह, दोनों ही स्त्रियां हैं!”
दूसरे ने निकट आकर कहा—
“और परम सुन्दरियां भी हैं। मालिक को अभी-अभी सूचना देनी होगी।” उसने राजकुमारी को देखकर कहा—”मालिक ऐसी ही एक दासी की खोज में थे।” एक पुरुष ने चकमक झाड़कर प्रकाश किया और कुण्डनी से पूछा—
“कौन हो तुम?”
“राही हैं, देखते नहीं?”
“देख रहे हैं, तुम्हारे वे साथी कहां हैं, जिन्होंने हमारे इतने आदमी मार डाले हैं?”
“उन्हें तुम्हीं खोज लो।”
“अच्छी बात है; यह भी संभव है, वे लोग उसी घाटी में मर-खप गए हों। किन्तु तुम लोग जा कहां रही हो?”
“हम श्रावस्ती जा रहे हैं।”
“वह तो अभी साठ योजन है।”
“इससे तुम्हारा क्या प्रयोजन है! हमें अपने मार्ग जाने दो।”
“हमारा सार्थवाह भी श्रावस्ती जा रहा है, हमारे साथ ही चलो तुम।”
“क्या बल से?”
“नहीं विनय से।” वह पुरुष हंसकर पीछे हट गया। उसके साथी दोनों के अश्वों को घेरकर चलने लगे। कुण्डनी ने विरोध नहीं किया। कुछ दूर चलने पर उन्होंने देखा, वन के एक प्रांत भाग में कोई पचास-साठ पुरुष आग के चारों ओर बैठे हैं, एक ओर कुछ स्त्रियां भी एक बड़े शिलाखंड की आड़ में बैठी हैं। कुछ सो रही हैं।
इनके वहां पहुंचने पर कई मनुष्य इनके निकट आ गए। एक पुरुष ने मशाल ऊंची करके कहा—”वाह, बहुत बढ़िया माल है! स्वामी को अभी सूचना दो।” इसी समय एक अधेड़ अवस्था का खूब मोटा आदमी आगे आया। इसकी लम्बी दाढ़ी और मोटी गरदन थी। वह एक कीमती शाल लापरवाही से कमर में लपेटे हुआ था। उसने हर्षित नेत्रों से दोनों स्त्रियों को देखा और हाथ मलकर सिर हिलाया।
“तो तुम दास-विक्रेता हो?” कुण्डनी ने घृणा से होंठ सिकोड़कर कहा।
“तुम ठीक समझ गई हो, परन्तु चिन्ता न करो, मैं श्रावस्ती जा रहा हूं। तुम्हें और तुम्हारी सखी को महाराज को भेंट करूंगा। वहां तुम्हारी यह सखी पट्ट राजमहिषी का पद ग्रहण करेंगी और तुम भी। संभवतः तुम अति दूर से आ रही हो और तुम्हारी साथिन रुग्ण है। अभी विश्राम करो, प्रभात में परिचय प्राप्त करूंगा।” उसने दास को संकेत किया और उनके अश्व थाम उधर ले गया, जिधर अन्य स्त्रियां बैठी थीं। पहले उसने राजकुमारी को सहारा देकर उतारा, फिर वह कुण्डनी के निकट आया। वह असावधान था, कुण्डनी ने विद्युत-वेग से उस पर हठात् कटार का वार किया और द्रुत वेग से अश्व को छोड़ दिया। दास ने चिल्लाकर कहा—”पकड़ो, पकड़ो! दासी भागी जाती है।” अनेक पुरुष अस्त्र-शस्त्र लेकर उसके पीछे दौड़े, पर कुण्डनी उनके हाथ न आई। कुछ देर में सब लोग हताश हो लौट आए। राजकुमारी का एकमात्र अवलम्ब भी जाता रहा। वह वहीं मूर्छित होकर गिर गई।
50. श्रावस्ती : वैशाली की नगरवधू
श्रावस्ती उन दिनों जम्बूद्वीप पर सबसे बड़ा नगर था। कोसल महाराज्य के अन्तर्गत साकेत और वाराणसी ये दो महानगर भी महासमृद्धशाली थे, परन्तु श्रावस्ती की उनसे होड़ न थी। साकेत बहुत दिन से कोसल की राजधानी न रही थी। इस समय उसका महत्त्व केवल इसलिए था कि वह उत्तरापथ के प्रशस्त महाजनपथ पर थी तथा उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के सार्थवाह, जल-थल दोनों ही मार्गों से, साकेत होकर जाते थे।
परन्तु श्रावस्ती में समस्त जम्बूद्वीप ही की संपदाओं का अगम समागम था। यहां अनाथपिण्डिक सुदत्त और मृगार जैसे धनकुबेरों का निवास था, जिनके सार्थ जम्बूद्वीप ही में नहीं, ताम्रलिप्ति के मार्ग से बंगाल की खाड़ी और भरु-कच्छ तथा शूर्पाटक से अरब-सागर को पारकर सुदूर द्वीपों में जाते और संपदा विस्तार करते थे। श्रावस्ती से प्रतिष्ठान तक का मार्ग माहिष्मती, उज्जैन, गोनर्द, विदिशा, कौशाम्बी और साकेत होकर था। श्रावस्ती से राजगृह का मार्ग पहाड़ की तराई होकर था। मार्ग में सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हस्तिग्राम, भण्डग्राम, वैशाली, पाटलिपुत्र और नालन्दा पड़ते थे। पूर्व से पश्चिम का मार्ग बहुत करके नदियों द्वारा तय होता था। गंगा में सहजाति और यमुना में कौसाम्बी तक बड़ी-बड़ी नावें चलती थीं। सार्थवाह विदेह होकर गान्धार तक और मगध होकर सौवीर तक, भरुकच्छ से बर्मा तक और दक्षिण होकर बेबीलोन तक तथा चंपा से चीन तक जाते-आते थे। रेगिस्तानों में लोग रात को चलते थे और पथप्रदर्शक नक्षत्रों के सहारे मार्ग का निर्णय करते थे।
सुवर्णभूमि से लेकर यवद्वीप तक, तथा दक्षिण में ताम्रपर्णी तक आना-जाना था। श्रावस्ती महानगरी में हाथी-सवार, घुड़सवार, रथी, धनुर्धारी आदि नौ प्रकार की सेनाएं रहती थीं। कोसल राज्य की सैन्य में यवन, शक, तातार और हूण भी सम्मिलित थे। यवनों को ऊंचे-ऊंचे सेनापति के पद प्राप्त थे। उच्चवर्गीय सेट्ठियों, सामन्तों, श्रमणों और श्रोत्रिय ब्राह्मणों के अतिरिक्त दास, रसोइए, नाई, उपमर्दक, हलवाई, माली, धोबी, जुलाहे, झौआ बनानेवाले, कुम्हार, मुहर्रिर, मुसद्दी और कर्मकार भी थे।
कर्मकारों में धातु, लकड़ी और पत्थर पर काम करनेवाले, चमड़े, हाथीदांत के कारीगर, रंगाईवाले, जौहरी, मछली मारनेवाले, कसाई, चित्रकार आदि अनगिनत थे। रेशम, मलमल, चर्म, कारचोबी का काम, कम्बल, औषधि, हस्तिदन्त, जवाहर, स्वर्णाभरण आदि के अनगिनत व्यापारी थे।
जातियों में ब्राह्मण-महाशाल, क्षत्रिय सामन्तों का उच्च स्थान था। इनके बाद सेट्ठिजन थे, जो धन-सम्पदा में बहुत चढ़े-बढ़े थे। देश-विदेश का धन-रत्न इनके पास खिंचा चला आता था। उन दिनों देश में दस प्रतिशत ये सामन्त ब्राह्मण और नब्बे प्रतिशत सेट्ठिजन सर्वसाधारण की कमाई का उपयोग करते थे। इन 90 प्रतिशत में 20 प्रतिशत तो दास ही थे, जिनका समाज में कोई अधिकार ही न था। शेष 70 प्रतिशत जनसाधारण के तरुण इन सामन्तों और राजाओं के निरर्थक युद्धों में अपने प्राण देने को बलात् विवश किए जाते थे और उनकी विवश युवती सुन्दरी कन्याएं, उनके अन्तःपुरों की भीड़ में दासियों, उपपत्नियों आदि के रूप में रख ली जाती थीं। ब्राह्मण इन सामन्तों और राजाओं को परमपरमेश्वर घोषित करते, इन्हें ईश्वरावतार प्रमाणित करते और इनके सब ऐश्वर्यों को पूर्वजन्म के सुकृतों का फल बताते थे। इसके बदले में वे बड़ी-बड़ी दक्षिणाएं फटकारते और स्वर्णभूषिता सुन्दरी दासियां दान में पाते थे।
मगध-सम्राट श्रेणिक बिम्बसार को परास्त करके और कौशाम्बीपति उदयन की नियुक्ता गांधारनन्दिनी कलिंगसेना को प्राप्त करके बूढ़े घमंडी कोसलेश प्रसेनजित् बहुत प्रसन्न थे। इस विजय और हर्ष के उपलक्ष्य में उन्होंने राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था, जिसके लिए बहुत भारी आयोजन किया जा रहा था। महाराज अभी तक राजधानी में नहीं थे, साकेत में ही विराज रहे थे। परन्तु श्रावस्ती में यज्ञ की तथा कलिंगसेना के विवाह की तैयारियां बड़ी धूमधाम से हो रही थीं। देश-देशान्तर के राजाओं, सामन्तों और मांडलिकों ने विविध प्रकार की भेटें भेजी थीं। व्यापारियों, अतिथियों, मुनियों और ब्राह्मणों के झुण्ड-के-झुण्ड श्रावस्ती में चले आ रहे थे।
श्रावस्ती के राजमहालय में कलिंगसेना का बड़े ठाठ का स्वागत हुआ। समस्त पुरी सजाई गई। उसका अद्भुत सौन्दर्य, नीलमणि के समान उज्ज्वल नेत्र, चमकीले सोने के तार के-से स्वर्ण-केश और स्फटिक-सी धवल-गौर कांति एवं सुगठित सुस्पष्ट देहयष्टि देखकर सम्पूर्ण रनिवास आश्चर्यचकित रह गया। महाराज प्रसेनजित् के रनिवास में देश-विदेश की एक से एक बढ़कर सैकड़ों सुन्दरियां थीं। कलिंगसेना के सामने सभी की आभा फीकी पड़ गई। उन सहस्राधिक रमणियों में उसके रूप को कोई पा ही नहीं सकती थीं। परन्तु कलिंगसेना जैसी रूपसम्पन्ना नारी थी, वैसी ही मानवती और विदुषी भी थी। वह गान्धार के स्वतन्त्र और स्वस्थ वातावरण में पली थी। तक्षशिला के निकेतन में उसने शिक्षा पाई थी। वह वेद, वेदांग, ज्योतिष और चौदह विद्याओं के सिवा शस्त्र-संचालन और अश्व संचालन में भी एक ही थी। उसने हठपूर्वक गान्धार से श्रावस्ती तक अश्व की पीठ पर यात्रा की थी। राजमहल में उसे सम्पूर्ण सुख-साधन-सम्पन्न पृथक् प्रासाद दिया गया था।
इस समय श्रावस्ती में काफी भीड़-भाड़ थी। परन्तु यह भी कलिंगसेना को अच्छी नहीं लग रही थी। उसने अभी पति को नहीं देखा था, पर उसने सुना था कि वे विगलित यौवन सत्तर वर्ष के बूढ़े, सनकी और स्त्रैण कापुरुष हैं। उसने इच्छापूर्वक ही कौशाम्बीपति उदयन को त्यागकर इस बूढ़े राजा से विवाह करने की स्वीकृति दे दी थी, परन्तु उसका प्रिय भाव उदयन की ही ओर था। प्रसेनजित् के प्रति उसके मन में पूरी विरक्ति थी। महाराज के श्रावस्ती में लौटने पर उसका विवाह होगा, यह उसे मालूम था। उसकी तैयारियां भी वह देख रही थी और धैर्यपूर्वक बलि-पशु की भांति उस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी। उस तेजवती विदुषी स्त्री ने पिता के राजनीतिक स्वार्थ की रक्षा के लिए बलि दी थी। इसलिए वह चुपचाप सूनी दृष्टि से कौतूहलाक्रान्त रनिवास को तथा अपने विवाह-अनुष्ठान की तैयारी को देख रही थी, जिसके लिए उसके मन में अवज्ञा के पूरे भाव भर गए थे।
कलिंगसेना अपने कक्ष में चुपचाप बैठी सूनी दृष्टि से सुन्दर आकाश की ओर ताक रही थी, इसी समय एक प्रौढ़ महिला ने वहां प्रवेश किया। कलिंगसेना ने उसकी ओर देखा, सूर्य के प्रखर तेज के समान उसका ज्वलंत रूप था। यद्यपि उसका यौवन कुछ ढल चुका था, परन्तु उसकी भृकुटी और दृष्टि में तेज और गर्व भरा हुआ था। आत्मनिर्भरता उसकी प्रत्येक चेष्टा से प्रकट हो रही थी। कलिंगसेना ने अभ्युत्थानपूर्वक उसे आसन देकर कहा—
“यह मुझे किन महाभागा के दर्शन की प्रतिष्ठा का लाभ हो रहा है?”
प्रौढ़ा ने हंसकर कहा—”कोसल के मन्त्रिगण जिन्हें महामहिम परम-परमेश्वर देव-देव महाराजाधिराज कोसलेश्वर कहकर सम्मानित करते हैं, उनकी मैं दासी हूं। इसके प्रथम एक क्रीता दासी वासव खत्तिय की महानाम शाक्य के औरस से उत्पन्न दासी-पुत्री थी।”
कलिंगसेना ने ससंभ्रम उठकर कहा—”ओह आप महामान्या राजमहिषी सुश्री देवी नन्दिनी हैं, मैं आपकी अभिवन्दना करती हूं।”
“अच्छा, तो तुम मेरा नाम और पद भी जानती हो? यह तो बहुत अच्छा है।”
“मैंने गान्धार में आपके तेज, प्रताप और पाण्डित्य के विषय में बहुत-कुछ सुना है।”
“अरे इतना अधिक? किन्तु अपनी कहो, तुम तो तक्षशिला की स्नातिका हो! तुमने वेद, ब्राह्मण, आरण्यक सब पढ़े हैं। और कौन-कौन-सी दिव्य विद्याएं जानती हो हला, सब कहो।”
“मैं आपकी अकिञ्चन छोटी बहिन हूं देवी नन्दिनी, इस पराये घर में मुझे सहारा देना।” कलिंगसेना की नीलमणि-सी ज्योतिवाली आंखें सजल हो गईं।
नन्दिनी ने उसे खींचकर हृदय से लगाया और कहा—
“क्या बहुत सूना-सूना लगता है बहिन?”
“अब नहीं देवी, आपको पाकर।”
नन्दिनी ने उसकी ठोड़ी ऊपर करके कहा—”हताश मत हो, प्रारम्भ ऐसा ही सुना लगता है, परन्तु पराये को अपना करने ही में स्त्री का स्त्रीत्व कृतार्थ है। तुम्हें अपदार्थ को निर्माल्य अर्पण करना होगा।”
“यह तो मैं कदापि न कर सकूँगी।”
“तो राजमहिषी कैसे बनोगी?”
“उसकी मुझे तनिक भी अभिलाषा नहीं है।”
“तब घोड़े पर चढ़कर इतने चाव से इतनी दूर आईं क्यों?”
नन्दिनी की व्यंग्य वाणी और होंठों पर कुटिल हास्य देखकर कलिंगसेना भी हंस दी। हंसकर कहा—”केवल आपको देखने के लिए।”
“मुझे तो देख लिया, अब पतिदेव को भी देखना।”
“उसकी मुझे साध नहीं है।”
“नारी-जन्म लेकर ऐसी बात?”
“नारी-जन्म ही से क्या हुआ?”
“हुआ क्यों नहीं? नारी-जन्म पाया तो पुरुष को आत्मार्पण भी करो।”
“यह तो स्त्री-पुरुष का नैसर्गिक आदान-प्रतिदान है।”
“वह गान्धार में होगा हला; यहां केवल स्त्री ही आत्मार्पण करती है, पुरुष नहीं। पुरुष स्त्री को केवल आश्रय देता है।”
“आश्रय? छी! छी! मैं गान्धारकन्या हूं देवी नन्दिनी! मुझे आश्रय नहीं, आत्मार्पण चाहिए।”
“यह तो युद्ध-घोषणा है हला!”
“जो कुछ भी हो।”
“अब समझी, तो कोसलपति से युद्ध करोगी?”
“यह नहीं, मैं पिता का भय और माता की अश्रुपूर्ण आंखें नहीं देख सकी। कोसलपति ने सीमांत पर सेनाएं भेजी थीं और साकेत का सार्थमार्ग गान्धारों के लिए बन्द कर देने की धमकी दी थी। इस प्रकार सुदूरपूर्व के इस प्रमुख व्यापार-मार्ग का अवरोध होना गान्धारों के लिए ही नहीं, उत्तर कुरु और यवन पशुपुरी के सम्पूर्ण प्रतीची देशों के विनिमय का घातक था। इसका निर्णय गान्धारों का खड्ग कर सकता था। परन्तु मैंने अपने प्रियजनों के रक्त की अपेक्षा अपनी आत्मा का हनन करना ही ठीक समझा। हम गान्धार, राजा और प्रजा, सब परिजन हैं। यहां के रज्जुलों के समान हम प्रजा को अपना दास नहीं समझते, न बात-बात पर उसका रक्त बहाना ही श्रेयस्कर समझते हैं। हम युद्ध करते हैं, सखी, परन्तु तभी, जब वह अनिवार्य हो जाता है। एक गान्धार-पुत्री के आत्मदान से यदि युद्ध से मुक्ति मिले, तो यह अधिक युक्ति-युक्त है। इसी से पिता से मैंने सहमति प्रकट की और इस प्रकार मैंने एक बहुत बड़े संघर्ष से गान्धारों को बचा लिया।”
“इस कोसल की जीर्ण-शीर्ण प्रतिष्ठा को भी। सम्भवतः गान्धारों के युद्ध-वेग को कोसल न संभाल सकते। बड़े घरों के बड़े छिद्र होते हैं, सखी, कोसल के अधिपति जैसे जीर्ण-शीर्ण और जरा-जर्जर हैं, वैसा ही उनका सैन्यबल भी है। एक धक्के ही में वह ढह सकता था।”
“यह हम गान्धारों को विदित है हला। जहां सैनिकों को वेतन देकर राजभक्ति मोल ली जाती है, जहां राजा अपने को स्वामी और प्रजा को अपना दास समझता है, वहां बहुत छिद्र होते ही हैं। परन्तु गांधार विजयप्रिय नहीं हैं, व्यवस्थाप्रिय हैं। उन्हें साम्राज्यों की स्थापना नहीं करनी, जीवन-व्यवस्था करनी है। इसी से हम सब छोटे-बड़े एक हैं, समान हैं। हम प्रजा पर शासन नहीं करते, मिलकर व्यवस्था करते हैं। वास्तव में गान्धारों में राजा और प्रजा के बीच सेव्य-सेवक-भाव है ही नहीं। गान्धार में हम स्वतन्त्र, सुखी और मानवता तथा नागरिकता के अधिकारों से युक्त हैं। परन्तु कोसल सैन्य ने सम्राट् बिम्बसार को कैसे पराजित कर दिया?”
“सम्राट् बिम्बसार अपनी ही मूर्खता से पराजित हुए। उन्होंने आर्य वर्षकार का अनुरोध नहीं माना। उधर चंपा में सेनापति चंडभद्रिक फंसे हुए थे। सम्राट अपने ही बलबूते पर यह दुस्साहस कर बैठे। वास्तव में उन्हें विश्वास था कि महाराज उदयन तुम्हारे लिए कोसल से अवश्य यद्ध छेड़ देंगे। वे इसी सुयोग से लाभ उठाना चाहते थे।”
“कौशाम्बीपति ने सीमान्त पर सैन्य भेजी थी, परन्तु मैंने ही उन्हें निवारण कर दिया।”
“सीमान्त पर उनकी सैन्य अब भी पड़ी है। परन्तु आर्य यौगन्धरायण ने किसी कारण से युद्ध छेड़ना ठीक नहीं समझा। न जाने वे अब भी किसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं, या इस विलम्ब में उनकी कोई गुप्त अभिसन्धि है। किन्तु यही सम्राट् बिम्बसार का दुर्भाग्य था। उधर बंधुल और बंधुल-बंधुओं ने हूण सैन्य को अच्छा व्यवस्थित कर दिया था। सम्राट को इसकी स्वप्न में भी आशा नहीं थी। नहीं तो वे चण्डभद्रिक की प्रतीक्षा करते। जो हो, अब विजयी वीर पति की प्राप्ति पर मैं तुम्हें बधाई देती हूं सखी।”
“खेद है कि मैं अकिंचन उसे स्वीकार नहीं कर सकती।”
नन्दिनी ने हंसकर कहा—”हला, कोसल की राजमहिषियों में परिगणित होना परम सौभाग्य का विषय है।”
“परन्तु, गान्धारकन्या का तो वह दुर्भाग्य ही है। मैं गान्धारकन्या हूं। हम लोग पति-सहयोग के अभ्यासी हैं।”
“परन्तु यहां आर्यों में स्त्री प्रदत्ता है, हला। उसका पति अनेक स्त्रियों का एक ही काल में पति हो सकता है।”
“परन्तु गांधार में एक स्त्री के रहते दूसरी स्त्री नहीं आ सकती।”
“तो बहिन, उत्तर कुरुओं की पुरानी परिपाटी अभी वहां है?”
“वहीं क्यों? पशुपुरी के पार्शवों और एथेन्स के यवनों में भी ऐसा ही है। वहां स्त्री पुरुष की जीवनसंगिनी है।”
“यहां कोसल, मगध, अंग, बंग और कलिंग में तो कहीं भी ऐसा न पाओगी। यहां स्त्री न नागरिक है, न मनुष्य। वह पुरुष की क्रीत संपत्ति और उसके विलास की सामग्री है। पुरुष का उसके शरीर और आत्मा पर असाधारण अधिकार है।”
“परन्तु मैं, देवी नन्दिनी, यह कदापि न होने दूंगी। मैंने आत्मबलि अवश्य दी है, पर स्त्रियों के अधिकार नहीं त्यागे हैं। मैं यह नहीं भूल सकती कि मैं भी एक जीवित प्राणी हूं, मनुष्य हूं, समाज का एक अंग हूं, मनुष्य के संपूर्ण अधिकारों पर मेरा भी स्वत्व है।”
“यह सब तुम कैसे कर सकोगी? जहां एक पति की अनेक पत्नियां हों, उपपत्नियां हों और वह किसी एक के प्रति अनुबंधित न हो, पर उन सबको अनुबंधित रखे, वहां मानव समानता कहां रही बहिन? यह पति शब्द ही कैसा घृणास्पद है! हमारी विवश दासता की सारी कहानी तो इसी एक शब्द में निहित है।”
“यह कठिन अवश्य है देवी नन्दिनी, परन्तु मैं किसी पुरुष को पति नहीं स्वीकार कर सकती। पुरुष स्त्री का पति नहीं, जीवनसंगी है। पति तो उसे संपत्ति ने बनाया है। सो जब मैं उसकी संपत्ति का भोग नहीं करूंगी, तो उसे पति भी नहीं मानूंगी।”
“परन्तु कोसल के अन्तःपुर में तुम इस युद्ध में विजय प्राप्त कर सकोगी?”
“मैं युद्ध करूंगी ही नहीं देवी नन्दिनी। कोसलपति ने यही तो कहा है कि यदि गान्धारराज अपनी पुत्री मुझे दे, तो कोसल राज्य गान्धार का मित्र है। सो गान्धार ने अपना कार्य किया, उसका मैंने विरोध नहीं किया। अब मेरे साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए, मेरे क्या-क्या अधिकार हैं, यह मेरा अपना व्यक्तिगत कार्य है। इसमें मैं किसी को हस्तक्षेप नहीं करने दूंगी।”
“किन्तु जीवनसंगी?”
“ओह देवी नन्दिनी, जीवनसंगी जीवन में न मिले तो अकेले ही जीवनयात्रा की जा सकती है। अन्ततः बलिदान में कुछ त्याग तो होता ही है।”
“कुछ नहीं बहुत। तो हला कलिंग, तुम्हारा सदुद्देश्य सफल हो। मैं दासीपुत्री न होती तो मैं भी यह करती, परन्तु अब तुम्हारी सहायता करूंगी।”
इसी समय एक चेरी ने आकर निवेदन किया—”राजकुमार दर्शनों की आज्ञा चाहते हैं।”
“आएं यहां।” नन्दिनी ने कहा।
राजकुमार विदूडभ ने आकर माता को अभिवादन किया।
नन्दिनी ने हंसकर कहा—
“यह तुम्हारी नई मां हैं पुत्र, इनका अभिवादन करो।”
विदूडभ ने कहा—
“पूज्ये, अभिवादन करता हूं।”
“यह तुम्हारा अनुगत पुत्र है हला, आयु में तुमसे तनिक ही अधिक है। परन्तु यह देखने ही में इतना बड़ा है, वास्तव में यह नन्हा-सा बालक है।” नन्दिनी ने विनोद से कहा।
कलिंगसेना ने हंसकर कहा—
“आयुष्मान् के वैशिष्ट्य को बहुत सुन चुकी हूं। कामना करती हूं, आयुष्मान् पूर्णाभिलाष हों।”
“चिरबाधित हुआ! इस श्रावस्ती के राजमहल में हम दो व्यक्ति तिरस्कृत थे, अब संभवतः तीन हुए।”
“मैंने समझा था, मैं अकेली हूं; अब तुम्हें और देवी नन्दिनी को पाकर मैं बहुत सुखी हुई हूं।”
देवी नन्दिनी ने उठते हुए कहा—
“हला कलिंग, मैं अब जाती हूं, परन्तु एक बात गांठ बांधना। इस राजमहालय में एक पूजनीया हैं, मल्लिका पट्टराजमहिषी। वे मेरी ही भांति एक नगण्य माली की बेटी हैं, पर मेरी भांति त्यक्ता नहीं। वे परम तपस्विनी हैं। उनके धैर्य और गरिमा का अन्त नहीं है। उनकी पद-वन्दना करनी होगी।”
“पूज्य-पूजन से मैं असावधान नहीं हूं देवी नन्दिनी। मैंने महालय में आते ही राजमहिषी का अभिवादन किया था।”
“तुम सुखी रहो बहिन।”
यह कहकर नन्दिनी चली गई। विदूडभ ने भी प्रणाम कर प्रस्थान किया।
51. वर्षकार का यन्त्र : वैशाली की नगरवधू
सम्राट् ने राजधानी में लौटकर देखा, अवन्तिपति चण्डमहासेन प्रद्योत ने राजगृह को चारों ओर से घेर लिया था। नगर का वातावरण अत्यन्त क्षुब्ध था। सम्राट् थकित और अस्त-व्यस्त थे। राजधानी में महामात्य उपस्थित नहीं थे, न सेनापति चण्डभद्रिक ही थे। सेना की व्यवस्था भी ठीक न थी। चंपा में फैली हुई सैन्य लौटी न थी और सेना का श्रेष्ठ भाग श्रावस्ती में बिखर गया था। सम्राट् ने तुरन्त उपसेनापति उदायि को बुलाकर परामर्श किया।
सम्राट ने कहा—
“भणे सेनापति, यह तो विपत्ति-ही-विपत्ति चारों ओर दीख रही है। मालवपति ने राजगृह को घेरा है, हम विपन्नावस्था में हैं ही, अब तुम कहते हो कि मथुरापति अवन्तिवर्मन प्रद्योत की सहायता करने आ रहा है।”
“ऐसा ही है देव।”
“तो भणे सेनापति, ये दोनों ग्रह परस्पर मिलने न पाएं, ऐसा करो।”
“किन्तु देव, आर्य महामात्य का कड़ा आदेश है कि युद्ध किसी भी दशा में न किया जाए।”
“उन्होंने यह आदेश किस आधार पर दिया है?”
“अपने यन्त्र के आधार पर।”
“वह यन्त्र क्या है?”
“उसे गुप्त रखा गया है।”
“कौन उसके सूत्रधार हैं?”
“आचार्य शाम्बव्य काश्यप।”
“तो भणे सेनापति, काश्यप को देखना चाहता हूं।”
“परन्तु काश्यप राजधानी में नहीं हैं।”
“कहां हैं?”
“अमात्य ने उन्हें छद्म रूप में कहीं भेजा है?”
“आर्य अमात्य यह सब क्या कर रहे हैं? भणे सेनापति, करणीय या अकरणीय?”
“करणीय देव।”
“तो फिर हमें संप्रति क्या करणीय है?”
“अमात्य की प्रतीक्षा।”
“जैसे हम लोग कुछ हैं ही नहीं, सब कुछ अमात्य ही हैं।”
“देव क्या युद्ध करना चाहते हैं?”
“भणे सेनापति, युद्ध हम दो सम्मिलित सैन्यों से कैसे कर पाएंगे। हमारे पास सेना कहां है?”
“देव, मैं किसी असम्भाव्य की प्रतीक्षा में हूं।”
“कब?”
“किसी भी क्षण।”
इस समय एक चर ने आकर सूचना दी—”देव, शत्रु रातों-रात नगर का घेरा छोड़ भाग गया। उसकी सेना अत्यन्त विपन्नावस्था में भाग रही है।”
“यह कैसा चमत्कार है सेनापति? चर, क्या कुछ और भी कहना है?”
“देव, आचार्य शाम्बव्य ने आश्वासन भेजा है कि प्रद्योत की ओर से देव निश्चित रहें। हां, जितनी सैन्य संभव हो सीमान्त पर तुरन्त भेज दें, वहां आर्य अमात्य अवन्तिवर्मन का अवरोध कर रहे हैं। परन्तु उनके पास सेना बहुत कम है।”
“बस या और कुछ?”
“देव, आचार्य ने कहा कि प्रद्योत को अपने ही सेनानायकों पर अविश्वास हो गया है। इसी से वह रातोंरात अपने नीलगिरि हाथी पर चढ़कर एकाकी ही भाग खड़े हुए हैं, उन्हें पकड़ने का यह अच्छा समय है।”
“तो भणे सेनापति, उसे पकड़ो और उसकी भागती हुई सैन्य को अव्यवस्थित और छिन्न-भिन्न कर दो। मैं अपनी अंगरक्षक सेना लेकर सीमान्त पर अमात्य की सहायता के लिए जाता हूं। आप प्रद्योत के कार्य में कृतसंकल्प हो सीमान्त पर ससैन्य पहुंच जाएं।”
“देव की जैसी आज्ञा! अब देव आज्ञा दें तो निवेदन करूं अमात्य का यन्त्र मुझे विदित है।”
“पहले तो कहा था, गुप्त है!”
“गुप्त था, चण्ड के पलायन तक।”
“तो कहो भणे, अमात्य ने कैसा यन्त्र किया कि प्रद्योत को इस प्रकार भागना पड़ा?”
“अमात्य ने प्रद्योत के अभियान की सूचना पाकर जहां-जहां स्कन्धावार-योग्य स्थान थे, वहां-वहां बहुत-सी मागधी स्वर्ण-मुद्राएं प्रथम ही धरती में गड़वा दी थीं।”
“अरे, इसका अभिप्राय क्या था?”
“उन्हीं स्थानों पर प्रद्योत के सहायक राजाओं और सेनानायकों ने डेरे डाले। तब प्रद्योत को भरमा दिया गया कि ये सब सेनानायक और राजा मगध के अमात्य से मिल गए हैं और बहुत-सा हिरण्य ले चुके हैं। खोजने पर मगध मुद्रांकित बहुत-सा हिरण्य उनकी छावनी की पृथ्वी से खोद निकाला गया।”
“और इस भ्रम में प्रद्योत को किसने डाला?”
“आचार्य काश्यप ने। वे मगध से विश्वासघात करके मालव सैन्य में चले गए थे। चण्ड प्रद्योत उनका मित्र है।”
सम्राट ने हंसकर कहा—”भणे सेनापति, मगध को जैसे दो अप्रतिम सेनापति प्राप्त हैं, वैसे ही दो कूटनीतिज्ञ ये ब्राह्मण भी।”
“ऐसा तो है ही देव। तो फिर मैं प्रद्योत को देखूं।”
“अवश्य, सेनापति और मेरी अंगरक्षक सेना भी तैयार रहे। मैं दो प्रहर रात्रि व्यतीत होने पर कुछ करूंगा।”
“जैसी देव की आज्ञा!”
52. सोण कोटिविंश : वैशाली की नगरवधू
शाक्यपुत्र गौतम विहार करते हुए साढ़े बारह सौ भिक्षुक संघ के साथ राजगृह पहुंचे और गृध्रकूट पर्वत पर विहार किया। सर्वार्थक अमात्य ने मगधराज सेनिय बिम्बसार से निवेदन किया—”देव, शाक्यपुत्र श्रमण राजगृह में भिक्षु-महासंघ सहित छठी बार पधारे हैं और गृध्रकूट पर विहार कर रहे हैं। उनका मंगल यश दिगन्त-व्यापक है, वह भगवान् अर्हत हैं, सम्यक्-सम्बुद्ध हैं, विद्या और आचरण से युक्त सुगत हैं। देवताओं और मनुष्यों के शास्ता हैं। वह ब्रह्मलोक, मारलोक, देवलोक-सहित इस लोक के देव-मनुष्य सहित, साधु ब्राह्मणयुक्त सब प्रजा को यथावत् जानते हैं , वह आदि, मध्य और अन्त में कल्याणकारक धर्म का अर्थ-सहित, व्यञ्जना-सहित उपदेश देते हैं। वे पूर्ण और शुद्ध ब्रह्मचर्य के उपदेष्टा और जितेन्द्रिय महापुरुष हैं। ऐसे अर्हत् का दर्शन करना उचित है। आगे जैसी देव की आज्ञा हो!”
सम्राट ने उत्तर दिया—”तो भणे, तथागत के दर्शनों को चलना चाहिए। तुम बारह लाख मगध-निवासी ब्राह्मणों और गृहस्थों को तथा अस्सी हज़ार गांवों के मुखियों को सूचना दे दो, सब कोई महाश्रमण के दर्शनों को हमारे साथ चलें।”
सूचना-सचिव ने यही किया। उस समय चम्पा के सुकुमार सेट्ठिपुत्र सोण कोटिविंश राजगृह में सम्राट् के अतिथि थे। वे इतने सुकुमार थे कि उनके पैरों के तलुओं में रोम उग आए थे। इसी आश्चर्य को देखने के लिए सम्राट ने सोण कोटिविंश को मगध में बुलाया था। उसने जब सुना कि सम्राट् महाश्रमण के दर्शनों को मागध जनपद-सहित जा रहे हैं, तो उसने कहा—देव, मुझे इस सौभाग्य से क्यों वंचित किया जाता है? तब सम्राट ने सोण कोटिविंश से इस जन्म के हित की बात कही। फिर कहा—”भणे, मैंने तुम्हें इस जन्म के हित का उपदेश दिया, अब तुम्हें यदि जन्मान्तर के हित की बातें सुनने का चाव हो तो तुम जाओ उन भगवान् की सेवा में।”
इसके बाद श्रेणिक सम्राट् बिम्बसार सोण को आगे करके सम्पूर्ण राज परिजन पौर जानपद को संग ले गृध्रकूट पर्वत पर, जहां भगवान् गौतम विहार कर रहे थे, पहुंचे।
उस समय आयुष्मान् स्वागत भगवान् गौतम में उपस्थापक थे। उनके निकट जाकर सूचना-सचिव से निवेदन किया—”भन्ते, यह श्रेणिक सम्राट् बिम्बसार, सोण कोटिविंश, समस्त राज परिजन पौर जानपद-सहित महाश्रमण के दर्शन को आ रहे हैं। आप महाश्रमण को सूचित कर दीजिए।”
“तो आयुष्मान् मुहूर्त-भर आप लोग यहीं ठहरें-मैं भगवान् से निवदेन करूं।” इतना कह आयुष्मान् स्वागत ने अर्द्धचन्द्र पाषाण में प्रवेश किया और ध्यानस्थ बुद्ध से निवेदन किया कि सम्राट् सपरिवार भगवान् का दर्शन किया चाहते हैं। सो भगवान् अब जिसका काल समझें!”
“तो स्वागत, विहार की छाया में आसन बिछा।”
“अच्छा भन्ते।” कहकर आयुष्मान् स्वागत ने सम्पूर्ण व्यवस्था कर दी। जब महाश्रमण विहार से निकलकर आसन पर बैठ गए तो उसने सम्राट को सूचना दी। सम्राट सम्मुख आ, अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। इसके बाद सब लोग यथा-स्थान कोई हाथ जोड़कर, कोई मौन होकर; कोई प्रदक्षिणा करके बैठ गए।
महाश्रमण ने उन्हें सम्बोधित कर दानकथा, शीलकथा, स्वर्गकथा, कामभोगों के दुष्परिणाम, उपकार, मालिन्य और काम-भोगों से रहित होने के गुणों का वर्णन किया, जिससे श्रावक जन भव्यचित्त, मृदुचित्त, अनाच्छादित-चित्त और आह्लादितचित्त हो गए। तब अवसर जान महाश्रमण ने दुःख, दुःख का कारण, दुःख का नाश और दुःख के नाश का उपाय प्रकट किया। तब सम्राट्, राजवर्ग, पौर जानपद सबको—जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, वह सब नाशवान् है, यह विमल-विरज निर्मल धर्मचक्षु, जहां जो बैठा था, उसे उसी आसन पर उत्पन्न हुआ। तब तथागत ने दृष्टधर्म, प्राप्तधर्म, विदितधर्म, पर्यवगाढ़ धर्म का विशद व्याख्यान किया।
इस पर बारह लाख मगध निवासी और अस्सी हज़ार ग्रामों के मुखिया तथा समस्त राजवर्गी जन संदेहरहित हो संघ, धर्म और बुद्ध के अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासक हो गए।
सोण कोटिविंश चुपचाप सुन रहा था। उसने सोचा, महाश्रमण ने जिस सुविख्यात धर्म का वर्णन किया है, वह सर्वथा परिपूर्ण, शुद्ध और उज्ज्वल ब्रह्मचर्य-साधन बिना सुकर नहीं है। ब्रह्मचर्य-साधन के निमित्त मुझे परिव्राजक होना उचित है।
जब सम्राट्, राजवर्ग, पौर जानपद, महाश्रमण के भाषण का अभिनन्दन कर, आसन से उठ, उनकी प्रदक्षिणा कर चले गए, तब सोण कोटिविंश आसन से उठकर महाश्रमण के निकट आया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। जब तथागत ने उसकी ओर दृष्टि की, तब उसने करबद्ध प्रार्थना की—”भगवन्, मैंने भगवान् के उपदेश-धर्म को जिस प्रकार समझा है, उससे जान पड़ता है कि घर में रहकर ब्रह्मचर्य सुकर नहीं है। अतः मैं सिर-दाढ़ी मुंडाकर, काषाय वस्त्र पहन घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ चाहता हूं। भन्ते मुझे प्रव्रज्या दें!”
सोण कोटिविंश ने प्रव्रज्या और उपसम्पदा पाई। उसे सीतवन में विहार के लिए स्थान मिला। परन्तु वह सुकुमार सेट्ठि कुमार कभी पांव-प्यादे नहीं चला था, इसी से उसके पैरों के तलुओं में रोम उग आए थे। अब नंगे पैर कठोर पृथ्वी पर चलने से उसके पैर लहू लुहान हो गए और धरती लहू से भर गई।
तथागत ने यह देखा। वे उस रक्त से भरे मार्ग पर सोण के पदचिह्न देखते हुए सीतवन में, जहां सोण का विहार था, पहुंचे।
वहां सोणकुमार एकान्त में बैठा यह सोच रहा था—”भगवान के जितने उद्योग परागण विहरनेवाले शिष्य हैं, मैं उनमें एक हूं। फिर भी मेरा मन आश्रकों को छोड़कर मुक्त नहीं हो रहा है। मेरे घर में भोग-सामग्री है, वहां रहते मैं भोगों को भी भोग सकता हूं और पुण्य भी कर सकता हूं। तब क्यों न मैं लौटकर गृहस्थ भोगों का उपभोग करूं, और पुण्य भी करूं?”
तभी भगवान् बुद्ध अनेक भिक्षुओं के साथ वहां पहुंच गए। सोण ने भगवान् का समुत्थानपूर्वक स्वागत किया, आसन दिया। स्वयं एक ओर बैठ गया। स्वस्थ होने पर श्रमण बुद्ध ने कहा—
“क्यों सोण, एकांत में क्या सोच रहे हो?”
सोण ने अपने मन का विकार निवेदन कर दिया। तथागत ने कहा—
“क्यों सोण, क्या तू पहले गृहस्थ होते समय वीणा बजाने में चतुर था?”
“हां भन्ते!”
“तो सोण, जब तेरी वीणा के तार खूब खिंचे होते थे, तभी तेरी वीणा स्वरवाली होती थी?”
“नहीं भन्ते!”
“और जब वे तार खूब ढीले होते थे तब?”
“तब भी नहीं भन्ते।”
“किन्तु जब तार ठीक-ठीक आरोह-अवरोह पर होते थे तब?”
“तब तो भन्ते, वीणा ठीक स्वर देती थी।”
“तो इसी प्रकार सोण, अत्यधिक उद्योगपरायणता औद्धत्य को उत्पन्न करती है। इसलिए सोण, तू उद्योग में समता को ग्रहण कर। इन्द्रियों के सम्बन्ध में समता को ग्रहण कर और वहां कारण को ग्रहण कर।”
“अच्छा भन्ते!”
“तो सोण, तू सुकुमार है, तुझे अनुमति देता हूं, एक तल्ले का जूता पहन।”
“भन्ते, मैं अस्सी गाड़ी हिरण्य और हाथियों के सात अनीक को छोड़कर घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ हूं। अब कहनेवाले कहेंगे, सोण कोटिविंश अस्सी गाड़ी स्वर्ण मुहर और हाथियों की सात अनीक को छोड़कर प्रव्रजित हुआ, सो वह अब एक तल्ले के जूते में आसक्त हुआ है। सो भगवन्, यदि भिक्षु-संघ के लिए भी अनुमति दे दें, तो मैं भी एक तल्ले का जूता ग्रहण करूंगा, नहीं तो नहीं।”
भगवान् ने फिर भिक्षु-संघ को एकत्र किया, तथा इसी प्रकरण में, इसी प्रसंग में अनेक कथाएं कहकर भिक्षुओं को एक तल्ले के जूते पहनने की अनुमति दे दी।
53. गृहपति अनाथपिण्डिक : वैशाली की नगरवधू
श्रावस्ती का अनाथपिण्डिक सुदत्त सेट्ठि राजगृह में इसी समय अपने किसी काम से आया था। राजगृह में उसकी पत्नी का भाई गृहपति था। उस दिन राजगृह के श्रेष्ठी ने तथागत बुद्ध को भोजन का निमन्त्रण दिया था और वह उसकी व्यवस्था में ऐसा संलग्न था कि अपने सम्मान्य बहनोई का भी स्वागत-सत्कार भूल गया। वह दासों और कम्मकारों को आज्ञा दे रहा था—”भणे, समय पर ही उठकर खिचड़ी पकाना, भात बनाना, सूपतेमन तैयार करना।…।”
अनाथपिण्डिक सेट्ठि ने मन में सोचा—पहले मेरे आने पर यह सब काम छोड़ मेरी ही आवभगत में लगा रहता था, आज यह विक्षिप्तों के समान दासों और कम्मकारों को आज्ञा पर आज्ञा दे रहा है। क्या इसके घर आवाह होगा? या विवाह होगा? या महायज्ञ होगा? या सब राजपरिजन के सहित श्रेणिक सम्राट् बिम्बसार को इसने कल के लिए निमन्त्रित किया है?
इतने ही में गृहपति ने आकर अपने बहनोई के साथ प्रति सम्मोदन किया और निकट बैठ गया। तब सेट्ठि अनाथपिण्डिक ने कहा—
“भणे गृहपति, पहले मेरे आने पर तुम सब काम-धन्धा छोड़कर मेरी आवभगत में लग जाते थे, परन्तु आज यह क्या है? क्या तुम्हारे यहां आवाह है, या विवाह है, अथवा सम्राट् बिम्बसार निमन्त्रित हैं।”
“नहीं, मेरे यहां न आवाह है, न विवाह, न मगधराज निमन्त्रित हैं। मेरे घर कल बड़ा यज्ञ है, संघसहित बुद्ध कल के लिए निमन्त्रित हैं।”
“गृहपति, तू ‘बुद्ध; कह रहा है?”
“हां, ‘बुद्ध’ कह रहा हूं।”
“गृहपति ‘बुद्ध’ कह रहा है?”
“हां, ‘बुद्ध’ कह रहा हूं।”
“गृहपति, क्या ‘बुद्ध’ कह रहा है?”
“हां ‘बुद्ध’ कह रहा हूं।”
“गृहपति, ‘बुद्ध’ शब्द लोक में दुर्लभ है। तू जिसे ‘बुद्ध’ कहता है, क्या मैं उसे देखने अभी जा सकता हूं?”
“अभी नहीं गृहपति। यह समय उन सम्यक्-अर्हत् भगवान् सम्यक्-सम्बुद्ध के दर्शनार्थ जाने का नहीं है। प्रत्यूष में सम्यक्-सम्बुद्ध के दर्शन होंगे।”
इसके बाद गृहपति सेट्ठि अपने प्रतिष्ठित अतिथि बहनोई के आहार-विश्राम की व्यवस्था करके फिर बुद्ध के कल के निमन्त्रण-प्रबन्ध में रात-भर जुटा रहा। अनाथपिंडिक गृहपति को भी रात-भर नींद नहीं आई। वह रात को ही सवेरा समझकर तीन बार उठा और सो रहा। अंत को रात ही में वह राजगृह के शिबक द्वार पर पहुंचा। मनुष्यों ने द्वार खोल दिया। प्राचीर के बाहर निकलते ही वह अन्धकार और सुनसान देख भीत हो गया। उसके रोंगटे खड़े हो गए। इच्छा हुई कि पीछे लौट जाए। परन्तु उसके कानों में एक दिव्य ध्वनि सुनाई पड़ी। उसने मानो सुना—”सौ हाथी, सौ घोड़े, सौ खच्चरों के रथ, मणिकुण्डल पहने सौ हज़ार कन्याएं उसके एक पद के कथन के सोलहवें भाग के मूल्य के बराबर भी नहीं है। चला चल, गृहपति, चला चल, चलना ही श्रेयस्कर है। लौटना नहीं।
सेट्ठि के हृदय में प्रकाश उदय हुआ। वह चलता ही गया; गृध्रकूट पर जाकर उसने देखा—सम्यक्-सम्बुद्ध प्रत्यूषकाल में उठकर चंक्रमण में टहल रहे हैं। उन्होंने दूर से आते हुए अनाथपिण्डिक को देखा। देखकर चंक्रमण से उलटकर, बिछे आसन पर बैठकर आते हुए अनाथपिण्डिक से कहा—
“आ सुदत्त!”
अनाथपिण्डिक गृहपति तथागत को अपना नाम लेकर पुकारते सुन हृष्ट, उदग्र हो निकट जा चरणों में सिर से पकड़कर बोला—
“भन्ते, भगवान् को सुख से निद्रा तो आई?”
“निर्वाणप्राप्त सदा सुख से सोता है। वह शीतल तथा दोषरहित है, कामवासनाओं में लिप्त नहीं है, सारी आसक्तियों को खंडित कर हृदय से भय को दूर कर चित्त की शांति को प्राप्त कर, उपशांत हो वह सुख से सोता है।”
तब तथागत ने अनाथपिंडिक गृहपति को आनुपूर्वी कथा कही। इससे गृहपति अनाथपिंडिक को, उसी आसन पर, जो कुछ समुदाय धर्म है, वह निरोध-धर्म है, यह विमल-विरज चक्षु उत्पन्न हुआ। तब उसने शास्ता के शासन में स्वतन्त्र हो कहा—”भगवन्, मैं भगवान की शरण जाता हूं, आज से मुझे भगवान् सांजलि शरण में आया उपासक ग्रहण करें और भिक्षुसंघ सहित मेरा कल का निमन्त्रण स्वीकार करें!”
तथागत ने मौन-सहित स्वीकार किया। तब गृहपति अनाथपिंडिक आसन से उठ, भगवान् की प्रदक्षिणा और अभिवादन कर चला आया।
राजगृह के गृहपति ने सुना कि अनाथपिंडिक गृहपति ने कल भिक्षुसंघ को आमंत्रित किया है, तब उसने कहा—”गृहपति, तुम आगन्तुक हो और तुमने कल भिक्षुसंघ को आमंत्रित किया है, इसलिए मैं खर्च देता हूं , उसी से संघ के भोजन की व्यवस्था करो।”
अनाथपिंडिक गृहपति ने अस्वीकार करते हुए कहा—”गृहपति, मेरे पास खर्च है।”
फिर राजगह के नैगम ने सुना और खर्च देने का आग्रह किया। सम्राट ने भी सुनकर अमात्य भेजकर खर्च देने के लिए कहा, किन्तु सेट्ठि अनाथपिंडिक ने अस्वीकार करते हुए कहा—”नहीं, खर्च मेरे पास है।”
उसने भोजन की ठाठदार व्यवस्था राजगृह के सेट्ठि के घर पर करके श्रवण को सूचना दी—
“समय है भन्ते, भात तैयार हो गया!”
तब भगवान् बुद्ध पूर्वाह्न के समय सु-आच्छादित हो, पात्र-चीवर हाथ में ले, राजगृह के सेट्ठि के मकान पर आए। भिक्षुसंघ सहित आसन पर बैठे। तब अनाथपिंडिक गृहपति ने बुद्ध-सहित भिक्षुक-संघ को अपने हाथ में उत्तम खाद्य-भोज्य से संतृप्तकर, पूर्णकर, भगवान् के भोजन कर पात्र से हाथ खींच लेने पर स्वस्थचित्त होकर कहा—
“भगवान्, भिक्षुसंघ सहित, श्रावस्ती-वर्षावास स्वीकार करें।”
“शून्यागार में गृहपति, तथागत अभिरमण करते हैं।”
“समझ गया भगवन्, समझ गया सुगत!”
अनाथपिंडिक गृहपति बहुमित्र, बहुसहाय और प्रामाणिक था। राजगृह में जब वह अपना काम समाप्त कर चुका और श्रावस्ती को चल पड़ा तो उसने मार्ग में मित्रों तथा परिचित जनों से कहा—”आर्यो, आराम बनवाओ, विहार प्रतिष्ठित करो। लोक में बुद्ध उत्पन्न हो गए हैं। उन्हें मैंने आमन्त्रित किया है, वे इसी मार्ग से आएंगे।”
तब अनाथपिंडिक गृहपति से प्ररेणा पाकर लोगों ने आराम बनवाए, विहार प्रतिष्ठित किए, सदावर्त लगवाए। जो धनी थे उन्होंने अपने धन से बनवाया; जो निर्धन थे उन्हें गृहपति ने धन दिया। इस प्रकार राजगृह से श्रावस्ती तक पैंतालीस योजन के रास्ते में योजन-योजन पर विहार बनवाता हुआ श्रावस्ती गया। श्रावस्ती पहुंचकर उसने विचार किया—”भगवान् कहां निवास करेंगे? ऐसी जगह होनी चाहिए जो बस्ती से न बहुत दूर हो, न बहुत समीप हो, जाने-आनेवालों के लिए सुविधा भी हो। दिन को भीड़-भाड़ न रहे, रात को विजन-वात, अल्प-शब्द, अल्पनिर्दोष, मनुष्यों से एकान्त और ध्यान के उपयुक्त हो।”
उसका ध्यान जैत राजकुमार के जैत-उद्यान की ओर गया। उसे वही स्थान सब भांति उपयुक्त जंचा। उसने जैत राजकुमार से कहा—
“आर्यपुत्र, मुझे आराम बनाने के लिए अपना उद्यान दीजिए।”
“गृहपति, कोटि-संथार से भी वह अदेय है।”
“तो आर्यपुत्र, मैंने आराम ले लिया।”
“नहीं गृहपति, तूने नहीं लिया।”
लिया या नहीं लिया—इसकी न्याय-व्यवस्था के लिए यह व्यवहार-अमात्यों के पास गया। उन्होंने कहा—
“आर्यपुत्र ने क्योंकि मोल किया, इसलिए आराम ले लिया गया।”
तब गृहपति अनाथपिंडिक ने गाड़ियों पर हिरण्य ढुलवाकर जैतवन में कोटि संथार बिछा दिया। एक बार के लाए हिरण्य से द्वार के कोठे के चारों ओर का थोड़ा-सा स्थान पूरा न हुआ। तब अनाथपिंडिक गृहपति ने अपने मनुष्यों को आज्ञा दी—”जाओ भणे, हिरण्य और ले आओ, हम इस सारी भूमि पर स्वर्ण बिछाएंगे।”
जैत राजकुमार ने देखा—गृहपति इतना स्वर्ण खर्च कर रहा है, तब यह कार्य अत्यन्त महत्त्व का होगा। तब उसने अनाथपिंडिक गृहपति से कहा—”बस गृहपति, तू इस खाली स्थान को स्वर्ण से मत ढांप, यह खाली जगह मुझे दे। यह मेरा दान होगा।”
इस पर गृहपति अनाथपिंडिक ने सोचा—”यह जैतकुमार गण्यमान्य प्रसिद्ध पुरुष है। इस धर्म-विनय में इनका प्रेम लाभदायक होगा और वह स्थान जैतकुमार को दे दिया। तब जैतकुमार ने उस स्थान पर कोठा बनवाया। अनाथपिंडिक ने जैतवन में विहार बनवाए, परिवेण बनवाए, कोठियां, उपस्थान, शालाएं, अग्निशालाएं, काल्पिक कुटिया, बच्चकुटी, बच्चकूप, पिशाबखाने, चंक्रमण-स्थान, चंक्रमणशालाएं, प्याऊ, प्याऊघर, जंताघर, जंताघरशालाएं, पुष्करिणियां और मंडप आदि बनवाए।
सेट्ठि का जैतवन को स्वर्ण से ढांपने में 18 करोड़ मुहरों का एक चहबच्चा खाली हो गया और 8 करोड़ स्वर्ण खर्च करके उसने आठ करीष भूमि में विहार आदि बनवाए और सब भिक्षुसंघ के चीवर, पिंडपात, शयनासन, ग्लान-प्रत्यय, भैषज्य आदि परिष्कारों में सत्कृत होने की व्यवस्था कर दी।
54. मगध-महामात्य की कूटनीति : वैशाली की नगरवधू
सम्राट् की आज्ञा से तथागत बुद्ध के लिए त्रिकूट पर एक विशाल विहार बनवाना प्रारम्भ हुआ, जिसमें सहस्रों शिल्पी कार्यरत थे। सम्राट् और साम्राज्य दोनों ही महाश्रमण गौतम के चरणसेवक थे। चंपा का सुकुमार सेट्ठिकुमार कोटिविंश सोण अब अपनी इतनी संपदा को त्यागकर परिव्राजक हो गया, तो उसका जनसाधारण पर बहुत भारी प्रभाव पड़ा। यों भी इस बार तथागत गौतम के भिक्षसंघ में बड़े-बड़े दिग्गज नामांकित विद्वान पंडित भिक्षुरूप में उनके साथ थे, जिनमें पूर्णकाश्यप, मक्खली गोशाल, अजित केसकंबली, प्रक्रुद्ध कात्यायन, संजयवेलाट्ठपुत्त, सारिपुत्त, मौद्लायन, पिंडोत भारद्वाज आदि प्रमुख थे। महाश्रमण के दर्शन करने, उनके पुण्य उपदेश सुनने को नर-नारियों का तांता लगा रहता था। इस समय राजगृह में केवल दो ही बातों की चर्चा थी; एक चंडप्रद्योत के राजगृह पर आक्रमण और अकस्मात् पलायन की, दूसरे श्रमण गौतम की, जिनके नवीन धर्म के नीचे समस्त पौर जानपद और राजवर्ग समान रूप से नत-मस्तक हो गया था। बड़े-बड़े राजकुमार, सेट्ठिपुत्र, छोटे-बड़े तरुण अपने सम्पूर्ण विलास-ऐश्वर्य त्यागकर भिक्षु बन रहे थे। चारों ओर भिक्षु-ही-भिक्षु दीख रहे थे। ब्रात्यों, संकरों और अब्राह्मणों को उनका धर्म बहुत अनुकूल प्रतीत हो रहा था। अब तक ब्राह्मणों का जो धर्म प्रजा पर बलात् चिपकाया गया था, उससे जनपद को संतोष न था। ब्राह्मण धर्म से भीतर-ही-भीतर द्वेष-भावना देश में बहुत फैल गई थी, क्योंकि उसमें निम्न श्रेणी के उपजीवियों के विकास का कोई अवसर ही न था। वह राजाओं, ब्राह्मणों और सेट्ठियों का धर्म था। वे ही उससे लाभान्वित होते थे। वैदिक देवताओं के नाम पर जो बड़े-बड़े खर्चीले यज्ञ किए जाते थे, उनसे राजा महाराजा बनते तथा महाराज सम्राट् बनते थे। यह उनका लाभ था। पुरोहित मोटी-मोटी दक्षिणा पाकर इन राजाओं को देव कहकर पुकारते और भाग्यवाद का ढिंढोरा पीटकर लोगों की स्पर्धा को रोक रखते थे। सर्वसाधारण को उनके इन यज्ञानुष्ठानों के लिए दिग्विजय करने को अपने तरुण पुत्रों के प्राण भेंट करने पड़ते थे, तरुण कुमारी पुत्रियां दासी के रूप में भेंट करनी पड़ती थीं एवं अपनी गाढ़ी कमाई का स्वर्ण, चांदी, अन्न-वस्त्र सब-कुछ भेंट करना पड़ता था, जिन्हें राजा अपनी ओर से ब्राह्मणों को दान दे वाहवाही लूटते थे। इस प्रकार ब्राह्मण-धर्म राजतन्त्र का पोषक था, परन्तु बुद्ध ने प्रजातन्त्रीय भावना उत्पन्न कर दी थी। ब्राह्मण धर्म में जो ऊंच-नीच का भेद था, उसे मिटाने में श्रमण गौतम ने बहुत प्रयास किया। उन्होंने बड़े-बड़े खर्चीले और आडम्बरपूर्ण यज्ञों के स्थान में आत्मयज्ञ की महत्ता पर ज़ोर दिया। व्रात्य, संकर और विश—ये सभी ब्राह्मण-धर्म के बोझ से दबे थे। बुद्ध ने इनका उद्धार किया। ब्राह्मणेतर युवकों को उन्होंने श्रमण परिव्राजक बनाया। उन्हें ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की शिक्षा दी। देश के बड़े-बड़े सुकुमार कोट्याधिप युवक जब ऐश्वर्य त्यागकर श्रमण बन गए, तो घबराकर ब्राह्मणों ने आश्रमों की स्थापना की और यह प्रचार किया कि बिना गृहस्थ और वृद्ध हुए कोई परिव्राजक न हो।
तथागत का चेहरा कुछ पीत, थकित और चिन्तित था। उनका शरीर कृश और वाणी कोमल थी। उनके अंग यौवन से परिपूर्ण थे। सम्पूर्ण अंग में एक सौन्दर्य का प्रभाव प्रतिभासित होता था। वे बहुत भिनसार में ही आसन पर ध्यानमुद्रा में बैठ जाते थे और भक्तजनों को आनुपूर्वी कथावार्ता सुनाकर सदुपदेश देते रहते थे। उनकी दृष्टि तेजवती, कूटस्थ और स्थिर थी।
आर्य वर्षकार ने पास पहुंच परिक्रमा कर सामने आ अभिवादन किया, और एक ओर बैठ गए। महाश्रमण ने प्रसन्न दृष्टि से मगध-महामात्य को देखा। मगध-महामात्य की दृष्टि में गहरी चिन्ता की रेखाएं थीं। उन्होंने कहा—”भगवन्, साम्राज्य जनपद का सर्वश्रेष्ठ संगठन है न?”
बुद्ध ने हंसकर कहा—”यदि वह जनपद के प्रति उत्तरदायी हो।”
मगध महामात्य कुछ देर चुप रहे, फिर उन्होंने कहा—”भन्ते, क्या वज्जियों का गणतन्त्र सुसम्पन्न है?”
उस समय आयुष्मान् आनन्द भगवत् सेवा में उपस्थित थे। महाश्रमण कुछ देर चुप रहकर स्निग्ध वाणी से बोले—”आनन्द, वज्जीगण हर बार अपने संघ-सम्मेलन करते हैं न?”
“भन्ते, मैंने ऐसा ही सुना है।”
“और आनन्द, वे अपने गणसंघ में सब एकत्र होकर परामर्श करते हैं? एक साथ उठते, बैठते तथा मिलकर काम करते हैं न?”
“ऐसा ही है भन्ते!”
“वे नियमविरुद्ध कोई कार्य नहीं करते हैं न?”
“यही सत्य है भन्ते।”
“वे किसी मर्यादा का उल्लंघन तो नहीं करते?”
“नहीं भगवन्!”
“वे अपने पूर्वजों के कुल-धर्म का पालन करते हैं, पूज्य-पूजन करते हैं, ज्येष्ठों की आज्ञा मानते हैं न?”
“हां, भन्ते।”
“वे कुलपत्नियों तथा कुल-कुमारिकाओं पर बलात्कार तो नहीं करते? उनका अपहरण तो नहीं करते?”
“नहीं भन्ते!”
“वे अपने आभ्यन्तर एवं बाह्य चैत्यों की यथावत् अर्चना करते हैं? उनकी ठीक-ठाक रक्षा तो करते हैं? बलि-भोग देने में उदासीन तो नहीं हैं?”
“नहीं भन्ते, नहीं।”
“विद्वानों, अर्हतों का रक्षण-पालन यथावत करते हैं? वज्जियों के गणराज्य में साधुजन सुखी तो हैं?”
“हां भन्ते!”
“तो आनन्द, वज्जीजन जब तक ऐसा करते रहेंगे, तब तक उन्नत रहेंगे, उनकी अवनति नहीं हो सकती। उनके अवनत होने का भय नहीं है। वे समृद्ध होते जाएंगे।”
मगध महामात्य ने बुद्ध का संकेत गांठ में बांध लिया। उन्होंने समझा कि वैशाली में फूट डालनी होगी। उनका एकमत भंग करना होगा। उन्होंने बंग, कलिंग, अवन्ती, कौशाम्बी, गंधार, भोज, भरत, अस्सक, आंध्र, शबर, माहिष्मती, भृगुकच्छ, शूर्पाटक, अश्मक, प्रतिष्ठान और विदिशा को गुप्तचर भेजे। उन देशों की वैशाली के प्रति उदासीनता उन्हें बड़ी महत्वपूर्ण लगी। उन्होंने अपने गुप्तचर वैशाली में भी फैला दिए। कोई रत्नपारखी होकर, कोई मूर्तिकार, कोई स्थापत्यकार होकर, वैशाली में जा बसे। अनेक नट, विट, वेश्याएं, टिनियां, विदूषक और सत्री वैशाली में फैला दिए गए। वे वज्जी-परिषद् के सभ्यों की पारस्परिक कलह-ईर्ष्या-द्वेष के कारणों का पता लगा-लगाकर संकेत-सूचनाएं भेजने लगे। विविध उपायों से वे उनमें कलह बढ़ाने लगे। वे सभ्य नागरिकों, शिल्पियों, दूतों एवं वणिकों के वेश में वैशाली-भर में फैल गए। बहुतों ने मद्य की हाट खोल ली और वे छोटी छोटी बातों पर लोगों में झगड़े कराने लगे। तीक्ष्णतर मैनफल के रस से भरे मद्य के घड़े नैषेचिक कहकर सम्भ्रान्त नागरिकों को देने लगे। अनेक बन्धविपोषक, प्लवक, नट, नर्तक और ओमिक लोग मुखियों को सुन्दर-सुन्दर कन्याओं पर आसक्त करके उन्मत्त कर-करके परस्पर लड़ाने लगे। वे एक सुन्दरी को किसी मुखिया पर लगाते। जब वह उस पर अनुरक्त हो जाता तो उसे दूसरे के पास भेज देते और पहले से कहते कि उसने उसे ज़बर्दस्ती रख छोड़ा है। इस प्रकार उनमें घातक युद्ध कराकर एक-दूसरे को मरवा डालने लगे। क्षण-क्षण पर अमात्य के पास सन्देश आने लगे। अब वे इस घात में लगे कि कब और कैसे वैशाली को आक्रान्त किया जाए।
गुप्तचरों ने उन्हें वैशालीगण के सभी भीतरी भेद बता दिए थे। अन्त में कूटनीति के आगार वर्षकार ने अपनी योजना स्थिर की। गुप्तचरों को बहुत-सी आवश्यक बातें समझाकर वैशाली भेज दिया और उन्होंने मागधों की राजपरिषद् बुलाई। सम्राट् के लिए वैशाली का आक्रमण अब साम्राज्यवर्द्धन का प्रश्न नहीं रह गया था। वे चाहे भी जिस मूल्य पर वैशाली को आक्रान्त कर, अम्बपाली को राजगृह ले आकर पट्टराजमहिषी बनाने पर तुले थे। यद्यपि अपनी यह अभिसंधि उन्होंने अपने बाल मित्र से भी गुप्त रखी थी, परन्तु अमात्य वर्षकार स्वयं ही उन्हें अम्बपाली के प्रति अभिमुख करते रहते थे।
वर्षकार की योजना थी कि प्रथम अवन्ती के चण्डप्रद्योत पर आक्रमण करके अरब समुद्र तक साम्राज्य का विस्तार किया जाय। रौरुक सौवीर पर उनकी गृधदृष्टि थी ही। जिस प्रकार चम्पा सुदूरपूर्व के व्यापार का मुख था, उसी प्रकार रौरुक सौवीर तब पच्छिम का व्यापार-मुख था। वहां यहूदी राजा सालोमन के जहाज़ स्वर्ण भरकर आते थे और बदले में वस्त्र, मसाले, हाथीदांत और अन्य पदार्थ ले जाते थे। उत्तर-पश्चिम में सागल का राजा मगध का मित्र था। वर्षकार ने बहुत-से बहुमूल्य उपानय भेजकर यहूदी राजा सालोमन को भी प्रसन्न कर लिया था। अब उनके साम्राज्य के विस्तार में अवन्ती का चण्डप्रद्योत ही, एक कांटा था। वे विराट चाहते थे, पहले उसी को समाप्त करके रौरुक सौवीर पर अधिकार करें तथा अरब समुद्र तक उनके साम्राज्य का विस्तार हो जाए। इधर कोसल पर विफल आक्रमण होने से गन्धार और चम्पा की व्यापार-श्रृंखला टूट रही थी और कोसल में परास्त होने का बुरा परिणाम वैशाली पर भी दीख पड़ रहा था, इसी से आर्य वर्षकार वैशाली से पहले अवन्ती पर अभियान चाहते थे। चाहे जिस कारण से भी हो, अमात्य और सम्राट् में इस विषय में विवाद बढ़ता ही गया और राज्य-वर्गी जनों में भी यह अपवाद फैल गया कि आर्य वर्षकार और सम्राट में तीव्र मतभेद हो गया है। इसी समय उन्होंने मगध की राजपरिषद् को बुलाया।
55. मागध विग्रह : वैशाली की नगरवधू
राजपरिषद् का वातारण बहुत क्षुब्ध था। महामात्य आर्य वर्षकार पत्थर की निश्चल मूर्ति के समान बैठे थे। सम्राट् क्रोध में लाल हो रहे थे। सम्राट ने कहा—
“मैं पूछता हूं, किसकी आज्ञा से अवन्ती में दूत भेजा गया?”
“मेरी आज्ञा से देव।”
“मेरी आज्ञा से क्यों नहीं?”
“देव को राजनीति का ज्ञान नहीं है।”
“मैंने आज्ञा दी थी कि वैशाली पर अभियान की तुरन्त तैयारी की जाय।”
“मैंने उस आज्ञा-पालन की आवश्यकता नहीं समझी।”
“आपने कैसे यह साहस किया?”
“साम्राज्य की भलाई के लिए देव।”
“परन्तु सम्राट् मैं हूं।”
“परन्तु आप साम्राज्य की हानि भी कर सकते हैं।”
“वह मेरी हानि है।”
“नहीं, वह साम्राज्य की हानि है।”
“मैं सुनना चाहता हूं, मैंने साम्राज्य की हानि की है?”
“तो देव सुनें, कोसल की अपमानजनक पराजय का पूरा दायित्व आप ही पर है।”
“आप पर क्यों नहीं? आपने समय पर सहायता नहीं भेजी।”
“मैं साम्राज्य के अधिक गुरुतर कार्यों में व्यस्त था।”
“सम्राट् की रक्षा से बढ़कर गुरुतर कार्य कौन है?”
“साम्राज्य की रक्षा।”
“सम्राट के बिना?”
“सम्राट् नित्य मरते और पैदा होते हैं देव! वे क्षणभंगुर हैं, साम्राज्य अमर है।”
“आर्य, सम्राट का अपमान कर रहे हैं!”
“सम्राट् स्वयं ही अपना अपमान कर रहे हैं।”
“साम्राज्य का संचालक मैं हूँ।”
“देव का यह भ्रम है। आप उसके एक शीर्षस्थानीय रत्न मात्र हैं।”
“मगध-साम्राज्य का संचालन कौन करता है?”
“यह ब्राह्मण।”
“अब से यह अधिकार मैं ग्रहण करता हूं।”
“मेरे रहते नहीं।”
“मैं आर्य को पदच्युत करता हूं।”
“सम्राट की केवल एक यही आज्ञा मानने को मैं बाध्य हूं।”
“किन्तु मेरी और भी आज्ञाएं हैं।”
“देव कह सकते हैं।”
“आपने राजविद्रोह किया है। किन्तु आप ब्राह्मण हैं, इसलिए अवध्य हैं। परन्तु मैं आपका सर्वस्व हरण करने की आज्ञा देता हूं।”
“मैं ब्राह्मण हूं, इसलिए सम्राट् का यह आदेश भी मानता हूं। परन्तु मेरी एक घोषणा है।”
“आर्य कह सकते हैं, परन्तु अनुग्रह नहीं पा सकते।”
“मैं अनार्य श्रेणिक सम्राट बिम्बसार की अब प्रजा नहीं हूं। सम्राट, यह आपका खड्ग है।”
महामात्य ने खड्ग पृथ्वी पर रखकर आसन त्याग दिया। सम्राट ने कहा—”अप्रजा को मेरे राज्य में रहने का अधिकार नहीं है।”
“मैं मगध को त्यागकर ही अन्न-जल ग्रहण करूंगा।” इतना कहकर महामात्य ने सभा-भवन त्याग दिया और पांव-प्यादे ही अज्ञात दिशा की ओर चल दिए। राजगृह में सन्नाटा छा गया। सम्राट् ने विज्ञप्ति प्रज्ञापित की—”जो कोई आर्य वर्षकार को साम्राज्य में आश्रय देगा, उसका सर्वस्व हरण करके उसे शूली दी जाएगी।” इसके बाद उन्होंने सेनापतियों को वैशाली पर आक्रमण करने की तैयारी करने की आज्ञा देकर सभा भंग की।
56. नापित-गुरु : वैशाली की नगरवधू
राजगृह के चतुष्पथ पर एक खरकुटी थी। खरकुटी छोटी-सी थी, पर वह राजगृह भर में प्रसिद्ध थी। उसके स्वामी का नाम प्रभंजन था। वह एक आंख का काना था। आयु उसकी साठ को पार कर गई थी। वह लम्बा, दुबला-पतला और फुर्तीला था। बाल मूंड़ने और उष्णीष बांधने में वह एक था। अनेक व्रात्य, संकर और श्रोत्रिय ब्राह्मण उसकी खरकुटी में आकर बाल मुंड़वाते और उष्णीष बंधवाते थे। वह बड़ा वाचाल, चतुर और बहुज्ञ था। उसकी पहुंच छोटे से बड़े तक सर्वत्र थी। वह बड़ा आनन्दी प्रकृति का जीव था। लोग उससे प्रेम करते, उसकी बातों से प्रसन्न होते, उसके कार्य से संतुष्ट होते तथा उससे डरते भी थे। डरने का कारण यह था कि लोग कानोंकान उसके विषय में बहुधा कहते कि सम्राट और वर्षकार भी उसे बहुत मानते हैं और वह प्रासाद महालय में जाकर उनके बाल मूंड़ता है। कुछ लोगों का कहना था—’इसे सम्राट् और वर्षकार के अनेक गुप्त भेद मालूम हैं, इससे सम्राट् तथा अमात्य भी भय खाते हैं।’ परन्तु जब-जब कोई उससे इन महामान्य जनों की चर्चा करता, वह केवल मुस्कराकर टाल जाता। वह बहुधा धार्मिक कथा-प्रसंग लोगों को सुनाया करता। लोग उसे नापित-गुरु कहकर पुकारते थे।
दो दण्ड रात्रि व्यतीत हो चुकी थी। किन्तु खरकुटी में अब भी ग्राहकों की काफी भीड़-भाड़ थी। प्रभंजन अपने दो सहायकों के साथ काम में जुटा था, छुरे के साथ ही उसकी जीभ भी तेज़ी से चल रही थी। इतने में एक ग्रामीण वेशधारी पुरुष ने खरकुटी में प्रवेश किया।
प्रभंजन ने बात रोककर कहा—”क्या चाहिए आवुस? बाल यदि मुंड़वाना है तो मेरा शिष्य अभी मूंड़ देगा।”
“परन्तु मैं अवमर्दन…।”
प्रभंजन ने बीच ही में बात काटकर कहा—
“अब इस समय अवमर्दन नहीं हो सकेगा मित्र, कल…।”
“नहीं-नहीं, मित्र, मैं अवमर्दक हूं, तुम्हारी दूकान में नौकरी चाहता हूं। मैं अपने काम में सावधान हूं—तुम मेरी परीक्षा कर सकते हो।”
प्रभंजन ने आगन्तुक को घूरकर देखा और फिर कहा—”एक अवमर्दक की मेरे परिचित एक महानुभाव को आवश्यकता है। यदि तुम अपने काम के ठीक ज्ञाता हो तो मैं तुम्हें वहां पहुंचा सकता हूं। परन्तु आवुस, तुम आ कहां से रहे हो?”
“वैशाली से मित्र।”
“क्या लिच्छवी हो?”
“नहीं-नहीं, लिच्छवी क्या अवमर्दक होते हैं? मैं व्रात्य हूं।”
“सो तो मैं तुम्हारी नोकदार झुकी हुई उष्णीष देखते ही पहचान गया था, फिर भी पूछा, क्योंकि वैशाली के लिच्छवी अब पहले-जैसे नहीं हैं।”
“सो कैसे मित्र?”
“मित्र नहीं आवुस, नापित-गुरु कहो।”
“तो नापित-गुरु, यदि तुम मुझे कहीं नौकरी रखवा दोगे तो मैं तुम्हारा भी उपकार करूंगा।”
“कैसा उपकार करोगे आवुस?”
“एक मास का वेतन दे दूंगा और तुम्हारा वह गुणगान करूंगा कि जिसका नाम…!”
“तो आवुस, तुम अभी यहीं खरकुटी में विश्राम करो, मैं कल प्रभात में तुम्हें वहां ले जाऊंगा। परन्तु सुनो, वे एक बहुत भारी राजपुरुष हैं। तुमने क्या कभी किसी राजपुरुष की सेवा की है?”
“बहुत-बहुत नापित-गुरु। मैं केवल राजपुरुषों ही की सेवा करता रहा हूं, जन साधारण की नहीं।”
“तब अच्छा है। तो इधर आओ आवुस।”
प्रभंजन उसे खरकुटी के भीतर एक छोटे-से प्रांगण में ले गया। प्रांगण के उस पार कई छोटी-छोटी कोठरियां थीं। एक खोलकर उसने कहा—”आवुस, अभी तुम यहां विश्राम करो। एक मुहूर्त में मैं काम से निपटकर तुम्हारे आहार की व्यवस्था कर दूंगा। आज मैं बहुत व्यस्त रहा मित्र। तुमने सुना, सम्राट ने आर्य अमात्य को पदच्युत किया है?” प्रभंजन तेज़ी से यह कहकर लौट रहा था कि आगन्तुक व्यक्ति ने अपना उष्णीष एक ओर फेंक दिया और वापस लौटते हुए नापित से कहा—”प्रभंजन!”
अतर्कित और अकल्पित ढंग पर अपना नाम सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने लौटकर देखा तो साक्षात् मगध-महामात्य वहां उपस्थित थे। नापित ने भूपात करके प्रणाम किया। अमात्य ने कहा—”प्रभंजन, लेख की सामग्री ला और अभी एक लम्बी यात्रा की तैयारी कर।”
प्रभंजन की वाचालता लुप्त हो गई। वह तेज़ी से दूसरी कोठरी में घुस गया और लेख की सामग्री लाकर उसने अमात्य के सामने रख दी। इस प्रकार छद्म वेश में एकाकी अमात्य का इस पैदल खरकुटी में आना उसे सर्वथा असंभाव्य प्रतीत हो रहा था। उसने बद्धाञ्जलि होकर कहा—”आर्य, यदि एक घड़ी-भर का मुझे अवकाश दें…।”
“हां-हां, इतना काल तो मुझे लेख में लग जाएगा। परन्तु प्रभंजन, तेरी यह यात्रा अत्यन्त गुप्त होगी और मैं अभी तीन दिन इसी वेश में इसी खरकुटी में रहूंगा। ऐसा यत्न कर कि इसका किसी को ज्ञान न हो।”
“ऐसा ही होगा आर्य!”
अमात्य लेख लिखने में लग गए। प्रभंजन ने झटपट ग्राहकों से छुट्टी ले सहयोगियों को आवश्यक आदेश दिए। एक खड्ग वस्त्रों में छिपाया, छद्म धारण किया और पर्यटक बंजारे के वेश में अमात्य के सम्मुख आ उपस्थित हुआ।
अमात्य ने देखा, मुस्कराकर समर्थन किया, फिर एक मुहरबन्द पत्र और मुहरों से भरी थैली उसे देकर कहा—”यह पत्र जितना शीघ्र सम्भव हो, श्रावस्ती में सेनापति उदायि अथवा उनके सहकारी को मिल जाय।”
“और कुछ कहना भी होगा, आर्य?”
“नहीं, यहां से यों ही जाना होगा प्रभंजन। मार्ग में एक अश्व खरीद लेना। किन्तु वह साधारण ही हो, जिसमें किसी को सन्देह न हो और तुम दस्युओं की दृष्टि में न पड़ो। हां, श्रावस्ती से लौटकर तुम वैशाली के मार्ग में मेरी प्रतीक्षा करना। जाओ तुम प्रभंजन।”
प्रभंजन ने अभिवादन किया और तेज़ी से अन्धकार में विलीन हो गया। अमात्य कोठरी का द्वार बन्द कर दीपक सामने रख लेख लिखने में व्यस्त हो गए। यह किसी को भी नहीं प्रतीत हुआ कि इस नापित-गुरु की इस खरकुटी की एक कोठरी में बैठे ‘महामहिम मगध-महामात्य’ महाराजनीति-चक्र चला रहे हैं।
57. शालिभद्र : वैशाली की नगरवधू
राजगृह में गोभद्र सेट्ठि का पुत्र शालिभद्र था। वह अति सुकुमार और माता-पिता का प्रिय युवक था। उसकी सर्वलक्षणसंपन्न बत्तीस पत्नियां थीं जिनके साथ वह अपने विलास भवन में विविध देश-देशांतर से संचित विपुल भोग्य पदार्थों को भोगता था।
उन दिनों पारस्य देशीय कुछ व्यापारी राजगृह में बहुत-से रत्नकम्बल लेकर बेचने के लिए आए थे। परन्तु उनका मूल्य इतना अधिक था कि विविध युद्धों में व्यस्त सम्राट बिम्बसार ने रिक्त राजकोष देखकर इन रत्नकम्बलों को खरीदना अस्वीकार कर दिया। व्यापारी बहुत दूर से आशा करके आए थे। अब प्रतापी मगध-सम्राट् से ऐसी बात सुनकर वे बड़े निराश हुए। राजमहालय से निकलकर वे नगरवीथी में होकर जा रहे थे। जब वे शालिभद्र के विशाल भवन के निकट पहुंचे तो शालिभद्र की माता भद्रा ने पसन्द करके रत्नकम्बल खरीद लिए।
सम्राज्ञी को खबर मिली कि पारस्य देश के व्यापारी बहुमूल्य रत्नकम्बल बेचने के लिए राजगृह आए हैं। उन्होंने सम्राट् से, चाहे भी जिस मूल्य पर, एक रत्नकम्बल खरीद देने का अनुरोध किया। सम्राट ने अपने सर्वार्थक अमात्य को आदेश दिया “भणे अमात्य, सम्राज्ञी एक रत्नकम्बल चाहती हैं। सो एक कम्बल पारस्य सार्थवाहों से चाहे भी जिस मूल्य पर खरीद लो।”
सर्वार्थक अमात्य ने सार्थवाहों से पूछकर सम्राट से निवदेन किया—”देव, उन्होंने तो सभी रत्नकम्बल भद्रा सेट्ठिनी के हाथ बेच दिए हैं।”
“तो भणे अमात्य, तुम भद्रा सेट्ठिनी को मूल्य देकर एक रत्नकम्बल सम्राज्ञी के लिए मंगा दो।”
भद्रा सेट्ठिनी के पास सर्वार्थक महामात्य ने आदमी भेजा। उसने कहा—”भद्र, उन सब रत्नकम्बलों के मैंने अपनी पुत्रवधुओं के पैर पोंछने के पोंछन बनाने के हेतु छोटे-छोटे टुकड़े कर डाले हैं। एक भी रत्नकम्बल समूचा शेष नहीं है।
सर्वार्थक अमात्य ने सम्राट से निवेदन किया। सम्राट ने सुनकर आश्चर्य से आंखें फैलाकर कहा—”भणे अमात्य, क्या मेरे राज्य में ऐसे धनिक कुबेर बसते हैं?” तो मैं एक बार उस सेट्ठिनी-पुत्र शालिभद्र को देखना चाहता हूं। सर्वार्थक अमात्य ने स्वयं भद्रा सेट्ठिनी की सेवा में उपस्थित होकर सम्राट का अभिप्राय उससे कहा। इस पर भद्रा सेट्ठिनी महार्घ शिविका में बैठ स्वयं सम्राट् की सेवा में राजमहालय में आई। उसने सम्राट के सम्मुख उपस्थित होकर निवेदन किया—”देव, मेरा पुत्र शालिभद्र हर्म्य के सातवें खण्ड से नीचे नहीं उतरता, इसलिए सम्राट् ही कृपा कर मेरे घर पधारकर मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाएं।”
सम्राट को भद्रा की बात सुनकर अत्यंत कौतूहल हुआ। उन्होंने भद्रा सेट्ठिनी का अनुरोध स्वीकार किया।
यथासमय सम्राट् भद्रा सेट्ठिनी के आवास में अपने सम्पूर्ण राजवैभव के साथ पधारे। भद्रा ने सम्राट को हर्म्य के चौथे खण्ड में जाकर उनका मर्यादा के अनुकूल अनुपम सत्कार किया। फिर उसने पुत्र की प्रधान दासी द्वारा पुत्र के पास संदेश भेजा कि सम्राट तुझसे मिलने हमारे घर पधारे हैं, तू आ।
संदेश सुनकर शालिभद्र ने माता से कहा—”सम्राट को जो कुछ देना-दिलाना हो, देकर विदा कर दो। मेरा वहां क्या काम है?”
इस पर भद्रा सेट्ठिनी स्वयं पुत्र के पास गई और उसे समझाया—”पुत्र, हम सब श्रेणिय सम्राट् की प्रजा हैं। उन्होंने तुझे राजमहालय में बुलाया था, परन्तु मेरी विनय स्वीकार करके वे तुझे देखने स्वयं यहां पधारे हैं और चौथे खण्ड पर बैठे हैं। इसलिए दो तीन खण्ड नीचे उतरकर तुझे उनसे मिलना चाहिए।”
सेट्ठिकुमार शालिभद्र ने ‘चाहिए’ शब्द पहली ही बार माता के मुंह से सुना, सुनकर उसका मन उदास हो गया। वह सोचने लगा—”यह तो पराधनीता है, इस पराधीनता में ये सुखभोग किस काम के? मनुष्य को जब तक दूसरे किसी की पराधीनता भोगनी है, तो फिर सुख तो नाममात्र का ही सुख है। वह विमन भाव से सम्राट के निकट आया। सम्राट् को प्रणाम किया और बिना एक शब्द बोले, बिना एक क्षण ठहरे ऊपर चला गया। परन्तु इस विवशता की चुभन उसके हृदय में घर कर गई और वह अत्यन्त उदास हो शयन-कक्ष में जा पड़ा।
58. सर्वजित् महावीर : वैशाली की नगरवधू
सात हाथ ऊंचा एक बलिष्ठ क्षत्रियकुमार जिसके लौह-स्तम्भ जैसे सुदृढ़ भुजदण्ड थे और उन्नत विशाल वक्ष था, जिसकी कलाइयों में धनुष की डोरी खींचने के चिह्न थे, जिसका वर्ण अत्यन्त गौर, नेत्र भव्य और विशाल, मुख गंभीर, कम्बुग्रीवा और आजानुबाहु थी, चुपचाप दृष्टि पृथ्वी पर दिए लाटदेश के पांव प्यादेविचरण कर रहा था। यह पुरुष एकाकी था और उसके शरीर पर एक चिथड़ा भी न था।
उसे कभी-कभी बैठने का आसन भी प्राप्त नहीं होता था और वृक्ष के सहारे नंगी भूमि पर बैठकर श्रान्ति को दूर करना पड़ता था। बहुधा लोग उसे उन्मत्त समझकर मारते, बालक उसके पीछे टोली बांधकर छेड़-छाड़ करते चिल्लाते हुए घूमते थे। कई-कई दिन बाद उसे बहुत कम रूखा-सूखा कुछ मिल जाता था। कुत्ते उसे देखकर भूकने लगते। कभी-कभी वे दौड़कर उसकी टांगों का मांस नोंच ले जाते थे। उपद्रवी लड़के कुत्तों को उत्तेजित करके उस पर दौड़ाते थे, परन्तु यह महावीर पुरुष इन सब दुःखों पर विजय पाता, सुख-दुःख में समभाव रखता, निर्विरोध चुपचाप मौन भाव से आगे बढ़ता जाता था। बहुत बार दूर-दूर तक गांव-बस्ती का चिह्न भी न होता था। कहीं-कहीं गांव के निकट आने पर गांव के लोग बाहर आकर उसे मार-पीटकर भगा देते थे या उस पर धूल, पत्थर, घास, गन्दगी फेंकते थे। ऐसा भी होता था कि उसे लोग उठाकर पटक देते थे या चुपचाप ध्यान में बैठे हुए को धकेलकर आसन से गिरा देते थे।
यह पुरुष महातीर्थंकार महावीर जिन था, जिसने अपनी कुल-परम्परा के आधार पर अपनी किशोरावस्था आयुधजीवी होकर व्यतीत की थी और जो अब कामभोग की परितृप्ति के लिए, मायामय आचरण, संयमसहित, वैर-भाव से मुक्त हो आत्मा का अहित करनेवाली प्रवृत्तियों को त्यागकर, पाप-कर्मरूप कांटे को जड़मूल से खींच निकालने में सतत यत्नशील था। अहिंसा उसका मूलमन्त्र था।
यह सर्वजित् पुरुष प्रत्येक वर्षाऋतु का चातुर्मास किसी नगर-ग्राम में ठहरकर काटता था। चार-चार उपवास करता और वर्षा की समाप्ति पर फिर पैदल यात्रा करता था। इस प्रकार वह कठिन वज्रभूमि लाटदेश को पारकर भद्दिलपुर, कदली-समागम, कूपिक, भद्रिकापुरी, आदिग्राम आदि जनपद घूमता हुआ राजगृह में आ पहुंचा।
राजगृह में बुद्ध महाश्रमण की बहुत धूम थी। वे अनेक बार राजगृह आ चुके थे और अब नगर में भिक्षु चारों ओर घूमते दीख पड़ते थे। परन्तु इस श्रमण का आचार-व्यवहार ही भिन्न था। महाश्रमण बुद्ध ब्रह्मचर्य पर विशेष बल देते थे, परन्तु महावीर जिन अहिंसा पर आग्रह रखते थे। वे ‘छै जीवनिकाय’ का उपदेश देते थे, उसी पर स्वयं भी आचरण करते और उसे धर्मज्ञान करानेवाला, चित्त शुद्ध करनेवाला और प्राणिमात्र के लिए श्रेयस्कर समझते थे।
देखते-ही-देखते यह महापरिव्राजक राजगृह में पूजित होने लगा। जानपद जनों के साथ श्रेणिक सम्राट् बिम्बसार भी इस तपस्वी को देखने आए।
शालिभद्र की एक पत्नी ने कहा—
“आर्यपुत्र ने सुना है, कि राजगृह में एक सर्वजित् अर्हत् श्रमण आए हैं, जो सब भांति शुद्ध-बुद्ध-मुक्त हैं?”
“क्या वह महाश्रमण तथागत गौतम शाक्यपुत्र हैं जिनके अनुगत सारिपुत्र मौद्गलायन और महाकाश्यप हैं?”
“नहीं, यह सर्वजित् महावीर हैं। वे निगण्ठ हैं, अल्पभाषी हैं। सेणिक मगधराज ने उनकी सेवा की है।”
“क्या वे मेरा दुःख दूर कर सकते हैं?”
“आर्यपुत्र को दुःख क्या है?”
“शुभे, तूने क्या नहीं देखा! माता मुझे आदेश देती हैं कि मुझे क्या करना चाहिए। हन्त, मैं बन्धनग्रस्त हूं। मुझे ये सब काम-भोग व्यर्थ दीख रहे हैं। मैं संतप्त हूं, मैं भारयुक्त हूं।”
“तो आर्यपुत्र हम सब क्यों न सर्वजित् परिव्राजक के दर्शन करें?”
“तब ऐसा ही हो शुभे। तू माता से जाकर अनुज्ञा ले।”
सेट्ठिवधू ने सास से कहा और सेट्ठिनी यह स्वीकार कर, सावरोध पुत्र को लेकर, जहां सर्वजित् महावीर थे, वहां पहुंची। सावरोध अर्हत् की प्रदक्षिणा की और अञ्जलिबद्ध प्रणाम कर एक ओर बैठ गई। बैठकर उसने कहा—”महाश्रमण, यह मेरा पुत्र अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ अपने जीवन में प्रथम बार भूस्पर्श करके आपके दर्शनार्थ आया है। सम्राट् ने एक बार इसे देखना चाहा था। उस समय मेरा पुत्र सात खण्ड से नीचे कभी उतरा ही न था। तब सविनय निवेदन करने से सम्राट् स्वयं मेरे घर पधारे थे और पुत्र ने चतुर्थ खण्ड में उतरकर उनका सत्कार किया था। पुत्र को इसका बड़ा दुःख हुआ, तभी से यह उदास और विमन रहता है। सो भन्ते श्रमण, यह अब आपके दर्शनार्थ भूस्पर्श करके सावरोध आया है। इसे अमृत देकर चिरबाधित कीजिए।”
तब कुछ देर मौन रहकर महाश्रमण ने कहा—”हे आयुष्मान्, तू ‘छै जीवनिकाय’ को जान। जीव छः प्रकार के हैं, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रंसकायिक। इन सब जीवों को स्वयं कभी दुःख न देना, किसी दूसरे को दुःख देने की प्रेरणा न करना, कोई दुःख देता हो तो उसे प्रेरणा न देना और इसके लिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत मन-वचन-कर्म से यावज्जीवन धारण करना।”
“…इन पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं हैं। आयुष्मान्, यही मैंने जीवन में धारण की है और सभी को धारण करने को कहता हूं। सब जीवों को अपने ही समान जानने और देखनेवाला इन्द्रियनिग्रही पुरुष पापमुक्त होता है। प्रथम ज्ञान और पीछे दया। अज्ञानी को आचार का ज्ञान नहीं। जीव कौन है और अजीव कौन—यह भेद जो नहीं जानता वह मोक्ष-मार्ग को भी नहीं प्राप्त हो सकता। जो जीव और अजीव के तत्त्व को जानता है वही सब जीवों की अनेकविध गति को जानता है। वह उसके कारण-रूप, पुण्य-पाप तथा बन्ध-मोक्ष को भी जानता है। उसी को दैवी तथा मानुषी भोगों से निर्वेद प्राप्त होता है और वह भोगों से विरक्त हो जाता है, बाहर-भीतर के उसके सब सम्बन्ध टूट जाते हैं और वह त्यागी परिव्राजक हो जाता है, वह सब पाप-कर्मों का त्याग कर धर्म का पालन करता है तथा अज्ञान से संचित कर्मरूपी पंक से अलिप्त हो जाता है। उसे सर्वविषयक केवली ज्ञान प्राप्त हो जाता है और वह केवल-ज्ञानी जिन लोक-अलोक के सच्चे स्वरूप को जान लेता है। तब वह अपने मन, वचन और कर्म के व्यापारों का निरोध करके शैल-जैसी निश्चल ‘शैलेषी’ दशा प्राप्त करता है। उस समय उसके सब कर्मों का क्षय हो जाता है। वह निरंजन होकर लोक की मूर्धा पर ‘सिद्धि’ गति को प्राप्त कर शाश्वत सिद्ध बन जाता है।”
महाश्रमण यह उपदेश देकर मौन हो गए। शालिभद्र ने सावरोध उठकर उनकी परिक्रमा की और अपने आवास को चल दिया।
59. शालिभद्र का विराग : वैशाली की नगरवधू
शालिभद्र के मन में भोगों के त्याग की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई। उसने सब सांसारिक सुखों की विनश्वरता को समझ लिया। फिर उसने माता के निकट आकर दीक्षा लेने की अनुज्ञा मांगी।
सेट्ठिनी भद्रा पुत्र के आग्रही स्वभाव को जानती थी। उसने अपनी निरुपायता देखकर पुत्र को समझाकर कहा—”तेरा विचार शुभ है, परन्तु तू जो सब वस्तुओं का एकबारगी ही त्याग करेगा, तो तुझे दुःख होगा। इससे तू क्रमशः त्याग का अभ्यास कर और जब तुझे कठोर जीवन का अभ्यास हो जाय तो सर्वत्यागी हो जाना।”
शालिभद्र ने माता का कहना मान लिया। उसने प्रतिदिन एक-एक स्त्री को त्याग करने का निश्चय किया।
अपनी बत्तीसों पत्नियों को उसने अपने निकट बुलाकर कहा—”हे देवाप्रियाओ, तुम सब प्रियदर्शना, मृदुभाषिणी, स्नेहमयी हो और मुझे प्राणाधिक प्रिय हो। परन्तु विनाश के दुःख से यह सम्पूर्ण लोक जल रहा है। जैसे कोई गृहस्थ अपने जलते हुए घर में से मूल्यवान वस्तुओं को बचाने की चेष्टा करता है, उसी भांति मेरा आत्मा भी बहुमूल्य है। वह इष्ट है, कान्त है; प्रिय, सुन्दर, मन के अनुकूल, स्थिर एवं विश्वासपात्र है। इसलिए भूख-प्यास, सन्निपात, परीषह तथा उपसर्ग उसकी हानि करे, इसके प्रथम ही उसे बचा लूं, मैं यह चाहता हूं। वह आत्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप तथा परम्परा से कल्याणरूप होगा। इसलिए हे प्रियाओ, मैं चाहता हूं कि प्रव्रजित होऊं और प्रतिलेखनादि आचारक्रियाओं को सीखूं। माता का उपदेश है कि मैं एकबारगी ही कठिन त्याग न करूं। सो मैंने प्रतिदिन एकाशन करने और एक पत्नी को त्यागने की इच्छा की है। अब तुममें जो मुझे सबसे अधिक प्रेम करती हो, वह मेरे कल्याण के लिए स्वेच्छा से मुझे आज बन्धनमुक्त करे इसके बाद दूसरी, फिर तीसरी।”
इस पर विदेह के वाणिज्यग्राम के सुदर्शन सेट्ठि की पुत्री सुश्री पद्मावती ने बड़े-बड़े लोचनों में मोती के समान आंसू भरकर कहा—”नाथ, यह शरीर, यौवन और सम्पत्ति स्थिर नहीं। आप यदि आत्मा की मुक्ति के लिए कृतोद्यम हैं, तो मैं आपको पति-भाव से मुक्त करती हूं।” यह कहकर उसने अपने सब शृंगार और सौभाग्य-चिह्न त्याग एक क्षौम वस्त्र धारण कर लिया और भूपात कर शालिभद्र का अभिवादन करके कहा—”अय्य, मैं भी आत्मा की उन्नति के लिए आपका अनुसरण करूंगी।”
इस पर शालिभद्र ने कहा—”उदग्र हूं, भद्रे, आप्यायित हूं। आ, फिर हम दोनों ही आज स्वेच्छया पिण्डपात ग्रहण करें।”
इस पर शालिभद्र की शेष वधुओं ने दोनों को पूजन-अर्चन कराकर संतर्पित किया।
शालिभद्र प्रतिदिन इसी प्रकार एक-एक करके अपनी पत्नियों को त्यागने लगा और वे श्रेष्ठा सुकुमारी श्रीमन्तकुमारी भी एक-एक कर कठिन व्रत लेती गईं।
शालिभद्र की छोटी बहिन राजगृह ही में धन्य सेट्ठि को ब्याही थी। उसने जब यह सुना तो वह बहुत रोई तथा रोते-रोते भाई के कठोर व्रत धारण करने की बात पति से कहने लगी।
धन्य सेट्ठि ने उसकी हंसी उड़ाते हुए हंसकर कहा—”अरी, चिन्ता न कर, रोज़-रोज़ एक-एक स्त्री की शय्या त्यागने वाला साधु नहीं हो सकता।”
इस पर उसकी स्त्री ने क्रुद्ध होकर ताना मारा और कहा—”तुम्हें यदि यह काम इतना सहज दीखता हो तो तुम्हीं न साधु हो जाओ।”
धन्य सेट्ठि को पत्नी की बात चुभ गई और उसने उसी क्षण सर्वजित् महावीर के पास जाकर दीक्षा ले ली। शालिभद्र ने जब यह सुना तो वह भी घर से निकल चला और उसने भी महावीर से दीक्षा ली।
दोनों सेट्ठियों ने सर्वजित् महावीर का उपदेश अङ्गीभूत करके खड्ग की धार के समान तीक्ष्ण तप करना प्रारम्भ किया। बिना शरीर की परवाह किए वे साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, द्विमासिक उपवास करने लगे। इससे उनका शरीर केवल हाड़ पर मढ़े चर्म की मूर्ति-सा हो गया।
श्रमण महावीर तब राजगृह में चातुर्मास व्यतीत कर रहे थे। द्विमासिक उपवास करने के बाद जब पारण करने के लिए भिक्षा मांगने की उन्होंने अनुमति मांगी, तब महावीर ने कहा—”अपने घर जाकर अपनी माता से भिक्षा ग्रहण कर पारण करो।”
तब शालिभद्र और धन्य दोनों ही चुपचाप जाकर भद्रा सेट्ठिनी के द्वार पर खड़े हो गए।
पुत्र की व्रत-समाप्ति और पारण की सूचना भद्रा-सेट्ठिनी को लग चकी थी। वह पुत्र का पारण सम्पूर्ण कराने को जल्दी-जल्दी चलकर, जहां सर्वजित् महावीर थे, वहां पहुंची। जल्दी में द्वार पर उपवास से कृशांगीभूत पुत्र और जामाता को खड़ा देखकर उसने पहचाना नहीं। कुछ देर वहां खड़े रहकर वे पीछे लौटे, मार्ग में एक ग्वालिन ने उन्हें पारण कराया। लौटकर उन्होंने श्रमण से अन्तिम व्रत-अनुष्ठान की अनुमति मांगी। अनुमति मिलने पर वे वैभार गिरि पर चले गए।
भद्रा ने श्रमण के पास पहुंचकर अपने पुत्र और जामाता के सम्बन्ध में प्रश्न किए। महावीर ने कहा—
“वे तेरे द्वार पर भिक्षा के लिए गए थे। परन्तु यहां आने की उतावली में तूने उन्हें पहचाना नहीं। अब वे दोनों मुनि मेरे निकट अन्तिम अनशन व्रत ग्रहण कर संसार से मुक्त होने के विचार से अभी-अभी वैभार गिरि पर चले गए हैं।”
अन्तिम अनशनों की बात सुनकर भद्रा सेट्ठिनी का हृदय विदीर्ण हो गया। सम्राट बिम्बसार ने भी सुना और वे आए। दोनों ने वैभार गिरि पर जाकर देखा—दोनों मुनि शांत स्थिर मुद्रा में शिलाखण्ड के सहारे स्थिर पड़े हैं। देखकर भद्रा विलाप करने लगी। वह द्विमासिक उपवास के बाद स्वेच्छा से भिक्षा के लिए द्वार पर आए पुत्र को न पहचानने के लिए अपने को तथा स्त्री-जाति को बारम्बार धिक्कार देने लगी। श्रेणिक बिम्बसार ने उसे समझाया और कहा—”भद्रे सेट्ठिनी, अब अन्तिम व्रत में उपवेशित पुत्र को अपने रुदन से व्यथित करना ठीक नहीं है।”
वह बार-बार पुत्र की प्रदक्षिणा करके लौटी और धन्य तथा शालिभद्र ने उसी उपवास में शरीर त्याग किया।
60. पांचालों की परिषद् : वैशाली की नगरवधू
उत्तरी पांचाल की राजधानी कंपिला में पांचालों की परिषद् जुड़ी थी। पांचाल संघ राज्य के सभी प्रतिनिधि उपस्थित थे। परिषद् में कुरु संघ राज्य के धनंजय, श्रुतसोम, अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त, कलिंगराज सत्तभू, सौवीर के भरत, विदेह के रेणु तथा काशिराज धत्तरथ उपस्थित हुए थे। मद्रराज और कोसल के पांचों सामंत पुत्र भी आए थे। कपिलवस्तु, धन्यकंटक, जैतवन, नालंदा, तक्षशिला, कन्नौज, काशी, उज्जयिनी, मिथिला, मगध, राजगृह तथा कौशाम्बी के आर्यों और ब्राह्मणों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित हुए थे। श्रोत्रिय भारद्वाज, कात्यायन, शौनक, बोधायन, गौतम, आपस्तंब, शाम्बव्य, जैमिनी, कणाद, औलूक, वसिष्ठ, सांख्यायन, हारीत, पाणिनि और वैशम्पायन पैल आदि धर्माचार्य भी उपस्थित थे। माण्डव्य उपरिचर भी आए थे।
अथर्व आंगिरस् ने सबसे प्रथम विवाह की नई मर्यादा उपस्थित की। उसने कहा-“परिषद् सुने, मैं अब से विवाह की नई मर्यादा स्थापित करता हूं। मैं अब तक प्रचलित वैदिक मर्यादा को बन्द करता हूं। अब से कोई कन्या अवस्था प्राप्त करने पर कुमारी न रहे, वह स्वयं पति को न चुने, वह एक पति के साथ अनुबंधित रहे, वह सपत्नियों से ईर्ष्या-रहित रहे।” केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए ही युवती तरुणों को न वरें। वे उनके गृह-कृत्यों के लिए सुगृहिणी बनें। वर को कन्या, कन्या के गुरुजन दें और यह वृद्धावस्था तक उसी एक पति के साथ सुगृहिणी होकर रहे।”
वैशम्पायन पैल ने कहा-“किन्तु यह तो अवैदिक मर्यादा है। वैदिक मर्यादा में कन्या वर चुनने में स्वतन्त्र है, वह आजीवन उनके साथ रहने को बाध्य भी नहीं, वह आजन्म कुमारी भी रह सकती है।”
आंगरिस् ने कहा-“आज से अथर्वांगिरस् चतुर्थ वेद हो। गाय के चार पाद हैं, वेद भी तीन नहीं, चार हों। नई मर्यादा की आवश्यकता इसलिए है कि अब हमारा जनपद किसान और पशुपालक नहीं रह गया। हममें बड़े-बड़े राजन्य हैं; उनकी सेना, राजसम्पदा राज्याधिकार हैं। हममें राजपुरोहित ब्राह्मण हैं, जो समाज के नियन्ता हैं। हमारी सम्पत्ति, अधिकार और राजधर्म की मर्यादा नहीं है। आज से पुरुष पति है, स्त्री उसके अधीन है; वह दत्ता है। यज्ञ और धर्म-कृत्यों में उसका स्थान ब्राह्मण ग्रहण करें और दायभाग वह नहीं, उसका पुत्र ग्रहण करे।”
भारद्वाज ने कहा-“तो इसका यह अर्थ है कि अब स्त्री पति की जीवन-संगिनी नहीं है और वह धार्मिक कृत्यों में अभिन्न भी नहीं।”
आंगिरस् ने कहा-“वह जीवनसाथी रहे, अभिन्न भी रहे, पर अधिकार पति और पुत्र का हो।”
वैशम्पायन ने कहा-“क्या समाज में स्त्री-पुरुष समान नहीं?” ऐतरेय ने खड़े होकर कहा-“नहीं; मेरी मर्यादा है कि एक पुरुष की अनेक पत्नियां हों, पर एक स्त्री के अनेक पति नहीं। मैं यह भी मर्यादा स्थापित करता हूं कि चार पीढ़ियों के अन्तर्गत आत्मीयों में विवाह न हो। वे चार पीढ़ी बाद सम्मिलित हों।”
अथर्वांगिरस्-“और उसे गुरुजन जिसे दान में दें, वह उसी की पत्नी हो। वह प्रिय दृष्टिवाली, पति की अनुरक्ता, सुखदायिनी, कार्यनिपुणा, सेवा करनेवाली, नियमों का पालन करनेवाली, वीर पुत्र उत्पन्न करनेवाली तथा देवर की कामना करनेवाली हो।”
भारद्वाज ने कहा-“पति की सेवा करनेवाली, नियमों का पालन करनेवाली तथा गुरुजनदत्ता-ये चार नई मर्यादाएं स्थापित हुईं।”
अथर्वांगिरस् ने कहा-“एक पांचवीं और वह सास-ससुर तथा पति के कुटुम्ब के साथ रहे।”
“तो वह अब पति की पत्नी ही नहीं, पति के परिवार का अंग भी हो?” वैशम्पायन पैल ने पूछा।
“ऐसा ही है भद्र! यह मर्यादा उन आर्य, अनार्य, अनुलोम, संकर सभी पर लागू हो, जो वर्णधर्मी हों और यह वैदिक मर्यादा ही रहे। इससे राष्ट्र की संपत्ति, धर्म और राजनीति अखण्ड रहेगी। आंध्र, सौराष्ट्र, चोल, चेर, पाण्ड्य, अंग, बंग, कलिंग-सभी जनपद इस मर्यादा का पालन करें।”
परिषद् ने मर्यादा स्वीकृत की। अब गौतम ने खड़े होकर कहा-“मित्रो, मैं इससे अधिक आवश्यक प्रश्न उठाता हूं। हमारे लिए अब चार वर्ण यथेष्ट नहीं हैं। अब अनेक अनार्य बन्धुओं के मिश्रण से जातियों की अनेक शाखाएं फैलती जा रही हैं। अनार्य बंधु-संसर्ग को उत्तेजन देने को हमने असवर्ण विवाह की मर्यादा स्थिर की थी। मैं ऐसे विवाहों से उत्पन्न सन्तान को अब दायभाग से वंचित करता हूँ तथा उन्हें शुद्ध वर्ण और गोत्र की परंपरा से वंचित करता हूं। वे अनुलोम हों या प्रतिलोम, मैं उनकी पृथक् जाति स्थापित करता हूं। मैं छः प्रकार के विवाह घोषित करता हूं एक ब्राह्म-जिसमें पिता वटुक वर को जल का अर्घ्य देकर कन्या अर्पण करेगा। यह ब्राह्मण का ब्राह्मण के लिए है। दूसरा दैव-जिसमें पिता कन्या को वस्त्राभूषणों से सज्जित करके यज्ञ में स्थानापन्न पुरोहित को देगा। यह क्षत्रिय का ब्राह्मण के लिए है। तीसरा आर्ष-जिसमें पिता एक गाय या बैल देकर उसके बदले कन्या दे। यह जनपद के लिए है। चौथा गान्धर्व-जिसमें तरुण-तरुणी स्वयं ही परस्पर वरण करेंगे। यह वयस्कों के लिए है। पांचवां क्षात्र-जिसमें पति कन्या के संबंधियों को युद्ध में विजय कर बलात् कन्या का हरण करेगा। यह क्षत्रिय का क्षत्रिय के लिए है। छठा मानुष-“जिसमें पति कन्या को उसके पिता से मोल लेगा-यह क्षत्रिय, ब्राह्मण का शूद्र के लिए है।”
आपस्तंब ने कहा-“मैं यह मर्यादा स्वीकार करता हूँ, परन्त क्षात्र विवाह को ‘राक्षस’ और मानुष को ‘आसुर’ घोषित करता हूं। मेरे दक्षिण के जनपद में रक्ष और आसुरों में ये विवाह-मर्यादा स्थापित हैं।”
वसिष्ठ-“मैं जानता हूं। असुर-कन्या शर्मिष्ठा को हम भुला नहीं सकते। मद्र और केकय-वंश की कन्याओं को मध्यदेशीय क्षत्रिय सदैव शुल्क देकर लेते हैं और जिन क्षत्रियों के कुलों में असुरों से सम्बन्ध है, वहां यही कुल-परंपरा है। यदि हम इन क्रीता राजकुमारियों को विवाहित पत्नी नहीं मानते हैं, तो उसकी सन्तानों के अधिकार की रक्षा नहीं होगी। हां, नीच जाति की सुन्दरी कन्याएं दासी की भांति मोल ली और बेची जा सकती हैं, परन्तु उन्हें विवाहित पत्नी के अधिकार नहीं प्राप्त होंगे।”
आपस्तम्ब-“आप ठीक कहते हैं ब्रह्मन्, दक्षिणापथ में इसी प्रकार राक्षसकुल तथा दानव और दैत्यकुल हैं, जो राक्षसकुल से भी उन्नत और आर्य-सभ्यतागृहीत हैं। वे अपनी कुल-मर्यादा नहीं छोड़ सकते। आप जानते हैं, वे दीन नहीं हैं; आर्यों के श्रेष्ठ कुलों में तथा देव-कुल में भी उनके विवाह सम्बन्ध हो चुके हैं। दैत्य-मानव-युद्ध जो होते हैं, वे जातीय हैं, धार्मिक नहीं। वे यज्ञ भी करते हैं। प्रह्लाद और बलि के दान और यज्ञ भुलाए नहीं जा सकते। पुलोमा दैत्य की पुत्री शची इन्द्र की पत्नी थी ही। उसकी कन्या जयन्ती का विवाह शुक्राचार्य और फिर ऋषभदेव से हुआ था। मधु दैत्य की कन्या मधुमती सूर्यवंशी हर्यश्व को ब्याही थी और वृषपर्वा दैत्य की कन्या को ययाति ने पत्नी बनाया था। बाण दैत्य की कन्या का विवाह अनिरुद्ध से हुआ था तथा वज्रनाभि के कुटुम्ब की तीन कन्याएं यादवों में आई हैं। इसलिए मेरी यह मर्यादा स्वीकार करने योग्य है कि ‘राक्षस’ और ‘असुर’ विवाह आर्यपरिपाटी में स्वीकृत कर लिए जाएं, जिससे इन जातियों की कन्याओं के अधिकारों का हनन न हो। परन्तु उत्तम विवाह प्रथम तीन के ही हैं।”
गौतम ने कहा-“मेरी मर्यादा है कि इन छः प्रकारों में ‘प्राजापत्य’ और ‘पिशाच’ दो प्रकार और बढ़ा दिए जाएं। प्राजापत्य विवाह वह है, जिसमें पिता कन्या को यह कह कर दे कि तुम दोनों मिलकर नियमों का पालन करो। यह उत्तरापथ के शिष्ट गणसंघ शासितों की मर्यादा है। पिशाच विवाह मैं उसे कहता हूं, जहां मूर्छिता, रोती-कलपती कन्या का बलात् हरण किया जाए।”
वसिष्ठ ने कहा-“किन्तु यह विवाह नहीं है।”
गौतम ने कहा-“यह मर्यादा काम्बोजों में विहित है। नन्दिनगर का काम्बोज संघ भी आर्यों के संघ में मिल चुका है। आप जानते हैं कि उत्तरापथ में काम्बोज की सीमाएं गान्धार से मिली हुई हैं। उनके रीति-रिवाज जंगली तो हैं ही, परंतु उन्हें हमें आर्यों के संघ में लाना है।”
बोधायन ने कहा-“यह मर्यादा मुझे मान्य है।”
गौतम-“तो एक ही गोत्र और प्रवर के स्त्री-पुरुष विवाह न करें। वे ही विवाह करें, जो माता की चार पीढ़ियों और पिता की छः पीढ़ियों में न हों।”
आपस्तम्ब-“नहीं, नहीं, माता-पिता दोनों ही की छः-छः पीढ़ियों में न हों। गोत्र के निषेध को मैं स्वीकार करता हूं, परंतु प्रवर का बंधन नहीं।”
“मेरी मर्यादा है कि चाची या मामा की लड़की से विवाह किया जा सकता है।”
गौतम-“मैं उत्तरापथ में यह मर्यादा कदापि स्थापित न होने दूंगा। दूसरे मैं संकर की समस्या पर भी विचार उपस्थित करता हूं। इस समय आर्यों के तीन वर्ण हैं, एक ब्राह्मण पुरोहित, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा जनपद अर्थात् विश। इनके सिवा अनार्य, दस्यु, दास, राक्षस, दैत्य और दानव-कुल भी हैं। आप जानते हैं कि प्रारम्भ में सभी आर्य खेती और पशुपालन करते थे। पीछे उनमें राजन्य हुए हैं, जो आज क्षत्रिय राजा हैं। वे शासन-व्यवस्था करते हैं। दूसरे ब्राह्मण पुरोहित हुए जो यज्ञ के अधिकारी हैं तथा धर्म-मर्यादा स्थापित करते हैं। इनके बाद जो जन बचे वे विश थे। वे ही आर्यों के पुराने कार्य कृषि और पशुपालन करते आए थे। परन्तु हमारे राज्य-वैभव-विस्तार और चहुंमुखी सभ्यता के विस्तार के कारण वे भी केवल वाणिज्य करने लगे। अतः आर्यों का प्राचीन धंधा पशुपालन और कृषि, उनसे निकृष्ट शूद्रों को करना पड़ रहा है। परन्तु उनमें जो इन कार्यों से सम्पन्न हो गए हैं वे सेवा नहीं करते, सेवाकार्य का दायित्व क्रीत दासों के सुपुर्द हो गया है।”
आपस्तम्ब-“मित्र गौतम का अभिप्राय क्या है?”
गौतम–”बड़ा जटिल मित्र! वही मैं कहता हूं। आर्यों की पुरानी मर्यादा के अनुसार उच्च वर्ग का पुरुष अपने से नीचे वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकता है। इससे ब्राह्मण को चारों वर्णों की स्त्रियां ब्याहने का अधिकार है। क्षत्रियों को तीन की, पर वैश्यों को दो ही की। फिर उन्हें कृषि, वाणिज्य और शिल्प के लिए दासों, शूद्रों और कर्मकारों से घनिष्ठ रहना पड़ता है। नियम से भी उन्हें अपने सिवा शूद्रा स्त्री ही मिल सकती है। इससे उनके रक्त में शूद्रों और अनार्य दासों का रक्त बहुत अधिक मिश्रित हो गया है, जिससे समाज में बहुत गड़बड़ी और अशुद्धि उत्पन्न हो गई है। नियमानुसार ऐसे विवाह की सन्तान पिता की जाति की मानी जाती है। इस मिश्रण से वैश्यों का रंग भी बदल गया है और उनका बुद्धिविकास भी कम हो गया है। संकर जनपद में जो सेट्ठिजन हैं उन्हें छोड़कर सर्वत्र ही विशकुल हीन हो गया है। अतः मैं आर्यों में संकर भाव को बंद करता हूं। मैं यह मर्यादा स्थापित करता हूं कि अपने ही वर्ण की स्त्री की सन्तान पिता के वर्ण को प्राप्त हो, वही सम्पत्ति में भागी हो।”
वसिष्ठ-“परन्तु यह प्राचीन मर्यादा है कि ब्राह्मण तीनों वर्गों की स्त्री से ब्राह्मण सन्तान पैदा कर सकता है। यह सत्य नहीं है कि संकर सन्तान हीनगुण होती है। मत्स्यगन्धा में पराशर ऋषि के औरस से व्यास का जन्म हुआ जो विद्या-बुद्धि में अपने पिता से भी बढ़-चढ़कर हुए। उनकी योग्यता का व्यक्ति उस युग के ब्राह्मणों में भी कोई न था।”
गौतम-“इतना होने पर भी उन पर ‘न देवचरितं चरेत्’ का नियम लगा दिया गया था और उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया था और यह स्पष्ट कर दिया गया कि ब्राह्मण शूद्रों में सन्तान न उत्पन्न करें; करें तो वे ब्राह्मण नहीं।”
वसिष्ठ-“ब्राह्मण नहीं तो कौन? वे शूद्र भी नहीं?”
गौतम-“मैं उसे ‘पारशव’ घोषित करता हूं और उसकी मर्यादा स्थापित करता हूं कि वह अपने कुल की सेवा करे।”
वसिष्ठ-“तब क्षत्रिय भी शूद्रों में जो सन्तान उत्पन्न करें, वह क्षत्रिय नहीं। उसे मैं ‘उग्र’ घोषित करता हूं। उसकी पृथक् जाति हो, परन्तु वैश्य पिता की शूद्रा में सन्तान वैश्य ही रहे। किन्तु वैश्या माता और ब्राह्मण पिता की सन्तान ब्राह्मण नहीं, मैं उसे ‘अम्बट’ घोषित करता हूं। यही उसकी जाति हो।”
अब शौनक ने उठकर कहा-“तो हम सब ऐसी मर्यादा स्थापित करते हैं कि सवर्ण विवाह की सन्तान ही सवर्ण है। प्रतिलोम की भांति अनुलोम सन्तान भी आज से संकर हुई, तथा वह आर्यों से बहिर्गत हुई।”
सांख्यायन श्रोत्रिय ने कहा-“ऐसा ही हो–नहीं तो आर्य-कुल का नाश हो जाएगा। क्या आप देखते नहीं कि आर्यों के सब राज्य, शिल्प, वाणिज्य संकरों ने अपना लिए हैं?”
आपस्तम्ब-“किन्तु मित्र इस व्यवस्था से तो संकरों का अधिक संगठन होगा। वे और सबल होंगे। वे आर्यों के विद्रोही हो जाएंगे। संकरों की प्रत्येक जाति में एक प्रकार का गर्व उत्पन्न हो जाएगा, क्योंकि प्रत्येक जाति यह समझने लगेगी कि किसी-न-किसी जाति से तो हम श्रेष्ठ हैं ही। फिर जहां कहीं धन और शक्ति का आधिक्य हो गया, वहां तो यह गर्व और बढ़ जाएगा, तथा भीतरी भेद उत्पन्न होने लगेंगे। देश-भेद, रहन-सहन और खान-पान में अन्तर पड़ जाएगा। विवाह भी उन्हीं जातियों में होने लग जाएंगे। ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों तथा शूद्रों की भी अनेक उपजातियां बन जाएंगी। उन्हीं से उनके विवाह और खान-पान सीमित हो जाएंगे। संकरों की भी अनगिनत जातियां बन जाएंगी। इससे आर्यों का सम्पूर्ण संगठन नष्ट हो जाएगा। उदाहरण के लिए, कोसल के अधिपति प्रसेनजित् के परिणाम की ओर आपका ध्यान आकर्षित करता हूं।”
गौतम-“चाहे जो भी हो, हम रक्त की शुद्धता को नष्ट नहीं होने देंगे। अब तक विवाह की तीन विधियां थीं-एक अग्निप्रदक्षिणा, दूसरी सप्तपदी लाजहोम, तीसरी शिलारोहण। मैं अब से पांच विधि स्थापित करता हूं; चौथी कन्यादान और पांचवीं गोत्रों का बचाव। आर्यों का विवाह इन पांच विधियों के पूर्ण हुए बिना सम्पादित न हो।”
वसिष्ठ-“ऐसा ही हो। अब मैं क्षेत्रज पुत्र को दायभाग में दूसरा स्थान देता हूं।”
गौतम-“मैं स्वीकार करता हूं।”
बोधायन-“मैं मतभेद रखता हूं। क्षेत्रज का स्थान मैं तीसरा स्थापित करता हूं।”
आपस्तम्ब-“मैं विरोध करता हूं। मैं नियोग की प्रथा को बन्द कर देने के पक्ष में हूं। किसी सभ्य पुरुष को अपनी स्त्री कुटुम्बी को छोड़कर किसी दूसरे को नहीं देनी चाहिए। नियम के अनुसार पति को छोड़कर उसे दूसरे पुरुष का हाथ अज्ञात पुरुष का हाथ समझना चाहिए।”
गौतम-“मैं यह मर्यादा स्थापित करता हूं कि जिस विधवा स्त्री को सन्तान की इच्छा हो, वह गुरुजनों की आज्ञा लेकर देवर से ऋतुगमन कर ले। देवर का अभाव हो तो सपिण्ड, सगोत्र, समान प्रवर या सवर्ण पुरुष से कर ले। वह दो से अधिक सन्तान न उत्पन्न करे। सन्तान उसकी है, जो उत्पन्न करे। यदि पति जीवित हो तो सन्तान दोनों की है।”
हारीत-“मैं सहमत हूं।”
भारद्वाज-“जो विवाहिता किन्तु अक्षतयोनि ही है, उसे मैं कन्या घोषित करता हूं। उसका नियमानुसार विवाह हो।”
बोधायन-“सम्भोग हो भी गया हो, परन्तु विधिवत् विवाह न हुआ हो, तो वह भी कन्या ही है। उसका विवाह विधिवत् हो।”
पाणिनि-“जो अविवाहिता है वह कन्या है। पर पुरुष से भोगी जाकर भी उसका कन्या-भाग दूषित न हो। विवाह-विधि होने के बाद पुरुष-संग ही से उसका कन्या-भाव छूटे।”
वसिष्ठ-“तो मैं छः कन्याएं घोषित करता हूं-1. जो अविवाहिता और अक्षत है, 2. जो अविवाहिता है और क्षत है, 3. जो विवाहिता है और अक्षत है, 4. साधारण स्त्री, 5. विशिष्ट स्त्रियां, 6. मुक्तभोगिनी।”
गौतम–”यदि किसी स्त्री का पति एकाएक विदेश चला जाए, तो वह छः वर्ष उसकी राह देखकर पुनर्विवाह कर ले। पर यदि पति ब्राह्मण हो और विद्या-अध्ययन के लिए गया हो तो स्त्री बारह वर्ष राह देखे।”
कात्यायन-“नपुंसक या पतित पति की स्त्री यदि दूसरा विवाह ब्याह करे तो उसका पुत्र पौनर्भव हो। वह माता के पहले पति के दाय से भोजन-वस्त्र पाए।”
वसिष्ठ-“जो स्त्री अपने अल्पवयस्क पति को छोड़ अन्य-पुरुष के पास रहे, तथा फिर पहले पति के वयस्क होने पर उसके पास आ जाए वह पुनर्भवा है। यदि उसका पति पागल, पतित या नपुंसक हो और वह उसे छोड़कर दूसरे पति से विवाह करे तो वह पौनर्भव हो।”
हारीत–”ये छः पुत्र दायाद बन्धु हैं-औरस, क्षेत्रज, पौनर्भव, कानीन, पुत्रिका पुत्र और गूढ़ज। ये क्रम से दायभागी हों।”
61. जैतवन में तथागत : वैशाली की नगरवधू
तथागत बुद्ध कपिलवस्तु से चारिका करते श्रावस्ती आए। उनके साथ महाभिक्षुसंघ भी था, जिसमें आयुष्मान् सारिपुत्त, आयुष्मान् महा मौद्गलायन, आयुष्मान् महा कात्यायन, आयुष्मान् महा कोद्विन्, आयुष्मान् महा कापियन, आयुष्मान् महा चुन्द, आयुष्मान् अनुरुद्ध, आयुष्मान् रैवत, आयुष्मान् उपालि, आयुष्मान् आनन्द, आयुष्मान् राहुल आदि संघप्रमुख स्थविर थे।
गृहपति अनाथपिण्डिक ने सुना। सुनकर बोधिपुत्र माणवक को बुलाकर कहा-“सौम्य बोधिपुत्र, जहां भगवान् हैं वहां जाओ और मेरे वचन से भगवान् के चरणों में सिर से वन्दना करके आरोग्य, अन आतंक, लघुउत्थान, बल, अनुकूल विहार पूछो और यह भी कहो-भन्ते, भिक्षुसंघ सहित भगवान् जैतवन में विहार करें तथा कल का भोजन भी स्वीकार करें।”
“अच्छा भो” कह बोधिकुमार माणवक जहां तथागत थे, वहां गया और अभिवादन कर उसने गृहपति का सन्देश कहा। तथागत ने मौन से स्वीकार किया। तब माणवक ने लौटकर गृहपति से कहा।
गृहपति ने उदग्र हो घर में उत्तम खादनीय-भोजनीय पदार्थ तैयार करवाए। जैतवन विहार के प्रदेश-मार्ग को अवदात धुस्सों से सीढ़ी के नीचे तक बिछवाकर सजाया-संवारा।
तब भगवान पूर्वाह्न समय चीवर पहिन भिक्षा-पात्र ले संघ-सहित जैतवन के द्वार पर पहुंचे। गृहपति द्वारकोष्ठक के बाहर खड़ा तथागत की प्रतीक्षा कर रहा था। देखते ही अगवानी कर भगवान् की वन्दना कर ले चला। जब बुद्ध निचली सीढ़ी पर पहुंचे तो खड़े हो गए।
गृहपति ने कहा-“भगवान् धुस्सों पर चलें। सुगत धुस्सों पर चलें, जिससे ये चिरकाल तक मेरे हित और सुख के लिए हों।”
परन्तु तथागत चुपचाप खड़े रहे। गृहपति ने दूसरी बार, फिर तीसरी बार भी कहा। तब तथागत ने आनन्द की ओर देखा।
आनन्द ने कहा-“गृहपति, धुस्से समेट लो। भगवान् चैल-पंक्ति पर नहीं चलते।” गृहपति ने धुस्सों को समेट लिया। तब तथागत बुद्ध ने आराम से प्रवेश किया और संघसहित बिछे हुए आसनों पर बैठे। तब गृहपति ने बुद्धसंघ को अपने हाथ से उत्तम खाद्य-भोज्य पदार्थों से सन्तर्पित किया। भगवान् के हाथ हटा लेने पर एक ओर बैठकर उसने कहा-
“भगवन्, जैतवन के विषय में कैसे करूं?”
“गृहपति, जैतवन को आगत, अनागत, चातुर्दिक भिक्षुसंघ के लिए प्रदान कर दे।”
अनाथपिण्डिक ने कहा-
“ऐसा ही हो भन्ते!”
तब महाश्रमण बुद्ध ने अनाथपिण्डिक के दान को अनुमोदित करते हुए गाथा कही-
“सर्दी, गर्मी और क्रूर जन्तुओं से रक्षा करता है। सरीसृप, मच्छर, शिशिर, वर्षा, हवा-पानी से बचाता है। आश्रय के लिए, सुख के लिए, ध्यान के लिए, विपथ्यन के लिए, संघ को विहार का दान श्रेष्ठ है। रमणीय विहार बनवाकर वहां बहुश्रुतों को बसाकर, उन्हें अन्न-पान-वस्त्र और शयन-आसन प्रसन्नचित्त से प्रदान करें।”
तब दर्भ मल्लपुत्र ने आकर तथागत से कहा-
“भन्ते, यदि अनुमति हो तो मैं संघ के शयन-आसन का प्रबन्ध करूं?”
“साधु, साधु, दर्भ! तू संघ के शयन-आसन और भोजन का प्रबन्ध कर?”
फिर उन्होंने भिक्षुसंघ को एकत्रित करके कहा-“भिक्षुओं, संघ दर्भ मल्लपुत्र को संघ के शयन-आसन का प्रबन्धक और भोजन का नियामक चुने।”
संघ ने दर्भ मल्लपुत्र को चुन लिया। तब मल्लपुत्र ने भिक्षुओं का एक-एक स्थान पर शयन-आसन प्रज्ञापित किया। जो सूत्रात्तिक थे उनका एक स्थान पर, जो विनयधर थे उनका दूसरे स्थान पर, जो धर्मकथित थे वे तीसरे स्थान पर, इसी प्रकार दर्भ मल्लपुत्र ने सम्पूर्ण भिक्षु-संघ को प्रज्ञापित किया। गृध्रकूट, चौरप्रताप, ऋषिगिरि की कालशिला, वैभार शृंग, सप्तपर्णी गुहा, सीतवन, सर्वशौंडिक, प्राग्भार, गौतम कन्दरा, कपोत कन्दरा, पोताराम, आम्रवन, मद्रकुक्षि, मृगदाव-सर्वत्र दर्भ मल्लपुत्र ने तेजोधातु की समापत्ति के प्रकाश में भिक्षुसंघ का शयन-आसन प्रज्ञापित किया। वे यत्न से प्रत्येक भिक्षु को बताते-यह मंच है, यह पीठ है, यह भित्ति है। यह बिम्बोहन है, यह कतर-दण्ड है, यह संघ का कतिक संथान है।
दर्भ मल्लपुत्र के अन्तेवासी भाण्डागारिक, चीवर-प्रतिग्राहक चीवरभाजक, यवागूभाजक, फल-भाजक, खाद्य-भाजक, शाटिक-ग्राहक, आरामिक-प्रेषक, श्रामणेर-प्रेषक आदि भिक्षु-संघ से चुने हुए भिन्न-भिन्न विहारों के लिए नियत हुए।
62. अजित केसकम्बली : वैशाली की नगरवधू
पूर्वाराम मृगार-माता प्रासाद भी बनकर तैयार हो गया था। यह भवन श्रावस्ती ही में नहीं, प्रत्युत जम्बू-द्वीप भर में अद्वितीय विहार था। इसमें एक सहस्र प्रकोष्ठ थे। यह विहार सात-तल्ला था। सेट्ठि मृगार की पुत्रवधू विशाखा ने इसे अपने एक हार के दाम से तैयार कराके बुद्ध को भेंट करने का निश्चय किया था, परन्तु अनाथपिण्डक के जैतवन विहार में भ्रमण गौतम ने वर्षावास स्वीकार कर लिया, इससे सेट्ठि मृगांर की इच्छा पूरी नहीं हुई।
अजित केसकम्बली अपने शिष्यों-सहित सरयू-तीर के अपने आश्रम में मृगचर्म पर बैठे थे। उनका शरीर बिलकुल काला था, डील-डौल विशाल और आंखें चमकदार थीं। वे एक साधारण सूती वस्त्र कमर में लपेटे थे। स्वच्छ जनेऊ उनके कज्जलकृष्ण अंग की शोभा बढ़ा रहा था। उनके सामने महाशाल लौहित्य एक आसन पर बैठे थे। इनका अंग दुबला-पतला और वर्ण गौर था। कंठ में जनेऊ और सिर पर बड़ी चोटी थी। उनकी आंखें बड़ी-बड़ी और वक्ष विशाल था।
अजित ने कहा-“तो महाशाल लौहित्य, गौतम श्रावस्ती से आ गया है न?”
“हां आचार्य, और इस बार उसके ठाठ निराले हैं। उसने बहुत-से विश्रुत ब्राह्मणों को भी शिष्य बना लिया है।”
“हां-हां, ऐसा तो होना ही था महाशाल! इन मूर्ख ब्राह्मणों का बेड़ा डूबा। मैंने तो तुमसे बार-बार कहा है कि ब्राह्मण याज्ञवलक्य, जैविलि और उद्दालक ने पुराने यज्ञवाद को गौण करके ब्राह्मवाद का जो ढकोसला खड़ा किया था और उनके गुरु प्रवाहण ने जो पुनर्जन्म की गढ़न्त गढ़ी थी, उसका एक दिन भण्डाफोड़ होगा ही। अब तुम देखोगे कि विदेह जनक के सारे प्रयासों पर पानी फिर जाएगा। उसका ये बड़ी-बड़ी परिषदें बुलाना, ब्रह्मवाद पर शास्त्रार्थ कराना और बड़े-बड़े दान देना, सब व्यर्थ होगा और लोग स्वतन्त्र रीति से विचार प्रारम्भ कर देंगे। अब इसी शाक्य गौतम ही को लो। उसने एक और ढकोसला चलाया है। क्यों महासामन्त पायासी, तुम तो उसके पिता शुद्धोदन से मिले थे। क्या कहता है वह अपने पुत्र के सम्बन्ध में?”
महासामन्त पायासी का ताम्रवर्ण शरीर, लाल-लाल आंखें और बलिष्ठ भुजदंड एवं भारी-भारी गलमुच्छे बड़े प्रभावशाली थे। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा-“वह भी उसका शिष्य हो गया है आचार्य! वही नहीं, कपिलवस्तु के सारे ही शाक्य उसके शिष्य हो गए हैं। शुद्धोदन को इससे बड़ा लाभ है आचार्य! वह कोसल के प्रभुत्व का जुआ उतार फेंकना चाहता है। अब तक तो शाक्यगण कोसल के अधीन था, अब गौतम का पिता अनुगत शिष्य होने से शुद्धोदन का आदर बढ़ गया है। उधर मगध-सम्राट भी उसका बहुत सम्मान करने लगे हैं, वे भी गौतम के शिष्य हो गए हैं।”
“होंगे क्यों नहीं? बिना ऐसा किए वे अपने असुर-रक्त-प्रभावित वर्णसंकर वंश को छिपाएंगे कैसे? पर राजमहिषी मल्लिका?”
“राजमहिषी तो सेट्ठि विशाखा के पूरे प्रभाव में है आचार्य, और वह भी गौतम की शिष्या हो गई है।”
“तब महाराज प्रसेनजित् अब किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?”
“वे घपले में पड़े हैं आचार्य, असल बात तो यह है कि वे राजकुमार विदूडभ से बहुत भीत हैं और सच पूछिए तो शाक्य शुद्धोदन को भी उसका बड़ा भय है। इस भय से बचने के लिए गौतम की शरण ही एक ढाल है।”
“ठीक है, पायासी! पर तुमने सुना-“गौतम शाक्य कहता क्या है?”
“आचार्य, वह आप ही की भांति कहता है कि आत्मा और ईश्वर नाम की कोई नित्य वस्तु विश्व में नहीं है। सभी वस्तुएं जो उत्पन्न होती हैं, नाशवान् हैं। संसार वस्तुओं का नहीं, घटनाओं का प्रवाह है।”
“वाह पट्ठे, सुनने में तो ये बातें बड़ी सुन्दर जान पड़ती हैं! अरे, उसने सत्य पर मुलम्मा किया है। क्यों लौहित्य, क्या कहते हो? जो लोग लोक-मर्यादा, धनी और निर्धन तथा दास-स्वामी के भेद को लेकर मुझसे भड़कते हैं, वे गौतम के इस जाल में फंस जाएंगे? पर यह संसार घटनाओं का प्रवाह कैसे है भाई?”
“आचार्य, गौतम कहता है-यद्यपि कोई शाश्वत चैतन्य आत्मा संसार में नहीं है, परन्तु एक चेतना-प्रवाह स्वर्ग या नरक आदि लोकों के भीतर एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक शरीर-प्रवाह से दूसरे शरीर-प्रवाह में बदलता रहता है।”
“बड़ी चालाकी करता है यह गौतम शाक्य! वत्स लौहित्य, वह मेरे सत्य को भी पकड़े हुए है और प्रवाहण के पुनर्जन्म के पाखण्ड को भी। अब मैं समझा पायासी, कि यदि वह ऐसा न करता तो क्या साकेत, कौशाम्बी, श्रावस्ती और राजगृह के राजा-महाराजा, सेद्वि-सामन्त और महाशाल उसके चरणों में सिर नवाते? और अपनी थैलियां यों उसके आगे खोल देते?”
“यही तो बात है आचार्य! सुना नहीं आपने, विशाखा का एक प्रतिस्पर्धी मूर्ख और खड़ा हुआ है श्रावस्ती में।”
“कौन है वह?”
“अनाथपिण्डिक सुदत सेट्ठि।”
“सेट्ठि सुदत्त? क्या किया है उसने लौहित्य?”
“जब उसने देखा कि पुत्रवधू विशाखा की आड़ में सेट्ठि मृगार महिषी मल्लिका के द्वारा शाक्य गौतम और महाराज प्रसेनजित् का कृपापात्र होना चाहता है, तब उसने भी एक मार्ग निकाल लिया।”
“कौन-सा मार्ग?”
“उसने जैत राजकुमार को साधन बनाया है आचार्य!”
“किस भांति लौहित्य?”
“राजकुमार से उसका क्रीड़ा-उद्यान जैतवन क्रय कर, उसमें विहार बनवाकर उसने गौतम शाक्य को भेंट कर दिया।”
“जैतवन भेंट कर दिया! क्या कहते हो लौहित्य!”
“सत्य कहता हूं आचार्य!”
“जैत राजकुमार ने जैतवन बेच दिया?”
“वे नहीं देना चाहते थे, पर सुदत्त ने जैतवन की सम्पूर्ण भूमि पर स्वर्ण बिछाकर उसे क्रय कर लिया आचार्य! अठारह करोड़ स्वर्ण दिया उसने।”
“तो यों कहो, जैत राजकुमार को एक भारी उत्कोच दिया गया।”
“यही तो बात है आचार्य। उसके तीन पोत स्वर्णद्वीप से स्वर्ण भरकर लौटे हैं। सुदत्त अनाथपिण्डिक के पास स्वर्ण की क्या कमी है! अब उसकी कीर्ति घर-घर गाई जा रही है, विशाखा का सप्तखण्डी मृगारमाता-प्रासाद धरा ही रह गया।”
“यह तो होना ही था। फिर राजकुमार जैत की इस पर कृपादृष्टि।”
“जैत ही की क्यों पायासी, गौतम शाक्य की भी कहो। यही देख लो, राजमहिषी मल्लिका अब यहां नहीं आतीं। सुना है, उन पर इस गौतम का अच्छा रंग चढ़ा है।”
“इसमें क्या आश्चर्य है! माली की बेटी अपने रूप के कारण बनी कोसल पट्टराजमहिषी, सो वह रूप की दुपहरी तो कब की ढल गई। महाराज प्रसेनजित् को नित-नये यौवनों से फुर्सत नहीं। उनकी विगलित वासना को राजगृह का वह तरुण वैद्य अपने वाजीकरण से पूर्ण नहीं कर सका। अब वह चार्वाकपन्थी माण्डव्य अपने रसायन का चमत्कार दिखाना चाह रहा है।”
“साकेत के उस पाजी वृहस्पति चार्वाक के चेले की बात कह रहे हो? बड़ा घृणित है वह ब्राह्मण-कुलकलंक। हां, तो उसने राजा को खूब भरमा रखा है?”
“जी हां, वह यही तो कहता है कि इन्द्रियों को तृप्त होकर अपने-अपने विषयों को भोगने दो, यथेष्ट आनन्द करो।”
“और उस धूर्त ने राजा को कुछ रसायन दी है?”
“जी हां, सो जैसे सूखा ईंधन अनुकूल वायु पाकर धांय-धांय जलता है, वैसे ही उस अतृप्त कामाग्नि में राजा भी जलकर राख हो जाएगा। इस सत्तर वर्ष की अवस्था में वह गांधारी कलिंगसेना से विवाह करने जा रहा है। उधर विदूडभ राजपुत्र उसे मारकर कोसल के सिंहासन को हथियाने का षड्यन्त्र रच रहा है।”
“यह क्या कहते हो पायासी सौम्य? राजकुमार विदूडभ!”
“हां, आचार्य! शाक्यों ने जब से उसको दासीपुत्र कहकर अपमानित किया है, वह महाराज से घोर घृणा करता है। वह कहता है, जब माली की लड़की मल्लिका को उन्होंने पट्टराजमहिषी का पद दिया, तो उसकी माता शाक्यदासी नन्दिनी को क्यों दासी ही रहने दिया? शाक्यों से अनादृत होकर वह और भी क्रुद्ध हो उठा है।”
“उसका यह कथन अयथार्थ तो नहीं है प्रिय! पर सत्य जानो, ये दासीपुत्र उन सभी बूढ़े कामुक राजाओं को डुबोएंगे। तो विदूडभ तो शाक्य गौतम से भी घृणा करता होगा?”
“उसका वश चले तो वह उसे मार ही डाले। पर उसका वह मित्र…”
“कौन?”
“राजगृह का वह तरुण वैद्य। वह उस शाक्य गौतम का परम भक्त है। आजकल वह उसका बहुत घनिष्ठ हो रहा है।”
“तो यों कहो कि श्रावस्ती में जहां देखो वहीं उस धूर्त शाक्य-श्रमण के गुप्तचर भर रहे हैं। पर सौम्य लौहित्य, तुम उस मूर्ख राजकुमार विदूडभ को मेरे पास लाओ। उसे तो हमारे ही दल में मिलना चाहिए।”
“मैं चेष्टा करूंगा आचार्य! पर वह तरुण राजकुमार उतना मूर्ख नहीं है; वह बड़ा तेजस्वी है।”
“तब तो और भी अच्छा है। अरे, ये सभी वर्णसंकर जन आर्यों से अधिक तेजस्वी होते हैं। प्रिय, यदि वही निकट भविष्य में कोसल का सिंहासन आक्रान्त करेगा, तो उसे अपना निकटवर्ती रखना अच्छा है। विशेषकर इसलिए कि वह शाक्य गौतम से घृणा करता है, जिसके नाम का श्रावस्ती, कोसल राजगृह, वैशाली सर्वत्र ही जनपद में डंका बज रहा है।”
“मैं उसे लाऊंगा आचार्य! वह मेरा आदर करता है।”
“तो उससे लाभ उठाओ भाई! हां, राजमहिषी मल्लिका की क्या बात कर रहे थे?”
“वे नित्य उस श्रमण गौतम के पास जाती हैं। वे जानती हैं, उनका माली की पुत्री होने का लांछन वही मिटा सकता है। सेट्ठिवधू विशाखा उनके बहुत मुंह लगी है।”
“तो उन दोनों का भेद कराना होगा। राजमहिषी को भी हमारे ही दल में मिलना चाहिए। फिर मैं उस शाक्य शुद्धोदन को समझ लूंगा।”
“यह तनिक कठिन होगा आचार्य! देवी मल्लिका माली की बेटी तो हैं, परन्तु उनकी निष्ठा बहुत है, और कोसल जनपद में उसका मान महाराज प्रसेनजित् के ही समान है।”
“तभी तो सौम्य लौहित्य! परन्तु चिन्ता न करो, मैं उपाय कर लूंगा। राजमहिषी मल्लिका को मेरी शरण आना ही होगा, यह राजसूय समाप्त होने दो। जब तक यज्ञ समाप्त नहीं हो जाता, राजा मेरी ही इच्छा के अधीन हैं। परन्तु श्रावस्ती पर एक और भी तो पापग्रह है।”
“वह कौन?”
“श्रमण महावीर जिन।”
“उसकी तपश्चर्या ही निराली है आचार्य, कुछ समझ में ही नहीं आता। सुना है, वह दो-दो मास निराहार रहते हैं। आजीवकों की भांति नंगे रहते हैं। उनके शील और व्रत बहुत श्रावक धारण कर रहे हैं। वह भी शूद्र और ब्राह्माण में अभेद रखते हैं। राजपुत्र विदूडभ उन्हें बहुत मानते हैं।”
“समझ गया। अरे लौहित्य, प्रसिद्धि के अनेक उपाय हैं। इस लिच्छवि निग्रंथ श्रमण को भी मैं अच्छी तरह जानता हूं। उधर शाक्यों ने इधर लिच्छवियों ने अपने गणराज्य के विस्तार का यह धर्म का ढोंग रचा है इनका उच्छेद सम्राट् द्वारा नहीं विदूडभ के द्वारा होगा। नहीं तो वे कोसल के आर्य राज्य को खोखला कर डालेंगे। अच्छा-अच्छा, देखूंगा इसे, राजसूय समाप्त होने दो।”