चरित्रहीन (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 3

चरित्रहीन (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 3

बीस

बोलचाल से हो, इशारे से हो, कभी किसी के सामने सतीश ने सावित्री का ज़िक्र नहीं किया। इसी कारण जब यह बात किरणमयी के सामने प्रकट हो गयी, तभी से उसके सारे शरीर से अमृत का श्रोत बह चला। किरणमयी को सतीश देवी समझता था, उसकी सभी बातों की अत्यन्त श्रद्धा करता था। उसने कहा, “दुःख के दिनों में फिर भेंट होगी।” तभी से उसके निभृत हृदय में रहने वाला शोकात्र्त विच्छेद उस परम इच्छित दुःख के दिनों की आशा में उन्मुख हो उठा था। कोई दुःख किस तरह कितने दिनों में उसको दर्शन देकर दया करेगा, इसी चिन्ता को लेकर वह धीरे-धीरे रास्ता चलते-चलते रात के आठ बजे अपने डेरे पर पहुँचा। कमरे में घुसकर जिस ओर, जिस वस्तु की ओर उसने देखा, उसी ने आज विशेष रूप से उनकी दृष्टि को आकर्षित कर लिया। कुरते को उतारकर अरगनी पर रखने गया तो उसने देखा, कपड़े ठीक करके रखे हुए हैं – तह लगाये हुए हैं। हरिण की सींगों पर संध्या-पूजा का जो कपड़ा धोकर टाँग दिया गया था वह चुन दिया गया है। बैठने लगा तो उसने देखा, कुर्सी पर गन्दे कपड़ों का जो ढेर रखा रहता था वह आज नहीं है। दो हफ़्तों से धोबी नहीं आता, इस लिए गन्दे कपड़ों का ढेर प्रतिदिन बैठने की चौकी पर धीरे-धीरे जमा होता जा रहा था। बैठते समय सतीश उन सबको भूमि पर फेंक कर बैठता था। उठकर चले जाने पर बिहारी फिर यथास्थान उठाकर रख देता था। सात दिनों से मालिक और नौकर यह कार्य कर रहे थे। एकाएक वे सब गठरी बाँधे जाकर अरगनी की ओट में हटा दिये गये हैं। बिछौने की चादर, तकिये का गिलाफ़ बहुत मैला हो गया था, आज वह धुला सफेद है। मसहरी सदा ही अशिष्ट ऊँट की तरह मुँह ऊपर को किये टँगी रहती थी, वह भी आज चारों कोनों में सीधे तौर से शिष्टता के साथ खड़ी हो गयी। बत्ती के कोने में बराबर ही कालिख जमा रहती थी, आज उसकी कोई बला नहीं है – खूब साफ़ जल रही है। सभी तरफ़ यह सफाई – यह सजावट का लक्षण देखकर अत्यन्त बूढ़े बिहारी के इस आकस्मिक रुचि-परिवर्तन का कोई कारण ढूँढ़ने पर उसे नहीं मिला। उसने पुकारा “बिहारी!”

बिहारी आड़ में खड़ा था, सामने आकर बोला, “जी आज्ञा?”

सतीश बोला, “बहुत अच्छा! यदि यह सब तू कर सकता है तो घर-द्वार इतना गन्दा क्यों छोड़ रखता है। मैं बहुत ही प्रसन्न हो गया हूँ।”

बिहारी ने विनयपूर्वक अपना मुँह ज़रा झुकाकर कहा, “जी सरकार! आपके नाम एक तार आया है।”

“कहाँ रे?” कहकर इधर-उधर दृष्टि डालते ही मेज़ पर रखा हुआ पीला लिफ़ाफ़ा उसकी निगाह में पड़ गया। खोलकर उसने देखा, उपेन भैया का समाचार है। वे साढ़े नौ बजे की ट्रेन से हावड़ा स्टेशन पर पहुँचेंगे। घड़ी में लगभग साढ़े आठ बज गये थे। व्यस्त होकर उसने कहा, “जल्द ही एक गाड़ी ले आ बिहारी, उपेन भैया आ रहे हैं!”

पाँच मिनट के अन्दर बिहारी गाड़ी ठीक करके ले आया। ख़बर देकर और किवाड़ की आड़ में खड़ा रहकर पूछा, “बाबू को साथ लिए डेरे पर लौटियेगा तो!”

सतीश ने सोचकर कहा, “नहीं, आज रात को फिर लौटूँगा नहीं।”

उपेन भैया सीधे हारान बाबू के यहाँ ही चले जायेंगे, इसमें सतीश को तनिक भी सन्देह नहीं था। क्योंकि उनके सपत्नीक आने की ख़बर टेलिग्राम में नहीं थी।

सतीश इसी बीच दो पूड़ियाँ खा रहा था। बिहरी ने आड़ से कहा, “बाबू एक निवेदन है।”

प्रार्थना करने की आवश्यकता पड़ने पर बिहारी पण्डिजी-भाषा का प्रयोग करता था।

सतीश ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “कैसा निवेदन”

“आज्ञा” कहकर बिहारी चुप हो रहा।

सतीश ने प्रश्न किया, “क्या आज्ञा है सूनूँ तो?”

बिहारी ने कहा, “सरकार, तीस रुपये मिल जाते तो…।”

सतीश ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “परसों तो तुमने तीस रुपये लेकर घर भेज दिये थे?”

बिहारी ने मृदु स्वर से कहा, “सरकार, इच्छा तो ज़रूर यही थी, लेकिन चक्रवर्ती महाराज के घर….।”

चक्रवर्ती के नाम से सतीश जल उठा, बोला, “वह रुपया चक्रवर्ती को दे दिया – यह रुपया किसको दान दिया जायेगा, सुनूँ?”

“सरकार, दान नहीं, आदमी बड़े ही दुःख में पड़कर….।”

“उधार माँग रहा है?”

“सरकार, उधार और उसको क्या दूँगा।”

सतीश धीरज खोकर उठ खड़ा हुआ। बोला, “तुम्हारे पास हो, तो तुम दे दो बिहारी, मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ कि रोज रुपया नष्ट कर सकूँ। मैं दे न सकूँगा।”

इस बार बिहारी जिद करके बोला, “न देने से काम चल ही नहीं सकता बाबू। न हो तो मेरे वेतन से ही दे दीजिये।”

वेतन के नाम से सतीश चौंक उठा और बोला, “वेतन का रुपया? अब तक कितने रुपये लिये हैं बता तो बिहारी?”

बिहारी बोला, “जैसे लिया, वैसे ही लड़कों के लिए गाँव पर तीन बीघे ज़मीन, एक जोड़ी बैल खरीद दिये हैं। इसके सिवा एक नया घर भी बनवा दिया है। यह क्या मेरे वेतन से? मेरा रुपया आपके पास ही जमा है – आज उसी में से दीजिये।”

सतीश हँस पड़ा, बोला, “लड़कों के लिए खरीदकर तुमने मेरा भारी उपकार किया है! आज मेरे पास रुपया नहीं है।” यह कहकर चादर कन्धे पर रखकर वह स्टेशन के लिए रवाना हो गया।

बिहारी ने अपनी कोठरी में आकर कहा, “बेटी, संध्या-पूजा करके अब ज़रा पानी पी लो। कल सबेरे जिस तरह भी मुझसे हो सकेगा, मैं दूँगा।”

सावित्री कोठरी के फ़र्श पर आँचल बिछाकर सोई हुई थी। वह उठकर बैठ गयी पूछा, “बाबू ने नहीं दिये?”

बिहारी ने कहा, “जानती तो हो बेटी, दूसरे के दुःख का नाम लेकर जब कि मैंने माँगा है, तब पाऊँगा ही। मेरे मालिक दानी कर्ण हैं। इस समय न देकर स्टेशन चले गये, लेकिन कल सबेरे जब लौट आयेंगे, तब मुझे बुलाकर देंगे। तुमको कोई चिन्ता नहीं है बेटी, अब उठकर ज़रा पानी-वानी पी लो, सारा दिन वैसी ही पड़ी हो।”

सावित्री के सूखे पीले चेहरे पर हँसी फूट पड़ी। उसने कहा, “अच्छा ही हुआ आज रात को अब लौटेंगे नहीं। तब तो कल दोपहर की गाड़ी से ही काशी चली जा सकूँगी, क्या कहते हो बिहारी?”

बिहारी ने कहा, “अवश्य ही बेटी।” फिर लम्बी साँस लेकर कहा, “मेरे मालिक भी मालिक हैं, तुम्हारे मालिक भी मालिक हैं। गाँव से बुढ़िया ने दुःख की बातें बताकर एक पत्र भेजा था – बाबू से पढ़वाने गया, पढ़कर वह बोले, ‘तेरे घर में क्या कुछ भी नहीं है रे?” मैंने कहा, ‘ग़रीब-दुखियों के पास और रहता ही क्या है बाबू!’ फिर उन्होंने कोई बात नहीं कही। चार दिनों के बाद छः सौ रुपये हाथ में देकर मुझे गाँव भेज दिया, ‘जगह-ज़मीन मैंने खरीद डाली – गाय बछड़े खरीदे, घर-द्वार बनवाया – लड़कों के हाथ में देकर महीने के अन्दर मालिक के पैरों के पास लौट आया। बुढ़िया ने रोकर कहा, ‘मुझे अपने साथ ले चलो, एक बार दर्शन तो कर आऊँ।’ मैंने कहा, ‘नहीं रे अब और ऋण मत बढ़ा। तेरे जाते ही दो-एक सौ रुपये तेरे हाथ में दे देंगे। और एक तुम्हारे मालिक हैं! बीमार पड़ जाने से पाँच-सात रुपये की दवा खर्च हो गयी है इसीलिए उन्होंने तुमसे बेधड़क कह दिया उधार का रुपया चुकता करके ही जाना! नौकरी करते समय तुम कितना दुःख पा रही थी बेटी, और हम लोग कुछ भी न जानकर विपिन बाबू के नाम पर तुम्हारी कितनी निन्दा करते रहे। क्षमा करो बेटी, नहीं तो मेरी जीभ गल जायेगी।’

विपिन का नाम सुनकर सावित्री घृणा से रोमांचित हो गयी और स्पष्ट शब्दों में छिः! छिः कर उठी। लेकिन उसी क्षण उसे दबाकर हँसकर बोली, “स्नान करूँगी बिहारी, एक कपड़ा दे सकोगे?”

“कपड़ा?” बिहारी ने उदास होकर कहा, “तुम्हारे आशीर्वाद से एक क्यों, पाँच दे सकता हूँ। कोई दुःख ही नहीं बेटी! लेकिन शूद्र का पहना हुआ कपड़ा कैसे तुमको दे सकूँगा बेटी! वरन चलो, बाबू का एक धुला कपड़ा ही निकाल कर तुमको दे दूँ।”

बिहारी देवद्विजों पर अत्यन्त भक्तिभाव रखता था। अतएव प्रतिवाद निष्फल समझकर सहमत होकर उसका अनुसरण करके कमरे से बाहर चली गयी।

स्नान करके सावित्री सतीश का धुला हुआ देशी कपड़ा पहिनकर मन ही मन हँस पड़ी। उसके ही कमरे में, उसकी ही आचमनी अर्घी से संध्या-पूजा बिहारी द्वारा यत्नपूर्वक संग्रह की हुई विलायती चीनी से बनी परम पवित्र मिठाई सारे दिन के अनाहार के बाद खाकर उसने आराम अनुभव किया।

पान-सुत्री खाने की उसकी बुरी आदत थी। दुकान का तैयार पान वह खाती नहीं थी यह जानकर बिहारी इसके बीच ही पान-सुपारी आदि जुटाकर ले आया था। उनको एक तश्तरी में लाकर रखते ही सावित्री ने हँसकर कहा, “बिहारी, देखती हूँ मुझे ज़रा भी तुम भूले नहीं हो।”

बिहारी ने उत्तर दिया, “आखिर मैं भी तो मनुष्य ही हूँ। बेटी, तुमको एक बार देखने से पशु-पक्षी तो भूल नहीं सकते।” यह कहकर टेबिल पर से बत्ती लाकर दरवाज़े के सामने उसने रख दी, और थाली उसके पास रखकर पान लगाने को कहकर रसोईये से सूखी खैनी माँग लाने के लिए रसोईघर की तरफ़ चला गया।

मिट्टी के तेल के उज्ज्वल प्रकाश को सामने रखकर फ़र्श पर सावित्री पान लगाने बैठी। माथे पर कपड़ा नहीं, भीगी केशराशि समूची पीठ के ऊपर से नीचे फ़र्श पर बिखरी पड़ी थी। दो-एक लटें आँचल की काली किनारी के साथ मिलकर कन्धे से गोद पर झूल रही थीं। नारी के रोगक्लिष्ट शीर्ण-पीले चेहरे पर जो स्वाभाविक और गुप्त माधुर्य रहता है, वह कृशांगी के सद्यःस्नात मुखमण्डल पर शोभित हो रहा था। वह कुछ अन्यमनस्क और चिन्तामग्न थी। सहसा दूर से जूते की आवाज़ निकट आने लगी, तो भी वह उसके कानों में नहीं पहुँची। जब उसने सुनी तब उपेन्द्र और सतीश बिल्कुल दरवाजे़ पर आ खड़े हुए और क्षण-मात्र के असतर्क अवसर पर बंग रमणी के जन्म जन्मार्जित अन्ध-संस्कार ने उसको लज्जा से अभिभूत कर दिया और दूसरे ही क्षण उसने दोनों हाथ बढ़ाकर अपने लाल चेहरे पर छाती तक लम्बा घूँघट खींच लिया।

सतीश हतबुद्धि की तरह बोल उठा, “सावित्री! तुम!”

सुरबाला अभी बत्ती के प्रकाश में बिहारी और दिवाकर के साथ ऊपर चढ़ रही थी।

उपेन्द्र ने घूमकर कहा, “बस, अब मत आओ सुरबाला, वहीं खड़ी रहो।”

सुरबाला ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “क्यों?”

उपेन्द्र ने इस प्रश्न का उत्तर न देकर कहा, “दिवाकर, अपनी भाभी को गाड़ी पर वापस ले जा। सतीश, मैं भी जाता हूँ।” यह कहकर वह धीरे-धीरे चल दिये।

इक्कीस

उपेन्द्र की पदध्वनि क्षीण से क्षीणतर होकर सीढ़ियों पर लुप्त हो गयी। थके हुए, निराहार, सपत्नीक – यह अँधेरी रात – तथापि, ज़रा-सा सन्देह पैदा हो जाने से बिन्दुमात्र प्रमाण के लिए वे ठहर न सके। सतीश के कमरे में बैठी हुई जिस युवती ने घोर लज्जा से, भय से इस प्राकर मुँह ढक लिया था, उसके सम्बन्ध में एक प्रश्न तक भी करने की आवश्यकता उन्होंने नहीं समझी। घृणा के मारे वही जो विमुख हो गये, फिर मुँह घुमाकर उन्होंने नहीं देखा।

लेकिन यह कैसी घटना हो गयी। क्षणभर के बाद ही अवस्था पूर्णरूप से समझकर सावित्री सिहर उठी। हजारों पुरुषों की दृष्टि के सम्मुख भी अब उसको लज्जा करने का अधिकार न था लेकिन अनजान में वह यह कैसी भूल कर बैठी! उसको ऐसा ज्ञात होने लगा, मानो उसकी लज्जा के इस छोटे से अवगुण्ठन ने पलभर में दिगन्त विस्तृत होकर कुत्सित लज्जा से उसे पदनख से लेकर सिर के बालों तक कसकर जकड़ दिया। इस थोड़ी-सी लज्जा को बचाने में लज्जा का पहाड़ उसके माथे पर टूट पड़ेगा, क्षणभर पहले यह बात किसने सोची थी!

साँस रुक जाने की नौबत आ जाने से जैसे मनुष्य जी-जान से मुँह बाहर निकालने की चेष्टा करता है, सावित्री ठीक उसी प्रकार घूँघट ज़ोर से हटाकर सीधी होकर बैठ गयी। उसने प्रश्न किया, “वे कौन हैं?”

सतीश अभिभूत की भाँति द्वार के निकट खड़ा था। अभिभूत की ही भाँति उसने उत्तर दिया, “उपेन भैया और भाभी।”

“ऐं, वही उपेन भैया? वही बहूजी?” सावित्री तीर की भाँति उठ खड़ी हुई, चिल्लाकर बोली, “तब तो हटो, लौटा लाऊँ। छिः! छिः! मैं तो कोई नहीं हूँ – डेरे की एक साधारण दासी मात्र हूँ। हटो-हटो – ”

उपेन कौन हैं, सावित्री यह बात अच्छी तरह जानती थी। सतीश की बातों से अनेक बार उनका बहुत कुछ परिचय वह पा चुकी थी।

इतनी देर में सतीश की नींद मानो टूट गयी। इस चीख़-चिल्लाहट, इस घबराहट-भरे भय के भाव ने उसकी समस्त विह्नलता को क्षणभर में दूर करके बिल्कुल ही जागरूक बना डाला। इस बार उसने सीधे खड़े होकर दोनों हाथ फैला दरवाज़ा रोककर कहा, “नहीं।”

सावित्री हाथ जोड़कर बोली, “नहीं क्या जी? सत्यनाश मत करो सतीश बाबू, रास्ता छोड़ो। मेरा सच्चा परिचय उन लोगों को जान लेने दो।”

सतीश ने रास्ता नहीं छोड़ा। लेकिन उसके दृढ़ निबद्ध होंठों पर सर्प-जिह्ना की भाँति दो भागों में विभक्त जहरीली हँसी का अति सूक्ष्म आभास ही दिखायी पड़ा? शायद दिखायी पड़ा। उसने कहा, “ओह! तुम्हारा सत्यानाश! नहीं, इस सम्बन्ध में तुम निश्चित रहो। लेकिन तुम्हारा सच्चा परिचय क्या है, मैं स्वयं तो पहले सुन लूँ?”

सावित्री एकाएक उत्तर न दे सकी, केवल ताकती रही। ऐसी ही निरुत्तर दृष्टि सतीश ने पहले भी देखी थी, लेकिन यह तो वह नहीं है। इस दृष्टि में इतने बड़े आघात से भी आज आग क्यों नहीं जल गयी? यह कैसी आश्चर्य-स्निग्ध करुण आँखें थीं! ये क्या उसी सावित्री की हैं?”

पलभर बाद वह धीरे-धीरे बोली, “मेरा परिचय? वही तो बता दिया – घर की दासी। दया कीजिये, सतीश बाबू, मैं उन लोगों को लौटा लाऊँ। इस अन्धकार, अनजान शहर में वे लोग क्या राह-घाट में घूमते फिरेंगे? यह क्या अच्छा होगा?”

सतीश ने तिलभर विचलित न होकर उत्तर दिया, “उनको अपने भले-बुरे को समझने का भार उनके ही ऊपर रहने दो। लेकिन राह-घाट में घूमना भी बहुत अच्छा है – लेकिन, मैं किसी तरह भी भाभी को अब इस घर में पैर न धरने दूँगा।”

“क्यों न धरने दोगे? मैंने इस घर में पैर रखा है इसलिए? सतीश बाबू, पृथ्वी माता क्या मेरे स्पर्श से अपवित्र हो जाती है?”

सतीश ने पलभर चुप रहकर प्रश्न किया, “तुम इस घर में घुस क्यों आयी?”

सावित्री मुँह ऊपर उठाकर देख न सकी। भूमि की ओर देखकर अश्रुपूरित स्वर में बोली, “आप मेरे पुराने मालिक हैं। इसीलिए असमय में कुछ भीख माँगने आयी थी।”

सतीश व्यंग्य की हँसी हँसकर बोला, “असमय में भीख माँगने! लेकिन मालिक तो तुम्हारे एक नहीं है सावित्री। इतने दिनों में एक-एक करके सभी मालिकों के घरों में तुम घूम आयी हो शायद!”

सतीश का निष्ठुरतम आघात उसके हृदय के भीतरी भाग को टुकड़े-टुकड़े कर काटने लगा, लेकिन उसने फिर मुँह ऊपर नहीं उठाया। कोई बात भी नहीं कही।

सतीश ने फिर कहा, “विपिन बाबू ने तुमको क्यों निकाल बाहर किया? शायद उनका शौक मिट गया?”

सावित्री उसी तरह चुप रही।

एकाएक सतीश को बिहारी का निवेदन याद पड़ गया। उसने पूछा, “क्या भीख माँगती हो! तीस रुपये न?”

सावित्री ने सिर झुकाये ही उसे हिलाकर अपनी सहमति दी, मुँह से कुछ बोली नहीं।

“अच्छा!” कहकर सतीश दराज के पास जा खड़ा हुआ, और पलभर में कमरे के चारों तरफ़ दृष्टि निक्षेप करके रुक गया।

इस घर की नयी सजावट ने कुछ क्षण पहले उसको इतना आनन्द दिया था, अब वही मानो उसको काटने दौड़ी। पास ही वह जो शय्या है, वह भी तो इसी स्त्री की हाथ की रचना है। स्टेशन जाने के पहले इसी पर लेटकर पलभर के लिए वह विश्राम कर गया था, इसे याद करके उसका सर्वांग संकुचित हो गया। आँखें घुमाकर झटपट दराज खोलकर कई नोट निकालकर सावित्री के पैरों के पास फेंककर बोला, “जाओ, लेकर विदा हो जाओ – फिर कभी मत आना।”

सावित्री सिर्फ़ तीन नोट गिनकर उठ खड़ी हुई, इतनी देर तक सतीश चुपचाप देख रहा था। सावित्री के खड़े होते ही उसको कोई बात कहने को उद्यत होने पर भी उसका गला रुँध गया।

एकाएक प्रबल चेष्टा से अपने आपको मुक्त करके उसने पुकारा, “सावित्री!”

“जो आज्ञा!”

“कहानियों में मैं सुना करता था – फलाँ मनुष्य फलाँ को घृणा कर सकता है। मुझे विश्वास नहीं होता था। कभी सोचकर मैं समझ नहीं सका, मनुष्य कैसे किसी मनुष्य को घृणा कर सकता है। पर आज देखता हूँ, कर सकता है, मनुष्य मनुष्य को घृणा कर सकता है। सावित्री, मैं शपथ खाकर कहता हूँ, मैं मृत्यु से बचने के लिए भी तुमको स्पर्श नहीं कर सकता।”

सावित्री चुप रही।

“अच्छा सावित्री, संसार में तुम लोगों के लिए रुपये से बड़ी वस्तु और कुछ भी नहीं है – नहीं तो वे तीनों नोट किसी तरह भी हाथ से न उठा सकतीं। आज मेरे पास जो कुछ भी है, तुमको सब ही दे दूँगा, एक बात मुझे सचमुच बताकर जाओ।”

“पूछिये।”

“पूछ रहा हूँ।” कहकर सतीश पलभर चुप रहकर बोला, “पूछने से लज्जा मालूम होती है, तो भी जान लेने की इच्छा होती है। सावित्री, कभी किसी दिन क्या किसी को तुमने प्यार नहीं किया?”

सावित्री केवल पलभर मौन रहकर मृदु लेकिन सुस्पष्ट कण्ठ से बोली, “मेरी बात जान लेने से आपको क्या मिलेगा?”

सतीश को इस बात का उत्तर खोजने पर नहीं मिला।

सावित्री दरवाज़े की ओर अग्रसर होकर बोली, “संसार में बहुत-सी बातें हैं जिन्हें आप नहीं जानते, फिर भी तो, दिन बीत ही जाते हैं, यह बात न जानने से भी आपको हानि न होगी!”

“शायद नहीं होगी।” कहकर सतीश ने लम्बी साँस ली। लेकिन वह सावित्री के कानों तक पहुँच ही गयी। वह ज्योंही मुँह फेरकर खड़ी हुई त्योंही उसके रोग से पीले पड़े दुबले चेहरे पर सतीश की दृष्टि पड़ गयी। चौंककर उसने पूछा, “तुम बीमार हो क्या सावित्री?”

सावित्री ने पलभर में आँखें झुकाकर कहा, “नहीं।”

“बहुत ही दुबली देख रहा हूँ।”

“कुछ भी नहीं है।” सावित्री उत्तर न देकर दरवाज़े के बाहर जा पहुँची। कमरे के भीतर से रुँधे कण्ठ से एक आवाज़ आयी, “सावित्री, तुमने सचमुच ही क्या एक दिन के लिए भी मुझे प्यार नहीं किया?”

सावित्री चौखट पर टिककर खड़ी हो गयी, फिर उसने मुँह नहीं घुमाया।

अन्दर का सजल कण्ठ इस बार रुलाई से टूट गया। वह बोला, “सावित्री एक ही बार बताती जाओ, इतने दिनों तक क्या मैं नींद के ही नशे में इस दुःख के बोझ को ढोता रहा हूँ? मेरे भाग्य में क्या सब ही भूल है, सब ही मिथ्या है? यह असीम दुःख भी क्या मेरे भाग्य में आदि से अन्त तक केवल धोखाधड़ी है?”

सावित्री क्षणभर सोचती रही। फिर खड़ी हो गयी। बोली, “बाबू मैं विवश होकर ही बिहारी से रुपया उधार माँगने आयी थी, मगर सच कहती हूँ आपसे, ऐसे झंझट में पड़ जाऊँगी, जानती तो मैं आती ही नहीं।”

सतीश अवाक् हो रहा। यह कण्ठ-स्वर शान्त और मृदु था, लेकिन इसमें कोमलता का लेशमात्र भी नहीं था। क्षणभर पहले उसने ऐसे स्वर से उससे भीख नहीं माँगी थी।

उसने फिर कहा, “आपने शपथ करके कहा, मुझे घृणा करते हैं, आपकी खुशी होगी तो प्यार भी कर सकते हैं, क्रोध होने से घृणा भी कर सकते हैं – आप लोग यही करते भी हैं। लेकिन हमारे तो हाथ-पैर बँधे हुए हैं। इस मार्ग में जबकि कदम रख चुकी हूँ तब सुमार्ग-कुमार्ग जो भी हो, इसको पकड़कर न चलने से उपाय भी नहीं है।”

सतीश विह्नल विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर टकटकी बाँधे देखता रहा।

सावित्री इस दृश्य को सह नहीं सकी, दूसरी ओर मुँह घुमाकर वह ज़रा रुक गयी। उसकी अपनी बात अपनी ही छाती में बाण मार रही थी, तथापि मरणाहत सैनिक की भाँति अन्तिम बार के लिए सतीश पर खड़ग प्रहार किया। कहा, “आपने पूछा था, किसी दिन आपको मैंने प्यार किया था या नहीं? नहीं, प्यार नहीं किया। वह सब ही थी मेरी छलना। किसको प्यार करती हूँ वह ख़बर तो आप जान गये है।”

सुनकर सतीश को ज्ञात हुआ मानो उसकी गृह-प्रतिमा को नदी के जल में डुबाकर, रौंद-पीसकर, घासफूस का पिण्ड-सा बनाकर कोई उसी की आँखों पर फेंक रहा हो। उसने

आँखें घुमाकर कहा, “चली जाओ मरे सामने से।”

सावित्री चौखट पर सिर टेककर प्रणाम करके चुपचाप चली गयी। सतीश ने उधर देखा तक नहीं, केवल अति मृदु एक पदचाप उसको सुनायी पड़ा।

नीचे बिहारी के कमरे में टिमटिमाता हुआ चिराग़ जल रहा था। उसी कमरे में अधमुंदी आँखों से लुढ़कते-लुढ़कते प्रवेश करके सावित्री ने दोनों हाथ बढ़ाकर मानो किसी एक वस्तु को पकड़ना चाहा, और दूसरे ही क्षण पृथ्वी पर मुँह के बल मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। बिहारी उपेन्द्र आदि को ज्योतिष साहब के मकान की तरफ़ कुछ देर तक रास्ते में आगे तक पहुँचाकर पाँच मिनट पहले लौट आया था और अँधेरे में छिपकर सावित्री की अन्तिम बातें सुन रहा था। आज सारा दिन लगातार उसके साथ कितनी ही बातें की थीं, निष्ठुर गृहस्थ के घर में काम करने जाकर उसे जितना कष्ट उठाना पड़ा था, बीमार हो जाने पर कितनी पीड़ा सहनी पड़ी थी, सुनते-सुनते बिहारी रो पड़ा था। फिर भी अभी बाबू के सामने किसलिए सावित्री आदि से अन्त तक झूठी बात कह गयी, इसका कोई भी अर्थ बूढ़े की समझ में नहीं आया। सावित्री के उतर जाने पर भी वह अँधेरे में बाबू की दृष्टि से बचकर नीचे उतर आया। नीचे उसको न देख पाने पर रास्ते पर दौड़ गया। इधर-उधर कहीं भी न पाकर फिर मकान में घुसकर झटपट वह अपने कमरे में ढूँढने लगा तो ठिठककर खड़ा हो गया। उसके बाद सावधानी से उसकी ओर जाकर बत्ती को तेज़ करके उसने पुकारा, “इस तरह जमीन पर क्यों पड़ी हो बेटी?” आहट मिलने पर स्नेहपूर्ण कण्ठ से बोला,

“तबीयत ठीक नहीं है, ठण्डक में बीमारी पकड़ेगी बेटी! उठो, मैं चटाई बिछाये देता हूँ।”

सावित्री निर्वाक स्थिर रही।

बिहारी आश्चर्य में पड़ गया। अच्छी तरह दिखायी नहीं पड़ रहा था, चिराग मुँह के सामने लाकर ज़रा झुककर देखते ही बूढ़ा चिल्ला उठा, “बेटी, तुमने यह क्या कर डाला, बेटी!”

सावित्री की आँखें बन्द थीं, समूचा चेहरा पीला हो गया था। बड़े चीत्कार से भी उसने उत्तर नहीं दिया – उसी तरह मृतवत् पड़ी रही। ऊपर के कमरे में सतीश उसी तरह मूर्तिवत बैठा हुआ था। बिहारी के रोने की आवाज़ से चौंक उठा।

सतीश बिहारी के कमरे में पहुँचा और सावित्री के सिर के पास घुटने टेक कर बैठ गया। बत्ती लेकर उसके मुँह की ओर देखते ही वह समझ गया कि वह मूर्च्छित हो गयी है। उसने कहा, “चिल्ला मत बिहारी, उसके मुँह पर पानी छिड़क। रसोइये को कह दे, एक पंखा लेकर हवा करे।” साहस पाकर बिहारी ज़ोरों से पानी के छींटें देने लगा, और हिन्दुस्तानी रसोइया जी-जान से पंखा झलने लगा।

थोड़ी देर बाद सावित्री ने लम्बी साँस ली और दूसरे ही क्षण आँखें खोलकर माथे का कपड़ा खींचकर उठ बैठी।

सतीश ने कहा, “महाराज, गरम-गरम थोड़ा-सा दूध ले आओ, कुछ अधिक ही लाना, भींगा कपड़ा जल्दी ही छोड़ देने को कह दे बिहारी।”

महाराज दूध लाने चला गया। मृदु स्वर में बिहारी ने शायद यही कहा।

कुछ देर बाद चुप खड़े सतीश ने फिर कहा, “आराम मालूम होने पर वह कहाँ जायेगी, पूछकर एक गाड़ी ठीक कर देना बिहारी, इस दशा में पैदल न जाने पाये।”

सावित्री का समूचा अंग काँप उठा, लेकिन क्षीण प्रकाश में किसी ने इसे लक्ष्य नहीं किया। वह अपने को सम्भालकर निश्चल हो रही।

सतीश और भी एक मिनट स्थिर रहकर बोला, “और यदि इसको आराम न मालूम हो, तो फिर – मेरे ही कमरे में सो रहने को कह देना, मैं किसी दूसरी जगह जाता हूँ।” सावित्री सिहर उठी, मानो वह किसी तरह भी अब अपने को सम्भाल रखने में असमर्थ हो गयी।

सतीश ने एक छोटी-सी चाभी बिहारी के आगे फेंककर कहा, “और देखो, दराज़ की चाभी तेरे पास ही रही, जितने रुपयों की आवश्यकता हो, जाते समय लेती जाये।” रोगी शरीर के साथ – सतीश की बातों ने विष और अमृत मिलाकर सावित्री के गले तक को फेनमय बना डाला।

सतीश ने कहा, “मैं पाथुरियाघाट जा रहा हूँ बिहारी, कल लौटने में शायद कुछ दिन चढ़ जायेगा।” एक कदम आगे बढ़कर बोला, “सावित्री, कोई संकोच मत करना, जो ज़रूरत पड़े, ले जाना मैं जा रहा हूँ।”

सतीश चला गया।

सावित्री फिर एक बार ज़मीन पर गिर पड़ी। छाती फाड़ डालने वाले कण्ठ से रोकर बोली, “अजी, क्यों तुमने उस पापिष्ठा को इतना प्यार किया था? यही जो तुमने शपथ कर ली कि मुझे घृणा करते हो, यही क्या घृणा करना है? तुमको मेरा यह दुःख देना, इतना झूठ बोलना, सब ही तुम्हारे स्नेह की आग में जलकर क्या राख हो गया? कौन मुझे बता देगा कि क्या करने से तुम्हारी घृणा पाऊँगी?”

बिहारी इस रुलाई का ज़रा भी अर्थ न समझ सका। निकट आकर सान्त्वना के स्वर में बोला, “अच्छा बेटी, बाबू के सामने इतनी झूठ बातें तुमने क्यों कहीं? जहाँ तुम गयी नहीं, जो अपराध तुमने किया नहीं, किसलिए उन सबको अपने कन्धे पर लेकर इतनी अपराधिनी बन गयी।

सावित्री ने रोते-रोते कहा, “बिहारी, मेरी सभी बातें झूठी हैं। कहने में छाती फट गयी है तो भी कहनी पड़ी हैं। लेकिन वे किसी काम में तो नहीं आयी।”

बिहारी मूढ़ की तरह उसके मुँह की ओर निहारता हुआ बोला, “झूठी बातें फिर किस काम में आती हैं बेटी?”

सावित्री ने बैठकर आँखें पोंछ डालीं। उसके मुँह की ओर देखकर बोली, “ठीक जानते हो बिहारी, क्या वे किसी काम में ही नहीं आतीं?”

बिहारी ने क्षणभर सोचकर कहा, “वे आती तो हैं ज़रूर। अदालत में झूठी बातों से ही तो काम बन जाता है – वहाँ झूठी बातों का ही तो जय-जयकार है।”

सावित्री ने फिर उत्तर नहीं दिया। बड़ी देर तक स्थिर भाव से बैठी रहकर बोली, “क्यों मैंने इतनी झूठी बातें कहीं? हो सकता है एक दिन तुम समझ सकोगे। लेकिन उस बात को छोड़ो बिहारी, मेरी दो बातें मानोगे?”

“मानूँगा तो अवश्य ही बेटी! क्या बात है?”

“एक बात यह है कि मेरे चले जाने पर भी किसी दिन बाबू को मत बताना कि मैंने आदि से अन्त तक झूठी बातें कही थीं।”

बिहारी चुप हो रहा। सावित्री ने कहा, “और भी एक बात है, मैं अपना पता-ठिकाना तुमको लिख भेजूँगी। यदि कभी समझो कि मेरा आना आवश्यक है तो मुझे लिख देना। तुमको बताने में मुझे लज्जा नहीं है बिहारी, मेरे सिवा उनको कोई नियंत्रण में न रख सकेगा और विपत्ति के दिनों में उनकी कोई मुझसे अधिक सेवा भी न कर सकेगा।”

बिहारी रोने लगा। आँखें पोंछकर बोला, “मैं सब जानता हूँ बेटी।”

सावित्री उठ खड़ी हुई। बोली, “तो मैं जा रही हूँ। उनको तुम्हारे हाथों में सौंपकर जा रही हूँ। देखो बिहारी, मेरी दो बातें मान लेना। भगवान करे, तुम लोग सुखी रहो, मुझे यह अपना काला मुँह लेकर फिर तुम लोगों के सामने न आना पड़े।” यह कहकर सावित्री आँखें पोंछकर आगे बढ़ गयी।

सड़क पर आकर गाड़ी किराये पर ठीक करके सावित्री को चढ़ाकर बिहारी ने पृथ्वी पर माथा टेककर प्रणाम किया। आँखें पोंछकर गला साफ़ करके बोला, “बेटी, मेरी भी एक प्रार्थना है। आज जैसे लड़के की तरह अपना समझकर तुमने प्यार किया था, आवश्यकता पड़ने पर फिर याद करना।”

“अवश्य करूँगी।”

गाड़ी चली गयी। बिहारी फिर एक बार रास्ते पर माथा टेककर प्रणाम करके धोती से आँखें पोंछकर डेरे पर लौट आया।

बाईस

“पाथुरियाघाट जा रहा हूँ” – कहकर सतीश रात के ग्यारह बजे डेरे के बाहर आ खड़ा हुआ। थोड़ा-सा मार्ग तय करते ही समझ गया कि थकावट की कोई हद नहीं है। पैर अचल हैं, प्रत्येक अंग पत्थर की तरह भारी है। कितना बड़ा गम्भीर अवसाद उसके तन-मन में आज व्याप्त हो रहा है।

कुछ दिन पूर्व की ऐसी ही एक रात की बात उसे स्मरण आ गयी जब बिहारी ने सावित्री और मोक्षदा के घर से वापस लौटकर कहा था, “वह नहीं है, विपिन बाबू के पास चली गयी है।” उस दिन उस समाचार ने कुछ क्षण के लिए उसको विमूढ़ कर दिया था, लेकिन दूसरे ही क्षण अभिमान तथा अपमान की जो भयंकर ज्वाला प्रज्वलित हो उठी थी वह किले के निर्जन मैदान मे स्तब्ध आकाश के नीचे आँखों के आँसू से बुझ न जाती तो जितने ही दिनों में क्यों न हो सावित्री को बिना दग्ध किये शान्त न होती। वैसी ही रात तो आज भी आयी थी, फिर वैसी ही भयंकर ज्वाला क्यों नहीं भड़क उठी?

एक खाली गाड़ी जा रही थी, बुलाकर बोला, “पाथुरियाघाट चलेगा?”

गाड़ीवान ने गाड़ी रोककर मार्ग के प्रकाश में सतीश की ओर देखते ही सोचकर कि कोई शराबी मतवाला है, उसने कहा, “वह तो बहुत दूर है, तीन रुपया लगेगा बाबू। रुपये हैं न?”

“हाँ हैं!” कहकर सतीश चढ़ बैठा, और गाड़ी के एक कोने में सिर टेककर आँखें मूँद लीं। थकावट ने उसको इस तरह घेर लिया था कि इससे अधिक बातें कहने की शक्ति उसमें नहीं थीं।

बहुत देर बाद बहुत-सी गलियों में घूमकर गाड़ीवान ने विरक्त होकर पूछा, “किस जगह जाइयेगा बाबू, ठीक तौर से बता दें। मैं व्यर्थ ही नहीं घूम सकता।” सतीश ने अपने डेरे का पता बता दिया। कुछ देर बाद गाड़ी आकर दरवाज़े पर पहुँच गयी। कई बार पुकारने पर बिहारी ने आकर किवाड़ खोल दिया तो सतीश ने चुपके से पूछा, “बिहारी, सावित्री क्या कमरे में है?”

बिहारी ने विह्नल की भाँति निहारते हुए कहा, “नहीं बाबू, वह तो नहीं है। वह उसी समय चली गयी।”

“चली गयी?”

“हाँ बाबू! वह नहीं है।”

सतीश लम्बी साँस छोड़कर बिहारी के बिछौने के छोर पर बैठ गया। उसका यहाँ न रहना सुख की बात है या दुख की, इसकी ठीक उपलब्धि वह नहीं कर सका।

बिहारी ने पल भर रुककर मीठे स्वर में कहा, “मैंने गाड़ी ठीक कर दी थी। चलिये, आपके कमरे में बत्ती जला आऊँ।”

“नहीं रहने दो, मैं ही जला लूँगा।” कहकर सतीश उठकर चला गया।

दूसरे दिन प्रातःकाल जब उसकी कच्ची नींद टूटी, तब दिन काफ़ी चढ़ आया था।

एक प्रचण्ड आँधी की भाँति सब कुछ उलट-पुलटकर इस एक रात में कितनी ही घटनाएँ हो गयी हैं। उन्हीं इधर-उधर फेंके हुए बिखरे हुए चिद्दों के बीच में बड़ी देर तक उसका मन विरक्त रहा। बिहारी तम्बाकू देकर बाहर चला जा रहा था। सतीश ने पुकारकर कहा, “सुनो बिहारी, कल किस समय तक वह यहाँ आयी थी रे?”

सावित्री के चले जाने के बाद उसके सब तरह के दुर्भाग्य याद करके बिहारी का व्यथित मन भीतर-ही-भीतर बहुत रो रहा था। उसने मुँह झुकाये ही मृदु स्वर से कहा, “दोपहर को।”

“उसको किस तरह इस मकान का पता लगा?”

“यह तो मैं नहीं जानता बाबू।”

सतीश उसके मुँह की ओर कठोर दृष्टि से देखकर बोला, “क्यों रे बिहारी, तू क्या सचमुच ही मुझे इतना बड़ा बैल पा गया है कि यह भी मैं नहीं समझ सकता? सच्ची बात बता?”

बिहारी आश्चर्य से दोनों आँखें फाड़ स्वामी के मुँह की ओर देखता रहा।

सतीश ने कहा, “देख क्या रहा है? क्या तू विपिन के यहाँ नहीं जाता? सावित्री के साथ तेरी भेंट-मुलाकात, बातचीत नहीं होती?”

“नहीं बाबू!” कहकर बिहारी के बाहर चले जाने को तैयार होते ही सतीश क्रुद्ध कण्ठ से बोला, “खड़ा रह, जाना मत। क्या तूने उसको यहाँ आने के लिए सिखाया नहीं था?”

बिहारी ने चुपचाप सिर हिलाकर बताया कि वह नहीं जानता।

सतीश धमकाकर बोला, “फिर नहीं!”

बिहारी सिर झुकाए ही था, चौंककर उसने मुँह ऊपर उठाकर देखा:

सतीश कहने लगा, “फिर नहीं? तो फिर किस तरह उस हरामजादी को इस डेरे का पता लगा? जा, तू भी उसी के पास जाकर रह, मुझे आवश्यकता नहीं है। मैं घर में शत्रु का पालन नहीं कर सकता? आज ही तुम जाओ – तुमको मैंने जवाब दे दिया।”

बिहारी ने एक बात भी नहीं कहीं। केवल उसके आश्चर्य से भरी दोनों आँखों के कोने से आँसुओं की लड़ी लुढ़क पड़ी।

इस आँसू को सतीश ने देखा। क्षण भर मौन रहकर उसने प्रश्न किया, “रात को वह कहाँ चली गयी?”

बिहारी आँखें पोंछकर बोला, “चिट्ठी लिखकर अपना पता-ठिकाना बताने को कह गयी है।”

सतीश फिर क्षण भर चुप रहकर कोमल होकर बोला, “बहुत दुबली दिखायी पड़ी। बहुत बीमार थी शायद?”

बिहारी सिर हिलाकर बोला, “हाँ।”

“इसीलिए तो वहाँ जगह नहीं मिली?”

बिहारी ने फिर सिर हिलाकर सम्मति प्रकट की।

सतीश फिर कुछ क्षण चुप रहकर बोला, “लेकिन, इस बार तुमको मैं सावधान कर देता हूँ बिहारी, मेरे डेरे में वह फिर न घुसने पाये। या किसी प्रकार बहाना बनाकर मेरे साथ भेंट करने की चेष्टा न करे। मेरी चाभी कहाँ है? जाते समय कितने रुपये तूने दिये?”

बिहारी चाभी निकालकर बोला, “रुपये नहीं दिये।”

“दिये नहीं? क्यों नहीं दिये? तुझे तो मैंने देने को कहा था?”

“उसने लेना नहीं चाहा।” कहकर बिहारी बाहर चला गया। सतीश ने उसको फिर पुकारकर लौटा लिया। सावित्री उपस्थित नहीं थी, बिहारी उसे प्यार करता है – इसलिए इस बिहारी को चोट पहुँचा सकने पर भी मानो कुछ क्षोभ मिट जाता है। उसके आगे आते ही सतीश ने पूछा, “उसके बाद तुम लोगों में क्या परामर्श हुआ?”

बिहारी फिर अपने को रोके न रख सका। रुद्ध कण्ठ से बोला, “बाबू, सावित्री क्या परामर्श करेगी मेरे जैसे आदमी के साथ? आपके चरणों में मैंने अपराध किये हों, तो सिर झुका देता हूँ, जो इच्छा हो दण्ड दीजिये, बूढ़े मनुष्य को इस प्रकार सताइये मत।” यह कहकर वह फूट-फूटकर रो पड़ा।

सतीश के नेत्र भी एकाएक मानो गीले हो उठे। “अच्छा, तू जा।” कहकर उसको विदा करके फिर एक बार लेट रहा और नेत्र बन्द करके तम्बाकू पीने लगा। बड़ी जलन से जलकर उसके मुँह से जो भी भाषा सावित्री के प्रति क्यों न निकली हो, किन्तु उसके उस रोग पीड़ित चेहरे की स्मृति भीतर-ही-भीतर उसको बहुत ही व्यथित कर रही थी। अब बिहारी की बातों से यद्यपि कुछ स्पष्ट नहीं हुआ फिर भी रुख से जान पड़ा मानो सचमुच ही वह और कहीं चली गयी है। कहाँ चली गयी है? दो वर्ष पहले सतीश के नवनाट्य समाज में बिल्वमंगल का अभिनय हुआ था। हठात उसे वही बात स्मरण हो आयी। उसको क्यों भूल नहीं सकता? यह कैसा आश्चर्य है! जो सावित्री दुष्टग्रह की भाँति उसको केवल लगातार पीड़ा पहुँचा रही है, जो अभी केवल कुछ ही घण्टे पूर्व अपने मुँह से स्वीकार कर गयी है, वह उसकी कोई नहीं है – दोनों का कोई सम्बन्ध ही नहीं है – जिसके विरुद्ध आज उसकी घृणा का अन्त नहीं है, तो भी उसी के लिए क्यों सम्पूर्ण मन में हाहाकार उठ रहा है? यह कैसी विचित्र बात है! ऐसा भीषण विद्वेष और इतना बड़ा आकर्षण एक ही साथ किस तरह उसके हृदय के अन्दर स्थान पा रहे हैं। हाय रे! यह यदि वह एक बार भी देख पाता, उसके एकान्त में रहने वाला हृदय ज़रा उसके नेत्रों, कानों को बन्द करके अब भी उसी एक विश्वास से अटल होकर पड़ा है – कि सावित्री केवल मेरी ही है – मुझसे बढ़कर उसके लिए संसार में और कोई नहीं है – यहाँ तक कि सावित्री के विरुद्ध उसके अपने मुँह की बातें तिल भर भी उसे इस विश्वास से विचलित न कर सकीं – तो उस दशा में सम्भवतः सतीश इस परम आश्चर्य का अर्थ समझ सकता!

तेईस

दो घण्टे बाद सतीश ने पाथुरियाघाट जाने के लिए बाहर निकलकर मन ही मन कहा – ओह कैसी मूर्खता है! जाने दो, मैं भी बच गया। मेरे सर से भी भूत उतर गया। मार्ग में चलते-चलते वह सोचने लगा, ‘लेकिन उपेन भैया को आज कैसे मुँह दिखाऊँगा?’ क्योंकि आग में हाथ डालने से क्या होता है, इसको जैसे वह निश्चित रूप से जानता था, अपने बाल्यकाल के स्नेही उपेन भैया को ठीक वैसे ही पहचानता था। उनके सामने इन सब अपराधों की क्षमा नहीं है, आजन्म स्नेह के बदले भी उपेन भैया से तनिक भी प्रश्रय पाने की आशा नहीं है, इस बात को उससे अधिक और कोई नहीं जानता था।

किरणमयी के मकान का मुख्य द्वारा खुला था। उसी स्थान पर सतीश चुपचाप खड़ा हो गया और अन्दर प्रवेश करने के पहले सभी बातों पर एक बार अच्छी तरह विचार करने लगा।

उसके ध्यान में आया कि केवल उपेन भैया ही उसके मित्र, गुरु और आदर्श हैं। उससे बढ़कर अपना कौन है? उसी उपेन भैया के पास जाकर सर उठाकर खड़े होने का अब कोई उपाय नहीं रह गया है। कल्पना से वह स्पष्ट देखने लगा, आज भेंट होने के साथ ही अत्यन्त कठोर शुद्ध आँखों की दृष्टि उनके बन्धुत्व स्नेह, प्रेम सभी को बिल्कुल ही जला डालेगी। तनिक भी क्षमा न करेगी।”

यही क्या सब कुछ है? इस मकान का द्वार भी इसके लिए सदा के लिए बन्द हो जायेगा। फिर यहाँ वह कौन मुँह लेकर प्रवेश करेगा?

लेकिन इतनी हानि, इतनी लांछना जिसके कारण हुई, इतना बड़ा सत्यानाश जो कर गयी, वह उसकी कौन थी? जो स्वयं पकड़ में नहीं आयी, लेकिन मुझे बाँध गयी। उसने स्वयं तो दुख भोग नहीं किया, लेकिन मुझे दुख के सागर में डुबा गयी। जिस बात को सत्य कहकर मैं स्वीकार नहीं कर सकता, उसे झूठ कहकर उड़ा देना सम्भव है! एक लम्बी साँस छोड़कर सतीश ने मन ही मन कहा, “सावित्री तुमने दुख दिया है, इसके लिए अब दुख नहीं है – लेकिन सच और झूठ को एक साथ मिलाकर यह कैसी विडम्बना में तुम मुझे बाँधकर रख गयी हो!”

दासी ने एकाएक आकर कहा, ‘आपको बहूजी बुला रही हैं।”

सतीश ने चौंककर प्रश्न किया, ‘उपेन्द्र आ गये हैं?”

“हाँ, कल बड़ी रात को आये हैं।”

“उनका छोटा भाई! छोटी बहूजी?”

दासी ने सिर हिलाकर कहा, “कहाँ? नहीं तो, वह अकेले ही आये हैं। आने के बाद से ही हमारे बाबू के पास बैठे हुए हैं।”

“बाबू कैसे हैं?”

दासी ने लम्बी साँस लेकर कहा, “और बाबू! समाप्त होने में देर नहीं है।”

सतीश ने एक क्षण चुप रहकर प्रश्न किया, “भाभी कहाँ है?”

“वह अभी स्नान कर रसोईघर गयी हैं।”

सतीश और कोई प्रश्न न करके धीरे-धीरे दबे पाँव सीधे रसोईघर में चला गा।

किरणमयी सम्भवतः प्रतीक्षा ही कर रही थी, सतीश के द्वार के निकट आते ही उसने उत्सुकता से पूछा, “मकान में प्रवेश न करके बाहर खड़े रहे – यह क्या बाबूजी, आँखें धँस गयी हैं, चेहरा इतना उदास है – रात को क्या नींद नहीं आयी?”

सतीश के कानों में प्रश्न के प्रवेश करते ही उसका क्रोध आग की तरह लाल होकर फिर उसी क्षण बुझकर राख बन गया। बोला, “हाँ, सारी रात जागकर उसको लेकर आमोद-प्रमोद करता रहा। सुनकर सन्तुष्ट हो गयी न? फिर यहाँ मैं न आऊँ यही न? किन्तु उस छोटे मनुष्य उपेन बाबू से कहना, मुझसे पूछते तो मैं सच्ची बात ही बता देता। संसार में उसके सिवा और भी मनुष्य हैं जो सत्य बोल सकते हैं। इसके सिवा, मेरा ऐसा कोई सम्बन्ध भी नहीं है कि डरकर मुझे असत्य बोलना पड़ता। कह दो उससे – समझ गयी न भाभी! यह कहकर वह वापस घूम पड़ा।

अचानक सतीश का यह मनोभाव देखकर, ऐसा कण्ठ-स्वर सुनकर, किरणमयी किंकत्रव्यविमूढ़-सी हो गयी। किरणमयी ने घबराकर बाहर आकर पुकारा, “जाओ मत बबुआजी, सुनो तो…।”

सतीश चिल्लाकर बोला, “क्या होगा सुनकर! सच कहता हूँ भाभी, वह इतना नीच मनुष्य है, यह मैंने भी नहीं सोचा था। जहाँ वह रहता है वहाँ मैं नहीं रहता। आज मैं समझ रहा हूँ क्यों बाबूजी ने उस दिन चिट्ठी लिखी थी। लेकिन उस नीच से जाकर कह देना मैं उसकी परवाह नहीं करता।”

किरणमयी ने व्याकुल होकर पूछा, “किससे? क्या कह रहे हो बबुआजी?”

“ठीक कह रहा हूँ भाभी, ठीक कह रहा हूँ। उससे कह देने से वह समझ जायेगा। लेकिन आज तुमसे भी कह जाता हूँ। बिना अपराध के ही अपने घर का द्वार मेरे मुँह के सामने तुमने बन्द कर दिया है। लेकिन एक दिन समझोगी, सतीश कितना ही बुरा क्यों न हो, उस पर विश्वास करके किसी ने किसी दिन धोखा नहीं खाया है। और एक बात उससे कह देना, उसकी जितनी इच्छा हो – जहाँ तक हो सके सर्वनाश का प्रयत्न करे, लेकिन मैं भी उसको अब अपना मुँह न दिखाऊँगा, वह भी मुझको…।” एकाएक सतीश दरवाज़े की ओर देखकर रुक गया, और दूसरे ही क्षण मुँह फेरकर आँधी की तरह शीघ्रता से चला गया। उसकी दृष्टि का अनुसरण करके किरणमयी की भी दोनों आँखें पत्थर की मूर्ति की भाँति स्तब्ध उपेन्द्र के मुँह पर जा पड़ीं। वह चिल्लाहट सुनकर रोगी की शैया के पास से उठकर चले आये थे और कमरे का द्वार थोड़ा-सा खोलकर खड़े सुन रहे थे।

किरणमयी को एक बार ख़्याल हुआ – बात क्या है, उपेन्द्र इसे जान लेना चाहेंगे।

लेकिन वह कुछ भी न पूछकर – चुपचाप किवाड़ बन्द करके अन्दर चले गए।

किरणमयी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। यह कैसी घटना घट गयी? सतीश अपने उपेन भैया का उसके मुँह पर कैसा अपमान कर गया, किसलिए? वह रसोईघर में वापस जाकर हाथ के कामों को मानो स्वप्नाविष्ट की तरह करने लगी, लेकिन मन में एक गम्भीर क्षुब्ध आश्चर्य सहश्रों रूप धारण करके निरन्तर चक्कर लगाने लगा। उसके घर में ही जो बहुत बड़ी विपत्ति शीघ्र ही आने वाली थी, क्षण भर के लिए वह उसे भी भूल गयी। केवल सोचने लगी, कल संध्या के बाद सतीश अपने डेरे पर वापस चला गया था, उसके बाद इसी एक ही रात में ऐसी क्या घटना घटी है जिससे वह ऐसा उन्मत्त आचरण करके चला गया!

फिर भी, उपेन्द्र ने एक बात भी जान लेने की इच्छा प्रकट नहीं की, उसको ऐसा मालूम हुआ, क्षण भर के लिए उपेन्द्र के सूखे कठोर मुख पर मानो असहनीय आश्चर्य फूट उठा, लेकिन यह सच है या केवल उसके ही मन की कल्पना है इसका भी वह निश्चय न कर सकी।

उपेन्द्र वापस चले गये और रोगी के बिछौने के एक छोर पर अपने पहले के स्थान पर जा बैठे। वह स्वभावतः ही शान्त प्रकृति के थे। एकाएक किसी पक्ष में या विपक्ष में मतामत प्रकट नहीं करते थे। लेकिन वह सहज निर्मल विचार शक्ति उनमें उस समय किसी तरह न रह सकी जब सुरबाला आदि को ज्योतिष के घर पहुँचा कर बड़ी रात को अकेले हारान के घर में आये थे। उस समय हारान का श्वास-कष्ट भयंकर रूप से बढ़ गया था। भीतर होश था या नहीं, यह भी अनुमान करना कठिन था। चारों ओर देखकर उनकी अवस्था बड़ी भीषण मालूम होती थी। फिर भी कहीं मानो ज़रा भी व्याकुलता नहीं थी। इसके पहले, उन्होंने जो दो-चार मृत्यु-शैयाएँ देखी थीं, उनका इसके साथ कितना अधिक अन्तर था। रोगी के सिरहाने उसी तरह एक तेल का दीपक अत्यन्त धीमे जल रहा था, माँ कमरे के एक कोने में चटाई बिछाकर सो रही थी – केवल किरणमयी जागती हुई बैठी थी, लेकिन उसके भी आचरण में घबराहट का कोई भी लक्षण ढूँढ़कर न पाने से उनको ऐसा ज्ञात हुआ मानो वह परम उदासीनता से पति की मृत्यु की प्रतीक्षा में बैठी हुई है। माँ का भी कैसा निर्लिप्त भाव है, अपनी बीमारी से व्याकुल हैं।

कल रात को उपेन ने जो कुछ देखा था, उससे उन्हें स्पष्ट जान पड़ा था कि केवल मृत्यु की विभीषिका ही इन दोनों स्त्रियों के भीतर है, यह बात नहीं अपितु हारान का जीवित रहना ही मानो एक बाँध की तरह बन गया और वह इस छोटे से परिवार के सुख-दुख के प्रवाह को रोककर कूड़ा-करकट से पीड़ित कर रहा है। जिस प्रकार भी हो, इस अवरोध से मुक्ति पा लेने से ही ये लोग मानो भारी संकट से बच जायेंगी।”

उपेन्द्र अभी तक किरणमयी को पहचान नहीं सके, यह सुअवसर ही उसको प्राप्त नहीं हुआ। लेकिन सतीश ने पहचान लिया था। इसीलिए पहलेपहल जिस दिन हारान के बुलाने से इन लोगों ने इस घर में प्रवेश किया था, किरणमयी का उस रात का आचरण सतीश तो भूल गया ही था, उसको अधिक, अपनी कठोरता का सहस्र अपराध स्वीकार करके, उनकी क्षमा पाकर उसने भाई का स्थान ले लिया था, लेकिन उपेन को वह सुअवसर नहीं मिला। इसीलिए कल रात्रि को कमरे में घुसकर एक ही क्षण में उनका अप्रसन्न चित्त माँ के विरुद्ध विमुखता और स्त्री के प्रति घृणा से परिपूर्ण हो गया था। इसीलिए सबेरे किरणमयी जब चाय दे गयी, तो उन्होंने उसे स्पर्श तक नहीं किया।

सतीश के आने-जाने का पता अघोरमयी को नहीं चला। उस समय वह नीचे अपने काम में लगी हुई थीं, अब धीरे-धीरे कमरे में घुसकर लड़के को देखकर रोने लगीं। किसी ने उनको सान्त्वना नहीं दी, मना भी नहीं किया। एकाएक उनकी चाय की कटोरी पर नजर पड़ जाने से रोने के सुर से उन्होंने प्रश्न किया, “क्यों बेटा, चाय नहीं पी?”

उपेन्द्र संक्षेप में बोले, “नहीं…।”

अघोरमयी अत्यन्त व्यग्र हो उठीं, “नहीं, नहीं, यह नहीं होगा बेटा, सारी रात जागते रहे हो – इस पर यदि तुम बीमार पड़ जाओगे तो मैं फिर नहीं बचूँगी उपेन।”

उपेन कुछ बोले नहीं, केवल अघोरमयी के मुँह पर तीक्ष्ण दृष्टि डालकर दूसरी ओर ताकने लगे। इसका अर्थ समझने की शक्ति अघोरमयी में नहीं थी। बार-बार जिद करने लगीं, किन्तु उस दृष्टि का अर्थ समझ गयी किरणमयी। इस कमरे में इस मृतप्राय सन्तान के निकट बैठकर दूसरे के लड़के के लिए जननी की यह व्याकुलता कितनी असंगत और अशोभनीय जान पड़ी यह उसकी तीक्ष्ण बुद्धि से छिपी नहीं रही। लेकिन यह जो कुछ भी हो, उपेन्द्र भी किसलिए इस एक तुच्छ अनुरोध के विरुद्ध इस तरह दृढ़ प्रतिज्ञा करके कड़े बनकर बैठे रहे, इसका भी कोई कारण किरणमयी न समझ सकी। उनका यह व्यवहार किरणमयी की दृष्टि में कम अशोभनीय नहीं जान पड़ा।

दोनों ओर की यह जिद डाक्टर के आ जाने से स्थगित हो गयी। अंग्रेज डाक्टर दो-तीन मिनट तक परीक्षा कर चुकने पर अपना अन्तिम उत्तर देकर चले गये और उसके साथ यह भरोसा भी दे गये कि अगली शेष रात्रि के पहले मृत्यु की सम्भावना नहीं है। उस समय दस बजे थे। किरणमयी ने तनिक निकट आकर मृदु स्वर से कहा, “आपको एक बार वहाँ जाकर उन लोगों से भेंट कर आना भी तो आवश्यक है।”

उपेन्द्र ने किसी ओर न देखकर कहा, “वैसी आवश्यकता नहीं है। वे लोग सब बातें जानते है।”

किरणमयी ने कहा, “तो भी एक बार जाइये। अभी तो कोई भय नहीं… तब तक स्नान करके ज़रा विश्राम करके लौट आ सकेंगे।”

उपेन्द्र चुप रहे। किरणमयी मृदु और दृढ़ स्वर से बोली, “ज़रा सोचकर देखिये, स्नान-भोजन न करके उपवास करके अब सामने-सामने बैठे रहने से तो कोई फल नहीं है। गाड़ी का सफर करके आये हैं, कल सारी रात यहाँ बैठे रहे, उसके बाद आज। दिन-रात बराबर इस तरह बैठे रहने से बीमार पड़ सकते हैं। सतीश बबुआ भी नहीं हैं – इस समय आप सचमुच ही बहुत थके जान पड़ते हैं। मैं बैठी हुई हूँ तब तक आप घूमकर आइये। बात मानिए – उठिये।”

एकाएक मुँह ऊपर उठाकर देखते ही उपेन्द्र ने दृष्टि झुका ली। इस प्रकार इतनी बातें किरणमयी ने पहले कभी उनके सामने नहीं कही थीं। इस कण्ठ-स्वर में शुभाकांक्षा की अधिकता नहीं थी, फिर भी एक दृढ़ता थी, कोमलता थी। उपेन्द्र के कानों में किरणमयी का यह स्नेह-भरा प्रथम अनुरोध बहुत ही सुन्दर जान पड़ा। बहुत दिन पहले एक रात के समय जो तीव्र कण्ठ, जो कठिन भाषा इसके मुँह से ही वह सुन चुके थे, उसके साथ इसका बड़ा ही आश्चर्यजन अन्दर जान पड़ा।

उपेन्द्र ने किसी ओर न देखकर प्रश्न किया, “आप लोगों का दिन आज कैसे बीतेगा?” किरणमयी ने कहा, “यह बात क्यों पूछ रहे हैं। हम लोगों पर आज जो दुःख आने वाला है, उसमें कोई भाग ले न सकेगा। लेकिन आप अब देर न करें, इसी वक्त उठिये।”

सच्ची बात कहने का यह कितना अद्भुत शान्तिपूर्ण ढंग था! क्षणभर के लिए उपेन्द्र ने सब कुछ भूलकर अपनी आश्चर्य-भरी दोनों आँखों की परिपूर्ण दृष्टि किरणमयी के मुँह पर लगा दी। पहले ही उनकी दृष्टि में उसकी माँग में सिन्दूर की चमकती हुई रेखा पड़ गयी जो नारी-सौभाग्य का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। प्रबल उच्छ्वास से उपेन्द्र का सारा शरीर एक बार काँप उठा।

किरणमयी ने उसे देख लिया, लेकिन उसका आभास मात्र भी उसके मुख पर प्रकट नहीं हुआ। उसने कहा, “आप उठिये, मैं उनको ज़रा दूध पिला दूँ।”

उपेन्द्र उठकर बैठ गये। बोले, “दवा?”

किरणमी व्यथित स्वर से बाधा देकर बोल उठी, “नहीं नहीं, अब उसकी आवश्यकता नहीं है। बहुस-सी दवाइयाँ बरबस मैंने पिलायी हैं। अब पिलाना नहीं चाहती।”

उपेन्द्र ने प्रतिवाद नहीं किया। दवा की आवश्यकता वह स्वयं भी नहीं जानते थे। पति को दूध पिलाकर उसने ज्यों ही पुनः अनुरोध किया त्यों ही उपेन्द्र उठ खड़े हुए और अति शीघ्र स्नान-भोजन करके लौट आयेंगे कहकर दरवाज़े की ओर बढ़ चले। उसी समय किरण ने मृदु स्वर से प्रश्न किया, “आते समय सतीश बबुआ के घर से होते आयेंगे क्या?”

उपेन्द्र घूमकर खेड़े हो गये, बोले, “क्यों?”

किरणमयी ने कहा, “मेरे पास तो कोई आदमी नहीं है कि उनके डेरे पर एक बार किसी को भेजूँगी, इसीलिए कह रही थी आप यदि एक बार….।”

उपेन्द्र को एकाएक ज्ञात हुआ, इस बुला लाने के प्रस्ताव से उन्हीं को मानो विशेष रूप से ठोकर लगायी गयी है। इसीलिए तीखे स्वर से उन्होंने पूछा, “उससे आपको विशेष कुछ आवश्यकता है?”

यह कण्ठ-स्वर और उसका तात्पर्य किरणमयी से छिपा नहीं रहा। लेकिन इसीलिए अपने कण्ठ-स्वर से उसने उसे और बढ़ा नहीं दिया। केवल कहा, “इस दुर्दिन में तो मुझे सभी की आवश्यकता है उपेन बाबू? उसके अतिरिक्त, किस कारण वह आप पर इतना क्रोध करके चले गये, यह भी नहीं जानती। इसीलिए मैं सोचती हूँ, एक बार उनको बुला लाने का प्रयत्न करना क्या अच्छा नहीं है?”

उपेन्द्र ने मन ही मन और चिढ़कर कहा, “आप उनके लिए उद्विग्न मत होइये। वह तो मेरा ही मित्र है। अपना भला-बुरा हम लोग ही ठीक कर सकेंगे। फिर भी आपको यदि विशेष कार्य हो तो उसके पास आदमी भेज सकता हूँ – स्वयं जाने का समय मेरे पास नहीं है।”

किरणमयी ने मृदु स्वर में कहा, “यही अच्छा है। आदमी भेज दीजियेगा। उनका आना आवश्यक है। मित्र के साथ मित्र का मेल-समझौता जब भी हो, लेकिन मैं उनकी बहन हूँ। अपनी बड़ी विपत्ति के दिनों में अपने को दण्ड देने का अवसर आप लोगों को न दूँगी।” “नहीं-नहीं, इसकी आवश्यकता ही क्या है – मैं ख़बर भेज दूँगा।” कहकर उपेन्द्र बाहर चले गये।

गोकि भाई-बहन के नया रिश्ता कहाँ, किस रूप में स्थापित होगा, इसकी कोई जिम्मेदारी उस पर नहीं, इस बात को उसने मन ही मन स्वीकार कर लिया। फिर भी जिस आत्मीयता की धारा एक दिन उसके बीच से प्रवाहित हो रही थी, वह आज उसे अतिक्रम कर प्रवाहित होने लगी है, इस समाचार से उसे चोट पहुँची। मित्र के प्रति वह जो मन में आये कर सकता है, पर भाई-बहन के निकटतम सम्बन्ध में किरणमयी किसी मित्र को हस्तक्षेप नहीं करने देगी, इसे समझाने के लिए अस्पष्टता का किंचित अंश बाकी नहीं रखता गया है।

छोटी गली को शीघ्रता से पार करके उपेन्द्र मुख्य सड़क पर पहुँचे और एक गाड़ी किराये पर ठीक करके उस पर सवार हो गये। अन्धकार, शीतल मृत्युपुरी से बाहर आकर शहर के इस प्रखर सूर्यालोकदीप्त, जीवन्त, कर्मचंचल राजपथ पर खड़े होने पर भी उसने आराम अनुभव नहीं किया। भीतर ही भीतर वह न जाने कैसी जलन अनुभव करने लगा।

आवश्यकता पड़ने पर किरणमयी किस प्रकार उग्र भाव से कठोर हो जा सकती है, इसे उन्होंने एक दिन देखा था, लेकिन उसका शान्तिपूर्ण विरोध भी उससे कम कठोर नहीं है, इसे उन्होंने आज की इन थोड़ी सी बातों से ही स्पष्ट अनुभव कर लिया। सतीश के साथ उसका एक विवाद उपस्थित हो गया है, किरणमयी को इसका पता चल गया है, यह बात भी उनकी समझ में आ गयी। लेकिन, झगड़े का कारण चाहे जो कुछ भी हो, दोष-गुण का विचार यह स्वयं ही करेगी, और किसी को हाथ डालने न देगी, यह बात घूम-फिरकर उनके मन में आने-जाने लगी।

चौबीस

स्त्रियों के सम्बन्ध में उपेन्द्र को अपना मत परिवर्तन करने का समय आ गया। आज उनको मन ही मन स्वीकार करना पड़ा, स्त्रियों के विषय में उनकी जो भी धारणा थी, उसमें बहुत बड़ी भूल थी। ऐसी नारी भी है, जिसके सामने पुरुष का आकाशभेदी मस्तक आप ही झुक पड़ता है। शक्ति काम नहीं करती, सिर झुका देना ही पड़ता है। ऐसी ही नारी है किरणमयी। उस रात्रि को जब प्रथम परिचय हुआ था, इसी के सम्बन्ध में उपेन्द्र ने सतीश के सामने मुँह से दूसरी तरह की बातें कही थीं, पर हृदय में सकरुण अवज्ञा के साथ सोचा था कि वह उसी प्रकार की उग्र स्वभाव की स्त्री है – जो अत्यन्त साधारण कारण से ही होश-हवास खोकर विक्षिप्त की भाँति विष खाकर या गले में फाँसी लगाकर भयंकर काण्ड कर बैठती है पर आज उन्होंने देख लिया और समझ लिया कि नहीं, ऐसी बात नहीं है। यह अत्यन्त संकट के बीच भी बुद्धि ठीक रखना जानती है और ज़रा भी उग्र न होकर सरलता से अपनी इच्छा का प्रयोग कर सकती है। इस घर में सतीश का आना-जाना उचित-अनुचित जो भी हो, किरणमयी ने बुलाया है, वह ख़बर सतीश को देनी ही पड़ेगी।

इस बात की राह में जाते-जाते वह जितना मन्थन करने लगे, उनका मन उतना ही दुःख से भर उठा। क्योंकि सतीश को उपेन्द्र बहुत अधिक स्नेह करते थे इसीलिए उसके ऊपर आज क्रोध की भी मानो सीमा नहीं थी। उसने जो अपराध किया है, उसका विचार किसी दूसरे दिन होगा, लेकिन आज जो सतीश खुले तौर से, उनके मुँह के सामने उसके सदा के अधिकृत अग्रज के आसन को दर्प के साथ पैरों से रौंद गया, उसने तनिक भी संकोच नहीं किया, सब दुःखों से बढ़कर यही दुःख उपेन्द्र के कलेजे पर बिंध गया था।

कुछ दिन पहले उपेन्द्र को घर में बैठकर एक गुमनाम पत्र के द्वारा सतीश के विषय में बातें ज्ञात हुई थीं। यह पत्र राखाल ने लिखा था। जब दोनों में प्रेम था, तब सतीश के मुँह से ही राखाल ने उसके इस परम मित्र की बहुत-सी असाधारण कहानियाँ सुनी थीं। उपेन्द्र भैया की असाधारण विद्या-बुद्धि और उनके शुभ निष्कलंक चरित्र की ख्याति कैसी थी। सतीश को बड़ा गर्व था अपने उपने भैया का, और उनके असीम स्नेह ने उसी स्थान पर चोट पहुँचाने के समान भयंकर आघात, सतीश के लिए और कुछ भी नहीं हो सकता, धूत्र राखाल इस बात को भली प्रकार समझ गया था।

लेकिन इस पत्र ने उस समय कुछ भी कार्य नहीं किया था। उपेन्द्र ने पत्र पढ़कर फेंक दिया था और पत्र-लेखक को लक्ष्य करके मुस्कराते हुए कहा था, “तुम चाहे जो भी हो और सतीश की जितनी ही गुप्त बातों की जानकारी तुमको क्यों न हो गयी हो, मैं तुमसे भी अधिक उसको जानता हूँ।” और दो दिनों के बाद पिता के प्रश्न के उत्तर में हँसकर कहा था, “सतीश अच्छी तरह ही है। किन्तु जान पड़ता है कि किसी से झगड़ा करके पुराना डेरा छोड़कर अन्यत्र चला गया है। उसी मनुष्य ने एक गुमनाम पत्र लिखकर उसके सम्बन्ध में अनाप-शनाप बातें लिख भेजी हैं।”

बूढ़े ने उद्विग्न मुँह से पूछा था, “कैसी अनाप-शनाप बातें उपेन्द्र?”

उपेन्द्र ने उत्तर दिया था, “उन सब झूठी कहानियों को सुनकर आपको समय नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। मैंने तो स्वयं ही उसे पाला-पोसा है – मैं जानता हूँ वह ऐसा कुछ भी न करेगा जिससे किसी आत्मीय का सिर झुक जाये। आप निश्चिन्त रहिये।”

उनके उस विश्वास पर वज्रपात हो गया सावित्री को अपनी ही आँखों से देखकर।

सतीश के निर्जन कमरे में श्रृंगार करने में निमग्न अकेली रमणी! उसमें कैसी सुगम्भीर लज्जा थी! और लज्जा से भी बढ़कर उन दोनों बड़ी आँखों का व्यथित व्याकुल दृष्टि में क्या ही त्रास फूट उठा था? इसमें भूल करने की गुंजाइश नहीं थी। एक क्षण में ही उपेन्द्र के मन में राखाल की उस प्रायः भूली हुई चिट्ठी का अक्षर-अक्षर मानो आग के अक्षरों की भाँति जल उठा था। प्रश्न करने या सन्देह करने की और कुछ भी आवश्यकता नहीं थी।

उस चिट्ठी को विश्वास योग्य बता देने की चेष्टा में राखाल ने कुछ भी कमी नहीं की थी। उसमें सावित्री का नाम तो था ही, तरह-तरह के विवरणों के बीच उसकी भौंहों के ऊपर एक छोटे तिल रहने की बात का ज़िक्र करने में भी उसने गलती नहीं की थी। वह चिद्द इतना ही सुस्पष्ट था कि क्षणभर के दृष्टिपात से ही उपेन्द्र ने देख लिया था।

सतीश को बुला देने का अप्रिय कार्य मार्ग में ही खत्म करके चलें या नहीं इसका निश्चय करते-करते ही भाड़े की गाड़ी ज्योतिष साहब के घर के सामने पहुँच गयी और फाटक में प्रवेश करते ही उनकी उत्सुक दृष्ट को किसी ने मानो दुमंजिले की ओर खींच लिया।

उपेन्द्र ने गरदन बढ़ाकर देखा, उन्होंने जिसकी निस्सन्देह आशा की थी ठीक वही मौजूद थी। खुली बड़ी खिड़की पर एक स्थिर प्रतिमा इसी रास्ते से ऊपर ही मानो समूचा प्राणमन उड़ेल कर खड़ी थी। इतनी दूर से अच्छी तरह देख लेना सम्भव नहीं था, तो भी उनके मानस नेत्रों से खिड़की पर खड़ी होने वाली के होंठों की कुछ कँपकँपी से लेकर आँखों की पलकों के ऊपर की जलरेखा तक भी छिपी नहीं रही। उनकी इतनी देर की चिन्ता-ज्वाला अभिमान और अपमान के घात-प्रतिघात की वेदना मिट गयी, केवल यही एक बात मन में जाग उठी कि सुरबाला की सारी रात और समूचा प्रातःकाल न मालूम किस तरह बीता है। जो ऐसी है, शक्ति रहने की हालत में शायद उसको घर से बाहर निकलने भी नहीं देती। उसने इस अपरिचित शहर के बीच इस गम्भीर रात्रि में अपने बीमार पति को अकेले घर से बाहर जाने देकर इतने समय तक कैसे बिताया, इसे सोचकर एक तरफ़ उनको हँसी आ गयी, दूसरी तरफ़ वैसे ही आँखों के कोने में जल भी आ गया।

सरोजिनी शायद ख़बर मिलने पर ठीक उसी समय अन्दर से दौड़ती हुई बाहर के बरामदे में पहुँच गयी। उपेन्द्र को देखते ही उसके मुँह पर और उसके नेत्रों में हँसी की छटा भर गयी। गाड़ी से उतरते न उतरते ही वह बोल उठी, “बाहर अब एक पल भी नहीं, एकदम ऊपर चले चलिये।”

उपेन्द्र यथासम्भव गम्भीर मुँह से इसका कारण पूछते समय स्वयं भी हँस पड़े। तब सरोजिनी ने हँसकर कहा, “अच्छी स्त्री को कल रात को आपने मेरे जिम्मे कर दिया था – न तो स्वयं सो सकी, न तो मुझे ही सोने दिया। सारी रात गाड़ी की आवाज़ सुनती रही और खिड़की खोलकर देखती रही – यह क्या! पत्र लिखने क्यों बैठ गये! नहीं-नहीं, यह नहीं होगा – एक बार दर्शन तो दे दीजिये उसके बाद जो इच्छा हो कीजिये – अभी नहीं।”

बाहर के बरामदे में एक छोटी-सी मेज़ पर लिखने की सामग्री तैयार थी। उपेन्द्र ने एक काग़ज़ खींचकर कहा, “पत्र लिख लूँ उसके बाद जो कहिये, मैं कर सकता हूँ, लेकिन इसके पहले नहीं, पाँच मिनट से ज़्यादा न लगेगा – इच्छा हो तो जाकर ख़बर दे सकती हैं।” सरोजिनी ने उसी तरह हँसते हुए चेहरे से कहा, “मुझे ख़बर देने की आवश्यकता नहीं है – उन्होंने ही मुझे ख़बर देने के लिए बाहर भेजा है। अच्छा, मैं पाँच मिनट खड़ी रहती हूँ, आपको साथ लेकर ही चलूँगी।”

उपेन्द्र फिर उत्तर न देकर पत्र लिखने लगे। लिखते-लिखते उनके चेहरे पर व्यथा और विरक्ति के जो सुस्पष्ट चिद्द पड़ रहे थे, उन्हें निकट ही खड़ी रहकर सरोजिनी निरीक्षण कर रही थी, इसको वह जान भी न सके।

पत्र समाप्त करके, उसको लिफ़ाफ़े में भरकर पता लिखकर उपेन्द्र ने मुँह ऊपर उठाकर देखा। कोचवान ने आकर सरोजिनी को लक्ष्य करके कहा, “गाड़ी तैयार है।”

उपेन्द्र ने पूछा, “क्या आप बाहर जायेंगी?”

सरोजिनी ने कहा, “हाँ, अपना छोटा पियानो मरम्मत करने को दे आयी हूँ, उसे एक बार देख आऊँगी।”

उपेन्द्र ने खुश होकर कहा, “पता लिखा है, थोड़ा कष्ट उठाकर यह पत्र साईस के हाथ घर में भेजवा दीजियेगा।” यह कहर उपेन्द्र ने सरोजिनी के फैलाए हुए हाथ पर पत्र रख दिया।

सरोजिनी कुछ देर तक उसके सिरनामे की तरफ़ देखती रही। नाम और पते की दो लाइनों को पढ़ने में अधिक समय नहीं लगा। उसके बाद उसने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “सतीश बाबू इस बार हम लोगों के घर पर क्यों नहीं आये?”

“हम लोगों के साथ आया नहीं – सतीश बराबर यहीं रहता है।”

यह समाचार सुनकर सरोजिनी चौंक पड़ी। उपेन्द्र के मन की अवस्था यह सब देखने योग्य नहीं थी। अगर रहती तो वे चकित रह जाते।

सरोजिनी ने अपनी लज्जा को दबाकर सहज भाव से बोलने की चेष्टा की, “वह कभी इस ओर क़दम नहीं रखते, लेकिन इतने दिनों से इतने पास रह रहे हैं।”

उपेन्द्र अन्यमनस्क होकर कोई दूसरी ही बात सोच रहे थे। बोल, “मालूम पड़ता है, आप लोगों की बातें उसे याद नहीं हैं।” यह बात कितनी सहज थी लेकिन कैसी कठिन होकर सुनने वाली के कानों में जा लगी।

उपेन्द्र ने कहा, “एक बात है, दिवाकर कहाँ है?”

“वह भैया के साथ हाईकोर्ट घूमने गये हैं। चलिये, आपको साथ लेकर पहले अन्दर पहुँचा आऊँ।” कहकर सरोजिनी घर में चली गयी।

बीस मिनट के बाद वह लौटकर जब गाड़ी पर सवार हो गयी और आदेशानुसार गाड़ी जब सतीश के डेरे की तरफ़ रवाना हो गयी, तब अन्दर बैठी हुई सरोजिनी का हृदय काँपने लगा, और गाड़ी जितना ही अग्रसर होने लगी, हृदय का स्पन्दन मानो उतना ही प्रबल होने लगा।

उसे लगा, मानो वह ऐसे ही एक महत्वपूर्ण काम का भार लेकर जा रही है – जिसकी सिद्धि पर उसके अपने ही भविष्य का भला-बुरा मानो सब कुछ निर्भर कर रहा है।

थोड़ी ही देर में गाड़ी सतीश के डेरे के सामने आकर ठहर गयी और साईस पत्र हाथ में लिए उतरा। सरोजिनी ने गाड़ी के एक कोने में सटकर सिकुड़कर बैठी रहकर कान लगाये दरवाज़े पर साईस का कराघात सुना। कुछ देर बाद दरवाज़ा खुलने का शब्द और उसके अन्दर जाने की आवाज़ उसे मालूम हुई और उसके बाद प्रतिक्षण किसी सुपरिचित गम्भीर कण्ठ-स्वर कानों में पहुँचने की आशंका और आकांक्षा से स्तब्ध रोमांचित होकर वह बैठी रही। वह अवश्य जानती थी, गाड़ी और गाड़ी के अन्दर जो बैठी हुई है, साईस के मुँह से उसका परिचय पाकर सतीश स्वयं ही आ जायेगा। उसको एक बार भी यह ख़्याल नहीं आया कि जो व्यक्ति इतने दिनों से इतना निकट रहकर भी इस तरह भूलकर रह सकता है, उसको यह समाचार तनिक भी विचलित नहीं कर सकता।

फिर साईस का कण्ठ-स्वर दरवाज़े के पास सुनायी पड़ा – वह दरवाज़ा बन्द भी हो गया, और क्षणभर बाद ही वह पत्र हाथ में लिये अकेले लौट आया। उसने कहा, “बाबू घर में नहीं हैं।”

“घर में नहीं हैं?” पलभर के लिए सरोजिनी स्वस्थ होकर बच गयी। मुँह बढ़ाकर उसने कहा, “पत्र लौटाकर क्यों लाया, जा रख आ।”

साईस ने कहा, “बाबू कलकत्ता में नहीं है, दिन के दस बजे की गाड़ी से घर चले गये।”

यह बात सुनकर न मालूम क्यों उसको यह घर अपनी ही आँखों से देख लेने की अदम्य इच्छा हो गयी, उसका ठीक कारण वह स्वयं भी न समझ सकी और दूसरे ही क्षण वह उतर आयी फिर किवाड़ खोलकर अन्दर चली गयी। हिन्दुस्तानी रसोइया चीज़ों के पहरे पर तैनात था, उसकी सहायता से सभी कमरों में घूम-फिरकर देखकर नीचे उतरने के रास्ते में रस्सी की अरगनी पर लटकती हुई एक अधमैली चौड़ी पाट की साड़ी पर सरोजिनी की निगाह पड़ गयी। कौतूहली होकर प्रश्न करने पर ब्राह्मण ने अपनी बोली में बताया, ‘यह माँ जी का कपड़ा है।”

तीसरे पहर स्नान कर सावित्री ने अपने पहिनने की भीगी साड़ी सूखने के लिए डाल दी थी, वह उस समय तक टंगी हुई थी। आश्चर्य में पड़कर पूछताछ करने पर इस माई जी के बारे में सरोजिनी को जो बातें मालूम हुई, उससे वह और भी आश्चर्य में पड़ गयी। जो सब घटनाएँ सहज भाव से घटित नहीं होतीं, और जिनके अन्दर पाप रहता है, उन्हें छान-बीनकर समझ न सकने पर भी सभी लोग अपनी बुद्धि के अनुसार एक प्रकार समझ सकते हैं, यह हिन्दुस्तानी भी सपत्नीक उपेन्द्र के आने और इस तरह उसी क्षण चले जाने से लेकर आज सबेरे मालिक के अचानक प्रस्थान कर देने के बीच माई जी का जो सम्पर्क रहा, उसको अनुमान से समझ गया था। विशेष रूप से सतीश का उद्भ्रान्त आचरण किसी भी आदमी की दृष्टि से छिपा रहना सम्भव नहीं था इसीलिए उसने सावित्री की बीमारी आदि की बहुत-सी बातें कह दीं और उसकी देखभाल करने के लिए उसके मालिक को इस तरह व्यस्त और व्याकुल होकर अकस्मात प्रस्थान, करना पड़ा है, यह बात भी उसने एक तरह समझा दी। सरोजिनी यही एक नया तथ्य जान गयी कि उपेन्द्र वगैरह सबसे पहले इसी घर में आये थे, सामान तक गाड़ी से उतार लिया गया था, लेकन उसी दम सब उठाकर उसी गाड़ी पर सवार होकर चले गये। फिर भी उन लोगों में से किसी ने सतीश के नाम का भी ज़िक्र नहीं किया – उसके बाद आज यह पत्र आया है, स्पष्ट ही समझ में आ गया, उपेन्द्र को अपने मित्र के अकस्मात चले जाने की बात मालूम नहीं है। अधीर उत्सुकता से लगातार इस स्त्री के सम्बन्ध में तरह-तरह के प्रश्न करके उसकी अवस्था और सुन्दरता के सम्बन्ध में उसको जो तालिका मिली, यह सत्य लाँघकर भी बहुत ऊँचाई पर चली गयी। आखि़र में लौट आने पर जब वह गाड़ी में बैठ गयी, तब उसको पियानो की मरम्मत कराने का शौक दूर हो गया था, और अज्ञात भारी बोझ से हृदय के अन्दर भाराक्रान्त हो उठा था।

यह रहस्यमयी कौन है और किस कार्य के सिलसिले में आयी थी यह बात जानी नहीं गयी। लेकिन एकाएक छिपाने-चुराने का अस्तित्व उसके मन में दृढ़ता से अंकित हो रहा।

सतीश और किरणमयी पर उपेन्द्र की रंजिश और अभिमान जितना बड़ा ही क्यों न हो, उसको प्रधानता देकर कत्रव्य की अवहेलना करना उनकी आदत नहीं है। इसीलिए भोजन आदि के बाद पाथुरियाघाट के घर पर लौट जाने की ही उनकी इच्छा थी अवश्य, लेकिन घोर थकावट ने आज उनको परास्त कर दिया। इसके अलावा सुरबाला ऐसी जिद पकड़े रही कि उसकी अवहेलना करके जाना भी कठिन हो गया।

कई घण्टे बाद जब उनकी नींद टूटी, तब दिन शेष नहीं था। हड़बड़ाकर उठकर बैठ जाने के साथ ही पास की तिपाई पर रखे हुए पत्र पर उनकी दृष्टि पड़ गयी। उसे उठाकर हाथ में लेकर उन्होंने देखा – पत्र उसी तरह बन्द है – जिस कारण ही क्यों न हो वह सतीश के हाथ में नहीं पड़ा है। आहट पाकर सुरबाला ने कमरे में प्रवेश कर कहा, “सतीश बबुआ यहाँ नहीं है, दिन के दस बजे की गाड़ी से घर चले गये हैं।”

यह समाचार सुनकर उपेन्द्र का मुख स्याह हो गया। पहले ही ख़्याल हुआ, इस अपरिचित शहर में हारान की आसन्न मृत्यु-सम्बन्धी जितने कत्रव्य हैं, अब अकेले उन्हीं को सम्पन्न करने पड़ेंगें ओह, कितने काम हैं! और कितने भयंकर कष्ट कर हैं! लोगों को बुलाना, चीज़-सामान जुटा देना, सद्यः विधवा और जननी की गोद से उसके एकमात्र सन्तान का मृत शरीर खींचकर ढो ले जाना, इस मर्मान्तक शोक के दृश्य की कल्पना करके ही उनका सर्वांग पत्थर की तरह भारी और समस्त चित्त पाथुरियाघाट के विरुद्ध वक्र होकर खड़ा हो गया। अपनी जानकारी में वे मन ही मन सतीश के ऊपर निर्भर थे, अब वही संकट, अभिमान और अपमान के आवरण को भेदकर सामने प्रकट हो गया।

यह सब काम उपेन्द्र की प्रकृति के विरुद्ध है। यथाशक्ति वह इसमें पड़ना नहीं चाहते थे लेकिन सतीश के लिए यह सब काम कितने सहज थे। गाँव में ऐसा कोई भी आदमी नहीं मरा जहाँ वह अपना कर्मठ बलवान शरीर लेकर सबसे पहले हाज़िर न हुआ हो, और सभी अप्रिय काम चुपचाप आडम्बर के बिना सम्पन्न न कर दिये हों। दुर्दिन में सभी उसको खोजते थे और उसके आगमन से शोकात्र्त और विपत्तिग्रस्त गृहस्थ इस दुःख के भी बीच सान्त्वना और साहस पाता था। वही जब कलकत्ता छोड़कर चला गया, तब क्षणभर के लिए उपेन्द्र को किसी ओर फिर रास्ता नहीं दिखायी पड़ा।

सुरबाला ने पति के मुख का भाव देखकर हारान की अवस्था के बारे में पूछा, लेकिन सतीश का प्रसंग नहीं उठाया। सरोजिनी ने वापस आकर बातों की जानकारी प्राप्त करने के लिए बातचीत के बहाने जो ज़िक्र किया था, उसी से उसने कल रात की घटना का अनुमान कर लिया था, सतीश उसके पति का कितना बड़ा मित्र है, इसको वह जानती थी इसीजिये इस व्यथा को उसने छिपा दिया।

सुरबाला की सांसारिक बुद्धि पर कुछ भी आस्था न रहने के कारण ही उपेन्द्र किसी दिन भी स्त्री के सामने किसी समस्या का ज़िक्र नहीं करते थे, लेकिन अभी-अभी वह अपने को इतना विपत्तिग्रस्त समझ रहे थे कि उसी क्षण सारी स्थिति खोलकर प्रकट करके व्याकुल भाव से बोले, “वह मुझे इस विपत्ति में छोड़कर चला जायेगा सुरो, यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। अकेला इस अनजान स्थान में क्या उपाय करूँ।” यह कहकर उपेन्द्र मानो असहाय शिशु की भाँति स्त्री के मुँह की ओर ताकने लगे।

लेकिन आश्चर्य की बात है कि पति की इतनी बड़ी विपत्ति का समाचार पाकर भी सुरबाला के मुख पर तनिक भी घबराहट न दिखायी दी। वह निकट चली आयी और उनका एक हाथ पकड़कर बिछौने पर बैठाकर धीरे से बोली, “तो क्यों इतना सोचते हो, इस कलकत्ता में किसी के लिए भी काम नहीं रुकता, चाय तैयार है, हाथ-मुँह धोकर तुम चाय पी लो, छोटे बबुआजी को साथ लेकर मैं भी चल रही हूँ, चलो।”

उपेन्द्र ने अवाक होकर कहा, “तुम चलोगी?”

सुरबाला ने अविचलित भाव से कहा, “अवश्य ही चलूँगी। किसी स्त्री के दुर्दिन में उसके पास रहना स्त्री का ही काम है।” यह कहकर उसने अनुमति के लिए प्रतीक्षा भी न करके पास के कमरे से चाय लाकर हाज़िर कर दी, और दिवाकर को ख़बर देकर बाहर चली गयी। गृहस्थों के घर-घर में जब संध्या के दीपक जलाये जा चुके थे, ठीक उसी समय उन लोगों ने पाथुरियाघाट के घर में प्रवेश किया। सदर दरवाज़ा खुला था, लेकिन नीचे कहीं भी कोई नहीं था। अँधेरा टूटा-फूटा घर श्मशान की तरह खामोश था! दोनों को सावधानी से अनुसरण करने का संकेत करके उपेन्द्र ऊपर चढ़कर हारान के बन्द किवाड़ के सामने आकर क्षणभर के लिए स्तब्ध होकर खड़े हो गये। अन्दर से केवल एक मर्मभेदी लम्बी साँस कानों में आकर पहुँची। काँपते हुए हाथ से किवाड़ ठेलकर देखते ही अन्धकार में बिछौने पर आपादमस्तक वस्त्रच्छादित हारान का मृत शरीर दिखायी पड़ा। उसके दोनों पैरों के बीच मुँह छिपाकर सद्यः विधवा औंधी होकर पड़ी हुई थी – उसने एक बार सिर हिलाकर उठाकर देखा, और दूसरे ही क्षण विद्युत-वेग से उठकर खड़ी होकर आत्र्तस्वर से माँ कहकर चीत्कार करके तुरन्त ही उपेन्द्र के पैरों के नीचे मूर्च्छित होकर गिर पड़ी और उसी क्षण पलभर में सुरबाला ने उद्भ्रान्त, हतबुद्धि पति को एक ओर ठेलकर कमरे में घुसकर किरणमयी के मुँह को अपनी गोद में ले लिया।

पच्चीस

अस्थि-मांस-मेद-मज्जा-रक्त से निर्मित इस मानव शरीर में सभी चीज़ों की एक सीमा निर्धारित है। मातृ-स्नेह भी असीम नहीं है, उसका भी परिमाण है। भारी बोझ दिन-रात खींचकर घूमते रहने से रक्त-संचार जब बन्द होने लगता है, तब उस सीमा-रेखा के एक छोर पर खड़ी रहकर जननी भी फिर सन्तान को ढोकर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती। यह स्नेह के अभाव से होता है या सामथ्र्य के अभाव से, इसकी मीमां सा का भार अन्तर्यामी के हाथ में है, माँ के हाथ में नहीं। उस दिन जब हारान का मृत शरीर माता की गोद से अलग होकर श्मशान में चला गया, तब अघोरमयी की छाती को चीरकर जो लम्बी साँस उसी असीम के पदप्रान्त में इस मृत्युवार्ता को ढोकर ले गयी, वह अपने साथ और कुछ ले गयी या नहीं, इसका अनुमान करने का सामथ्र्य मनुष्य में नहीं है।

उनकी अत्यन्त ज्वर की दशा में ही हारान की मृत्यु हुई। उसके बाद आठ-दस दिन किस तरह कहाँ से चले गये, वे जान न सकीं।

श्राद्ध के किसी प्रकार समाप्त हो जाने पर उन्होंने उपेन्द्र को पकड़ लिया, कहा, “बेटा, पास के घर से मल्लिक घराने की बड़ी बहू काशी, वृन्दावन, प्रयाग घूमने जायेंगी, क्या उसके साथ जाना नहीं हो सकता?”

“क्यों नहीं मौसी, अच्छी तरह से हो सकता है। लेकिन…” कहकर उसने एक बार किरणमयी की ओर देखा।

किरणमयी ने समझकर कहा, “मेरे लिए चिन्ता न करो बबुआ, मैं दासी को लेकर अच्छी तरह रह सकूँगी।”

लेकिन उपेन्द्र इस पर तुरन्त ही सम्मति न दे सके, चुप ही रहे।

किरणमयी उनके मुँह की ओर क्षणभर देखती रही। फिर बोली, “या यह भी तो हो सकता है, दिवाकर बबुआ तो कलकत्ता में रहकर ही पढ़ेंगे ऐसा निश्चय हो चुका है, उनको मेरे ही पास क्यों नहीं रख देते! एक अनजान घर में रहने की अपेक्षा मेरी आँखों के आगे तो अधिक अच्छा है। देखभाल भी होगी, कलकत्ता में अकेले रखने से जो सब भय है, वह भय भी न रहेगा।” यह कहकर उसने उपेन्द्र के मुँह पर अपनी दृष्टि स्थिर कर दी।

अघोरमयी अपनी पूरी सम्मति देकर बोल उठीं, “इससे अच्छी और कौन बात हो सकती है उपेन – यही करो। उस लड़के की देखभाल भी होगी, यह अभागिनी भी जो कुछ हो, ज़रा हिल-डोलकर बचेगी। ये किसी प्रकार ज़रा बाहर निकल सकने से ही बच जायेगी।” इतनी आसानी से ऐसा सीधा मार्ग आविष्कृत होते देख उन्होंने निश्चिन्त भाव से एक लम्बी साँस ली। लेकिन उपेन्द्र किरणमयी का साहस देखकर एकदम स्तम्भित हो गये। ऐसा एक अचिन्तनीय प्रस्ताव उनके मुँह से निकला ही कैसे यह तो वह सोचने पर भी समझ न सके। दिवाकर जो कुछ भी हो, वह बच्चा नहीं है – वह भी यौवन-प्राप्त पुरुष है। फिर भी इस परम रूपवती रमणी को अकेले इस निर्जन घर में ठीक मानो बच्चे की ही तरह उसका लालन-पालन करने और सुयोग्य बना देने का हर प्राकर का दायित्य निःसंकोच ग्रहण करने को तैयार देखकर उपेन्द्र के मुँह से भली-बुरी कोई बात नहीं निकली। यह रमणी कैसी असाधारण बुद्धिमती है, यह जानना उनके लिए शेष नहीं था। उसने संगत-असंगत, सांसारिक और सामाजिक, विधि-व्यवस्था विशेष रूप से जान-बूझकर ही यह प्रसंग उठाया है इसमें भी सन्देह नहीं है – फिर भी, यह कैसी बात? किस तरह उसने कही?

पलभर में उसने अपनी समस्त पर्यवेक्षण शक्तियों को जाग्रत और एकर्ता करके इस अनन्त सौन्दर्यमयी के हृदय में भेज देना चाहा, लेकिन कहीं भी उनको प्रवेश का मार्ग नहीं मिला। अपितु कहीं मानो ज़ोरों से टकराकर उसी क्षण वापस आ गयी।

लेकिन यह जो पलभर के लिए दोनों एक-दूसरे के मुँह की ओर चुपचाप ताकते रहे, इसी से दोनों के बीच मानो एक नये प्रकार से जान-पहचान हो गयी। उसको ख़्याल हुआ, ऐसी शुद्ध, शान्त और आत्मसंयमपूर्ण वैराग्य की मूर्ति उसने और कभी नहीं देखी थी। उस दिन, रात के समय इसके वेष की सजावट देखकर सद्यः समागत उसकी और सतीश की दृष्टि झुलस गयी थी, ख़्याल हुआ था, इसकी तुलना नहीं है – इस तरह सजावट न कर सकने से किसी की सजावट ही नहीं होती। आज फिर उसकी यह रूखी, शिथिल असम्बद्ध केशराशि और विधवा की सजावट देखकर ज्ञात हुआ ऐसी सम्भवतः किसी दिन यह दिखायी नहीं पड़ी। अत्यन्त अकस्मात नवलब्ध चेतना की तरह यही एक बात उनकी नस-नस में प्रवाहित हो गयी कि सौन्दर्य का यह जो अपरिसीम समावेश है, यह ठीक अग्निशिखा की तरह तरंगित होकर ऊध्र्व की ओर उठ रहा है – इसे जी भरकर देखना चाहिए, स्पर्श नहीं करना चाहिए – जो करता है, वह मरता है। यह तीव्र शिखारूपिणी विधवा जिस असंकोच और निर्भय रूप में दिवाकर को ग्रहण करना चाहती है वह वास्तव में अधिकार के गर्व से कर रही है। इसमें दुस्साहस या स्पद्र्धा नहीं है।

उपेन्द्र उस समय बात न कर सके। लेकिन उनके मानस नेत्रों की दृष्टि से इस विधवा के सामने दिवाकर बिल्कुल ही छोटे बच्चे की भाँति तुच्छ हो गया, और उस दिन क्यों सतीश को छोटे भाई की तरह अपने पास भेज देने का उनसे अनुरोध किया था, यह बात भी आज बिल्कुल ही स्पष्ट हो गयी। उनके परितृप्त मन ने चुपचाप हाथ जोड़े इस महामयी के सम्मुख अपना अपराध बार-बार स्वीकार करके मन ही मन क्षमा-याचना कर ली। तीनों ही चुप थे। किरणमयी ने पहले बात कही। अपनी दोनों आँखों की करुण दृष्टि पहले की ही तरह उपेन्द्र के मुँह पर स्थिर रखकर अनुनय के स्वर से उसने कहा, “दिवाकर को मेरे पास क्या रख न सकोगे बबुआजी?”

उपेन्द्र मन्त्रमुग्ध की भाँति बोले, “क्यों न रख सकूँगा भाभी! आप यदि उस का भार ले लें, तो यह परम सौभाग्य होगा।” इतने दिनों के बाद उपेन्द्र ने आज पहले-पहल उसको आत्मीय की तरह सम्बोधन किया। कहा, “दिवाकर मेरे साथ ही तो आया था, कब अकेले चला गया है शायद, नहीं तो बुलाकर कह देता।”

यह बात सुनकर किरणमयी चकित हो उठी। इस बार उसके मुँह से बात नहीं निकली। अकस्मात आनन्द की बाढ़ ने मानो उसके दोनों किनारों को बहा देने की तैयारी कर दी। इसीलिए वह क्षणभर के लिए दूसरी ओर मुँह फेरकर अपने को सम्भालने लगी। इतना थोड़ा-सा आत्मीय सम्बोधन! यह कितना है? किन्तु इसी के लिए वह मानो कितने युगों से प्यासी थी, ऐसा उसे ज्ञात हुआ। सतीश ने यही कहकर पुकारा है, दिवाकर यही कहकर पुकारा करता है, लेकिन उसमें और इसमें कितना अन्तर है। इस आह्नान से इतने दिनों के बाद उपेन्द्र ने उसको जो अपने समीप खींच लिया, एकाएक उसे आशंका हुई इसके प्रचण्ड वेग को वह सम्भवतः सम्भाल न सकेगी।

लेकिन इन लोगों की इस आकस्मिक मौनता से अघोरमयी शंकित हो उठीं। बोलीं, “बेटा उपेन, तब तो मेरे जाने में कोई विघ्न नहीं है, लेकिन उस काम में तो अब देर नहीं है, मैं क्या इसी समय जाकर मल्लिक जी की बड़ी बहू को कह न आऊँ।”

उपेन्द्र किरणमयी की ओर एक बार दृष्टिपात करके बोले, “मैंने तो कह दिया है मौसी, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है। तुम्हारी बहूजी के सहमत होने से हो जायेगा। जब उनका भी मत है तब तुम्हारी तीर्थयात्रा में तो कोई बाधा ही मैं नहीं देखता।”

“तो जाऊँ बेटा, मैं इसी समय जाकर उससे कह आऊँ। यह भी जान आऊँ कब उन लोगों का जाना होगा।” इतना कहकर अघोरमयी दासी को बुलाकर प्रफुल्ल मुँह से नीचे उतर गयी।

उनकी इस शीघ्रता से उपेन्द्र ने मन ही मन सन्तोष का अनुभव करके कहा, “अच्छा ही हुआ। जिस तरह भी हो, अब कुछ दिनों के लिए उनका बाहर जाना अत्यन्त आवश्यक है।”

किरणमयी कुछ भी नहीं बोली। इस समय वह किसी कारण मानो अनमनी-सी हो गयी थी। उत्तर न पाकर उपेन्द्र ने फिर कहा, “आपकी सम्मति है न भाभी?”

उपेन्द्र के कण्ठ-स्वर से वह क्षणभर अबोध की भाँति उनके मुँह की ओर देखती रहकर एकाएक मानो सचेत हो उठी। उसने कहा, “अवश्य ही, बबुआजी, अवश्य। वह कैसा अन्धकूप है, इसे केवल हम लोग ही जानती हैं। चली जायें चली जायें, कुछ दिनों तक इस दुःख के घेरे से छुटकारा पाकर बच जायें।”

उसकी ये बातें इस प्रकार उसके मुँह से बाहर निकलीं कि उपेन्द्र ने कष्ट अनुभव किया। पीड़ित चित्त से कुछ देर तक मौन रहकर बोले, “बस दुःख के घेरे से केवल उनका ही नहीं भाभी, आपका भी बाहर निकल जाना उचित है।”

किरणमयी ने कातर दृष्टि से कहा, “मेरा कौन है बबुआजी, जिसके पास मैं जाऊँगी?”

उपेन्द्र ने प्रश्न किया, “आपके पिता के घर क्या कोई नहीं है?”

किरणमयी हँस पड़ी। बोली, “पिता का घर कहाँ है, यही तो मैं नहीं जानती। मामा के घर पाली-पोसी गयी थी। उन लोगों की ख़बर भी आठ-दस वर्षों से मैं नहीं जानती। दस वर्ष की आयु में ब्याह हो जाने पर वही जो इस मकान में मैं आ गयी, मृत्यु न होने से सम्भवतः अब इसमें से निकल ही न सकूँगी।”

उपेन्द्र अत्यन्त व्यथित हो गये। फिर सोचकर बोले, “तो आप भी क्यों मौसी के साथ पश्चिम को नहीं चली जातीं! घूमना भी होगा, तीर्थयात्रा भी होगी।” कहकर वह किरणमयी का मनोभाव देखकर आश्चर्य में पड़ गये। क्योंकि, ऐसे प्रस्ताव से उसने ज़रा भी आनन्द प्रकाट नहीं किया। वैसे ही निरुत्साह से नीचे को ताकती रही।

उपेन्द्र को तुरन्त ही यह ध्यान आ गया कि यह घर छोड़कर जाने में असमर्थ हो रही है। उन्होंने कहा, “आप इस घर के लिए सोच रही हैं? कोई चिन्ता मत कीजिये। मैं इसकी देखभाल का प्रबन्ध कर न दूँगा। कोई वस्तु नष्ट न होगी।”

इस बार किरणमयी मुस्करा उठी। बोली, “तुमने सम्भवतः मेरी उस प्रथम रात्रि का पागलपन स्मरण करके यह बात कही है बबुआजी?”

उपेन्द्र घबड़ा कर बोल उठे, “नहीं, ऐसी बात नहीं है। लेकिन वह भी यदि हो तो उसको पागलपन क्यों कह रही हैं। उस दशा में सतर्क होना तो सभी के लिये उचित है।” किरणमयी ने हँसी के साथ कहा, “इतना सतर्क होना चाहिए था, बबुआजी?”

उपेन्द्र ने कहा, “नहीं क्यों! अपने घर-द्वार, धन-दौलत पर ममता किसकी नहीं है? भविष्य की दुश्चिन्ता किसको नहीं होती? नहीं-नहीं, ऐसी बात आप मत कहिये। उसमें असंगति या अस्वाभाविकता कुछ भी नहीं था।”

“न रहने से ही अच्छा है। लेकिन मैं तो अब उसको शुद्ध पागलपन के अतिरिक्त और कुछ भी सोच नहीं सकती।” और एकाएक गम्भीर होकर बोली, “तुम पर भी सन्देह! छिः! छिः! कैसी कड़ी बात मैंने कह दी थी। स्मरण होने से अब स्वयं ही लज्जा से मरने लगी हूँ।” यह कहते-कहते उसका सहज सुन्दर मुख अनुताप से मानो पिघल गया। उपेन्द्र ने प्रतिवाद नहीं किया, वह चुपचाप ताकते रहे। पलभर मौन रहकर उसने फिर कहा, “किन्तु वह ममता अब कहाँ ंहै बबुआजी? एक बार भी तो यह विचार नहीं आता कि, यह घर मेरा रहेगा या हाथ से निकल जायेगा। रहे तो रहे, न रहे तो चला जाये! सोचती हूँ, मार्ग के वृक्षों के नीचे का स्थान तो कोई रोक न सकेगा, मुझे वही काफ़ी होगा।”

उपेन्द्र ने इसका भी प्रत्युत्तर नहीं दिया। सद्यः विधवा के वैराग्य की इन थोड़ी-सी बातों से उनका हृदय श्रद्धा तथा करुणा से लबालब भर उठा।

किरणमयी ने कहा, “मकान के लिए नहीं बबुआजी, लेकिन माँ के साथ तीर्थ में जाने से भी क्या मैं शान्ति पाऊँगी? सुनती हूँ उन सब स्थानों में सर्वत्र ही तो बहुत से लोगों की भीड़ होती है।”

उपेन्द्र ने गरदन हिलाकर कहा, “तीर्थस्थानों में तो लोगों की भीड़ होती ही है भाभी। लेकिन आपका और कुछ भले ही न हो, तीर्थ करना तो हो जायेगा। वह भी तो एक काम है।”

फिर किरणमयी उपेन्द्र के मुँह की ओर देखकर मुस्करा पड़ी, लेकिन बोली नहीं। वह किसलिए हँस पड़ी उसका तात्पर्य समझ न सकने के कारण उपेन्द्र सम्भवतः कुछ कहने जा रहे थे, लेकिन एकाएक आश्चर्य में पड़कर उन्होंने देखा पास के कमरे से दिवाकर निकल आया।

“तू क्या इतनी देर से उसी कमरे में था रे!”

किरणमयी ने कहा, “दिवाकर बबुआ कृपा करके मेरी पुस्तकें ठीक से रख रहे थे। मैं तुमको बताना भूल गयी थी।”

दिवाकर ने निकट आकर कहा, “कितनी पुस्तकें कैसी दशा में हो गयी हैं भाभी, लेकिन खोलकर देखते से ज्ञात होता है, वह कितने यत्न से उन सबको पढ़ते थे।”

किरणमयी ने सम्मति देकर कहा, “सचमुच ही यही बात है। जिसको पढ़ना कहते हैं, वह उसी तरह पढ़ते थे। तुम्हारे हाथ में वह कौन-सी पुस्तक है बबुआजी?”

दिवाकर ने लज्जित भाव से कहा, “मैं संस्कृत नहीं जानता, फिर भी पढ़ने का प्रयत्न करूँगा। यह कठोपनिषद् है।”

“इतनी किताबें रहते पसन्द आयी भी तो कठोपनिषद्?” किरणमयी का प्रश्न समझ में नहीं आया दिवाकर के। उसकी ओर जिज्ञासु दृष्टि से देखकर बोला, “क्यों! इससे भी अच्छी कोई और किताब है क्या भाभी? शायद मेरे लिये अनधिकार चर्चा है, समझ नहीं पाऊँगा; लेकिन यथासाध्य प्रयत्न तो करना चाहिये।”

“जो समझ रहे हो, वह बात नहीं है देवर जी। लेकिन इस तरह प्रयत्न करने लायक यह किताब नहीं है। हाँ, कहीं-कहीं बुरी भी नहीं लगती। कोई कामकाज न हो तो आत्मा-वात्मा के नानारूपों की नयी-नयी कहानियाँ पढ़ने से समय कट जाता है बस और कुछ नहीं।”

सुनकर दिवाकर का चेहरा पीला पड़ गया। बोला, “यह क्या कर रही हैं भाभी आप, कहते हैं उपनिषद् वेद हैं, इसका हर अक्षर अभ्रान्त सत्य है।”

उसका विस्मय देखकर किरणमयी को हँसी आ गयी बोली, “कोई धर्मग्रन्थ अभ्रान्त सत्य नहीं हो सकता। वेद भी धर्म ग्रन्थ हैं, उनमें भी मिथ्या का अभाव नहीं है।’

दोनों कानों में उँगली डालकर ज़ोर से सिर हिलाते हुए बोला, “वेद मिथ्या! बस-बस, आगे मत बोलियेगा। सुनना भी पाप है। कहावकत है वेद वाक्य! ये क्या मनुष्य रचित हैं जो मिथ्या होंगे? ये तो वेद हैं वेद!”

उसकी यह हालत देखकर किरणमयी खिलखिला कर हँस पड़ी। कानों से उँगली निकालकर अपनी उत्तेजना पर लज्जित होते हुए दिवाकर ने कहा, “सचमुच पाप है भाभी। वेद भी कभी मिथ्या हो सकते हैं? ये क्या बेकार के धर्मग्रन्थ हैं जिनमें लोग शिवोक्ति कहकर अपनी तरफ़ से दो-चार श्लोक और गढ़ी हुई दस कहानियाँ जोड़ देते हैं। वेद का मतलब ही साक्षात् सत्य है।”

सहसा एकदम गम्भीर हो गयी किरणमयी भी। बोली, “क्या मालूम देवर जी, मैंने तो जो उनसे सुना था, वही कहा। लेकिन तुमने भी तो अभी-अभी स्वीकार किया कि धर्मग्रन्थों में शिवोक्ति कहकर बहुत कुछ झूठा जोड़ा गया है।”

कुछ दिन पहले दिवाकर ने एक मासिक पत्रिका में पुराण सम्बन्धी समालोचना पढ़ी थी।

अतः मानते हुए बोला, “बहुत बुरी बात है, परन्तु धर्मग्रन्थों में प्रक्षिप्त अंश काफ़ी है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन झूठ ज़्यादा दिन नहीं चलता भाभी, पकड़ा जाता है।”

– “कैसे पकड़ा जाता है?” किरणमयी ने पूछा।

– “यह तो मुझे अच्छी तरह नहीं मालूम। पर जो मिथ्या है, उसकी बारीकी से आलोचना करते ही पण्डितों को पता चल जाता है कि कौन सा सत्य है, कौन सा मिथ्या; क्या असल है और क्या प्रक्षिप्त। लेकिन इस कारण आप वेद को सत्य न मानें, यह ठीक नहीं है।”

उपेन्द्र अब तक एक शब्द भी नहीं बोले थे। किरणमयी के क्रूर परिहासों का तात्पर्य न समझ पाकर चुप बैठे तर्क-वितर्क सुन रहे थे। उनकी ओर कटाक्ष फेंककर हँसी रोकते हुए गम्भीर बनकर किरणमयी ने दिवाकर से कहा, “देवर जी, मैंने एक धर्मशास्त्र में पढ़ा था कि एक ब्राह्मण का लड़का यम से मिलने गया। जब वह पहुँचा, यम घर पर नहीं थे, शायद ससुराल गये हुए थे। तीन दिन बाद लौटे तो घर के लोगों से पता चला कि लड़के ने तीन दिन से कुछ नहीं खाया-पिया था, उपवास था। एक तो ब्राह्मण और फिर अतिथि! यम बड़े दुःखी हुए। आखि़र में उससे बोले कि तुम तीन दिन के उपवास के बदले तीन वर ले लो। अच्छा” –

बात पूरी करने से पहले ही दिवाकर हो-हो करके हँस पड़ा। बोला, “यह कौन-सा उपन्यास शुरू कर दिया भाभी?”

सहज भाव से किरणमयी बोली, “मैंने तो जो पढ़ा था, वही बताया है। अच्छा, तुम्हें विश्वास है कि ऐसा हो सकता है?”

– “कभी नहीं, असम्भव!” ज़ोर देकर दिवाकर ने कहा।

– “असम्भव क्यों है? यह भी तो धर्मशास्त्र में ही लिखा है।”

– “यह प्रक्षिप्त है, गढ़ी हुई कहानी है।”

– “कैसे जाना कि कहान है?”

– “भाभी थोड़ी बहुत बुद्धि तो सभी में होती है, मैं ज़्यादा नहीं जानता, पर यह झूठी कहानी है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता।”

– “देवर जी, इसी प्रकार हर व्यक्ति अपनी विद्या-बुद्धि एवं अभिज्ञता द्वारा सत्य और मिथ्या तौलते हैं। इसके अलावा और कोई मानदण्ड नहीं है। परन्तु यह वस्तु सबके पास समान नहीं होती – तुम जिसे सत्य समझते हो मैं न मान पाऊँ तो मुझे दोष नहीं दिया जा सकता।”

– “बिल्कुल नहीं दिया जा सकता,” तत्क्षण दिवाकर ने कहा।

आगे किरणमयी ने कहा – “अब जब एक दूसरे से मेल न खाने पर किसी को दोष नहीं दिया जा सकता तो फिर जो चीज़ दोनों की बुद्धि व अभिज्ञता से बाहर की है, उसके सम्बन्ध में तो न जाने कितनी राय हो सकती है। लेकिन इसको लेकर हम लोगों में विरोध नहीं है। हम दोनों का ही ख़्याल है कि यह घटना हमारी समझ से बाहर है, इसलिए कहानी है, क्यों देवर जी?

किरणमयी उसे कहाँ ले जाना चाहती है, ठीक से न समझ पाकर दिवाकर ने संक्षेप में मान ‘हाँ’ कहा। फिर से हँस पड़ी किरणमयी। बोली, “ठीक है, ठीक है। पर मेरी इस कहानी का अन्तिम भाग तुम्हें अपने हाथ की उस किताब में ही मिलेगा।”

– “इस उपनिषाद् में?” आश्चर्य से दिवाकर ने पूछा।

उसी प्रकार कौतुक भरे स्वर में किरणमयी ने जवाब दिया, “तब तो तुम्हें इसका हर अक्षर आभ्रान्त सत्य नहीं लगेगा न?”

जवाब नहीं दे पाया दिवाकर। हतबुद्धि-सा बैठा रहा।

उपेन्द्र की ओर नजरें उठाकर किरणमयी ने पूछा, “तुम्हारी क्या राय है देवर जी?”

मुस्कुरा दिये उपेन्द्र, बोले नहीं कुछ।

अपने को सम्भालकर दिवाकर बोला, “लेकिन यह रूपक भी तो हो सकता है।”

– “हो सकता है। पर रूपक तो सच्ची घटना नहीं होता। हो सकता है वह किताब आरम्भ से अन्त तक पूरी मिथ्या न हो, किन्तु कितनी सत्य है, यह तो बुद्धि के तारतम्य के हिसाब से लेगा न हर कोई। इसलिए अगर तुम्हारी बुद्धि के अनुसार इसका बाहर आना सत्य है तो मेरी बुद्धि के हिसाब से पन्द्रह आने झूठ हो सकता है। इसमें भी मेरा तो कोई कसूर नहीं होगा देवर जी।

– दिवाकर हाथ की किताब को नीरव देखता रहा। किरणमयी की बातों से उसे दुःख हो रहा था। कुछ देर चुप रहकर बोला, “भाभी, आप जिसे मिथ्या बता रही हैं, हो सकता है उसका कोई गूढ़ उद्देश्य रहा हो। इसजिये – ”

“इसलिए – मिथ्या की अवतारणा? तुम जो अनुमान कर रहे हो, वह हो सकता है, यह मैं मान लेती हूँ। लेकिन तो भी वह अनुमान के सिवा और कुछ भी नहीं है। और अर्थ जो कुछ भी हो, मार्ग सन्मार्ग नहीं है। यह बात मान लेनी चाहिए कि मिथ्या से भुलावा डालकर सत्य का प्रचार नहीं होता। सत्य को सत्य की तरह बताना ही पड़ता है तभी मनुष्य बुद्धि के परिमाण में समझ पायेगा – आज नहीं तो कल समझ पायेगा। एक की समझ में न आये तो दूसरे की समझ में आयेगा। अगर समझ में न आये तो झूठ का सहारा लेकर रोचक बनाने के प्रयत्न से बढ़कर गलत और कुछ नहीं हो सकता। देवरजी, झूठ पाप है, लकिन सच को झूठ में जड़कर कहने जैसा पाप संसार में कम ही है।”

दिवाकर का मुँह उतर गया। वह चुपचाप बैठा रहा। उसके चेहरे को देखकर किरणमयी मन की बात समझ गयी। कोमल स्वर में बोली – “इसमें दुःखी होने की बात नहीं है देवरजी। जो सत्य है, उसे हमेशा हर परिस्थिति में ग्रहण करने का प्रयत्न करना, फिर उसमें वेद मिथ्या हो या शास्त्र। ये सत्य से बड़े नहीं है। जिद के कारण हो या ममता के कारण हो अथवा दीर्घकाल के संस्कार के कारण हो; आँख बन्द करके असत्य को सत्य मान कर विश्वास कर लेने में कोई पौरुष नहीं है।” एक क्षण चुप रहकर फिर बोली, “लेकिन ऐसा भी मत सोच लेना कि मैंने मिथ्या समझा है, इसीलिए वह मिथ्या हो गया। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि, सत्य मिथ्या जो भी हो, उसे बुद्धिपूर्वक सोच समझकर ग्रहण करना चाहिये। आँख बन्द करके किसी बात को मान लेने में कोई सार्थकता नहीं है। उससे ने तो उसका गौरव बढ़ता है और न ही तुम्हारा।”

कुछ सोचकर दिवाकर ने पूछा, “अच्छा भाभी, जो वस्तु बुद्धि के बाहर हो, उसके सम्बन्ध में सत्य मिथ्या का निर्णय कैसे करेंगी?”

तुरन्त उत्तर देते हुए किरणमयी ने कहा, “कोई निर्णय नहीं करूँगी। जो बुद्धि के बाहर होगी उसका त्याग कर दूँगी। मुँह से अव्यक्त, अबोध, अज्ञेय कहकर, व्यवहार में उसी को जानने, कहने की चेष्टा कभी नहीं करूँगी और जो करेंगे, उन्हें भी बर्दाश्त नहीं करूँगी। तुमने यह सारी किताबें नहीं पढ़ीं देवर जी, पढ़ोगे तो देखोगे कि सर्वत्र यही चेष्टा और यही जिद है। जहाँ देखो ज़ोर ज़बर्दस्ती। जिस मुँह से एक बार कहा कि समझा नहीं जा सकता, उसी मुँह से ज़रा आगे ऐसी बातें कही हैं जैसे अभी सब कुछ अपनी आँखों से देखकर आ रहे हों। जिसकी किसी भी तरह उपलब्धि न हो पाने की बात कही है, उसी की उपलब्धि के लिए पन्ने पर पन्ने रंग डाले हैं, पोथी पर पोथी लिख डाली हैं, क्यों? जिस मनुष्य ने जीवन में कभी लाल रंग नहीं देखा, उसे क्या मुँह से समझाया जा सकता है कि लाल क्या है? और न समझने पर, न मानने पर, क्रोध, शाप और भय दिखाने की सीमा नहीं रहती। बस बड़ी-बड़ी बातों के दाँव-पेंच। निर्गुण निराकार, निर्लिप्त, निर्विकार, कोरी बातें है सब, कोई मतलब नहीं है इनका। और अगर कोई अर्थ है तो बस इतना कि जिन्होंने यह सारी बातें आविष्कृत की है, प्रकारान्तर में उन्होंने ही कहा है कि इस विषय में किसी को रंचमात्र चिन्ता नहीं करनी चाहिये – सब निष्फल है, निरर्थक श्रम है।”

दिवाकर बड़ी देर तक मौन रहा। उसके बाद उसने धीरे-धीरे कहा, “भाभी, आप आत्मा को नहीं मानतीं?”

“नहीं।”

“क्यों?”

“झूठी बात होने के कारण। इसके अतिरिक्त ऐसा दम्भ मुझे नहीं है कि सब कुछ का नाश हो जायेगा, केवल मेरे इस महामूल्य ‘मैं’ का किसी दिन ध्वंस न होगा, ऐसी कामना भी मैं नहीं करती कि मेरा यह ‘मैं’ बचा रहे।”

“अच्छा, ईश्वर! उनको भी क्या आप स्वीकार नहीं करतीं?”

किरणमयी ने हँसकर कहा, “इतना डरकर क्यों कह रहें हो बबुआजी? इसमें डर की बात कुछ भी नहीं है। नहीं, मैं अस्वीकार भी नहीं करती।”

प्रगाढ़ अन्धकार में प्रकाश की क्षीण रेखा दिखायी पड़ी। उसने पूछा – “आप उस बारे में क्या सोचती है?”

किरणमयी ने कहा – जिस वस्तु को अज्ञेय मान लिया, उसके बारे में सोचा नहीं जाता। मैं सोचती भी नहीं। वस्तुतः तो अचिन्तनीय की चिन्ता कैसे कर सकती हूँ? इसलिए

असम्भव को सम्भव बनाने का कभी प्रयत्न नहीं करती। किसी चीज़ को बढ़ाकर बड़ा बनाया जा सकता है, बढ़ाने से वह और बड़ा बन सकता है – यह भी जानती हूँ – लेकिन उसे खींच-तानकर अनन्त बनाया जा सकता है – ऐसी गलती मैं नहीं करती।”

“तो क्या उनको सोचा भी नहीं जाता?”

“सोचा जाता है बबुआजी, छोटा बनाकर सोचा जाता है। मनुष्य के दोष-गुण को एक में मिलाकर, छोटा-मोटा देवता मानकर, निरक्षर लोग जिस तरह भक्ति-भाव से सोचते हैं, उसी तरह केवल सोचा जाता है। नहीं तो ज्ञान के अभिमान से ब्रह्म बनाकर जो लोग सोचना चाहते हैं वे केवल अपने को धोखा देते हैं। लकिन आज और नहीं, ये सब बातें किसी दूसरे दिन होंगी।” उपेन्द्र के मुँह की ओर देखकर हँसते हुए मुख से बोली, “लेकिन बबुआजी, बड़े सयाने हो। हम लोगों ने झोंक में आकर तर्क-वितर्क किया और तुमने अपने को बिल्कुल ही बचा रखा। मैं जानती हूँ, तुम सब कुछ जानते हो, लेकिन मन की एक बात भी तुमने किसी को जानने न दी।”

उपेन्द्र हँस पड़े। उन्होंने कहा, “नहीं भाभी, मैं इस सम्बन्ध में बिल्कुल ही महामूर्ख हूँ। मैं स्तम्भित होकर केवल आप ही की बातें सुन रहा था।”

किरणमयी ने हँसकर कहा, “व्यंग्य कर रहे हो बबुआजी?”

“नहीं भाभी, सच्ची बात ही कर रहा हूँ। लेकिन सोचता हूँ अपनी इस थोड़ी-सी उम्र में आप इतना कब पढ़ गयी, इतना सोचा भी कब!”

प्रशंसा सुनकर किरणमयी का अन्तःकरण, आनन्द से, गर्व से उच्छवसित हो उठा। लेकिन उसका दमन करके विनय के साथ उसने कहा, “नहीं – नहीं, यह बात मत कहो बबुआजी, मैं भी महामूर्ख हूँ, कुछ भी नहीं जानती। केवल इतना ही अवश्य जान गयी हूँ कि, कुछ जान लेने का उपाय नहीं है, इसीलिए इन सब शास्त्रों की दम्भपूर्ण युक्ति देखने से ही मेरे शरीर में आग लग जाती है – किसी प्रकार भी अपने-आपको फिर सम्भलकर नहीं रख सकती। बस यही ख़्याल रहता है कि तुम भी नहीं जानते, मैं भी नहीं जाती। फिर इतना विधि-निषेध इतना झूठ क्यों? सारी बातों में भगवान उनके माध्यम से काम करते हैं, यह दम्भ भरा अनुशासन? सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते भगवान की दुहाई और धर्म का डर! क्यों कोई तुम कहो वैसे उठे, वैसे बैठे। और उस पर हिम्मत यह कि कहीं किसी चीज़ का कारण तक बताने की ज़रूरत नहीं समझी। बस केवल ज़बर्दस्ती। ऐसा करोगे तो हत्या का पाप लगेगा, वैसा करोगे तो ब्रह्महत्या का पाप लगेगा, तुम नष्ट हो जाओगे, तुम्हारी चौदह पीढ़ी नरक में जायेंगी। अरे भई, क्यों जायेंगी? किसने कहा है तुमसे? श्रुति, स्मृति, तंत्र, पुराण हर एक में यही भय और ज़बर्दस्ती। इतना सब कैसे सहा जा सकता है, बबुआजी?”

उपेन्द्र मौन रहे लेकिन दिवाकर ने अपनी अन्तिम चेष्टा करके कहा, “लेकिन यह ज़ोर सम्भवतः हमारे कल्यण के ही निमित्त उन्होंने प्रकट किया है।”

किरणमयी जल उठी, बोली, “इतनी भलाई की आवश्यकता नहीं है बबुआजी! मानो वे ही लोग केवल मनुष्य बनकर देशभर के पशु-दल को लाठी की ठोकर से अच्छे मार्ग में खदेड़ देने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। अपनी भलाई कौन नहीं चाहता। समझाकर कहो, भाई इसमें तुम्हारी भलाई है, इसलिए यह सब विधि-निषेध बना दिया है। मुझे भी तो समझने देना चाहिए, क्यों इस मार्ग से ही मेरा मंगल है, इससे तो इतना आँख लाल करने, इतने झूठे उपन्यास लिखने की आवश्यकता नहीं पड़ती।” कहते-कहते उसके भीतर का क्रोध स्पष्ट हो उठा।

उपेन्द्र को अचानक प्रथम रात्रि की बात स्मरण हो गयी। यह है वही मूर्ति। पिंजरे में बन्द जंगली पशु का वह मर्मभेदी गर्जन! लेकिन क्या चाहती है यह? किसके विरुद्ध इसका इतना रोष है? शास्त्र और शास्त्रकार की किस जंजीर को तोड़ कर यह विधवा मुक्ति-प्रार्थना कर रही है?

उसको शान्त करने के अभिप्राय से उपेन्द्र ने सविनय हँसी के साथ कहा, “हम दोनों तो आपकी बातों का उत्तर न दे सके भाभी, लेकिन एक व्यक्ति है – जिसके सामने आपको भी तर्क में हारकर आना पड़ेगा, यह मैं कहे देता हूँ।”

किरणमयी अपनी उत्तेजना स्वयं ही समझकर अन्त में मन ही मन लज्जित हो गयी।

उसने भी हँसकर कहा, “ऐसा कौन है, बताओ तो बबुआजी?”

उपेन्द्र ने गम्भीर होकर कहा, “आप परिहास मत समझियेगा। सच ही कहता हूँ, उसको जीत पाना कठिन है। उसका पढ़ना-लिखना ज़्यादा हुआ हो ऐसी बात नहीं लेकिन उसकी तर्क-बुद्धि अति सूक्ष्म है। वह भी इन सब पर विश्वास रखती है – उसको निरुत्तर बनाकर आप आ सकें तभी समझूँगा!”

किरणमयी ने उत्साहित होकर कहा, “भले ही मैं न कर सकूँ, लेकिन सीख कर भी तो आ सकूँगी?” हँसकर उसने कहा, “वह कौन हैं बबुआजी, हमारी छोटी बहू तो नहीं!” उपेन्द्र हँसने लगे। बोले, “वही वास्तव में भाभी, उसकी विचारशक्ति अद्भुत है। तर्क-बुद्धि देखकर समय-असमय पर मैं सचमुच ही मुग्ध हो जाता हूँ। मैं क्या उत्तर दूँगा, क्या प्रश्न करूँगा, यह मानो मैं ढूँढ़कर पाता ही नहीं। हतबुद्धि होकर बैठा रहता हूँ।”

उपेन्द्र के मुँह से सुरबाला की इस प्रशंसा से किरणमयी के मुख की दीप्ति बुझ गयी। फिर भी, इसमें भाग लेने की उसने इच्छा की। लेकिन इसी की वेदना से समूचे अंग को घेरकर मानो गले को जकड़कर पकड़ लिया। एकाएक वह बात न कह सकी।”

लेकिन, उपेन्द्र ने इसे लक्ष्य नहीं किया। उन्होंने पूछा, “उसके साथ सम्भवतः किसी दिन इस विषय पर आपकी आलोचना नहीं हुई है?”

किरणमयी ने गरदन हिलाकर कहा, “नहीं। केवल दो ही दिन तो वह यहाँ आयी थी। वह भी ऐसे समय में नहीं कि कोई बातचीत हो सकती! चलो न, बबुआजी, आज एक बार तुम्हारे तर्कवीर को देख आऊँ।”

उपेन्द्र हँसने लगे। उन्होंने कहा, “नहीं भाभी, वह तार्किक बिल्कुल ही नहीं है। वस्तुतः इस विषय के सिवा वह तर्क करती ही नहीं – जो आप कहेंगी उसी को वह मान लेगी।

तीन दिन के बाद वह घर लौट जायेगी – अनुमति दें तो यहीं उसे ले आऊँ।”

किरणमयी ने त्रस्त होकर कहा, “नहीं बबुआजी, नहीं। यहाँ लाकर उसको मैं कष्ट देना नहीं चाहती। वह जिस दिन कष्ट स्वीकार करके आयी थी, वह मेरे लिए अहोभाग्य था। मुझे तुम ले चलो, मैं चलूँगी। अच्छा, एक बात मैं पूछती हूँ बबुआजी, इतना बड़ा तार्किक गुरु रहते हुए भी तुम दोनों भाई मेरी बातों का उत्तर क्यों न दे सके?”

इन बातों को किरणमयी ने सरल परिहास के रूप में ही कहना चाहा, लेकिन वेदना के बोझ से अन्तिम बातें भारी होकर प्रकट हो गयी।

दिवाकर चुप हो रहा। उपेन्द्र ने कहा, “नहीं भाभी, उसकी वे सब युक्तियाँ सीखी नहीं जातीं। कितनी ही बार तो उन्हें सुन चुका हूँ, किसी प्रकार भी उनको समझ नहीं सका। जो लोग भगवान को मानते हैं, वे कहेंगे, उनके ही दाहिने हाथ का सर्वश्रेष्ठ दान हैं। सच कहता हूँ भाभी, अनेक बार मुझे ईर्ष्या हुई है कि इसके सहस्र भागों का एक भाग भी यदि मैं पा जाता, तो उस दशा में धन्य हो जाता!”

किरणमयी ठीक समझ न सकी कि वह क्या है! तो भी उसका सम्पूर्ण मुख काला पड़ गया और इसको उसने स्वयं ही स्पष्ट करके किसी तरह एक छोटी-सी सूखी हँसी से सामने के इन दो पुरुषों के दृष्टिमार्ग से अपने आपको ढक लेना चाहा। लेकिन किसी प्रकार भी उसके मुँह पर हँसी नहीं फूटी।

एकाएक वह सीधी होकर खड़ी हो गयी। बोली, “चलो बबुआजी, आज ही मैं उसके साथ भेंट करके आऊँगी। तुमको भी जिसके लिए ईर्ष्या होती है, वह दुर्लभ वस्तु क्या है उसको देखे बिना मैं किसी प्रकार भी चैन न पाऊँगी।”

उसके आग्रह की अधिकता देखकर उपेन्द्र किसी प्रकार भी फिर हँसी को दबाकर न रख सके। किरणमयी ईर्ष्या से इतनी आच्छन्न न हो गयी होती तो उनकी इतनी देर की छिपी हुई गम्भीरता पलभर में पकड़ ले सकती थी। लेकिन उस ओर उसकी दृष्टि ही नहीं थी।

उसने कहा, “नहीं बबुआजी, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मुझे ले चलो।”

उपेन्द्र घबराकर दोनों हाथों से माथा छूकर कहा, “छिः! छिः! ऐसी बात मुँह से आप मत निकालिये, भाभी। आप उम्र में छोटी होने पर भी मेरी पूजनीया हैं। अच्छी बात तो है, मौसी वापस आ जायें, चलिए, आज ही आपको ले चलूँगा।”

छब्बीस

प्रायः अपराह्न किरणमयी ज्योतिष बाबू के घर में जाकर उपस्थित हुई। मोटी साड़ी पहिने हुए थी। शरीर पर गहनों का चिद्द भी नहीं था। लम्बी रूखी केशराशि बिखरी हुई सिर पर लपेट दी गयी थी। उसके नेत्रों में शान्त उदास दृष्टि थी। मानो वैधव्य का अलौकिक ऐश्वर्य उसके सर्वांग को घेरकर मूर्तिमान हो रहा था। उस मुँह की ओर देखने से ही आँखें मानो आप ही उसके पैरों में बिछ जाती थीं। सरोजिनी बाहर के बरामदे में एक कुर्सी पर बैठकर पुस्तक पढ़ रही थी, दृष्टि उठाकर अकस्मात् वह आश्चर्यजनक रूप देखकर बिल्कुल ही विह्नल हो उठी। उसने किरणमयी को कभी देखा नहीं था। उसका नाम और उसके सौन्दर्य के विषय में सुरबाला के मुँह से सुन भर लिया था। लेकिन वह सौन्दर्य ऐसा है, इसकी कल्पना भी उसने नहीं की थी।

उपेन्द्र ने उसका परिचय दिया, “यह हम लोगों की भाभीजी – सरोजिनी।”

सरोजिनी ने निकट आकर नमस्ते किया।

किरणमयी ने उसका हाथ पकड़कर हँसकर कहा, “तुम्हरा नाम मैंने सबके मुख से सुना है। बहिन, इसलिए आज एक बार नेत्रों से देख लेने के लिए चली आयी हूँ।”

प्रत्युत्तर में सरोजिनी को क्या कहना चाहिए यह समझ न सकी। अपरिचित नर-नारियों के साथ मिलने-जुलने, वार्तालाप करने में बचपन से वह शिक्षित और अभ्यस्त है, लेकिन इस आश्चर्यजनक विधवा नारी के सामने वह चकित रह गयी।

किरणमयी ने उपेन्द्र की ओर एक बार घूमकर देखा। बोली, “लेकिन आज तो समय नहीं है। अधिक देर तक ठहरने का समय न होगा – बबुआजी, एक बार छोटी बहू के कमरे में चलकर बैठें।” यह कहकर उसने सरोजिनी की हथेली को ज़रा-सा दबाकर संकेत किया।

लेकिन जिस आवेश में पड़कर किरणमयी आज इस असमय में सुरबाला से भेंट करने आयी थी, उस उत्तेजना का कारण उससे अब छिपा नहीं रहा था। मार्ग में आते उसे अनेक बार यह ध्यान आया था, उसके साथ केवल दो ही दिनों का परिचय है, इस सुरबाला का विश्वास, और उसकी विद्या-बुद्धि जो भी हो, अकारण ही उसके घर पर धावा बोल देने जैसा अद्भुत हास्पास्पद कार्य और कुछ भी हो नहीं सकता। इसीलिए लौट जाना ही उचित है, इसमें भी उसे सन्देह नहीं था। फिर भी किसी तरह लौट न सकी। किसी ने मानो खींचकर उसे उपस्थित कर दिया। अन्याय! असंगत। यह बात भी उसने मन ही मन बार-बार कही। लेकिन अपनी भार्या के जिस अमूल्य ऐश्वर्य को उपेन्द्र ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ वरदान कहकर स्वीकार करने में लज्जित नहीं हुए, वह कुछ भी नहीं है, उसको वह क्षणभर में परास्त ओर टुकड़े-टुकड़े करके उसी के नेत्रों के आगे तिनके की भाँति उड़ा दे सकती है, इसको प्रमाणित करने की अदम्य आकांक्षा उसकी छाती के अन्दर प्रतिहिंसा की भाँति सुलग रही थी। किसी प्रकार भी वह इसको रोक नहीं सकी। फिर भी, आरम्भ से ही उसको यह खटका लगा हुआ था कि सतीश से उपेन्द्र का जो परिचय उसे मिला था, उससे उसका मन बार-बार कह रहा था, इच्छा करने से उपेन्द्र उत्तर दे सकते थे। लेकिन उन्होंने बात नहीं कही, वह केवल मुस्कराते रहे। क्यों? किसलिए? यह क्या केवल सुरबाला के पास ले जाकर उसको एकदम तुच्छ-हीन बना देने के लिए? लेकिन सुरबाला यदि कोई उत्तर न दे? पति की भाँति यों ही मुँह दबाकर हँस कर चुप रह जाये? किस प्रकार वह अपनी विजय-पताका फहरा सकेगी?

इस प्रकार विचार करते-करते जब उसने सरोजिनी के पीछे-पीछे सुरबाला के कमरे में प्रवेश किया, तब फ़र्श पर बैठकर काशीदासी महाभारत में भीष्म जी की शरशय्या पढ़कर सुरबाला रो-रोकर व्याकुल हो उठी थी। एकाएक किरणमयी को देखकर उसने घबराहट के साथ पुस्तक बन्द करके आँखें पोंछ डालीं और उठकर खड़ी होकर उसके दोनों हाथ पकड़कर परम आदर से कहा, “आओ बहिन!” वहीं चटाई पर उसे बिठाकर बोली, “मैंने कल तुम्हारे यहाँ जाने का विचार किया था बहिन!”

किरणमयी ने कहा, “मैं भी इसीलिए आज आ गयी बहन।”

उपेन्द्र निकट ही एक कुर्सी खींचकर बैठते हुए बोले, “रोना चल रहा था – सम्भवतः वह महा भारत है?”

सुरबाला लज्जा से आँचल के छोर से अपनी दोनों आँखें लगातार पोंछने लगी।

उपेन्द्र ने कहा, “क्यों तुम उस झूठी रद्दी पुस्तक को लेकर प्रायः समय नष्ट करती हो, यह मैं समझ नहीं पाता। ऊपर से रोना-धोना आँखों के आँसू…।” बात समाप्त नहीं हुई।

सुरबाला आँखें पोंछना भूलकर क्रुद्ध होकर बोल उठी, “सैकड़ों बार तुम यह क्या कहते रहते हो कि…।”

उपेन्द्र ने कहा, “कहता हूँ कि यह एकदम झूठ है। और कुछ नहीं कहता।”

इन सब विषयों में उसको रुष्ट करने में अधिक देर न लगती थी। उसने अपने रुष्ट लाल दोनों नेत्रों को पति के मुँह की ओर स्थिर करके कहा, “महाभारत झूठ है? ऐसी बात तुम कभी मुँह से मत निकालो। यह तमाशा नहीं है – इससे पाप होता है, यह जानते हो?” उपेन्द्र ने कहा, “जानता हूँ, कुछ भी नहीं होता। अच्छा इनसे पूछो, ये भी विश्वास नहीं करतीं।”

इस बार सुरबाला किरणमयी के मुँह की ओर देखकर हँस पड़ी। बोली, “सुनती हो बहिन! कहते हैं, तुम महाभारत में विश्वास नहीं करतीं? इनकी ऐसी ही बातें होती हैं! कुछ भी कहते रहते हैं।”

किरणमयी मौन रही। पति-पत्नी के इस अद्भुत वितण्डावाद का अर्थ वह समझ न सकी। उसको लगा कि यह एक अभिनय है, और उसी को लक्ष्य करके आड़ में कोई एक रहस्य छिपा हुआ है।

उपेन्द्र ने सरोजिनी से पूछा, ‘अच्छा आप महाभारत की कहानियाँ सच्ची समझती हैं?’ सरलभाव से सरोजिनी ने जवाब दिया – ‘कुछ सच्चाई तो अवश्य होगी। पूरी की पूरी तो कोई भी सच नहीं मानता, मैं भी नहीं मानती।

शुरू में तो सुरबाला यह सुनकर आश्चर्य में पड़ गयी, फिर मज़ाक समझ उड़ा दी। लेकिन सरोजिनी की और दो-चार बातों तथा उपेन्द्र के व्यंग्य-विद्रूप भरे तानों से और भी विस्मित व क्रुद्ध हो उठी। देखते-देखते तीनों में ज़ोर की बहस छिड़ गयी। लेकिन किरणमयी एक शब्द भी नहीं बोली थी। लेकिन सब वाद-विवाद परिहास के अतिरिक्त और भी कुछ हो सकता है, यह वह सोच न सकी। जिसके साथ दर्शन पर वह तर्क करने आयी है, वह जब समस्त महाभारत को ही अखण्ड सत्य कहकर प्रमाणित करने को कमर बाँधकर बैठी हुई है, तब ऐसी अचिन्तनीय बात को सत्य कहकर वह किस प्रकार अपने मन में ग्रहण करेगी। इधर तर्क और बातों की काट-छाँट लगातार चलने लगी? लेकिन किरणमयी केवल तीक्ष्ण दृष्टि से सुरबाला की ओर मौन होकर निहारती रही। देखते-देखते उसके सन्देह का नशा भाप की तरह लुप्त हो गया। उसने देखा, सुरबाला के कण्ठ-स्वर, नेत्रों की दृष्टि, समूचे चेहरे, यहाँ तक कि सर्वांग से संशयहीन दृढ़ विश्वास मानो फूट रहा है। वह विपुल विराट ग्रन्थ उसके लिए प्रत्यक्ष सत्य है। यह तो परिहास नहीं है, यह मानो सजीव विश्वास है। उसके बाद कुछ क्षण के लिए कौन क्या कहता है, उस ओर उसका ध्यान नहीं रहा। वह मानो अभिभूत की भाँति इस सुरबाला के अन्दर अपरिचित भाव की धुँधली आकृति देखने लगी। यह एक अपूर्व दृश्य था।

लेकिन, इस तरह वह कब तक रहती कहा नहीं जा सकता। सहसा वह उपेन्द्र और सरोजिनी की सम्मिलित ऊँची हँसी के स्वर से अपने में लौट आयी। उसने देखा हँसी से सुरबाला चकरा गयी है। वह बेचारी अकेली थी। इसीलिए किरणमयी को हठात् मध्यस्थ मानकर क्षुब्ध स्वरसे कहा, “अच्छा बहिन, यह क्या कभी असत्य हो सकता है?”

उपेन्द्र ने किरणमयी से कहा, “भाभी, तर्क यह है कि भीष्म की शरशय्या के समय अर्जुन बाणों से पृथ्वी को विदीर्ण करके गंगाजी को ले आये थे, यह बात झूठ है। वे कभी नहीं लाये।”

सुरबाला ने पति के मुँह की ओर तीव्र दृष्टिपात करके कहा, “यदि नहीं लाये तो सुनो। कहती हूँ, भीष्म जी ने शरशय्या पर लेटकर पानी पीना चाहा, दुर्योधन सोने के पात्र में जल ले आये, उन्होंने नहीं पिया यह तो असत्य नहीं है। गंगा यदि नहीं आयी तो उनकी प्यास मिटी कैसे?”

सरोजिनी यह सुनकर चुप न रह सकी। बोली, “कैसे! यदि प्यास मिट गयी तो वह उनके उसी सुवर्ण पात्र के जल से ही। उन्होंने दुर्योधन के उसी सुवर्णपात्र का जल पिया था।”

इस बार सुरबाला ने अत्यन्त उत्तेजित और रुष्ट होकर कहा, “तो क्यों लिखा है कि पिया नहीं? और यदि सोने के पात्र का जल ही उन्हें पीना था, तो उस दशा में अर्जुन को इतना कष्ट उठाकर बाण द्वारा पृथ्वी को विदीर्ण करके गंगा लाने की क्या आवश्यकता पड़ी थी। यह बताओ, बहिन तुम ही बताओ, यह तो किसी प्रकार भी असत्य नहीं हो सकता?” यह कहकर उसने क्रुद्ध लेकिन करुण नेत्रों से किरणमयी को देखा। क्षणभर उपेन्द्र की ऊँची हँसी से कमरा भर गया। सरोजिनी खिलखिलाकर हँस पड़ी।

उपेन्द्र ने कहा, “लीजिये भाभी, उत्तर दीजिये। गंगाजी यदि नहीं आयीं तो प्यास मिटी कैसे? और जब प्यास मिट गयी जब गंगाजी आयेंगी क्यों नहीं?” यह कहकर फिर एक बार ठहाका मारकर हँस पड़े।

लेकिन आश्चर्य की बात यह हुई कि किरणमयी इस हँसी में सम्मिलित न हो सकी।

वह विस्मित नेत्रों से सुरबाला के मुँह की ओर देखती हुई स्थिर हो रही। उसके बाद अकस्मात विपुल आवेग से उसको छाती में खींचकर चुपके से बोली, “झूठ नहीं है बहिन, कहीं भी, इसमें तनिक भी झूठ नहीं है। गंगाजी तो आयी थीं। तुमने जो समझा है, जो पढ़ा है, सब सत्य है। सत्य को तो सभी पहचान नहीं सकते बहिन, इसलिए परिहास करते हैं।” यह कहते-कहते उसकी दोनों आँखें आँसुओं से भर गयी।

सरोजिनी और उपेन्द्र दोनों ही आश्चर्य से उसके मुँह की ओर ताकते रहे। पर किरणमयी ने उस ओर एक बार भी न देखा। उसको उसी तरह छाती में दबाये आँखें पोंछकर धीरे-धीरे बोली, “बहिन, जो लोग अनेक धर्म-ग्रन्थ पढ़ चुके हैं, वे जानते हैं, आज तुमने जिस तरह सिद्ध कर दिया, इससे अधिक विचार किसी धर्म-ग्रन्थ में कोई पण्डित किसी दिन कर नहीं सके हैं – उन सभी लोगों को इसी प्रकार अपने मन की बातें कहनी पड़ी हैं। यह बात जो जानता है, उसमें सामथ्र्य नहीं है कि आज तुम्हारे मुँह की इन थोड़ी-सी बातों को सुनकर हँसे। यह कहकर उसको छोड़कर सरोजिनी की ओर देखकर बोली, “क्यों बहिन, तुम क्या मेरा विचार-व्यवहार देखकर आश्चर्य में पड़ गयी हो! पड़ने की बात ही है।” कहकर वह मुस्करा उठी।

लेकिन सबसे अधिक आश्चर्यचकित हो गया था उपेन्द्र। वस्तुतः किरणमयी के इस अद्भुत भाव-परिवर्तन का कारण वह बिल्कुल ही समझ न सका था। जिसने, अभी कुछ ही क्षण पहले स्पष्ट रूप से कहा था – बुद्धि के अतिरिक्त किसी दूसरे तुलादण्ड की वह परवाह नहीं करती और जो वस्तु इसके बाहर है उन्हें अन्दर प्रवेश कराने की कुछ भी आवश्यकता अनुभव नहीं करती, वह इस अत्यन्त सरलता और लड़कपन से किस तरह विचलित हो गयी! उसको छाती में खींचकर जो बातें इसने अभी कही हैं, यह तो मन रखने की बात नहीं है। इसके अतिरिक्त किरणमयी अवश्य ही जानती है कि उसने जो कुछ कहा है, उसका यथार्थ तात्पर्य हृदयंगम करना सुरबाला के सामर्थ में नहीं है। फिर उसकी आँखों में अकस्मात आँसू उमड़ आना सबसे आश्चर्यजनक है। वे कैसे आ गये? इसके अतिरिक्त एक बात और थी, उपेन्द्र निःसन्देह जानता था कि इस प्रकार तीक्ष्ण बुद्धि के स्त्री-पुरुष किसी भी अवस्था में आवेग प्रकट करना पसन्द नहीं करते। किसी तरह प्रकट हो जाने पर उनकी लज्जा की सीमा नहीं रहती। लेकिन, तनिक-सी लज्जा भी उसने अपने व्यवहार से अनुभव की हो, यह लक्षण तो सम्पूर्ण अपरिचिता सरोजिनी को भी दिखायी नहीं पड़ा। संध्या हो गयी। किरणमयी सबसे विदा होकर धीरे-धीरे गाड़ी पर जा बैठी।

दिवाकर घर में नहीं था, संध्या को घूमने के लिए बाहर चला गया था। इसलिए इधर-उधर देखकर उपेन्द्र को अकेले ही अन्दर जा बैठना पड़ा। लेकिन किरणमयी ने फिर मानो उसको देखा ही नहीं। गाड़ी के एक कोने में माथा रखकर वह मौन हो रही।

कुछ समय बीत गया। इस तरह चुपचाप बैठे रहना भी अरुचिकर था। इसके अतिरिक्त उपेन्द्र अवश्य ही समझ रहे थे कि किरणमयी कुछ सोच रही है। लेकिन क्या सोच रही है, इसी की परीक्षा करने के लिए उन्होंने कहा, “देख आयी न। इसी बुद्धिमती को लेकर मुझे गृहस्थी चलानी पड़ती है। लेकिन यों ही तो उससे पार पाने का उपाय नहीं है, उस पर आप आज परिहास करके जो प्रमाण-पत्र दे आयी उससे तो अब उसके पास तक पहुँचा ही न जायेगा।”

किरणमयी ने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करके उपेन्द्र ने हँसकर कहा, “किन्तु यहाँ ही इसका अन्त नहीं है भाभी। ऐसी महामूर्ख है कि जन्म से लेकर आज तक कभी झूठी बात बोल ही नहीं सकती।”

किरणमयी पूर्ववत् मौन ही रही।

उपेन्द्र ने कहा, “क्यों नहीं बोल सकती, जानती हो? पहले तो तैंतीस करोड़ देवी-देवता उसको चारों ओर से घेरकर पहरा दे रहे हैं, इसके अतिरिक्त, जो घटना हुई नहीं है, उसको अपनी बुद्धि-व्यय से कुछ अनुमान करने की शक्ति भी उसमें नहीं है।”

किरणमयी ने रुँधे स्वर से कहा, “अच्छा ही तो है।”

उपेन्द्र ने कहा, “यही अच्छी बात है, मैं ऐसा नहीं समझता। गृहस्थी को चलाने के लिए एकाध झूठ का आश्रय लेना ही पड़ता है। जिससे किसी को कोई हानि नहीं है बल्कि किसी अशान्ति या उपद्रव से मुक्ति मिलती है, वैसी झूठी बात में दोष ही क्या है। मैं कहता हूँ, वह अच्छा ही है।”

“अच्छा तो है, पर यह बात आप सिखा नहीं सकते?”

“सीखेगी किस तरह भाभी? एक अत्यन्त छोटी-सी झूठी बात के लिए युधिष्ठिर की दुर्गति हुई थी यह तो महाभारत में ही लिखा हुआ है। देवी-देवता लोग जिस तरह मुँह बाये उसकी ओर देखते हुए बैठे हुए हैं, उस दशा में जान-बूझकर झूठी बात बोलने से फिर क्या उसकी रक्षा होगी। वे लोग उसे घसीटकर नरक में डुबो देंगे।” फिर थोड़ा-सा रुककर बोले, “भाभी, देवी-देवताओं का स्वरूप वह आँखें बन्द करके इतना स्पष्ट देख पाती है कि वह एक आश्चर्यजनक बात है। कोई ढाल-तलवार लेकर कोई शंख-चक्र-गदा-पद्म लेकर, कोई बाँसुरी हाथ में लेकर प्रत्यक्ष रूप से उसके आगे आ खड़े होते हैं। यह सुनकर तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। और किसी के मुँह से मैं ऐसा सुनता तो मैं झूठी मनगढ़न्त कहानी कहकर हँसकर उड़ा देता। लेकिन उसके सम्बन्ध में यह शिकायत तो मुँह से निकालने का उपाय ही नहीं है। यह कहकर श्रद्धा, प्रेम और गर्व से पुलकित होकर उपेन्द्र ने स्नेहपूर्ण कौतुक के स्वर से कहा, “इसीलिए यही सब देख-सुनकर उसे मनुष्य न कहकर जानवर कह देने से भी काम चल सकता है, क्यों भाभी? बलिहारी है उसकी बुद्धि की। जिन्होंने बचपन में इसका नाम पशुराज रखा था – क्या हुआ, भाभीजी?”

गाड़ी के मोड़ पर घूमते ही मार्ग में उज्जवल गैस का प्रकाश एकाएक किरणमयी के मुख पर आ पड़ने से उपेन्द्र ने चौंककर देखा उसका समूचा मुख आँसू से भीगता जा रहा है।

उपेन्द्र लज्जा से स्तब्ध होकर मुँह झुकाये बैठे रह। अनजाने में जहाँ वह आनन्द के माधुर्य से निमग्न होकर स्नेह से, सम्भ्रम से परिहास पर परिहास करता जा रहा था, वहीं ठीक उसी के मुँह के सामने बैठकर वह किस बात की वेदना से रोती हुई वक्ष विदीर्ण कर रही थी, यह बात अब तक उन्हें ज्ञात न हो सकी।

पाथुरियाघाट के मकान पर दोनों जब पहुँचे तब रात एक पहर बीत चुकी थी। प्रायः पूरे रास्ते में किरणमयी चुप ही रही लेकिन अन्दर कदम रखकर तुरन्त ही अनुतप्त स्वर में बोल उठी, “हाय मेरा फूटा भाग्य! केवल साथ लेकर घूम ही तो रही हूँ। लेकिन एक बूँद पानी पीने को भी तुमको नहीं मिला बबुआ, वह इस अभागिनी की दृष्टि में पड़ी नहीं। हाथ-मुँह धोओगे? अच्छा, रहने दो। मेरे साथ रसोईघर में चलो, दो पूड़ियाँ पका देने में दस मिनट से अधिक समय न लगेगा। तू चूल्हे में ईंधन जलाकर घर जाना दाई! जा तो झटपट जा! तू रानी माँ है।”

नौकरानी दरवाज़ा खोलने आयी थी और इधर से घर जाने की इच्छा थी। लेकिन आदेश पालन करने के लिए ऊपर जाना पड़ा। मुख्य द्वार बन्द करके वह द्रुतपद से चली गयी। लेकिन पूड़ी पकाने के इस प्रस्ताव से उपेन्द्र अत्यन्त घबरा उठे। उन्होंने तीव्र प्रतिवाद करके कहा, “यह किसी प्रकार नहीं हो सकता, भाभी! आज आप बहुत ही थक गयी हैं। मैं लौट जाने पर ही खाऊँगा। अपने लिए आपको व्यर्थ कष्ट उठाने न दूँगा।”

“नहीं क्यों?”

उपेन्द्र ने कहा – “नहीं, यह हो ही नहीं सकता – किसी सूरत से भी।

मुस्कराते हुए किरणमयी बोली, “तुम यश के बड़े भूखे हो देवर जी! इतना यश लेकर कहाँ रक्खोगे?”

अचानक इस तरह का मन्तव्य सुनकर विस्मित हो गये उपेन्द्र।

किरणमयी बोली, “हाँ, यही तो है देवर जी! तुम चाहते हो कि तुम्हारा परोपकार इतना निर्लिप्त, इतना निःस्वार्थपरक हो कि स्वर्ग-मत्र्य कहीं भी उसकी जोड़ का न मिले। हम लोगों के लिये तुमने जितना किया है, पाँव भी धो-धोकर पियूँ तो भी तुम्हारा आपत्ति करना नहीं जँचेगा। लेकिन चार पूरी उतारने की बात पर सिर हिला रहे हो? तुम हम लोगों को क्या समझते हो भला? हम इन्सान नहीं हैं? या हमारे शरीर में इन्सान का रक्त नहीं है?

अत्यन्त लज्जित व कुंठित होकर उपेन्द्र बोले, “ऐसी कोई बात सोच कर मैंने मना नहीं किया था भाभी। मैं तो – ”

– “तो क्या देवर जी? शायद घर पहुँचने की जल्दी में होश नहीं रहा?”

बच गये उपेन्द्र। परिहास के पुनः सहज सरल हो जाने से खुशी-खुशी बोले, हाँ, यह बराई तो है मुझमें भाभी, इसे मैं अस्वीकार नहीं करता। लेकिन इस समय इसलिए मना नहीं किया था। मैंने वास्तव में यही सोचा था कि आज आप बहुत थक गयी हैं।

“थक गयी हूँ? भले ही थकी हूँ।” यह कहकर किरणमयी फिर ज़रा हँस पड़ी। उसके बाद एकाएक गम्भीर होकर बोली, “हाय रे! आज यदि मेरे सतीश बबुआ रहते, अपनी बात अपने मुँह से कहनी न पड़ती। वह सहश्र मुख से वक्तृता आरम्भ कर देते। नहीं बबुआजी, उन सब श्रान्ति-क्लान्ति का शोक करने की मेरी अवस्था ही नहीं है, इसके अतिरिक्त बंगाली के घर की किसी भी स्त्री के लिए यह बदनामी सम्भवतः लागू नहीं होती। आत्मीय हो, या अनात्मीय हो, पुरुष का खाना नहीं हुआ है सुनने से बंगाली की लड़की मरने की दशा में रहने पर भी एक बार उठ खड़ी होती है।”

– “जानता हूँ, अच्छी तरह जानता हूँ भाभी। मान लेता हूँ कि गलती हो गयी – अब और नहीं। भूख भी लगी है, चलिये क्या दे रही हैं खाने को।”

– “आओ, कहकर किरणमयी चल दी। सास के कमरे के सामने आकर झाँक कर देखा गहरी नींद सो रही थीं वह।”

रसाईघर में जाकर, जैसे सतीश को पीढ़ा बिछाकर बैठाती थी, उसी तरह उसने उपेन्द्र को बैठा दिया।

दासी चूल्हा जलाकर दूसरी तैयारियाँ करने के लिए बाहर चली गयी तो किरणमयी ने अपने इस नवीन अतिथि की ओर देखकर कहा, “अच्छा बबुआजी, मुझे कष्ट होगा इसलिए बिना खाये ही चले जाने का जो प्रस्ताव किया था, वही यदि और कहीं किसी के सामने करते तो आज तुमको क्या सज़ा भुगतनी पड़ती, जानते हो?”

उपेन्द्र बोले, “जानता हूँ। लेकिन यहाँ तो वह सज़ा भोग करने का भय नहीं है भाभी!” दासी मैदे की थाली रखकर चली गयी। किरणमयी ने थाली आगे खींचकर सिर झुकाये मधुर स्वर से कहा, “कहना कठिन है बबुआजी, भाग्य में लिखा रहने से किससे क्या बात हो जाती है, कहाँ और कौन-सा भोग भोगना पड़ा है, पहले से उसका कोई लेखा-जोखा नहीं मिलता। भाग्य की लिखावट क्या टाली जा सकती है? नहीं बबुआजी, वह आप ही आकर गरदन पर सवार हो जाती है।”

उपेन्द्र यह गूढ़ रहस्य ठीक-ठीक समझ न सके। बोले, “यह तो ठीक ही है।” किरणमयी ने भी उस समय कोई बात नहीं कही। एक बार केवल उपेन्द्र के मुँह की ओर ही देखकर आँखें झुकाकर मैदा गूँधने लगी। लगा, मानो वह चुपके-चुपके हँस रही है।

कुछ देर तक चुपचाप काम करते-करते एकाएक आँखें ऊपर उठाये बिना ही उसने कहा, “अच्छा, आज इतना आडम्बर रचकर बहू को दिखाने के लिए ले जाने का क्या मतलब था, बाताओ तो?”

उपेन्द्र ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “आडम्बर, दिखावा तो मैंने कुछ भी नहीं किया भाभी।”

किरणमयी बोली, “तो सम्भवतः कहने में मुझसे गलती हुई। कहती हूँ, इस प्रकार छल-चातुरी करने की क्या आवश्यकता थी?”

उपेन्द्र ने कहा, “छल-चातुरी मैंने क्या की?”

किरणमयी ने कहा, “वही जैसे कि मूरख-ऊरख, तरह-तरह की बातों का जाल रचकर। किन्तु झूठी बातों की काट-छांट करने से अब क्या होगा बबुआजी? उस बहू को यदि मूर्ख ही समझते हो, तो इस भाभी का भी तो कुछ परिचय पा गये हो? इतनी सरलता से भुलावे में डाल सकोगे ऐसा सोचते हो?”

“नहीं, यह तो मैंने नही कहा।”

किरणमयी ने मुँह ऊपर उठाकर देखा। क्योंकि जिस तरह छोटा-सा उत्तर उपेन्द्र देना चाहते थे, उस तरह वह दे नहीं सके। इच्छा न रहने पर भी उनका कण्ठ-स्वर गम्भीर हो गया, लेकिन किरणमयी ने इसे लक्ष्य किया या नहीं, यह पता नहीं लगने दिया और उसी तरह परिहास के स्वर में कहा, “तो?”

उपेन्द्र अपने कण्ठ-स्वर की गम्भीरता अनुभव करके लज्जित-से हो उठे थे, इस बीच उन्होंने भी अपने को सम्भाल लिया। हँसकर बोले, “भाभी, आपको धोखा देना क्या सहज है? लेकिन छल-चातुरी न करने से तो आप जाती नहीं। मैं कितनी बड़ी मूर्ख को लेकर गृहस्थी चलाता हूँ यह तो आपको बिना देखे पता न चलता।”

किरणमयी ने कहा, “वह देखने से मेरा लाभ?”

उपेन्द्र बोले, “लाभ आपका नहीं है। लाभ है मेरा। सभी अपना दुःख जताकर दुःख कम कर देना चाहते हैं। मनुष्य का स्वभाव यही है। इसीलिए छल-चातुरी करके यदि दुःख भी मैंने दिया हो तो वह आपकी कृपा प्राप्त करने के लिए। और किसी कारण नहीं।” किरणमयी कुछ देर तक मौन रही। उसके बाद उसने बातें कहीं, किन्तु मुँह ऊपर उठाकर देखा नहीं। कहा, “अब तो मैं पार नहीं पा सकती बबुआजी, यह अभिनय अब बन्द कर दो न। अपनी मूर्ख बहू को मूर्ख समझकर यदि कुछ कम प्यार करते तो सम्भवतः और कुछ देर तक ये बातें सुनी जा सकती थीं। सम्भवतः कुछ कृपा भी तुम पा जाते। लेकिन सतीश बबुआ के मुँह से मैं सब कुछ सुन चुकी हूँ। यह तो अच्छी बात है, उसको खूब प्यार करो, लेकिन इसीलिए क्या इस तरह ढोल पीटकर घूमना ठीक है। तनिक भी रुकावट हिचक नहीं होती?”

यह बात सुनकर उपेन्द्र, क्या कहें, क्या सोचें, इसका निश्चय ही न कर सके। यह कैसा बोलने का ढंग है। यह कैसा कण्ठ-स्वर है! परिहास तो यह किसी प्रकार भी नहीं है, किन्तु यह है क्या? व्यंग्य है? ईर्ष्या है? विद्वेष है? यह किस बात का आभास है, जिसे यह विधवा रमणी इस रात्रि में, इस निर्जन कमरे में आज उसके सामने व्यक्त करने का प्रयास कर रही है!

फिर किसी के भी मुँह से कोई बात नहीं निकली। कुछ काल दोनों ही मौन होकर मुँह झुकाये बैठे रहे।

दासी ने दरवाज़े के बाहर से एक बार खाँस दिया। उसके बाद तनिक मुँह बढ़ाकर बोली, “अब तो अधिक देर मैं रुक नहीं सकती बहूजी। सदर दरवाज़ा ज़रा बन्द न कर देने से मैं आ भी तो नहीं सकती।”

किरणमयी ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “जायेगी! तो तुम ज़रा बैठो बबुआ, मैं सदर दरवाज़ा बन्द करके जा रही हूँ।”

यह कहकर उसके चले जाने पर तुरन्त ही इस कमरे में अकेले बैठे हुए उपेन्द्र का हृदय एक ऐसी घृणा से भर उठे जिसका अपने जीवन में पहले कभी उन्होंने अनुभव नहीं किया था। उनका उन्मुक्त चरित्र बहुत दिनों से स्फटिक स्वच्छ प्रवाह की भाँति बहता रहा है। कहीं भी कोई रुकावट नहीं पड़ी है। कहीं भी किसी दिन बिन्दुमात्र कलंक की छाया आकर भी अपनी परछाई उन पर फेंक नहीं पायी है। लेकिन आज इस निर्जन कमरे में वही अत्यन्त निर्मलता मानो मलिन हो उठी।

सत्ताईस

दासी को बिदा करके किरणमयी अपने स्थान पर वापस आकर जब बैठ गयी, तब उपेन्द्र गरदन उठाकर एक बार देख भी न सके। किरणमयी की दृष्टि से यह भाव छिपा नहीं रहा, लेकिन वह भी कोई बात न कहकर चुपचाप अपना काम करने लगी।

दस मिनट तक जब इसी तरह समय बीत गया, तब किरणमयी ने धीरे-धीरे कहा, “अच्छा, बबुआ, यदि कोई हमें इस प्रकार चुपचाप बैठे देख ले तो क्या सोचेगा, बताओ तो?” यह कहकर वह हँस पड़ी।

उपेन्द्र ने इस हँसी को नेत्रों से न देखने पर भी हृदय में अनुभव किया। कहा, “सम्भवतः अच्छा न सोचेंगे!”

– “तो फिर?”

– “क्या करूँ भाभी, करने को कोई बात ही नहीं मिल रही।”

– “नहीं मिल रही? अच्छा मैं ढूँढ देती हूँ। लेकिन पहले एक बात बता दूँ, वह यह कि खाना बना-खिलाकर भेजने में आधे घण्टे से अधिक समय नहीं लगेगा। उतनी देर तुम प्रसन्न वदन बातें करो, इस तरह मन भारी करके मत बैठे रहो।”

ज़बर्दस्ती ओठों पर हँसी लाकर उपेन्द्र ने कहा, “ठीक है, कहिये।”

पुनः मुस्कुरा दी किरणमयी। बोली, “चलो भाभी का मान रखकर हँसे तो। देवर जी, जब से तुम्हें देखा है, प्रायः एक बात मन में आती है, लेकिन सुनकर फिर से उल्टा समझकर गुस्से से मुँह तो नहीं फुला लोगे?”

“नहीं, क्रोध किसलिए?”

“क्या जानते हो बबुआजी, अच्छे-अच्छे काव्यों में कहा जाता है, वे हमारे देश के हों, या विदेश के ही हों, प्रथम दर्शन से ही एक प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न होना – अच्छा, इसे क्या सम्भव मानते हो?”

उपेन्द्र का मुख एकाएक लज्जा से लाल हो उठा। उसने कहा, “अच्छा-बुरा किसी काव्य के सम्बन्ध में मेरा विशेष कोई ज्ञान नहीं है भाभीजी, यह बात मैं नहीं जानता!”

किरणमयी बोली, “यह कैसी बात कहते हो बबुआ? इतना लिख-पढ़ चुके हो, इतनी परीक्षाएँ पास करके कितने ही रुपयों की मिठाइयाँ वसूल कर चुके हो और काव्य के सम्बन्ध में तुम कुछ भी नहीं जानते? शकुन्तला, रोमियो-जूलियट, इन दोनों को भी क्या तुमने नहीं पढ़ा है?”

उपेन्द्र ने कहा, “लेकिन पढ़कर पास करने में तो सम्भव-असम्भव निश्चय नहीं करना पड़ा है। पुस्तक में जो लिखा है कण्ठस्थ करके परीक्षा में लिख आया था। आपकी तरह किसी परीक्षक ने कभी प्रश्न नहीं किया – यह होता है या नहीं। मुझे क्षमा करना पड़ेगा भाभी, ये सब आलोचनाएँ आपके साथ मैं न कर सकूँगा।”

किरणमयी ने उदास होकर एक लम्बी साँस लेकर कहा, “इसीलिए पूछा था, मुझ पर क्रोध न करोगे?”

“लेकिन क्रोध तो मैंने किया नहीं।”

“न करने से ही अच्छा है!” कहकर किरणमयी ने गरम कड़ाही में घी डाल दिया।

तीन-चार पूड़ियाँ तलकर किरणमयी एकाएक बोली, “जिस बात को मैंने जान लेना चाहा था, उसकी आलोचना ही तुमने करने नहीं दी। मेरा भाग्य ही ऐसा है! लेकिन एक और बात मैं पूछती हूँ बबुआजी, प्रेम को लोग अन्धा क्यों कहते हैं?”

उपेन्द्र ने कहा, “सम्भवतः आँखें रहने से जिस मार्ग से मनुष्य नहीं जाता – इससे उस मार्ग में भी वह उसको ले जाता है।”

किरणमयी ने उत्सुक होकर पूछा, “ले जाता है क्या? क्या यह बात सत्य है कि प्रेम अन्धा होता है?”

“सच तो अवश्य है। बहुतों की बहुत-सी अभिज्ञता से ही तो यह कहावत प्रचलित है।”

किरणमयी ने कहा, “अच्छी बात है। यदि यही होता है, तो अन्धा जब गर्त में जाता है, लोग दौड़ते हुए आकर उसे उठा देते है। उसके लिए दुःख मानते हैं, जिसमें जैसी शक्ति रहती है उसके अनुसार सहायता करने की चेष्टा करता है, लेकिन प्रेम के कारण अन्धा बनकर कोई जब गर्त में गिर पड़ता है, कोई भी तो उसे उठा देने के लिए दौड़कर नहीं आता। बल्कि, और हाथ-पैर तोड़कर उसी गर्त में मिट्टी डाल दी जाती है। जिस सत्य का मनुष्य स्वयं ही प्रचार करता है, आवश्यकता पड़ने पर उस सत्य की कोई मर्यादा ही नहीं मानता। मेरी बात तुम समझ रहे हो न बबुआ?”

उपेन्द्र ने गरदन हिलाकर कहा, “समझ रहा हूँ।”

किरणमयी ने कहा, “समझ सकते हो इसीलिए तो तुमसे पूछ रही हूँ, लेकिन इसी दशा में देखो, दूसरों के मामलों में बहुत कुछ जानते हुए भी लोग बरबस भूल जाना चाहते है। अन्धे को आँख वाले की संज्ञा देकर अपने को वीर समझने लगते हैं। दूसरे के विषय में विचार करते समय यह बत उसे स्मरण रहती नहीं कि आँख खो देने पर गर्त में गिर जाने की उसकी सम्भावना उस मनुष्य की अपेक्षा कुछ भी कम नहीं होती।”

उपेन्द्र ने तनिक अप्रसन्न तथा आश्चर्य के साथ कहा, “यह नहीं भी हो सकता है, लेकिन मैं समझ नहीं सकता भाभी, ये सब आलोचनाएँ क्यों कर रही हैं? सच हो, झूठ हो, आपके जीवन के साथ इस मीमांसा का कोई सम्बन्ध नहीं है।”

किरणमयी उपेन्द्र की अप्रसन्नता देखकर भी हँस पड़ी। बोली, “अन्धा आलोचना करके गत्र में नहीं गिरता बबुआ, गिरकर आलोचना करता है। मैं गिर नही पड़ी हूँ, या गिर पड़ने के लिए उस ओर बढ़ती नहीं जा रही हूँ यही बात तुम किस तरह जान गये?”

उपेन्द्र ने कहा, “लेकिन आप तो अन्धी नहीं हैं। मैंने तो आपकी बड़ी-बड़ी दोनों आँखें देख ली हैं भाभी!”

किरणमयी बोली, “वही तो कठिनाई है बबुआजी, दो प्रकार के अन्धे होते हैं, जो लोग आँखें बन्द करके चलते हैं, उनके सम्बन्ध में तो सोचना नहीं पड़ता – वे पहचाने जाते हैं। लेकिन जो लोग दोनों आँखों से देखते हुए चलते हैं, फिर भी देख नहीं पाते, उन लोगों को ही लेकर सब गड़बड़ियाँ हैं। वे स्वयं भी धोखा खाते हैं, दूसरों को भी धोखा देने से बाज नहीं आते।”

उपेन्द्र कुण्ठित होकर बैठे रहे। उनसे उत्तर न पाकर किरणमयी ने एकाएक उत्सुक होकर मानो प्रश्न किया, “अच्छा, तुमने जो यह बात कही बबुआ, कि मेरी बड़ी-बड़ी दो आँखें तुमने देखी हैं, तो वह किस समय देखीं। क्या यह मैं पूछ सकती हूँ?”

उपेन्द्र बोले, “वह तो आपके पति की मृत्यु के बाद ही उस दिन आपको जिसने देखा है, वह किसी दिन आपके विषय में भूल न करेगा। क्यों आप अपने को अन्धी कहकर डर रही हैं, यह बात आप ही जानती हैं, लेकिन मैं जानता हूँ, यह बात सच नहीं है। उस दिन आपकी दोनों आँखों में मैंने जो ज्योति देख ली थी, उससे मैं निश्चित रूप से जानता हूँ। कितना भी अन्धकार आपके चारों ओर घना होकर क्यों न आ जाये, वह आपको भुलावे में न डाल सकेगा। आप ठीक मार्ग देखकर चिर जीवन चली जा सकेंगी।”

किरणमयी ने कुछ देर तक चुप रहकर कहा, “इतनी देर में सम्भवतः मैं यह बात समझ गयी हूँ बबुआ, उस दिन जिस तरह चेतना खोकर मैं उनके पैरों के नीचे पड़ी थी उसे देखकर सम्भवतः तुम्हारे मन में यह धारणा उत्पन्न हुई।”

उपेन्द्र ने सिर हिलाकर कहा, “यह बात भी हो सकती है, लेकिन वह देखना क्या भूल हो सकती है भाभी?”

सुनकर किरणमयी हँस पड़ी। उसके बाद संकोच-रहित सहज कण्ठ से बोली, “भूल की तरह ही ज्ञात हो रहा है। मैं तो अपने पति को प्यार नहीं करती थी।”

उपेन्द्र आश्चर्यचकित होकर निहारते रहे। किरणमयी कहने लगी, “सचमुच ही उनको मैंने किसी दिन प्यार नहीं किया। और केवल मैंने ही नहीं, उन्होंने भी मुझे प्यार नहीं किया। तो क्या उस दिन की वह मेरी छलना थी? वह बात भी नहीं है, यह भी सत्य है। सचमुच ही उस दिन मैं अपना होश खो चुकी थी।” यह कहकर उपेन्द्र का स्तम्भित मुँह देखकर वह ज़रा ठिठक गयी। लेकिन दूसरे ही क्षण उसे बलपूर्वक दूर करके बोली, “नहीं, डरने से मेरा काम न चलेगा। तुमको सभी बातें आज बता देनी पड़ेंगी।”

उपेन्द्र ने कष्ट से मुँह ऊपर उठाकर कहा, “चलेगा क्यों नहीं। मैं सुनना नहीं चाहता, तो भी मुझे क्यों सुननी ही पड़ेगी?”

किरणमयी ने कहा, “इसका कारण यह है कि तुम हो मेरे गुरु। तुम्हारे सामने सब स्वीकार न करने से मैं किसी प्राकर शान्ति न पाऊँगी।”

उपेन्द्र स्थिर होकर निहारते रहे। किरणमयी दृढ़ किन्तु मृदु स्वर से बोली, “मेरे अन्दर जो गम्भीर अन्त्रदृष्टि तुमने देखी थी बबुआ, वह आँखों की भूल नहीं थी, सच्ची थी, लेकिन बहुत ही कम, क्षणकाल के लिए थी। पति को मैंने किसी दिन प्यार नहीं किया, लेकिन तन-मन से प्यार करने की चेष्टा मैंने आरम्भ की थी। लेकिन वे बचे नहीं, मेरी भी वह चेष्टा स्थायी नहीं हुई। पुस्तकों में ये सब बातें पढ़कर कभी मैं सोचती थी, ये झूठी बातें हैं, कभी सोचती थी, कवि की कल्पना है, कभी मन में यही विचार करती थी सम्भवतः मुझ में प्यार करने की शक्ति ही नहीं है। इसलिए ऐसा होता है। यह शक्ति मुझमें है या नहीं, आज भी मैं नहीं जानती बबुआ, किन्तु प्यार करने की इच्छा मेरी कितनी अधिक है इस बात का पहले मुझे पता लगा तुमको देखकर। इसीलिए तुम ही गुरु हो।” कुछ देर मौन रहकर मानो आप ही आप उसने कहा, “दो दिनों के बाद तुम लोग चले जाओगे। फिर जब भेंट होगी, तब अपनी बातें कहने योग्य मन की अवस्था सम्भवतः न रहेगी। हो सकता है कि यही कह देने के लिए तब मैं लज्जा से मर जाऊँगी। नहीं बबुआजी, यह होगा नहीं, आज ही तुमको अपनी सभी बातें सुनाकर मैं निश्चिन्त हो जाऊँगी!”

उपेन्द्र ने कातर होकर कहा, “भाभी, आज विभिन्न कारणों से आपका मन अत्यन्त उत्तेजित हो गया है, मैं देख रहा हूँ। इस अवस्था में क्या कहना उचित है, क्या उचित नहीं है, यह समझ न सकने से – नहीं-नहीं, भाभी, मैं अनुरोध कर रहा हूँ किसी दूसरे दिन आकर आपकी सब बातें सुन जाऊँगा, लेकिन आज नहीं।”

किरणमयी ने कहा, “ठीक इसीलिए तो आज तुमको सभी बातें सुनाना चाहती हूँ बबुआजी। फिर उस दिन लज्जा आकर बाधा न डाल दे, सांसारिक भले-बुरे की विचार-बुद्धि मुँह दबाकर पकड़ लेगी। आज मुझे रखकर, ढककर, समझ-बूझकर, सजाकर, बचाकर कहने की शक्ति भी नहीं है, प्रवृत्ति भी नहीं है – आज ही तो कहने का दिन है। इसके बाद सम्भवतः तुम इस जन्म में फिर मेरा मुँह न देखोगे – तो भी मैं प्रार्थना करती हूँ और कुछ देर तक मेरी यह दुर्बुद्धि मेरा यह उन्माद बना रहे, जिससे मैं तुम्हारे सामने सब खोलकर कह सकूँ।”

उसके मुख की ओर देखकर उपेन्द्र का निर्मल, शुद्ध हृदय अज्ञात भय से त्रस्त हो उठा। अन्तिम बार के लिए बाधा देकर वह बोले, “भाभी, मनुष्य मात्र की ही गुप्त बातें रहती हैं। उन्हें तो किसी के सामने खोल देने की आवश्यकता नहीं है। वरन् प्रकट कर देने में अधिक अकल्याण है, केवल तुम्हारा और मेरा ही नहीं और भी दस आदमियों का।”

किरणमयी ने कोई उत्तर नहीं दिया। पूड़ियों का पकाना समाप्त हो गया था। एक थाली में खूब अच्छी तरह सजाकर उपेन्द्र के आगे रखकर उसने कहा, “तुम खाओ, मैं अपना कहना समाप्त कर डालूँ।”

“अच्छा होगा यदि आप न कहें भाभी।”

किरणमयी ने कहा, “प्रार्थना कर रही हूँ बबुआ, अब मुझे बाधा मत दो। सब सुन लेने पर तुम्हारी इच्छा हो, तो मेरी सास के साथ ही मेरा भी भार ले लेना। इच्छा न हो तो मैं अपना मार्ग स्वयं ही ढूँढ़ लूँगी। मैंने बहुतों को धोखा दिया है बबुआजी, लेकिन मैं तुमको ठग न सकूँगी।”

“तो कहिये!” यह कहकर उपेन्द्र ने पूड़ी का एक टुकड़ा अपने मुँह में डाल लिया। किरणमयी ने कहा, “तुमको मैंने बता दिया है बबुआजी, पति को मैंने कभी प्यार नहीं किया, उनका प्यार मुझे मिला भी नहीं। इसके लिए हमें कोई दुःख नहीं था। घर में सास-पति दोनों को साथ रहा। एक थे दार्शनिक! वह मुझे जी-जान से पढ़ाने में ही प्रसन्न रहा करते थे, और एक थीं घोर स्वार्थपरायण – वह जी-जान से मुझे काम में लगाये रहने में ही प्रसन्न थीं। इसी प्रकार दिन बीत रहे थे और सम्भवतः कट भी जाते लेकिन एकाएक सब कुछ उलट-पलट गया। पति बीमार पड़ गये। उनसे मैंने अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं। नाटक-उपन्यास भी मैंने कम नहीं पढ़े हैं, लेकिन हम दोनों ही पढ़-पढ़कर केवल हँसते रहते थे। प्यार की गन्ध भी हममें नहीं थी। इसीलिए कोई आदमी जैसे रहते हैं जन्म के बहरे, जन्म के अन्धे, मेरे पति भी वैसे ही थे जन्म के नीरस। लेकिन मुझमें कितना रस था, यह उस समय तक भी मैं जान नहीं सकी थी। लेकिन उस बात का एकाएक मुझे पता लग कि प्यार करने की और उसे वापस पाने की तृष्णा मेरी भी किसी स्त्री से कम नहीं है – नहीं, नहीं, इतने में ही इन पूड़ियों को हटा रखने से काम न चलेगा।”

उपेन्द्र ने उदास होकर कहा, “किसी तरह भी भोजन अच्छा नहीं लग रहा है भाभी।” किरणमयी ने पलभर मौन रहकर कुछ सोचकर कहा, “मैं जानती हूँ बबुआजी, थोड़ी देर बाद ही पूरी-तरकारी का स्वाद तुम्हारी जीभ पर ज़हर बन जायेगा, लेकिन अभी तो इसमें देर थी। तुम और कुछ खा सकते थे।”

उपेन्द्र और भी उदास हो गये।

किरणमयी उनकी ओर देखकर ही कहने लगी, “यदि मैं यह कहूँ कि तुम्हारे यह न खाने का जो दुःख है, वह मेरा दाहिना हाथ नष्ट हो जाने की अपेक्षा भी अधिक है तो तुम विश्वास न कर सकोगे। लेकिन तुम विश्वास करो, या न करो, मैं तो जानती हूँ कि यह सच है! तो भी रुक जाने का उपाय नहीं हैं बबुआजी, मुझे कहना ही पड़ेगा।”

“अच्छी बात है, कहिये।”

“कहती हूँ। अपने पति की बीमारी में केवल गहनों को छोड़कर और जो कुछ भी मेरे पास संचित था, वह सब ही एक-एक करके चला गया, तब आ गये एक नये पास किये डाक्टर – अच्छा बबुआ, अनंग डाक्टर को तुम लोगों ने देखा था न?”

उपेन्द्र ने कहा, “हाँ!”

किरणमयी ने विदू्रप की हँसी हँसकर कहा, “उन्होंने ही! वाह रे फूटा भाग्य! इस कमरे में पति मरने की दशा में थे, उस कमरे में मैं चली गयी उनको लेकर प्रेम का स्वाद मिटाने।”

उपेन्द्र गरदन झुकाये मौन बैठे रहे। किरणमयी और कहने जा रही थी, लेकिन किसी ने मानो उसका गला दबा दिया। थोड़ी देर तक प्रबल चेष्टा करने के बाद सूखे स्वर से बोली, “सुनते ही तुम्हारी गरदन झुक गयी, तो भी उस अनंग डाक्टर को नहीं पहिचानते। पहिचानने से तुम समझ सकते थे, कितने वर्षों की घोर अनावृष्टि की ज्वाला मेरे इस हृदय के अन्दर जमी हुई थी, इसीजिये यह असम्भव घटना सम्भव हो सकी थी। जानते हो, जिस तृष्णा से पनाले से गाढ़े काले पानी को अँजुली से भरकर मुँह में भर लेते हैं, मुझे भी वही पिपासा थी, लेकिन वह ख़बर मुझे मिली उस पानी को गले के अन्दर ढाल देने पर। उसके बाद – ओह! यह कैसा था। कै करने की-सी दशा में दिन बीतते रहे।” यह कहते-कहते उसका सम्पूर्ण अंग थरथरा उठा। एक उत्कट दुर्गन्धमय विषाक्त उद्गार मानो उसके गले तक उच्छ्वसित हो उठा। पलभर मौन रहकर अपने आपको सम्भालकर किरणमयी ने कहा, “लेकिन मैं कै कर भी न सकी, सास ने मेरा मुँह दबा दिया। उस समय अनंग ने गृहस्थी का आधा भार सम्भाल लिया था।”

उपेन्द्र उसी भाव से पत्थर की मूर्ति की भाँति बैठे रहे। उनके निर्वाक् झुके हुए मुँह की ओर एक बार देखकर किरणमयी बोली, “उसके बाद आसक्ति-घृणा के, तृष्णा-वितृष्णा के लगातार संघर्ष से जो विष दिन-रात उठने लगा, देव-मानव के निष्ठुर मन्थन से पीड़ित वासुकि सम्भवतः उतना जहर, उतने बड़े अपने मुँह से निकाल न सका था। मुझे जान पड़ता है, इस घर की प्रत्येक ईंट-लकड़ी, दरवाज़ा-खिड़की, धरन तक विष से नीले रंग की हो गयी हैं।”

ज़रा रुककर उसने कहा, “कितने दिनों में किस प्रकार इसका अन्त होता यह मैं नहीं जानती। कितना ही मैंने सोचा लेकिन किसी ओर भी उसका कूल-किनारा मेरी निगाह में नहीं पड़ा। लेकिन क्या ही अमृत हाथों में लेकर तुम निकल पड़े बबुआ, कहाँ चली गयी वह ज़हर की ज्वाला और कहाँ रह गयी विद्वेष घृणा! पल भर में ये सब ऐसी तुच्छ हो गयीं कि अनंग को विदा कर देने में मुझे एक क्षण नहीं लगा। तुम ही मानो आकर मेरे कान में उपाय बता गये! जानते तो हो बबुआजी, स्त्रियाँ गहनों पर कितना प्रेम रखती हैं। बड़े दुःख के मेरे गहने मानो मेरी छाती की पसलिया ही थीं। वही जहाँ सिर झुकाये, तुम इस समय बैठे हो, ठीक वहीं पर पसलियों को निकालकर उसके चरणों पर मैंने डाल दिया। मेरे ऊपर उसकी आसक्ति चाहे जितनी ही बड़ी क्यों न रही हो, इतने गहने हाथ में पा लेने से, वह फिर कभी मुँह न दिखायेगा, जन्म भर के लिए मुझे मुक्ति देकर चला जायेगा यह मंत्र तुमने ही मानो मुझे सिखा दिया। ओह! कितना भय, कितनी चिन्ताएँ मुझे थीं, पीछे कहीं इस दुर्दिन के दबाव से किसी दिन मेरे यह गहने नष्ट न हो जाये। वे चले ही तो गये – मैं उनको पकड़कर तो रख ही न सकी। लेकिन ओह! वह कैसी तृप्ति थी, कैसा वह आश्चर्यजनक आनन्द था बबुआ, ऐसी ही एक अँधेरी संध्या में जब उन्हीं के लोभ में पड़कर वह अपनी वीभत्स पूछ को मेरे समूचे अंग से खोलकर चोर की भाँति चुपचाप चला गया। मन में अनुभव हुआ कि मैं बच गयी।”

उपेन्द्र को स्मरण आया कि उसके और सतीश के बीच से एक दिन सबेरे चोर की तरह अनंग डाक्टर चला आया था। लेकिन कोई बात न कहकर वह मौन रह गये थे।

किरणमयी कहने लगी, “तुमको स्मरण आ रहा है बबुआजी, मेरी उस रात की वह उग्र मूर्ति? उस दिन मैंने क्या-क्या काण्ड कर डाला था। छिपकर तुम लोगों की बात चीत सुनना, नीचे जाकर तुम लोगों को लाल आँखें करके कितना ही भय दिखाना, उसके बाद तुम लोग चले गये। अपने विष की वह कैसी ज्वाला थी! किन्तु उसके बदले में दो वस्तुएँ मुझे मिलीं, बबुआजी, वह था मेरा स्वर्ग, वह था मेरा अमृत। श्रीरामचन्द्र के पाद-स्पर्श से पत्थर की अहिल्या जैसे सजीव हो गयी थी, मैं भी मानो उसी तरह बदल गयी। अहिल्या ने स्त्री बन जाने पर क्या पाया था, मैं नहीं जानती, लेकिन मैंने जो कुछ पा लिया, उसकी तुलना नहीं है। मेरा भाई नहीं था, सतीश को पा गयी, अपना-सहोदर भाई, और पा गयी तुमको – छिः! ऐसे उदास मत हो बबुआ, पुरुष को क्या ऐसी लज्जा शोभा देती है?”

उपेन्द्र ने बलपूर्वक सिर सीधा करके दृढ़ स्वर से कहा, “जो लज्जा की वस्तु है, वह स्त्री-पुरुष दोनों के ही लिए समान है भाभी। मैं ये सब बातें सुनना नहीं चाहता – या तो आप चुप हो रहिये, नहीं तो मैं इसी क्षण उठकर चला जाऊँगा।”

किरणमयी ने कहा, “ज़बरदस्ती?”

उपेन्द्र ने कहा, “हाँ।”

किरणमयी ने कहा, “उस दशा में भी ज़बरदस्ती पकड़ रखने की चेष्टा करूँगी। लेकिन यह मैं पहले ही कह देती हूँ बबुआ, इस बल की परीक्षा में मुझे लाभ के सिवा हानि नहीं है।”

इस उत्तर के बाद उपेन्द्र गरदन झुकाकर बैठे रहे। किरणमयी फिर हँसकर बोली, “डरने की बात नहीं है जी, डरने की बात नहीं है, तुम्हारी इच्छा न रहने पर स्वयं तुम्हारे शरीर पर जाकर हाथ रक्खूँगी, ऐसी पागल अभी तक मैं नहीं हुई हूँ। इच्छा हो तो उठ जाओ, मैं बाधा न दूँगी!”

उपेन्द्र मुँह झुकाये मौन बैठे रहे। बादल से छिपा चन्द्रमा आँख से दिखायी न पड़ने पर भी चारों ओर की फीकी चाँदनी के आभास से वास्तविक वस्तु जैसे पहचान ली जाती है, इन दोनों नर-नारियों का गुप्त सम्बन्ध भी इतनी देर तक उसी प्रकार आवरण में पड़ा था। लेकिन हवा बहने लगी है, बादल तेजी से हटते जा रहे हैं, हृदय में यह निश्चित रूप से अनुभव करके ही उपेन इस प्रकार भाग जाने की चेष्टा कर रहे थे लेकिन सब विफल हो गया। एकाएक हवा का झोंका आ जाने से समस्त आवरण फटकर जहाँ तक दिखायी पड़ता है वहाँ तक सामने आकाश अनावृत हो गया।

किरणमयी ने धीरे-धीरे कहा, “जाने भी दो, तुमको जो मैं प्यार करती हूँ, यह तुमको बताकर मानो मैं बच गयी। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वही करो, मुझे कुछ भी कहना नहीं है। लेकिन यह विचार मत करना बबुआजी, मैंने अन्धी आशा से भूलकर यह बात बता दी है। मैं तुमको पहचानती हूँ, मैं जानती हूँ यह निष्फल है। रक्षक होने के लिए आकर तुम भक्षक न हो सकोगे, किसी प्रकार भी नहीं, यह मैं जानती हूँ।”

इतनी देर में उपेन्द्र ने बात कही। उन्होंने मृदु स्वर से प्रश्न किया, “जब यह श्रद्धा मेरे ऊपर है तो आपने बताया क्यों?”

किरणमयी ने कहा, “इसके दो कारण हैं। पहला यह है कि न बताने से मैं पागल हो जाती। दूसरा कारण यह है कि तुमको सब बातें न बताकर तुम्हारा आश्रय लेना मेरे लिए असम्भव है। उस दिशा में मुझे केवल यही ज्ञात होता है कि सुरबाला ही मानो मुझे खिला-पहना रही है, लेकिन अब यदि इसके बाद भी तुम मेरा भार लेते हो – तो ज्ञात होगा कि तुम्हारा ही खा रही हूँ, पहन रही हूँ और किसी का नहीं। अच्छा, सुरबाला से भी मेरी बातें बतलाओगे तो?”

उपेन्द्र ने कहा, “नहीं।”

किरणमयी ने प्रश्न किया, “नहीं क्यों? सुनने से वह दुःखी होगी।”

उपेन्द्र ने कहा, “नहीं भाभी, वह दुःखी न होगी। वह बहुत ही मूर्ख है। भले घर की लड़की पति के अतिरिक्त और किसी पुरुष को किसी अवस्था में भी प्यार कर सकती है, यह बात सहश्र बार कहने पर भी उसके दिमाग़ में न घुसेगी! अब अनुमति दें तो मैं उठूँ?” इस बात ने किरणमयी को तीक्ष्ण आघात पहुँचाया, लेकिन उसने सहज स्वर से कहा, “अनुमति न देने पर भी तो उपाय नहीं है, देनी ही पड़ेगी, लेकिन ज़रा और बैठो। तुमको जो मैंने प्यार किया था, यही तो केवल बताया गया, लेकिन भूल जानना भी चाहा था, आज यह बात भी तुमको ज्ञात नहीं है। लेकिन इसमें मेरा गुरु कौन है, जानते हो बबुआ? वही जो मूर्खों में अग्रगण्य लड़की छोटी बहू बनकर तुम लोगों के घर में गयी है, वे ही।”

उपेन्द्र के मुख पर आश्चर्य का आभास देखकर किरणमयी ने कहा, “हाँ, वे ही। तुम लोग जिसको पशुराज कहकर परिहास करते हो, वही सुरबाला मेरी गुरु है, तुमने जो बात सिखाई, उन्होंने उसे ही भुला देना चाहा। वे मेरी पूज्य हैं।”

उपेन्द्र चुप होकर बैठे रहे। किरणमयी कहने लगी, “तुमको मैं बार-बार कहती हूँ बबुआजी, आज जो तुम्हारे पैरों पर अपनी लज्जा के समस्त जंजाल को तिलांजलि मैंने दे दी है तो उसका समस्त फलाफल जानकर ही। मैं जानती हूँ, तुम्हारी सुरबाला है और है तुम्हारी कठोर पवित्रता। वह है स्फटिक की भाँति स्वच्छ, वज्र की भाँति कठोर, उसके शरीर पर दाग लगा सकूँ, यह बल मुझमें नहीं है। लेकिन जानते तो हो बबुआजी, मनुष्य का ऐसा ही जला हुआ स्वभाव है कि जो बात उसकी शक्ति के बाहर है, उसी पर उसका सबसे अधिक मोह रहता है। भगवान को कोई पा नहीं सकता, इसीलिए मनुष्य सब कुछ देकर उसको पाना चाहता है। इसीलिए मुझे यही ध्यान आता है कि तुम मेरे लिए इतनी बड़ी अप्राप्य वस्तु न रहते तो सम्भवतः मैं तुमको इतना अधिक प्यार नहीं करती। लेकिन जाने दो उस बात को।”

क्षणभर मौन रहकर सहसा एक लम्बी साँस लेकर किरणमयी ने कहा, “एकलव्य के जैसे द्रोणजी गुरु थे, मेरी गुरु वैसी ही सुरबाला है लेकिन वह कैसे हो गयी, वही आज तुमको मैं बताकर मैं छुट्टी दूँगी। वहीं जहाँ तुम खाने के लिए बैठे हो बबुआ, एक दिन रात के समय सतीश बबुआ भी उसी तरह खाने के लिए बैठे थे। किस प्रकार मुझे स्मरण नहीं है, एकाएक तुम लोगों की चर्चा छिड़ गयी। जानते ही हो, वह मेरे भाई हैं कि तुम लोगों की बाते चलने पर बिल्कुल मस्त हो जाते हैं। तब उनको सम्भालना कठिन ही है। मेरी अपनी भी तब प्रायः वही दशा थी। प्रेम की मदिरा उस समय तुरन्त ही पात्र में भरकर पीकर, तुम्हारे नशे में तब मेरे हाथ-पाँव अशक्त हो गये थे, दोनों आँखें लुढ़कती जा रही थीं, ऐसे ही समय में सतीश बबुआ ने कितने ही उदाहरण दे-देकर बताया कि तुम अपनी सुरबाला को कितना प्यार करते हो। कब तुमने उसको छोटी चेचक की बीमारी होने पर आहार-निद्रा छोड़ दी थी, कब उसने तुम्हारे सिर में ज़रा-सा दर्द उठने पर सारी रात हाथ में पंखा लेकर सिरहाने बैठकर बिता दी थी – इसी प्रकार के कितने दिनों और कितनी रातों की छोटी-मोटी कहानियाँ। उनकी तो वे सब सुनी हुई बातें थीं। सम्भवतः कोई झूठी थी, अथवा बढ़ा-चढ़ाकर कही गयी थी, लेकिन उससे हम दोनों की कोई हानि नहीं हुई। तुम दोनों पति-पत्नी में प्रेम की गंगा बहती जा रही है, हम दोनों भाई-बहिन देखते-देखते उसमें निमग्न हो गये। उसके बाद बड़ी रात को सतीश अपने डेरे पर चले गये, लेकिन मैं उसी रसोईघर में बैठी रही। कितनी देर तक, मैं नहीं जानती, बाहर निकलकर मैंने देखा कि सामने ही शुक्रतारा उगा हुआ है। मुझे एकाएक यह स्मरण आया कि सुरबाला का मुँह मानो ऐसा ही है, ऐसा मधुर है, ऐसा ही उज्ज्वल है। ठीक इसी प्रकार ही सम्भवतः उसके मुँह से आँखें हटायी नहीं जातीं। मन ही मन उसको मैंने कहा, “तुमको तो मैंने देखा नहीं है कि तुम कैसी हो, लेकिन जैसी भी क्यों न हो, आज से तुम मेरी गुरु हो गयी। तुम्हारे पास से ही मैंने पति-प्रेम का पाठ लिया। प्रेम का स्वाद मैं पा गयी हूँ – इसको अब मैं छोड़ न सकूँगी। प्रेम मुझे अवश्य ही चाहिए – मुझे प्रेम करना ही पड़ेगा तो दूसरे को प्यार करके क्यों इसको व्यर्थ करूँ? आज भी तो मेरे पति जीवित हैं, अभी तक तो मैं विधवा नहीं हुई हूँ – तो फिर क्यों मैं यह भूल करूँ? तुम्हारी ही भाँति आज से मैं अपने पति को ही प्यार करूँगी – और किसी को नहीं। यह कहने के साथ ही मेरा मन मानो अपनी सारी शक्ति को एकत्रित करके बोला – प्रेम वापस पाने की आशा तुमको नहीं है यह सच है, लेकिन तो भी तुमको ही प्यार करना पड़ेगा। लेकिन मेरा ऐसा ही फूटा भाग्य है बबूआ, कि वह बचे नहीं। मेरी साधना अंकुर में ही सूख गयी। इसीलिए उनकी मृत्यु के दिन मेरा जो मुख तुम लोगों ने देखा था, उसमें एक बिन्दु भी छलना नहीं थी।” यह कहते-कहते उसका कण्ठ स्वर करुण और गीला होता जा रहा था, उपेन्द्र ने इसे लक्ष्य किया, लेकिन उन्होंने कोई बात नहीं कही। किरणमयी स्वयं भी कुछ देर मौन रहकर बोली, “बबुआजी, जो लोग मूर्ख हैं, जो कट्टर हैं, वे समझेंगे नहीं, लेकिन तुम जानते हो, संसार में सभी वस्तुओं के ही प्राकृतिक नियम हैं। उस नियम की उपेक्षा न करके पति-पत्नी में से कोई भी अपने उस चिर मधुर सम्बन्ध पर पहुँच नहीं सकता। ब्याह का मंत्र कर्तव्यबुद्धि दे सकता है, भक्ति दे सकता है, सहमरण की प्रवृत्ति दे सकता है, लेकिन माधुर्य देने की शक्ति तो उसमें नहीं है। वह शक्ति है केवल उस प्रकृति के हाथ में। उसके दिये हुए नियमों के पालन में जब समय था, सामथ्र्य था तब हम दोनों ही दोनों पैरों से उस नियम को कुचलते रहे, उसका कोई सम्मान हमने नहीं किया। आज असमय में, जबकि पति मृतप्राय हैं, प्रयोजन होने के कारण, उनके पास मैं जाऊँगी किस मार्ग से? लेकिन तो भी मैंने पतवार छोड़ नहीं दी थी बबुआजी। आशा थी एक मार्ग सम्भवतः तब तक भी खुला था। वह था उनकी सेवा का। मैंने सोचा था, अपनी पति-सेवा से ही सम्भवतः एक दिन उनको मैं पाऊँगी। लेकिन ऐसी ही अभागिनी हूँ मैं – उतना-सा भी अवसर नहीं मिला, वह इहलोक त्याग करके चले गये।”

उपेन्द्र ने आश्चर्य से मुँह ऊपर उठाकर देखा, किरणमयी की दोनों आँखें आँसुओं से भर गयी हैं। उन्होंने कहा, “मैंने सुना है, आपने जैसी उनकी सेवा की है, वैसी सेवा कोई मनुष्य कर नहीं सकता। उस ओर पत्नी के कर्तव्य में आपकी कोई भी त्रुटि नहीं हुई है।” किरणमयी ने कहा, “सम्भवतः वह नहीं हुई है, लेकिन मनुष्य नहीं कर सकता तो मैं ही कैसे कर सकी बबुआजी? यह बात नहीं है – वैसी सेवा सभी स्त्रियाँ कर सकती हैं। लेकिन मैंने तो कर्तव्य कहकर कुछ भी नहीं किया है। दूसरे सभी मार्ग बन्द थे, इसीलिए मैंने अपनी सेवा के द्वारा उनको पाना चाहा था। इसीलिए उस ओर शक्ति के अनुसार मैंने कभी अवहेलना नहीं की। मैंने सोचा था, यदि एक बार उनको हृदय में पा जाऊँ, तो जितने दिन बचूँगी, जहाँ जिस तरह भी रहूँगी, शान्त भाव से जीवन बिता सकूँगी। लेकिन मेरी सारी चेष्टाएँ विफल हो गयी। उनको पाना आरम्भ आवश्य कर दिया था, लेकिन पा न सकी। पहले से ही वही जो तुम मेरे हृदय को घेरे रहे, किसी प्रकार भी वहाँ से फिर तुमको मैं हटा न सकी – अपने पति को भी अपने हृदय में न पा सकी।”

उपेन्द्र उठ खड़ा हुआ। बोला, “काफ़ी रात हो गयी भाभी, मैं जाता हूँ।”

किरणमयी भी उठ खड़ी हुई। बोली, “चलो, तुमको द्वार तक पहुँचाकर सदर दरवाज़ा बन्द कर आऊँ। कल भेंट होगी न?”

“नहीं, कल मैं घर जाऊँगा।”

“और किसी दिन भेंट होगी?”

“हो जाना तो सम्भव है। नमस्कार भाभी।”

“नमस्कार बुबुआ! दिवाकर को यहाँ भेजोगे न?”

“भेजूँगा तो अवश्य ही भाभी। उसके माँ-बाप नहीं हैं, मैं ही इतने दिनों से उसकी देख-भाल करता रहा हूँ। आज से उसको मनुष्य बनाने का भार जब कि आपने लेना चाहा है, वह भार आप ही के हाथ मैंने सौंप दिया।”

किरणमयी के नेत्रों में आँसू उमड़ते आ रहे थे। उसने कहा, “इतनी बातें सुन लेने के बाद भी इतने बड़े विश्वास का भार मेरे ऊपर किस प्रकार डालोगे बबुआ? तुम दिवाकर को कितना प्यार करते हो यह तो मैं जानती हूँ।”

उपेन्द्र ने दरवाज़े के बाहर आकर कहा, “इसीलिए तो मैंने आपको दे दिया भाभी। मैं जिसको प्यार करता हूँ उसका अकल्याण आपसे कभी न होगा, यही तो मुझे विश्वास है।” कहकर शीघ्रता से आगे बढ़ गये। किरणमयी ने अँधेरी गली में अपना मुँह बढ़ाकर ऊँचे स्वर से पूछा, “एक बात और तुम मुझे बता जाओ बबुआ, सतीश क्या कलकत्ता में नहीं हैं?”

उपेन्द्र ने दूर से ही उत्तर दिया, “नहीं।”

किरणमयी ने फिर पूछा, “वह जब मुझे बिना बताये चला गया है तो वह बड़े ही दुःख से गया है बबुआ। उसको क्या तुमने इस घर में आने को मना कर दिया है?”

उपेन्द्र ने कहा, “करने की इच्छा थी, लेकिन मैंने किया नहीं।”

किरणमयी ने पूछा, “यदि इच्छा ही थी, तो किया क्यों नहीं?”

उपेन्द्र चुप हो रहे।

उत्तर न पाकर किरणमयी ने कहा, “ऐसी इच्छा क्यों हुई थी, वह भी क्या मैं नहीं जान सकती?”

उपेन्द्र ने कहा, “मुझसे भूल हो सकती है। जो भी हो, वह कहाँ है इसका पता लगाकर आपके पास आने के लिए उसको पत्र लिख दूँगा। उससे ही पूछ लेना।” यह कहकर उपेन्द्र दूसरे प्रश्न की प्रतीक्षा किये बिना ही अँधेरी गली को पार कर गये।

अट्ठाईस

जो पक्की सड़क सीधी संथाल परगने के बीच से होती हुई वैद्यनाथ से दुमका को गयी है, उसी के निकट बग़ीचे में बैद्यनाथ से प्रायः दो कोस की दूरी पर एक बंगला था। कलकत्ता से चले आने पर सतीश पता लगाकर इस बंगले को किराये पर लेकर रह रहा था। अपने साथ समझौता कर लेने के लिए वह इस एकान्त स्थान में अज्ञातवास कर रहा था। इसीलिये जब उसने देख लिया कि, इसके आसपास गाँव नहीं है, सामने के मार्ग में लोगों का चलना-फिरना भी बहुत कम है तब प्रसन्न होकर उसने कहा, “यही मुझे चाहिए। ऐसी ही निर्जन नीरवता की मुझे आवश्यकता है।” कलकत्ता से वह जो दुःख और अपयश का बोझ लेकर आया था, एकान्त में बैठकर एक-एक करके इन्हीं सबका लेखा-जोखा कर लेना उसके मन को अभीष्ट था। सबसे पहले सावित्री को अत्यन्त घृणा करने की उसे आवश्यकता है, दूसरी बात पाथुरियाघाट की भाभी को भूल जाना चाहिए और तीसरी बात उपेन भैया के साथ सम्बन्ध विच्छेद कर ही देना पड़ेगा। इन सब कठिन कामों को इस वन में बैठकर पूरा कर डालन ही उसका उद्देश्य है। उसके साथ था बिहारी और देशी रसोइया ब्राह्मण। बिहारी का काम था बाबू की सेवा करके शेष समय में रसोइया के साथ वादानुवाद करके उसे मूर्ख और अनाड़ी सिद्ध करना और दूसरे का काम था दाल-भात पकाकर शेष समय में बिहारी के साथ झगड़ा करके यही सिद्ध करना कि सब्जी आदि का पैसा दोनों हाथों से चुरा रहा है, इसीलिए इन लोगों का समय तो एक तरह से बीतने ही लगा, लेकिन जो मालिक थे, वे प्रतिक्षण केवल संसार तत्वचिन्तन में ही मग्न रहते थे। संसार में कामिनीकंचन ही सभी अनर्थों की जड़ है, वैराग्य ही परम वस्तु है, पक्षियों की बोली ही चरम संगीत है, वन-पर्वत ही सौन्दर्य का सच्चा आदर्श है, इस सत्य को पूर्ण रूप से हृदयंगम करना ही उनकी साधना की वस्तु है। इसलिए, बरामदे में एक टूटी आरामकुर्सी पर सारा दिन बैठकर सतीश पक्षियों का कलरव कान खड़े कर सुनने लगा। महुआ के वृक्ष पर हवा की सों-सों की आवाज़ किस राग-रागिनी से भरी हुई है इस पर विचार करने लगा, आकाश में भाँति-भाँति के बादलों को देखकर उच्छ्वसित होकर मन ही मन प्रशंसा करने लगा और दूर पहाड़ पर बाँसों की पत्तियों में आग लगाने की आवाज़ सारी रात जागता हुआ सुनने लगा।

इधर मांस-मछली खाना छोड़कर उसने सात्त्विक भोजन आरम्भ कर दिया और कहीं से पत्थर का एक टुकड़ा लाकर दिन को उसकी पूजा करने और रात को आरती उतारने लगा।

फिर भी, इस नवीन पद्धति की जीवन-यात्रा के साथ किसी समय भी उसका परिचय नहीं था। इससे पहले बराबर ही उसको पक्षियों के स्वर की अपेक्षा सितार की ध्वनि ही मधुर लगती रही है, हवा में राग-रागिनी का अस्तित्व है इसकी स्वप्न में भी उसने कल्पना नहीं की और आकाश में मँडराते हुए बादलों ने किसी दिन भी उसे विचलित नहीं किया। वास्तव में, प्रकृति देवी की इन सब शोभा-सम्पत्तियों की वे चाहे जितनी भी बहुमूल्य क्यों न हों, ख़बर लेने का अवकाश सतीश को कभी नहीं था! जहाँ गाना-बजाना होता था, जहाँ थियेटर-नाटक होते थे, जहाँ फुटबाल-क्रिकेट के खेल होते थे, वहाँ सतीश दिन बिताया करता था। कहाँ मारपीट करनी पड़ेगी, किस बैठक में स्टेज बनाना पड़ेगा, किसके घर का मुर्दा जलाना पड़ेगा, किसकी विपत्ति में दस रुपये जुटाकर देने पड़ेंगे – ये ही उसके कार्य थे।

पक्षियों के गान में माधुर्य है या नहीं, कोयल पंचम स्वर से पुकारती है या नहीं, आकाश-पट पर किसकी तूलिका रंग फैलाती हैं, नदी का जल कलकल शब्दों से किस वाणी की घोषणा करता है, कामिनी-कंचन संसार में किस परिणाम में अनर्थ की जड़ हैं, इन सब सूक्ष्म तत्त्वों ने कभी भी उसके मस्तिष्क में प्रवेश नहीं किया था, और इनके लिए दुःख प्रकट करते भी उसको किसी ने नहीं देखा था। यह है सीधा-सादा मनुष्य, संसार का कारोबार वह सीधे ढंग से ही कर सकता है, जिसको वह प्यार करता है, उसको बिना विचार किये ही करता है, और उसके ऊपर कोई आघात पड़ने पर क्या करना चाहिए इसका निश्चय नहीं कर सकता। इस संसार में दो नर-नारियों को उसने सबसे अधिक प्यार किया था। एक है सावित्री और दूसरे हैं उसके उपेन भैया सावित्री उसको धोखा देकर दुराचारी विपिन के साथ कहीं चली गयी, और उपेन भैया कोई प्रश्न न करके ही एक अँधेरी रात में उसको छोड़कर चले गये। केवल खड़ा होने का एक स्थान था – वह था किरणमयी के पास। लेकिन उस द्वार को भी बन्द देखकर लौट आने का फिर उसे साहस नहीं हुआ। इसीलिए वह उस निर्जन स्थान में आकर आकाश-वायु पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के साथ बरबस एक नया सम्पर्क स्थापित करके वैराग्य-साधना में लग गया था। लेकिन जीवन में सदा ही जो मनुष्य आमोद-प्रमोद, मित्र-स्वजनों को लेकर हल्ला-गुल्ला मचाकर ही दिन बिताता रहा, उसी की इस नवीन चेष्टा से बूढ़े बिहारी की आँखों में जब-तब आँसू आ जाते थे।

वह किसी दिन आकर कहता, “बाबू, दो भले मानस बंगाली सामने के मार्ग से सम्भवतः त्रिकूट देखने जा रहे हैं।”

बात समाप्त न होती कि सतीश ‘कहाँ है रे?’ कहकर झटके से उछल उठने के बाद तुरन्त ही ‘जाने दो’ कहकर उदास मुख से अपनी कुर्सी पर बैठ जाता।

बिहारी कहता, “बुलाकर तनिक बातचीत….।”

सतीश कहता, “किसलिए?” उसके बाद एक सूखी हँसी हँसकर कहता, “मुझे अब उस सब बातचीत का प्रयोजन नहीं है – अच्छा भी नहीं लगता। तू जानता है बिहारी, वन के पक्षी आजकल मुझे गाना सुनाते हैं, पेड़-पौधे बातें करते हैं, हवा बहकर देश भर की कितनी ही कहानियाँ मुझे सुनाती है, मुझे अब फालतू लोगों के साथ हास-परिहास में समय नष्ट करने की इच्छा नहीं होती है। यदि मेरे यथार्थ मित्र कोई कहे जा सकते हैं तो ये ही लोग हैं। समझ गया न, बिहारी।” बिहारी निरुत्तर म्लान मुख से लौट जाता है। लेकिन बड़ी देर तक मालिक का यह करुण कण्ठ-स्वर उसके कानों में गूँजता रहता है।

बिहारी की एक आदत थी कि वह कोई वचन देकर उसे तोड़ नहीं सकता था। बहुत से विशेष भले आदमी जिस लोभ को सम्भाल नहीं पाते उसे सम्भालने की शक्ति इस छोटे बिहारी में थी। मन ही मन एक प्रकार से समझ सकता था कि उस रात को सावित्री किस प्रकार की धोखाधड़ी मचाकर चली गयी। वह सतीश की विशेष हितैषिणी है और सतीश को वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, इस विषय में बिहारी के मन में कुछ भी सन्देह नहीं था, फिर भी वह किसलिए, जो अपराध उसने किया नही है, उसे ही स्वीकार करके और जो पाप किसी दिन था ही नहीं, उसी का बोझ अपने हाथों से सिर पर रखकर अपने मालिक को इतनी व्यथा दे गयी, इस बात पर निरन्तर विचार करके भी वह कुछ समझ नहीं पाता था। लेकिन सुना जाता है कि सावित्री पर बिहारी की असीम भक्ति थी। उसको वह माँ कहकर पुकारता था और शापभ्रष्टा देवी समझता था, इसीलिए अपनी बुद्धि में कूल-किनारा न पाकर वह यह कहकर अपने मन को शान्त कर लेता था कि अन्त में कुछ भला ही होगा। और इस भलाई की आशा से ही वह उस सम्बन्ध में बिल्कुल ही चुप हो गया था। स्वामी का मुख देखकर सावित्री की वास्तविक दशा खोलकर कह देने के लिए कभी-कभी उसके हृदय में भारी आवेश उठ आता था, तब यह कहकर वह अपने आपको सम्भाल लेता था कि अपनी माँ की अपेक्षा तो बाबू को मैं अधिक प्यार नहीं करता, वह स्वयं ही जबकि यह दुःख दे गयी तो मैं क्यों बाधा पहुँचाऊँ! वह बिना समझे ही तो मुझे सिर की सौगन्ध दिलाकर मना नहीं कर गयी हैं।

इसी प्रकार इन लोगों के एकान्तवास की अवधि बीत रही थी। सम्भवतः कुछ समय और भी बीत जाता, लेकिन एकाएक एक दिन बाधा पड़ गयी।

जिसे काल वैशाखी कहते हैं, उस दिन वही समय था। समस्त दिन मन में यद्यपि दुर्दिन का कोई लक्षण नहीं था, लेकिन लगभग तीसरे पहर बीस मिनट के अन्दर ही आकाश में प्रबल तूफ़ान छा गया। पलभर में सतीश ने घोड़े के पैरों की आवाज़ सुनकर देखा, एक अच्छा घोड़ा पीठ पर साज लिये तूफ़ान के साथ उन्मत्त वेग से भागता चला जा रहा है। सतीश ने पुकारा कहा, “बिहारी, वह किसका घोड़ा दौड़ता हुआ भाग गया, जानता है?”

बिहारी ने कमरे में बत्ती साफ़ करते-करते कहा, “किसी बाबू-वाबू का होगा।”

सतीश ने पूछा, “इस तरफ़ बाबू और कौन है रे यहाँ?”

बिहारी ने कहा, “इस तरफ़ भले ही न हों, देवघर से प्रायः बाबू-भैया लोग गाड़ी पर सवार होकर त्रिकूट देखने, तपोवन देखने के लिए आते हैं। उन्हीं लोगों में से किसी का होगा। तूफ़ान के डर से दौड़ रहा है”

“तब तो बड़ी मुश्किल है।” यह कहकर सतीश फिर अपनी आरामकुर्सी पर लेट गया। लेकिन उस बात को वह अपने मन से निकाल न सका। उसके मन में विचार उठने लगा, कुछ भी हो स्त्री के साथ रहने से विपत्ति तो साधारण नहीं हो सकती। इस स्थान में गाड़ी-पालकी तो दूर की बात है, एक आदमी की सहायता पाना भी कठिन है। इसके अतिरिक्त संध्या होने में तो देर नहीं है। सम्भवतः वर्षा होने लगेगी। सतीश बैठा न रह सका, बरामदे के कोने से लाठी उठाकर बाहर निकल पड़ा। मार्ग में आकर उसने देखा, पत्थरों का चूरा आँधी के वेग से छर्रों की भाँति शरीर में बिंध रहा है और सम्पूर्ण मार्ग में धूल और बालू से अँधेरा हो गया है। एकाएक उस अन्धकार से तूफ़ान की ओर से एक हो-हो की चिल्लाहट आने लगी। होली की छुट्टी पाकर हिन्दुस्तानी दरबानों का दल जिस प्रकार की चिल्लाहट-भरी आवाज़ करते हुए रास्ते में निकल पड़ता है – यह उसी प्राकर की आवाज़ थी। बात क्या है यह देखने के लिए सतीश ने उस धूलि में कुछ मार्ग तय करते ही देखा, मार्ग पर एक टमटम है, और उसी को घेरकर आठ-दस आदमी आनन्द-ध्वनि कर रहे हैं। किसी के सिर पर टोपी है, किसी के सिर पर पगड़ी है – सभी का पहनावा हिन्दुस्तानी है।

यह आनन्द किस बात का है, यह बात जानने के लिए सतीश ने और कई कदम आगे बढ़ते ही देखा, टमटम की एक बाँह पकड़कर एक स्त्री माथा झुकाये अत्यन्त सिमटी हुई खड़ी हुई है और उसी को लक्ष्य करके जमा हुए लोग जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, उसे उच्चारण कर पाना किसी सभ्य आदमी के लिए सम्भव नहीं है। सतीश को पहले यह ध्यान आया कि ये लोग इस ओर कहीं स्त्री को लेकर आनन्द मनाने आये थे और अब घोड़ा भाग जाने से एक प्रकार की खुशी मना रहे हैं। एक बार उसने सोचा कि लौट जाये लेकिन मालूम नहीं वह क्यों आज किसी प्रकार की कौतूहल रोक न सका। ठीक उसी समय आश्चर्य के साथ उसकी निगाह पड़ गयी उस स्त्री के पहनावे पर। संध्या और बालू के अन्धकार में भी जान पड़ा कि, उसका पहनावा मानो बंगाली स्त्रियों की तरह का है। पैरों में लखनऊ के बने जूते नहीं हैं, बल्कि अंग्रेज स्त्रियाँ जो पहनती हैं वे ही हैं।

अकस्मत! उस स्त्री ने ऊँचे स्वर से पुकारकर कहा, “महाशय! मुझे बचाइये!”

“बचाइये!” एक ही क्षण में सतीश के वैराग्य का नशा हवा हो गया। कामिनी अत्यन्त घृणित है, इस तत्त्व को वह भूल गया – बाघ की तरह कूदकर वह एकदम ही उस औरत के निकट जा खड़ा हुआ। उसने कहा, “क्या हुआ है?”

उस स्त्री ने इतनी देर तक अकेले बहुत की कष्ट सहन किया था। इस बार मुँह ढककर बैठ गयी ओर रोने लगी।

सतीश ने व्यग्र होकर पूछा, “क्या बात है? क्या हो गया है?”

“ये लोग मेरा बहुत अपमान कर रहे हैं।”

“अपमान कर रहे हैं? कौन हैं ये लोग?”

“मैं नहीं जानती।”

“जानती नहीं हो?” सतीश एक ही साथ बहुत से प्रश्न कर बैठा, “तुम कौन हो? कहाँ से आयी हो? तुम्हारे घर के लोग कहाँ हैं, यह गाड़ी किसकी है?”

उस स्त्री ने आँखें पोंछकर रुँधे कण्ठ से कहा, “मेरा साईस घोड़ा पकड़ने के लिए साथ-साथ दौड़ता गया है – और कोई नहीं हैं। मैं त्रिकुट देखने के लिए आयी थी – प्रायः आती हूँ – वहाँ से ही ये लोग मुझे तंग करते आ रहे हैं।”

सतीश ने क्रुद्ध होकर कहा, “अच्छा किया है। आप क्या मेम साहब हैं टमटम हाँककर इतनी दूर तक आयी हैं? आप क्या अंग्रेज की स्त्री हैं कि जहाँ भी इच्छा हो अकेले जाने पर कोई भय नहीं है? हमारे देशी आदमी असहाय देशी स्त्रियों को पाने से उसका अपमान करेंगे, उनके ऊपर अत्याचार करेंगे यही है इस देश का नियम, इसे क्या आपके माँ-बाप नहीं जानते?” यह कहकर हिन्दुस्तानियों में जो सबसे बड़ा था, उसके ऊपर अग्निदृष्टि डालकर उसने कहा, “तुम लोग यहाँ खड़े क्यों हो?”

उसने कहा, “हमारी खुशी।”

उन लोगों की आँखों की ओर देखने से ही समझ में आता था कि उन्होंने या तो भांग, गांजा अथवा दोनों ही वस्तुओं का सेवन किया है। सतीश ने हाथ से सीधा मार्ग दिखाकर संक्षेप में कहा, “जाओ।”

उत्तर में उस व्यक्ति ने अपने मुँह को अत्यन्त विकृत बनाकर कहा, “अरे, जाओ रे।”

प्रत्युत्तर में सतीश ने उसके गाल पर ऐसा एक थप्पड़ लगा दिया कि वह उस ‘रे’ शब्द को ही और ज़रा-सा खींच लेने का अवसर भर पा गया, उसके बाद बेहोश होकर मार्ग पर चक्कर खाकर गिर पड़ा और उसके पास निरीह की भाँति जो छोकड़ा खड़ा था, वह बिना अपराध के ही सतीश के बायें हाथ का चपेटा खाकर टमटम के साईस के बैठने के स्थान पर और उसके बाद पहिये के नीचे आँखें बन्द करके बैठ गया। बाकी जो कई आदमी थे, उनमें से कुछ तो नशे के गुण से हतबुद्धि की भाँति देखते खड़े रहे। सतीश ने सामने के आदमी को बुलाकर कहा, “अब तुम जाओ।”

प्रत्युत्तर में वह बिजली की भाँति तेजी से सबके पीछे जा खड़ा हुआ।

सतीश ने उस स्त्री से कहा, “उठिये…।”

वह चुपचाप उठ खड़ी हुई। सतीश ने कहा, “पानी आने में देर नहीं है – आइये मेरे साथ।”

स्त्री ने डरते-डरते कहा, “मैं क्या शहर तक पैदल चल सकूँगी?”

सतीश ने कहा, “शहर में नहीं, मेरे घर पर। उसी बग़ीचे में। पानी आ रहा है, अब खड़ी रहकर सोचने से काम न चलेगा। न चलेंगी तो यहीं खड़ी रहकर भीगिये, मैं जा रहा हूँ।”

स्त्री ने कहा, “चलिये। आपके साथ चलने में हर्ज क्या है?”

बूँद-बूँद पानी गिरना आरम्भ हो गया और आँधी का वेग शिथिल होने पर भी रुका नहीं था। दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे, बग़ीचे के फाटक के सामने एकाएक सतीश बोला, “लेकिन घर पर कोई स्त्री नहीं है – मैं अकेला रहता हूँ।”

स्त्री ने पूछा, “तो फिर आपकी रसोई पकाने, घर-गृहस्थी का काम कौन करता है? स्वयं करते हैं?”

“नहीं, नौकर है। लेकिन वह भी कोई स्त्री नहीं है।”

“भले ही न हो। लेकिन आप खड़े क्यों हो गये? चलते-चलते बताइये न।”

सतीश ने कुण्ठित होकर कहा, “यही कहता हूँ कि मेरे यहाँ कोई स्त्री नहीं है। इस रात्रि को अन्दर जाने से पहले आपको बता देना उचित है।”

स्त्री ने कहा, “यदि उचित है तो वहीं क्यों नहीं बता दिया। लेकिन मैं अब खड़ी नहीं रह सकती – मेरे हाथ-पैर काँप रहे हैं। इसके अतिरिक्त मुझे बड़ी प्यास लगी है।”

“आइये, आइये!” कहकर सतीश घबड़ाकर अँधेरे बग़ीचे में मार्ग दिखाता हुआ चलने लगा। इन सब भद्दी घटनाओं के बाद यह कैसे थक गयी है, यह मन ही मन अनुभव करके सतीश लज्जित हो उठा। थोड़ी देर के बाद ही उसने धीरे-धीरे कहा, “आपकी आवाज़ मैंने कहीं सुनी है ऐसा ज्ञात हो रहा है।” स्त्री ने इसका उत्तर नहीं दिया। लेकिन वह समझ गयी कि अन्धकार में सतीश उसका मुँह नहीं देख सका। बरामदे में जाकर सतीश की टूटी आरामकुर्सी पर बैठकर उसने कहा, “साथ में बिहारी है न?”

यह कहकर उसने ऊँचे स्वर से पुकारा, “बिहारी, मेरे लिए एक गिलास पानी तो लाओ।”

बिहारी उधर के बरामदे में था। पुकार सुनकर पानी लेकर उपस्थित हुआ। बरामदे की दीवाल पर टिमटिमाती हुई एक मिट्टी के तेल की ढिबरी जल रही थी, उसी क्षीण प्रकाश में उसने उस स्त्री को देखते ही पहिचानकर आश्चर्य के साथ कहा, “बहिनजी, आप हैं!”

“वह तो लम्बी कहानी है।” कहकर स्वयं उठकर बिहारी के हाथ से पानी का गिलास लेकर सारा का सारा एक साँस में पीकर बिहारी के हाथ में लौटाकर उसने कहा, “भैया को ख़बर देनी पड़ेगी बिहारी। पता बता देने से इस रात को तुम मकान का पता लगा सकोगे न?”

बिहारी ने गरदन हिलाकर कहा, “नहीं बहिनजी, मैं तो शहर का कुछ भी नहीं जानता। इसके अतिरिक्त बूढ़ा आदमी ठहरा, इस आँधी-पानी में अँधेरे मार्ग में क्या चल सकूँगा?”

“तब क्या होगा बिहारी? यदि घोड़ा जाकर अस्तबल में घुस गया होगा, तो भैया सोच में पड़कर व्याकुल हो जायेंगे। किसी भी उपाय से उनको ख़बर देनी होगी कि कोई भय नहीं है, मैं निरापद हूँ।” बिहारी ने सोचकर कहा, “हमारा रसोइया ब्राह्मण इसी देश का आदमी है, राह-घाट सब पहचानता है। ज्योतिष बाबू का डेरा बताने से वह अवश्य ही जा सकेगा।”

सतीश यह जान गया कि वह स्त्री कौन है। उसने कहा, “भैया को एक पत्र लिख दीजिये।”

उस स्त्री ने कहा, “वह तो लिखना पड़ेगा ही।”

सतीश बोला, “इस प्रकार लिख दीजियेगा कि बहिन को मेम साहब बना देने का फल आज क्या हुआ। साहब आदमी सुन लेने पर सम्भवतः प्रसन्न ही होंगे।”

व्यंग्य सुनकर सरोजिनी क्रुद्ध हो गयी। उसका आज का आचरण दुर्भाग्यवश अत्यन्त भद्दा हो गया था, यह सच है। इसके लिए उसे स्वयं भी कम पछतावा नहीं हुआ, लेकिन दूसरा कोई आदमी इसीलिए बार-बार मेमसाहब के साथ तुलना करके व्यंग्य बोलेगा तो वह सहा नहीं जा सकता। उसने कड़े स्वर से उत्तर दिया, “भैया को आप ही लिख दीजिये, उनकी बहिन को कैसी विपत्ति से आज आपने बचा लिया है!”

उसकी खीझ का कारण सतीश समझ गया। लेकिन स्वयं वह यह सब साहबी चाल सह नहीं सकता था। उसने कहा, “लिख देना ही उचित है। इस पर भी यदि आप लोगों के समाज को होश आये।”

सरोजिनी ने कहा, “हमारे समाज के प्रति आपको बड़ी घृणा है न? आप की धारणा यह है कि हम लोग मनुष्य नहीं हैं?”

– “मेरी धारणा जो भी हो। आप लोगों की खुद की धारणा क्या है? कि आप लोगों के अलावा बंगाल में मनुष्य ही नहीं होते, यही न?”

– “हम लोगों में जिनकी यह धारणा है, कम-से-कम मैं उन्हें इसके लिये दोष नहीं देती।”

– “मालूम है। इसीलिये आज आपको और अधिक सज़ा मिलनी चाहिये थी। वहाँ आपको पहचान जाता तो चुपचाप वापस चला आता, मुँह से एक शब्द भी नहीं निकालता।”

– “क्या सजा मिलती, ज़रा मैं भी तो सुनूँ? अपमान और अत्याचार – यही न?”

– “हाँ यही,” सतीश ने ज़ोर से कहा।

– “अच्छा अब समझ में आया कि असहाय औरत का अपमान करना ही देशी लोगों का चरित्र होने की बात आपने क्यों कही थी। आपको चाहिये था कि बाकी का अपमान घर लाकर खुद करते। अब पहचान निकल आने के कारण बाधा पड़ जाने का गुस्सा है आपको।”

सरोजिनी की बात में कटुता देखकर क्रोधित होते हुए भी सतीश को हँसी आ गयी। बोला, ‘हाँ, बिल्कुल यही बात है। आपका अपमान न कर पाने के कारण ही यह गुस्सा है। हमारे यहाँ कृतज्ञता नाम का एक शब्द है, लेकिन लगता है कि आप साहब-मेमसाहबों के अभिधान में वह शब्द ही नहीं है।”

बादलों में छिपी बिजली की तरह सरोजिनी के होंठों पर हँसी दौड़ गयी; तब भी क्रोध प्रकट करते हुए बोली, “हाँ, नहीं है। ये साहब-मेमसाहब जितने अकृतज्ञ होते हैं, उतने ही पाखण्डी। आप जब तक उनके दल में शामिल नहीं होंगे उनके परित्राण का कोई उपाय ही नहीं है। कहिये शामिल होंगे उनके दल में।”

प्रत्युत्तर में सतीश भी हँसी को दबाकर कुछ कहने जा रहा था। ऐसे ही समय बिहारी ने हनुमान पाण्डेजी को लाकर उपस्थित किया। सरोजिनी ने हैंड बेग खोलकर पाँच रुपये निकालकर कुर्सी की बाँह पर रखकर कहा, “यह है तुम्हारा इनाम पाण्डेजी, यदि इसी शहर में जाकर यह चिट्ठी दे आ सको।” यह कहकर उसने पूरा पता बता दिया।

पाण्डेजी ने अपनी एक महीने की आमदनी पर ललचाई दृष्टि डालकर एक क्षण में ही राजी होकर हाथ बढ़ा दिया। उसके पसारे हुए हाथ में सरोजिनी उन थोड़े से रुपयों को रखकर चिट्ठी लिखने के लिए कमरे के अन्दर चली गयी। लिखने की मेज़ सामने ही थी। थोड़ी ही देर के बाद उसने पत्र लाकर पाण्डेजी के हाथ में दे दिया। पाण्डेजी सावधानी से अपनी मिरजई में रखकर बायें हाथ में छोटी लालटेन और हाथ में खूब लम्बी और मोटी बाँस की लाठी लेकर बाहर की मूसलाधार वर्षा में ही पलभर में अन्तर्धान हो गये।

बिहारी ने कुण्ठित भाव से कहा, “बाबू, महाराज कब लौटेगा इसका ठिकाना नहीं – रसोई का क्या होगा?”

सतीश सरोजिनी के मुँह की ओर एक बार देखकर, बात को दबा रखने के लिए लापरवाही के साथ बोला, “अरे, छोड़ो भी! वह पीछे हो जायेगी।”

बिहारी की घबराहट उससे कुछ भी कम नहीं हुई। उसने कहा, “किस प्रकार हो जायेगी, मैं तो समझ नहीं पाता बाबू!”

सतीश ने रुष्ट होकर कहा, “तुझे समझना न पड़ेगा बिहारी, तू जा। यह सब मैं ठीक कर लूँगा। इसके अतिरिक्त आज मुझे भूख भी नहीं है।”

बिहारी एक कदम भी नहीं डिगा। क्योंकि इस बात पर उसने तनिक भी विश्वास नहीं किया। क्योंकि पहले तो साधारण लोगों की अपेक्षा मालिक की भूख की मात्रा अधिक है, इसके अतिरिक्त इतने दिनों की नौकरी में उसने उन में इस वस्तु की कमी एक दिन भी नहीं देखी। संकोच से उसने कहा, “यह क्या हो सकता है बाबू!”

सतीश ने तिरस्कारपूर्वक कहा, “यही तो तेरा दोष है बिहारी, तू सभी बातों में तर्क करता है। कह रहा हूँ कि यह सब मैं ठीक कर लूँगा, जाने के लिए कह रहा हूँ, जाता नहीं, मुँह के आगे खड़ा रहकर बराबरी का जवाब दे रहा है।”

बिहारी क्षुब्ध चित्त से चला जा रहा था। सरोजिनी ने पुकारकर वापस बुलाकर कहा, “आज मेरे ही कारण तुम लोगों पर इतनी विपत्ति आ पड़ी है बिहारी! रसोई की तैयारी क्या कुछ भी नहीं हुई है?”

बिहारी ने कहा, “हुई क्यों नहीं है बहिनजी, किन्तु रसोई बनायेगा कौन? महाराज के लौट आने में कितनी देर होगी इसको तो कोई ठिकाना नहीं हैं।” यह कहकर वह अप्रसन्न मुँह से जाने लगा।

सरोजिनी ने कहा, “मेम साहब या जो भी हूँ, तो भी आपके साथ एक ही जाति की तो हूँ। उसके हाथ का तैयार खाना खाने से क्या किसी की जाति जायेगी?”

प्रश्न सुनकर सतीश हँस पड़ा। बोला “जाति जायेगी या नहीं, मैं कह नहीं सकता, किन्तु मेम साहब के हाथों की बनी रसोई गले से नीचे उतरेगी या नहीं, यही असली बात है।”

“ऐसी बात है! मेम साहब के हाथ की बनी रसोई खाने से वे भूल न सकेंगे।” यह कहकर सरोजिनी हँसी और इत्र की गंध से समूचे कमरे को मानो तरंगित करके तेज कदम से उठकर दूसरे कमरे में चली गयी। पाँच-छः मिनट के बाद जब वह बाहर आयी तब उसकी ओर देखकर सतीश क्षणभर के लिए मुग्ध हो गया।

जूता-मोजा के बदले दोनों पैर खाली थे। रेशम की कुत्री साड़ी के बदले केवल कमीज पर एक सादी लाल पाड़ की धोती पहिने थी। देखकर सतीश की दोनों आँखें शीतल हो गयी। उच्छ्वसित कण्ठ से बोला, “क्या ही सुन्दर आप दिखायी पड़ रही हैं! मानो लक्ष्मी देवी ही हैं।”

सुनकर सरोजिनी की शिराओं में आनन्दकी बाढ़ आ गयी लेकिन अत्यन्त लज्जा से सिर झुकाकर उसने कहा, “जाइये, परिहास करने से पकाऊँगी नहीं, कहे देती हूँ, तब उपवास करना पड़ेगा।”

लेकिन इस लज्जा को उसने उसी क्षण दबा दिया। क्योंकि वह जानती थी, लज्जा को प्रश्रय देने से वह उत्कट हो उठती है। इसीलिए सिर ऊपर उठाकर उसने हँसते हुए कहा, “प्रशंसा बाद में होगी। अब रसोईघर किस मुहल्ले में है, दिखा देने को कह दीजिये।” कहकर वह स्वयं ही आगे बढ़ गयी।

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