गृहदाह (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 1

गृहदाह (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय Part 1

(1)

महिम का परम मित्रा था सुरेश। एक साथ एम. ए. पास करने के बाद सुरेश जाकर मेडिकल-कॉलेज में दाखिल हुआ; लेकिन महिम अपने पुराने सिटी-कॉलेज में ही रह गया।

सुरेश ने रूठे हुए-सा कहा-महिम, मैं बार-बार कह रहा हूँ-बी.ए., एम. ए. पास करने से कोई लाभ न होगा। अब भी समय है-तुम्हें भी मेडिकल-कॉलेज में भर्ती हो जाना चाहिए।

महिम ने हँसते हुए कहा-हो तो जाना चाहिए; लेकिन खर्च के बारे में भी तो सोचना चाहिए!

-खर्च भी ऐसा क्या है कि तुम नहीं दे सकते? फिर तुम्हारी छात्रावृत्ति भी तो है।

महिम हँसकर चुप रह गया।

सुरेश ने अधीर होकर कहा-नहीं-नहीं, हँसों नहीं महिम, और देर करने से न चलेगा। मैं कहे देता हूँ-तुम्हें इसी बीच नाम लिखाना पड़ेगा! खर्च-वर्च की बाद में देखी जायेगी।

महिम ने कहा-अच्छा।

सुरेश बोला-भई, तुम्हारा कौन-सा अच्छा ठीक है, कौन-सा नहीं-मैं तो आज तक भी यह समझ नहीं पाया। मगर रास्ते में अभी तुमसे वायदा नहीं करा पाया, इसलिये कि मुझे कॉलेज को देर हो रही है। मगर कल-परसों तक जो भी हो-इसका कोई किनारा करके ही रहूँगा मैं! कल सबेरे डेरे पर रहना, मैं आऊँगा। कहकर सुरेश तेजी से कॉलेज की तरफ चला गया।

कोई पन्द्रह दिन बीत गये। कहाँ तो महिम और कहाँ उसका मेडिकल-कॉलेज का दाखिला! एक दिन दोपहर को, बड़ी दौड़-धूप के बाद सुरेश एक गये-बीते से छात्रावास में पहुँचा। सीधे ऊपर चला गया। देखा-एक सीसे से अँधेरे कमरे में फटी चटाइयाँ डाले, छः-सात लड़के खाने बैठे हैं। अचानक अपने दोस्त पर नजर पड़ते ही महिम ने कहा-अचानक डेरा बदलना पड़ा, सो तुम्हें खबर न दे पाया। पता कैसे लगाया?

सुरेश ने उसकी इस बात का जवाब नहीं दिया। वह धप्प से चैखट पर बैठ गया और एकटक उन सबके भोजन की तरफ देखता रहा। बड़ा ही मोटा चावल, पानी-सी पतली जाने काहे की दाल, साग की डण्ठलों के साथ कन्दे की तरकारी, और उसी के पास भुने कोहड़े के एक-दो टुकड़े। दही नहीं, दूध नहीं, किसी तरह की मिठाई नहीं-किसी के पत्तल पर एक टुकड़ा मछली तक नहीं।

सबके साथ महिम खुशी-खुशी, बड़ी ही तृप्ति के साथ यही भोजन करने लगा। लेकिन देख-देख कर सुरेश की दोनों आँखें गीली हो आयीं। मुँह फेर कर किसी कदर उसने अपने आँसू पोंछे और उठ खड़ा हुआ। महज मामूली-सी बात पर सुरेश की आँखों मे आँसू आ जाते।

भोजन कर चुकने के बाद, जब महिम ने उसे ले जाकर अपने साधारण-से बिस्तर पर बैठाया, तो रुँधे-स्वर में सुरेश से बोला-बार-बार तुम्हारी ज्यादती बर्दाश्त नहीं होती, महिम!

क्या मतलब?-महिम ने पूछा।

सुरेश ने कहा-मतलब कि ऐसा भद्दा मकान भी शहर में हो सकता है, इतना बुरा भोजन भी कोई आदमी कर सकता है-अगर आँखों नहीं देखता, तो यकीन नहीं कर सकता। खैर, जो भी हो, इस जगह की तुम्हें खोज ही कैसे मिली, और तुम्हारा वह साबिक डेरा-जितना भी बुरा क्यों न हो चाहे, इससे तुलना ही नहीं हो सकती उसकी-उसे ही तुमने क्यों छोड़ दिया?

मित्र के स्नेह ने मित्र के जी पर चोट पहुँचाई। महिम अपनी उस निर्विकार गम्भीरता को कायम नहीं रख सका। आर्द्र स्वर में बोला-सुरेश, तुमने मेरा गाँव वाला घर देखा ही नहीं, वरना समझ जाते कि यहाँ मुझे जरा भी तकलीफ नहीं हो सकती। रही भोजन की बात, सो भले घर के और-और लड़के जो भोजन मजे से खा सकते हैं, उसे मैं ही क्यों न खा सकूँगा?

सुरेश तैश में आ गया-इसमें क्यों की बात ही नहीं! दुनिया में भली-बुरी चीजें हैं। मगर भली भली ही लगती हैं और बुरी बुरी लगेंगी-इसमें क्या शुबहा? मैं सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि तुम्हें इतनी तकलीफ उठाने की पड़ी क्या है?

महिम चुपचाप हँसता रहा धीरे-धीरे, बोला नहीं।

सुरेश बोला-तुम्हारी जरूरत तुम्हारी ही रहे, मुझे जानने की जरूरत नहीं। लेकिन मेरी जरूरत है-तुम्हें यहाँ से बचा ले चलना। मैं यदि तुम्हें यहाँ छोड़कर जाऊँ-तो मुझे नींद नहीं आयेगी, खाना नहीं रुचेगा। मैं तुम्हारा सारा सरो-सामान अपने घर ले चलूँगा। यहाँ के नौकर से कहो-एक गाड़ी बुला दे! इतना कहकर सुरेश ने जबर्दस्ती महिम को उठाया और खुद उसका बिछौना समेटने लगा।

महिम ने रोक-थाम मे उछल-कूद न की। शान्त गम्भीर स्वर में बोला-पागलपन मत करो, सुरेश!

नजर उठाकर सुरेश ने कहा-पागलपन कैसा? तुम नहीं जाओगे?

-नहीं!

-क्यों नहीं जाओगे? मैं क्या तुम्हारा कोई नहीं? मेरे घर जाने से क्या तुम्हारा अपमान होगा?

-नहीं?

-फिर?

महिम ने कहा-सुरेश, तुम मेरे मित्र हो। ऐसा मित्र मेरा और कोई नहीं! दुनिया में कितनों का है, यह भी नहीं जानता। इतने दिनों के बाद; देह के जरा-से आराम के लिये मैं ऐसी चीज खो बैठूँ-तुम क्या मुझे इतना बड़ा नादान समझते हो?

सुरेश बोला-मिताई तुम्हारी अकेले की तो नहीं, महिम! इसमें मेरा भी तो एक हिस्सा है। यदि वह खो जाये तो कितना बड़ा नुकसान होगा-यह समझने का शहूर मुझे में नहीं-मैं क्या इतना बेवकूफ हूँ? फिर इतना सतर्क सावधान, इतना हिसाब-किताब रखकर न चलने से अगर वह नहीं रह सकती तो जाये क्यों न महिम! ऐसी क्या उसकी कीमत है कि उसके लिये अपने आराम की उपेक्षा करनी होगाी!

महिम ने हँसकर कहा-नहीं, अब हार गया! लेकिन एक बात तैशुदा समझो सुरेश, तुम्हारा ख्याल है-मैं शौकिया यहाँ दुःख झेलने आया हूँ, यह सही नहीं है।

सुरेश बोला-न सही! मैं कारण भी नहीं जानना चाहता-लेकिन अगर तुम्हारी नीयत रुपया बचाने की है, तो मेरे घर चलकर रहो न-इसमें तो तुम्हारा इरादा मिट्टी न होगा!

महिम ने गर्दन हिलाकर संक्षेप में कहा-अभी छोड़ो सुरेश! सच ही अगर तकलीफ होगी, तो तुम्हें बताऊँगा!

सुरेश को मालूम था कि महिम को उसके संकल्प से डिगाना असम्भव है। उसने जिद नहीं की, और एक प्रकार से नाराज होकर ही चला गया। लेकिन दोस्त के

रहने-खाने का यह हाल देखकर उसके जी में सुई चुभती रही।

सुरेश धनी का लड़का था, और महिम को वह अकपट प्यार करता था। उसकी दिली खाहिश थी-किसी तरह वह दोस्त के किसी काम आये। लेकिन वह महिम को कभी मदद लेने को राजी न कर सका-आज भी न कर सका।

(2)

पाँचेक साल बाद दोनों में बातें हो रही थीं।

-तुम पर मुझे कितनी श्रद्धा थी, मैं कह नहीं सकता, महिम!

-कहने को तुम्हें मैं तंग तो कर नहीं रहा हूँ, सुरेश!

-वह श्रद्धा अब शायद न रहने की!

-न रहे तो मैं सजा दूँगा-ऐसी धमकी तो नहीं दी है मैंने कभी।

-तुम्हारा बड़ा-से-बड़ा दुश्मन भी तुम पर कपट का इलजाम नहीं लगा सकता।

-दुश्मन नहीं लगा सकता, इसलिये मित्र भी नहीं लगा सके-दर्शनशास्त्र का ऐसा अनुशासन तो नहीं!

-तौबा कहो, आखिर को एक ब्राह्म लड़की के पाले पड़ गये! है क्या उसमें? सूखी लकड़ी-सा चेहरा, किताबें रटते-रटते बदन में एक बूँद खून का नाम नहीं। ठेल दो तो, डर है-आधी देह अलग हो रहे-आवाज तक ऐसी चीं-चीं कि सुनने से नफरत हो आती है।

-बेशक हो आती है!

-सुनो महिम, मजाक अपने देहाती लोगों से करो, जिन्होंने आँखों से कभी ब्राह्म की लड़की देखी नहीं। जो यह सुनकर दंग रह जाते हैं कि लड़की होकर अँग्रेजी में पता लिख सकती है-जिनके जाने से वे बाअदब दूर खड़े हो जाते हैं। अचरज से अवाक् अपने उन गाँव वालों को करो जाकर, जो देव-देवी समझ कर इनके आगे सिर नवाते हैं। मगर हम लोगों का घर तो गाँव में नहीं, हमारी आँखों में तो इस आसानी से धूल नहीं झोंकी जा सकती!

-मैं तुमसे शपथ खाकर कहता हूँ सुरेश, तुम्हारे शहर वालों को ठगने का अपना कोई इरादा नहीं! मैं उन्हें लेकर अपने गाँव में ही रहूँगा। इसमें तो तुम्हें कोई एतराज नहीं?

सुरेश रंज होकर बोल उठा-नहीं है? सौ, हजार, लाख, करोड़ों एतराज हैं! सारी दुनिया के पूज्य हिन्दू की सन्तान होकर तुम क्या एक औरत के मोह में जान गँवाओगे? मोह! एक बार उनके जूते-मोजे उतारकर अपनी गृहलक्ष्मियों की पोशाक पहनाकर देखो तो सही, मोह जाता रहता है या नहीं! है क्या उसमें? कर क्या सकती है वह? खैर, सिलाई-बुनाई की ही तुम्हें जरूरत है, तो कलकत्ते में दर्जियों की क्या कमी? किसी खत पर पता लिखाने के लिये तो तुम्हें ब्राह्म लड़की की शरण लेनी नहीं है। वक्त-बेवक्त यह क्या कूटपीस कर तुम्हें दो मुट्ठी खिला भी सकेगी? बीमार होने पर सेवा करेगी? इसकी शिक्षा मिली है उन्हें? ईश्वर न करे, मगर ऐसे आड़े वक्त तुम्हें छोड़कर चली न जाये, तो सुरेश के बदले जी चाहे जिस नाम से मुझे पुकारना-दुःख न मानूँगा!

महिम चुप रहा। सुरेश फिर कहने लगा-महिम, तुम तो जानते हो कि मंगल के सिवा मैं तुम्हारा अमंगल नहीं चाह सकता। भूल कर भी नहीं! मैंने बहुतेरी ब्राह्म महिलाएँ देखी हैं! दो-एक अच्छी भी नहीं देखीं, ऐसी बात नहीं। लेकिन अपने हिन्दू घर की महिलाओं से उनकी तुलना ही नहीं हो सकती! ब्याह करने का ही जी हो आया था, तो तुमने कहा क्यों नहीं? खैर हुआ सो हुआ, अब तुम्हें वहाँ जाने की जरूरत नहीं। मैं वचन देता हूँ कि महीने भर के अन्दर तुम्हें ऐसी लड़की ढूँढ़ दूँगा, कि जीवन में कभी दुःख उठाना ही न होगा। अगर ऐसा न कर सकूँ, तो जी चाहे सो करना-इसी के पैरों सिर पीटना, मैं कुछ न बोलूँगा। मगर एक महीना धीरज रखकर, अपनी अब तक की मिताई की मर्यादा तुम्हें रखनी ही होगी! कहो, रक्खोगे?

महिम पहले-सा ही मौन रहा, हाँ-ना कुछ न बोला-लेकिन दोस्त के भले के लिये दोस्त किस कदर बेचैन हो उठा है, यह पूरी तरह समझ सका।

सुरेश बोला-जरा सोच तो देखो सही, तुमने जब ब्राह्म मन्दिर में जाना-आना शुरू किया था, तो मैंने मना नहीं किया था तुम्हें? इतने बड़े कलकत्ता शहर में तुम्हारे लिये कोई हिन्दू-मन्दिर था ही नहीं, कि इस कपट की जरूरत हुई? मैंने तभी समझ लिया था, कि ऐसे में तुम किसी-न-किसी विडम्बना में जरूर जकड़ जाओगे!

अबकी महिम जरा हँसकर बोला-सो समझा होगा, लेकिन मैंने तो ऐसा नहीं समझा था कि मेरे जाने में कोई कपट था! लेकिन एक बात पूछूँ-तुम तो भगवान तक को नहीं मानते, फिर हिन्दुओं के देवी-देवताओं को मानोगे? मैं ब्राह्म-मन्दिर में जाऊँ या हिन्दू-मन्दिर में, इससे तुम्हारा क्या आता-जाता है?

सुरेश ने जोश में कहा-जो नहीं है, मैं उसे नहीं मानता! भगवान नहीं है। देवी-देवता झूठी बात है। लेकिन जो है, उससे तो इंकार नहीं करता। समाज को मैं श्रद्धा करता हूँ, आदमी की पूजा करता हूँ। मैं जानता हूँ कि मनुष्य की सेवा ही मानव-जन्म की चरम सार्थकता है। हिन्दू परिवार में पैदा हुआ हूँ, तो हिन्दू-समाज की रक्षा करना ही अपना काम है। मैं मरते दम तक तुम्हें, ब्राह्म-घर में विवाह करके उसकी जमात बढ़ाने नहीं दूँगा। तुमने क्या वचन दे दिया है कि केदार मुखर्जी की बेटी से ब्याह करोगे?

-नहीं! जिसे वचन देना कहते हैं, वह अभी नहीं दिया है।

-नहीं दिया है न! ठीक है। तो फिर चुपचाप बैठे रहो। मैं इसी महीने में तुम्हारा विवाह कराऊँगा।

-मैं ब्याह करने के लिये पागल हो गया हूँ-यह किसने कहा तुमसे? तुम भी चुप बैठो जाकर; और कहीं ब्याह करना मेरे लिये असम्भव है!

-क्यों, असम्भव क्यों? किया क्या है? उससे प्रेम कर बैठे हो?

-इसमें अचरज क्या है! मगर इस भद्र महिला के बारे में सम्मान के साथ बात करो सुरेश!

-सम्मान के साथ बोलना मुझे आता है। सिखाना नहीं पड़ेगा। मैं पूछ सकता हूँ कि भद्र महिला की उम्र क्या होगी?

-नहीं जानता!

-नहीं जानते? बीस, पच्चीस, तीस, चालीस या और भी ज्यादा-कुछ नहीं जानते?

-नहीं।

-तुमसे छोटी है या बड़ी, शायद यह भी नहीं जानते?

-नहीं।

-जब उन्होंने तुमको फन्दे में फँसाया है, तो नन्हीं-नादान तो नहीं हैं-ऐसा सोचना असंगत न होगा। क्या ख्याल है?

-नहीं। तुम्हारे लिये कोई असंगत नहीं। लेकिन मुझे कुछ काम है सुरेश, मैं जरा बाहर जाना चाहता हूँ।

सुरेश ने कहा-ठीक तो है, मुझे भी कोई काम नहीं है महिम! चलो, तुम्हारे साथ जरा घूम आयें।

दोनों मित्र निकल पड़े। कुछ देर चुपचाप चलते रहने के बाद सुरेश ने धीरे-धीरे कहा-आज जानबूझ कर ही मैंने तुम्हें बाधा दी, शायद यह समझाकर कहने की जरूरत नहीं।

महिम ने कहा-नहीं।

सुरेश ने वैसे ही मृदु स्वर में कहा-आखिर बाधा क्यों दी?

महिम हँसा। बोला-पहली बात अगर बिना समझाए ही समझ सका, तो आशा है, इसे भी समझाना न होगा!

उसका एक हाथ सुरेश के हाथ में था। सुरेश ने गीले मन से उसे जरा दबाकर कहा-नहीं महिम, तुम्हें समझाना नहीं चाहता। संसार में और सब मुझे गलत समझ सकते हैं, मगर तुम मुझे गलत नहीं समझोगे! फिर भी आज मैं तुम्हारे मुँह पर सुना देना चाहता हूँ, कि मैंने तुम्हें जितना प्यार किया है, तुमने मुझे उसका आधा भी नहीं किया। तुम परवाह चाहे न करो, पर मैं तुम्हारी जरा-सी तकलीफ भी कभी सह नहीं सकता। बचपन में इसी पर हमारी कितनी लड़ाई हुई है-सोच देखो। इतने दिनों के बाद जिसके लिये तुम मुझे भी छोड़ रहे हो महिम, अगर निश्चित जानता कि उन्हें पाकर जीवन में सुखी होगे, तो सारा दुःख मैं हँसकर सह लेता, कभी एक शब्द नहीं कहता।

महिम बोला-उनको पाकर सुखी शायद न हो सकूँ; मगर तुम्हें छोड़ दूँगा-यह कैसे जाना?

-तुम छोड़ो न छोड़ो, मैं तुम्हें छोड़ दूँगा।

-लेकिन क्यों? मैं तुम्हारा ब्राह्म मित्र भी तो हो सकता था?

-नहीं। हर्गिज नहीं! ब्राह्म को मैं फूटी आँखों भी नहीं देख सकता। मेरा एक भी ब्राह्म दोस्त नहीं!

-उन्हें देख क्यों नहीं सकते?

-बहुत-से कारण हैं इसके। एक यह कि जो हमारे समाज को बुरा बताकर छोड़ गये, उन्हें अच्छा मानकर मैं हर्गिज पास नहीं खींच सकता। तुम्हें तो पता है-अपने समाज के लिये मुझे कितनी ममता है। उस समाज को जो देश के, विदेश के सबके सामने बुरा साबित करना चाहता है, उसकी अच्छाई उसी की रहे, मेरा वह शत्रु है! महिम मन-ही-मन असहिष्णु होता जा रहा था-अच्छा तो अब क्या करने को कहते हो तुम?

सुरेश बोला-वही तो शुरू से लगातार कह रहा हूँ।

-खैर, एक बार फिर कहो।

-जैसे भी हो, इस युवती का मोह तुम्हें छोड़ना ही पड़ेगा-कम-से-कम एक महीना तुम उससे मिल नहीं पाओगे!

-मगर उससे भी न छूटे तो? यदि मोह से भी बड़ा कुछ हो?

सुरेश ने जरा देर सोचकर कहा-वह सब मैं नहीं समझता महिम! मैं समझता हूँ कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, और उससे भी ज्यादा प्यार करता हूँ अपने समाज को। हाँ, एक बार सोच देखो, छुटपन में चेचक हुआ तुम्हें, वह बात; और नाव डूब जाने से हम मुँगेर में, गंगा में डूब रहे थे। भूली बात की याद दिलाई-इसके लिये मुझे माफ करना, महिम! मुझे और कुछ नहीं कहना; मैं चला! और अचानक वह पीछे मुड़कर तेजी से चला गया।

(3)

सुरेश के बदन में एक ओर जितनी ही ज्यादा ताकत थी, दूसरी ओर उतना ही कोमल था उसका मन, उतना ही स्नेहशील। जाने-अजाने किसी के भी दुःख-कष्ट की बात सुनकर उसे रोना आता। छुटपन में वह एक मच्छर-मक्खी तक को नहीं मार सकता था। जैनियों की देखा-देखी ही, कितनी बार जेब में चीनी-सूजी लिये, स्कूल से गैरहाजिर हो, पेड़ों-तले घूम-घूम कर चींटियों को खिलाया करता था। मछली-मांस खाना उसने कितनी बार छोड़ा और पकड़ा-इसका हिसाब नहीं। जिसे चाहता, उसके लिये कैसे क्या करे, सोच नहीं पाता। स्कूल में अपने दर्जे में महिम सबसे अच्छा लड़का था। लेकिन उसके बदन पर फटेचिटे कपड़े, पैरों का जूता फटा-पुराना, दुबला शरीर, सूखा चेहरा-यही सब देख-सुनकर सुरेश पहले उसकी ओर आकृष्ट हुआ था। और थोड़े ही दिनों में, दोनों का यह आकर्षण बाढ़ के पानी की तरह इतना बढ़ उठा, विद्यालयभर के लड़कों की चर्चा का विषय बन बैठा। महिम को छात्रावृत्ति मिली थी, और उन्हीं चार रुपयों के भरोसे वह कलकत्ते आया तथा गाँव के एक मोदी की दूकान में रहकर स्कूल में दाखिल हुआ। तभी से सुरेश ने दोस्त को अपने घर लाने की हर कोशिश की, मगर उसे हर्गिज राजी न कर सका। वहीं रह कर कभी भूखा, कभी अधपेटा रहकर महिम ने एंट्रेस पास किया। बाद की घटना पहले बताई जा चुकी है।

उस दिन से हफ्ता भर महिम से भेंट न हो सकने के कारण सुरेश उसके डेरे पर गया। किसी त्यौहार के कारण आज स्कूल-कॉलेज बन्द थे। वहाँ जाने पर पता चला-महिम सुबह ही जो निकला है, सो अभी तक नहीं लौटा। सुरेश को सन्देह नहीं रहा, कि वह छुट्टी का दिन बिताने के लिये पटलडांगा के केदार मुखर्जी के यहाँ ही गया है।

जो बेहया दोस्त, आशैशव मिताई की सारी मर्यादा की, एक मामूली औरत के मोह में विसर्जित कर सात दिन भी धीरज नहीं रख सका-दौड़ा गया, पलक-मारते उसके खिलाफ विद्वेष की आग-अचानक आग लग जाने-सी उसके जी में जल उठी। उसने जरा देर विचार भी न किया; गाड़ी पर बैठ गया और कोचवान को सीधे पटलडांगा चलने को कहा-मन-ही-मन कहने लगा-अरे बेहया, अरे अहसान-फरामोश! अपना जो प्राण इस औरत को सौंप कर तू धन्य हो गया है, तेरा प्राण रहता कहाँ? अपने प्राण की कतई परवाह न करके जिसने तेरे प्राण को दो-दो बार बचाया उसका क्या जरा भी सम्मान नहीं रखना था?

केदार मुखर्जी के घरवाली गली सुरेश को मालूम थी, थोड़ी-सी पूछताछ के बाद ही गाड़ी ठीक जगह पर पहुँच गयी। उतर कर सुरेश ने बैरे से पूछा, और सीधे ऊपर की बैठक में जा पहुँचा। फर्श पर बिछाई गयी गद्दी और तकिये के सहारे से लेटे हुए एक बूढ़े-से सज्जन अखबार पढ़ रहे थे। उन्होंने उसकी तरफ ताका। नमस्कार करके सुरेश ने अपना परिचय दिया-मेरा नाम सुरेश बंद्योपाध्याय है। मैं महिम के बचपन का साथी हूँ।

बूढ़े ने नमस्ते किया। चश्मे को मोड़कर रखते हुए बोले-बैठिए! सुरेश बैठ गया। बोला-महिम के डेरे पर गया तो पता चला-वह यहीं है; सो सोचा-इसी बहाने आपसे भी परिचित हो लूँ।

बूढ़े ने कहा-मेरा परम सौभाग्य कि आप पधारे! लेकिन महिम दस-बारह दिनों से इधर नहीं आये। आज सुबह हम लोग सोच रहे थे, जाने किस हालत में हैं वे?

सुरेश मन-ही-मन जरा चकित होकर बोला-लेकिन उनके डेरे पर तो बताया-

बूढ़े ने कहा-और कहीं गये हों शायद। खैर वे अच्छे हैं-सुनकर राहत मिली।

आते-आते राह में सुरेश ने जो उद्धत संकल्प किया था, बूढे़ के सामने आकर उसे दृढ़ न रख सका। उनके शान्त मुखड़े की धीर-मृदु बातों ने उसके मन की आँच को शीतल कर दिया। फिर भी, वह अपने कत्र्तव्य को भी न भूला। मन-ही-मन यह कहकर वह अपने को उत्तेजित करने लगा, कि ये कितने ही भले क्यों न हों, हैं तो ब्राह्म ही! लिहाजा इनका सारा शिष्टाचार ही बनावटी है। ये अबोधों को इसी तरह से फुसलाकर अपना उल्लू सीधा किया करते हैं। सो इन शिकारियों के सामने हथियार डालकर काम को भुलाने से नहीं चल सकता-जैसे भी हो, इनके जबड़े से दोस्त को निकालना ही पड़ेगा! उसने काम की बात शुरू की। बोला-महिम मेरा बचपन का साथी है। ऐसा दूसरा दोस्त नहीं मेरा। अगर इजाजत दें तो उसके बारे में आपसे दो-एक बात करूँ।

बूढ़े ने हँसकर कहा-बखूबी। मैंने उनसे आपका नाम सुना है।

सुरेश ने पूछा-महिम से आपकी लड़की की शादी तै हो गयी?

उन्होंने कहा-तै ही समझिए।

सुरेश ने कहा-लेकिन महिम तो ब्राह्म-समाजी नहीं है, फिर भी ब्याह करेंगे आप?

बूढ़े चुप हो रहे। सुरेश ने कहा-खैर, बात अभी छोड़िए! परन्तु उसकी अवस्था कैसी है, बीवी-बच्चों के गुजर-बसर की सामर्थ्य है या नहीं, गाँव में विरोधी हिन्दू-समाज के बीच, कच्चे घर में आपकी लड़की रह सकेगी या नहीं, और कहीं न रह सके तो महिम क्या करेगा-यह सब सोच देखा है आपने?

बूढ़े केदार मुखर्जी उठ बैठे। बोले-नहीं तो। मैंने तो यह सब सुना नहीं। महिम ने कभी तो यह सब नहीं कहा।

सुरेश बोला-लेकिन मैंने यह सब सोचा है, महिम से कहा है, और वही अप्रिय प्रसंग उठाने के लिये मैं आपके पास आया हूँ आज। अपनी लड़की की आप सोचें, अगर मेरे परम मित्र, जो ऐसी जिम्मेदारी कन्धे पर उठाकर बेहद बोझ से सदा अधमुए-से रहेंगे, यह तो मैं हर्गिज न होने दूँगा।

केदार बाबू का चेहरा फख् हो गया। बोले-आप कह क्या रहे हैं, सुरेश बाबू? पिताजी!-सत्रह-अट्ठारह साल की एक लड़की अचानक कमरे में आकर, पिता के पास किसी अनजाने युवक को बैठा देख अवाक् रह गयी।

-कौन? अचला? आओ बिटिया, बैठो! शर्म कैसी, ये अपने महिम के गहरे मित्र हैं।

वह लड़की आगे बढ़ आयी। हाथ उठाकर सुरेश को नमस्ते किया। सुरेश ने देखा-चमकता साँवला रंग, छरहरा बदन। गाल, ठोड़ी, कपाल-सारे मुख की बनावट ही बहुत अच्छी और सुकुमार। आँखों की निगाह में जरा स्थिर बुद्धि की आभा। नमस्ते करके वह करीब ही बैठ गयी। उसको देखकर सुरेश मुग्ध हो गया। उसके पिता बोले-महिम के बारे में सुना तुमने? हम सोच रहे थे, वह आ क्यों नहीं रहा है? सुन लो। परम बन्धु है उसके, जभी तो ये आये, नहीं तो क्या होता, कहो तो? किसे पता था कि वह ऐसा विश्वासघाती है, इतना बड़ा मक्कार! गाँव में उसका महज एक फूस का घर है। वह तुम्हें खिलाएगा क्या? उसे तो खुद ही खाना-कपड़ा का ठिकाना नहीं। ओः कितना खतरनाक! ऐसे आदमी के मन में भी इतना जहर था?

सुनकर अचला का चेहरा पीला पड़ गया, लेकिन न जाने किसने सुरेश के मुँह पर कालिख पोत दी। वह उस लड़की की ओर अवाक् देखता हुआ, काठ के पुतले-सा बैठा रह गया।

(4)

सुरेश को लगा-उसका निष्ठुर सत्य अचला के कलेजे में गहरा बिंध गया। लेकिन पिता ने उसका ख्याल तक न किया, बल्कि बेटी को ही इशारा करके कहने लगा-सुरेश बाबू, आप सच्चे मित्र का कर्त्तव्य करने आये हैं, हम जिससे भ्रम में भी इस पर अविश्वास न करें। यह कठोर हो, अप्रिय हो, पर सच्चा प्रेम यही है। माँ जब बीमार बच्चे को खाना नहीं देती, तो वह क्या उसे बेरहम नहीं लगती? लेकिन फिर तो उसे वह काम करना ही पड़ता है! सच कह रहा हूँ सुरेश बाबू! महिम हमारे ऊपर ऐसा जुल्म कर सकते हैं-यह हमने स्वप्न में भी न सोचा था। दो साल पहले, उनके बात-व्यवहार से मुग्ध होकर, मैंने खुद ही घर बुलाकर अचला से उनका परिचय कराया-उसका यही बदला! उफ्, इतनी बड़ी प्रवंचना अपने जीवन में मैंने नहीं देखी। अन्दर के आवेग से खड़े होकर केदार बाबू कमरे में पायचारी करने लगे। सुरेश और अचला सिर झुकाये चुप बैठे रहे। केदार बाबू सहसा ठिठककर बोल उठे-नहीं बिटिया, यह नहीं होने का । हर्गिज नहीं! सुरेश बाबू, आप जैसे सबसे ऊपर कर्त्तव्य को ही रखकर मित्र का काम करने आये हैं, वैसे मैं भी कर्त्तव्य को ही सामने रखकर पिता का काम करूँगा। अचला से महिम का सम्बन्ध जितना आगे बढ़ गया है, ऐसे में बिना सबूत के अगर उसके लिये घर का दरवाजा बन्द कर दें तो ठीक नहीं होगा-इसलिये जरा सबूत चाहिए। आप यह न सोचें सुरेश बाबू, कि आपकी बात पर हमने यकीन नहीं किया; लेकिन यह भी अपना कर्त्तव्य है। क्यों बिटिया, सबूत लेना ठीक है या नहीं?

दोनों ही चुप बैठे रहे; उचित-अनुचित-कोई राय किसी ने जाहिर नहीं की। जरा देर रुककर केदार बाबू ही बोले-लेकिन सबूत का भार आप पर ही रहा सुरेश बाबू! महिम की माली हालत की बात तो दूर रही, उसका घर किस गाँव में है-हम यही नहीं जानते।

बैरे ने खबर दी-नीचे विकास बाबू खड़े हैं।

सुनकर केदार बाबू सूख-से गये। बोले-आज तो उनके आने की बात न थी। अच्छा, कहो उनसे-मैं आ रहा हूँ। पलटकर बोले-मुझे पाँचेक मिनट के लिये माफ करना होगा सुरेश बाबू, मैं इस आदमी को रुखसत कर आऊँ। जब आ गया है, तो मिले बिना तो जायेगा नहीं। बिटिया अचला, सुरेश बाबू को अपना परम हितैषी समझना। जो जानना चाहो, इनसे जान लो। मैं अभी आया! कहकर वे नीचे उतर गये।

एक-दूसरे को देखकर दोनों ने सिर झुका लिया। जरा देर चुप रहकर सुरेश ने धीरे-धीरे कहा-मैं महिम का छुटपन का साथी हूँ, लेकिन उसके व्यवहार से आप लोगों के सामने मेरा सिर नीचा हो गया है।

अचला ने धीमे से कहा-इसके लिये आपको लज्जित होने का कोई कारण नहीं!

सुरेश बोला-कहती क्या हैं आप! उसकी इस मक्कारी से, ऐसे पाखण्ड व्यवहार से, दोस्त के नाते मैं शर्मिन्दा न होऊँ तो कौन हो-कहिए। लेकिन तभी तो मुझे सोचना चाहिए था, कि जब उसने मुझी से शुरू से आखिर तक छिपाया, तब इसके अन्दर जरूर कोई गड़बड़ है।

अचला ने कहा-असल में हम ब्राह्म समाजी हैं। आप इस समाज के किसी से कोई सम्पर्क नहीं रखना चाहते, शायद इसीलिये उन्होंने आपसे जिक्र न किया हो।

बात सुरेश को अच्छी न लगी। अचला उसी के सामने महिम का दोष काटना चाहेगी-यह उसने नहीं सोचा था। सूखे कण्ठ से पूछा-यह बात आपने महिम से सुनी होगी शायद।

अचला ने सिर हिलाकर कहा-जी हाँ, उन्होंने ही कहा था।

सुरेश ने कहा-देखता हूँ मेरे दोष को कहना वह भूला नहीं।

अचला जरा फीका हँसकर बोली-यह दोष की क्या बात है? हर आदमी की प्रवृत्ति एक नहीं होती। जो लोग आप लोगों से नाता तोड़कर चले गये हैं, वे अगर आपको अच्छे न लगें, तो इसमें मैं कोई दोष नहीं मानती।

यह बात सुरेश के मनलायक थी, कहीं और सुनकर वह शायद उछल उठता; लेकिन इस मितभाषिणी ब्राह्म युवती के मुँह से, ब्राह्मसमाज पर अपनी वितृष्णा की बात सुनकर आज उसमें जरा भी आनन्द का उदय नहीं हुआ। वास्तव में इस दलबन्दी की मीमांसा सुनने के लिये उसने बात कही भी न थी। बल्कि जवाब में यह सुनना चाहा था, कि उसने महिम से उसके सद्गुण का और विवरण सुना है या नहीं। अचला शायद उसकी इस गोपन अभिलाषा को तोड़ नहीं सकी, इसीलिये सवाल का सीधा जवाब देकर ही वह चुप हो गयी।

सुरेश कुढ़कर बोला-आप लोगों से मुझे सामाजिक चिढ़ है या नहीं-यह चर्चा महिम करे, लेकिन उस पर मुझे जरा भी विद्वेष नहीं है, यह आप मुझसे सुनकर भी अविश्वास न करें। फिर भी शायद मैं उसकी घर की बात करने यहाँ नहीं आता, अगर उस दिन वह मुझसे सच्ची बात नहीं छिपाता।

सुरेश के मुँह पर स्थिर दृष्टि रखकर अचला ने कहा-लेकिन झूठ तो वे नहीं बोलते!

अबकी सुरेश सचमुच ही अचरज से हत-बुद्धि हो गया। एक औरत के मुँह से ऐसा शान्त लेकिन दृढ़ प्रतिवाद भी निकल सकता है-जरा देर वह सोच ही न सका। लेकिन जरा ही देर के लिये। जीवन में उसने संयम नहीं सीखा। सो दूसरे ही क्षण रूखे स्वर में बोल उठा-मुझे माफ करें, वह मेरा बाल्य-बन्धु है। मैं उसे आपसे कुछ कम नहीं जानता! अपने को यहाँ फँसाकर साफ इंकार करने को मैं सत्यवादिता नहीं कह सकता।

अचला ने वैसे ही शान्त स्वर में कहा-उन्होंने खुद तो अपने को यहाँ नहीं फँसाया।

सुरेश ने कहा-आपके पिताजी ने तो यही कहा। इसके सिवा, अपनी गयी-बीती हालत को आप लोगों से छिपाने को भी सत्यप्रियता नहीं कह सकते। बाल-बच्चों के भरण-पोषण की असमर्थता-औरों से न सही, आपसे तो खोलकर कहना चाहिए था।

अचला चुप रही। सुरेश कहने लगा-आप जो उसकी भूल को ढकने की इतनी कोशिश कर रही हैं, आप ही बतायें भला,-सारी बातें पहले मालूम हो जातीं तो उसे इतनी छूट आप दे सकतीं?

अचला चुप ही रही। उससे कोई जवाब न पाकर, सुरेश और भी जोश में आकर कहने लगा-उसने मेरे सामने साफ कबूल किया कि कलकत्ते में आपको रखने की न तो उसे जुर्रत है, न इरादा? अपने उस छोटे-से गाँव में, बिल्कुल विरोधी हिन्दू समाज में, एक कच्चे घर में आपको रक्खेगा-यह बात क्या उसे आपसे बता नहीं देनी चाहिए थी? इतना दुःख उठाने को आप तैयार हैं या नहीं-यह पूछना भी क्या उसने जरूरी नहीं समझा?-उसने आँखें उठाईं। देखा-अचला चिन्तित-सी सिर झुकाए बैठी है। जवाब न मिलने पर भी सुरेश समझ गया कि उसकी बात ने असर किया है। बोला-देखिए, आपसे इस समय मैं सच ही कहूँगा। आज मैं सिर्फ अपने मित्र को बचाने का ही संकल्प लेकर आया था-वह किसी आफत में न पड़े, यही अपना उद्देश्य था। लेकिन यहाँ आकर देखता हूँ कि उसके बजाय आपको बचाना ही मेरा कहीं बड़ा कर्त्तव्य है। क्योंकि उसकी मुसीबत है मोल ली हुई, मगर आप अँधेरे में कूद रही हैं! अभी-अभी जब आपके पिताजी सबूत की जिम्मेदारी मुझी पर सौंप रहे थे, तो जी में आया था कि यह भार मैं न लूँगा। परन्तु अब देखता हूँ कि यह भार मुझे लेना ही पड़ेगा, नहीं तो अन्याय होगा।

अचला बोली-लेकिन सुनकर वे क्या दुःखी न होंगे?

सुरेश बोला-मगर कोई उपाय नहीं है! जिसने पाखण्डी की नाईं आपसे इतनी बड़ी प्रवंचना की है, मित्र होते हुए भी, उसकी फिक्र करने की मैं जरूरत नहीं समझता। मगर मुसीबत तो यह है कि मैं उसके गाँव का नाम भी नहीं जानता, किसी तरकीब से यदि वह जान पाया आज, तो सुबह ही वहाँ जाऊँगा, और सारे सबूत आपके पिताजी को देकर मित्र के पाप का प्रायश्चित करूँगा।

अचला ने कहा-लेकिन इतनी तकलीफ आप क्यों उठाएँ? पिताजी से कहिए-अपने किसी विश्वासी आदमी को भेजकर सब पता कर लें। चैबीस-परगने का राजपुर ग्राम कौन ज्यादा दूर है?

सुरेश ने अचरज से कहा-राजपुर? गाँव का नाम तो आप जानती हैं-देख रहा हूँ। और भी कुछ मालूम है?

अचला ने सहजभाव से कहा-आपने जो कुछ कहा, मैं भी उतना ही जानती हूँ। राजपुर के उत्तर टोले में मिट्टी का एक घर है। अन्दर तीनेक कमरे, बाहर चंडीमण्डप, उसी में गाँव की पाठशाला बैठती है।

सुरेश ने पूछा-उसकी पारिवारिक अवस्था?

अचला बोली-उसके बारे में भी आपने जो कहा, वही। नाम को जायदाद है। किसी तरह दुःख कष्ट से रोटी-भर चल जाती है।

सुरेश ने कहा-तब तो आप सब जानती हैं-देखता हूँ!

अचला बोली-इतना ही जानती हूँ, एक दिन इतना ही उनसे पूछा था। और आप तो जानते हैं-वे कभी झूठ नहीं कहते!

सारा चेहरा स्याह करके सुरेश बोला-जब सारा कुछ मालूम ही है, फिर तो आप लोगों को सचेत करने के लिये मेरा आना बड़ा वैसा हुआ। देख रहा हूँ-उसने आपको धोखा नहीं देना चाहा।

अचला ने कहा-मुझे कुछ-कुछ मालूम है, मगर आप तो मुझे बताने को आये नहीं हैं, जिन्हें बताने आये हैं, अभी तक वे कुछ भी नहीं जानते। आप कहें, तो मैं जितना-भर जानती हूँ, पिताजी को बता दूँ?

सुरेश ने उदास होकर कहा-आपकी मर्जी! लेकिन मुझे महिम को सब कुछ बताकर उससे माफी माँगनी होगी। तब मुझे कहीं चैन मिलेगा।

अचला ने पूछा-इसकी भी कोई जरूरत है क्या?

सुरेश फिर उत्तेजित हो उठा। बोला-जरूरत नहीं है? अनजाने उस पर जो झूठी तोहमत मैंने लगाई है-यह मेरा कितना बड़ा अपराध है, यह क्या आपने नहीं समझा? उसे मक्कार, झूठा-कुछ भी कहना न छोड़ा-ये बातें उसके आगे कबूल किये बिना त्राण कैसे मिलेगा?

अचला जरा देर चुप रहकर धीरे-धीरे बोली-बल्कि मेरा कहा मानिए, इसकी कोई जरूरत नहीं सुरेश बाबू! मन-ही-मन माफी माँगने के बजाय जाहिर में माफी माँगना ही बड़ी चीज है-यह मैं नहीं मानती। सुनते ही जब उन्हें पीड़ा पहुँचेगी, तो बताने से क्या लाभ? मैं बल्कि पिताजी को भी मना कर दूँगी कि वे आपकी बात उन्हें न बतायें।

सुरेश ने कहा-अच्छा! कुछ देर चुपचाप अचला की ओर देखते रहकर बोला-मैं एक बात बराबर गौर करता आ रहा हूँ, कि आपकी कोशिश यही है कि महिम को किसी भी वजह से चोट न पहुँचे। खैर, वही सही! मैं उससे कुछ भी न कहूँगा। उसके बारे में आज मेरे मन में जितनी बातें आयीं, वह भी नहीं कहना चाहता; पर एक बात आपसे कहे बिना मैं हर्गिज नहीं जा सकता।

अचला ने स्निग्ध दृष्टि से देखकर कहा-ठीक है, कहिए!

सुरेश बोला-उससे माफी न माँग पाया, पर आपसे माँग रहा हूँ। मुझे माफ करें! कहकर उसने हाथ जोड़ लिये।

-छिःछिः, यह क्या कर रहे हैं आप?-कहकर अचला ने उसके हाथ पकड़ लिये, और झट उन्हें छोड़कर कहा-यह कैसा अन्याय, कहिए तो! कहते-कहते उसका चेहरा शर्म से तमतमा उठा।

सुरेश के सारे बदन के रोयें खड़े हो आये। इस अनोखे स्पर्श, सलज्ज मुख की अनूठी लाल आभा ने लमहे भर में उसे एकबारगी बेबस बना दिया। वह नजर झुकाए, कुछ क्षण स्तब्ध होकर इसे देखते रहकर धीरे-धीरे बोला-नहीं, मैंने कोई अन्याय नहीं किया! बल्कि अपने हजारों अन्यायों में अगर कोई वाजिब काम हुआ है, तो वह वही है!! आप क्षमा कर दें, तो मेरे मन का सारा क्षोभ धुल जायेगा।

अचला कातर होकर बोली-आप ऐसी बात हर्गिज न कहें। जिन्हें आपने दो-दो बार मौत के मुँह से निकाला है…

-यह भी सुना है आपने?

-सुना है। आपसे बड़ा हितैषी उनका है कौन?

-नहीं, शायद आपके सिवा और कोई नहीं! और इसी नाते से हम दोनों…

अचला के चेहरे पर तनिक ललाई दौड़ गयी। वह बोली-हाँ, बन्धु हुए! आपने इन्हें मौत के करीब से खींच लिया है। इसलिये उनके लिये आपकी किसी भी बात को मैं अन्याय नहीं सोच सकती। आप मन में कोई क्षोभ, कोई लज्जा न रक्खें। क्षमा शब्द के उच्चारण से अगर आपको सन्तोष हो, तो मैं वह कहने को भी तैयार थी-बशर्ते कि मेरी जबान पर वह अटकता नहीं।

-खैर, जरूरत नहीं!-सुरेश उठ खड़ा हुआ-आपके पिताजी से भेंट नहीं हुई, वे शायद समझ गये। हो सकता है, महिम के साथ कभी आ जाऊँ। नमस्ते!

अचला ने हल्का हँसकर कहा-नमस्ते! लेकिन उनके साथ ही आना होगा, इसके तो कोई मानी नहीं।

-सच कह रही हैं?

-सच!

-मेरी खुशकिस्मती!-कहकर सुरेश ने फिर एक बार नमस्कार किया और चला गया।

(5)

बाहर जाने पर, मानो नशे में हो, उसका देह-मन डगमगाने लगा। तेज धूप उस समय निस्तेज होती जा रही थी। उसने गाड़ी लौटा दी और पाँव-पयादे ही चल पड़ा। ख्वाहिश यह थी कि कलकत्ते की भीड़भरी, हलचल वाली सड़कों पर अपने को एकबारगी मग्न करके, स्थिति पर जरा विचार कर ले।

अचला की शक्ल-सूरत, बनावट, भाषा, व्यवहार-शुरू से अन्त तक बार-बार याद आने लगे, और उसे अपने आप बहुत छोटा लगने लगा।

उस मुखड़े में सौन्दर्य की अलौकिकता नहीं थी; बातों में, व्यवहार में, ज्ञान और विद्या-बुद्धि का कोई वैसा अनोखापन भी कहीं नहीं छलका; फिर भी न जाने कैसे उसे ऐसा मालूम होने लगा-कि अभी-अभी वह एक ऐसी विस्मयकारी वस्तु देखकर आया है, जैसी कि आज तक कभी कहीं नजर नहीं आयी। चलते-चलते वह घड़ी-घड़ी अपने आपसे पूछने लगा-यह अचरज क्यों? किस बात ने उसे आज इस कदर अभिभूत कर दिया?

उस युवती में कोई ऐसी चीज उसने देखी, जिससे अपने आपको हीन सोचते हुए भी, उसका हृदय एक अनजानी सार्थकता से भर गया। उस युवती का वास्तविक कोई परिचय अभी तक उसे नसीब नहीं हुआ। परन्तु वह बड़ी है, बहुत ऊँची, उसे प्राप्त करना किसी भी पुरुष के लिये दुर्भाग्य नहीं-यह संशय एक बार भी उसके मन में क्यों नहीं उठता? सोचते-सोचते उसकी विचारधारा एक बार ठीक जगह पर चोट कर बैठी। उसे लगा-शिक्षा, ज्ञान, उम्र इन सभी बातों में उससे छोटी होने के बावजूद, महज कुछ क्षणों की बातचीत में उस युवती ने जो उसे इस प्रकार से पराजित कर दिया, वह सिर्फ अपने असाधारण संयम के बल से। इसलिये वह इतनी शान्त होते हुए भी इतनी दृढ़ थी, इतना सब जानते हुए भी ऐसी मौन! महिम के बारे में जब वह प्रगल्भ की नाईं बकता ही चला जा रहा था, तब वह सिर झुकाए चुप थी, सहती गयी थी-जरा देर के लिये भी चंचल होकर, तर्क और झगड़ा करके उसने अपने को छोटा नहीं बनाया। हर समय उसने अपने को जब्त किया, छिपाया, जबकि कोई भी बात उससे छिपी न थी। महिम को वह कितना प्यार करती है-यह उसने जताया जरूर नहीं; लेकिन उसकी अटूट श्रद्धा किसी प्रकार भी टूटी नहीं-यह बात उसने किस आसानी और संक्षेप से बता दी।

यह विद्या महिम से ही उसने सीखी है और अच्छी तरह सीखी है-यह बात वह खुद से बहुत बार कहने लगा तथा उसमें छुटपन से ही संयम की कमी थी, इसलिये दूसरे किसी में उसकी इतनी अधिकता देख, उसका शिक्षित, भला अन्तःकरण खुद ही उस गौरवमयी के चरणों में झुककर अपने को धन्य समझने लगा।

अनेक रास्ते-गलियों का चक्कर काटकर सुरेश साँझ के बाद घर लौटा। बैठक में कदम रखते ही उसने अवाक् होकर देखा-आँख पर हथेली रक्खे महिम एक कोच पर पड़ा है। वह उठ बैठा। बोला-आओ भाई!

अरे!-कहकर सुरेश धीरे-धीरे एक कुर्सी लेकर पास बैठ गया।

महिम गाहे-बगाहे ही आता। सो जब आता, सुरेश का स्वागत जरा बढ़ा-चढ़ाकर होता। आज लेकिन उसकी बात ही न सुनी। महिम ने हैरान होकर कहा-वहाँ पर पहुँचा तो मालूम हुआ कि तुम गये थे सोचा…

-कृपा करके एक बार दर्शन दे आऊँ! क्यों? कितने दिनों के बाद आये हो, सोच सकते हो!

महिम ने हँसकर कहा-जरूर! करूँ क्या, फुर्सत नहीं मिली। और गौर किया-गैस की रोशनी में सुरेश का चेहरा बड़ा सूखा-सा और कठोर लग रहा है। सो उसे प्रसन्न करने के ख्याल से स्निग्ध स्वर में फिर बोला-तुम्हारा बिगड़ना वाजिब है, यह मैं हजार बार स्वीकार करता हूँ। मगर यकीन मानो, सच ही समय नहीं मिलता; आजकल जरा पढ़ाई का दबाव बढ़ गया है, और सुबह-शाम कुछ ट्यूशन-

-ट्यूशन भी शुरू हो गया है?

इस बात का जवाब महिम टाल गया। बोला-मेरी तलाश में गये थे, खास कोई काम था क्या?

सुरेश ने कहा-हूँ! आज तुम नहीं आये होते, तो कल सवेरे मुझे फिर जाना पड़ता।

कारण जानने के लिये महिम उत्सुक हो रहा। बड़ी देर तक उसके पैरों के जूतों की ओर ताकते रहकर उसके बाद सुरेश बोला-इस बीच तुम शायद केदार बाबू के यहाँ नहीं गये हो?

महिम ने कहा-नहीं।

-क्यों नहीं गये, मेरी वजह से न? अच्छा, उस वचन से मैं तुम्हें बरी किये देता हूँ। मनमाना वहाँ जा सकते हो!

महिम हँसा-नहीं जाऊँगा, ऐसी प्रतिज्ञा की थी, यह तो याद नहीं आता।

सुरेश ने कहा-न हो तो ठीक ही है, फिर भी मेरी ओर से कोई बाधा हो, तो वह मैं उठा लेता हूँ।

-यह अनुग्रह है या निग्रह, सुरेश?

-तुम्हें क्या लगता है, महिम?

-सदा जो लगता है, वही!

सुरेश बोला-यानी मेरा ख्याल! है न? खैर, जो जी चाहे सोच सकते हो, मुझे कोई एतराज नहीं! फकत वह रोक मैंने हटा ली, जो मैंने लगाई थी।

-इसका कारण पूछ सकता हूँ?

-ख्याल का कोई कारण भी होता है कि तुम्हारे पूछने से ही मुझे बताना पडे़गा? महिम जरा देर चुप रहकर बोला-लेकिन सुरेश, तुम्हारे ख्याल के चलते ही सारी दुनिया को रोक लग जायेगी और उठ जायेगी-ऐसा हो तो शायद अच्छा ही हो; मगर वास्तव में ऐसा होता नहीं। जहाँ तुम्हें कोई बाधा नहीं, वहाँ मुझे बाधा हो सकती है!

-यानी?

-यानी उस रोज तुमने ब्राह्म महिलाओं के बारे में जो-जो कहा-मैंने उन पर सोच देखा। खैर, तुमने कहा था कि एक महीने में मेरे लिये लड़की ठीक कर दोगे, उसका क्या हुआ?

सुरेश ने नजर उठाकर कहा-गम्भीरता की आड़ लेकर महिम मजाक उड़ा रहा है। उसने भी गम्भीर होकर कहा-मैंने सोचकर देखा, यह ब्याह की दलाली अपना पेशा नहीं।-उसके बाद हँसकर बोला-मगर मजाक छोडो। अब तक तुमने मेरी इज्जत रक्खी, इसके लिये हजार धन्यवाद! लेकिन आज मेरा हुक्म मिल गया, तो कल सुबह ही एक बार वहाँ जा रहे हो न?

-नहीं, कल सबेरे मैं घर जा रहा हूँ।

-लौटोगे कब?

-दस-पन्द्रह दिन लग सकते हैं, महीना-भर भी हो सकता है।

महीना भर? नहीं-नहीं, यह न होगा!-अचानक हाथ खींचकर अपने हाथ में लेते हुए बोला-न-न, मुझे और दोषी मत करो महिम, कल सबेरे ही तुम वहाँ जाओ! वे शायद तुम्हारी राह देख रही हैं।-कहते-कहते उसका स्वर काँप गया।

महिम के आश्चर्य का हद्दोहिसाब न रहा। सुरेश का हठात् ऐसा आवेगकंपित स्वर, ऐसा जबर्दस्त अनुरोध, और खासकर एक ब्राह्म महिला के लिये यह आदर! वह विह्नल हो उठा। कुछ देर एकटक अपने दोस्त की ओर देखते रहकर बोला-कौन मेरी राह देख रही है, सुरेश? केदार बाबू की लड़की?

सुरेश ने अपने को सम्हालकर कहा-देख भी तो सकती हैं।

महिम फिर कुछ देर तक सुरेश की ओर देखता रहा। इस बीच बे-बुलाए ब्राह्म परिवार में जाकर वह परिचित भी हो आ सकता है-यह भावना उसके मन में उग ही नहीं सकी। थोड़ी देर मौन रहकर वह बोला-भई, मैं हार मानता हूँ! तुम्हारा आज का यह व्यवहार मेरी समझ से परे है। ब्राह्म लड़की राह देख रही है-तुम्हारे मुँह से ऐसी बात का मतलब समझना मेरे लिये असम्भव है!

सुरेश बोला-ठीक है, यह बात कभी बताऊँगा। अभी यह कहो-कल एक बार जा रहे हो वहाँ?

-नहीं। कल गैरमुमकिन है! मुझे सुबह की ही गाड़ी से जाना है।

-कुछ मिनटों के लिये भी नहीं?

-नहीं, वह भी नहीं! मगर तुम्हें हुआ क्या है, यह बताओ?

-वह फिर कभी बताऊँगा-आज नहीं! अच्छा, मैं जाकर तुम्हारी खबर दे आऊँ? महिम और भी हैरान हो गया। बोला-दे आ सकते हो, लेकिन इसकी कोई जरूरत तो नहीं।

सुरेश बोला-न हो जरूरत-जरूरत ही सब कुछ नहीं है! परिचय देने से वे मुझे पहचानेंगे?

-एक बार तो जरूर पहचानेंगी।

सुरेश ने कहा-वही काफी है! तुम्हारा मित्र हूँ मैं-यह कहने से पहचान लेंगी तो?

महिम ने कहा-हाँ।

सुरेश अब जरा हँसने की कोशिश करके बोला-पहचानेंगी एक घोर ब्राह्मविद्वेषी बन्धु के नाते, न?

महिम ने कहा-लेकिन यही तो तुम्हारा प्रधान गर्व है, सुरेश!

सुरेश बोला-बेशक! कहकर कुछ काल चुपचाप माटी की तरफ ताकता रहा। अचानक उठ खड़ा हुआ। बोला-आज मुझे बेहद नींद लग रही है, महिम। मैं चला सोने। और वह अनमना-सा धीरे-धीरे चला गया।

(6)

मन-ही-मन सुरेश निःसंशय सोच रहा था, कि बात को महिम चाहे जैसे टाल जाये, पर वह उसी के अनुरोध के कारण अचला से भेंट करने को नहीं जा रहा था। प्यार चाहे वह जितना ही करता हो, मगर अभी तक एक ब्राह्म लड़की के आगे अपने बाल्य-बन्धु को छोटा नहीं दिखा सकता-ऐसी बात कल भी सुनी होती, तो गर्व से उसकी छाती दस हाथ फूल उठती। सूने बिछौने पर आज लेकिन इस बात ने उसे जरा भी आनन्द न दिया। उसे केवल यही लगने लगा-किसी-न-किसी दिन गप-शप, हँसी-मजाक में अजीब-सी होकर यह बात अचला के कानों पहुँचेगी। उस दिन सुख की गोदी में बैठी वह, अपने पति के इस निकम्मे मित्र की विफल ईष्र्या का कोई मतलब ही ढूँढ़ नहीं पाएगी; लेकिन मजाक में भी वह मितभाषिणी कभी कोई सवाल उससे न पूछ सकेगी। शायद मन-ही-मन हँसकर कहेगी-मिताई के अत्यन्त अभिमान से इस आदमी ने नाहक ही कितना परिश्रम किया। झूठी कुढ़न और जलन से कितना जलता रहा!

रात उसे अच्छी नींद नहीं आयी। जितनी बार नींद खुली, उतनी बार ये कड़वी चिन्ताएँ धिक्कारती हुई कह गयीं-दूसरे के लिये ऐसे सिर-दर्द का रोग तुम्हारा कब छूटेगा, सुरेश?

सुबह उठकर वह उस दिन के किसी काम में चित्त न लगा सका, और दिन चढ़ते-चढ़ते गाड़ी से केदार बाबू के यहाँ जा पहुँचा। वैरा ने बताया-बाबू अलीपुर कचहरी गये हैं, लौटने में तीन-चार घण्टे की भी देर हो सकती है। सुरेश लौटने को हुआ। पूछा-दोनों ही निकल गये हैं?

बैरा समझ न सका। बोला-यह तो मैं नहीं जानता बाबू!

सुरेश मुश्किल में पड़ गया। मकान-मालिक की गैर-मौजूदगी में उनकी जवान लड़की के बारे में पूछना-पाछना, ब्राह्म परिवारों में शिष्टता के विरुद्ध है या नहीं-वह स्थिर न कर सका; लेकिन उसे जरूरत उस लड़की से ही थी। बोला-तुम्हारे मालिक को लौटने में इतनी देर नहीं भी तो हो सकती है। मैं घण्टा-आधा घण्टा इन्तजार ही कर देखूँ।

बैरे ने सुरेश को ले जाकर बैठके में बैठाया। कहा-दीदीजी हैं, उन्हें खबर दूँ?-कहकर वह जवाब के लिये ताकता रहा। उसने कल ही देखा था कि अचला इस भले आदमी के सामने होती है। मन की तीव्र उत्सुकता को जी-जान से दबाते हुए सुरेश ने कहा-उन्हें खबर दोगे? अच्छा दो; न हो तो तब तक उन्हीं से दो-एक बातें की जायें।

बैरा चला गया, और तुरन्त बगल के दरवाजे का पर्दा हटाकर अचला कमरे में आयी। सुरेश उठ खड़ा हुआ। बोला, महिम तो घर चल गया। मैंने बारहा कहा एक बार आपसे मिल ले, लेकिन नहीं आया। ऐसा ही कुछ-

अचला का चेहरा एक पल के लिये सफेद हो गया। मगर नमस्ते करके वह पास ही एक कुर्सी पर बैठ गयी, और धीरे से कहा-जाना शायद बहुत जरूरी होगा; घर में किसी की तबीयत तो नहीं खराब हुई?

नमस्कार करते देख अप्रतिभ होकर सुरेश ने प्रतिनमस्कार किया। और अपनी उत्तेजना से अचला की शान्त-गम्भीर बातों को तौलकर बेहद शर्मिन्दा हुआ। अपनी आवाज को भरसक संयत और स्वाभाविक करके बोला-जरूरत जो भी हो चाहे, वह ऐसी भयानक भी क्या हो सकती है, कि दो मिनट के लिये भी आकर आपसे कह नहीं जा सकता? फिर जब यह ठिकाना न हो कि कब लौटेगा-आप ही कहें, घर में ही उसका कौन है, जिसकी बीमारी में उसे इस तरह से जाना पड़े? मैं तो मर जाने पर भी इस तरह से नहीं जा सकता।

अचला के होंठों पर एक लजीली स्निग्ध हँसी खेल गयी। बोली-चूँकि आपकी अभी कोई हुई नहीं है, इसलिये आपने ऐसा कहा। होती तो आप भी इसी तरह उपेक्षा करके चल देते-यह मैं जोर देकर कह सकती हूँ।

कुर्सी पर जोरों की एक थाप जमाकर सुरेश ने कहा-हर्गिज नहीं! आप मुझे पहचानती नहीं, जभी ऐसा कहा; पहचानतीं, तो नहीं कह सकतीं।

अचला बोली-ठीक तो है, अब पहचान लूँगी और कोई होंगी तो जान भी सकूँगी। क्या ख्याल है?

सुरेश बोला-अलबत्! हजार बार!! इसके सिवा महिम जैसे मित्र से मैं अपनी कोई बात छिपा भी नहीं सकता, छिपाना ठीक भी नहीं समझता। कहकर हठात् उत्तेजित हो बोल उठा-आप कहती हैं कोई होगी तो जानेंगी; मगर मैं कहता हूँ-आपको बिना बताये, आपकी राय बिना लिये यह होगा ही नहीं! क्योंकि आपको महिम से अलग करके देखने की मुझमें अब मजाल नहीं; आज मेरे लिये आप दोनों अभिन्न हैं।

अचला ने सलज्ज मुखड़ा हिलाकर कहा-अच्छा तब देखा जायेगा, लेकिन वह शुभ दिन आने तक मैं आपके मित्र को दोषी नहीं ठहरा सकती, सुरेश बाबू!

सुरेश अचानक गम्भीर होकर बोला-यह आपकी मर्जी! पर मुझे जाँचने का शुभ दिन इस जन्म में आयेगा या नहीं, सन्देह है। खैर, छोड़िए उसे। आज सुबह ही आपके यहाँ क्यों हाजिर हुआ-मालूम है? कल रात मैं सो न सका-न आता तो आज भी न सो पाता, यह समझता था। मैंने बहुत अपराध किये हैं-आज एक-एक आपके सामने स्वीकार कर जाऊँगा, इसीलिये मैं आया हूँ।

सुरेश की जबर्दस्त खिलाफत अचला से छिपी न थी। इसीलिये शंकित-सी हो वह चुप देखती रही। सुरेश कहने लगा-कल शाम के बाद घर लौटकर देखता हूँ कि महिम बैठा है। हाँ, आप जरूर जानती हैं कि मैं ब्राह्मों को फूटी निगाहों, यानी ब्राह्म-समाज को वैसा अच्छा नहीं समझता।

अचला ने सिर हिलाकर कहा-हाँ, जानती हूँ!

सुरेश कहने लगा-क्यों न जानेंगी! परन्तु यह भी न भूलें कि तब मैं आपको पहचानता न था। इसीलिये मैंने महिम से आग्रह किया कि कम-से-कम एक महीना वह यहाँ न आये। जानती हैं क्यों?

अचला ने फिर सिर हिलाकर कहा-नहीं। मगर शायद आपने यह सोचा था, कि पुरुषों को कुछ भूलने के लिये एक महीना काफी है-उससे ज्यादा लगना वाजिब नहीं।

सुरेश ने विनीत भाव से इस चोट को ग्रहण कर लिया। कहा-मैं सदा का अबोध हूँ। शायद मन में ऐसा ही कुछ सोचा हो। इसके सिवा आपके खिलाफ मेरी एक खौफनाक साजिश थी। मैंने शपथ ली थी, कि एक महीने के अन्दर कहीं लड़की ठीक करके मैं महिम का ब्याह करा दूँगा। जैसे भी हो, उसे इससे रोकना है। मेरा मित्र होकर वह-एक स्त्री के मोह में समाज को छोड़कर चला जाये, यह न हो सके।

रुकी साँस छोड़कर अचला ने कहा-फिर?

उसके फीके मुखडे़ की ओर देखकर सुरेश जरा मुस्कराया, कहा-उसके बाद डरने की बात नहीं। मैंने वह पाप-इच्छा छोड़ दी है-आज आपके सामने यह कबूल करता हूँ! कल रात मैंने आपसे भेंट कर जाने के लिये उससे बड़ा अनुरोध किया। एक दिन मेरा अनुरोध उसने माना था, कल नहीं माना-आपसे मिले बिना ही वह कलकत्ते से चला गया।

अचला ने पूछा-जाने का कोई कारण बताया था?

सुरेश बोला-नहीं। काम है-बस यही!

अचला और एक निःश्वास छोड़कर मानो अपने आपसे कहने लगी-जरूरत और जरूरत! सदा से उनसे यही सुनती आयी हूँ-जरूरत ही सदा उनका सर्वस्व है।

सुरेश ने कहा-खत डालकर भी तो आपको बता सकता था। अचला ने सिर हिलाकर कहा-नहीं। खत वे नहीं लिखते।

सुरेश ने कुछ देर चुप रहकर, नजर उठाकर ताका। बोला-कभी यह भी नहीं बताता कि कौन-सी जरूरत है। उसका सुख-दुःख, भला-बुरा, सब मानो उसका अकेले का है। स्वार्थी! कभी किसी को हिस्सा न लेने दिया। इसके लिये छुटपन से वह मुझे कितना सताता आया है, इसका ठिकाना नहीं। बेरहम! लगातार उपवास कर-करके वह मेरे खाने-पहनने को विषाक्त करता रहा है। मगर कभी उसने मेरी खातिर भी, मेरे हाथ से कुछ न लिया। मुझे डर है-जिस संगदिल से मुझे कभी सुख नहीं मिला, उसके साथ आप ही क्या सुखी हो सकेंगी? देखते-ही-देखते उसकी दोनों आँखें आँसुओं से झकमका उठीं। झटपट पोंछकर, जबर्दस्ती जरा हँसते हुए बोला-मेरा बाहरी रूप देखने में बड़ा सख्त है, लेकिन अन्दर उतना ही दुर्बल। महिम इसका ठीक उल्टा है; पर तो भी हम दोनों जैसी मिताई दुनिया में शायद बहुत कम होगी!

नजर झुकाए अचला ने धीमे से कहा-मुझे मालूम है सुरेश बाबू, और यह भी जानती हूँ कि वह मिताई आज भी वैसे ही बनी है।

बचपन की सारी पुरानी स्मृतियाँ सुरेश के कलेजे में आलोड़ित हो उठीं। आँसू-रुँधे स्वर में बोला-जब मालूम ही है, तो आज मुझे यह भीख दें कि अनजाने में आप लोगों से जो दुश्मनी मैंने की, वह अपराध अब मेरे कलेजे में न बिंधे।

उसकी आवाज आवेग से फिर रुँध गयी, और इस अकुलाहट से अचला का हृदय भी मानो डोल उठने लगा। उमड़ते हुए आँसू को छिपाने के लिये मुँह फेरते ही उसने देखा-पिताजी द्वार पर आकर खड़े हुए।

सुरेश को देखकर केदार बाबू ने खुश होकर कहा-अरे, सुरेश बाबू! सुरेश ने खड़े होकर नमस्ते किया।

उन्होंने खड़े-खड़े ही पूछा-महिम की क्या खबर है? उसका तो पता ही नहीं।

सुरेश ने कहा-वह बडे़ जरूरी काम से, सुबह की गाड़ी से घर चला गया। मैं यही कहने आ गया।

केदार बाबू ने हैरत मे आकर कहा-घर चला गया? और अचानक जले-भुने-से कहने लगे-वह घर जाये या रहे, हमें कोई मतलब नहीं। मगर तुम बेटे, समय मिलने पर तो घर के लड़के जैसा आया करो। मुझे बड़ी खुशी होगी। मगर तुम्हारा वह मक्कार मित्ररत्न अब कभी अपना मुँह न दिखाये! भेंट हो तो कह देना। उसे हया चाहे न हो, कम-से-कम अपमान का डर तो रहे।

सुरेश गर्दन झुकाए बैठा रहा। उसके मन के भाव का अनुमान करने की कोशिश करते हुए वे बोले-नहीं-नहीं, इसमें तुम्हें शर्म महसूस करने की कोई वजह नहीं; बल्कि कर्त्तव्य करने का गौरव है! तुम समझ नहीं पा रहे हो कि तुमने किस बड़ी मुसीबत से हमें बचाया है, और हम किस हद तक तुम्हारे कृतज्ञ हैं।

लड़की की ओर देखकर बोले-मैं कल से ही हैरान हूँ अचला, कि उसने सुरेश जैसे लड़के से कैसे दोस्ती की थी, और वह दोस्ती उसने कायम कैसे रक्खी! थोड़ा रुककर बोले-जो यह कर सकता है, वह हम जैसे दो निरीह जीवों को छल सकता है-यह बड़ी बात नहीं-मानता हूँ मैं; मगर यह भी गजब ही है कि वह कैसा आदमी है, क्या है-मेरे जैसे प्रवीण आदमी ने भी कभी खोज-पूछ की जरूरत महसूस न की।

सुरेश बोला नहीं। वह सिर उठाकर केदार बाबू की तरफ ताक भी न सका।

जरा देर इन्तजार करके, पोशाक की ओर देखकर केदार बाबू ने कहा, मुझे बहुत-सी बातें पूछनी हैं बेटे, तुम जरा बैठो। मैं कपड़े बदल आऊँ। कहकर वे जाने लगे कि सुरेश ने कहा-मुझे देर हो चुकी है। आज मैं चलूँ, फिर कभी आऊँगा! वह व्यस्त होकर उठ खड़ा हुआ, और किसी तरह नमस्कार करके निकल पड़ा।

लेकिन अगले ही दिन वह वहाँ दिखाई पड़ा; और उसके दूसरे दिन भी, ठीक उसी समय उसकी गाड़ी की आवाज नीचे आकर थमी।

लेकिन उसके बाद वाले दिन भी जब उसकी गाड़ी की आवाज सुनाई पड़ी, तो देर हो चुकी थी। नहाने-खाने के लिये तकाजा करके अचला पिता को उठाना चाह रही थी-मगर वे उठ न सके। सुरेश को बैठाकर वे गप करने लगे।

सुरेश यह गौर कर रहा था, इसलिये मुख्तसर दो-एक बात करके ही वह उठने लगा। इतने में उसके सिर के रूखे-सूखे बालों को देखकर केदार बाबू अचानक परेशान हो उठे। बोले-तुम्हारा तो नहाना-खाना भी नहीं हुआ है, बेटे!

सुरेश ने हँसकर कहा-जी, मेरा नहाना-खाना जरा देर से ही होता है।

केदार बाबू ने सुना ही नहीं मानो, बोल उठे और पल ही में एक बारगी व्यस्त हो उठे-ऐं, नहाना-खाना नहीं हुआ। नः, अब एक मिनट भी देर न करो। यहीं नहाकर, जो बने-खा लो। बिटिया, जरा जल्दी करो, बारह बज गये। और बैरा आदि के नाम चीख-पुकार करते हुए वे निकल गये।

अचला अब तक स्थिर खड़ी थी। अब भी उसमें किसी तरह की चंचलता नहीं दीखी। पिता के चले जाने के बाद उसने धीरे से पूछा-आप हमारे यहाँ कुछ खा सकेंगे?

सुरेश ने सिर उठाकर अचला की ओर देखते रहने के बाद कहा-आपकी क्या राय है?

-आप तो कभी ब्राह्म के यहाँ खाते नहीं।

-नहीं, नहीं खाता! मगर आप लायेंगी, तो खा लूँगा! जरा ठहरकर बोला-शायद आप सोच रही हैं, मैं मजाक कर रहा हूँ। मगर नहीं। आप देंगी तो मैं सच ही खाऊँगा! कहकर वह देखने लगा।

अचला ने मुँह झुकाकर अपनी हँसी छिपायी। बोली-मैंने सच ही सोचा था कि आप मजाक कर रहे हैं। कल तक जिनके घर जाने में भी आपकी घृणा का अन्त नहीं था, आज ही उन्हीं में से एक के हाथ का छुआ खाने की प्रवृत्ति आपको कैसे होगी-मैं तो सोच ही नहीं पाती, सुरेश बाबू!

सुरेश ने मलिन मुख और दुःखे स्वर में कहा-आखिर इतनी देर के बाद आपने यही निष्कर्ष निकाला कि आपके हाथ का खाने में मुझे घृणा होगी?

अचला ने कहा-लेकिन यही सोचना तो स्वाभाविक है, सुरेश बाबू? आप जैसे एक उच्च-शिक्षित सज्जन की सदा की बँधी सामाजिक धारणा, एकाएक एक ही दिन में, अकारण ही बह जायेगी-यही सोचना क्या सहज है?

सुरेश ने कहा-नहीं, वह सहज नहीं! मगर अकारण वही है-यहीं कैसे सोच रही हैं? कारण हो भी सकता है-कहकर वह इस तरह से देखता रह गया, कि उत्तर देने में अचला बिल्कुल हैरान रह गयी। उसकी बात से उसे चोट लगी है-यह तो उसकी शक्ल देखकर ही वह समझ गयी थी, और एक तरह का हिँसक आनन्द भी उठा रही थी। लेकिन वह पीड़ा अचानक उसके चेहरे को एक बार भी राख-सा रूखा कर दे सकती है-यह उसने सोचा भी नहीं था, इच्छा भी न की थी। इसीलिये खुद भी पीड़ित होकर, जबर्दस्ती जरा हँसकर बोली-सोच देखिए, आप जैसे कठोर-प्रतिज्ञ आदमी भी. ..।

सुरेश बोला-हाँ, बह जाता है। उसका स्वर काँपने लगा। बोला-आपने एक दिन की बात कही-मगर पता है आपको, एक दिन के भूकम्प में आधी दुनिया पाताल में डूब सकती है? एक दिन कम नहीं होता? कहकर वह फिर एकटक देखता रहा। अचला डर गयी। सुरेश के चेहरे पर कैसी एक सूखी पाण्डुरता थी-कपाल की दोनों नसें लहू से फूली, आँखें दम-दम कर रही थीं-जैसे वह झपट्टा मारकर किसी चीज को पकड़ना चाहता हो।

एक तो गर्मी, तिस पर इतनी देर तक नहाना-खाना नहीं हुआ-पिछली रात बिल्कुल नींद नहीं आयी-उसके पाँव के नीचे की जमीन तक अकस्मात् मानो हिल उठी। सुर्ख आँखों को फाड़कर वह बोला-ब्राह्मों से घृणा करता हूँ या नहीं, यह जवाब ब्राह्मों को दूँगा। लेकिन आप मेरे आगे, उनसे बहुत ऊपर हैं-

उसकी उन्मादी भंगिमा से अचला डर के मारे काठ हो गयी। किसी तरह इस प्रसंग को दबा देने की नीयत से, वह डरी-सी कहने लगी-कम्बख्त बैरा-

लेकिन वह अस्फुट-धीमी आवाज, सुरेश की रोषभरी ऊँची आवाज में दब गयी। वह वैसे ही तीव्र स्वर में कहने लगा-महज दो दिनों का परिचय! बेशक! मगर जानती हैं-दिन, घण्टा, मिनट में महिम को मापा जा सकता है, सुरेश को नहीं-वह स्थान-काल से परे हैं! भूमिकम्प देखा है? जो पृथ्वी को ग्रास करता है-

व्याध से डरी हुई हिरनी-सी अचला पलक मारते उठ खड़ी हुई, और बोली-आपके नहाने का बन्दोबस्त-कहकर कदम बढ़ाते ही, सुरेश ने सहसा आगे झुककर अचला का हाथ खींच लिया। वह उत्तेजित और आकस्मिक खिंचाव सह लेना औरत के बस का नहीं। वह सुरेश के बदन पर औंधी आ गिरी। भय और विस्मय को पार कर उसने आत्र्तकण्ठ की-‘बाप रे!’ आवाज काँपते होंठों से निकलते-न-निकलते, सुरेश उसके दोनो हाथों को अपनी छाती में खींचकर पुकार उठा-अचला!

अचला आँखें उठाये, मूर्च्छित, मंत्रमुग्ध की भाँति देखती रही, और सुरेश भी जरा देर के लिये कुछ न बोल सका-सिर्फ उसके बेहद जलते होंठों से कैसी तो एक तीखी जलन छिटकती रही।

कुछ क्षण इसी तरह से रहकर सुरेश ने फिर एक बार अचला के दोनों हाथों को छाती से दबा-उच्छ्वसित होकर कहा-अचला, एक बार इस भूकम्प की भयानक धड़कन को अपने हाथों से अनुभव करके देखो-देखो, कैसा भीषण ताण्डव इस कलेजे के अन्दर हो रहा है। यह दुनिया के किसी भूकम्प से छोटा है? कह सकती हो-संसार की कौन जात, कौन धर्म, कौन-सा मत है, जो इस विप्लव में पड़कर भी रसातल में न डूब जायेगा?

छोड़ दीजिए, पिताजी आ रहे हैं-कहकर जबर्दस्ती अपने को छुड़ाकर, वह अपनी कुर्सी पर जाकर शान्त हो बैठी कि केदार बाबू अन्दर आकर परेशान-से बोले-देर हो गयी थोड़ी-और यह कम्बख्त बैरा जो रह-रहकर कहाँ गायब हो जाता है, पता नहीं। बेटी अचला-अरे यह क्या, तबीयत खराब है? मुँह सूखकर एकबारगी जैसे…

किसी तरह जरा हँसने की कोशिश करके बोली-तबीयत क्यों खराब होगी?

-फिर भी सिर-दर्द। जैसी गर्मी पड़ती है…

-नहीं-नहीं, मैं ठीक हूँ, मुझे कुछ नहीं हुआ है।

केदार बाबू निश्चिन्त होकर बोले-गनीमत है! चेहरा देखकर मैं डर गया था। तो तुम जरा देखो तो बिटिया, अगर…

-ठीक तो है, मैं मिनटों में सब ठीक कर लेती हूँ। मैं सुरेश बाबू से वही तो कह रही थी कि हमारे यहाँ नहाने-खाने में इन्हें एतराज तो नहीं?

केदार बाबू ने अचरज से पूछा-एतराज क्यों होगा? नहीं-नहीं, मैं तो तुमसे कही चुका सुरेश, एक दिन में मैंने तुम्हें घर के लड़के-सा समझ लिया है। घर तुम्हारा है! बेटी की ओर देखकर नाज के साथ बोले-ऐसा न होता बेटी, तो भगवान इन्हें हम ब्राह्मों के पास भेजते ही क्यों? लेकिन अब देर करना ठीक न होगा बेटे, मेरे साथ आओ, तुम्हें नहान-घर दिखा दूँ।

लेकिन केदार बाबू के आते ही सुरेश ने जो सिर झुका लिया था, सो सीधा न कर सका।

अचला ने कहा-तंग करने से क्या लाभ, बाबूजी? हो सकता है, हम ब्राह्मों के यहाँ खाने में उन्हें कोई झिझक हो। फिर अरुचि से खाने पर तबीयत खराब हो सकती है।

केदार बाबू मायूस हो गये। सुरेश बडे़ आदमी का लड़का ठहरा-आजाद। घर की गाड़ी पर चलता। उसे खिला-पिलाकर, जैसे भी हो, अपना बनाना ही है। अचानक उसके झुके मुखड़े की ओर नजर पड़ते ही केदार बाबू अचरज से चौंक उठे-ऐ! यह क्या सुरेश, चेहरा स्याह हो गया है। उठो-उठो, सिर धोने में अब जरा भी देर न करो! और वे हाथ पकड़कर जबर्दस्ती उसे लिवा गये।

(7)

खा-पी चुकने के बाद, केदार बाबू ने धूप में सुरेश को हर्गिज नहीं जाने दिया। आराम के नाम पर तमाम दोपहर उसे एक कमरे में कैद रक्खा। वह आँखें बन्द किये एक कोच पर पड़ा रहा, पर किसी भी तरह सो नहीं सका। बाहर आसमान में दोपहर का सूरज जलने लगा, अन्दर आत्म-संयम की ग्लानि सुरेश की छाती में उससे भी ज्यादा तेज जलने लगी। इस तरह सारी दोपहरी बाहर-भीतर से जल-झुलस कर अधमरा-सा हो, उसने उठकर खिड़की खोली, तो बेला झुक आयी थी। केदार बाबू प्रसन्न मन अन्दर से आकर निःश्वास छोड़ते हुए बोले-आः गर्मी देख रहे हो, सुरेश? अपनी इतनी उम्र में, मैंने कलकत्ते में ऐसी गर्मी कभी नहीं देखी। नींद-वींद आयी? सुरेश ने कहा-नहीं, दिन में मुझे नींद नहीं आती।

केदार बाबू ने छूटते ही कहा-और सोना ठीक भी नहीं! सेहत को बड़ा ही नुकसान होता है। मैंने फिर भी तीन-चार बार उठ-उठकर देखा, कि पंखा वाला खींच भी रहा है या नहीं। ये कम्बख्त ऐसे शैतान होते हैं कि इधर तुम्हारी आँख लगी और उधर उन्होंने भी झपकी ली। खैर, कुछ आराम तो मिला न? मैं खूब समझ रहा था कि इस धूप में निकलोगे तो जिन्दा न रहोगे!

सुरेश चुप रहा। केदार बाबू ने एक-एक करके कमरे की खिड़कियाँ खोल दीं, कुर्सी को करीब खींचते हुए बोले-मैं सोच रहा हूँ सुरेश, झाँप-तोप की जरूरत नहीं! सारी बातें खोलकर महिम को साफ-साफ एक खत लिख दूँ। तुम क्या कहते हो?

यह सवाल सुरेश की पीठ पर चाबुक-सा लगा। वह ऐसा चौंक उठा कि देखकर केदार बाबू बोले-कठोर कर्त्तव्य कैसे करना होता है-यह तो इतने दिनों के बाद तुमने ही हमें बताया; अब पीछे लौटने से तो नहीं चल सकता, बेटे!

यह तो ठीक है।-सुरेश कुछ देर मौन रहकर बोला-लेकिन इस पर आपको अपनी लड़की की भी राय लेनी चाहिए।

केदार बाबू जरा हँसकर बोले-हाँ, सो तो चाहिए।

-वे क्या साफ-साफ लिख देने को ही कहती हैं?

केदार बाबू ने इसका सीधा जवाब न देकर कहा-हाँ, करीब-करीब वही कहिए। ऐसे मामलों में आमने-सामने सवाल-जवाब करना सबके लिये कष्टकर होता है। लेकिन वह तो सयानी है, बदस्तूर पढ़ी-लिखी है, इन बातों पर पहले ही साफ-साफ सोच नहीं लेने से यह पागलपन कहा जा सकता है-वह समझती है। सोचता हूँ-आज रात यह काम कर ही लूँगा!

सुरेश ने फीका हँसकर कहा-इतनी जल्दी क्या है? थोड़ा सोच लेना भी जरूरी है!

केदार बाबू ने कहा-इसमें सोचने की कहाँ गुंजाइश है? उसके हाथों अपनी लड़की को सौंप न सकूँगा, यह तै है-फिर इस घिनौने सम्पर्क का जितना जल्दी अन्त हो, उतना ही कल्याण!

सुरेश ने पूछा-मेरा जिक्र करना भी जरूरी है?

केदार बाबू ने हँसकर कहा-बुड्ढा हो गया, सोचते हो-इतनी भी अक्ल नहीं? तुम्हारा नाम कोई कभी न लेगा!

सुरेश ने जैसे चैन की साँस ली, पर बोला नहीं, चुप रहा। यह साँस केदार बाबू की निगाह से न बच सकी। इस बीच सुरेश के और कुछ आचरणों को गौर करके, मन में उन्होंने एक निश्चित अनुमान कर लिया था। उसके झूठ-सच की पहचान के लिये उन्होंने अँधेरे में एक ढेला फेंका। बोले-तुमने एक तो हम लोगों का बड़ा उपकार किया बेटे, मगर उससे भी बड़े उपकार की तुमसे हमें उम्मीद है। हम ब्राह्म हैं जरूर, पर वैसे ब्राह्म नहीं। और मेरी बिटिया तो मन-ही-मन अपनी माँ जैसी हिन्दू ही रह गयी है। वह हमारा ब्राह्मपना बिल्कुल पसन्द नहीं करती!

सुरेश ने अचरज से आँखें उठाकर देखा। उसकी इस मौन उत्सुकता को खास तौर से देखकर केदार बाबू कहने लगे-मैं बिटिया को सदा कुमारी नहीं रख सकता। इस विषय में, मैं तुम लोगों जैसा हिन्दू मतावलम्बी हूँ। सो एक रिश्ता जिस प्रकार तुम्हारे चलते टूटा, उसी प्रकार एक दूसरा रिश्ता तुम्हें जोड़ देना होगा, बेटे!

सुरेश ने कहा-ठीक है। मैं जी-जान से कोशिश करूँगा!

उसके चेहरे के भाव को पढ़ते-पढ़ते केदार बाबू ने सन्दिग्ध स्वर में कहा-मैं समझ रहा हूँ, समाज में इसके कारण काफी हलचल होगी। लेकिन जितनी जल्दी हो सके, अचला की शादी करके इस हलचल को दबा देना है। लेकिन एक सख्त-सी बात है, सुरेश! इतना कहकर उन्होंने दरवाजे की तरफ देखा, और करीब खिसककर, अपनी आवाज धीमी करके बोले-सख्त बात यह है कि रूप-गुण में लड़का ठीक हो तो भी हिन्दू समाज की तरह उसे पकड़कर ला दूँ-यह नहीं। वह सदा से ऐसे शिक्षा-संस्कार में पली है कि उसकी राय के बिना कुछ हो सकना मुश्किल है; और मत वह दे नहीं सकती, जब तक दोनों में ऐसा कुछ-समझ गये न सुरेश?

बातों में सुरेश कुछ अनमना-सा हो गया था। प्रेम के इस इशारे ने, मानो फिर नये सिरे से आघात पहुँचाकर उसे अचेतन कर दिया। दोपहर में अपने उस उच्छृंखल प्रेम-निवेदन के भद्दे आचरण की याद करके, बेहद शर्म से उसका मुखड़ा लाल होने के बजाय काला पड़ गया। और सुबह का जो अखबार पाँवों के पास पड़ा था, उसे उठाकर वह विज्ञापन वाला पृष्ठ देखने लगा।

केदार बाबू ने यह हरकत देखी, और इस आकस्मिक भाव-परिवर्तन का बिल्कुल उलटा मतलब लगाकर मन-ही-मन बहुत खुश हुए। अच्छा मौका देखकर एक खासी शह लगा दी। कहा-मैं यह एक अजीब बात शुरू से देखता आया हूँ सुरेश, कि पता नहीं क्यों, किसी को जीवन भर के लिये पास पाकर भी उस पर रत्ती-भर विश्वास नहीं होता, और किसी को महज दो घण्टे के लिये भी करीब पाकर लगता है-इसके हाथों अपनी जान तक सौंपी जा सकती है। लगता है-सिर्फ दो घण्टे की नहीं, जन्म-जन्म की जान-पहचान है-जैसे तुम! कितनी देर का परिचय है तुमसे?

ठीक उसी समय अचला वहाँ आयी, सुरेश ने एक पल के लिये नजर उठायी, और फिर अखबार में ध्यान लगा दिया।

-बाबूजी, आप इस समय चाय पियेंगे या कोको?

-मैं कोको ही लूँगा, बेटी!

-सुरेश बाबू, आप तो चाय लेंगे न?

आँखें अखबार पर ही गड़ाए रखकर सुरेश ने धीमे से कहा-मुझे चाय ही दीजिए।

-आपके प्याले में चीनी कम तो नहीं लगेगी?

-नहीं, जितनी आम तौर से सबको लगती है, उतनी ही।

अचला चली गयी। केदार बाबू ने बातों के टूटे छोर को जोड़कर कहा-यही समझो न सुरेश, अपनी बिटिया के लिये ही-इस बुढ़ापे में मुझे मुसीबत में पड़ना पड़ा। यह बात तो तुमसे छिपा नहीं सका! वरना अपनी आफत-मुसीबत की कहानी भी कोई किसी के कानों तक जाने देता है? जो मुझसे कभी न बना, इतने हित-मित्रों के होते, वह सिर्फ तुम्हीं को कहते क्यों हिचक नहीं हो रही है? क्या समझते हो कि इसका कोई गूढ़ कारण नहीं है?

सुरेश ने अचरज से नजर उठायी और देखता रहा। केदार बाबू कहने लगे-यह ईश्वर का निर्देश है-मेरी क्या मजाल कि छिपाऊँ! मानना ही पड़ेगा! कहकर उन्होंने कुर्सी पर एक चपत जमायी।

लेकिन उनकी इस लम्बी भूमिका के बाद भी, बेटी के लिये उनकी आफत-मुसीबत किस हद तक पहुँची-सुरेश इसका अन्दाजा न कर सका। इसके बाद केदार बाबू विस्तार से वर्णन करने लगे, कि कैसे उनका आॅर्डर-सप्लाई का उतना बड़ा कारोबार, महज धोखा और कृतघ्नता की आग में जलकर राख हो गया। फिर भी अडिग धीरज से वे खड़े रहे, तथा खर्च-कर्ज बढ़ते जाने पर भी, बेटी को पढ़ाने-लिखाने के खर्च में कभी कटौती नहीं की। वे कहने लगे-कुछ डिग्री जारी होने के डर से मेरा खान-पान जहरीला हो गया, और खुदरा महाजनों के तकाजों के मारे जीना मुहाल; तो भी मैंने मुँह खोलकर किसी से कुछ न कहा, क्योंकि यहीं कलकत्ते में ही अपने ऐसे-ऐसे बहुत-से दोस्त पड़े हैं, जो बात-की-बात में ये बकाया चुका सकते हैं।

जरा देर थमकर उन्होंने जाने क्या सोचा और कह उठे-मगर तुम्हें जो बताया, इसमें मुझे जरा भी सुकचाहट न हुई। यह क्या ईश्वर का स्पष्ट आदेश नहीं है? कहते हुए उन्होंने दोनों हाथ कपाल से लगाकर प्रणाम किया।

सुरेश को भगवान का विश्वास न था। उसने बूढ़े के इस उच्छ्वास में साथ नहीं दिया, बल्कि उसका मन कैसा तो छोटा हो गया। अधीर होकर पूछा-कितना कर्ज है आप पर?

केदार बाबू ने कहा-कर्ज? मेरा कारोबार चलता होता, तो यह भी कोई कर्ज था? बहुत होगा तो तीन-चार हजार! वे और भी कुछ कहने जा रहे थे, कि बैरा के साथ चाय और खुद जलपान का सरंजाम लिये अचला आयी।

गरम कोको का एक घूँट लेकर खुशी की एक अव्यक्त-सी आवाज करते हुए, प्याले को मेज पर रखते हुए बोल उठे-अपने ऊपर भगवान की यह अनोखी कृपा मैं शुरू से देखता आया हूँ, कि वे मुझको कभी बेइज्जती में नहीं पड़ने देते। अब मैंने यह समझा कि कहूँ-कहूँ करते हुए भी, महिम से यह कह क्यों नहीं पाता था-मानो वे बार-बार मेरी जुबान को दबा दिया करते थे।

सुरेश ने प्याले पर नजर रखकर कहा-आपको ये रुपये कब चाहिए? केदार बाबू ने फिर कोको का प्याला मेज पर रखते हुए कहा-जरूरत दरअसल मुझे नहीं सुरेश, तुम लोगों को है! और वे जरा ऊँची किस्म की हँसी हँसे। इस पहेली को समझ नहीं पाकर सुरेश ने मुँह उठाकर देखा-देखा कि अचला जिज्ञासु-सी अपने पिता की ओर ताक रही है। उन्होंने एक बार बेटी को, एक बार सुरेश को देखकर कहा-इसका मतलब समझना कुछ कठिन तो नहीं! आखिर इस घर को मैं अपने साथ तो ले नहीं जाऊँगा। यह अगर गया, तो तुम्हारा हो जायेगा, और रहा तो तुम्हीं दोनों का रहेगा! कहकर वे धीरे-धीरे हँसने लगे।

उन दोनों की आँखें मिल गयीं, और पल में दोनों ने लाली दौड़ आये मुँह को झुका लिया।

कोको के दो प्याले खत्म कर लेने के बाद केदार बाबू को एक जरूरी चिट्ठी लिखने की याद हो आयी। वे तुरन्त खड़े हो गये। बोले-आज तुम्हें खाने की बड़ी तकलीफ हो गयी सुरेश, कल दोपहर को यहीं खाना! इस तरह न्योता देकर, पच्छिम की तरफ का दरवाजा खोलकर वे अपने कमरे में चले गये।

खुले दरवाजे में डूबते हुए सूरज की लाल आभा सुरेश के चेहरे पर आकर पड़ी। गर्दन फेरकर उसने देखा-अचला एकटक उसको देख रही है, उसने झट नजर झुका ली। घड़ी की टिक-टकी के सिवा सारे कमरे में सन्नाटा था।

(8)

कमरे के मौन को मोड़ते हुए सुरेश ने कहा-एकाएक मैं एक अजीब हरकत कर बैठा।

अचला कुछ बोली नहीं।

सुरेश ने फिर कहा-मैं आपको जरूर एक राक्षस-सा लग रहा हूँ! लगता है, अकेले बैठने की हिम्मत नहीं हो रही आपको। है न? और वह खींच-खींच कर हँसने लगा। अचला ने अब भी सिर नहीं उठाया। लेकिन कहीं उठाती तो देख पाती, कि सुरेश की वह कोशिश करके हँसी गयी विफल हँसी, उसके अपने ही मुखड़े को बार-बार अपमानित करके शर्म से विकृत बना रही है।

सारे कमरे में फिर सन्नाटा छा गया, और दीवाल-घड़ी की टिक-टिक ही स्तब्धता को मापती रही। कुछ देर में यह कठोर नीरवता जब असह्य हो उठी, तो अपनी सारी देह की नसें और कड़ी करके सुरेश ने कहा-देखिये जो घटना हो गयी, उसके बाद अब आँखों की शर्म की गुंजाइश नहीं। बेला जाती रही, अब मैं जाऊँगा। पर जाने से पहले दो-एक बातों का जवाब सुन जाना चाहता हूँ। देंगी आप?

अचला ने सिर उठाया। आँखें उसकी पीड़ा से भरी थीं। बोली-कहिये।

सुरेश कुछ क्षण स्थिर रहकर बोला-आपके पिताजी का कर्ज चुका देने के लिये कल-परसों कभी आऊँगा। लेकिन जरूरी नहीं कि आपसे भेंट हो। मैं यह जानना चाहता हूँ कि हम दोनों के बारे में उनका इरादा क्या है, यह आप जानती हैं?

अचला बोली-वे मुझे स्पष्ट कुछ नहीं बताते।

सुरेश बोला-मुझे भी नहीं। फिर भी मुझे यकीन है कि-मगर आप शायद राजी न होंगी?

अचला ने कहा-नहीं!

-कभी नहीं?

अचला ने नजर झुकाकर कहा-नहीं!

-लेकिन महिम की उम्मीद न रहे, तो?

अचला ने अविचलित स्वर से कहा-इसकी उम्मीद तो नहीं ही है!

सुरेश ने पूछा-शायद तो भी नहीं?

अचला ने मुँह नहीं उठाया, लेकिन वैसे ही शान्त और दृढ़ कण्ठ से कहा-नहीं, तो भी नहीं!

सुरेश कोच पर लुढ़क गया और निःश्वास छोड़कर बोला-खैर, इससे यह तो साफ हो गया। जान में जान आयी!! कहकर कुछ देर चुप रहा, और फिर सीधा बैठकर बोला-लेकिन मैं इस मुश्किल को सोच रहा हूँ कि फिर आपके पिताजी का कर्ज कैसे चुकेगा?

अचला ने डरते हुए-से, जरा सिर उठाकर बड़े ही संकोच के साथ कहा-अब तो शायद आप दे नहीं सकेंगे?

नहीं दे सकूँगा क्यों?-सवाल करके सुरेश तीखी व्याकुल दृष्टि से देखता रहा। उत्तर का कुछ देर इन्तजार करके हँसा। लेकिन अबकी उसकी हँसी में खुशी न हो, पर बनावट भी न थी। बोला-देखिये, परिचय की घड़ी से ही मेरे जो व्यवहार रहे, उन्हें भद्र तो नहीं कहा जा सकता-यह मैं भी जानता हूँ; मगर मैं उतना गिरा हुआ भी नहीं हूँ! आपके पिताजी को मैंने रुपये घूस में नहीं देना चाहा था, मुसीबत में मदद के रूप में ही देना चाहा था। लिहाजा, देना आपकी राय पर निर्भर नहीं है। वह निर्भर है उनके लेने पर! अब वे रुपये लेंगे कैसे…मैं यही सोच रहा हूँ! बल्कि आइये, इस पर हम जरा राय-विचार कर लें।

अचला ने कहा-कहिए।

सुरेश ने कहा-देवकृपा से बहुत-बहुत रुपये का मालिक हूँ मैं। और रुपये-पैसे पर कभी मुझे किसी तरह का मोह नहीं रहा है। चारेक हजार रुपये मैं मजे से दे सकता हूँ। और आपके सुख के लिये तो ज्यादा भी गँवा सकता हूँ। खैर, आपके पिताजी का ख्याल है कि इन रुपयों को चुकाने की जरूरत न होगी। जबकि एक तरह से यह चुकाना ही होगा! समझ गयी?

सिर हिलाकर अचला ने अस्फुट स्वर में कहा-जी।

सुरेश ने कहा-मैं साफ कर रहा हूँ, मेरी साफगोई को अन्यथा न समझें। खूब समझ रहा हूँ कि रुपयों की उन्हें सख्त जरूरत है, मगर इतने रुपये चुकाने की उनकी अवस्था नहीं है। गरचे मेरी तरफ से कोई जरूरत भी नहीं-अच्छा यह तो आसानी से हो सकता है-परसों तक आप अपना इरादा उन पर जाहिर न करें, तो कोई गड़बड़ी न रहे। क्यों, बनेगा आपसे यह?

अचला उसी तरह सिर झुकाए बैठी रही। सुरेश ने कहा-आपने रुपयों के लोभ से राय नहीं दी, इससे मेरी श्रद्धा और भी बढ़ गयी। बल्कि आप राजी हो गयी होतीं तभी शायद मैं डर से पीछे हट जाता। मेरे लिये असम्भव कुछ भी नहीं। मैं चला।-सुरेश हँसते हुए खड़ा होकर बोला-कहने को अपना मुँह नहीं रहा, तो भी जाने की घड़ी में आपसे एक भीख माँगता हूँ-मेरे अपराधों को याद न रक्खें।-जरा आगा-पीछा करके बोला-नमस्ते। बुराई का जहाज लादकर मैं चला, मगर मैं पिशाच भी नहीं। खैर, एतबार करने का जब कोई उपाय नहीं रहने दिया, तो अभी कहना बेकार है!-और दोनों हाथ उठाकर नमस्कार करके वह तेजी से निकल गया।

धीरे-धीरे उसके पेरौं की आहट सीढ़ियों पर खो गयी। अचला ने उसे सुना, और फिर अकारण ही उसकी आँखों से टपाटप आँसू की बूँदे चूने लगीं।

अन्दर आते हुए केदार बाबू ने पूछा-सुरेश?

अचला ने झट आँसू पोंछकर कहा-अभी-अभी चले गये।

केदार बाबू ने चकित होकर कहा-अच्छा, मुझसे मिले बिना ही चला गया? जाते वक्त तुमने कल यहाँ आने की बात याद दिला दी थी?

अप्रतिभ होकर अचला ने कहा-मुझे याद नहीं रहा, पिताजी।

याद नहीं रहा? खूब!-कहकर केदार बाबू पास की चैकी पर निश्चेष्ट भाव से बैठ गये। बेटी की दबी आवाज से उनके मन में खटका-सा हुआ, लेकिन साँझ के धुँधलके में चेहरा न देख पाने के कारण वह टिकाऊ न हुआ। बोले-इस बुढ़ापे में जो काम खुद न करूँ, जिधर खुद नजर न रक्खूँ-वही नहीं होगा, उसी में कोई-न-कोई भूल रह जायेगी। चलूँ, बैरे के हाथों तुरन्त उसे लिख भेजूँ। उसके घर का पता क्या है?

-पता तो मुझे नहीं मालूम, बाबूजी!

यह भी नहीं मालूम? अच्छा!-केदार बाबू फिर कुर्सी पर बैठ गये। लेकिन तुरन्त रुखाई से बोल उठे-अपने हाथ-पाँव तुम खुद काट डालना चाहती हो, तो काटो, मुझे रोकने को नहीं पड़ी! इतना तो कम-से-कम सोचना चाहिए कि जो एक बात पर इतने-इतने रुपये देने को तैयार हो गया, वह आदमी किस किस्म का है? उसका पता भी नहीं पूछ रखना चाहिए? तुम जैसे-जैसे बड़ी हो रही हो, कैसी तो हुई जा रही हो अचला-कहकर उन्होंने एक लम्बा निःश्वास छोड़ा।

कर्ज के जाल में फँसे पिता जिस झूठ और हीनता से आत्म-रक्षा की कोशिश कर रहे थे-अचला यह सब देख रही थी। उससे उसके मन को चोट पहुँचती, पर यह सब चुपचाप सहा करती। अब भी कोई जवाब देकर उसने इस खीझ का कोई प्रतिवाद नहीं किया। लेकिन मन में यही कल्पना करके केदार बाबू को राहत मिली कि वह लज्जित और पीड़ित हुई।

बैरा बत्ती जलाकर दे गया। उन्होंने स्नेह की झिड़की देकर कहा-तुमने महिम की कभी खोज-पूछ भी न की। खैर, न ली, अच्छा ही किया। भगवान जो करते हैं, भले के लिये करते हैं! मगर सुरेश के बारे में तो यह लागू नहीं हो सकता। देखा नहीं, मानो ईश्वर हाथ पकड़ कर स्वयं इसे पहुँचा गये।

अचला ने पूछा-आप क्या सुरेश बाबू से रुपये कर्ज लेंगे?

केदार बाबू की भगवद्भक्ति अचानक बाधा पाकर विचलित हो उठी। बेटी की ओर देखकर बोले-हाँ-ना कर्ज तो नहीं। जानती हो बेटी, बात यह है कि सुरेश बड़ा भला है; आजकल ऐसा भला लड़का लाखों में कहीं एक मिलता है। उसकी भीतरी इच्छा है कि कर्ज के चलते यह मकान बेहाथ न हो जाये। रहेगा तो तुम्हीं लोगों का रहेगा, मैं अब कै दिन को हूँ, समझी?

अचला चुप रही। केदारबाबू उत्साहित हो बोल उठे-तुम तो जानती हो, मैं सदा साफ बात पसन्द करता हूँ! अन्दर और मुँह में और-यह मुझसे नहीं होने का!! इसीलिये खोलकर कह दिया कि अब सब जान-सुनकर महिम के हाथों तुम्हें सौंपने से पानी में फेंकना बेहतर है। सुरेश की भी जब यही राय है, तब कहना ही पड़ेगा कि उसके दोस्त से तुम्हारी शादी की बात दूर तक फैल चुकी है; ऐसे में रिश्ता तोड़ने से ही न चलेगा, नया ठीक भी करना होगा-नहीं तो समाज में मुँह दिखाना मुश्किल होगा। किन्तु जो कहो लड़का अच्छा है सुरेश! मैं मंगलमय को इसीलिये बार-बार प्रणाम करता हूँ।

पिता का प्रणाम करना जब निर्विघ्न सम्पन्न हो गया, तो अचला ने धीरे-धीरे कहा-इनसे इतना रुपया न लें, तो क्या न चले बाबूजी?

केदार बाबू शंका से चौंक उठे। बोले-लिये बिना चलने का जो नहीं, बेटी!

-मगर हम चुका जो नहीं सकेंगे।

चुकाने की बात क्या सुरेश-उद्विग्न आशंका से बूढ़े बात को खत्म ही न कर सके। उनका समूचा चेहरा सफेद हो गया। उनकी यह शक्ल देखकर अचला को तकलीफ हुई। झूठ बोली-वे कह रहे थे, परसों आकर वे रुपये दे जायेंगे।

-चुकाने की बात…

-नहीं, यह उन्होंने नहीं कहा।

-लिखा-पढ़ी…

-नहीं, इसकी शायद उन्हें बिल्कुल फिक्र नहीं।

यही बात!-कहकर, तृप्ति की रुँधी साँस झट फेंककर वे कुर्सी पर लेटे से बैठे, और आँखें बन्द करके दोनों पैर सामने की मेज पर रख दिये। आनन्द और आराम से उनका सर्वाú मानो कुछ देर के लिये शिथिल हो गया। कुछ देर उसी तरह से रहे, फिर पैर नीचे उतार कर दमकते स्वर में बोले-अब सोच तो देखो बेटी, कहाँ से क्या हुआ? इसमें उस सर्व-शक्तिमान् का हाथ क्या साफ नहीं देख रही हो? अचला चुपचाप पिता के मुँह की ओर ताकती रही। जवाब का इन्तजार न करके वे बोले-मैं साफ देख पा रहा हूँ कि यह केवल उनकी दया है! तुमसे क्या बताऊँ बिटिया, ये दो साल में एक भी रात ठीक से सो नहीं सका हूँ। केवल उन्हीं को पुकारता रहा हूँ। और सुरेश को देखते ही लगा-यह मानो मेरे उस जन्म की सन्तान है!

अचला चुप बैठी रही। पिता की गिरी हुई आर्थिक दशा वह जानती थी; लेकिन अन्दर-अन्दर वह इस हद तक पहुँच चुकी थी, यह नहीं मालूम था। दो साल की एकान्त प्रार्थना से मंगलमय की कृपा हुई भी-और अचानक वह समस्या हल भी हुई, तो उसी का अपना मसला बड़ा पेचीदा हो गया। सुरेश से रुपया न लेने के बारे में अभी-अभी उसने जो संकल्प किया था; उस संकल्प को छोड़ना पड़ा। इसमें जरा भी बाधा देने की बात वह सोच नहीं सकी। जो भी हो, रुपया लेना ही पड़ेगा!

केदार बाबू सन्ध्योपासना के लिये चले गये। अचला शुरू से अन्त तक सारी घटनाओं को दुहराकर निष्कर्ष के लिये वहीं बैठी रह गयी।

उसके जीवन के सन्धिस्थल पर जो मित्र अगल-बगल आकर खड़े हैं, उनमें से एक को तो ‘जाओ’ कहकर विदाई देनी ही पड़ेगी, इसमें एक तिल भी सन्देह नहीं। मगर किसे? कौन है वह? जो महिम उसके निःसन्देह विश्वास पर, पता नहीं किस कर्त्तव्य की पुकार से निश्चिन्त-बेखटके बैठा है, उसका शान्त मुखड़ा याद करते ही अचला की आँखें भर आयीं। जिसने कभी कोई अपराध नहीं किया, फिर भी जाओ कहते ही वह चुपचाप चला जायेगा-इस जिन्दगी में किसी भी बहाने, किसी भी नाते वह कभी उनके पथ में नहीं आयेगा। अचला को स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा, कि इस अभावनीय विदाई की अन्तिम घड़ी में भी उसकी अटूट गम्भीरता विचलित नहीं होगी; वह किसी को दोष नहीं देगा, शायद कारण तक न जानना चाहेगा; गहरे विस्मय और गूढ़ वेदना की एक लकीर शायद उसके चेहरे पर झलके, मगर उसके सिवा कोई उसे देख भी न पायेगा।

उसके बाद एक दिन वह सुनेगा कि मेरा विवाह सुरेश से हुआ। उस समय असावधानता में ही शायद एक लम्बा निःश्वास छूट पड़ेगा, या कि जरा मुस्कराकर ही वह अपने काम में लग जायेगा! इस बात को सोचकर सूने कमरे में भी लज्जा और घृणा से उसका चेहरा लाल हो उठा

(9)

दस-बारह दिन बीत गये। केदार बाबू का रवैया देखकर लगता-इतनी स्फूर्ति शायद उनमें जवानी में भी न थी। आज साँझ से पहले सिनेमा देखकर लौटते हुए, गोल-दीघी के आस-पास हठात् गाड़ी से उतर पड़ने को तैयार होकर बोले-सुरेश, मैं यहाँ से समाज चला जाऊँगा-पैदल; तुम लोग घर जाओ, बेटे! और हाथ की छड़ी को घुमाते हुए वे तेजी से चले गये। सुरेश ने कहा-तुम्हारे पिताजी की तबीयत आजकल खूब अच्छी है, लगता है!

अचला उधर को ही ताक रही थी; बोली-जी हाँ, आपकी कृपा से। गाड़ी मोड़ पर मुड़ी और वे ओझल हो गये। सुरेश ने अचला के दायें हाथ को अपनी छाती पर खींचकर कहा-तुम्हें पता है, इस बात से मुझे दुःख होता है। क्या इसीलिये तुम बार-बार कहा करती हो!

अचला जरा फीका हँसकर बोली-कहीं इतनी बड़ी दया भूल जाऊँ, इसीलिये बार-बार याद करती हूँ। आपको दुःखाने के लिये नहीं कहती!

उसकी हथेली को जरा-सा दबाकर सुरेश ने कहा-इसीलिये मुझे चोट ज्यादा लगती है।

-क्यों?

मैं खूब समझता हूँ कि सिर्फ इस दया को स्मरण करके ही तुम मन में बल पाती हो। इसके सिवा तुम्हारा और कोई भी सम्बल नहीं, सच है या नहीं?

-अगर न कहूँ?

-इच्छा न हो तो मत कहो। लेकिन मुझको कभी ‘तुम’ नहीं कह सकोगी?

अचला का मुख मलिन हो गया। सिर झुकाए धीरे-धीरे बोली-कभी कहना पड़ेगा, यह तो आप जानते हैं।

उसके उदास मुखड़े को देखकर सुरेश ने निःश्वास फेंका-मगर जब यही होना है, तो दो दिन पहले कहने में ही कौन-सा गुनाह है?

अचला ने उत्तर नहीं दिया। अनमनी-सी रास्ते की तरफ देखती रही। मिनट-भर चुप रहकर सुरेश अचानक बोल उठा-मुझे लगता है, महिम को सब मालूम हो गया है।

चौंककर अचला ने मुँह फेरा। उसका एक हाथ अब तक सुरेश के हाथ में ही था। उसे खींच कर पूछा-आपने कैसे जाना?

उसकी आकुल आवाज सुरेश के कानों में खट् से लगी! बोला-नहीं तो अब तक वह जरूर आता! पन्द्रह-सोलह दिन हो गये न?

अचला ने सिर हिलाकर कहा-आज को मिलाकर उन्नीस दिन हुए। अच्छा, पिताजी ने क्या उन्हें कोई पत्र लिखा है-मालूम है आपको?

सुरेश ने संक्षेप में कहा-नहीं, नहीं मालूम।

-वे घर से लौटे या नहीं, जानते हैं?

-नहीं, यह भी नहीं जानता।

अचला ने फिर गाड़ी से बाहर देखते हुए कहा-तो फिर खत लिखकर उन्हें सब बताना पिताजी के लिये उचित है। किसी दिन अचानक आकर हाजिर न हो जायें।

फिर कुछ देर के लिये दोनों नीरव हो रहे। सुरेश ने फिर एक बार उसके शिथिल हाथ को अपने हाथ में लेकर धीरे-धीरे कहा-मुझे सबसे बड़ा डर इस बात का लगता है, अचला-जब मैं सोचता हूँ कि तुम कभी मुझे श्रद्धा तक नहीं कर सकोगी। मुझे सदा यही लगेगा कि रुपये के बल पर मैं तुम्हें छीन लाया हूँ-दोष यही हुआ!

अचला ने इधर झट से मुँह फेर कर बाधा देते हुए कहा-आप ऐसी बात न कहें-आपको मैं दोष नहीं दे सकती!-जरा रुककर बोली-रुपये का जोर संसार में हर जगह है, यह तो जानी हुई बात है; मगर वह जोर आपने तो नहीं लगाया। पिताजी चाहे न जानें, पर सब कुछ जानते हुए मैं अगर आप पर अश्रद्धा करूँ, तो मुझे नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी।

सुरेश की सदा की फितरत है-जरा-सी बात पर ही वह विगलित हो उठता। अचला के इसी छोटे-से प्यारे वाक्य पर उसकी आँखों में पानी भर आया। उस पानी को अचला के हाथ से पोंछ कर उसने कहा-यह न सोचो कि इस अपराध, इस अन्याय का परिणाम मैं नहीं समझ सकता हूँ। मगर मैं दुर्बल हूँ। बहुत ही दुर्बल! यह चोट महिम सह लेगा; मेरा कलेजा मगर टूक-टूक हो जायेगा।-कहते हुए मानो किसी जोर के धक्के को सम्हाल लिया, इस तरह से बोला-तुम मेरी नहीं, और किसी की हो-यह बात मैं सोच ही नहीं सकता। तुम्हें नहीं पाऊँगा-यह सोचते ही मेरे पाँवो के नीचे की जमीन तक खिसकने लगती है।

रास्ते पर गैस की बत्तियाँ जलायी जा रही थीं। उनकी गली में गाड़ी के घुसते ही सुरेश के चेहरे पर रोशनी पड़ी, और उसकी छलछलाती आँखें अचला को दिखाई पड़ गयीं। क्षणिक दयावश वह वही कर बैठी, जो कभी नहीं किया। सामने झुककर अपने हाथ से उसका आँसू पोंछती हुई बोली-मैं पिताजी की बात से कभी बाहर नहीं। मुझे तो उन्होंने तुम्हारे ही हाथों सौंपा है।

अचला के उस हाथ को अपने होंठों पर ले जाकर बार-बार चूमते हुए सुरेश कहने लगा-मेरे लिये यही सबसे बड़ा पुरस्कार है अचला-इससे ज्यादा नहीं चाहता! लेकिन इतने से मुझे वंचित न करो!

गाड़ी घर के सामने खड़ी हुई। साईस दरवाजा खोलकर हट गया। सुरेश उतरा, और उसने जतन से हाथ पकड़ कर अचला को उतारा, तथा एक साथ दोनों ने देखा-ठीक सामने महिम खड़ा है। नजर पड़ते ही पल में दोनों मानो पत्थर हो गये।

दूसरे ही क्षण अचला ने अव्यक्त आर्त-स्वर में न जाने क्या एक शब्द कहकर जोर से अपना हाथ खींच लिया, और पीछे हट गयी।

विस्मय से महिम हत-बुद्धि हो गया। बोला-सुरेश, तुम यहाँ? पहले तो सुरेश के मुँह से बात न फूटी। उसके बाद बिल्कुल फक पड़े चेहरे पर सूखी हँसी खींच कर बोला-वाह महिम! उसके बाद से लापता! बात क्या है? कब आये? चलो-चलो, ऊपर चलो! कहकर पास जाकर अचला का हाथ हिलाकर कहा-मगर आपके पिताजी ने यह खूब किया। अपने तो गये समाज, और पहुँचाने का भार पड़ा इस गरीब पर। खैर, अच्छा ही हुआ! नहीं तो महिम से शायद भेंट ही न होती। घर में इतने दिन कर क्या रहे थे, कहो तो?

महिम ने कहा-काम था!-मारे अचरज के उसे अचला को नमस्ते करने की भी सुध न रही।

उसे जरा धक्का-सा देकर सुरेश बोला-जो भी हो, आदमी खूब हो तुम! हम लोग तो डर से कातर थे। चिट्ठी भी देते न बना। खड़े क्यों रहे? ऊपर चलो! कहकर उसे जबर्दस्ती ढकेल कर ही ऊपर ले गया। लेकिन जब वे बैठके में जाकर बैठे, तो अचानक उसकी अस्वाभाविक प्रगल्भता एक-बारगी थम गयी। गैस की तेज रोशनी मे उसका चेहरा स्याह हो उठा। दो-तीन मिनट कोई कुछ न बोला। महिम ने सूनी आँखों एक बार अपने दोस्त और एक बार अचला को देखकर सूखे स्वर में पूछा-सब ठीक तो है?

अचला ने गर्दन हिलाकर जवाब दिया, बोली नहीं।

महिम बोला-मैं तो बेहद हैरान हूँ! मगर सुरेश से तुम लोगों का परिचय कैसे हुआ?

अचला सिर उठाकर मरी-सी होकर बोली-इन्होंने पिताजी के चार हजार का कर्जा अदा कर दिया है। उसका मुँह देखकर महिम के मुँह से सिर्फ इतना ही निकला-उसके बाद?

इसके बाद तुम पिताजी से पूछना-कहकर अचला तेजी से अन्दर चली गयी। महिम कुछ देर बैठा रहा, और अन्त में मित्र से बोला-माजरा क्या है सुरेश?

सुरेश ने उद्धत भाव से जवाब दिया तुम्हारी तरह रुपया ही मेरी जान नहीं है। भले आदमी आड़े वक्त में मदद माँगते हैं, तो मैं देता हूँ, बस इतना ही। वे चुका न सकें तो आशा है वह मेरा दोष नहीं। इतने पर भी अगर मुझे ही दोषी ठहराओ, तो हजार बार ठहरा सकते हो, मुझे आपत्ति नहीं!

मित्र की यह बेसिर-पैर की सफाई और उसके कहने की ऐसे अनोखे ढंग से महिम वास्तव में मूढ़ होकर देखता रहा और अन्त में कहा-एकाएक मैं तुम्हें ही क्यों दोषी बनाऊँगा? इसका कोई मतलब मेरी समझ में नहीं आया, सुरेश! कृपा करके जब तक खोलकर न कहो, तो कैसे समझ सकता हूँ?

सुरेश ने उसी रुखाई से कहा-खोलकर क्या बताऊँ-बताने को है ही क्या?

महिम ने कहा-है! मैं जिस दिन घर जा रहा था, तब तुम इन लोगों को पहचानते न थे। इसी बीच ऐसी घनिष्ठता कैसे हो गयी, और एक ब्राह्म परिवार की मुसीबत में चार-चार हजार रुपये देने की यह उदारता ही मन में कैसे आयी-इतना ही मुझे समझा दो तो मैं कृतार्थ होऊँ!

सुरेश ने कहा-सो हो सकता है। लेकिन मुझे अभी बात करने का समय नहीं है। मैं अभी चलता हूँ। इसके सिवा केदार बाबू से ही पूछ लेना न, कहने के लिये तो वे बैठे ही हुए हैं।

ठीक है!-कहकर महिम उठ खड़ा हुआ-सुनने का बड़ा कौतूहल था, फिर भी उनके इन्तजार में बैठने का अभी समय नहीं है। मैं जाता हूँ-

सुरेश फिर बैठा रहा; कुछ बोला नहीं।

बाहर आकर महिम को नजर आया-सामने की रेलिंग पकड़ कर उसी तरफ देखती हुई, अँधेरे में अचला खड़ी है। लेकिन करीब आने या बात करने की उसने कोई कोशिश नहीं की। यह देखकर वह भी सीढ़ी से नीचे उतर गया।

(10)

महिम कुछ जरूरी दवाएँ खरीदने के लिये कलकत्ते आया था, लिहाजा रात ही की गाड़ी से लौट गया। सुरेश ने खोज-पूछ से जाना कि महिम उसके घर नहीं पहुँचा-चारेक दिन बाद, केदार बाबू के बैठक में बैठकर यही चर्चा शायद हो रही थी। केदार बाबू को बाइस्कोप का नया नशा सवार हुआ था। तै था, कि आज भी चाय पीकर वे लोग निकलेंगे। सुरेश की गाड़ी बाहर खड़ी थी। ऐसे समय, किसी बुरे ग्रह की तरह अकस्मात् महिम आकर दरवाजे के पास खड़ा हुआ।

सबने नजर उठाकर देखा, और सबके चेहरे पर परिवर्तन-सा दिखाई दिया।

केदार बाबू ने विरस मुख से, जबर्दस्ती जरा हँसकर अगवानी की-आओ महिम! खबर सब ठीक है?

नमस्कार करके महिम अन्दर आकर बैठा। घर में इतनी देर होने का कारण पूछे जाने पर उसने सिर्फ यह कहा कि जरूरी काम था। सुरेश ने मेज पर से उस दिन का अखबार उठा कर पढ़ना शुरू कर दिया। और अचला बगल की चैकी पर से सिलाई उठा कर उसमें लग गयी। इसलिये बात सिर्फ केदार बाबू से होने लगी।

अचानक बीच में एक मिनट के लिये अचला उठकर बाहर गयी, और तुरन्त अन्दर आ गयी। जरा ही देर बाद सिर के ऊपर का पंखा खींचा जाने लगा। अचानक हवा जो लगी सो खुश होकर केदार बाबू बोल उठे-गनीमत है, इतनी देर में कम्बख्त पंखे वाले की कृपा तो हुई!

सुरेश ने तीखी और टेढ़ी निगाहों से देख लिया-महिम के कपाल पर पसीने की बूँदे जम आयी हैं। क्यों अचला उठकर बाहर गयी, और अचानक पंखे वाले की दया कैसे हो गयी-सारा कुछ लम्हे-भर में बिजली की तरह उसके मन में खेल गया; और जिस हवा से केदार बाबू खुश हुए थे, उसी हवा से उसका सर्वांग जलने लगा। अचानक वह गला खोलकर बोल उठा-पाँच बज गये। और देर करने से न चलेगा, केदार बाबू?

केदार बाबू ने बातचीत बन्द करके चाय के लिये चीख-पुकार मचायी, कि बैरा सारा सरंजाम लेकर पहुँचा। सिलाई छोड़कर, प्याले में चाय बनाकर पिता और सुरेश की ओर बढ़ाते ही केदार बाबू ने पूछा-तुम नहीं पिओगी बेटा?

अचला ने गर्दन हिलाकर कहा-नहीं, बड़ी गर्मी है।

अचानक महिम पर नजर पड़ते ही वे व्यस्त-से होकर बोल उठे-अरे, महिम को नहीं दी? तुम नहीं पिओगे महिम?

महिम जवाब दे, इसके पहले ही अचला ने मुड़कर उसकी ओर देख स्वाभाविक मृदुता से कहा-न, इतनी गर्मी में तुम चाय मत लो! फिर इस वक्त तो तुम्हें चाय बर्दाश्त भी नहीं होगी।

महिम की छाती पर से किसी ने मानो दुर्वह पत्थर का बोझ, जादू के बल से उठाकर फेंक दिया। वह बोल न सका, सिर्फ अव्यक्त विस्मय से एकटक देखता रहा। अचला बोली-जरा देर सब्र करो, मैं लाइम-जूस का शरबत बनाकर लाती हूँ-और सम्मति का इन्तजार किये बिना ही चली गयी। सुरेश एक तरफ को मुँह घुमाकर चाभी वाले खिलौने-सा चाय पीता रहा जरूर, पर चाय की एक-एक बूँद उसे विस्वाद और कड़वी लगने लगी।

चाय पीकर केदार बाबू झटपट कपड़े बदल आये। आकर देखा-अचला बैठी-बैठी ध्यान से सिलाई कर रही है। उन्होंने आश्चर्य से कहा-बैठी सिलाई ही कर रही हो, तैयार नहीं हुई?

अचला ने शान्त-भाव से कहा-मैं नहीं जाऊँगी!

-नहीं जाओगी? यह कैसी बात?

-नहीं, आज आप लोग जाइये। मुझे अच्छा नहीं लग रहा है।-कहकर वह जरा हँसी।

कुढ़न और क्रोध को दबाकर सुरेश ने कहा-चलिये केदार बाबू, आज हम लोग चलें! उनकी शायद तबीयत ठीक नहीं। जबर्दस्ती से क्या लाभ?

उसे देखते ही केदार बाबू उसके अन्दर के क्रोध को भाँप गये। बेटी से पूछा-तुम्हें कुछ हुआ है?

अचला ने कहा-मैं ठीक ही हूँ।

सुरेश महिम की तरफ पीठ करके खड़ा था। उसके मुँह के भाव को गौर नहीं किया; बोला-चलिये हम चलें! उन्हें घर में कुछ काम हो सकता है-जोर करके ले जाने की क्या जरूरत है?

केदार बाबू ने कठोर स्वर से पूछा-घर में कोई काम है?

अचला ने सिर हिलाकर कहा-नहीं।

केदार बाबू चिल्ला पड़े-मैं कहता हूँ ,चल!! जिद्दी लड़की!!

अचला के हाथ की सिलाई छूट कर नीचे गिर गयी। वह स्तम्भित-सी, आँखें बड़ी-बड़ी करके पहले सुरेश फिर पिता को ताककर, एकाएक मुँह घुमाकर तेजी से चली गयी।

सुरेश ने स्याह मुखड़ा लिये कहा-आप तो सब बात में जोर-जबरदस्ती करते हैं। मगर मैं अब देर नहीं कर सकता, इजाजत दें तो मैं जाऊँ।

अपने अभद्र आचरण से केदार बाबू मन-ही-मन लज्जित हो रहे थे-सुरेश की बात से नाराजहो गये। मगर वह नाराजगी पड़ी महिम पर। वह बहुत ही दुःखी और क्षुब्ध होकर उठना ही चाहता था कि केदार बाबू ने कहा-तुम्हें कोई काम है, महिम? महिम अपने को जब्त करके उठते हुए बोला-नहीं।

केदार बाबू चलने को उद्यत होकर बोले-तो आज हम लोग जरा व्यस्त हैं, फिर कभी आने से-

महिम ने कहा-जैसी आज्ञा! आऊँगा। लेकिन आने की कोई आवश्यकता है?

सुरेश को सुनाकर केदार बाबू ने कहा-मुझे अपने लिये कोई जरूरत नहीं। लेकिन जरूरत समझो तो आना; कुछ बातों पर चर्चा की जायेगी।

तीनों जने बाहर निकल पड़े। नीचे आकर महिम की तरफ सुरेश ने ताका तक नहीं; वह केदार बाबू को लेकर गाड़ी पर सवार हो गया। कोचवान ने गाड़ी हाँक दी।

महिम कुछ ही दूर बढ़ा था, कि पीछे से अपने नाम की पुकार सुनकर खड़ा हो गया। देखा-केदार बाबू का बैरा है। वह बेचारा हाँफता हुआ उसके पास आया, और कागज की एक चिट उसके हाथ पर रख दी। उस पर पेंसिल से सिर्फ अचला लिखा था। बैरा ने कहा-उन्होंने बुलाया है।

महिम लौटा। सीढ़ी पर पाँव धरते ही देखा-अचला सामने खड़ी है। उसकी लाल आँखों की पलकें अब भी गीली थीं। पास जाते ही बोली-तुम क्या अपने कसाई मित्र के हाथों मुझे जिबह के लिये छोड़ गये? जिसने तुम्हारे साथ इतनी बड़ी कृतघ्नता की, तुम मुझे उसके हाथों छोड़ कर कैसे जा रहे हो? और वह झर-झर रो पड़ी।

महिम काठ का मारा-सा खड़ा रहा। दो-एक मिनट में आँखें पोंछकर वह बोली-मुझे शर्माने का समय अब नहीं रहा! तुम्हारा दायाँ हाथ देखूँ? और खुद उसका दाहिना हाथ खींचकर उसने अपनी अँगुली से सोने की अँगूठी निकाल कर उसे पहना दी। बोली-मैं और सोच नहीं सकती। अब जो करना है, तुम करो! इतना कहकर उसके पाँवों तक झुककर उसने प्रणाम किया और चली गयी।

महिम ने भला-बुरा कुछ न कहा-बड़ी देर तक रेलिंग पर भार देकर चुप खड़ा रहा, और फिर धीरे-धीरे उतरकर चल गया।

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