गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 6
कभी-कभी रात के विस्तार का कोई अंत नहीं होता। रात हमेशा साथ-साथ रहती है और अंधेरा कटे-फटे असंतुलित टुकड़ों में आसपास बिखरा रहता है।
. . .फिर हम लोग ताऊ के साथ गांव चले गये। हमें बस रुलाई आती थी। हम रोते थे. . . पापा तो इधर-उधर देखने लगते थे. . .मम्मी हमें समझाती थी कि देखो शादी नहीं हो रही है गौना हो रहा है. . .शादी तो बहुत बाद में होगी. . .गौना के बाद तुम हमारे साथ रहना. . .खूब पढ़ना . . . जो किताब लाओगी. . .ले आना. . . हम गांव पहुंचे. . .
“तुम्हारा गांव कहां है?”
“. . .कानपुर में है. . .”
“नाम क्या है?”
“लखनपुर. . .”
. . .तो हम गांव पहुंचे. . .वहां हमें बहुत-सी औरतों ने घेर लिया और सब कहने लगीं. . .दुल्हनिया आ गयी. . .दुल्हनिया आय गयी. . हम फिर रोने लगे. . . वे हंसने लगीं। कहने लगीं, काहे का रोवत हो, तुम्हार पति बहुत अच्छा है. . .तुमका खूब खिलाई-पिलाई. . .ध्यान राखी . . .हम कहने लगे, गौना नहीं करना हमें. . .हमें उबटन मलने नाइन आयी तो हमने सब फेंक दिया और कोठरी में जाकर अंदर से कुण्डी लगा ली. . .सब आये खोलने को कहा, पर हमने नहीं खोली. . .हम सोचते थे कोठरी में कुछ होता तो हम खा लेते. . .पर वहां गुड़ और अनाज भरा था. . .हम बोरे हटाने लगे. . .कहते थे कोठरी में सांप रहता
है. . .हमने सोचा सांप हमें काट ले तो अच्छा है. . .हम मर जायें. . .पर सांप नहीं था. . .बाहर से सब कह रहे थे. . .फिर पापा आये और बोले, “खोल दो अनु मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं. . .मेरी ऐसी बदनामी हो जायेगी कि किसी को मुंह दिखाने लायक न रह जाऊंगा. . .तब रोते हुए हमने कोठरी खोल दी. . .फिर सब मिलकर हमें उब्टन लगाने लगे. . हम रोते जाते थे. . .हमें पता था या पता नहीं था केवल लगता था कि हमारे साथ बहुत बुरा हो रहा है. . .फिर हमें सजाया गया. . .हमें समझाने फिर पापा आये. . .पापा को हम बहुत प्यार करते हैं. . .अभी भी बहुत प्यार करते हैं. . .पापा ने कहा अनु हम जो कुछ कर रहे हैं तुम्हारी भलाई के लिए कर रहे हैं. . .तुम हमारी बेटी हो. . .हमारी छोटी बहनें बहुत डर गयी थीं. . .वे भी डरी रहती थीं. . .पर ताऊजी और ताईजी बड़े खुश थे. . .
“तुम्हारे ताऊजी क्या करते हैं?”
“खेती करते हैं और रुपया उठाते हैं. . .बहुत पैसा है उनके पास. . .”
. . .लड़कियां और औरतों गाना गाती थीं पर हमें कुछ सुनाई नहीं देता था। हमें कुछ दिखाई भी नहीं देता था. . .हम बस बैठे रहते थे . . .फिर क्या-क्या हुआ हमें याद नहीं. . .हम कुछ नहीं जानते. . .
“गौने के बाद तुम दिल्ली आ गयीं?”
“हां. . .पर स्कूल छुट गया. . .हमें इतनी शरम आती थी कि हम घर से निकलते ही नहीं थे. . .हम बस गणित के सवाल लगाया करते थे और घर का काम करते थे। स्कूल से कोई लड़की हमसे मिलने भी नहीं आती थी. . .
“तो गणित ने तुम्हें बचाया।”
उधर से आवाज़ नहीं आई। अंधेरे की चादर तनी रही. . .फिर एक महीन पतली से “हां” उभरी।
बाहर हल्का-सा उजाला फैल रहा था। खिड़कियों के बाहर पेड़ों की काली छायाएं कुछ स्पष्ट हो रही थी। अनु उठी और बालकनी में चली गयी। हालांकि अभी सूरज नहीं निकला था, लगता था कि बस एक
दो क्षण की ही बात है। मैं भी बालकनी में आ गया। दूर तक फैले पहाड़ों पर टूटे-फूटे खण्डहर और प्राचीर के बीच में आधा गिरा हुआ फाटक और उसके कंगूरे नज़र जा रहे थे। क्या यहां रहने वालों ने कभी इस क्षण की कल्पना की होगी? कितना अच्छा है कि आदमी का ज्ञान सीमित है।
खण्डहरों के पीछे से लाली नमूदार हुई और लगा इतनी कम और कमज़ोर है कि शायद वहीं कहीं उलझ कर रह जायेगी. . .लेकिन धीरे-धीरे काले शताब्दियों पुराने पत्थरों को चमकाने लगी। पेड़ों के ऊपर चिड़ियों का शोर मच गया और विशाल पेड़ जैसे अंगड़ाई लेकर खड़े हो गये। हल्की नमी और रात वाली उदासी में भीगा दृश्य साफ होता चला गया। अनु खामोशी से देख रही थी। मैंने उसे देखा यारी और लाल आंखें धीरे-धीरे किसी बच्चे की आंखों जैसी हो गयी थी।
एक अजीब-सा रिश्ता बन रहा है मेरे और अनु के बीच न तो यह पूरी तरह दोस्ती का रिश्ता है, न यह पूरी तरह प्यार का रिश्ता है, न ये सम्मान आदर और औपचारिकता का रिश्ता है और न यह कोई कमज़ोर रिश्ता है। शायद हम दोनों एक-दूसरे को बहुत ही अलग एक नये धरातल पर तलाश कर रहे हैं और लगता है कि कहीं-न-कहीं हम एक दूसरे को पा लेंगे। धीरे-धीरे उसका आकर्षण, एक नयी तरह का आकर्षण मुझे यह सोचने पर मजबूर तो नहीं करता कि इतनी सालों की खाली जिन्दगी में एक औरत की कमी को अनु अजीब तरह से भर रही है। विश्वास उसका सहज स्वभाव है। मैं हैरान रह जाता हूं कि वह मेरी हर बात पर पूरी तरह विश्वास कर लेती है। इतना अधिक विश्वास जितना मैं खुद भी नहीं करता। कभी-कभी उसे बच्चों जैसी चपलता और जिज्ञासा से यह लगता है कि वह मेरी लड़की है. . .मेरी संतान है. . . मेरे उसके बीच इस रिश्ते का एक नया पहलू है. . .यह इस तरह संभव है कि मेरी और उसकी उम्र में वही अंतर है जो पिता और पुत्र में होता है। पचपन साल के आदमी की लड़की छब्बीस साल की तो हो ही सकती है।
आकर्षण की एक वजह यह भी थी कि मैं अनु को अब तक नहीं समझ पाया था। वह अपने ट्यूशन वग़ैरा पढ़ाने के बाद शाम मेरे यहां चली आती थी। गुलशन के बच्चों को पढ़ाती थी। गुलसनिया के साथ गप्प मारती थी। दोनों अवधी में बातें करते थे। चाय पीती थी। मैं घर में होता तो मुझसे बातचीत होती। मेरे कम्प्यूटर में नये-नये प्रोग्राम डालती और आठ बजते-बजते घर चली जाती। एक साल या उससे ज्यादा वक्त हो गया था मैं यह नहीं समझ पाया था कि उसका “ऐजेण्डा” क्या है? कभी-कभी अपने पर शर्म आती थी कि यार हम ये समझते या मानते हैं कि जैसे हमारे “ऐजेण्डे” होते हैं, वैसे ही हर आदमी के होते होंगे। आजतक उसने मुझसे किसी “फेवर” के लिए कोई बात न की थी। उसे गणित के ट्यूशन करने से अच्छी आमदनी थी लेकिन कपड़े वैसे ही पहनती थी जैसे शायद बीस साल पहले पहनती होगी। मेकअप के नाम पर काजल लगाती थी लेकिन फिर भी उसका अपना आकर्षण था। यह शायद व्यक्तिगत आकर्षण था। उसके साथ जो त्रासदी हो चुकी थी उसके बाद तो उसमें बहुत “बिटरनेस” होना चाहिए थी लेकिन वह भी न थी।
गुलशन अनु को अनु दीदी कहता है। मैंने एक बार उसे प्यार से डांटते हुए कहा “अबे तू उसे दीदी क्यों कहता है. . .तू तो उसके बाप के बराबर हुआ?” गुलशन यह समझने लगा कि दिल्ली में “तू” प्यार की ज़बान है।
“अजी सब कहते हैं तो मैं भी कहता हूं।”
“सब कौन?”
“सब. . . सब बच्चे. . .”
मुझे हंसी आ गयी। वाह ये भी खूब है। बीस साल से दिल्ली में है लेकिन है पक्का केसरियापुर वाला उजड्ड किसान।
अनु के बारे में सोचते हुए और उससे अपने रिश्ते को व्याख्यायित करने की कोशिश करते हुए कभी-कभी मुझे लगता है कि उसके प्रति मेरे मन में एक और भी आकर्षण है। अगर सच पूछा जाये तो तन्नो से मेरी शादी पांच-सात साल ही चली। उसके बाद वह मेरे लिए और मैं उसके लिए अजनबी होते चले गये। रिश्ता बना रहा क्योंकि बीच कड़ी हीरा बना हुआ है। तन्नो के बाद सुप्रिया मेरी जिंदगी में आई और कम से कम आठ साल तक उससे रिश्ता कायम रहा। अब पिछले सत्रह-अट्ठारह साल से मैं अकेला हूं। इतना झक्की और इतना सख़्त हो गया हूं कि उसके बाद मेरी जिंदगी में कोई औरत नहीं आयी। कौन आती? जो आदमी बात-बात पर खाने के लिए दौड़ता हो। जिसने सही और गल़त के पैमाने ढाल लिए हो. . .जो उस “दुनिया” से नफ़रत करता हो जहां रहता है, उसके पास कौन आयेगी? लेकिन खाली जगह तो खाली ही रहती है? तो क्या इस खाली जगह को अनु भर रही है? एक ऐसी औरत के रूप में जिसने मेरे सामने “सरंडर” कर दिया है। वह मेरी बात नहीं काटती। वह मुझे सम्मान देती है। मेरा ध्यान रखती है। मेरी निगाह पहचान लेती है और वही करती है जो मैं चाहता हूं। वह पूरे समर्पण के साथ मेरे पास आती है। मैं जिस रूप में उसे संबोधित करूं वह जवाब देती है। तो क्या अनु उस जगह को भर रही है? और क्या आदमी ऐसी औरत चाहता है जो उसके कहने में रहे? जो उसे आदर्श माने? जो पूरी तरह समर्पण करे? जो आदमी की हर बार को अंतिम सच की तरह स्वीकार करे? अनु कभी विरोध नहीं करती। अनु कभी कुछ मांगती नहीं। कभी कुछ चाहती नहीं. . .सुख हमेशा उसके साथ रहता है। वह हर हाल में खुश है और संतुष्ट है।
अनु अब मुझे बहुत सुंदर लगती है। यह बड़ी अजीब बात है कि जब मैं उससे पहली बार मिला था तो बिल्कुल साधारण और सामान्य मध्यवर्गीय लड़की नज़र आती थी। उसकी शक्ल सल्लो से बेपनाह मिलती है इसलिए मैंने उसमें एक पुराना आकर्षण महसूस किया था। एक ऐसा पाठ जो दोहराया जा रहा हो। लेकिन इसके अलावा उसके शरीर और सुंदरता का कोई विशेष आकर्षण पैदा नहीं हो पाया था। पर अब समय के साथ-साथ सब बदल रहा है। मैं सोचता हूं क्या सुंदरता धीरे-धीरे विकसित होती है? क्या यह एक प्रक्रिया है? हां शायद यही है क्योंकि अनु का सामान्य चेहरा अब मेरे लिए सामान्य, सीधा, सरल, आकर्षणहीन नहीं रह गया है। जो हम करते और सोचते हैं वह चेहरे पर अंकित होता रहता है। रोचक शायद यह है कि एक ही चेहरा अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह से दिखाई देता है। यानी सिक्के के सिर्फ
दो पहलू नहीं होते बल्कि अनगिनत पहलू होते हैं। पता नहीं किस चेहरे की सुंदरता कोई कैसे देखता है। पता नहीं कौन-सा चेहरा किस चेहरे के सम्पर्क में आकर किस तरह बदलता है। मुझे लगता है मुझे मिलने-जुलने के कारण अनु का चेहरा मेरे लिए बदल गया है और शायद इसी तरह मेरा चेहरा उसके लिए वह न होगा जो था। यह प्रक्रिया अनजाने में न जाने कहां से शुरु होती है और फिर कहां से कहां से होती कहां जाती है? कभी ठहरती तो क्या होगी क्योंकि जब तक जीवन है यह गतिशील रहती होगी और मरने के बाद?
अपने आपसे बिल्कुल बेपरवाह अनु चाहे जितनी सादगी से रहे और चाहे जितना कम प्रदर्शन करे पर उसका शरीर कम आकर्षक नहीं है। ये वही बिल्कुल सल्लो वाला मामला है। एक साधारण लड़की जब चांदनी रातों में निर्वस्त्र हुआ करती थी तो पता चलता था कि नारी शरीर का सौंदर्य किसे कहते हैं। यही बात अनु के साथ इस तरह लागू होती है कि उठते-बैठते, चलते-फिरते, बात करते, हँसते उसके शरीर की झलकियां मिलती हैं वे सम्मोहित करने के लिए पर्याप्त हैं। एक बार अचानक ही गाड़ी में जब मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया था तो वह सहम गयी थी। लेकिन रात में अपनी कहानी सुनाते हुए वह सहजता और आत्मीयता से निकट आ गयी थी। उस क्षण शायद सेक्स नहीं दुख उसे शक्ति दे रहा था। एक विश्वास उसे मेरे निकट ला रहा था और मैं उस विश्वास का पूरा सम्मान कर रहा था।
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“सलाम भइया!” मजीद ने मुझे सलाम किया। मजीद को देखते ही बुआ की याद आयी जो जिंदगी पर मल्लू मंजिल में खाना पकाती रहीं और यही मरीं। मजीद को मैं बचपन से देख रहा हूं। अब उसकी जवानी का उतार है।
“सलाम।”
“कहां बैठेंगे. . .बाहर डाल दें कुरसी मेज़।”
उसने कपड़े वाली फोल्डिंग कुर्सियां बाहर सायबान में लगा दीं और मैं बैठ गया।
“देखो सब कमरे खोल दो।”
“सब कमरे?”
“हां सब कमरे, कोठरियां. . .बावरचीखाना. . .हम्माम सब खोलो. . .खिड़कियाँ भी खोल देना. . .और सफाई तो कर दी है न?”
“अतहर भइया ने जैसे बताया. . .आप आ रहे हैं तो पूरे घर की सफाई करा दी है।”
“पिछला आंगन. . .”
“वहां बड़ी घास थी भइया. . . मजूर लगा के कटा दी है. . .अब साफ है।”
“ऊपर वाला कोठा?”
“साफ है।”
अब्बा और अम्मां के करने के बाद जानबूझकर घर में कोई बदलाव नहीं किए गये हैं। जो चीज़ जैसी थी वैसी ही है और वही पर है। बैठक में वही पुरानी कपड़े की फोल्डिंग कुर्सियां, बेंत का सोफा सेट,
बीच में गोलमेज़ और एक तरफ तख्त़ों का चौका है। दीवारों पर भी वहीं तुगऱे हैं। वही पुराना कलण्डर है जो अब्बा के इन्तिकाल के साल लगा था। पुराने ग्रुप फोटो भी वहीं है। एक अब्बा के कालिजवाला ग्रुप है। दूसरी तस्वीर उनके स्कूल का ग्रुप फोटो है। मेरी एम.ए. की डिग्री भी फ्रेम की लगी है। ताक में पुराने गुलदान है और कागज़ के नकली फूल हैं। अल्मारियां भी पुराने रिसालों और किताबों से पटी पड़ी हैं। कुछ हटाया नहीं गया है। अंदर के कमरे में भी चारपाइयां हैं, तख्त़ हैं, नमाज़ की चौकी है। मुंह हाथ धोने के लिए बड़े-बड़े टोटी वाले लोटे हैं, घिड़ौंची है, घड़े हैं, बावरचीखाना भी वैसा ही है। बस गैस का चूल्हा ज़रूर नया है लेकिन चूल्हा हटाया नहीं गया है। बरतन वही पुराने हैं। चीनी के बर्तन अल्मारियों में बंद हैं। फुंकनी, चिमटा, करछा, तवा सब कुछ सलामत हैं।
मैं पिछले आंगन में आ गया। दीवारों पर हरी काई और जमीन पर नयी कटी घास के निशान देखता उस तरफ बढ़ा जिस कमरे की छत गिर गयी है। धिन्नयों से पटे इन दो कमरों और एक कोठरी की छत कच्ची है।
“इनमा स्लैप डलवा देव”, मजीद बोला।
“और यहां रहेगा कौन?” मैंने उससे पूछा।
“आप आके रहो।”
“हां. . .मुझे यही काम बचा है न?” कहने को तो मैं कह गया पर लगा सच नहीं बोल रहा हूं। फिर ख़्याल आया क्यों न इस पिछले हिस्से में एक नये तरह का मकान बनवाया जाये। एक “आधुनिक मकान। धीरे-धीरे मकान का नक्शा दिमाग में उभरने लगा। लेकिन मैंने उसे एक फटके के साथ निकाल फेंका। एक और मुसीबत खड़ी करने से क्या फायदा।
मजीद को मालूम है कि मैं जब सालों बाद यहां आता हूं तो क्या होता है। उसने शाम होने से पहले ही बैठक की सारी कुर्सियां और बेंत का सोफा झाड़ पोंछकर बाहर लगा दिये हैं। मेज़ बीच में रख दी है। मुझसे पैसे लेकर चाय की पत्ती, दूध, चीनी ले आया है।
शहर छोड़ने के चालीस साल बाद भी अगर यहां लोग मुझसे मिलने और बात करने आते हैं तो यह मेरे लिए गर्व की नहीं संतोष की बात है कि वे मुझे अपने से अब भी, मेरे कुछ न किए जाने के बावजूद , मुझे अपना शुभचिंतक मानते हैं और यह समझते हैं कि मुझसे जितना हो सकेगा में यहां के लोगों के लिए करूंगा। पुराने दोस्तों के अलावा युवा पत्रकार और छात्र आ जाते हैं जिन्होंने मेरी किताबें या लेख पढ़े हैं। कभी-कभी कोई छोटा-मोटा अधिकारी भी आ टपकता है जिसे पत्रकारों से लगाव या थोड़ा भय होता है।
यहां की मुख्य समस्याएँ क्या है? गरीबी, गरीबी और गरीबी । क्योंकि रोजगार नहीं है। भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार। क्योंकि भ्रष्टाचार शक्तिशाली लोग करते हैं और उन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। जातिवाद और साम्प्रदायवाद- ये दोनों हथियार यहां के नेताओं को मिले हुए हैं जिससे वे एकछत्र राज्य करते हैं। इन स्थितियों में सामान्य आदमी का जीवन नरक बना हुआ है और उसके सामने कोई रास्ता भी नहीं है।
साधारण लोग इस अमानवीय जीवन को सहे जा रहे हैं। कभी-कभी लगता है लोगों का कष्ट सहने और बच्चे पैदा करने में कोई जवाब नहीं है। शायद संसार के किसी भी दूसरे देश के लोग इतनी सहजता और ढिटाई से गरीबी, अत्याचार, अपयान, शोषण, हिंसा, अराजकता नहीं बर्दाश्त कर पायेंगे और साथ ही साथ इतने बच्चे नहीं पैदा कर पायेंगे जितना यहां के लोग करते हैं। संभवत: इन दोनों में भी रिश्ता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
“मेरे हाथ खून से रंगे हुए हैं”, पटनायक ने विस्की का चौथा पैग खाली करके गिलास मेज़ पर रखते हुए कहा “मैं तो आपसे वैसे भी मिलना चाहता था. . .मैंने आपकी किताब “अकाल की राजनीति” पढ़ी है और चाहता था कि कभी दिल्ली में आपसे मुलाकात हो।”
मैं अपने शहर से वापसी के चरण में था। तीन-चार दिन में मेरे पास इतने लोगों के इतने काम जमा हो गये थे कि कलक्टर से मिलना ज़रूरी हो गया था। बताया गया था कि मिस्टर पटनायक बहुत पढ़े-लिखे और सज्जन कलक्टर हैं। मैंने फोन किया था और उन्होंने रात के खाने पर बुला लिया था।
शहर के बाहर खुले में पतली कोलतार वाली सड़क पर कलक्टर के विशाल बंगले में घुसते ही मुझे कुछ नया लगा था। बंगला वही था, अंग्रेज़ों के ज़माने का बनाया हुआ. . .विशाल गोल खंभों वाला बरामदा. . .सीढ़ियां. . .बड़े-बड़े दरवाजे, पोर्टिको. . .लेकिन कम्पाउण्ड में बायीं तरफ सागवान के विशाल पेड़ ग़ायब थे। मैंने मिस्टर पटनायक से पहला सवाल यही पूछा था और उन्होंने एक छोटी-सी कहानी सुनाई थी। कितनी अधिक कहानियां बिखर गयी हैं हमारे चारों तरफ।
मिस्टर पटनायक ने बताया था कि एक कलक्टर साहब ने कुछ कागज़ और फाइलें इस तरह चलाई कि सागवान के उन विशाल पेड़ों को काटने की अनुमति मिल गयी। पेड़ नीलाम किए गये जिसमें बोली कलक्टर साहब के ही एक आदमी के नाम छुटी और फिर. . .कहानी में कई मोड़ थे. . .अंत यह था कि लकड़ी कितनी मंहगी बिकी और कलक्टर साहब आगरा में जो विशाल इमारत बनवा रहे थे उसमें किस तरह खपकर गायब हो गयी. . .
पटनायक मुझे उन दुर्लभ आई.ए.एस. अधिकारियों जैसे लगे थे जिनकी अंतरात्मा “बेशरम” और इसलिए आज भी ज़िंदा है।
“हां तो मैं उससे कह रहा था अली साहब. . .मेरे हाथ ख़ून से रंगे हुए हैं. . .सुनिए फिल्मी कहानी न लग तो कहिएगा. . .मैं ज़िले का कलक्टर था। नाम नहीं बताऊंगा. . .फ़र्क़ भी क्या पड़ता है। अकाल की सूरत पैदा हो गयी। कहा गया कि तीन साल से बारिश नहीं हो रही है. . . केन्द्र में मंत्री भी थे मुझसे कहा कि केस तैयार करो, जिले को “ड्राटप्रोन एरियाज़ प्रोग्राम” के तहत राहत दिलाना है। मैं खुश हो गया। सोचा आख़िरकार मंत्री महोदय को अकल आ गयी है। रात-दिन की कठिन मेहनत के बाद फाइल तैयार हो गयी। मंत्री जी अपने साथ ले गये। कई चक्कर लखनऊ और दिल्ली के काटे. . .आखिरकार ग्राण्ट मिल गयी. . .एक करोड़ से कुछ ज्यादा. . .अब दो हज़ार लाल कार्ड बांटने थे. . .प्रभावित लोगों को मुफ्त राशन मिलने की योजना के तहत. . . मंत्री जी ने कहा “लाल कार्ड उनके कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिये जायें. . .वे बांटेगे? मैंने थोड़ा ना-नुकुर किया तो मंत्री जी ने साफ-साफ कहा मुझसे भिड़ोगे तो पछताओगे।” उसके बाद लाल कार्ड बाजार में बिक गये। राशन का भुगतान हो गया. . .गांव से अकाल में मरने वालों की खबरें आने लगीं लेकिन मंत्री महोदय के प्रताप से कोई अखबार नहीं छाप रहा था. . .लगातार लोग मरते रहे. . .समझे आप. .इसके अलावा सारे ठेके. . .ट्रांसपोर्ट का काम. . . योजना पर मंत्री महोदय की जाति बिरादरी वालों का कब्ज़ा हो गया। रिलीफ के कामों में जो मज़दूर भर्ती किए गये वे मंत्रीजी की जाति के थे। काम करते थे दलित और उन्हें चौथाई पैसा मिलता था. . .इस तरह. . .” पटनायक हांफने लगे। मैंने उन्हें दिलासा दिया और कहा कि आप एक जगह की बात कर रहे हैं. . .मैंने यह पूरे देश में देखा है।
कोठी के सेण्ट्रल हाल का फर्नीचर पूरी तरह “कालोनियल ब्रिटिश स्टाइल” का था। ऊंची छतें, ऊपर रोशनदान और छत से लटकते लंबे-लंबे पंखे। इतने बड़े-बड़े सोफे कि एक सोफे पर तीन आदमी बैठ जाये। तरह-तरह की कुर्सियां, कालीन, झाड़ और फानूस. . .ये अच्छा था कि किसी कलक्टर के दिमाग में इसे “आधुनिक बनाने का ख़्याल नहीं आया था।
पटनायक मुझे स्कॉच विस्की पिला रहे थे। कट ग्लास के शानदार गिलासों में दौर पर दौर चल रहे थे। मेज़ तरह-तरह सूखे मेवों, कबाबों और पकौड़े से भरी पड़ी थी। दो नौकर लगातार गर्म कबाब और पकौड़े ला रहे थे।
इस बातचीत के बीच एक दो बार श्रीमती पटनायक उड़ीसा की बेशकीमती साड़ी में पधारी थीं और यह पूछकर कि “स्नैक्स” ठीक बने हैं या नहीं चली गयी थीं। उन्होंने बच्चों के बारे में बताया था बड़ा लड़का कहीं से “बायो-साइंस” में डिग्री कर रहा था। छोटी लड़की नैनीताल के किसी स्कूल में थी।
“देखिए हमने आज़ादी के बाद क्या किया है? जितने पब्लिक
सर्विस “इंस्टीट्यूशन्स” थे सब चौपट हो गये हैं, मैं. . .यहां के गवर्नमेंट इण्टर कॉलेज में पढ़ा हूं. . .आज उसकी क्या हालत है? यहां का अस्पताल चरमरा कर टूट गया है। नगरपालिका पर गुटबंद गिरोह कब्ज़ा कर चुके हैं. . .शहर में नागरिक सुविधाओं का अकाल है. . .”, मैंने उनसे कहा।
“शायद आज़ादी के बाद सबसे बड़े राजनैतिक दल कांग्रेस के शासन संभाल लेने के बाद “सिविल सोसाइटी” से उनकी भूमिका खत्म हो गयी. . .आज क्राइसिस ये है कि देश के इस हिस्से में सिविल सोसाइटी नहीं है. . .” वे बोले ।
“इस बारे में ये भी कहना चाहूंगा कि “एडमिनिस्ट्रेशन” का रोल भी बदला या बिगड़ा है. . .ब्रिटिश ढांचा वहीं का वहीं है और उसमें चुनाव की राजनीति का घालमेल हो गया है।” “देखिए हम लोग. . .तो बेपेंदी के लौटे हैं. . .हमें तो राजनेता जिधर चाहें. . .आईमीन वी आर हेल्पलेस. . .”, पटनायक बोले।
“लेकिन “एक्सेप्शन” हैं. . .और अगर आप लोग चाहें तो “करप्शन” के बारे में कुछ कर सकते हैं।”
पटनायक ने आंखें सिकोड़ी और बहुत सफाई से बोले “हम कुछ नहीं कर सकते अली साहब. . .पूरा सिस्टम पचास साल में “करप्शन” की मशीन बन चुका है. . .पहले भी था. . .लेकिन अपने आपको मतलब “स्टेट” को “डिफीट” देने वाला “करप्शन” नहीं था। मतलब अंग्रेज़ अगर कोई सड़क बनना चाहते थे तो सड़क बनती थी। कुछ परसेंट पैसा इधर-उधर होता था. . .आज तो “सड़क” ही नहीं बनती. . .ये अपने “सिस्टम को डिफीट” देने वाला करप्शन है।”
“सड़कें तो बनती हैं मिस्टर पटनायक. . .लेकिन दिल्ली में”, मैंने कहा और पटनायक हंसने लगे।
“हां ये आपने ठीक कहा।”
“दरअसल एक अजीब तरह का “साम्राज्यवाद” चला रखा है हम लोगों ने. . .किसकी कीमत पर कौन आगे बढ़ रहा है, यह देखने की बात है” मैं बोला।
“आपने तो रुरल रिर्पोटिंग बहुत की है. . .इस “स्टेट” में तो कोई बड़ा “ट्राइबल एरिया” या आबादी नहीं है लेकिन जो कुछ पढ़ने में आता है. . .उससे. . .।”
“अब वह सब कुछ पढ़ने में भी नहीं आयेगा जो पहले आया करता था”, मैं उनकी बात कर बोला।
“क्या मतलब?”
“अखबार और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी अपने रोल तय कर लिए हैं. . .वह शहर के लोगों के लिए हैं या आदिवासियों के लिए? विज्ञान देने वाली ऐजेन्सियां अपना सामान शहर में बेचती हैं, आदिवासी क्षेत्रों में नहीं बेचती. . .इसलिए मीडिया सब कुछ शहर के चश्मे से देखता है. . .करोड़ों रुपये लगाकर जो चैनल खोले जाते हैं उनका पहला मकसद व्यापार होता है और दूसरा कुछ और. . .”
“मतलब सब कुछ पैसे की जकड़ में आ गया”, पटनायक बोले और उन्हें ध्यान से देखने लगा। सोचा, यार यह आदमी जिस पीड़ा से गुज़र रहा होगा उसका अंदाज़ा कौन कर सकता है?
—-३१—-
टेलीफोन धमाके की तरह कान में फटा था। यकीन नहीं आया कि ये हो सकता है। शकील तीन बार वहां से एम.पी. का इलेक्शन जीत चुका है जिले पर उसकी गहरी पकड़ है। आमतौर पर सब उसे मानते और सम्मान करते हैं फिर ये उसकी “कन्टेसा” पर ए.के. ४७ से जानलेवा हमला करने वाले कौन हैं? वह भी दिन दिहाड़े जब वह अपने चुनाव क्षेत्र का दौरा कर रहा था। उसके दो बॉडीगार्ड और ड्राइवर मौके वारदात पर ही मर गये थे। शकील को भी मरा हुआ मानकर कातिल चले गये थे क्योंकि जीप पर लगातार गोलियों की बौछार की गयी थी और निशाने पर शकील ही था इसलिए हमलावर “श्योर” थे कि वह तो मारा ही जा चुका है। शकील के छ: गोलियां लगी थी लेकिन खुशनसीबी से कोई गोली सिर या सीने में नहीं लगी थी। उसकी हालत गंभीर लेकिन ख़तरे से बाहर बतायी जा रही थी।
हमला तीन बजे दिन में हुआ था। चार बजे मेरे पास फोन आया था। उसके बाद “ब्रेक्रिंग न्यूज़” की तरह यह समाचार सभी चैनलों पर चलने लगा था। शाम के बुलेटिन में पूरा समाचार, स्थानीय संवाददाता की रिपोर्ट और शकील का “विजुअल” भी दिया गया था।
मैं और अहमद सुबह चार बजे निकले थे। हमें उम्मीद थी कि दोपहर तक पहुंच जायेंगे लेकिन यह था कि कहीं शकील को गोरखपुर के अस्पताल में लखनऊ न शिफ्ट कर दिया जाये या दिल्ली ही आ जाये। यही वजह थी कि हम भाभी से फोन पर सम्पर्क बनाये हुए थे और अब तक डॉक्टरों की यह राय थी कि शकील को कहीं और ले जाने की जरूरत नहीं है।
“ये तो हो ना ही है यार. . .पहले पॉलिटिक्स के साथ पैसा जुड़ा, यानी करोड़ों, खरबों आ गये और जाहिर है जहां इतना पैसा होगा वहां “क्राइम” भी होगा ही. . .पैसा और क्राइम का तो अटूट रिश्ता है।” अहमद ने कहा।
“लेकिन शकील दूसरे पॉलिटीशियन्स के मुकाबले काफी क्लीन माना जाता है।”
“ये तो उसकी खूबी है कि ऐसी “इमेज” बना ली है. . .लेकिन देखो इलेक्शन में कितनी बड़ी “फौज काम करती है? उसका पेट कैसे और कौन भरता है? उनकी ज़रूरतें कौन पूरी करता है. . . .अहमद बोला।
“लेकिन शुक्र करो कि बच गया।”
“मोजज़ा हुआ है. . .बचने के चांस तो ज़ीरो थे। तुम सोचो दोनों तरफ से गाड़ी पर गोलियों की बौछार हो रही हो और कोई गाड़ी के अंदर बच जाये।”
“लेकिन ये साला प्रापर सिक्योरिटी क्यों नहीं लेता था?”
“ओवर कान्फीडेन्स. . .और क्या कहोगे।”
अस्पताल में बड़ी भीड़ थी। पुलिस भी बड़ी तादाद में थी। हमें कमाल मिल गया। वह सीधा हमें लेकर आई.सी.यू. में गया था। शकील को डाक्टरों ने सुला दिया। यह बताया कि अगर वह दो-तीन घण्टे सो ले तो अच्छा है।
हम कमाल के साथ सर्किट हाउस आ गये थे जहां शकील की बीवी और दूसरे रिश्तेदार ठहरे हुए थे।
कमाल को मैं बहुत साल से देख रहा हूँ। उसका चेहरा सख़्त हो गया था। हल्की सी खसखसी दाढ़ी, भरी-भरी-सी सफ्फ़ाक आंखें और पतले होंठों ने उसके चेहरे को कठोर और ज़िद्दी आदमी का चेहरा बना दिया था। वह सफेद खड़खड़ाता कुर्ता और पायजामा पहने था।
हमले के बारे में जब बातचीत हुई तो वह बोला “अब्बा, अपने दुश्मनों को तरह दे जाते हैं. . .यही वजह है कि दुश्मन सिर पर चढ़ जाते हैं. . .अब मैं देखता हूं कि इन सबको. . .इनसे तो मैं ही निपटूंगा.
. .और किसी एक को नहीं छोड़ूंगा. . .इन्हें पता चल जायेगा अब्बा पर हमला करने का नतीजा।” वह चबा-चबाकर बोल रहा था। उसके लहजे में घृणा, हिंसा और ताकत भरी हुई थी। मैं उसे देखकर डर गया। अहमद का भी शायद यही हाल हुआ था।
हमारे समझाने पर वह बोला था “अंकिल आप लोग नहीं जानते. . .ये लोकल पॉलीटिक्स है. . .यहां जो दबा वह मरा. . .मैं जानता हूं अब्बा पर ये हमला किसने कराया है. . .पूरा शहर जानता है. . .लेकिन बोलेगा कोई कुछ नहीं. . .”
हमें लगा कमाल गैंगवार की तैयारी करना चाहता है। वह जानता है कि एक दो या दस हत्याएं कर देने के बाद भी अपराधी पकड़ा नहीं जा सकता। बमुश्किल अगर पकड़ भी लिया गया तो बीसियों साल मुकदमे चलेंगे। गवाह टूटेंगे. . .पैसा अपना खेल दिखायेगा. . .ये सब होता रहेगा. . .और दुश्मनों से छुट्टी मिल जायेगी। असली बात ये है कौन इस धरती पर बचता है, कौन जिंदा रहता है और कौन मरता है।
कमाल के आसपास जिन लोगों को हमने देखा वे भी अपनी दबंगई और “क्रिमिनल रिकार्ड” के खुद गवाह लगे। उन लोगों के बारे में हमें बताया गया कि ये लोग शकील या हाजी शकील अहमद अंसारी के बिल्कुल ख़ासमख़ास हैं। मुझसे ज्यादा अहमद चकित और परेशान था क्योंकि मैं तो किसी न किसी रूप में इन इलाकों से जुड़ा रहा हूं लेकिन अहमद के लिए ये बिल्कुल नया था।
हम लोग अगले दिन शकील से मिले। वह पूरे होशो-हवास में था। उसके ज़ख्म़ बहुत गहरे न थे। बस एक गोली कमर से निकाली गयी थी। लेकिन शकील हमें बेहद डरा हुआ लगा। बेतरह डरा हुआ नज़र आया। ये ठीक भी था। जिस पर जानलेवा हमला हो चुका हो और बाल-बाल बचा हो उसका डरना वाजिब है।
जिले में शकील का सबसे बड़ा दुश्मन पाटा पहलवान है जिसे अब हाजी पाटा कहा जाने लगा है। बीस साल पहले यह आदमी शकील का ख़ासमख़ास हुआ करता था। इसका जग-ज़ाहिर धंधे ने पाल से हशीश की तस्करी था। इसके अलावा यह मुंबई में “शूटर” भेजने का काम भी करता था। इलाके के छोटे-मोटे बदमाशों के साथ मिलकर पाटा पहलवान ने एक “बिल्डर हाउस” भी बनाया था जिसका काम गरीबों की ज़मीनें या सार्वजनिक ज़मीनों पर कब्जा करके बेचना हुआ करता था। आज हाजीपाटा के पास उ.प्र. में सौ करोड़ ज़मीनें हैं और वह बहुत बड़े बिल्डरों में गिना जाता है। कोई पांच सात पहले पता नहीं क्यों वह शकील से अलग हो गया था और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में विधानसभा पहुंच गया था। कयामत हाजी पाटा की तरफ ही इशारा करके कह रहा था कि पूरा शहर यह बात जानता है कि शकील पर किसने हमला कराया है।
चलते वक्त कमाल ने बड़े फिल्मी और नाटकीय ढंग से कहा था कि उसे हम लोगों की दुआ और “स्पोर्ट” चाहिए। उसने यह भी कहा था कि अब शकील का कोई बाल बांका नहीं कर सकता। इस तरह उसने यह भी जता दिया था कि वह अपने अब्बा से ज्यादा सक्षम और समर्थ है।
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अनु अपनी दास्तान का एक छोटा- सा हिस्सा सुनाकर सो जाया करती थी और मैं देर तक जागता रहता था। पता नहीं क्यों मुझे और उसे साथ-साथ घूमना इतना रास आने लगा था कि हम महीने में एक बार दिल्ली से बाहर निकल जाते थे। सड़क किनारे बने ढाबों में तन्दूरी पराठा खाते, चाय पीते. . .स्टेट टूरिज्म के होटलों में खाना खाते और रात बिताते हम आगे बढ़ते जाते और फिर सोमवार की सुबह लौट आते।
नैनीताल के “व्युक्लासिक होटल” के इस कमरे में जो बड़ी खिड़की है उससे झील दिखाई पड़ती है। रात में झील पर चमकती बिजली के खंभों की रौशनी और दूर ऊपर पहाड़ पर जाने वाली सड़क पर जलती रौशनियां कमरे में आ रही हैं। कमरे में इतना अंधेरा है कि चीजें परछाइयों के रूप में दिखाई पड़ती है। अनु मेरे बराबर लेटी है, उसने चादर अपने ऊपर खींच रखी है। कुछ देर पहले वह बता चुकी है कि अब वह वही करती है जो उसे अच्छा लगता है, बस, यह भी कह चुकी है कि वह दूसरों का कहा बहुत कर चुकी है और हाथ क्या लगा?
. . .एक साल के बाद वे लोग हमें लेने आये। हम सुन्न पड़ गये थे। हमारे साथ जो हो रहा था हमें पता नहीं चलता था। लगता था यह सब किसी और के साथ हो रहा है. . .हम रोते थे तो लगता था किसी और के लिए रो रहे हैं. . .विदाई के समय. . .मम्मी बहुत रोयी. . . पापा की आवाज़ भी भर्रा गयी। ताईजी ने कहा “अब वहीं तुम्हारा सब कुछ है।” वे लोग हमें लेकर चले. . .हम पत्थर जैसे हो गये. . .समझ में कुछ नहीं आ रहा था। न भूख लग रही थी. . .न प्यास लग रही थी, न कुछ देख रहे थे, न सुन रहे थे. . .
. . .हमें कुछ साफ-साफ याद नहीं. . .कुल देवता की पूजा हुई थी. . .और हमारे साथ जो आदमी बैठा था उसे भी हमने नहीं देखा था। वही हमारा पति था। पूजा के बाद हमें पूरा घर दिखाया गया. . .कमरे-कमरे में ले जाया गया. . .फिर सब घरवालों, रिश्तेदारों को चिन्हाया गया। हमें कुछ याद नहीं. . .कौन-कौन था। हमें पता नहीं चला था। फिर हमें रसोई में ले जाया गया। हमसे कहा गया खाना छू दो। हमने खाना छू दिया. . .बड़ी आवाजें आ रही थीं पर कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था. . .
“हमें प्यास लग रही है”, वह कहते-कहते ठहर गयी। मैं उठा जग से पानी गिलास में डाला। उसने बैठकर पानी पिया और फिर लेट गयी। अंधेरे में थोड़ी देर के लिए उसकी आंखें चमकीं और फिर गा़यब हो गयीं। आधी रात बीत चुकी थी और लगता था निर्जीव चीजें भी सो गयी हों।
. . .रात में हमें एक बड़े कमरे में ले जाकर मसहरी पर बैठा दिया गया। जब सब चले गये तो हमने देखा, कमरे में दो तरफ खिड़कियां थी। खुली हुई अल्मारियों में डिब्बे और शीशियां रखी थीं। कुछ अल्मारियों में किताबें भरी हुई थीं। बड़ी ताक में भगवान जी ने सामने बिजली का छोटा-सा बल्क जल रहा था। दीवार पर शीशा लगा था और कंघे, तेल की शीशियां रखी थी। कमरे का रंग गहरा हरा था जो हमें अच्छा नहीं लगा। दो लोहे की बंद अल्मारियां भी थीं। कोने में दो कुर्सी और एक छोटी मेज़ रखी थी। उसके पास दो मुगदर भी रखे थे। मुगदर हमने जीवन में पहली बार देखे थे तो हमें पता न था कि क्या है. . .बाहर से लगातार आवाजें आ रही थीं. . .सब मिली-जुली आवाजें. . .हम नहीं समझ पा रहे थे कि कौन क्या बोल रहा है. . .हम बैठे-बैठे पता नहीं कब सो गये. . .पता नहीं कैसे? हम सोना तो बिल्कुल नहीं चाहते थे लेकिन अपने ऊपर ज़ोर ही न चला. . .हम सो गये. . .हम चीख मारकर जाग गये. . .किसी ने हमारी बांह पकड़कर घसीटा था. . .हमने देखा एक आदमी हमें घसीट रहा है. . .उनके लंबी-सी नाक थी. . .गाल की हड्डियां उभरी हुई थी। आंखें अंदर को धंसी-सी थी. . .रंग बिल्कुल गोरा था. . .दुबला-पतला था हम अपने को छुड़ाने लगे. . .उसने हमें जोर से घसीटा तो हम मसहरी से गिर पड़े. . .
“सोने आई है यहां?” उसने कहा। हम उठने लगे। उसने कहा, “बड़े लाट साहब की बेटी है न? देख हम सब जानते हैं. . .तेरे पिताजी जैसे दो-चार सौ तो हमारे अण्डर में होंगे जब हम आई.ए.एस हो जायेंगे।”
हमें कुछ नहीं मालूम था कि आई.ए.एस. क्या होता है पर हमारे पापा को बुरा कहा तो ये हमें अच्छा नहीं लगा। हम समझ गये कि यही हमारा पति है।
वह फिर हमारा हाथ पकड़कर घसीटने लगा। हम छुड़ाने लगे। उसे गुस्सा आ गया बोला “ठीक है तू सो जा. . .देखे कब तक सोती है। जा उधर सो जा. . .कमरे के कोने में एक दरी बिछी थी. . .हम दरी पर जाकर बैठ गये वह जूते उतारने लगा।”
“देख यहां रहना है तो ढंग से रहना पड़ेगा. . .लाट साहबी नहीं चलेगी. . .हम बड़े टेढ़े आदमी हैं. . .अच्छे-अच्छों को ठीक कर दिया है. . .अब हमारी सेवा करना ही तेरा धर्म है. . .समझी।”
हम सुनते रहे। वह उठा शीशियों वाली अल्मारी के पास गया। पता नहीं क्या-क्या दवा पीता रहा। हम बैठे रहे। वह बोला “चल लेट जा वहीं. . . .समझी. . .” हम लेट गये। पता नहीं कब सो गये।
अनु बताये जा रही थी और मैं सुन रहा था, सोच रहा था, मेरी
आंखों के सामने अनु नहीं आठवीं-नवीं क्लास में पढ़ने वाली एक लड़की थी जिसे तरह-तरह से अपमानित किया जा रहा था। जिसका कोई न था. . .ये सब क्या है? क्यों है? ये आज़ादी और मुक्ति की शताब्दी है. . .
. . .एक बड़ा कमरा था जिसमें मेरे पति रामवीर सिंह रहते थे। पीछे एक तरफ गली थी। गली से अंदर आने के लिए दरवाज़ा था। उसके बराबर बाथरूम था। फिर एक टीन की छत वाला बरामदा था जहां सूखी लकड़ियां, फव्वे, फावड़ा, रस्सी और न जाने क्या-क्या रखा रहता था। यहीं नमिता अपनी साइकिल खड़ी करती थी। नमिता हमारी ननद थी। वह कामर्स में एम.ए. कर रही थी।
बड़े कमरे के सामने बरामदा था। फिर मिली हुई दो कोठरी जैसे कमरे थे। एक में सामान भरा रहता था, दूसरी में नमिता और माताजी मतलब हमारी सासजी रहते थे। बायीं तरफ आंगन था। जहां मोटे तार की दो अलगनियां बंधी थी। आंगन के एक कोने से सीढ़ियां ऊपर जाती थीं। यहां हमारे जेठ जी डॉ. आर.एन. सिंह और उनकी पत्नी डॉ. तुलसी सिंह रहते थे। इन लोगों ने अपने हिस्से में गमलों में तरह-तरह के पौधे लगा रखे थे। बेलें चढ़ाई हुई थी। एक भफूला भी लगा रखा था। उनके कमरे में डबलबेड, सोफासेट, टी.वी. वग़ैरा सब था। जेठ जी यूनीवर्सिटी में पढ़ाते थे। जिठानीजी नगरपालिका बालिका महाविद्यालय में पढ़ाती थी। उनका बेटा रोहित किसी इंग्लिश स्कूल में जाता था। ये दोनों अपने बेटे से हमेशा अंग्रेज़ी में बात करते थे।
सबका खाना नीचे ही पकता था। मेरा एक काम यह भी था कि मैं ऊपर जेठजी के यहां खाना पहुंचाया करूं। मैं पूरा खाना और बर्तन ऊपर ले जाती थी। जेठ जी प्यार से बात करते थे। कभी कुछ चाहिए होता था तो अच्छी तरह मांगते थे। जैसे कहते थे “बहू अगर नींबू मिल जाता तो मज़ा आ जाता।” हम भागते हुए नीचे जाते थे और नींबू ले आते थे। जिठानी जी प्यार से कुछ नहीं कहती थीं, आर्डर देती थीं, जाके आम की चटनी पीस ला. . .” रोहित हमसे बात नहीं करता था। वह हमेशा मुंह फुलाये रहता था और नख़रे दिखाया करता था।
हम कभी-कभी शाम को जिठानी जी के यहां चित्रहार देखने चले जाते थे। पहली बार हम गये और सोफे पर बैठ गये तो उन्होंने इशारा किया कि वहां दरी पर बैठो। हमें बुरा लगा लेकिन हम उठे और दरी पर बैठ गये। जेठजी होते तो शायद जिठानी जी ऐसा न कहती। जेठ जी के बाल आधे काले और आधे सफेद थे। उम्र चालीस के आसपास रही होगी। बहुत अच्छे लगते थे। बहुत मीठा बोलते थे. . .हमें पक्की उम्र के लोग अच्छे लगते हैं. . .पक्की उम्र के लोग अच्छे होते हैं। हमारे ससुर जी के बाल बिल्कुल सफेद थे। चेहरे पर बहुत सी लकीरें थीं। हमेशा कुर्ता पजामा और वास्कट पहनते थे। दुबला-पतला शरीर था। महराजगंज के डिग्री कॉलिज में हिंदी पढ़ाते थे। रहते वहीं थे। महीने में एक बार घर आ जाते थे। जब आते थे तो कुछ न कुछ ज़रूर लाते थे। हमसे अच्छी तरह बात करते थे। एक बार हमने उनसे चक्रवर्ती की गणित की किताब भी मंगवाई थी। दूसरी किताबें भी देते थे। हमारे पढ़ने का भी ध्यान रखते थे। कहते थे कि प्राइवेट बी.ए. तक करा देंगे। जब वे घर आते थे तो हम उनके लिए कढ़ी ज़रूर बनाते थे और उन्हें लहसुन की चटनी बहुत पसंद थी. . .हमारा बड़ा ध्यान रखते थे। एक बार हमारे माथे पर चोट का निशान देख लिया था तो बहुत दुखी हो गये थे. . .
– चोट? हां, रामवीर ने हमें मारा था।. . . पूरे दिन में वह सबसे अच्छा समय हुआ करता था जब दोपहर के समय नमिता दरवाज़े के बाहर से साइकिल की घंटी बजाती थी कि दरवाजा खोल दिया जाये। हम किचन में चाहे जो कर रहे हों, उठकर भागते हुए जाते थे और दरवाज़ा खोल देते थे। नमिता साइकिल अंदर ले आती थी. . .नमिता से हमारी पक्की दोस्ती थी और है. . .एक दिन हमने नमिता से कहा था “हम तुम्हारी साइकिल साफ कर दिया करें?”
“हां. . .हां. . .”, वह समझ नहीं पाई थी।
“बस वैसे ही. . .हमें अच्छा लगता है. . .तुम कॉलिज जाती हो न? हमें बहुत अच्छा लगता है. . .हम तुम्हारी साइकिल साफ कर दिया करेंगे. . .देखना कल से चमकेगी तुम्हारी साइकिल. . .”
हम नमिता की साइकिल साफ करने लगे। वह हमारे लिए गणित
की किताबें ले आती थी। कहती थी तुम्हारा भी अजीब शौक है. . .लड़कियां उपन्यास पढ़ती हैं, पत्रिकाएं पढ़ती हैं और तुम गणित के सवाल हल करती हो।”
हम हंसते थे। भला हम क्या बता सकते थे कि उसमें हमें क्यों मज़ा आता है. . .रामवीर ने एक किताब फाड़ डाली थी. . .उसके पैसे देने पड़े थे. . .फिर नमिता डर गयी थी और किताबें लाना बंद कर दिया था। रामवीर मुझे नमिता से बात करते देख लेते थे तो बहुत नाराज़ होते थे। कहते थे उसके पास न फटका करो. . .कॉजिल-वालिज मुझे पसंद नहीं. . .कॉलिज की लड़कियां तो. . .नमिता बहुत अच्छी थी। मेरे लिए रोती थी. . .चुपचाप मुझे पेन दे देती थी। एक छोटी-सी डायरी दी थी मुझे. . .पर छिपकर. . .मैं यह सब छिपाकर रखती थी. . .अलमारी के कागज़ के नीचे. . .बिल्कुल नीचे. . .।
उसकी आवाज़ मद्धिम होने लगी. . .वाक्य अधूरे छूटने लगे. . . “पाज़” लंबे होने लगे. . .वह धीरे-धीरे सो गयी। रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी. . .सोते में चेहरे अपने प्राकृतिक रूप में आ जाते हैं. . .सब कुछ चेहरों पर सिमट आता है. . .दुख और सुख की छाया. . .अतीत का दुख और भविष्य का भय. . .सब कुछ चेहरे पर नुमाया हो जाता है. . .उसके चेहरे पर शांति थी. . .मैं उसे देखता रहा. . .मेरे लिए उसका जीवन अब भी अविश्वसनीय था. . .
मैं धीरे से उठा। उसका हाथ अपने सीने के ऊपर से उठाया। चश्मा लगाया। आदतवश मोबाइल जेब में रख लिया और काटेज के बाहर आ गया। चारों तरफ पेड़ों का साम्राज्य था और अंधेरा उनसे जूझ रहा था। आसमान पर तारे नहीं थे। कुछ मलगिजी-सी रौशनी थी। सामने झील का पानी चांदी हो गया था। घास पर नमी थी और हवा में थोड़ी सर्दी. . . अचानक मोबाइल बज उठा।
“मैं. . .यहीं हूं. . .बाहर. . .कॉटेज के बाहर. . .”
“अंदर आइये. . .मुझे डर लग रहा है।”
मैं अंदर आया। अनु पानी पी रही थी।
—-३२—-
जी.टी. रोड पर दोनों तरफ धन के लहलहाते खेत देखकर ऐसा लग रहा था जैसे पता नहीं इन खेतों से कितना पुराना रिश्ता है जो ये ऐसी खुशी दे रहे हैं। इमारतें और आबादियां आनंद से इस तरह विभोर नहीं करते जैसा प्रकृति करती है। वजह साफ है कि प्रकृति का प्रकृति के प्रति आकर्षण है। मनुष्य प्रकृति का एक शाहकार है और प्रकृति की विराटता, सुंदरता और सौम्यता में उसे सार्थकता मिलती है।
“तुम्हें दिल्ली पहुंचने की कोई जल्दी तो नहीं”, मैंने अहमद से कहा।
“मैं तो दिल्ली पहुंचना ही नहीं चाहता”, अहमद दुखी स्वर में बोला।
“अरे ऐसा क्या है?”
“इतमीनान से बताऊंगा. . .तो तुम क्या रात में कहीं ठहरना चाहते हो?”
“यार यहां एक बड़ा शानदार मोटेल है. . .बिल्कुल धान के खेतों के बीचों-बीच. . .सोच रहा हूं वहां चले. . .शाम को बियर पियें. . .कुछ अच्छे से खाने का आर्डर करें. . .और रात में जम के सोयें. . .सुबह-सुबह यानी ट्रैफिक से पहले दिल्ली पहुंच जायें।”
“आइडिया तो बुरा नहीं है। मैं ज़रा फोन किए देता हूं”, उसने मोबाइल निकाला। वह शूजा को फोन करके अपना प्रोग्राम बताने लगा। बातचीत में मुझे अंदाज़ा हुआ कि वह काफी उकताया हुआ है। चाहता है बात जल्दी से जल्दी ख़त्म हो जाये लेकिन उधर से सवालों पर सवाल हो रहे थे।
“तुम कहो तो साजिद से तुम्हारी बता करा दूं”, वह चिढ़कर बोला।
समझने में देर नहीं लगी कि शूजा यह समझ रही है कि अहमद किसी लड़की के साथ रात बिताना चाहता है।
“ठीक है. . .तो कल सुबह आठ बजे तक।”
फोन बंद करके वह बाहर देखने लगा।
“तुम्हारे ऊपर निगाह रखी जाती है?”
“हां यार. . .बड़ी शक्की है शूजा।”
“और तुम बड़े मायूस हो. . .”, मैंने कहा और वह हंसने लगा।
“उसे यार रौशन वाली बात पता लग गयी है।”
“रौशन. . .याद नहीं यूनीवर्सिटी में. . .”
“अच्छा. . .अच्छा जिससे तुम्हारा बड़ा जबरदस्त इश्क चला था और फिर उसकी शादी किसी डिप्लोमैट के साथ हो गयी थी. . .”
“हां वही।”
“तो क्या हुआ. . .यार बिल्कुल अचानक इतने साल बाद पिछले महीने वह “मौर्या शैरेटन” में मिल गयी. . .”
“आहो।”
“कुछ दिन के लिए दिल्ली आयी हुई थी. . .उसके हस्बेण्ड को मास्को में जाकर चार्ज लेना था. . .”
“आजकल तो “एम्बेसडर” होगा।”
“हां है।”
“तो क्या हुआ।”
“यार देखते ही लिपट गयी और रोने लगी. . .बुरी तरह रोने लगी।”
“अच्छा. . .फिर. . .?”
“हम काफी शॉप आये. . .वह लगातार मेरे हाथ पकड़े थी बातें किए जा रही थी. . .दो बार हमारी कॉफी ठण्डी हो गयी. . .उसने सब बताया कि कैसे उसे मजबूर किया गया कि वह शादी कर ले. . .यह भी बताया कि वह मुझे अपना सब कुछ मान चुकी थी. . .उसकी जिंदगी
में किसी और आदमी के लिए कोई जगह नहीं थी. . .लेकिन शादी हो गयी. . .बच्चे हो गये. . .लेकिन वह मुझे ही अपना सब कुछ मानती रही. . .”
“काफी रोमाण्टिक. . .”
“सुनो यार. . .तुम सबको अपने चश्मे से क्यों देखते हो?” वह झल्लाकर बोला।
“सॉरी. . .बताओ।”
“रौशन ने कहा कि मैं रात उसके कमरे आऊं. . .वह उस रिश्ते को मुकम्मिल करना चाहती है जिसे उसने जिंदगी भर माना है. . .और आज भी मान रही है. . .मैं तैयार हो गया. . .अब सवाल ये था कि शूजा को क्या बताऊंगा. . .वह साथ रहती है. . .नहीं भी रहती तो मेरे हर लम्हे की खबर रखती है. . .उन लोगों से बहाना बनाना बड़ा मुश्किल होता है जो आपको बहुत अच्छी तरह जानते हैं. . .ख़ैर मैंने बहाना ये बनाया कि लखनऊ से ज़माने का कोई बहुत पुराना और अज़ीज़ दोस्त न्यूयॉर्क से आ रहा है और मैं उसे लेने एयरपोर्ट जा रहा हूं।”
“झूठ तो बड़ा “सॉलिड” बोला”। मैंने कहा।
“नहीं यार. . .तुम शूजा को नहीं जानते. . .उसने इंटरनेशनल एयरपोर्ट फोन करके पता लगा लिया कि न्यूयॉर्क से कोई “लाइट दो बजे रात को नहीं. . .मुझे मोबाइल पर फोन किया। मैं रौशन के साथ कमरे में था और मोबाइल ऑफ था। शूजा लगातार फोन करती रही। रातभर फोन किए और मोबाइल बंद रहा।”
“फिर क्या हुआ।”
“उसने पुलिस को मेरी गाड़ी का नंबर दे दिया. . .पता चल गया कि मौर्या शेरेटन की पार्किंग में गाड़ी खड़ी है।”
“अरे बाप रे बाप. . .इतनी धाकड़ है।”
“सुबह जब घर पहुंचा था वहां शूजा मौजूद थी. . .मुझसे पूछने लगी. . .यार मैंने सब कुछ सच-सच बता दिया. . . क्या करता।”
“हां, ये सही किया।”
“ये भी कहा कि ये एक बिल्कुल “स्पेशल केस” था. . .ऐसा
नहीं है कि अय्याशी कर रहा था।”
“फिर?”
“फिर क्या. . .अभी जब मैंने कहा कि कल सुबह आऊंगा तो शक करने लगी. . .तब ही मैंने कहा कि साजिद से बात करा दूं?”
“यार ये बताओ. . .ये बैठे बिठाये शूजा तुम्हारी अम्मां कैसे बन गयी?”
“मैं भी यही सोचता हूं. . .और यार अब उससे पीछा छुड़ाना ही पड़ेगा।”
“हां तुम उस्ताद आदमी हो कर लोगे।”
वह हंसने लगा।
“रौशन का क्या हुआ?”
“वह अगले दिन चली गयी. . .मास्को में होगी।”
“क्या कह रही थी।”
“यार ये औरतें भी अजीब होती हैं।”
“क्यों?”
“कह रही थी. . .अब तुम चाहे मिलो या न मिलो. . .मुझे कोई अफसोस नहीं होगा. . .मैं चाहती थी कि उस आदमी के साथ पूरे रिश्ते बनें जिससे और सिर्फ जिससे मैंने प्यार किया है. . .तो रिश्ता बन गया है. . .मुझे न तो शर्म है, न अफसोस है. . .काश मैं ये पूरी दुनिया को बता सकती।”
“हां मामला तो अजीब है।”
“दो बच्चे हैं उसके। लड़की लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में है. . .लड़का ऑक्सफोर्ड में है।”
“तुम उससे फिर मिलना चाहते हो?”
“कह नहीं सकता यार”, अहमद बोला।
एक बियर पी लेने के बाद अहमद अपनी गाँठें खोलने लगा। उसने बताया कि शूजा ने पूरी तरह उस पर अपना कब्जा जमा रखा है। उसका पूरा प्रोग्राम शूजा तय करती है। हफ्ते के हर दिन का प्रोग्राम पहले से बना रहता है। बस उसी पर अमल करना पड़ता है। जैसे इतवार के दिन सुबह
“फेस मसाज एक्सपर्ट” आती है। एक कमरे में फर्श पर बिछी चटाइयां पर शूजा और अहमद लेट जाते हैं। मसाज़ एक्सपर्ट पहले तरह-तरह की क्रीमें, तेल चेहरों पर लगाती है। उसके पास पिंडोल मिट्टी का मोटा घोल चेहरे पर पोता जाता है। पहले चेहरे पर सफेद मलमल का रुमाल डाला जाता है जिसमें आंखों और नाक के आकार के छेद कटे होते हैं। इस कपड़े पर पिंडोल मिट्टी का घोल चिपकाया जाता है। इस बीच कमरे में रविशंकर का सितार बजता रहता है। घोल चेहरे पर लगाकर लड़की काफी पीने किचन में चली जाती है। तीस मिनट के बाद वह आती है और धीरे-धीरे कपड़ा हटाती है जिससे मिट्टी की परत भी हट जाती है। उसके बाद जैस्मीन के तेल से चेहरे की मसाज करती है। दोनों सोना बाथ लेते हैं और उसके बाद “ब्रंच” करते हैं। ब्रंच का मीनू पहले से ही तय रहता है। शूजा करती है पिंडोल मिट्टी वाली मसाज से चेहरे की ताज़गी बनी रहती है और झुर्रियां नहीं पड़ती है। इतवार की शाम को दोनों स्वीमिंग करने जाते हैं। रात का खाना मौर्या में खाते हैं और इस डिनर में शूजा अक्सर किसी वी.वी.आई.पी. को बुला लेती है।
हफ्ते में तीन बार बॉडी मसाज करने के लिए एक “फीज़ियोथेरेपिस्ट” भी आता है। पच्चीस-छब्बीस साल के खूबसूरत से इस लड़के को शूजा बहुत पसंद करती है। टिंकू पहले शूजा की मसाज करता है। शूजा अपना कमरा अंदर से बंद कर लेती है ओर कोई डेढ़ घण्टे तक मसाज सेशन चलता रहता है। उसके बाद नहाती है और टिंकू अहमद की मसाज करता है। उसके मसाज का तरीका वैज्ञानिक है, उसने कोई कोर्स किया है।
इसी तरह हफ्ते में चार बार लाइट एक्सरसाइज़ कराने के लिए एक मास्टरजी आते हैं। शूजा सितार भी बजती है। सितार उस्ताद बुधवार और शुक्रवार को सुबह आते हैं।
“यार ये सब खर्च तुम्हारी तन्ख्व़ाह से पूरे हो जाते हैं? यहां तो तुम्हें फारेन एलाउंस न मिलता होगा।” मैंने अहमद से पूछा।
“ये सब खर्च शूजा उठाती है। उसके पास बहुत पैसा है. .लेकिन आज तक न उसने बताया है और न मैंने पूछा है कि पैसा कैसे
आया? कहां “इन्वेस्ट” किया है? कितनी आमदनी होती है? वगैरा वगैरा।”
“फिर भी?”
“यार कुछ इंटरनेशनल मार्केटिंग चेन्स के लिए यहां पी.आर. एजेण्ट है शायद. . .पता नहीं. . .इसका भी अंदाज़ा ही लगा सकता हूं।”
“वैसे कहती क्या है कि इतना पैसा उसके पास कहां से आया।”
“कभी-कभी बातचीत में बताती है कि पैसा उसके डैडी का है जो वे उसके नाम कर गये थे. . .कभी कहती है नेहरु प्लेस में बड़ी ऑफिस स्पेस का किराया आता है।”
“तो तुम्हारी चैन से कट रही है”, मैंने कहा।
वह घबराकर बोला “यार क्यों मज़ाक करते हो. . .मैं तो निकलना चाहता हूं इस सब से।”
—-३३—-
“ऐम्स” की पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके हम दोनों प्राइवेट वार्ड की तरफ भागे थे। नवीन की सांस फूलने लगी थी। मुझे एहसास हुआ तो मैंने रफ्तार धीमी कर दी। हम दोनों खामोश थे। कुछ बोलना कितना दुखदायी होगा इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
वार्ड के बाहर सरयू मिल गया। वह गैलरी के एक कोने में गुमसुम खड़ा था। हमें देखकर आगे आया।
“क्या हाल है?”
“वही हाल है. . .रात में दो बजे भर्ती करया था. . .डॉक्टर पूरी कोशिश में लगे हैं. . .”
हम अंदर आ गये। सामने बेड पर रावत लेटा था। उसकी आंखें बंद थी। चेहरा लाल था। सांस बहुत तेज़ी से आ जा रही थी। सीना धौंकनी की तरह चल रहा था। कुछ नलियां उसकी नाक में लगी थीं। पास उसकी पत्नी बैठी थी। वह जड़ लग रही थी। मुझे रावत की बात याद आ गयी थी। उसने कहा था कि मेरा कोई नहीं है। न भाई, न चाचा, न मामा. . .मैं अकेला हूं. . .बिल्कुल अकेला।
रावत बेहोश है पर उसे देखना मुश्किल है। इतनी तेज़, तकलीफ देह, और भरी सांसें ले रहा है कि मन सिहर उठता है।
“चिंता मत करो भाभी जी. . .सब ठीक हो जायेगा।” नवीन ने रावत की पत्नी से कहा।
वह कुछ नहीं बोली। कुछ लम्हों के लिए हमारी तरफ देखा और फिर शून्य में घूरने लगी।
मेरे पास एक बजे के करीब भाभी का फोन आया था. . .मैं गाड़ी लेकर कोई बीस मिनट में पहुंच गया हूंगा। उस वक्त हालत ज्यादा खराब
थी और लग रहा था पता नहीं कब सांस का यह दबाव . . .यहां इमरजेंसी में ले गये. . .वही मर्ज. . .हाई ब्लड प्रेशर. . .डॉक्टर ने ब्लड प्रेशर लिया तो? ? ? .निकला तब से ट्रीटमेंट चल रहा है. . .पर अभी तक. . कोई सुधर. . .
तीनों खामोश हो गये। अब रावत की आलोचना करने से भी कोई फायदा न था। अब क्या कहा जा सकता है कि ऐसा कर लिया होता तो ये न होता. . .ये हो जाता तो “वो” न होता लेकिन बात करने के कुछ तो चाहिए ही होता है।
“यार मैं तो शुरु से ही कह रहा था कि सरकारी नौकरी इसके बस की बात नहीं।” नवीन ने कहा।
कोई कुछ नहीं बोला।
“भाभी से कहो घर चली जायें. . .हम लोग यहां हैं।” मैंने कहा।
“मैं दस बार कह चुका हूं. . .नहीं जा रही हैं. . न कुछ खा रही हैं, न पी रही हैं. . .मैं तो यार. . .” सरयू ने कहा।
“ऐसा कैसे चलेगा?”
“तुम समझाकर देखो।”
भाभी से कहा तो लगा कि वे सुन ही नहीं रही हैं वे ऐसी स्थिति में पहुंच गयी थीं जहां आदमी जीवित तो होता है पर सारे सेन्स ख़त्म हो जाते हैं।
कई बार कहने पर से बोली -”“नहीं. . .”
कितने हज़ार साल बाद एक घुमंतू कबीले से एक लड़का निकलकर बाहर आता है. . .अपने आपमें कमाल की बात है . . . चमत्कार है. . .क्योंकि हम जानते हैं कि हमारा समाज कितना यथास्थितिवादी है. . . जो जहां है, वहां रहे. . .आगे बढ़ना, पीछे हटना अपराध है. . .और. . .
हम गैलरी में खड़े थे। भाभी जी ने नाश्ता करने से भी इंकार कर दिया था। पता नहीं उनके मन में कितना भय था।
नवीन मेरी बात काटकर बोला, “मुझे तो लगता है यार संस्कार।”
सरयू ने उसे घूरकर देखा “कैसे संस्कार. . .ये तू क्या उल्टी सीधी बातें करने लगा है बुढ़ापे में।”
“यार, पूरी बात तो सुन लो।”
“सुनाओ।”
“रावत के मध्यवर्गीय संस्कार नहीं थे।”
“अरे भाई जब वह था ही नहीं मध्यवर्ग का तो संस्कार कैसे हो जायेंगे?”
“देखो सच्चाई यह है कि उनके ऑफिस के “पावरफुल लोगों” ने उसे सीधा जानकर उस पर निशाना साध है। वे नहीं चाहते कि कोई “अन्य” ऊंचे पद पर पहुंचे. . .”
“यार ये हर जगह तो नहीं होता।” नवीन बोला।
“ये कौन कहता है, हर जगह होता है।”
रावत पचपन घण्टे मौत से जूझता रहा। अगले दिन सुबह चार बजे उसकी हात बिगड़ने लगी और वह ख़त्म हो गया।
उसकी अर्थी पर मंत्रालय की ओर से फूलों का बुके आया था। उच्च अधिकारी शमशान घाट में मौजूद थे।
भेड़ियों से संघर्ष करते हुए एक बहादुर की मृत्यु हो गयी थी।
रावत के न रहने ने हमें हिला दिया था। यह वैसी मौत नहीं थी जो आसानी से भुलाई जा सकती हो। मैंने लंदन फोन करके नूर को बताया था। हीरा को बताया था। मुझे याद है कि नूर कहा करती थी रावत में कुछ मौलिक है जो उसे दूसरे लोगों से अलग करता है। भावनाओं की वह ताज़गी जो रावत में है, कम ही दिखाई पड़ती है।
हम लोग मंत्री महोदय से मिले थे। शकील से फोन भी कराया था। मंत्री महोदय ने तुरंत आदेश दिया था कि रावत की विधवा को योग्यता के अनुसार कोई उचित पद दिया जाये तथा जिस सरकारी मकान में परिवार रहता है, उससे ने लिया जाये।
मिटे नामियों के निशां कैसे कैसे
ज़मीं खा गयी आस्मां कैसे कैसे
——
पुराने दोस्त पुश्तैनी मकान जैसे होते हैं। उनके कोने खतरे तक देखे हुए होते हैं। अलग-अलग मौसमों में मकान कैसा लगता है? कौन-सी छत बरसात में टपकती है। किस तरफ जाड़ों में धूप आती है। जब पुरवा हवा चलती है तो कौन-सी खिड़की खोलना चाहिए। किस छत की कौन-सी धिन्नयां बदली जायेंगी।
काफी हाउस वाली मण्डली सिमटते-सिमटते सरयू और नवीन की शक़्ल में मेरे पास बची है। सरयू उन बहुत कम लोगों में हैं जो जानते हैं कि तीस साल पहले मैं कहानियां लिखा करता था।
तो पिछले तीस-पैंतीस साल के गवाह से मिलना हमेशा अच्छा रहता है क्योंकि शब्दों की बचत होती है। आप एक वाक्य बोलते हैं और वे पूरा पैराग्राफ समझ लेते हैं। आप एक शब्द बोलते हैं तो वे उससे वही अर्थ ग्रहण करते हैं जो आप चाहते हैं। उनके साथ आपको सतर्क रहने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि वे आपको अंदर से बाहर तक जानते हैं। यानी दाई से पेट नहीं छिपाया जा सकता. . .और फिर पुराने दोस्तों से मुलाकात अपने आपसे मुलाकात का एक बहाना होती है। इसमें अपनी अनगूंजे भी सुनाई देती हैं।
हालांकि रात ज्यादा हो चुकी थी लेकिन हम अभी ये मानने के लिए तैयार नहीं थे। गुलशन खाना-वाना मेज पर लगाकर जा चुका था। हो सकता है सो गया हो. . .हम दोनों खाने की मेज़ से कुछ उठा-उठाकर खा रहे थे, पी रहे थे और बातचीत कर रहे थे।
कमरे में रौशनी कम थी और दो कोने में जलते लैम्पों के अलावा कोई बल्ब नहीं जल रहा था जिसकी वजह से कमरा बदला हुआ ओर चीजें अजीब तरह की लग रही थीं। उनके आकार बदल गये थे ये वही हो गये थे जो होने चाहिए थे।
“तुम्हें सच बताऊं. . .मैं तो आज भी उसी उधेड़-बुन में लगा हूं. . .”, मैं बोला।
“कैसी उधेड़-बुन?”
“यार, तुम्हें याद होगा हम लोग जब जवान थे तो कुछ करना चाहते थे. . .कुछ ऐसा जो देश को बदल दे. . .लोगों का बदल दे।”
“हां. . .मतलब . . .क्रांति. . .”
“क्रांति तो नहीं हुई. . .और अब लगता है जल्दी होगी भी नहीं और ये भी लगता है कि अगर हुई तो पता नहीं कैसे होगी. . . हम कुछ नहीं जानते. . .कुछ नहीं कह सकते।”
“हां. . .अब तो स्थितियां और भी जटिल हैं”, सरयू बोला।”
“क्या हम ये न सोचे कि इन हालात में हम क्या करें? ऐसा क्या करें जो हमें यह सुख दे कि हम जो कुछ कर रहे हैं वह अच्छा है, हम वही करना चाहते थे।”
“इससे क्या मतलब है तुम्हारा?”
“देखो हम तुम नौकरी करते हैं। हमें कोई तकलीफ नहीं है, हम तुम इस देश के एक प्रतिशत या उससे भी कम लोगों को जो सुविधाएं मिलती हैं उन्हें भोगते हैं. . .हमसे जो हो सकता. . .मतलब जो अच्छा हो सकता है या जहां तक हमें करने की इजाज़त है हम करते हैं. . . क्या यही पर्याप्त है? क्या इससे हम खुश हैं? यह हम यही करना चाहते थे या हैं?”
“पता नहीं. . .लेकिन ये काफी तो नहीं है. . . हम आपकी भूमिका नहीं निभा रहे हें ये तो मुझे भी लगता है।”
“क्या होनी चाहिए हमारी भूमिका?”
“कोई एक नहीं हो सकती. . .सबकी भूमिकाएं अलग-अलग होंगी।”
“तुम्हारी क्या होगी?”
“मैं. . .मैं. . .सच पूछा तो इस सवाल से आंखें चुराता रहा हूं।” वह सफाई से बोला।
“मैं भी यही करता रहा हूं. . .पर ये सोचो क्या हम ऐसा आगे भी करते रहेंगे और क्या हम ये कर पायेंगे? क्या जब हमारे हाथ पैर जवाब दे जायेंगे तब हमें यह ख़्याल नहीं आयेगा? और अगर आया तो उसका क्या असर होगा हमारे ऊपर?”
“तो ये जो कुछ तुम करना चाहते हैं वह इसलिए कि कहीं “गिल्ट” न रह जाये।”
“यह एक बड़ी वजह हो सकती है”, मैं बोला।
“देखो, इस देश में सेकुलर और डेमोक्रेटिक मूल्यों के लिए एक बड़ा आंदोलन चल रहा है”, वह बोला।
“जिसके नतीजे हमारे सामने हैं”, मैंने व्यंग्य से कहा “यार अगर ऐसा होता तो फिक्र की क्या बात थी। पर अफसोस कि ऐसा नहीं है. . .खासतौर पर यहां मतलब हिंदी क्षेत्र में तो बिल्कुल नहीं है। क्यों नहीं है? इसलिए कि हमारे तुम्हारे जैसे ये पचास साल पहले भी मान रहे थे कि इस देश में सेकुलेर और डेमोक्रेटिक मूल्यों के लिए एक बड़ा आंदोलन चल रहा है. . .मतलब हम अपने को धोखा देते आये हैं और आज भी दे रहे हैं”, मैं गुस्से में आ गया।
वह खामोशी से पीता रहा। मेरा ग़ुस्सा उफनता रहा।
ये भी अजीब मज़ाक है कि राष्ट्रीय स्तर पर झूठ बोले जा रहा है, सब सुन रहे हैं, कोई कुछ नहीं कहता. . ..चापलूसी और “साइकोफैन्सी” का ऐसा माहौल बन गया जैसा मध्यकाल में हुआ करता था. . .न तो न्याय बचा है और न व्यवस्था. . .पूरा समाज और देश आत्म-प्रशस्ति में लीन है. . .देश प्रेम, राष्ट्रीय गौरव क्या है? तुम दिल्ली के राजमार्गों पर हर साल होने वाले भोंडे शक्ति और संस्कृति प्रदर्शनों को देश-प्रेम कहोगे पर क्या ग्रामीण क्षेत्रों में अकाल, बाढ़ और बीमारियों से मर जाने वालों की बढ़ती संख्या से कोई रिश्ता नहीं है? क्या उन लोगों का यह देश नहीं है?”
उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, तुम ज्यादा पी गये हो. . .लेकिन जो कुछ कह रहे हो उससे किसे इंकार है. . .अब सवाल ये है कि हमारे तुम्हारे जैसे लोग क्या करें? यार हम लोग तुम बुरा न मानों तो कहूं बुद्धिजीवी हैं. . .हमारा रोल सीमित है. . .हम “एक्टिविस्ट” नहीं हूं. . . हमसे जो हो सकता है वो करते हैं।
“क्या वह काफी है?”
“काफी तो बिल्कुल नहीं है।”
“फिर?”
“क्या कोई “पॉलीटिकल एक्टिविटी” करना चाहते हो? देखो कि
साम्प्रदायिक और जातिवादी राजनीति ने हमारे लिए कितनी जगह छोड़ी है? आज तुम क्षेत्र मे जाओ. . .तुम्हें दस वोट नहीं मिलेंगे. . .क्योंकि पूरा समाज धर्म ओर जाति के नाम पर बंट चुका है या बांट दिया गया है, हमारे तुम्हारे लिए वहां अब कुछ नहीं है. . .हर जाति की सेना हैं, गुण्डे हैं, अधिकारी हैं, व्यापारी हैं, माफिया हैं”, वह चुप हो गया।
“चलो खाना खा लो।”
“अब क्या खायेंगे यार. . .कबाब से पेट भर गया है. . .तुम खा लो।”
“नहीं अब तो मैं भी नहीं खाऊंगा. . .दो बज रहा है।”
“अरे दो. . .चलो मुझे घर छोड़ दो”, वह खड़ा होता हुआ बोला।
सरयू को छोड़कर लौटा तो नींद पूरी तरह उड़ चुकी थी। सोचा क्या किया जाये? क्या कर सकता हूं? सोचा चलो बहुत दिनों से लंदन बात नहीं हुई है। हीरा को फोन मिलाया। वह खुश हो गया। उसने बताया कि पिछले ही हफ़्ते मैक्सिको से लौटकर वापस आया है और वहां की राजनीति में “मल्टीनेशनल” की भूमिका पर पेपर लिख रहा है।
उसके अपने कैरियर को लेकर देर तक बातें होती रहीं, वह कह रहा था कि इन गर्मियों में मैं लंदन क्यों नहीं आ जाता। उसने मुझे लुभाने के लिए यह भी कहा कि “योरोप सोशलिस्ट फ़ोरम” का बड़ा प्रोग्राम भी हो रहा है और “ग्रीन पीस” वाले भी एक सप्ताह का कार्यक्रम कर रहे हैं।
(क्रमश: जारी अगले अंकों में…)………………………… …………………………. 6 —-३४—-
“तो भई तुम्हारे पापा के इतने पुराने ख़्यालात होंगे. . .और वो भी दिल्ली जैसे शहर में नौकरी करने के बाद। ये तो मैं सोच भी नहीं सकता था”, मैंने सोचा।
जाड़ों की एक खुशगवार सुबह थी। टेरिस का बेगुनबेलिया की रंग-बिरंगी लताएं किसी सुंदर और जवान लड़की की तरह इतरा रही थी। जाड़े की धूप टेरिस पर फैली हुई थी। आसमान साफ था और एक अनबूझा-सा मज़ा बिखरा पड़ा था।
“नहीं पापा ऐसे नहीं है. . .ये सब ताऊ जी की वजह से हुआ था. . .ताऊजी पापा से काफी बड़े हैं। पापा को उन्हीं ने पढ़वाया है। पापा पर उनका बहुत असर है. . .ताऊजी कि किसी बात को पापा टाल नहीं पाते हैं. . .उनका हर शब्द पापा के लिए आदेश जैसा होता है. . .और ताऊजी के पिछली शताब्दी वाले संस्कार हैं।”
“जिस जिंदगी के बारे में तुम मुझे बताती हो मेरे लिए बिल्कुल अनजानी है. . .कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे अतीत को कुरेदने से तुम्हें दुख होता हो?”
“दुख. . .”, वह लंबी सांस लेकर बोली “जितना होना था हो चुका है. . .और हम अकेली थोड़े ही हैं. . .पता नहीं कितनी लड़कियां हैं, औरतें हैं जो उस चक्की में पिस रही हैं।”
“तुम्हारी सास कुछ नहीं समझाती थीं तुम्हारे पतिदेव को?”
“सासजी. . .वे बड़ी तेज़ थीं. . .हमें समझाती थीं कि देख ये जो शरीर है. ..एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा. . .जब तक हाथ पैर चलते हैं इन्हें चला ले. . .इसी तरह बातें करती थी और धीरे-धीरे उन्होंने पूरे घर का काम हमारे ऊपर डाल दिया था। हम सुबह उठकर पूरे घर में झाड़ू लगाते थे. . .फिर अल्मारियां साफ करते थे। पोंछा लगाते थे। चाय बनाते थे। जेठ जी और जिठानी जी को कोठे चाय देने जाते थे, नाश्ता बनाते थे। बर्तन साफ करते थे। दिन के खाने का काम चालू हो जाता था। दाल चढ़ा देते थे। सब्जी काटने-छीलने में सासजी मदद कर देती थी. . .पर लगातार बोलती रहती थीं. . . कहती कि बस काम ही है जो रह जायेगा. . .आदमी नहीं रहेगा. . .खाने-पकाने, सबको खिलाने, बर्तन साफ करने के बाद सासजी कोई और काम निकाल बैठती थी। अचार डालना, रज़ाई गद्दों में तागा डालना, सिलाई करना. . .काम तो वे शुरू कर देती थीं लेकिन फिर हमें पकड़ा देती थीं। हम पूरी दोपहर काम में लगे रहते थे. . .सास जी हमें खुश करने के लिए पापा की खूब तारीफ करती थीं. . .हम और उत्साह से काम करने लगते थे. . .दिन हमें अच्छा लगता था. . .रात होने से डरने लगे थे. . .हां रात से हम बहुत डरते थे. . .खटका लगा रहता था कि जाने आज क्या हो?”
“तुम्हारे पतिदेव क्या करते थे?”
“वकालत करते थे। आई.ए.एस. के इम्तिहान में बैठ रहे थे. .घर में उनकी सब से लड़ाई थी। बड़े भाई और भाभी से उनकी बातचीत भी न होती थी। बाबूजी से भी अकड़े-अकड़े रहते थे। नमिता को डांटते रहते थे. . .हां माताजी उनका बहुत लाड़ करती थीं. . .सुबह उठकर एक घण्टा पूजा करते थे। फिर नहाते थे. . .खाते थे. .. कचहरी जाने से पहले माताजी से उनकी रोज़ ही किसी-न-किसी बात पर लड़ाई होती थी. . एक बार हमें कमरे में ही बंद करके चले गये थे. . .बाहर से ताला लगा दिया था। बोले थे तुम खिड़की से इधर-उधर देखती हो. . .दरवाजे पर जाती हो. . .गली में झाँकती हो. . .मोहल्ले वालों ने बताया है. . .हम दिनभर कमरे में बंद रहते थे तो सारा काम माताजी को करना पड़ता था। इसलिए माताजी ने उनके हाथ पैर जोड़कर उन्हें इस बात पर राज़ी कर लिया था कि कमरे में बंद करके न जाया करें. . .जब हम शादी के बाद पहली बार अपने घर गये तो हमने मम्मी से कहा कि मम्मी अब हम वहां नहीं जायेंगे. . .वह आदमी हमारी बांह पकड़कर खींचता है. . .हमें कुछ पता नहीं था कि पति-पत्नी के बीच क्या संबंध होते हैं. . .मम्मी हंसने लगी थी, बोली थी अरे पति है तेरा. . .पति परमेश्वर के समान होता है। हमने कहा था कि फिर वो हमें मारते क्यों हैं? हमने मम्मी को अपनी चोटें दिखाई थीं. . .उनकी आदत यह थी कि किसी न किसी बात पर हमें खड़ाऊँ से मारते थे। ज़ोर से खड़ाऊँ हमारे ऊपर फेंकते थे. . मम्मी ने चोटें देखकर कहा था कि देख अपने पापा से ये न बताना, हमने पापा को नहीं बताया था। मम्मी ने समझाया था कि सब ठीक हो जायेगा। सबके साथ शुरू-शुरू में यही होता है. . .जब हम मैके आने लगते थे तो सास जी कहती थीं सुना है तेरे ताऊ जी गुड़ बड़ा अच्छा बनवाते हैं, या तेरे यहां अरहर अच्छी होती है या असली घी तो यहां देखने को नहीं मिलता. . .हम जब लौटते थे तो ताऊ जी ये सब सामान हमारे साथ करा देते थे. . .सास जी बहुत प्रसन्न हो जाती थीं. . .हर बार. . .हर बार. . . यही होता था. . .रात का खाना-वाना खाकर कमरे आये. . .किताबों की अलमारी में. . .हमने हाई-स्कूल प्राइवेट करने के लिए नमिता से कहकर फार्म मंगाया था, वह रखा हुआ था. . .देखते ही चिल्लाने लगे, फार्म पकड़कर हमें खड़ाऊ से मारने लगे. . .सिर पर खड़ाऊ मारने लगे, हमने कहा भी था कि हमें सिर पर न मारा करो. . .सिर में दरद रहता है, पर वे वही करते थे जो हम मना करते थे. . .हम चिल्लाने लगे। बाहर माताजी और नमिता लेते थे. . .कोई कुछ नहीं बोला। हमारे चिल्लाने और रोने की आवाज़ ऊपर कोठे पर भी जा रही होगी लेकिन ताऊजी या ताई जी किसी ने कुछ नहीं कहा. . .बहुत देर तक हमें मारते रहे. . .फिर बिस्तर पर गिरकर हांफने लगे. . .हम रोते रहे. . .”
“ये कैसा आदमी था भाई. . .क्या बिल्कुल पागल था।” मैं अपने आपसे फुसफुसाया।
“अगले दिन जब हम जेठजी के लिए नाश्ता लेकर गये तो जिठानी जी कहने लगी कि बड़ा निर्दयी है. . .इस छोटी को लड़की को कसाई की तरह पीटता है. . .दया भी नहीं आती. . .जेठ जी ने कहा कि वह तो पागल है पागल. . .उसका पहले इलाज कराया जाना चाहिए था उसके बाद उसकी शादी-वादी करनी चाहिए थी. . .सिर पर खड़ाऊ मारने से हमारे सिर पर दर्द रहने लगा था. . .दवा-अवा खाने से भी कम नहीं होता था. . .हम कसकर रुमाल बांध लिया करते थे और दिनभर घर का काम करते थे. . .उन्हें रुमाल बांधना भी पसंद नहीं था. . .कहते थे फैशन करती है. . .कभी-कभी रात में हमसे कहते थे यहां आ मसहरी पर लेट जा. . .हम लेट जाते थे. . .वो अल्मारी से शीशी निकालकर दवा पीते थे. . .उनका चेहरा लाल हो जाता था. . .हम देखते थे कि वे कांपने लगे हैं. . .हमारी समझ में कुछ नहीं आता था. . .फिर चिल्लाते थे, चल हट. . .उधर जा. . .जा पता नहीं क्या बात थी. . .हम. . .नहीं समझते, हम दरी पर जाकर लेट जाते थे. . .वो कमरे में टहलने लगते थे. . .बार-बार शीशे में अपना मुंह देखते थे. . .हमारी आंख लग जाती थी, हमें सोते में जगा देते थे, कहते थे मैं जाग रहा हूं और तू सो गयी. . .चल पैर दबा. . .हम उठकर पैर दबाने लगते थे।”
“बस करो. . .”स्टाप इट” मैं नहीं सुन सकता।”
वह चुप नहीं हुई। पता नहीं कौन-सा तार था जिस पर चोट लगी थी।
“ये हमने आज तक किसी को बताया नहीं है. . .बताते भी किसको. . .हमारा कोई दोस्त भी तो नहीं है. . .हम जब भी घर आते थे मम्मी के सामने रोते थे. . .कहते थे मम्मी इससे तो अच्छा है तुम मुझे मार डालो. . .पापा को भी सब पता चल गया था. . .दोनों कहते थे “ऐडजस्ट” करो. . .”एडजेस्ट” करो. . .हमें इस शब्द से नफरत हो गयी थी. . .हम कहते थे बताओ हम कैसे “एडजेस्ट” करें? हम वहां करते ही क्या हैं? जो जो कहता है हम करते जाते हैं. . .हम कुछ ऐसा नहीं करते जो हम चाहते हैं. . .फिर हम क्या “एडजेस्ट” करें. . .मम्मी और पापा ये न बता पाते थे कि हम क्या करें. . .बस “एडजेस्ट” करो की रट लगाये रहते थे. . .घर में हम अपना इलाज भी कराते थे। डिस्पेंसरी में डॉक्टर को दिखा कर दवा ले आते थे. . .कुछ दिन सिर दर्द ठीक रहता था, फिर शुरू हो जाता था. . .महीने दो महीने बाद हमें फिर खूब सारा सामान देकर ससुराल भेज दिया जाता था. . .और फिर वही सब शुरू हो जाता था. . .जो भी हम अपने साथ न ले जाते उसी का नाम लेकर “वो” हमें गालियां देते थे कि वह क्यों न लाई। हम सोचते थे हमसे कह देते तो हम ले आते. . .हमें क्या मालूम था कि उनके दिल में क्या है। माताजी जब कई बार कहती थीं तो “वो” हमें दर्शन कराने मंदिर ले जाते थे। लौटकर हमारे पास आये और बोले, देखो तुम्हारे ब्लाउज का गला कितना बड़ा है. . .ये सब नहीं चलेगा. . .किसने कहा था ये ब्लाउज पहनने को. . .चलो घर बताता हूँ. . .कहीं कहते. . .तुम उन लड़कों को क्यों देख रही थीं. . .हमने कहा हम नहीं देख रहे थे. . .हम क्यों देखेंगे, पर उन्हें विश्वास ही नहीं होता था. . .गुस्सा खा जाते थे और घर आकर फिर वही खड़ाऊ से सिर पर मारने लगते थे. . .एक दिन चुपके से नमिता ने हमने कहा था, भाभी तुम यहां ये चली जाओ. . .भइया तुम्हें मार डालेंगे. . .हम बहुत डर गये थे. . .पर क्या करते. . .घर फोन करते थे कि हमें ले जाओ तो मम्मी कहती थीं अभी तीन ही महीने पहले तो आई है. . .अब हम उनसे फोन पर क्या बताते. . .रात में “वो” दवा पीकर और ज्यादा गुस्सा हो जाते थे।”
“ये दवा क्या थी?” मैंने पूछा।
“हमें नहीं मालूम. . .एक लाल गाढ़ी दवा थी “वो” पीते थे, सुबह च्यवनप्राश खाते थे। नाश्ते पर एक फल खाते थे। सोने से पहले दूध पीते थे. . .लाल वाली दवा पीकर इधर-उधर टहलते थे. . .कभी-कभी कपकपी होती थी. . .हम डरा करते थे कि देखो क्या होता है. . .हम एक बार अपने साथ हाई-स्कूल के कोर्स की किताबें ले आये थे. . .छुपा दी थीं. . .”वो” चले जाते थे और टाइम मिलता था तो पढ़ लेते थे, एक दिन उन्हें पता चल गया. . .बस हमारे सामने सारी किताबें फाड़ डालीं और कहा कि ले बन जा बैरिस्टर. . .हमें रोना आ गया। इस पर खड़ाऊ खींचकर हमें मारी और गालियां देने लगे. . .महीने में एक दो बार ससुरजी आते थे तो “उनका” व्यवहार कुछ ठीक हो जाता था। ससुर जी के सामने “उनकी” मारने-पीटने की हिम्मत नहीं पड़ती थी. . .जब से “उन्हें” पता चला था कि हम जेठ जी के यहां जाके “चित्रहार” देखते हैं और मारपीट करने लगे थे. . .कहते थे अगर मैंने तुझे वहां देख लिया तो मार डालूंगा. . .जेठ जी के यहां कैरम था, लूडो था. . .कभी-कभी रोहित हमारे साथ खेल लेता था. . .लेकिन ये सब उन्हें अच्छा नहीं लगता था।”
“भाई से क्या लड़ाई थी?” मैंने पूछा।
“हमें नहीं मालूम. . .भाभी को कुतिया कहते थे. . . एक दिन जेठ जी ने सुन लिया था तो नीचे आ गये थे और “उनसे” कहा था मैं तुम्हें जेल की हवा खिलवा दूंगा अगर तुमने मेरी पत्नी को कुतिया कहा, बड़ी कहा-सुनी हुई थी. . .माताजी ने हाथ जोड़-जोड़कर बीच बचाव कराया था. . .जेठानी जी तो “इनसे” एक शब्द नहीं बोलती थी।”
धीरे-धीरे धूप सिमट गयी। धीरे-धीरे बेगुनबेलिया के रंग बदल गये। सामने डियर पार्क के ऊपर एक सुरमई और उदास सी चादर तन गयी। सड़क की लाइटें जल गयीं. . .हवा का रुख बदल गया. . .पता ही न चला कि पूरी दोपहर कैसे छूमंतर हो गयी। गुलशन चाय बनाकर दे गया. . .ड्रिंक्स का वक्त हो गया. . .हम टेरिस से उठकर अंदर कमरे में जाकर बैठ गये। अनु बराबर बोलती रही। उसे भी लगता होगा कि अब बात शुरू हुई तो पूरी हो ही जाये। मैं भी जानना चाहता।
. . .हमारे सिर में दर्द रहने लगा था। “वो” कहते थे कि मैं बनती हूं. . .ये कहते थे सभी औरतें काम न करने के लिए ऐसे ही बहाने बनाती हैं. . .कहते थे चाहे तू मर जाये पर काम तो करना ही पड़ेगा। सास जी इधर-उधर की घरेलू दवाएं दे देती थी। कोई किसी डॉक्टर के पास न ले गया। हम नमिता से कहकर दवा मंगा लेते थे पर उससे भी फायदा न होता था. . .सिर पर रुमाल बांधकर दिनभर काम करते थे. . .शाम को उनके आने से पहले रुमाल खोल देते थे. . .दर्द बढ़ जाता था. . .पर क्या करते. . .एक दिन हम रसोई में गिर पड़े. . .बेहोश हो गये थे. . .उस समय घर पर कोई था नहीं. . .सास जी पानी के छींटे मारती रहीं. . .हमें होश आया. . .”उन्हें” पता चला तो बोले-फोन कर दूंगा आकर ले जायेंगे. . .हमारे पास इलाज-विलाज के लिए पैसा कहां है. . .एक दिन बाद पापा आये. . .हम बीमार थे पर उन्हें देखकर खुशी से रोने लगे. . .हमारी हालत खराब हो गयी थी. . .दुबले हो गये थे। आँखों के चारों ओर काला दाग पड़ गया था. . .चक्कर बराबर आता रहता था. . .चलते-चलते गिर जाते थे. . .पापा हमें लेकर दिल्ली आ गये. . .दिल्ली में हम सोते रहे. . .कई दिन सोते रहे. . .खाते-पीते थे और सो जाते थे. . .ऐसा लगता पिछले दो साल से सोये नहीं हैं. . .छोटा भाई टिंकू हमारे साथ कैरम खेलता था. . .फिर हम सो जाते थे. . .जी चाहता था कि कभी सो जायें और फिर न उठें. . .दो-तीन दिन के बाद हम “ऐम्स” गये। डॉक्टर ने देखा, दवा दी. . .एक्सरे हुआ. . .और बड़े डॉक्टर के पास भेजे गये. . .अंत में डॉ. मोहित सेन ने देखा और बताया कि सिर का आपरेशन होगा. . .दूसरे टेस्ट भी बताये. . .हम डॉ. मोहित सेन के पास जाते रहे. . .वे पूछते थे ये चोटें कैसी हैं. . .जिनसे “क्लाट” पड़ गये हैं. . .हम बताते थे कि गिर पड़े थे. . .डॉ. सेन ने कहा, नहीं ठीक-ठीक बताओ. . .ये गिरने की चोटों से नहीं होता. . .अजीब तरह के “क्लाट” हैं। इन्हें न निकाला जायेगा तो खतरनाक हो सकते हैं। डॉ. सेन से हमारा झूठ न चल सका. . .धीरे-धीरे उन्होंने पूरी बात हमसे उगलवा ली. . .पापा के बारे में भी पूछा। ससुराल वालों के बारे में पूछा. . .फिर हमसे कहा कि हम ये सब उन्हें लिखकर दे तब आपरेशन करेंगे। आपरेशन लंबा होगा. . .पापा तो ऑफिस चले जाते थे. . .मम्मी के साथ मैं अस्पताल आती थी. . .सब लिखकर दिया. . .पर जैसा डॉ. सेन ने कहा था, किसी को बताया नहीं. . .हमारा आपरेशन आठ घंटे चला। ससुराल में सबको बता दिया था पर वहां से कोई नहीं आया। पापा बेचारे बाहर बैठे रहे. . .आपरेशन के बाद हमें आई.सी.यू. में रखा गया. . .हम कोई दो महीने अस्पताल में रहे. . .दर्द कम हो गया था. . .पर कभी-कभी बढ़ जाता था। डॉ. सेन पूरी तरह से देख-रेख रखते थे. . उन्होंने कहा अभी एक आपरेशन और होगा. . .वह भी हुआ. . .हम फिर अस्पताल में रहे. . .इसके बाद डॉ. सेन ने कहा कि हमें छ: महीने बेडरेस्ट करना होगा. . .हर महीने आकर दिखाना होगा. . .इस दौरान डॉ. सेन हमसे खूब बातें करते थे जैसे आप करते हैं. . .हमसे उन्होंने कहा कि अब तुम ससुराल मत जाना. . .लेकिन पापा और मम्मी तय किए बैठे थे कि जैसे ही मैं अच्छी होती हूं मुझे ससुराल भेज देंगे. . .जैसे ही मैं ठीक हुई ससुराल से फोन आने लगे. . .चिट्ठियाँ आने लगीं. . .ताऊ जी की चिट्ठी आयी कि बिरादरी में बड़ी बदनामी हो रही है। लड़की को घर बिठा रखा है. . .दूसरे रिश्तेदार जो मुझे देखने तक नहीं आये थे, न कोई हालचाल पूछा था, कहने लगे कि अनु को ससुराल भेजो. . .मामाजी के भी लगातार फोन आने लगे. . .पापा भी तैयार थे कि मुझे भेज दें लेकिन मैं किसी कीमत पर तैयार नहीं थी. . .पापा और मम्मी कहते थे कि वे सब जानते हैं पर क्या करें. . .यदि परम्परा है यही मर्यादा है और यही धर्म है. . .बिरादरी में रहना है. . .नाक कट जायेगी. . .डॉ. सेन को जब पता चला कि मुझे फिर ससुराल भेजा तो उन्होंने पापा से कहा था आप सब जेल में नज़र आओगे. . .मैं सुप्रीमकोर्ट में पी.आई.एल. डाल दूंगा। अब डॉ. सेन जैसे नामी सर्जन जो राष्ट्रपति का सर्जन है. . .यह कहने से पापा के तो होश गुम हो गये. . .पर जानते थे कि अगर मैं तैयार हो जाऊं तो काम बन सकता है. . .अब उन्होंने मेरी खुशामद शुरू कर दी. . .कहा अच्छा कुछ दिन के लिए चली जाओ. . .कहा, अच्छा केवल “हां” कह दो. . .चाहे जाना नहीं. . .तरह-तरह से कहते रहे. . .अपनी नाक कट जाने की बात कही. . .ये भी कहा कि अब बिरादरी में न कोई हमसे लड़की लेगा न देगा. . .न हमें कोई रिश्ते-नातेदारी में बुलायेगा. . .
रात घिर आयी थी। गुलशन परेशान था कि आठ बज गया है और अब तक मैंने ड्रिंक लाने के लिए नहीं कहा है। वह सामने आकर खड़ा हो गया तो मैं समझ गया।
“जाओ. . .मेरी ड्रिंक ले आओ. . .और एक जिन, कॉडियल लाइम और सोडे वाली ड्रिंक बना लाना।”
वह चला गया।
. . .दूसरी तरफ डॉ. सेन बिल्कुल तैयार बैठे थे। पता नहीं क्या हो गया था पापा घर में कहा भी करते कि ये डॉ. सेन क्यों हमारे फटे में पैर डाल रहे हैं. . .इन्हें क्या मतलब है? ये कौन होते हैं? हमारा इनसे क्या रिश्ता है।”
गुलशन ने ड्रिंक्स रख दीं।
“ये पियो।”
“ये क्या है?”
“थोड़ी सी जिन है. . .मीठा नीबू है. . .सोडा है. . .पीकर देखो अच्छी लगेगी।”
“. . .हमने कभी नहीं पी।”
“देखो. . .तुम्हें ग़लत राय नहीं दे रहा हूं. . .धीरे-धीरे सिप करो . . .शर्बत की तरह न पीना जाना. . .”
. . .हमारे पूरी तरह इंकार करने पर पापा ने कहा तुमसे सब रिश्तेदार नाराज़ हैं. .तुमसे कोई मिलना नहीं चाहता. . .तुम्हें कोई अपने यहां कभी बुलायेगा. . .वे समझ रहे थे। हम इससे डर जायेंगे. . .पर हमें पता था वहां जाना मौत के पास जाना था. . .हमने कहा ठीक है. . .उसी दिन हमने गणित के दो ट्यूशन ले लिए. . .हमने यह भी कहा कि अगर तुम लोग कहो तो हम अपने कहीं रहने का इंतिज़ाम कर लें. . .पर अब हम वहां नहीं जायेंगे. . .हम तलाक लेंगे. . .तलाक का नाम सुनते ही पापा रोने लगे. . .कहने लगे हमारी सात पीढ़ियों में कभी तलाक नहीं हुई है. . .मम्मी तो अचंभे में रह गयी. . .कुछ बोल न पा रही थी, हमने कहा हमें ये किस्सा ख़त्म करना है. . .बस. . .
धीरे-धीरे अनु के चेहरे का रंग बदल रहा था, उसकी आवाज़ पर जिन का असर बढ़ रहा था।
“बोलो कैसी लग रही है।”
“आइ कितनी अच्छी है. . .लगता है हम उड़ सकते हैं।”
“हां क्यों नहीं, खाना क्या खाओगी?”
“आज हम कढ़ी बनायेंगे. . .और कोई आ रहा है?”
“हां शायद अहमद आयेगा।”
अनु उठकर कढ़ी बनाने चली गयी। मुझे लगा यही अतीत है जिसने इसकी मुस्कुराहट को इतना आकर्षक बना दिया है।
नीचे किचन में गया तो अनु कढ़ी बना रही थी और गुलशन उसे समझा रहा था “दीदी, शराब पीना हराम है. . .कुरान में लिखा है. . .जहन्नुम में जायेंगे पीने वाले. . .”
“ये क्या पढ़ा रहे हो उसे? अपने को नहीं देखते? छुप-छुपकर पता नहीं कितनी डकार जाते हो।”
“अल्ला कसम आपके मना करने के बाद एक बूंद जो चखी हो”, वह बोला।
“बूंद क्यों चखोगे. . .तुममें तो बोतलें सफा चट्ट कर जाते हो”, मैंने कहा और अनु हंसने लगी।
उसके सफेद और ख़ूबसूरत दांत चमक उठे। एक आत्मीय-सा माहौल बन गया। गुलशन जानता है कि मैं मज़ाक कर रहा हूं। वह यह भी जानता है मेरे और उसके क्या संबंध हैं। वह भी हंसने लगा।
संबंधों में विश्वास की ज्योति से किचन जगमगा उठा। इंसान को और क्या चाहिए? अपनी खुशी और दूसरों की खुशी जन्मा विश्वास ताकत देता है. . .जो आश्वस्त करता है. . .ऐसे क्षण लंबे होते चले जाते हैं और पूरे जीवन जुगनू की तरह चमकते रहते हैं और कौन कह सकता है कि आदमी हिंसक है, उसके अंदर कपट है, छल है, विश्वासघात है क्योंकि ये सब हमारे जीवन में कहां रह जाता है जब प्यार और यक़ीन के अनगिनत तरंगें जगमगाती हैं।
मैं अनु को देखने लगा। आज वह कितनी सुंदर लग रही है।
“लाओ भाई. . .क्या लिखा?” मैंने नवीन से पूछा। वह ऑफिस में आकर आराम से बैठ चुका था।
सरयू मुझसे कई बार कह चुका है कि यार नवीन को किसी काम में लगाओ। रिटायरमेंट के बाद वह काफी अकेले हो गया है। जो लगभग सदा संयुक्त परिवार में रहा हो, भरे-पूरे ऑफिसों में काम किया हे,
काफी हाउस में शामें गुज़ारी हों और यारबाज़ी और अड्डेबाज़ी की हो उसके लिए इस तरह का एका तो “कर्स” है।
मैं सरयू से पूरी तरह सहमत हूं और पिछले कई महीनों से मैं इस कोशिश में हूं कि नवीन “द नेशन” की सण्डे मैगज़ीन के लिए कुछ लिखकर दे। लेकिन महीने में दो बार वायदा कर लेने के बाद भी नवीन ने आज तक एक लाइन लिखकर नहीं दी है।
“लाओ क्या लिखा?”
“यार लिखा तो क्या. . .नोट्स लिए हैं।”
किसी अखबार में नोट्स छपते देखे हैं।”
“नहीं यार मजाक नहीं. . .बाईगॉड कल ले लेना।” नवीन ने कहा।
मैं उसकी तरफ देखकर धीरे-धीरे मुस्कुराने लगा। मैंने सोचा यार तुम्हारा कल और पंडित नेहरू का कल दो अलग-अलग कल हैं।
“ये देखा बहुत बढ़िया आर्टिकल छपा है, रवि प्रसाद का।” मैंने उसकी तरफ अखबार बढ़ाया।
“देखा है यार कुछ जान नहीं है. . .अब ये रविप्रसाद वग़ैरा कल के लौण्डे हुए. . .सीखते-सीखते सीखेंगे।
नवीन की एक पक्की अदा यह भी है कि वह किसी से प्रभावित नहीं होता और ऐसे तर्क देता है जो बड़े या महत्वपूर्ण आदमी को छोटा कर देते हैं।
“अरे यार रवि प्रसाद “न्यूयॉर्क टाइम्स” में छपता है।”
“तो साजिद मियां आपके लिए होगा “न्यूयॉर्क टाइम्स” वर्ल्ड का सबसे बड़ा पेपर. . .मेरे लिए तो नहीं है और यार अख़बार में छपने से क्या होता है।”
मैं जानता हूं उससे बहस करना बेकार है। हम चाय पीने लगे और गप्प शप्प शुरू हो गयी।
सरयू के बारे में बताने लगा, “यार सरयू से मुझे ये उम्मीद नहीं थी। एक दिन मैंने उसे दोपहर को फोन किया कि मैं उसके घर आ रहा हूं क्या वह घर पर रहेगा।” सरयू ने कहा, “दोपहर को मत आओ. . . मैं सोता हूं।” अब देखो यार, तुम तो सब जानते हो. . .
“तुम्हें कुछ ग़लतफ़हमी हो गई होगी. . .पुराने दोस्त हैं यार।”
“अरे नहीं यार. . .एक बार की बात नहीं है. . .ऐसा कई बार हो चुका है. . .अब देखो यार हमारी तो आज की तारीख में वह हैसियत है नहीं जो सरयू डोभाल की है। देश का कौन-सा बड़ा एवार्ड है जो उसे नहीं मिल चुका. . .पता नहीं कितनी कमेटियों पर. . .दसियों एवार्ड कमेटियों में हैं. . .तो यार हम नहीं हैं. . .बाईगॉड वहां होना मुश्किल न था मेरे लिए. . .पर यार मैं जोड़-तोड़ नहीं कर सकता, गिरोहबंदी नहीं कर सकता, अपने ऊपर समीक्षाएँ नहीं छपवा सकता. . .साहित्य की राजनीति में नहीं फंसना चाहता. . .।”
“वो सब छोड़ो. . .तुम कुछ करते क्यों नहीं हो?”
“यार. . .” वह बेचारगी से बोला।
“अब थोड़ा. . .साफ साफ सुन लो. . .”
“हां हां यार. . .बताओ. . .”
तुम्हें पता है सरयू ही नहीं. . . सब साले पुराने दोस्त काफी हाउस वाले मुझे देखकर कन्नी काट जाते हैं. . .अनिल वर्मा मिला था. . .क्या गर्दन अकड़ा के बात कर रहा था। होगा यार प्रधान सम्पादक हमें क्या. . .और पंकज मिश्रा. . .
“ठहरो. . .इतना इमोशनल न हो. . .बीस साल तुम पब्लिक सेक्टर में रहे. . .तुमने एक लाइन नहीं लिखी. . .न तुमने नया पढ़ा, न तुम साहित्यकारों-पत्रकारों से मिलते-जुलते थे. . .अब अचानक तुम चाहते हो कि उनकी “मेनस्ट्रीम” में आ जाओ. . .ये कैसे हो सकता है?”
“तो ये सब मेरी ही वजह से है?”
“सोचो यार मैं ग़लत भी हो सकता हूं. . .अब तुम लोगों से मिलते हो तो बीसियों बार सुनाये गये पारिवारिक किस्से सुनाने लगते हो, यार मेरे या तुम्हारे पारिवारिक किस्सों में किसे कितनी दिलचस्पी है?”
वह खामोश हो गया। मैं जानता हूं उसके पास हर बात का जवाब है और वह भी यह जानता है।
लेकिन उसे यह पता नहीं है कि फोन बौद्धिक विचार- विमर्श के लिए नहीं किए जाते । फोन और वह बिना कारण फोन करने का मतलब यह होता है कि हमें जिन चीज़ों में रूचि है वह “कामना” है। उसके बारे में आदान – प्रदान होता है लेकिन अगर कोई अपने को सीमित किए हुए है तो आदान -प्रदान क्या होगा?
आदमी और जानवर में एक और फ़र्क यह है कि आदमी बूढ़ा होकर भी सुन्दर लग सकता है, जानवर नहीं नवीन अब भी बड़ा “चार्मिंग” है उसके रूपहले बाल हैं। माथे पर लकीरें हैं जो वो किताब जैसी हैं आँखों में गहराई है और चपलता में लड़कपन अब भी झलकता है पता नहीं। उसे यह सब पता है नहीं?
– यार देखो उम्र के इस मोड़ पर मैं अपने आपको असंतुष्ट नहीं पता. . . तुम लोगों ने एक लाइन पकड़ ली . . . सरयू ने हिन्दी कविता पकड़ ली . . . वह एक दिशा में लगातार आगे बढ़ता गया . . . अच्छा कवि है. . . बहुत अच्छा कवि है. . . लेकिन जोड़-तोड़ भी उसने कम नहीं की है . . . तुमने पत्रकारिता को पकड़ लिया. . . आज देश में नाम हैं तुम्हारा . . . वर्मा ने एन. जी. ओ. सेक्टर पकड़ लिया . . . आज सौ करोड़ का एन. जी. ओ. चलाता है। मैंने फोटोग्राफी की . . . मैंने कविताएँ लिखीं. . . पुस्तक छपी, मैंने फिल्म समीक्षाएँ लिखी . . . मैं आर्ट क्रिटीक रहा . . . मैं ये तो नहीं कहता कि श्रेष्ठ समीक्षाएँ लिखीं. . . पर किसी से कम अच्छी भी नहीं कीं, मैं पीआर मैनेजर रहा। बढ़िया ही काम रहा. . . इसके अलावा यार मैं साइंस पढ़ता रहा. . . टेक्नॉलॉजी का ज्ञान बढ़ाया. . . वह भी इतना है कि किसी भी जानकार से अच्छी बातचीत कर सकता हूँ . . . तो बताओ मेरे सब कामों को मिला दिया जाये तो तुम लोगों के काम के बराबर होगा या नहीं,”
– हाँ बिल्कुल होगा” मैंने बड़े आत्मविश्वास से कहा क्यों कि मैं नवीन का सम्मान करता हूँ वह बुनियादी तौर पर नेक आदमी है, हम दर्द है, यह बात जरूर है कि हमेशा खरबपति बनने के सपने देखता रहा हैं,
आजकल भी कहता है यार छोटे- मोटे पैसे से काम नहीं चलेगा. . . मोटी रकम होनी चाहिए. . . ।
नवीन आजकल पुराने दोस्तों या जानकारों के अवसरवार की भी बहुत चर्चा करता है – ये सब साले कैसे ऊपर आये हैं मुझे पता है। जोड़ तोड़ किए है . . . यार हमारे दोस्तों ने तो मज़दूर आन्दोलनों से विश्वासघात करके मैनेजमेण्ट का साथ दिया है। एवार्ड पाने के लिए पापड़ बेले है. . . मन सब जानता हूँ ।
खैर इसमें तो शक नहीं कि हत्यारा युग हताशा, पराजय और निराशा का युग है।
—-३५—-
तूफानी बारिश थी और शीशे की बड़ी खिड़कियों पर मूसलाधार बारिश का पानी पूरे वेग के साथ टकरा रहा था। छींटे उड़ रहे थे और पानी का गुबारा-सा उठ रहा था। बार-बार चमकती बिजली और बादल गरजने की आवाज़ के साथ पानी की बौछारों का रंग बदल जाता था। बाहर बड़ी नियान लाइट की रौशनी बिजली की चमक में फीकी पड़ जाती थी और पानी का रंग लाल हो जाता था। हवा के थपेड़ों से बाहर के पेड़ जूझ रहे थे और इतने टेढ़े हो जाते थे कि टूटने का डर पैदा हो जाता था।
कमरे के अंदर का अंधेरा बिजली की चमक में खिल जाता था। हम दोनों खामोश थे। अनु बोलते बोलते थक गयी थी। उसने चादर खींच ली थी और सीधे छत की तरफ देख रही थी।
“तुम कुछ कह रही थीं?”
मैंने उसे याद दिलाया और लगा वह घटनाओं के तारों को जोड़ने की कोशिश कर रही है।
. . .सब हमारे खिलाफ हो गये थे। पापा और मम्मी तो कहते थे हमारी सूरत नहीं देखेंगे. . .ताऊजी कहते थे मैं उसे मार डालूंगा अगर उसने तलाक लेने की बात मुंह से निकाली। मैं सोचती थी इससे अच्छा क्या हो सकता है कि ताऊजी मुझे मार डाले. . .जिंदा रहने का कोई अर्थ भी नहीं था। मामाजी, दूर-नजदीक के रिश्तेदार सब फोन करते थे। चिटि्ठयां लिखते थे। मैं सोचती थी कि ये लोग उस समय कहां थे जब वह मुझे खड़ाऊ से पीटता था। मेरे बाल पकड़कर पूरे घर में घसीटता था. . .मुझे चिमटे से जलाता था. . .तब ये कहां थे? . . .और वह सब बुरा क्यों नहीं था. . .तलाक लेना इतना बुरा क्यों है?. . .पापा कहते थे तू टिंकू की भी जिंदगी बरबाद कर देगी. . .उसकी कहीं शादी न हो सकेगी. . .बिरादरी में रिश्ता नहीं मिलेगा. . .हम लोगों को कोने में बैठा देंगी. . .न कोई हमें शादी ब्याह में पूछेगा. . .न कोई गम़ी-मौत में बुलायेगा. . .तू समझती क्यों नहीं. . .एक-दो बार तो इलाहाबाद से ससुराल वालों ने किसी को विदाई के लिए भेजा. . .हमने कहा, “अगर जबरदस्ती करोगे तो डॉ. सेन को हम फोन कर देते हैं. . .डॉ. सेन का नाम सुनते ही पापा की सांस रुक जाती थी. . .दो बार हमने उन लोगों को लौटा दिया. . .पर हम समझ गये कि जब तक निपटारा नहीं होता है हमारे ऊपर दबाव बना रहेगा।”
मैं उसके हाथ को धीरे-धीरे सहलाने लगा। वह खामोश हो गयी। शायद गला सूख गया था। मैंने उसे पानी दिया। पानी पीकर वह बोली “हमने यह सब डॉक्टर सेन को बताया. . .उन्हें गुस्सा आ गया, बोले तुम्हारे पापा को तो मैं अभी गिरफ्तार कराये देता हूं। उसके बाद नौकरी से भी निकाल दिये जायेंगे. . .उन्होंने अपने पी.ए. से कहा चाणक्यपुरी थाने फोन मिलाओ. . .मैंने कहा, नहीं डॉक्टर साहब प्लीज़ मेरे पापा की कोई गलती नहीं है. . .वे और नाराज़ हो गये. . .बोले तुम आत्महत्या करनी चाहती हो तो जाओ. . .उसी के साथ रहो. . .जिसने तुम्हारी जान लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. . .हम डॉक्टर साला इसीलिए है कि फिर ऑपरेशन. . .मैंने उनसे कहा कि मैं तलाक लेना चाहती हूं। डॉ. सेन ने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का जस्टिस हमारा दोस्त है. . .तुम उसके पास जाओ. . .उन्होंने अपने दोस्त जस्टिस रंगानाथन को फोन किया…”
उसकी सांसें तेज़ हो गयी थीं। बाहर पानी अब भी पूरे वेग के साथ पड़ रहा था। मैं उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। यह वही सिर है जिस पर वह खड़ाऊ से प्रहार करता था. . .उसने आंखें बंद कर लीं।
“क्या नींद आ रही है?”
“नहीं!”
“फिर?”
उसने रोते हुए कहा “कोई पहली बार इस तरह मेरे सिर पर हाथ फेर रहा है।”
मैं भावावेश में झुक गया और उसके होठों को चूम लिया। वह थोड़ी-सी कसमसाई और शांत हो गई।
. . .हमारे पास पैसे नहीं थे. . .अपना गहना बेचा और पापा को बता कर हम इलाहाबाद की गाड़ी में बैठ गये. . .वह वहां रहे तो दो सवा दो साल थे लेकिन हमें कुछ नहीं मालूम था. . .सोचा था कि नमिता से मिलेंगे तो वह सब बता देगी. . .नमिता के कॉलिज का नाम हमें मालूम था. . .सुबह-सुबह गाड़ी इलाहाबाद पहुंच गयी। हमने स्टेशन पर चाय पी और एक बेंच पर बैठ गये कि नमिता के कॉलिज जाने का समय हो जाये. . .रिक्शा करके हम नमिता के कॉलिज के गेट पर पहुंचे और खड़े हो गये. . .हर लड़की को देख रहे थे. . .फिर नमिता दिखाई दी. . .हम उसके पास गये. . .वह हमसे लिपट कर रोने लगी. . .हम भी रोने लगे. . .फिर हमने उसे जस्टिस रंगानाथन के नाम वाली चिट्ठी दिखाई, वह हमें अपनी साइकिल के कैरियर पर बैठाकर हाईकोर्ट लाई. . .हम गये तो कोई हमें जस्टिस रंगानाथन से मिलने नहीं देता था. . .फिर हम मौका पाकर उनके चैम्बर में घुस गये. . .उन्हें पता चला कि डॉक्टर सेन ने भेजा है तो बड़ी अच्छी तरह मिले. . .काग़ज देखकर बोले “मैं इस आदमी को गिरफ्तार करा देता हूं. . .और कम से कम दस साल के लिए अंदर हो जायेगा। हमने कहा, नहीं हम किसी को जेल नहीं भिजवाना चाहते। हम बस तलाक चाहते हैं. . .हम बस चाहते हैं कि अलग हो जाये. . .हमने पूछा मुकदमे में कितना पैसा लगेगा तो जस्टिस रंगानाथन ने हमें डांट दिया, बोले “वो सब छोड़ो. . .फिर उन्होंने एक वकील कराया। मुकदमा दायर हो गया. . .नोटिस गयी तो पूरी बिरादरी में फिर शोर मच गया. . .पापा बहुत नाराज़ हुए. . .हमने कहा कहिए तो हम घर छोड़ दे. . .लेकिन हम मुकदमा वापस नहीं ले सकते. . .मुकदमे के दौरान हमारा कई बार उनसे सामना हुआ। एक बार हमसे अकेले में बात करना चाहते थे पर हमारे वकील ने मना कर दिया। कहा जो कुछ बात करनी है हमारे सामने करो. . .एक बार उन्होंने मेरे हाथ जोड़कर कहा कि देखो मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. . .पर तलाक मत लो. . .इससे मेरी नाक कट जायेगी. . .हमने कहा, नहीं हम तय कर चुके हैं, तलाक ही लेंगे. . .फिर फैसला हो गया. . .हम उस दिन रात में बहुत रोये. . .बहुत रोये. . .”
वह रोने लगी. . .फूट-फूटकर रोने लगी। मैं उसे चूमने लगा। इधर-उधर, यहां-वहां. . .पूरे शरीर पर. .वह रोये जा रही थी। रोती रही मैं चूमता रहा। फिर धीरे-धीरे सिसकियों की आवाजें आती रहीं। मैंने देखा वह मोम जैसी हो गयी है. . .बिल्कुल साफ्ट. . .गर्म मोम जैसी तरल और वह खामोश हो गयी थी. . .मैं उस पर झुकता चला गया. . उसने अपनी बाँहें मेरे ऊपर डाल दी. . .
बाहर बारिश तूफानी हो गयी थी। बारिश की तेज़ आवाज़ में हमारी तेज़-तेज़ साँसों की आवाजें दब गयी थीं। कमरे में कभी-कभी बिजली की रोशनी कौंध जाती थी तो हम दोनों आदम और हव्वा के रूप में दिखाई देते थे। हमें शायद रौशनी देखती थी. . .जो गवाह है जीवन की . . .जिंदगी की. . .
मैंने उसे चादर से ढक दिया। वह खामोश थी। बिल्कुल खामोश। आंखें बंद थीं और सांस अब कुछ स्थिर हुई थी। मैं एक टक उसके पसीने में भीगे चेहरे को देखता रहा. . .पता नहीं क्यों ख़्याल आया इसकी क्या उम्र होगी? ज्यादा से ज्यादा पच्चीस साल. . .और मैं पचपन साल का हूं. . .ये मैंने क्या किया और क्यों किया? क्या मानव संबंधों को सिर्फ उम्र ही संचालित करती है? लेकिन वह तो कमज़ोर है, दु:खी है. . .मैंने उसके दुख का फायदा उठाया है. . .मैंने उसे अपमानित किया है, एक अजीब तरह की ग्रंथि मेरे अंदर विकसित होने लगी. . .वह बच्ची है. . .उसे क्या मालूम. . .मैं तो सब जानता हूं. . .यह मेरी जिम्मेदारी थी. . .
“सो गयी क्या?” मैंने डरते-डरते पूछा।
“नहीं”, वह साफ स्पष्ट आवाज में बोली।
मैं माफी मांगने के बहाने खोजने लगा।
“देखो. . .माफ करो. . .मतलब. . .वो ये है कि. . .”
वह हंसने लगी।
मुझे सल्लो की याद आ गयी। पहली बार जब उसके साथ सेक्स किया था तो मैं आत्मग्लानि में डूब गया था और वह हंसने लगी थी।
“हंस क्यों रही हो?”
“ये सिर्फ आपने ही नहीं किया।”
मेरी जान में जान आई।
“मुझे पता ही नहीं था कि यह क्या होता है”, वह धीरे से बोली।
“तुम्हारा पति?”
“वह. . .नहीं जानते. . .शायद पागल था. . .हमें मारने-पीटने में ही उसे मज़ा आता था।”
“तो तुमने पहली बार?”
“हां”, उसने आंखें बंद कर ली।
“कुछ बोलो!”
“नहीं. . .खामोश रहना अच्छा है. . .लगता है. . .हम वह नहीं हैं जो थे।”
“हां ये तो ठीक है।”
मैं बराबर उसे सहला रहा था। उसके शरीर पर रोयें खड़े हो गये थे।
“तुम इसे पाप तो नहीं मानतीं?”
“पाप”, वह हंसी।
“ हम पाप उसे मानते थे।”
“किसे?”
“अपनी शादी को।”
“क्यों?”
“उसमें दु:ख ही दु:ख था।”
“तुम क्या बहुत सोचती हो?”
“हां हम बहुत सोचते हैं।”
“इस बारे में?”
“शरीर क्यों है हमारे पास?”
“क्यों?”
“हम पत्थर का ढेला भी हो सकते थे।”
“जीवन क्या है? क्या बार-बार आता है? आता है तो क्या हमें पता होता है कि आ रहा है।”
बिजली कौंधी और बादल ज़ोर से गरजे।
वह मेरे और पास आ गयी।
“तुम मुझे अपना क्या मानती हो?” मैंने पूछा।
“अब हम संबंधों को रिश्तों में नहीं बांधते।”
“कैसे?”
“पहले कोई पति होता था, कोई पिता, कोई माता. . .आज हमारे पिता डॉ. सेन हैं. . .”
“ओहो।”
“हां, वो न मिलते तो हम मर जाते।”
“जीवन देने वाले पिता होता हैं. . .मृत्यु देने वाला पिता हो सकता है?”
“हां ये भी ठीक कहती हो।”
वह चुप हो गयी। मैंने उसकी तरफ देखा आज उसके कई नये पहलू खुल रहे हैं।
“माता, पिता, पति, सास, ससुर, जेठ, जिठानी. . .सब क्या है?”
मानों तो सब कुछ. . .और मानना एक तरफ से नहीं होता। दोनों तरफ से होता है।
“हां ठीक कह रही हो।”
“और सबसे बुरे संबंध वे होते हैं जो “बनाये” जाते हैं. . .जोड़े जाते हैं।”
“मतलब?”
“जैसे पति-पत्नी का संबंध. . .अरेंज मैरिज।”
“लेकिन ये अक्सर बहुत अच्छे संबंध भी होते हैं।”
– “पर ये बनाये गये होते हैं. . .।”
“तुम्हारे और मेरे बीच क्या संबंध है?”
“अच्छे संबंध हैं. . .उस पूरी घटना के बाद. . .हमारे लिए बड़े कीमती हैं।”
“इनको क्या नाम दोगी।”
“नाम देने की ज़रूरत भी क्या है।”
“मान लो हो।”
“जब हम किसी संबंध के बारे में किसी को बताते तो नाम देने की ज़रूरत पड़ती है. . . क्योंकि वैसे लोगों की समझ में कुछ नहीं आता।”
“तो तुम मेरे और अपने संबंधों के बारे में किसी को नहीं बताओगी।”
“नहीं।”
“क्यों?”
“क्योंकि लोग समझ नहीं पायेंगे. . .हँसेंगे या बदनाम करेंगे या तिरस्कार करेंगे।”
धीरे-धीरे उजाला फैलने लगा। रात की बारिश ने सब कुछ धो डाला था। मैं उठकर देखा तो बाहर विशाल पेड़ पानी में नहाये खड़े थे और हवा उनके शरीर से पानी पोंछ रही थी. . .हर हवा के झोंके के साथ पानी की मोटी-मोटी बूंदे नीचे गिर रही थी. . .आगे अरावली पहाड़ों को भी पानी चमका दिया था। लगता था यह सब कल रात ही बना है। इतना ताज़ा है, इतना नया है, इतना जीवंत है जैसे कोई नया पैदा हुआ बच्चा।
मैंने खिड़कियाँ खोल दी। पानी से तर हवा कमरे में बेधड़क घुसी और हमारी आत्माओं को तर कर गयी।
“बरामदे में बैठकर चाय पी जाये तो कितना मज़ा आये?” अनु बच्चों जैसे उत्सुकता से बोली।
“हां क्यों नहीं।”
मैंने फोन पर रूम सर्विस को चाय लाने के लिए कहा।
“अब आप थोड़ी देर के लिए बाथरूम में चले जाइये।” वह बोली।
मैं समझ गया। वह कपड़े पहनना चाहती थी।
बरामदे से मैंने देखा कि वेटर छाता लगाये। चाय का थर्मस लिए हमारे कमरे की तरफ आ रहा है।
लगा यह किसी फिल्म का शॉट हो सकता है। दोनों तरफ हरा लान है। बीच में पत्थर लगाकर बनाया गया घूमा हुआ रास्ता है। दोनों तरफ घने पेड़ हैं और रास्ते पर छाता लगाये, एक हाथ में ट्रे लिए वेटर चला आ रहा है। सूरज की रोशनी नहीं एक मलगिजा उजाला है जो आमतौर पर शाम को ही नज़र आता है और जिसे धुआं-धुआं शाम भी कहा जाता है।
दो लोगों के अंदर का खालीपन उन्हें कितना पास ले आता है। सब तरह के बंधन टूट जाते हैं। बुनियादी पर आदमी, आदमी से जुड़कर ही अपने को पूरा महसूस करता है. . .शायद हम दोनों के बीच. . .नहीं तो कितना अंतर है। उम्र का अंतर, पेशे का अंतर, धर्म-जाति का अंतर शायद विचारों और संस्कारों का अंतर. . .इन अंतरों के बीच से भी एक सोता फूटता है जो अंतरों के पत्थरों के बीच रास्ता बनाता वह निकलता है. . .पर लोग तो यही करेंगे कि एक दु:खी अकेली, सीधी-साधी लड़की को एक घाघ, अधेड़ उम्र आदमी ने अपनी हविस का शिकार कर लिया. . .उसे बहलाया, फुसलाया, धोखा दिया, घेर लिया, ऐसी स्थितियां पैदा कर दीं कि वह . . .
“आप क्या सोच रहे हैं”, उसने चाय पीते हुए कहा।
“तुम्हारे और अपने बारे में सोच रहा हूं।”
“क्या?”
“यही कि लोग क्या कहेंगे?”
“आपको लोगों की चिंता है?”
“नहीं, नहीं ऐसा तो नहीं है”, मैं घबराकर बोला।
वह खामोश हो गयी। मैं चाय पीने लगा।
“ये सब आसानी से नहीं होता”, वह बोली।
“क्या?”
“यही जो हमारे बीच हुआ. . .”
“हां।”
“आप ने तो बहुत दुनिया देखी है. . .हमने उतनी नहीं देखी, पर
“लोगों” को देखा है. . .हमारे मरने में कोई कसम नहीं बची थी. . .”लोगों” ने क्या किया? “लोगों” में हमारी कोई मदद करने नहीं आया, फिर हम उसकी चिंता क्यों करें।”
मैंने सोचा यह कहना कितना आसान है। पर हो सकता है उसके यही विश्वास हों और उसके अंदर इतनी शक्ति हो. . .और मेरे अंदर? हां-हां क्यों नहीं. . .मेरे अंदर भी है. . .और मैं अपने आप को आश्वस्त करने लगा।
फोन पर तो मोहसिन टेढ़े से बात होती रहती थी लेकिन मिलना नहीं हो पाता था। मेरे विचार में कहीं “गिल्ट” भी था कि यार वह अकेला और तक़रीबन अपाहिज हो गया है और मैं उससे मिलने नहीं जाता। हालांकि फोन पर कभी ये एहसास नहीं हुआ कि वह बहुत परेशान या तकलीफ में हैं।
मैं मोहसिन टेढ़े के घर में फाटक खोलकर अंदर आया तो चौंक गया। दरवाजे के दोनों तरफ गमलों में ग्लोडिया के फूल खिले हुए थे। दरवाज़ों पर पॉलिश की गयीं थी। अंदर आया तो यकीन नहीं हुआ कि वही घर है जहाँ आया करता था। हर चीज में जान आ गई थी और इतने सालों के बाद खिड़कियों पर पर्दे लग गये थे। हर चीज़ करीने और सफाई से रखी थी।
मोहसिन टेढ़ा दूसरे कमरे से दड़ी के सहारे अंदर आया उसका चेहरा चमक रहा था। बालों में जयकर खिज़ाब लगा हुआ था और वे कोयले से ज्यादा काले लग रहे थे । इससे पहले उसके बालों की जड़े सफेद और बीच का हिस्सा काला दिखाई देता था।
– ये सब मैं क्या देख रहा हूं।
वह हँसने लगा । उसी लम्हे बहुत चुस्त जीन्स और रंगीन टाप में एक नेपाली लड़की अंदर आयी। मुझे पहचानने में देर नहीं लगी यह वहीं लड़की थी जिसे मोहसिन टेढ़े ने जिसे अपनी बीबी के मरने के बाद घर का काम करने के लिए “पार्ट टाइम” रखा था।
लड़की ने झुककर काफी लखनऊवा अंदाज में मुझे “आदाब” किया। मुझे याद आया मोहसिन टेढ़े ने मुझसे पिछली बार कहा था कि इस लड़की को अपना कल्चर सिखा रहा है।
– तुम पहचान गये। ये रिकी है मैंने इसका नाम रूखसाना रख दिया है. . . रूख कहता हूँ।” वह शर्म और विश्वास से मिली जुली हँसी हँसा।
मैं हैरत से सब देख रहा था किचन साफ सुथरा था। घर में ज़ीरों पावर के बल्ब नहीं थे, अच्छी खासी रौशनी थी। रिकी, रूखसाना या रूख किचन में चाय बनाने चली गयी और हम बैठ गये।
“ये सब क्या हो गया ?”
“यार साजिद . . . मैं इस लड़की से महोब्बत करने लगा हूँ” वह ईमानदारी से बोला।
“हूँ” मैं चुप रहा। मुझे अनु की याद आ गयी।
“सच बताऊं यार . . .” मुझे लफ्ज़ नहीं मिल रहे थे ।
इधर-उधर देख कर मैंने कहा “मैं तुम्हारे बारे में ग़लत सोचता था।”
“क्या?”
“यही की तुमको तो अल्ला मियाँ तक नहीं बदल सकते।” वह हंसने लगा।
रूख़ चाय और गर्मागर्म पकौड़े ले आयी । हम चाय पीने लगे मोहसिन टेढ़े ने मुझे बताना शुरू किया “यार देखो हम सब पचास पूरे कर चुके है। जिन्दगी दोबारा अगर मिलेगी भी तो हमें ये पता नहीं होगा कि पिछली कैसी थी . . . ये लड़की मुझे मिली तो समझो ज़िन्दगी मिल गयी. . . यार ये भी मुझसे महोब्बत करती है. . . यकीन मानों मेरा हर कहना मानती है।”
“मोहसिन ये खुशी की बात है. . . खुशी जहाँ मिले उसे हासिल कर लेना चाहिए।”
“इसके रहने पर ही धर की हालत बदली है. . . मैं इसकी बात टाल नहीं सकता।”
“घर की हालात के लिए तो मैं वाक़ई रूख़ का शुक्रगुजार हूँ” मैंने कहा।
हम बातें ही कर रहे थे कि कमरे में एक नेपाली -सा लगने वाला चौबीस-पच्चीस साल का लड़का आ गया।
“ये रूख का भाई है. . . बॉबी. . .”
मैंने बॉबी को ध्यान से देखा मुझे पहली नज़र में वह अपराधी प्रवृत्ति का लगा और मैं डर गया। यार ये चक्कर क्या है? कहीं मोहसीन टेढ़े . . .?
बॉबी अंदर चला गया।
“ये भी रहता है?”
“नहीं रहता तो नहीं . . . सोता है। “
“क्या मतलब?”
“वैसे इसने किराये का कमरा लिया हुआ है।”
“तो यहाँ क्यों सोता है।”
“अरे कभी-कभी. . . जब रात ज्यादा हो जाती है।”
चलते वक्त मैंने मोहसिन टेढ़े को अलग ले जाकर समझाया था।
“और सब ठीक है. . . ये बॉबी मुझे कुछ जंचा नहीं।”
“अरे नहीं यार . . . बड़ा सीधा बच्चा है. . . तुम नहीं जानते . . . बस वह देखने में ही ऐसा लगता है।”
“खुदा करे मेरी राय गलत हो. . . लेकिन एहतियात . . . घर में ज्यादा पैसा-वैसा तो नहीं रखते?”
“नहीं . . . नहीं सवाल ही नहीं उठता।”
मैं चला आया लेकिन सौ तरह के अंदेशे मेरे दिमाग में चक्कर काटते रहे।
—-३६—-
“ज़रा सोचो कि उस हमले में मैं अगर मर गया होता तो क्या होता?” शकील ने बेचारगी से कहा।
“क्या होता”, अहमद ने पूछा।
“हाजी पाटा. . .मेरा सबसे बड़ा दुश्मन जेल चला जाता. . .उसके खिलाफ़ अब भी नामज़द रपट लिखाई गयी है. . .वह जमानत पर छूटा हुआ है. . .लेकिन मैं अगर कत्ल हो जाता तो पब्लिक का इतना दबाव होता कि शायद उसे ज़मानत भी न मिलती. . .और आने वाले इलेक्शन में उसे वोट न मिलते. . .और मैं अगर मार दिया जाता तो मेरा टिकट. . .” उसका गला सूखने लगा. . .उसने एक गिलास पानी पिया. . .उसकी आंखों में एक भयानक सूनापन और सन्नाटा था जो हमने पहले नहीं देखा था।
हम दोनों दम साधे उसे देख रहे थे। वह जो कुछ कहने जा रहा था उसका अंदाज़ा हमें हो गया था और वह बात इतनी भयानक थी कि उसे सोचते हुए डर लग रहा था।
कुछ देर हिम्मत जुटाने के बाद वह बोला “मेरा टिकट कमाल को मिलता।” ये कहकर वह बेदम-सा हो गया और कुर्सी पर पीठ से टिककर हांफने लगा। चेहरे पर पसीने की बूंदें उभर आयीं।
“ओ माई गॉड. . .”, अहमद की आंखें फट गयी।
मैंने शकील की तरफ देखा। उतरा हुआ चेहरा। ऐसे आदमी का चेहरा जो सब कुछ हार गया हो. . .एक भयानक पराजय।
“मैंने उसे क्या नहीं दिया?” तुम दोनों जानते हो. . .अच्छे से अच्छे स्कूलों में एडमीशन कराया. . .कभी सख्ती नहीं की. . .कभी पैसों
के लिए तरसाया नहीं. . .स्टूडेंट यूनियन का इलेक्शन लड़ने के लिए पांच लाख दिये. . .गाड़ी? अभी पिछले साल नयी गाड़ी खरीद कर दी है. . .और ये सब जानते हैं कि मेरा पॉलिटिकल जानशीन वही है. . .उसकी को ये सब मिलेगा. . .।
“आई.बी. की रिपोर्ट तुमने देखी है?” मैंने पूछा।
“पूरी “इन्क्वायरी” ही रुकवा दी है मैंने. . .मैं उसे पब्लिक नहीं करना चाहता. . .इसमें मेरा हर तरह से नुकसान है”, वह बोला।
“अब क्या सूरतेहाल है?”
“एक अजीब माहौल बनाया जा रहा है. . .उस हमले के बाद ये कहा जा रहा है कि मैं अब राजनीति से सन्यास ले लूं. . .मेरी सेहत इस काबिल नहीं है कि “एक्टिव पॉलीटिक्स” में रहूं. . .ये भी कि मेरी जान को खतरा है. . .अब मुझे पब्लिक में उतना नहीं जाना चाहिए जितना जाया करता था. . .”
“ये कौन कह रहा है?”
“कोई कह नहीं रहा. . .बस ये सब हवा में लटकता और भूलता रहता है. . .बीवी की तो पक्की राय है कि मैं कोई ख़तरा न उठाऊं, रिश्तेदार भी यही कहते हैं।”
“कमाल क्या कहता है?” अहमद ने पूछा।
“वो कुछ नहीं कहता. . .मैं जो कहता हूं. . .वही करता है. .वही मानता है।”
“अगले साल इलैक्शन कनटेस्ट करोगे?”
“हां मैं तो करना चाहता हूं. . .चौथी बार पार्लियामेंट में जाऊंगा, ये कम इज्जत की बात नहीं है।”
“तुम्हारी “सेक्युरिटी” बढ़ाई गयी।”
“हां. . .कुछ तो हुआ है. . .लेकिन मेरे अपने आदमी भी. .”
“तुम्हारे आदमी या कमाल के आदमी?” अहमद ने पूछा।
शकील के चेहरे का रंग उड़ गया। मुझे लगा अहमद ने यह गल़त सवाल पूछा है. . .
“मेरे कान्फीडेंस के लोग हैं”, वह अटक-अटक कर अविश्वास के साथ बोला।
मुझे उससे अपार हमदर्दी महसूस हुई। जिंदगी भर की सफलताएं इस अंदाज़ में उम्र के आखिरी मोड़ पर रास्ता रोक कर खड़ी हो जायेंगी यह किसे मालूम था. . .
“मेरे ख़्याल से तुम पार्टी के लिए बहुत “इम्पारटेंट” हो”, मैंने कहा।
“हां उस इलाके में यानी सात-आठ ज़िलों में मेरा जो काम है वह पक्का है. . .खासतौर पर मुसलमान मतदाता मेरी मुट्ठी में हैं. . .मैंने मदरसों की “चेन” बनाई है। ट्रस्ट बनाया है जो मस्जिद के इमामों को वेतन देता है। दस प्राइमरी स्कूल खोले हैं, पांच इंटर कॉलेज और एक डिग्री कॉलेज है. . .उस इलाके में पार्टी के लिए मेरी “सपोर्ट” बहुत जरूरी है।”
“किसी और क्षेत्र में कमाल को टिकट दिला सकते हो?”
“देखा राजनीति में घुसना मुश्किल है लेकिन जो घुस गया है उसे निकालना और ज्यादा मुश्किल है. ..विधानसभा के लिए तो कोशिश कर सकता हूं. . .लेकिन संसद में. . .”, वह बोलते-बोलते चुप हो गया। फिर धीरे से बोला “कमाल को यह लगता है, जो सच भी है कि मेरी सीट से ज्यादा सुरक्षित और कोई दूसरी सीट नहीं है उसके लिए उस इलाके में।”
—
“अब बताओ मैं करूं क्या?” मैंने निगम ने मेरी तरफ देखकर बेचारगी से कहा।
“क्या कोई रास्ता है?” वह बोला।
“अपनी पत्नी से बात करो।”
“वह तो फोन पर ही नहीं आती।”
“नोटिस तुम्हें डाक से मिला?”
“हां”
“उस वक्त वह घर पर नहीं थी।”
“नहीं।”
“कहां थी?”
“यार. . .” वह हिचकिचाने लगा फिर बोला, “यार तुम्हें क्या बतायें साजिद भाई मुझे बड़ा जबरदस्त धोखा दिया गया। यार जिनको मैं बुजुर्ग समझता था, जिन्हें मैं शुभ चिंतक मानता था उन्होंने ही मेरे घर में आग लगाई है।”
उड़ती-उड़ती खबरें तो मेरे पास भी थीं पर उसके मुंह से सुनना चाहता था।
“खुल कर बताओ।”
“यार राजाराम चौधरी ने मेरे साथ वही किया जो राम के साथ रावण ने किया था।”
“क्या मतलब?”
“यार मैं तो ये समझता था कि बुजुर्ग हैं. . .सबको आशीर्वाद देते हैं. . .मदद करते हैं. . .मिसिज़ निगम को बेटी समझते हैं लेकिन उन्होंने तो डोरे डालने शुरु कर दिये. . .उसका दिमाग इतना खराब कर दिया. . .इतना ज़हर भर दिया मेरे खिलाफ कि वो अब उन्हीं के साथ रहती है।”
मैं निगम का चेहरा देखता रहा। वह अच्छा अभिनेता है। मुझे वह शाम अच्छी तरह याद है जब निगम ने अपनी पत्नी को साक़ी बना दिया था और वह राजाराम चौधरी को गिलास पर गिलास दे रही थी। यह देखकर निगम खुश हो रहा था और अपनी भोंडी हरकतों को नशे में छिपाने की कोशिश कर रहा था। इन्हीं पार्टियों के बाद उसे मंत्रालय का काम मिलना शुरू हो गया था।
“यही नहीं साजिद भाई. . .वहां मेरी वाइफ ने मेरे सबसे बड़े “बिजनेस राइवल” रवीन चावला से बातचीत कर ली. . .”
“क्या हुआ?”
“भाई रवीन चावला बड़ी ही हरामी चीज़ है। उसकी एडवरटाइज़िंग
ऐजेन्सी है. . .तो श्रीमती जी ने चावला से बात करके पांच करोड़ का काम उसे दिला दिया. . .यार पांच करोड़ कम से कम दो-ढाई का मारजिन था. . .”
“ये क्यों किया तुम्हारी पत्नी ने?”
“अब मैं क्या कह सकता हूं।”
“कह तो तुम्हीं सकते हो. . .ये बात दूसरी है कि शायद न कहना चाहो।”
“बात ये है कि उसके खर्चे बढ़ गये हैं. . .हर वक्त पैसा मांगती रहती थी. . .मैं हिसाब से देखा था. . .चावला ने गंड्डा पकड़ा दिया होगा।”
“अब सुनने में आ रहा है कि मंत्रालय का पूरा काम चावला को ही मिलेगा।”
“लेकिन सबसे खतरनाक बात तो यह है कि उसने वकील से नोटिस भेज दी है कि कंपनी और दूसरी प्रापर्टी में जो उसका शेयर है उसका हिसाब दिया जाये?”
“ये तो सीरयिस बात है।”
“बहुत सीरियस यार. . .और मंत्री राजाराम चौधरी ने उसे गृहमंत्री से मिला दिया है. . .बलवंत राव ठाकुर. . .अब बताओ पुलिस उसकी बात मानेगी या मेरी।”
मैं निगम को देखने लगा। उसकी पत्नी मंत्रिमण्डल की परिक्रमा कर रही है।
“अब बताओ यार. . .प्रेस इसमें मेरी मदद कर सकता है?”
“प्रेस क्या करेगा. . .कुछ नहीं. . .ज्यादा से ज्यादा स्कैण्डल बना देगा।”
“उससे तो और नुकसान होगा. . .फिर क्या करें।”
“तुम नैनीताल चले जाओ. . .वहां से बच्चों को ले आओ, वहीं तुम्हें मुक्ति दिला सकते हैं।”
उसकी आंखें खुशी से फटती-सी लगी।
जैसे-जैसे इलेक्शन नजदीक आने लगे वैसे-वैसे शकील पर ये दबाव बढ़ने लगा कि वह इस बार इलैक्शन न लड़े क्योंकि उस पर जानलेवा हमला हो चुका है, उसकी जान खतरे में है और उसकी तबीयत भी खराब रहती है। पचपन साल तो “पालीटिशियन” के जवानी का दौर होता है। शकील ये नहीं चाहता था कि इतनी जल्दी वह राजनीति से सन्यास ले ले। उसे यक़ीन था कि इस बार उसकी पार्टी की सरकार बनेगी और सीनियरटी के हिसाब से वह गृह या विदेश मंत्रालय पर “क्लेम” कर सकता है।
कमाल अपने वालिद से कुछ खुलकर तो नहीं कहता था क्योंकि जानता था कि उसका असर उल्टा हो सकता है। वह इलाके के बड़े बूढ़ों, मस्जिदों के बुजुर्ग इमामों, खानदान के बुजुर्गों से यह बात शकील तक पहुंचवाता रहता था। उसने अपनी अम्मां को पूरी तरह कन्विंस कर लिया था।
शकील हम लोगों से यह सब “डिसकस” करता था। उसे लगता था कि इस अफवाह का असर उसके इलैक्शन पर भी पड़ सकता है। इसलिए जितनी जल्दी हो यह साफ कर दिया जाना चाहिए वह सन्यास नहीं रहा है।
एक दिन अचानक कमाल का फोन आया और उसने कहा कि मिलना चाहता है। ये बिल्कुल साफ था कि क्यों मिलना चाहता है।
शाम को वह आया और इधर-उधर की बातों के बाद असली मुद्दे पर आ गया बोला “दरअसल हालात कितने खराब हो गये हैं, यही मैं बताना चाहता हूं. . .फैसला तो अब्बा को ही करना है।”
“क्या है हालात?”
“हाजीपाटा. . .नेपाल से तस्करी किया करता था. . .असली धंधा “ड्रग्स” का ही था. . . अब्बा पर हमला होने के बाद वो न सिर्फ गिरफ्तार हुआ बल्कि बी.एस.एफ. वालों ने उस पर इतनी सख़्ती शुरू कर दी है कि उसका धंध ही बंद हो गया है।”
“तो फिर?”
“हाजीपाटा के लिंक्स मुंबई और दुबई के अण्डरवर्ल्ड से हैं. .
और उसे वहां से बड़ी “स्पोर्ट” है. . .हाजीपाटा यह मानता है कि अब्बा को रास्ते से हटाये बग़ैर उसका कारोबार नहीं चल सकता. . .इसके लिए वो कुछ भी कर देने पर तैयार है।”
“तुम्हें ये सब किसने बताया।”
“बताया नहीं. . .ये मेरी “एनालिसिस” है. . .वैसे पाटा की ख़बरें भी मुझ तक पहुंचती रहती हैं। पहले बी.एस.एफ. साल छ: महीने में उसके एक आद ट्रक पकड़ लेती थी। आजकल हर महीने ट्रक पकड़ा जाता है।”
“ये तो उसके और बी.एस.एफ. के बीच का मामला है।”
“नहीं. . .अब्बा ने बी.एस.एफ. वालों को टाइट किया है।”
“अच्छा. . . और?”
“हाजीपाटा. . .दुबई से “शूटर” बुलाता रहता है. . .होता ये है कि वो अपना काम करते हैं. . .काठमाण्डो के रास्ते से निकल जाते हैं. . .इधर आते ही नहीं. . .”
“देखो पॉलीटिक्स में ये खतरे तो रहते ही हैं।”
“अंकिल अब ख़तरा बहुत बढ़ गया है. . .पिछला हमला आपको याद है. . .वो कहिए अल्ला की मेहरबानी से अब्बा बच गये।”
मैं उसकी तरफ ध्यान से देखने लगा। मुझे लगा ये बहुत शातिर, घाघ और खतरनाक खिलाड़ी बन चुका है। राजनीति और अपराध का बहुत संतुलित सम्मिश्रण है।
उसने फिर कहा “हम लोग वैसे कुछ होने तो नहीं देंगे. . .लेकिन बात तो खतरे वाली है। अम्मां की तो रातों की नींद उड़ गयी है। ब्लड प्रेशर रहने लगा है। भूख मर गयी है. . .लखनऊ में दो बार दिखा चुका हूं।”
मैंने सोचा “मियां शकील, आसानी से पार नहीं पाओगे।”
“आपको तो पता नहीं है, हाजीपाटा अब्बा के लोगों को तोड़ रहा है. . .दस-दस साल से जो लोग हमारे साथ थे वो हाजीपाटा के साथ चले गये।”
“देखो ऐसा है, शकील अपने कैरियर के “पीक” पर है. . .अब
अगर इतनी जल्दी वो राजनीति से सन्यास ले लेगा तो उम्रभर की मेहनत बेकार जायेगी. . .तुम्हें भी नुकसान होगा।”
“अंकिल अपने नुकसान की तो मैं फिक्र नहीं करता. . .मैं तो डर रहा हूं कि अब्बा अम्मी को कुछ न हो।”
मैंने महसूस किया उसने अब्बा के साथ-साथ अम्मी को भी शामिल कर दिया है।
“देखो मैं शकील से बात करता हूं।”
“हमारा इलाका कितना बीहड़ है आप नहीं जानते. . .बार्डर होने की वजह से प्राब्लम और ज्यादा है और फिर सरकार भी “अपोज़ीशन” की है. . .सबके दिल बढ़े हुए हैं. . .पता नहीं कितना तो आर.डी.एक्स आ जाता है नेपाल बार्डर से. . .”
आर.डी.एक्स. . .मैं सोचने लगा. . .सत्ता के लिए कोई कुछ भी कर सकता है। हाँ बताओ क्या बता है?” रात के बारह बजे के बाद अनु के फोन से मैं कुछ घबरा गया था।
“एक बहुत जरूरी काम है। “ वह बोली थी।
“बताओ न?”
“चांदनी चौक इलाके में गली रेशम वाली में. . .”
“हाँ हाँ बताओ।” वह अटक गयी थी।
गली रेशम वाली में मकान नम्बर ग्यारह बटे एक सौ बीस के बाहर सीढ़ियों में ससुराल वाले राधा को छोड़ कर चले गये हैं. . . उसके तो अभी टाँके भी नहीं कटे हैं. . . पिछले हफ़्ते आपरेशन हुआ था. . .” “तुम क्या कर रही हो . . . मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है।” उसने बताया है कि राधा को उसके ससुराल वाले आपरेशन के बाद उसके पिता के घर छोड़ना चाहते थे । पिता ये नहीं चाहते थे . . . उन्होंने दरवाज़ा नहीं खोला. . . ससुराल वाले उसे सीढ़ियों पर बिठा कर चले गये हैं . . . वहाँ बेहोश पड़ी है।”
पुलिस की गाड़ी पर मैं जब गली रेशमवाली में मकान नम्बर ग्यारह बटे एक सौ बीस के सामने पहुँचा तो वहाँ कुछ लोग जमा थे। पुलिस को देखकर लोग खिसकने लगे । पता यह लगा कि राधा को उसके ससुराल वाले यहाँ छोड़ गये हैं। पुलिस ने राधा का घर खटखटाया और बताया कि पुलिस है तो एक मरघिल्ले से आदमी ने दरवाजा खोला। जो सत्तर साल के करीब लग रहा था। उसने बताया कि दस साल पहले राधा की शादी अरविन्द से हुई थी और अब तक अरविन्द और उसके माता-पिता राधा को अपने घर नहीं रखना चाहते आपरेशन के बाद उसे यहाँ छोड़ गये है।
पुलिस ने अरविन्द के घर फोन किया वह और उसके पिताजी आये और समझाने बुझाने के बाद राधा को अपने साथ ले गये राधा की हालत काफी खराब लग रही थी। वह लगाया बेहोशी की हालात में थी और जब आँखे खोलती थी तो एक दर्दनाक वहश्त उसकी आँखों से टपकती थी।
अगले दिन अनु ने काफी विस्तार से पूरी बात बताई उसने बताया कि वह संगीता को जानती है जो रेशमवाली गली में ही रहती है। संगीता ने उसे राधा से भी मिलाया था। राधा की शादी पहाड़गंज में राधा को उसके ससुराल वाले कम दहेज का ताना देने लगे थे। उसके बाद ताह-ताह की माँगें सामने रखते थे। राधा के पिता ट्रांसपोर्ट कम्पनी में मुंशी हैं और राधा के ससुरालवालों की माँगें पूरी करना उनके बस में नहीं था। उन्होंने अपनी जमा पूँजी तीन लड़कियों की शादी में लगा दी थी। माँगें पूरी न होने पर ससुराल वाले राधा को तरह-तरह की तकलीफ देने लगे, मारपीट भी करने लगे पर उसकी मदद करने वाला कोई भी न था। बूढ़े माता-पिता असहाय थे बहने अपने -अपने घरों में थी। धीरे-धीरे राधा के ससुराल वालों का रवैया ख्वाब से खराब होता था। उसे एक बार सीढ़ियों से धक्का दे दिया। वह गिरी और एक पैर टूट गया पर उसका इलाज नहीं वह पैर घसीट-घसीट कर चलने लगी। फिर धीरे-धीरे उसकी सेहत गिरने लगी। घर में उसे नौकरानी से भी बुरे हालात में रखा जाता था। राधा जब अपने पिता के घर से आती थी तो सिर्फ संगीता ही उसका दु:ख दर्द सुनती थी पर वह भी क्या कर सकती थी।
इसी दौरान राधा के पेट में दर्द में बुरी तरह अटपटाती थी। ससुरालवाले अस्पताल में भरती करा आये। आपरेशन के बाद वे उसे मौके में लाये। राधा के पिता ने उसे अपने साथ रख नहीं सकते थे क्योंकि वहाँ कोई राधा की देखभाल करने वाला नहीं था। उनका कहना थ कि चूंकि राधा की शादी हो गयी है इसलिये उसे ससुराल में ही रखना चाहिए। आखिरकार राधा के ससुराल वाले उसे सीढ़ियों पर डालकर चले गये थे।
मैंये सब सुनता जाता था और एक अजीब तरह का दर्द मुझे अपनी गिरफ्त में लेता जाता था।
इस पूरे प्रसंग के कुछ महीने बाद एक दिन अचानक मैंने अनु से पूछा था कि राधा का क्या हुआ?
उसने बताया था ”वह तो मर गयी?”
“कैसे?”
“सुनिए . . . वह राज़दारी से बोली थी, संगीता बता रही थी. . .उसके ससुराल वाले उसे खाना नहीं देते थे। वह तो बीमार थी। बिस्तर पर पड़ी रहती थी. . . वह भूख से मर गयी. . .
कुछ देर के लिए सिर्फ हौलनाक खामोशी थी।
—-३७—-
“अपने हाथी के मुंह गन्ने खाना, यह मुहावरा सुना है।” मैंने सामने खड़ी एन.जी.ओ. महिला से पूछा?
वह अपनी सुंदर पलकें झपकाने लगी और यह दर्शाया कि पता नहीं मैं क्या पूछ रहा हूं।
सफेद संगेमरमर के विशाल सात सितारा होटल के पीछे बड़े स्वीमिंग पूल के किनारे पार्टी हो रही है। लंबी-चौड़ी खिड़कियों के पीछे बैंक्वेट हालों के झाड़-फानूसों की सुनहरी रौशनी स्वीमिंग पूल के नीले पानी में थरथरा जाती है। घास दूधिया रोशन में नहाई है और पौधे के अंदर छिपे बल्ब जुगनुओं जैसे दप-दप कर रहे हैं।
यहां राजधानी के सर्वश्रेष्ठ वे लोग हैं जो देश को चलाते हैं। राजनीति को कोयला पानी देते हैं। समर्थन और विरोध को संचालित करते हैं। विकास और विनाश को अपने पक्ष में इस्तेमाल करना जानते हैं। संचार माध्यमों के मालिक हैं। उद्योग, व्यापार और वाणिज्य के सरताज हैं। इनकी गद्दियां, इनके सिंहासन, इनके रुतबे पक्के हैं। चाहे कोई सरकार आये या कोई जाये, इन पर रत्ती बराबर फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये अपना काम कराना जानते हैं। सरकारों, उच्चाधिकारियों के दिलों तक पहुंचने के चोर दरवाज़े ये बनाते हैं। इनके पंख इतने बड़े हैं जिनमें राजनीति और अर्थव्यवस्था के अलावा साहित्य, कला, संस्कृति, मनोरंजन सब कुछ समा गया है।
“आप क्या पूछ रहे हैं?” महिला ने पूछा।
“मैं आपसे कह रहा था. . .हमारी डेमोक्रेसी हाथी के मुंह गन्ने खाने वाले मुहावरे से ज्यादा समझ में आती है।”
“वो कैसे?”
“हमें पूरी छूट और अधिकार है कि हम गन्ना खाये। लेकिन गन्ने का दूसरा सिरा हाथी की सूंड में है। हाथी के पास हमसे ज्यादा ताकत है। गन्ना उसकी तरफ जा रहा है। हम गन्ने के साथ-साथ हाथी के मुंह की तरफ बढ़ रहे हैं। घबराकर हम गन्ना छोड़ देंगे। गन्ना हाथी के मुंह में चला जायेगा।”
मैंने महसूस किया कि महिला मेरे व्याख्यान के ऊब रही है इधर-उधर देख रही है। ये पार्टियाँ संबंध बनाने के सुनहरे अवसर प्रदान करती है। वह माफी मांगकर एक ओर चली गयी। मैंने गिलास में बची विस्की गले में डाल ली और किसी परिचित की तलाश में एक तरफ बढ़ने लगा।
एक कोने में अहमद अकेला बैठा दिखाई दिया यह हैरत के बात थी अहमद जैसा सोशल, तेज़ तर्रार और जनसम्पर्क बनाने तथा उन्हें हमेशा ताज़ी हवा देने वाला इस “हाई प्रोफाइल” पार्टी में अकेला बैठा है।
“अरे यार तुम यहां अकेले”, मैंने कहा।
“आओ बैठो।”
“कहो इतने उदास क्यों लग रहे हो।”
“कुछ नहीं यार. . .शूजा से झगड़ा हो गया।”
“किस बात पर?”
“वही पुरानी बात।”
“क्या?”
“शादी”
“शादी पर ज़ोर डाल रही है।”
“बहुत ज्यादा. . .कल तो इतनी कहा-सुनी हो गयी कि अपने घर चली गयी”, वह बोला।
“पार्टी में आई है?”
“हां उधर है।”
“साथ आये हो?”
“नहीं. . .मैं अकेला आया हूं।”
“तुम्हारे इंकार करने पर क्या कहती है।”
“कहती है मैं ग़लती कर रहा हूं. . .पछताऊंगा।”
“तुम्हें क्या एतराज़ है. . .तुम भी तो शायद दो साल बाद रिटायर हो रहे हो?”
“हां ये तो है. . .लेकिन मैं उसके साथ नहीं रहना चाहता. . .बिल्कुल नहीं रहना. . .किसी कीमत पर नहीं रहना चाहता”, वह उत्तेजित हो गया था।
तीर की तरह चलती शूजा आई। मुझे हैल्लो किया और अहमद से बोला “चलो मिस्टर चन्दानी से मिलते हैं. . .सुबह ही मुंबई से आये हैं।”
“मुझे नहीं मिलना”, अहमद मुंह बनाकर बोला।
“क्यों? तुम तो जानते ही हो. . .फोर थाउजेण्ड करोड़ की पेट्रोकैमिकल कंपनी डाल रहे हैं”, “डियर तुम कैसी बात करते हो”, वह अंग्रेजी में बोली “उनसे तो मिलने के लिए लोग तरसते हैं।”
“मेरा मूड़ नहीं है”, अहमद बोला।
“मैंने उनसे कह दिया है कि तुम्हें मिला रही हूं।”
“मुझसे पूछे बग़ैर कहा ही क्यों?” वह चिढ़कर बोला।
“प्लीज साजिद इसे समझाओ. . .मिस्टर चन्दानी इन्हें टॉप मैनेजमेण्ट पोज़ीशन आफर कर सकते हैं. . .आफर रिटायरमेंट. . .”, उसकी बात अधूरी छोड़ दी।
शूजा बड़े दुख और आश्चर्य से उसे देखने लगी। मुझे लगा अहमद निकल भागेगा। वह शूजा के हत्ते मढ़ने वालों में नहीं है। उसे औरतों को “डील” करना खूब आता है।
आधी रात के बाद आंख खुल जाती है। नींद टूट जाती है। पिछले पांच छ: साल से जो सालता रहा है उसकी शिद्दत बढ़ जाती है। कुल मिला-जुलाकर देखा जाये तो मुझे अपनी जिंदगी में कोई शिकायत नहीं है। मेरे पास सब कुछ है। अनु के आ जाने के बाद जो एक भावनात्मक खालीपन था वह भी नहीं रहा लेकिन वही सवाल जिससे मैं
टकराता रहा हूं उग्र हो गया है।
सवाल ये है कि मैं ऐसा क्या करूं जो मेरे लिए और दूसरे लोगों के लिए या जो साधनहीन है उनके लिए अच्छा हो। मेरे परिवेश के लिए ज्यादा अर्थपूर्ण हो? जिससे मुझे ज्यादा संतोष मिले। जिससे ये लगे कि मैंने कुछ किया है। जिससे मैं अपने आपको और दूसरों को खुशी दे सकूँ। जो मेरे जीवन का एक उद्देश्य बन जाये। जिस पर मुझे विश्वास हो और मैं बिना थके उसे दिशा में अपनी जिंदगी लगाता चला जाऊं। अब तक मैंने जो किया है वह अपने लिए, अपने परिवार के लिए किया है या वह होता चला गया है क्योंकि सौभाग्य से पढ़ने का मौका मिला। नौकरी मिली। काम करता रहा। आगे बढ़ता रहा। यह सब तो स्वत: ही होता चला गया है। मेरी अपनी कोशिश उसमें कितनी शामिल है? उसका क्या अर्थ है मेरे लिए या मेरे समाज के लिए या मेरी मान्यताओं के लिए?
लेकिन क्या ये सोचना और करना ज़रूरी है? बहुत से लोग संसार में आते हैं, काम करते हैं, परिवार पालते हैं, खुश रहते हैं चले जाते हैं। मैं भी ऐसा क्यों नहीं कर सकता? लेकिन बहुत सोचने के बाद भी यही लगता है कि मैं शायद ऐसा नहीं कर सकता।
कभी-कभी यह सोचता हूं कि कहीं यह मेरा अहंकार तो नहीं है? कहीं यह आपको बड़ा समझदार और आदर्श मानने का ख़लल तो नहीं है? कहीं मैं यह तो नहीं कह रहा हूं कि देखा जो दूसरे नहीं कर सकते वह करके मैं दिखा दूंगा? कहीं यह समय के पत्थर पर अपना नाम लिखा देने की आदिम ख्वाहिश तो नहीं है? उन लोगों से बदला लेने की भावना तो नहीं है जो मेरे मुकाबले ज्यादा “पा” गये हैं?
सबसे बड़ी बात तो यह है कि मेरे सामने कोई साफ तस्वीर नहीं है कि मैं करना क्या चाहता हूं। मैंने एन.जी.ओ. का काम देखा है। बहुत से लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। मैं उसमें क्यों नहीं शामिल हो जाता? कुछ लोग दूसरे संगठन बनाकर बहुत सार्थक काम कर रहे हैं उनके साथ चला जाऊं? उनके काम में मदद करूं। कुछ लोग “फील्ड” में काम करने वालों के लिए दिल्ली में “स्पोर्ट सिस्टम” तैयार करते हैं, वह काम तो मैं कर ही सकता हूं। फिर वह क्यों नहीं कर रहा हूं? क्या मैं कोई प्रयोग करना चाहता हूं? पर वह है क्या? क्या मैं उस प्रक्रिया में जाना चाहता हूं जहां से प्रयोग का स्वरूप स्पष्ट होगा? या और कुछ है मेरे मन में?
सच पूछा जाये तो एक आदमी का जीवन या उसके कुछ साल अगर इस खोज में लग जायें कि उसे क्या सार्थक करना चाहिए तो बुरा क्या है?
पिछले पांच-सात सालों से मैं अपने ऊपर भयानक दबाव महसूस कर रहा हूं। दबाव यह कि अपनी सार्थकता तलाश करने की कोशिश न की तो शायद अपने आपको क्षमा न कर पाऊंगा। हो सकता है यह बचकानी कोशिश हो, बहुत संभव है कि असफल हो जाये लेकिन मुझे इतना तो संतोष होगा कि मैंने यह कोशिश की थी। अगर मैं इस सवाल का जवाब नहीं खोज पाया तो जिंदगी के बचे खुचे दस-पन्द्रह साल इसी तरह बीत जायेंगे जैसे अब तक पूरी जिंदगी बीती है।
दिनभर अपने ख़यालों के अंधेरे-उजाले में भटकता रहा। शाम अनु आयी तो सोचा चलो, इससे बात की जाये। मेरी पूरी बात सुनने के बाद अनु ने कहा “तो आप क्या करना चाहते हैं?”
“पहले तो इसी सवाल का जवाब चाहता हूं।”
“आप आज तक जो करते आये हैं.. . .अखबार के लिए लिखना, किताबें लिखना. . .उससे आप. . .?” वह वाक्य पूरा नहीं कर सकी शायद शब्द कम पड़ गये थे।
“हां मैं उससे संतुष्ट नहीं हूं. . .अखबार और किताबें. . .मैं मानता हूं हस्तक्षेप हैं. . .लेकिन इतना काफी है?”
“ये तो आप ही तय करेंगे।”
“हां, ये तो तय हो गया है।”
“उसके बाद?”
“सोच रहा हूं. . .तुम्हें क्या लगता है।”
“हम खुश हैं. . .हम ये सब नहीं सोचते”, वह बोली।
“मान लो मैं कुछ करने के बारे में तय करता हूं तो तुम मेरी
मदद करोगी?”
-”हाँ करेंगे।”
—-३८—-
सन्नाटे को अनु तोड़ती रहती है लेकिन सेाचता हूं क्या यही काफी है? क्या इससे मैं अपने को पूरी तरह खुश और संतुष्ट महसूस करता हूं? जवाब साफ आता है, नहीं. . .नहीं. . .नहीं. . .मतलब यह है कि तलाश करते रहना है।
सीधी बात यह है कि यहां मेरे चारों तरफ जो जिंदगी बिखरी हुई है वह देश में रहने वाले लोगों की ज़िन्दगी नहीं है। अगर मुझे देश के लोगों के साथ जुड़कर कुछ करना है या यह समझना है कि क्या किया जा सकता है तो इस “बनावटी” जीवन से अलग होना पड़ेगा। सीधा-सा मतलब है दिल्ली छोड़नी पड़ेगी. . .तीस साल पहले बाबा ने मुझसे यही कहा था। मैंने दिल्ली छोड़ दी थी लेकिन लौटकर फिर दिल्ली आ गया क्योंकि अपने गांव या शहर में जम न सका. . .अब क्या फिर वही कहानी दोहराई जायेगी? तीस साल पहले तो आसान था। मैं जवान था। अब? क्या होगा? क्या मैं दिल्ली को छोड़कर कहीं और रह सकता हूं? मध्य प्रदेश के किसी ज़िले में? बिहार के किसी अंचल में? राजस्थान के किसी गांव में? हिमाचल की किसी घाटी में?
यहां एक साफ शफ्फ़ाक़ जिंदगी है। अच्छी खासी बड़ी कोठी। कार, नौकरी, सामाजिक सम्मान, रुतबा. ..विदेश यात्राएं. .. ऊंची कमेटियों की सदस्यता. . .सत्ता के सबसे बड़े दफ्त़रों तक पहुंच. . .मान-सम्मान पैसा और साथ-साथ अनु। शाम की पार्टियां हैं। “वीक एण्ड” पर हिमाचल था राजस्थान की “ट्रिप” हैं। सब कुछ जमा जमाया है। सब पक्का है। गर्मियों में योरोप की यात्राएं हैं। मल्लू मंज़िल में मैं कितना अकेला हो जाऊंगा?. ..इसलिए अपने पागलपन से छुट्टी पा जाओ और आराम से
बैठो। पचास पार कर चुके हो और तुममें “रिस्क” लेने या खतरे उठाने की आदत नहीं है। अपनी जिंदगी में रम चुके हो. . .कहां जाओगे? मान लो गये और फिर वापस आ गये तो?
इसका मतलब तो ये है कि जो जिंदगी भर सोचता आया हूं वह गल़त था और उसे मैं नहीं कर सकता। मेरे दिल में हमेशा यह कसक रहेगी कि अपने छोटे से सपने को भी पूरा नहीं कर सका। क्या इसी कसक के साथ मरूंगा?. . .नहीं ये नहीं होना चाहिए। दरअसल अब मेरे पास खोने के लिए क्या है? मैंने पद, प्रतिष्ठा, सम्मान और धन को कभी महत्व नहीं दिया. . .अब अगर उसे किनारे लगा देता हूं तो क्या बुरा होगा? उसे किनारे लगाकर मल्लू मंज़िल, अपने शहर चला जाता हूं तो क्या नुकसान होगा? मेरे यहां रहने से या न रहने से क्या फ़र्क़ पड़ेगा लेकिन मेरे यहां से चले जाने और अपने शहर में रहने से शायद कोई रास्ता निकलेगा. . .या रास्ता निकालने की कोशिश में लगा रहूंगा. . .न निकलेगा तो न निकले. . .कम से कम अपनी निगाहों में गिरने से तो बच जाऊंगा। मैं यह जानता हूं कि मेरे दोस्त अहमद और शकील मेरी इस बात से सौ फीसदी असहमत होंगे। अहमद सब हंसेगा और मज़ाक उड़ायेगा. . .शकील दिल्ली के महत्व और उपयोगिता की चर्चा करेगा। उन दोनों की दुनिया अलग है और मेरी अलग है। शायद मैं दिल में यह उम्मीद पाले हुए हूं कि वह मेरा साथ देगी लेकिन कैसे? किस तरह? किस रूप में? ये सब आसान नहीं लगता।
“तुम जिंदगीभर दूसरों के बारे में खबरें छापते रहे हो. . .लेकिन इस बार ख़बर तुम्हारे बारे में छपेगी कि “द नेशन” के एसोसिएट एडीटर एस.एस. अली पागल हो गये हैं और वो नौकरी छोड़कर अपने वतन चले गये हैं, मल्लू मंजिल में रहने के लिए. . .” अहमद को मेरे ऊपर गुस्सा आ गया था। वह व्यंग्य करने के बाद गंभीर होकर बोला “हम तुम जो चाहते हैं वह सब नहीं कर पाते. . .हमारी “लिमीटेशन्स” हैं. . तुम तीस-पैंतीस साल यहां रहने के बाद छोटे-से पिछड़े हुए शहर में नहीं रह सकते. . .”हना भी नहीं चाहिए. . .क्योंकि तुमने जिंदगीभर जो कुछ सीखा है वह तुम वहां नहीं कर सकोगे? बताओ वहां से कौन-सा ऐसा
अखबार निकलता है जहां तुम काम कर सकोगे?”
“मैं वहां अखबार में काम करने नहीं जा रहा हूं।”
“तो क्या बैठे-बैठे मक्खियां मारोगे? ये और बुरा होगा. . .जिंदगीभर का तर्जुबा कुएं में डाल दोगे. . .यार आदमी को इतना “इमोशनल” नहीं होना चाहिए। अब वो ज़माना नहीं रहा. . .और फिर कौन-सा तुम लंदन या पेरिस में हो जो उसे छोड़कर वतन की ख़िदमत करने जाना चाहते हो”, वह बोला।
“उसे छोटे, पिछड़े, गंदे और फटेहाल शहर में मुकाबले दिल्ली पेरिस और लंदन ही हैं”, मैंने कहा।
“ठीक है ज़रा ये बताओ कि तुम्हारे जाने से क्या होगा? तुम वहां करोगे क्या?”
“ये तो देखना पड़ेगा।”
“मैं बता देता हूं. . .तुम शायद मुझसे ज्यादा जानते हो. . .”कास्ट पॉलीटिक्स” है जिसमें तुम “मिसफिट” होगे. . .”क्रिमनल पॉलीटिक्स” है जिसमें तुम चल नहीं पाओगे. . .लोगों या समाज की भलाई के लिए अगर तुमने कुछ करना भी शुरू किया तो ज़िले के “पावरफुल” लोग तुम्हें भगा देंगे या “इनएक्टिव” कर देंगे।”
“यही तो देखना है।”
“बड़ी खुशी से देखो”, वह जलकर बोला।
अहमद चुप हो गया। पीने लगा।
“और “ये”, वह विस्की के गिलास की तरफ इशारा करके बोला “जो तुम्हारी आदतें हैं उनका क्या होगा? मुसलमान तुम्हें छोड़ेंगे?”
“विस्की छोड़ दूंगा”, मैंने कहा।
“साले. . .” वह हंसा। पीते-पीते बूढ़े हो गये. . .अब विस्की छोड़ोगे।
गिलास मेज़ पर रखकर वह बोला “तुम जाओगे कहीं नहीं. . सोच-सोचकर खुश होते रहो. . .तुम्हारी हालत ये है कि कमरे में एक मच्छर हो तो तुम सो नहीं सकते. .. घर में एक छिपकली आ जाये तो तूफान खड़ा कर देते हो. . .तुम. . .”
मैं उसकी बात काटकर बोला “मैंने जितने गांव. . .बीहड़ गांव देखे हैं जैसी जिंदगी गुजारी है. . .उसकी तुम. . .”
वह भी मेरी बात काटकर बोला “बीस साल पहले. . .बीस साल पहले. . .और वक्त का डण्डा सब पर चलता है।”
“चलो ठीक है देखा जायेगा”, मैंने कहा।
“यार शकील नहीं आया अभी तक”, अहमद घड़ी देखते हुए बोला।
“आज ही क्षेत्र से आया है. . . “सोनाबाथ” ले रहा होगा।”
अहमद हंसने लगा।
थोड़ी देर बाद शकील आ गया उसके चेहरे पर तनाव की गहरी लकीरें थी, आते ही उसने एक विसकी गटक ली और कुर्सी की पीठ से टिक कर बैठ गया।
-”क्या बात है. . . लगता है कुछ खास हुआ है।”
“हाँ . . . मैं चुनाव में खड़े होने का फैसला कर लिया है. . . सबके यानी बीबी, कमाल, रिश्तेदारों के मना करने के बावजूद।”
“ये क्यों?”
“चौथी बार पार्लियामेण्ट में जाऊंगा . . . और “फारेनग्या होय” पर क्लेम होगा मेरा।”
“और तुम्हारा विरोधी हाजी पाटा?”
-”मेरी जान को खतरा हाजी पाटा की तरफ से था. . . उससे मैंने समझौता कर लिया है।”
“क्या?
“बताऊंगा नहीं।
“हमसे भी नहीं?
“यार बी. एस. एफ उस पर उतनी सख्ती नहीं करेगी समझे?”
“हाँ, “
वह हंसने लगा।
“साहबज़ादा कमाल को कहाँ सेट किया? “ अहमद ने पूछा।
“राज्यसभा ।”
—
मैं और शकील हैरत की मूर्ति बने बैठे थे। हमारे हाथ में अहमद और शूजा की शादी के कार्ड थे। हमने कई बार कार्ड पढ़ा था। सब कुछ बिल्कुल साफ और दो टूक शब्दों में लिखा था। सिविल मैरिज रजिस्टर पर दोनों दस्तखत करेंगे। शाम को रेसेप्शन है।
“तुमने अहमद से बात की है? ये सब हुआ कैसे?” शकील ने पूछा।
“अभी आ रहा है. . .कुछ समझ में नहीं आता।”
“भई ये बर्बाद हो जायेगा. . .शादी पर तैयार ही क्यों हुआ?”
“हमें तुम्हें शायद मालूम नहीं कि इसके पीछे क्या है। वही बतायेगा. . .आने दो।”
“शादी का कार्ड दोनों के नाम से छपा है”, शकील ने कहा।
“हां”
“मतलब दोनों ही तैयार हैं. . .”
“कुछ कह नहीं सकते. . .मैंने कहा।”
“लेकिन ये होगा बहुत बुरा।”
कुछ देर बाद अहमद आ गया। उसके चेहरे का उड़ा हुआ रंग देखकर ही हम समझ गये कि मामला संगीन है।
“ये कार्ड कैसे हैं यार?”
वह कुछ नहीं बोला। शायद सांस दुरूस्त कर रहा था।
“ये सब क्या है?”
“तुमने तो कार्ड देखा होगा?”
“हां, दो घण्टे पहले देखा।” अहमद बोला।
“दो घण्टे? मतलब?”
“शूजा ने छपवा लिए थे।”
“तुम्हारी मर्जी के बग़ैर?”
“हां।”
“ये कैसे हो सकता है?”
“तो अब होगा क्या? तुम शादी करोगे?”
“मैं करना तो नहीं चाहता. . .किसी कीमत पर नहीं चाहता था लेकिन लगता है अब करनी पड़ेगी”, अहमद हताशा से बोला।
“क्यों?”
“क्या मजबूरी है?”
“शूजा कहती है वह मेरे बच्चे की मां बनने वाली है।”
हम दोनों कुर्सियों से उछल पड़े।
“नहीं।”
“हां”, अहमद बोला।
“हो सकता है, झूठ बोल रही हो।”
“मेडिकल रिपोर्ट दिखाती है।”
“तो “एबारशन” नहीं कराएगी।”
“कहती है एबारशन नहीं कराएगी।”
“क्यों?”
“बस. . .उसे बच्चा चाहिए।”
“ये बताओ यार. . .”प्रीकाशन्स” तो तुम लेते होंगे न? ये बच्चा कहां से ठहर गया?” मैंने पूछा।
“भई वही “पिल्स” लेती थी. . .अब मुझे क्या पता चलता कि उसने कब “पिल्स” लेनी बंद कर दी है या ले रही है।”
“ये तो बड़ी सोची समझी “स्कीम” लगती है”, शकील ने कहा।
“तो अब क्या करोगे?”
“लगता है शादी करना ही पड़ेगी।”
“क्यों?”
“कल रातभर हम इसी बात पर लड़ते रहे. . .सुबह होते-होते उसने बताया कि वह “प्रेगनेण्ट” है. . .सुबह आठ बजे उसने फोन करके अपने वकील पी. राधास्वामी को बुला लिया।”
“ओहो. . .बड़े टॉप के वकील को बुलाया।”
“कहते हैं किसी ज़माने में शूजा उनकी गर्लफ्रेण्ड हुआ करती थी”, अहमद बोला।
“फिर क्या हुआ।”
“राधा स्वामी ने मुझसे कहा कि मैं अगर शूजा के साथ शादी करने से इंकार करता हूं तो वह केस कर देगी . . .एफ.आई.आर. दर्ज करा देगी, विमेन कमीशन में चली जायेगी. . .और मुझे न सिर्फ नौकरी से निकाल दिया जायेगा बल्कि गिरफ्तार भी हो जाऊंगा. . .केस चलेगा, ज़ाहिर है मीडिया इसमें पूरी दिलचस्पी लेगा और मैं कहीं का न रहूंगा, अभी चार साल नौकरी के बचे हैं”, अहमद कहते-कहते हांफने लगा। उसके चेहरे पर पसीने की बूंदे उभर आयी। रुपहले घुंघरियाले बाल तितर-बितर हो गये।
“मतलब तुम्हें पूरी तरह. . “
वह बात काटकर बोला “राधास्वामी के जाने के बाद शूजा ने मुझे शादी का कार्ड दिखाया।”
“ओ गॉड. . .”
“क्या औरत है यार।”
“अब?”
“अब दो ही रास्ते हैं”, वह बोला।
“क्या?”
“शादी कर लूं या “सुसाइड” कर लूं”, वह जैसे सपने में बोला।
“ये क्या बेवकूफी की बातें कर रहे हो?”
“नहीं ये सच है. . .वैसे दोनों ही सूरतों में मैं “सुसाइड” ही करूंगा।”
“नहीं यार. . .तुम. . .”, मैंने सांत्वना देनी चाही पर शब्द नहीं मिले।
शकील सोचते हुए बोला “देखो अभी तो शायद कुछ नहीं किया जा सकता. . .पी. राधास्वामी ने तुमसे ठीक ही कहा है. . .दरअसल तुम्हें या हम लोगों को भी ये अंदाज़ा नहीं था कि शूजा ऐसी होगी और तुम्हें फांसने के लिए “क्रिमनल” तरीके इस्तेमाल करेगी. . .लेकिन अब तो
तुम्हें मैरिज रजिस्टर पर दस्तख़्त करने ही पड़ेंगे।”
“हूं तुम ठीक कहते हो”, अहमद भरी हुई आवाज में बोला।
—
मेरी नयी-नयी शादी हुई थी। तन्नो तीसरी या चौथी बार मल्लू मंज़िल आई थी। वैसे ही बातों-बातों में तन्नो ने कहा था कि उसने कभी गांव नहीं देखे हैं। गांव देखना चाहती है। ये बड़ा आसान था कि उसे केसरियापुर ले जाते और दिखा देते, पर मैंने सोचा, नहीं केसरियापुर नहीं बल्कि यमुना के किनारे किसी बहुत बीहड़ और पिछड़े हुए गांव में ले जाना चाहिए तब उसे पता चलेगा कि गांव कैसे होते हैं।
कामरेड राम सिंह से बात की तो उन्होंने रघुपुरा का नाम बताया यह उन्हीं का गांव है जो यमुना के कछार में है। चारों तरफ खाइयां हैं। बबूल के घने जंगल हैं और पास यमुना बहती है।
तन्नो के साथ एक दो रिश्तेदार लड़कियां और तैयार हो गयी थी। एक दो स्थानीय पत्रकार भी टोली में शामिल हो गये थे। उन दिनों मुझे फोटोग्राफी का शौक था और कैमरा हर जगह जाता था।
जहां तब बस जाती थी वहां तक हम सब बस से गये थे उसके बाद एक टैम्पो किया था लेकिन बताया गया था कि वह भी गांव तक नहीं पहुंच पायेगा और कम से कम चार-पांच किलोमीटर का फासला पैदल तय करना पड़ेगा। भड़भड़ाते हुए टेम्पों में धूल खाते हम एक सीधी चढ़ाई के सामने उतर गये थे। सब धूल में नहा चुके थे। यहां से पैदल यात्रा शुरू हुई थी। धूप तेज़ थी और तन्नो का चेहरा बिल्कुल लाल हो गया था। घण्टेभर बाद हम गांव पहुंचे थे। वहां चौपाल जैसी जगह में, घने पेड़ों के नीचे करीब पचास-साठ लोग जमा थे। कामरेड राम सिंह ने बताया था कि ये लोग आपका स्वागत करने और मिलने के लिए बैठे हैं।
इनके चेहरों से लगा कि शताब्दियों पुराने हैं। इनकी आंखों में जो उदासी, दुख और भय है उसका एक पूरा इतिहास है। इनके जर्जर शरीर लोहे के जैसे तपे हुए शिलाखण्ड हैं। वह धैर्य से बैठे थे। पता नहीं उनके
मन में क्या था जो बाहर नहीं आ पा रहा था।
हाथ मुंह धोने के बाद हम सब भी वहां बैठ गये थे। कामरेड राम सिंह ने सबका परिचय कराया था। पता नहीं किस तरह गाने का कार्यक्रम शुरू हो गया था। एक लोकगीत सुनाया था किसी ने। उसके बाद बारी-बारी सबने गाया। तन्नो ने एक अंग्रेज़ी गीत सुनाया था। कुछ हंसी मज़ाक भी हुआ था।
तन्नो और दूसरी लड़कियां घरों को अंदर से देखने और औरतों से मिलने चली गयी थीं। हम बाहर ही चारपाइयों पर लेट गये थे। दो-तीन घंटे के अंदर सभा बिखर गयी थी। कामरेड के साथियों ने दरी बिछाकर खाना लगा दिया था लेकिन तन्नो वग़ैरा का पता न था। उन्हें शायद औरतों से बातें करने, घर देखने, चूल्हा चक्की की जांच पड़ताल में मज़ा आ रहा था। यहां भूख के मारे दम निकला जा रहा था।
खाना खाने के बाद तन्नो और लड़कियां फिर गांव के घर देखने चली गयी थी। हम लोग झपकी लेने के मूड़ में थे क्योंकि कामरेड ने जैसी स्वादिष्ट अरहर की दाल खिलाई थी उसके बाद नींद ही आनी थी। घने नीम के पेड़ों के नीचे जहां निमकौलियां गिर रही थीं और पंछी बोल रहे थे। हम लेटे रहे। दोपहर ढलने के बाद वापसी का प्रोग्राम था। फिर पदयात्रा के बाद टेम्पो के पास पहुंचे और आखिरकार वापस आ गये।
इस घटना के तीन साल बाद अचानक कामरेड राम सिंह से मुलाकात हुई थी। उन्होंने इधर-उधर की बातचीत के बाद कहा था कि जानते हैं आप लोगों के हमारे गांव जाने से क्या हुआ?
उनके सवाल पर मुझे हैरत हुई। क्या हो सकता है? हम काफी पिकनिक वाले अंदाज़ में गये थे। एक दिन रहे, गाया-बजाया, खाया-पिया, सोये और शाम को चले आये। हमारे जाने से वहां क्या हुआ होगा। लेकिन शिष्टतावश मैंने कामरेड से पूछा “क्या हुआ?”
उन्होंने हंसते हुए कहा “दो बार मैं ग्राम प्रधान का चुनाव हार चुका था। आप लोगों के गांव जाने के बाद पहली बार मैं चुनाव जीत गया। गांव वालों का कहना था, कोई हमारे गांव में आया तो. . .किसी ने हमारी हालत देखी तो. . .किसी ने हमसे बातचीत तो की. . .किसी
को पता तो चला कि हमारी क्या दिक्कतें हैं. . .और चूंकि यह मेरे माध्यम से हुआ था इसलिए मुझे वोट मिले।”
उस समय तो नहीं पड़ा था लेकिन सपने में मैं सकते में पड़ गया। यार ये हालत है. . .उपेक्षा से जन्मी निराशा यहां तक आ गयी. . .बताया गया था कि उस गांव में आज तक कोई सरकारी अधिकारी नहीं आया है। पटवारी भी पूछताछ कर के काग़़ज भर देता है. . .जिस गांव में कभी कोई जाता ही न हो वहां किसी का जाना कितनी बड़ी घटना है. . .किसी ने देखा तो. . .मतलब काम हुआ या नहीं हुआ। इसकी शिकायत और शिकवा नहीं है. . .खुशी केवल यह है कि किसी ने हमारे घर तो देखे . . .हमारी ख़बर तो ली. . .हमें पूछा तो. . .यही इतनी बड़ी बात है कि कामरेड राम सिंह चुनाव जीत गये. . .हां. . .संवाद तो स्थापित हुआ . . .हां गये तो. . .सिर्फ गये और देखा. . .यही से शुरुआत होती है . . .और इसी शुरुआत की ज़रूरत है. . .बाकी चीज़ें तो बाद की हैं . . .केवल जाना और देखना. . .
देखना बहुत बड़ी चीज़ है. . .आंखों के अंदर देखना. . .आंखों चार होना. . .आंखों से ही सब पता चल जाता है, देखने के बाद पूछने की तो ज़रूरत ही नहीं बचती. . .न कुछ बताने को बचता है. . .और यही लोग चाहते हैं. . .और मैं भी शायद पूरी जिंदगी यही चाहता था लेकिन समझ नहीं पाया था कि क्या चाहता हूं. . .मैं दरअसल भटकता रहा और बड़े-बड़े शब्द मुझे भटकाते रहे. . .मैंने यह सोचा भी नहीं कि ये शब्द मेरे नहीं हैं. . .ये शब्द मेरे अंदर से नहीं निकले हैं और हमारे सामने जो लोग हैं उनके लिए ये शब्द परिचित नहीं हैं. . .
तो सबसे पहले तो जाना है और देखना है उन लोगों को देखना है जिन्हें कोई नहीं देखता। जब कोई देखता नहीं तो कोई जानता भी नहीं और कुछ होता भी नहीं. . .उन लोगों में ऐसा कुछ है नहीं कि वे अपनी तरफ आकर्षित करें। उनके पास ज़िंदगी का एक ऐसा ताप है जहां चेहरों के रंग काले पड़ जाते हैं, जहां माथे और ऐड़ी का पसीना एक हो जाता है. . .पर उसे देखता ही कौन है? हम अखबार वाले, मीडिया वाले, प्रशासन वाले, राजनीति वाले, हम लोग नहीं देखते, हम चाहते हैं. . .हम अपनी-अपनी कहानी की तलाश में जाते हैं और ले आते हैं. . .उनकी कहानी वही रह जाती है. . .ज्यादातर लोगों को उसमें दिलचस्पी भी नहीं है. . .उनकी कहानी अधूरी है, टूटी-फूटी है, उसे कीड़े खा चुके हैं, पाला पड़ चुका है पर है उनकी ही।
मुझे वे सब आंखें याद आने लगीं। जो मैंने पिछले आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में देखी थी। उन लड़के की आंखें भी याद आयीं जो नर्मदा के किनारे अपने जानवर चरा रहा था। इस लड़के की आँखें मैं देखता रह गया था। वे आदमी की आँखें नहीं लग रही थी। बिल्कुल एक छोटे मेमने जैसे आँखे थी। उस लड़की की याद आई जिसके शरीर पर नदी का दूषित पानी पीने से विचित्र प्रकार की खुजली हो गयी थी। यमुना के कछार में बसे गांव के हलवाहों की आंखें याद आयीं. . .
मैं बिस्तर से उठकर खिड़की पर आ गया। खिड़की के पट खोल दिये। हवा का तेज़ झोंका अंदर आ गया। लगा ये सिर्फ हवा नहीं है। हवा के साथ और बहुत कुछ शामिल है। ऊपर आसमान की तरफ देखा। आसमान रंग बदल रहा है उसका नीला रंग धीरे-धीरे चमकते हुए सुनहरे रंग का हो गया. . .यहां से वहां तक हर चीज़ उस रौशनी में सुनहरी हो गयी। आकाश पर उड़ते हुए परिंदे और हवा में झूमते विशाल पेड़ उसी रंग के हो गये और फिर एक तेज़ बिजली कड़की जैसे आसमान फट पड़ा हो. . .बाहर देखा तो आकाश का रंग फिर बदल रहा है अब वह हरे रंग का हो रहा है जैसे धन और गेहूं के खेत. . .नदियों का पानी भी हरा हो गया है और अपार जनसमुदाय खड़ा विशाल विराट समुद्र को देख रहा है, समुद्र का रंग का भी हरा हो गया है और उसमें याक़ूत के रंग की मछलियाँ चक्कर लगा रही हैं. . .हवा का एक तेज़ झोंका आया और खिड़की के पल्ले उड़कर बाहर निकल गये और हवा में स्थापित हो गये। मैंने आकाश की तरफ देखा तो हरी किरनें बारिश के बूँदों की तरह गिरने लगीं।
अचानक फिर धन गरज हुई और लगा जैसे धरती के सीने को वर्षा का पानी तर कर देगा. . .लगातार गर्जना होती रही जिसका स्वर मानव गर्जन से मिल गया. . .उसके बाद मोटी-मोटी बूंदें पड़ने लगीं। मैंने खिड़की के चौखटे पर हाथ रखकर कहा, “गुलशन बाहर आ जाओ, बाहर आओ।” आकाश से मूसलाधार बारिश शुरू हो चुकी थी यह वह बारिश नहीं है जिसे वैज्ञानिक “फोरकास्ट” करते हैं। यह वह बारिश भी नहीं है जिससे बाढ़ आ जाती है. . .गांव डूब जाते हैं, फसलें बर्बाद हो जाती हैं. . .पूरे शहर पर आकाश से बारिश हो रही है। शहर कभी एक रंग में डूब जाता है, कभी किसी दूसरे रंग में नहा जाता है। पूरा शहर, विशाल अट्टालिकाएं झिलमिला रही है। मैंने गुलशन से कहा, “चलो, बाहर निकलो. . .हम लोग जा रहे हैं।”
“कहां जा रहे हैं हम लोग।”
“हम मल्लू मंजिल जा रहे हैं. . .हम केसरियापुर जा रहे हैं।”
“हम वहां क्यों जा रहे हैं।”
“हमें नहीं मालूम. . .पर वहां जा रह हैं यही बड़ी बात है।”
“हम वहां क्या करेंगे?”
“हम वहां देखेंगे।”
गर्जन और तेज़ हो गया। लगातार तूफानी बारिश ने एक नया मोड़ ले लिया। लगा कि बारिश आकाश से नहीं ज़मीन से हो रही है।
“क्या-क्या सामान जायेगा?”
“कुछ नहीं जायेगा. . .वहां सब कुछ है. . .वहां बॉस के पलंग है। लकड़ी के तख़्त हैं। रक्सीन की कुर्सियां हैं, बेंत के मोढ़े हैं. . .वहां सब है. . .जो नहीं वह बन जायेगा।
पानी बरसने की रफ्तार और तेज़ हो गयी। तेज़ हवा के साथ पानी इधर से उधर पंचरंगी लहरों में उड़ने लगा। बौछार से मन तक भीग गया। पानी ने अंतरात्मा को तर कर दिया। पानी ही पानी दिखाई पड़ने लगा। हर तरफ पानी. . .गुलशन तैयारी करने लगा. . .हवा में झूलती खिड़की मेरी तरफ आ गयी। उस पर एक तोता बैठ गया है. . .तोते की चोंच लाल है और उसने चोंच में एक ललगुदिया अमरूद दबा रखा है।
फिर ज़ोर से बादल कड़के और ज़मीन से बारिश का सोता फूट पड़ा।
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(समाप्त)