आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 12 – प्रेमचंद

आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार – अनुवादक Part 12 – प्रेमचंद

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 106

आजाद सुरैया बेगम की तलाश में निकले तो क्या देखते हैं कि एक बाग में कुछ लोग एक रईस की सोहबत में बैठे गपें उड़ा रहे हैं। आजाद ने समझा, शायद इन लोगों से सुरैया बेगम के नवाब साहब का कुछ पता चले। आहिस्ता-आहिस्ता उनके करीब गए। आजाद को देखते ही वह रईस चौंक कर खड़ा हो गया और उनकी तरफ देख कर बोला – वल्लाह, आपसे मिलने का बहुत शौक था। शुक्र है कि घर बैठे मुराद पूरी हुई। फर्माइए, आपकी क्या खिदमत करूँ?

मुसाहब – हुजूर, जंडैल साहब को कोई ऐस चीज पिलाइए कि रूह तक ताजा हो जाय।

खाँ साहब – मुझे पारसाल सबलवायु का मरज हो गया था। दो महीने डाक्टर का इलाज हुआ। खाक फायदा न हुआ। बीस दिन तक हकीम साहब ने नुस्खे पिलाए, मरज और भी बढ़ गया। पड़ोस में एक बैदराज रहते हैं उन्होंने कहा मैं दो दिन में अच्छा कर दूँगा। दस दिन तक उनका इलाज रहा, मगर कुछ फायदा न हुआ। आखिर एक दोस्त ने कहा – भाई, तुम सबकी दवा छोड़ दो, जो हम कहें वह करो। बस हुजूर, दो बार बरांडी पिलाई। दो छटाँक शाम को, दो छटाँक सुबह को, उसका यह असर हुआ कि चौथे दिन में बिलकुल चंगा हो गया।

रईस – बरांडी के बड़े-बड़े फायदे लिखे हैं।

दीवान – सरकार, पेशाब के मरज में तो बरांडी अकसीर है। जितनी देते जाइए उतना ही फायदा करती है!

खाँ साहब – हुजूर, आँखों देखी कहता हूँ। एक सवार को मिर्गी आती थी, सैकड़ों इलाज किए, कुछ असर न हुआ, आखिर एक आदमी ने कहा, हुजूर हुक्म दें तो एक दवा बताऊँ। दावा करके कहता हूँ कि कल ही मिर्गी न रहे। खुदावंद, दो छटाँक शराब लीजिए और उसमें उसका दूना पानी मिलाइए, अगर एक दिन में फायदा न हो तो जो चोर की सजा वह मेरी सजा।

नवाब – यह सिफत है इसमें!

मुसाहब – हुजूर, गँवारों ने इसे झूठ-मूठ बदनाम कर दिया है। क्यों जंडैल साहब, आपको कभी इत्तफाक हुआ है?

आजाद – वाह, क्या मैं मुसलमान नहीं हूँ।

नवाब – क्या खूब जवाब दिया है, सुभान-अल्लाह!

इतने में मुसाहब जिनको औरों ने सिखा-पढ़ा कर भेजा था, चुगा पहने और अमाम बाँधे आ पहुँचे। लोगों ने बड़े तपाक से उनकी ताजीम की और बुला कर बैठाया।

नवाब – कैसे मिजाज है मौलाना साहब?

मौलाना – खुदा का शुक्र है।

मुसाहब – क्यों मौलाना साहब, आपके खयाल में शराब हलाल है या हराम?

मौलाना – अगर तुम्हारा दिल साफ नहीं तो हजार बार हज करो कोई फायदा नहीं। हर एक चीज नीयत के लिहाज से हलाल या हराम होती है।

आजाद – जनाब, हमने हर किस्म के आदमी देखे। किसी सोहबत से परहेज नहीं किया, आप लोग शौक से पिएँ, मेरा कुछ खयाल न करें।

नवाब – नीयत की सफाई इसी को कहते हैं। हजरत आजाद, आपकी जितनी तारीफ सुनी थी, उससे कहीं बढ़ कर पाया।

एक साहब नीचे से शराब, सोडा की बोतलें और बर्फ लाए और दौर चलने लगे। जब सरूर जमा तो गपें उड़ने लगीं –

खाँ साहब – खुदावंद, एक बार नेपाल की तराई में जाने का इत्तफाक हुआ। चौदह आदमी साथ थे, वहाँ जंगल में शहद कसरत से है और शहद की मक्खियों की अजब खासियत है कि बदन पर जहाँ कहीं बैठती हैं, दर्द होने लगता है। मैंने वहाँ के बाशिंदों से पूछा, क्यों भाई, इसकी कुछ दवा है? कहा, इसकी दवा शराब है। हमारे साथियों में कई ब्राह्मण भी थे वह शराब को छू न सकते थे। हमने दवा के तौर पर पी, हमारा दर्द तो जाता रहा और वह सब अभी तक झींक रहे हैं।

नवाब – वल्लाह, इसके फायदे बड़े-बड़े हैं, मगर हराम है, अगर हलाल होती तो क्या कहना था।

मुसाहब – खुदावंद, अब तो सब हलाल है।

खाँ साहब – खुदावंद, हैजे की दवा, पेचिस की दवा, बवासीर की दवा, दम की दवा, यहाँ तक कि मौत की भी दवा।

दीवान – ओ-हो-हो, मौत की दवा!

नवाब – खबरदार, सब के सब खामोश, बस कह दिया।

दीवान – खामोश! खामोश!

खाँ साहब – तप की दवा, सिर-दर्द की दवा, बुढ़ापे की दवा।

नवाब – यह तुम लोग बहकते क्यों हो? हमने भी तो पी है। हजरत, मुझे एक औरत ने नसीहत की थी। तबसे क्या मजाल कि मेरी जबान से एक बेहूदा बात भी निकले। (चपरासी को बुला कर) रमजानी, तुम खाँ साहब और दीवान जी को यहाँ से ले जाओ।

दीवान – इल्म की कसम, अगर इतनी गुस्ताखी हमारी शान में करोगे तो हमसे जूती-पैजार हो जायगी।

नवाब – कोई है? जो लोग बहक रहे हों उन्हें दरबार से निकाल दो और फिर भूल के भी न आने देना।

लाला – अभी निकाल दो सबको!

यह कह कर लाला साहब ने रमजान खाँ पर टीप जमाई। वह पठान आदमी, टीप पड़ते ही आग हो गया। लाला साहब के पट्टे पकड़ कर दो-चार धपें जोर-जोर से लगा बैठा। इस पर दो-चार आदमी और इधर-उधर से उठे। लप्पा-डुग्गी होने लगी। आजाद ने नवाब साहब से कहा – मैं तो रुखसत होता हूँ। नवाब साहब ने आजाद का हाथ पकड़ लिया और बाग में ला कर बोले – हजरत, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ कि न पाजियों की वजह से आपको तकलीफ हुई। क्या कहें, उस औरत ने हमें वह नसीहत की थी कि अगर हम आदमी होते तो सारी उम्र आराम के साथ बसर करते। मगर इन मुसाहबों से खुदा समझे; हमें फिर घेर-घारके फंदे में फाँस लिया।

आजाद – तो जनाब, ऐसे अदना नौकरों को इतना मुँह चढ़ाना हरगिज मुनासिब नहीं।

नवाब – भाई साहब, यही बातें उस औरत ने भी समझाई थीं।

आजाद – आखिर वह औरत कौन थी और आपसे उससे क्या ताल्लुक था?

नवाब – हजरत, अर्ज किया न कि एक दिन दोस्तों के साथ एक बाग में बैठा था कि एक औरत सफेद दुलाई ओढ़े निकली। दो चार बिगड़े दिलों ने उसे चकमा दे कर बुलाया। वह बेतकल्लुफी के साथ आ कर बैठी तो मुझसे बातचीत होने लगी। उसका नाम अलारक्खी था।

अलारक्खी का नाम सुनते ही आजाद ने ऐसा मुँह बना लिया गोया कुछ जानते ही नहीं, मगर दिल में सोचे कि वाह री अलारक्खी, जहाँ जाओ, उसके जानने वाले निकल ही आते हैं। कुछ देर बाद नवाब नशे में चूर हो ही गए और आजाद बाहर निकले तो पुराने जान-पहचान के आदमी से मुलाकात हो गई। आजाद ने पूछा – कहिए हजरत, आजकल आप कहाँ हैं?

आदमी – आजकल तो नवाब वाजिद हुसैन की खिदमत में हूँ। हुजूर तो खैरियत से रहे। हुजूर का नाम तो सारी दुनिया में रोशन हो गया।

आजाद – भाई, जब जानें कि एक बार सुरैया बेगम से दो-दो बातें करा दो।

आदमी – कोशिश करूँगा हुजूर, किसी न किसी हीले से वहाँ तक आपका पैगाम पहुँचा दूँगा।

यह मामला ठीक-ठाक करके आजाद होटल में गए तो देखा कि खोजी बड़ी शान से बैठे गपें उड़ा रहे हें और दोनों परियाँ उनकी बातें सुन-सुन कर खिलखिला रही हैं।

क्लारिसा – तुम अपनी बीवी से मिले, बड़ी खुश हुई होंगी।

खोजी – जी हाँ, महल्ले में पहुँचते ही मारे खुशी के लोगों ने तालियाँ बजाईं। लौंडों ने ढेले मार-मार कर गुल मचाया कि आए-आए। अब कोई गले मिलता है, कोई मारे मुहब्बत के उठाके दे मारता है। सारा महल्ला कह रहा है तुमने तो रूम में वह काम किया कि झंडे गाड़ दिए। घर में जो खबर हुई तो लौंडी ने आ कर सलाम किया। हुजूर आइए, बेगम साहब बड़ी देर से इंतजार कर रही हैं। मैंने कहा, क्योंकर चलूँ? जब यह इतने भूत छोड़ें भी। कोई इधर घसीट रहा है, कोई उधर और यहाँ जान अजाब में है।

मीडा – घर का हाल बयान करो। वहाँ क्या बातें हुई?

खोजी – दालान तक बीबी नंगे पाँव इस तरह दौड़ी आईं कि हाँफ गईं।

मीडा – नंगे पाँव क्यों? क्या तुम लोगों में जूता नहीं पहनते?

खोजी – पहनते क्यों नहीं; मगर जूता तो हाथ में था।

मीडा – हाथ से और जूते से क्या वास्ता?

खोजी – आप इन बातों को क्या समझें।

मीडा – तो आखिर कुछ कहोगे भी?

खोजी – इसका मतलब यह है कि मियाँ अंदर कदम रखें और हम खोपड़ी सुहला दें।

मीडा – क्या यह भी कोई रस्म है?

खोजी – यह सब अदाएँ हमने सिखाई हैं। इधर हम घर में घुसे, उधर बेगम साहब ने जूतियाँ लगाईं। अब हम छिपें तो कहाँ छिपें, कोई छोटा-मोटा आदमी हो तो इधर-उधर छिप रहे, हम यह डील-डौल लेके कहाँ जायँ?

क्लारिसा – सच तो है, कद क्या है ताड़ है!

मीडा – क्या तुम्हारी बीवी भी तुम्हारी ही तरह ऊँचे कद की हैं?

खोजी – जनाब, मुझसे पूरे दो हाथ ऊँची हैं। आ कर बोलीं, इतने दिनों के बाद आए तो क्या लाए हो? मैंने तमगा दिखा दिया तो खिल गईं। कहा, हमारे पास आजकल बाट न थे अब इससे तरकारी तौला करूँगी।

मीडा – क्या पत्थर का तमगा है? क्या खूब कदर की है।

क्लारिसा – और तुम्हें तमगा कब मिला?

खोजी – कहीं ऐसा कहना भी नहीं।

इतने में आजाद पाशा चुपके से आगे बढ़े और कहा – आदाब अर्ज है। आज तो आप खासे रईस बने हुए हैं?

खोजी – भाईजान, वह रंग जमाया कि अब खोजी ही खोजी हैं।

आजाद – भई, इस वक्त एक बड़ी फिक्र में हूँ। अलारक्खी का हाल तो जानते ही हो। आजकल वह नवाब वाजिद हुसैन के महल में है। उससे एक बार मिलने की धुन सवार है। बतलाओ, क्या तदबीर करूँ?

खोजी – अजी, यह लटके हमसे पूछो। यहाँ सारी जिंदगी यही किया किए हैं। किसी चूड़ीवाली को कुछ दे-दिला कर राजी कर लो।

आजाद के दिल में भी यह बात जम गई। जा कर एक चूड़ीवाली को बुला लाए।

आजाद – क्यों भलेमानस, तुम्हारी पैठ तो बड़े-बड़े घरों में होगी। अब यह बताओ कि हमारे भी काम आओगी? अगर कोई काम निकले तो कहें, वरना बेकार है।

चूड़ीवाली – अरे, तो कुछ मुँह से कहिएगा भी? आदमी का काम आदमी ही से तो निकलता है।

आजाद – नवाब वाजिद हुसैन को जानती हो?

चूड़ीवाली – अपना मतलब कहिए।

आजाद – बस उन्हीं के महल में एक पैगाम भेजना है।

चूड़ीवाली – आपका तो वहाँ गुजर नहीं हो सकता। हाँ, आपका पैगाम वहाँ तक पहुँचा दूँगी। मामला जोखिम का है, मगर आपके खातिर कर दूँगी।

आजाद – तुम सुरैया बेगम से इतना कह दो कि आजाद ने आपको सलाम कहा है।

चूड़ीवाली – आजाद आपका नाम है या किसी और का?

आजाद – किसी और के नाम या पैगाम से हमें क्या वास्ता। मेरी यह तसवीर ले लो, मौका मिले तो दिखा देना।

चूड़ीवाली ने तसवीर टोकरे में रखी और नवाब वाजिद हुसैन के घर चली। सुरैया बेगम कोठे पर बैठी दरिया की सैर कर रही थीं। चूड़ीवाली ने जा कर सलाम किया।

सुरैया – कोई अच्छी चीज लाई हो या खाली-खूली आई हो?

चूड़ीवाली – हुजूर, वह चीज लाई हूँ कि देख कर खुश हो जाइएगा; मगर इनाम भरपूर लूँगी।

सुरैया – क्या है, जरा देखूँ तो?

चूड़ीवाली ने बेगम साहब के हाथों में तसवीर रख दी। देखते ही चौंक के बोलीं – सच बताना कहाँ पाई?

चूड़ीवाली – पहले यह बतलाइए कि यह कौन साहब हैं और आपसे कभी की जान-पहचान है कि नहीं?

सुरैया – बस यह न पूछो, यह बतलाओ कि तसवीर कहाँ पाई?

चूड़ीवाली – जिनकी यह तसवीर है, उनको आपको सामने लाऊँ तो क्या इनाम पाऊँ?

सुरैया – इस बारे में मैं कोई बातचीत करना नहीं चाहती। अगर वह खैरियत से लौट आए हैं तो खुश रहें और उनके दिल की मुरादें पूरी हों।

चूड़ीवाली – हुजूर, यह तसवीर उन्होंने मुझको दी। कहा, अगर मौका हो तो हम भी एक नजर देख लें।

सुरैया – कह देना कि आजाद, तुम्हारे लिए दिल से दुआ निकलती है, मगर पिछली बातों को जाने दो, हम पराए बस में हैं और मिलने में बदनामी है। हमारा दिल कितना ही साफ हो, मगर दुनिया को तो नहीं मालूम है, नवाब साहब को मालूम हो गया, तो उनका दिल कितना दुखेगा।

चूड़ीवाली – हुजूर, एक दफा मुखड़ा तो दिखा दीजिए; इन आँखों की कसम, बहुत तरस रहे हैं।

सुरैया – चाहे जो हो, जो बा खुदा को मंजूर थी, वह हुई और उसी में अब हमारी बेहतरी है। यह तसवीर यहीं छोड़ जाओ, मैं इसे छिपा कर रखूँगी।

चूड़ीवाली – तो हुजूर, क्या कह दूँ। साफ टका सा जवाब?

सुरैया – नहीं, तुम समझा कर कह देना कि तुम्हारे आने से जितनी खुशी हुई, उसका हाल खुदा ही जानता है। मगर अब तुम यहाँ नहीं आ सकते और न मैं ही कहीं जा सकती हूँ; और फिर अगर चोरी-छिपे एक दूसरे को देख भी लिया तो क्या फायदा। पिछली बातों को अब भूल जाना ही मुनासिब है। मेरे दिल में तुम्हारी बड़ी इज्जत है। पहल मैं तुमसे गरज की मुहब्बत करती थी, अब तुम्हारी पाक मुहब्बत करती हूँ। खुदा ने चाहा तो शादी के दिन हुस्नआरा बेगम के यहाँ मुलाकात होगी।

यह वही अलारक्खी हैं जो सराय में चमकती हुई निकलती थीं। आज उन्हें परदे और हया का इतना खयाल है। चूड़ीवाली ने जा कर यहाँ की सारी दास्तान आजाद को सुनाई। आजाद बेगम की पाकदामनी की घंटों तारीफ करते रहे। यह सुन कर उन्हें बड़ी तस्कीन हुई कि शादी के दिन वह हुस्नआरा बेगम के यहाँ जरूर आएँगी।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 107

मियाँ आजाद सैलानी तो थे ही, हुस्नआरा से मुलाकात करने के बदले कई दिन तक शहर में मटरगश्त करते रहे, गोया हुस्नआरा की याद ही नहीं रही। एक दिन सैर करते-करते वह एक बाग में पहुँचे और एक कुर्सी पर जा बैठे। एकाएक उनके कान में आवाज आई –

चले हम ऐ जुनूँ जब फस्ले गुल में सैर गुलशन को,
एवज फूलों के पत्थर में भरा गुलचीं ने दामन को।

समझ कर चाँद हमने यार तेरे रूए रौशन को;
कहा बाले को हाला और महे नौ ताके गरदन को।

जो वह तलवार खींचें तो मुकाबिल कर दूँ मैं दिल को;
लड़ाऊँ दोस्त से अपने मैं उस पहलू के दुश्मन को।

करूँ आहें तो मुँह को ढाँप कर वह शोख कहता है –
हवा से कुछ नहीं है डर चिरागे जेर दामन को।

तवाजा चाहते हो जाहिदो क्या बादःख्वारों से,
कहीं झुकते भी देखा है भला शीशे की गर्दन को।

आजाद के कान खड़े हुए कि यह कौन गा रहा है। इतने में एक खिड़की खुली और एक चाँद सी सूरत उनके सामने खड़ी नजर आई। मगर इत्तिफाक से उसकी नजर इन पर नहीं पड़ी। उसने अपना रंगीन हाथ माथे पर रख कर किसी हमजोली को पुकारा, तो आजाद ने यह शेर पढ़ा –

हाथ रखता है वह बुत अपनी भौहों पर इस तरह;
जैसे मेहराब पर अल्लाह लिखा होता है।

उस नाजनीन ने आवाज सुनते ही उन पर नजर डाली और दरीचा बंद कर लिया। दुपट्टे को जो हवा ने उड़ा दिया तो आधा खिड़की के इधर और आधा उधर। इस पर उस शोख ने झुँझला कर कहा, यह निगोड़ा दुपट्टा भी मेरा दुश्मन हुआ है।

आजाद – अल्लाह रे गजब, दुपट्टे पर भी गुस्सा आता है!

सनम – ऐ यह कौन बोला? लोगो, देखो तो, इस बाग में मरघट का मुर्दा कहाँ से आ गया?

सहेली – एक कहाँ, बहन, हाँ-हाँ, वह बैठा है, मैं तो डर गई।

सनम – अख्खाह, यह तो कोई सिड़ी सी मालूम होता है।

आजाद – या खुदा, यह आदमजाद हैं या कोहकाफ की परियाँ?

सनम – तुम यहाँ कहाँ से भटक के आ गए?

आजाद – भटकते कोई और होंगे हम तो अपनी मंजिल पर पहुँच गए।

सनम – मंजिल पर पहुँचना दिल्लगी नहीं है, अभी दिल्ली दूर है।

आजाद – यह कहाँ का दस्तूर है कि कोई जमीन पर हो, कोई आसमान पर? आप सवार, मैं पैदल, भला क्योंकर बने!

सनम – और सुनो, आप तो पेट से पाँव निकालने लगे, अब यहाँ से बोरियाँ बँधना उठाओ और चलता धंधा करो।

आजाद – इतना हुक्म दो कि करीब से दो-दो बातें कर लें।

सनम – वह काम क्यों करें जिसमें फसाद का डर है।

सहेली – ऐ बुला लो, भले आदमी मालूम होते हैं।(आजाद से) चले आइए साहब, चले आइए।

आजाद खुश-खुश उठे और कोठे पर जा पहुँचे।

सनम – वाह बहन, वाह, एक अजनबी को बुला लिया! तुम्हारी भी क्या बातें हैं।

आजाद – भई, हम भी आदमी हैं। आदमी को आदमी से इतना भागना न चाहिए।

सनम – हजरत, आपके भले ही के लिए कहती हूँ, यह बड़े जोखिम की जगह है। हाँ, अगर सिपाही आदमी हो तो तुम खुद ताड़ लोगे।

आजाद ने जो यह बातें सुनीं तो चक्कर में आए कि हिंदोस्तान से रूस तक हो आए और किसी ने चूँ तक न की, और यहाँ इस तरह की धमकी दी जाती है। सोचो कि अगर यह सुन कर यहाँ से भाग जाते है तो यह दोनों दिल में हँसेंगी और अगर ठहर जायँ तो आसार बुरे नजर आते हैं। बातों-बातों में उस नाजनीन से पूछा – यह क्या भेद है?

सनम – यह न पूछो भई, हमारा हाल बयान करने के काबिल नहीं।

आजाद – आखिर कुछ मालूम तो हो, तुम्हें यहाँ क्या तकलीफ है? मुझे तो कुछ दाल में काला जरूर मालूम होता है।

सनम – जनाब, यह जहन्नुम है और हमारी जैसी कितनी ही औरतें इस जहन्नुम में रहती हैं। यों कहिए कि हमीं से यह जहन्नुम आबाद है। एक कुंदन नामी बुढ़िया बरसों से यही पेशा करती है। खुदा जाने, इसने कितने घर तबाह किए। अगर मुझसे पूछो कि तेरे माँ-बाप कहाँ हैं, तो मैं क्या जवाब दूँ, मुझे इतना ही मालूम है कि एक बुढ़िया मुझे किसी गाँव से पकड़ लाई भी। मेरे माँ-बाप ने बहुत तलाश की, मगर इसने मुझे घर से निकलने न दिया। उस वक्त मेरा सिन चार-पाँच साल से ज्यादा न था।

आजाद – तो क्या यहाँ सब ऐसी ही जमा हैं?

सनम – यह जो मेरी सहेली हैं, किसी बड़े आदमी की बेटी हैं। कुंदन उनके यहाँ आने-जाने लगी और उन सबों से इस तरह की साँठ-गाँठ की कि औरतें इसे बुलाने लगीं। उनको क्या मालूम था कि कुंदन के यह हथकंडे हैं।

आजाद – भला कुंदन से मेरी मुलाकात हो तो उससे कैसी बातें करूँ!

सनम – वह इसका मौका ही न देगी कि तुम कहो। जो कुछ कहना होगा, वह खुद कह चलेगी। लेकिन जो तुमसे पूछे कि तुम यहाँ क्योंकर आए?

आजाद – मैं कह दूँगा कि तुम्हारा नाम सुन कर आया।

सनम – हाँ, इस तरकीब से बच जाओगे। जो हमें देखता है, समझता है कि यह बड़ी खुशनसीब हैं। पहनने के लिए अच्छे से अच्छे कपड़े, खाने के लिए अच्छे से अच्छे खाने, रहने के लिए बड़ी से बड़ी हवेलियाँ, दिल बहलाव के लिए हमजोलियाँ सब कुछ हैं; मगर दिल को खुशी और चैन नहीं। बड़ी खुशनसीब वे औरतें हैं जो एक मियाँ के साथ तमाम उम्र काट देती हैं। मगर हम बदनसीब औरतों के ऐसे नसीब कहाँ? उस बुढ़िया को खुदा गारत करे जिसने हमें कहीं का न रखा।

आजाद – मुझे यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ। मैंने तो यह समझा था कि यहाँ सब चैन ही चैन है, मगर अब मालूम हुआ कि मामला इसका उलटा है।

सनम – हजारों आदमियों से बातचीत होती है, मगर हमारे साथ शादी करने को कोई पतियाता ही नहीं। कुंदन से सब डरते हैं। शोहदे-लुच्चों की बात का एतबार क्या, दो-एक ने निकाह का वादा किया भी तो पूरा न किया।

यह कह कर वह नाजनीन रोने लगी।

आजाद ने समझाया कि दिल को ढारस दो और यहाँ से निकलने की हिकमत सोचो।

सनम – खुदा बड़ा कारसाज है, उसको काम करते देर नहीं लगती, मगर अपने गुनाहों को जब देखते हैं तो दिल गवाही नहीं देता कि हमें यहाँ से छुटकारा मिलेगा।

आजाद – मैं तो अपनी तरफ से जरूर कोशिश करूँगा।

सनम – तुम मर्दों की बात का एतबार करना फजूल है।

आजाद – वाह! क्या पाँचों उँगलियाँ बराबर होती हैं?

इतने में एक और हसीना आ कर खड़ी हो गई। इसका नाम नूरजान था। आजाद ने उससे कहा – तुम भी अपना कुछ हाल कहो। यहाँ कैसे आ फँसी?

नूर – मियाँ हमारा क्या हाल पूछते हो, हमें अपना हाल खुद ही नहीं मालूम। खुदा जाने, हिंदू के घर जन्म लिया या मुसलमान के घर पैदा हुई। इस मकान की मालिक एक बुढ़िया है, उसके कोटे का मंत्र नहीं, उसका यही पेशा है कि जिस तरह हो कमसिन और खूबसूरत लड़कियों को फुसला कर ले आए। सारा जमाना उसके हथकंडों को जानता है, मगर किसी से आज तक बंदोबस्त नहीं हो सका। अच्छे-अच्छे महाजन और व्यापारी उसके मकान पर माथा रगड़ते हें, बड़े-बड़े शरीफजादे उसका दम भरते हैं। शाहजादों तक के पास इसकी पहुँच हैं, सुनते थे कि बुरे काम का नतीजा बुरा होता है, मगर खुदा जाने, बुढ़िया को इन बुरे कामों की सजा क्यों नहीं मिलती? इस चुड़ैल ने खूब रुपए जमा किए हैं और इतना नाम कमाया है कि दूर-दूर तक मशहूर हो गई है।

आजाद – तुम सब की सब मिलकर भाग क्यों नहीं जातीं?

सनम – भाग जायँ तो फिर खायँ क्या, यह तो सोचो।

आजाद – इसने अपनी मक्कारी से इस कदर तुम सबको बेवकूफ बना रखा है।

सनम – बेवकूफ नहीं बनाया है, यह बात सही है, खाने भर का सहारा तो हो जाय।

आजाद – तुम्हारी आँख पर गफलत की पट्टी बाँध दी है। तुम इतना नहीं सोचतीं कि तुम्हारी बदौलत तो इसने इतना रुपया पैदा किया और तुम खाने को मुँहताज रहोगी? जो पसंद हो उसके साथ शादी कर लो और आराम से जिंदगी बसर करो।

सनम – यह सच है, मगर उसका रोब मारे डालता है।

आजाद – उफ् रे रोब, यह बुढ़िया भी देखने के काबिल है।

सनम – इस तरह की मीठी मीठी बातों करेगी कि तुम भी उसका कलमा पढ़ने लगोगे।

आजाद – अगर मुझे हुक्म दीजिए तो मैं कोशिश करूँ।

सनम – वाह, नेकी और पूछ-पूछ? आपका हमारे ऊपर बड़ा एहसान होगा। हमारी जिंदगी बरबाद हो रही है। हमें हर रोज गालियाँ देती है और हमारे माँ-बाप को कोसा करती है। गो उन्हें आँखों से नहीं देखा, मगर खून का जोश कहाँ जाय?

इस फिकरे से आजाद की आँखें भी डबडबा आईं, उन्होंने ठान ली कि इस बुढ़िया को जरूर सजा कराएँगे।

इतने में सहेली ने आ कर कहा – बुढ़िया आ गई है, धीरे-धीरे बातें करो।

आजाद ने सनम के कान में कुछ कह दिया और दोनों की दोनों चली गईं।

कुंदन – बेटा, आज एक और शिकार किया, मगर अभी बताएँगे नहीं। यह दरवाजे पर कौन खड़ा था?

सनम – कोई बहुत बड़े रईस हैं, आपसे मिलना चाहते हैं।

कुंदन ने फौरन आजाद को बुला भेजा और पूछा, किसके पास आए हो बेटा! क्या काम है?

आजाद – मैं खास आपके पास आया हूँ।

कुंदन – अच्छा बैठो। आजकल बे-फसल की बारिश से बड़ी तकलीफ होती है, अच्छी वह फसल कि हर चीज वक्त पर हो, बरसात हो तो मेंह बरसे, सर्दी के मौसम में सर्दी खूब हो और गर्मी में लू चले, मगर जहाँ कोई बात बे-मौसम की हुई और बीमारी पैदा हो गई।

आजाद – जी हाँ, कायदे की बात है।

कुंदन – और बेटा, हजार बात की एक बात है कि आदमी बुराई से बचे। आदमी को याद रखना चाहिए कि एक दिन उसको मुँह दिखाना है, जिसने उसे पैदा किया। बुरा आदमी किस मुँह से मुँह दिखाएगा?

आजाद – क्या अच्छी बात आपने कही है, है तो यही बात!

कुंदन – मैंने तमाम उम्र इसी में गुजारी कि लावारिस बच्चों की परवरिश करूँ, उनको खिलाऊँ-पिलाऊँ और अच्छी-अच्छी बातें सिखाऊँ। खुदा मुझे इसका बदला दे तो वाह-वाह, वरना और कुछ फायदा न सही, तो इतना फायदा तो है कि इन बेकसों की मेरी जात से परवरिश हुई।

आजाद – खुदा जरूर इसका सवाब देगा।

कुंदन – तुमने मेरा नाम किससे सुना?

आजाद – आपके नाम की खुशबू दूर-दूर तक फैली हुई है।

कुंदन – वाह, मैं तो कभी किसी से अपनी तारीफ ही नहीं करती। जो लड़कियाँ मैं पालती हूँ उनको बिलकुल अपने खास बेटों की तरह समझती हूँ। क्या मजाल कि जरा भी फर्क हो। जब देखा कि वह सयानी हुई तो उनको किसी अच्छे घर ब्याह दिया, मगर खूब देख-भालके। शादी मर्द और औरत की रजामंदी से होनी चाहिए।

आजाद – यही शादी के माने हैं।

कुंदन – तुम्हारी उम्र दराज हो बेटा, आदमी जो काम करे, अक्ल से, हर पहलू को देख-भालके।

आजाद – बगैर इसके मियाँ-बीवी में मुहब्बत नहीं हो सकती और यों जबरदस्ती की तो बात ही और है।

कुंदन – मेरा कायदा है कि जिस आदमी को पढ़ा-लिखा देखती हूँ उसके सिवा और किसी से नहीं ब्याहती और लड़की से पूछ लेती हूँ कि बेटा, अगर तुमको पसंद हो तो अच्छा, नहीं कुछ जबरदस्ती नहीं है।

यह कह कर उसने महरी को इशारा किया। आजाद ने इशारा करते तो देखा, मगर उनकी समझ में न आया कि इसके क्या माने हैं। महरी फौरन कोठे पर गई और थोड़ी ही देर में कोठे से गाने की आवाजें आने लगीं।

कुंदन – मैंने इन सबको गाना भी सिखाया है, गो यहाँ इसका रिवाज नहीं।

आजाद – तमाम दुनिया में औरतों को गाना-बजाना सिखाया जाता है।

कुंदन – हाँ, बस एक इस मुल्क में नहीं।

आजाद – यह तो तीन की आवाजें मालूम होती हैं, मगर इनमें से एक का गला बहुत साफ है।

कुंदन – एक तो उनका दिल बहलता है, दूसरे जो सुनता है, उसका भी दिल बहलता है।

आजाद – मगर आपने कुछ पढ़ाया भी है या नहीं?

कुंदन – देखो बुलवाती हूँ, मगर बेटा नीयत साफ रखनी चाहिए।

उस ठगों की बुढ़िया ने सबसे पहले नूर को बुलाया। वह लजाती हुई आई और बुढ़िया के पास इस तरह गरदन झुकाके बैठी जैसे कोई शरमीली दुलहिन।

आजाद – ऐ साहब, सिर ऊँचा करके बैठो, यह क्या बात है?

कुंदन – बेटा, अच्छी तरह बैठो सिर उठा कर। (आजाद से) हमारी सब लड़कियाँ शरमीली और हयादार हैं।

आजाद – यह आप ऊपर क्या गा रही थीं? हम भी कुछ सुनें।

कुंदन – बेटी नूर, वही गजल गाओ।

नूर – अम्माँजान, हमें शर्म आती है।

कुंदन – कहती है, हमें शर्म आती है, शर्म की क्या बात है, हमारी खातिर से गाओ।

नूर – (कुंदन के कान में) अम्माँजान, हमसे न गाया जायगा।

आजाद – यह नई बात है –

अकड़ता है क्या देख-देख आईना,
हसीं गरचे है तू पर इतना घमंड।

कुंदन – लो, इन्होंने गाके सुना दिया।

महरी – कहिए, हुजूर, दिल का परदा क्या कम है जो आप मारे शर्म के मुँह छिपाए हैं। ऐ बीवी, गरदन ऊँची करो, जिस दिन दुलहिन बनोगी, उस दिन इस तरह बैठना तो कुछ मुजायका नहीं है।

कुंदन – हाँ, बात तो यही है, और क्या?

आजाद – शुक्र है, आपने जरा गरदन तो उठाई –

बात सब ठीक-ठाक है, पर अभी

कुछ सवालो-जवाब बाकी है।

कुंदन – (हँस कर) अब तुम जानो और यह जानें।

आजाद – ऐ साहब, इधर देखिए।

नूर – अम्माँजान, अब हम यहाँ से जाते हैं।

कुंदन ने चुटकी ले कर कहा – कुछ बोलो जिसमें इनका भी दिल खुश हो, कुछ जवाब दो, यह क्या बात है।

नूर – अम्माँजान, किसको जवाब दूँ? न जान, न पहचान।

कुंदन इन कामों में आठों गाँठ कुम्मैत, किसी बहाने से हट गई। नूर ने भी बनावट के साथ चाहा कि चली जाय, इस पर कुंदन ने डाँट बताई – हैं-हैं, यह क्या, भले मानस हैं या कोई नीच कौम? शरीफों से इतना डर! आखिर नूर शर्मा कर बैठ गई। उधर कुंदन नजर से गायब हुई, इधर महरी भी चंपत।

आजाद – यह बुढ़िया तो एक ही काइयाँ है।

नूर – अभी देखते जाओ, यह अपने नजदीक तुमको उम्र भर के लिए गुलाम बनाए लेती है, जो हमने पहले से इसका हाल न बयान कर दिया होता तो तुम भी चंग पर चढ़ जाते।

आजाद – भला यह क्या बात है कि तुम उसके सामने इतना शरमाती रहीं?

नूर – हमको जो सिखाया है वह करते हैं, क्या करें?

आजाद – अच्छा, उन दोनों को क्यों न बुलाया?

नूर – देखते जाओ, सबको बुलाएगी।

इतने में महरी पान, इलायची और इत्र लेकर आई।

आजाद – महरी साहब, यह क्या अंधेर है? आदमी आदमी से बोलता है या नहीं?

महरी – ऐ बीबी, तुमने क्या बोलने की कसम खा ली है? ले अब हमसे तो बहुत न उड़ो। खुदा झूठ न बोलाए तो बातचीत तक नौबत आ चुकी होगी और हमारे सामने घूँघट कर लेती हैं।

आजाद – गरदन तक तो ऊँची नहीं करतीं, बोलना-चालना कैसा, या तो बनती हैं या अम्माँजान से डरती हैं।

महरी – वाह-वाह, हुजूर वाह, भला यह काहे से जान पड़ा कि बनती हैं? क्या यह नहीं हो सकता कि आँखों की हया के सबब से लजाती हों?

आजाद – वाह, आँखें कहे देती हैं कि नीयत कुछ और है।

नूर – खुदा की सँवार झूठे पर।

महरी – शाबाश, बस यह इसी बात की मुंतजिर थीं। मैं तो समझे ही बैठी थी कि जब यह जबान खोलेंगी, फिर बंद ही कर छोड़ेंगी।

नूर – हमें भी कोई गँवार समझा है क्या?

आजाद – वल्लाह, इस वक्त इनका त्योरी चढ़ाना अजब लुत्फ देता है। इनके जौहर तो अब खुले। इनकी अम्माँजान कहाँ चली गईं? जरा उनको बुलवाइए तो!

महरी – हुजूर, उनका कायदा है कि अगर दो दिल मिल जाते हैं तो फिर निकाह पढ़वा देती हैं, मगर मर्द भलामानस हो, चार पैसे पैदा करता हो। आप पर तो कुछ बहुत ही मिहरबान नजर आती हैं कि दो बातें होते ही उठ गईं, वरना महीनों जाँच हुआ करती है, आपकी शक्ल-सूरत से रियासत बरसती है।

नूर – वाह, अच्छी फबती कही, बेशक रिसायत बरसती है!

यह कह नूर ने आहिस्ता-आहिस्ता गाना शुरू किया।

आजाद – मैं तो इनकी आवाज पर आशिक हूँ।

नूर – खुदा की शान, आप क्या और आपकी कदरदानी क्या!

आजाद – दिल में तो खुश हुई होंगी, क्यों महरी?

महरी – अब यह आप जानें और वह जानें, हमसे क्या?

एकाएक नूर उठ कर चली गई। आजाद और महरी के सिवा वहाँ कोई न रहा, तब महरी ने आजाद से कहा – हुजूर ने मुझे पहचाना नहीं, और मैं हुजूर को देखते ही पहचान गई, आप सुरैया बेगम के यहाँ आया-जाया करते थे।

आजाद – हाँ, अब याद आया, बेशक मैंने तुमको उनके यहाँ देखा था। कहो, मालूम है कि अब वह कहाँ हैं?

महरी – हुजूर, अब वह वहाँ हैं जहाँ चिड़िया भी नहीं जा सकती; मगर कुछ इनाम दीजिए तो दिखा दूँ। दूर से ही बात-चीत होगी। एक रईस आजाद नाम के थे, उन्हीं के इश्क में जोगिन हो गईं। जब मालूम हुआ कि आजाद ने हुस्नआरा से शादी कर ली तो मजबूर हो कर एक नवाब से निकाह पढ़वा लिया। आजाद ने यह बहुत बुरा किया। जो अपने ऊपर जान दे, उसके साथ ऐसी बेवफाई न करनी चाहिए।

आजाद – हमने सुना है कि आजाद उन्हें भठियारी समझ कर निकल भागे।

महरी – अगर आप कुछ दिलवाएँ तो मैं बीड़ा उठाती हूँ कि एक नजर अच्छी तरह दिखा दूँगी।

आजाद – मंजूर, मगर बेईमानी की सनद नहीं।

महरी – क्या मजाल, इनाम पीछे दीजिएगा, पहले एक कौड़ी भी न लूँगी।

महरी ने आजाद से यहाँ का सारा कच्चा चिट्ठा कह सुनाया – मियाँ, यह बुढ़िया जितनी ऊपर है, उतनी ही नीचे है, इसके काटे का मंत्र नहीं। पर आजाद को सुरैया बेगम की धुन थी। पूछा – भला उनका मकान हम देख सकते हैं?

महरी – जी हाँ, यह क्या सामने है।

आजाद – और यह जितनी यहाँ हैं, सब इसी फैशन की होंगी?

महरी – किसी को चुरा लाई है, किसी को मोल लिया है, बस कुछ पूछिए न?

इतने में किसी ने सीटी बजाई और महरी फौरन उधर चली गई। थोड़ी ही देर में कुंदन आई और कहा – ऐं, यहाँ तुम बैठे हो, तोबा तोबा, मगर लड़कियों को (महरी को पुकार कर) क्या करूँ, इतनी शरमीली हैं कि जिसकी कोई हद ही नहीं। ऐ, उनको बुलाओ, कहो, यहाँ आकर बैठें। यह क्या बात है? जैसे कोई काटे खाता है!

यह सुनते ही सनम छम-छम करती हुई आई। आजाद ने देखा तो होश उड़ गए, इस मरतबा गजब का निखार था। आजाद अपने दिल में सोचे कि यह सूरत और यह पेशा! ठान ली कि किसी मौके पर जिले के हाकिम को जरूर लाएँगे और उनसे कहेंगे कि खुदा के लिए इन परियों को इस मक्कार औरत से बचाओ।

कुंदन ने सनम के हाथ में एक पंखा दे दिया और झेलने को कहा। फिर आजाद से बोली – अगर किसी चीज की जरूरत हो तो बयान कर दो।

आजाद – इस वक्त दिल वह मजे लूट रहा है जो बयान के बाहर है।

कुंदन – मेरे यहाँ सफाई का बहुत इंतजाम है।

आजाद – आपके कहने की जरूरत नहीं।

कुंदन – यह जितनी हैं सब एक से एक बढ़ी हुई हैं।

आजाद – इनके शौहर भी इन्हीं के से हों तो बात है।

कुंदन – इसमें किसी के सिखाने की जरूरत नहीं। मैं इनके लिए ऐसे लोगों को चुनूँगी जिनका कहीं सानी न हो। इनको खिलाया, पिलाया, गाना सिखाया, अब इन पर जुल्म कैसे बरदाश्त करूँगी?

आजाद – और तो और, मगर इनको तो आपने खूब ही सिखाया।

कुंदन – अपना-अपना दिल है, मेरी निगाह में तो सब बराबर, आप दो-चार दिन यहाँ रहें, अगर इनकी तबीयत ने मंजूर किया तो इनके साथ आपका निकाह कर दूँगी, बस अब तो खुश हुए।

महरी – वह शर्तें तो बता दीजिए!

कुंदन – खबरदार, बीच में न बोल उठा करो, समझीं?

महरी – हाँ हुजूर, खता हुई।

आजाद – फिर अब तो शर्ते बयान ही कर दीजिए न।

कुंदन – इतमीनान के साथ बयान करूँगी।

आजाद – (सनम से) तुमने तो हमें अपना गुलाम ही बना लिया।

सनम ने कोई जवाब न दिया।

आजाद – अब इनसे क्या कोई बात करे –

गवारा नहीं है जिन्हें बात करना,
सुनेंगे वह काहे को किस्सा हमारा।

कुंदन – ऐ हाँ, यह तुममें क्या ऐब है? बातें करो बेटा!

सनम – अम्माँजान, कोई बात हो तो क्या मुजायका और यों ख्वाहमख्वाह एक अजनबी से बातें करना कौन सी दानाई है।

कुंदन – खुदा को गवाह करके कहती हूँ कि यह सबकी सब बड़ी शरमीली हैं।

आजाद को इस वक्त याद आया कि एक दोस्त से मिलने जाना है, इसलिए कुंदन से रुखसत माँगी और कहा कि आज माफ कीजिए, कल हाजिर होऊँगा, मगर अकेले आऊँ, या दोस्तों को भी साथ लेता आऊँ? कुंदन ने खाना खाने के लिए बहुत जिद की मगर आजाद ने न माना।

आजाद ने अभी बाग के बाहर भी कदम नहीं रखा था कि महरी दौड़ी आई और कहा – हुजूर को बीबी बुलाती हैं। आजाद अंदर गए तो क्या देखते हैं कि कुंदन के पास सनम और उसकी सहेली के सिवा एक और कामिनी बैठी हुई है जो आन-बान में उन दोनों से बढ़ कर है।

कुंदन – यह एक जगह गई हुई थीं, अभी डोली से उतरी हैं। मैंने कहा, तुमको जरी दिखा दूँ कि मेरा घर सचमुच परिस्तान है, मगर बदी करीब नहीं आने पाती।

आजाद – बेशक, बदी का यहाँ जिक्र ही क्या है?

कुंदन – सबसे मिल जुल के चलना और किसी का दिल न दुखाना मेरा उसूल है, मुझे आज तक किसी ने किसी से लड़ते न देखा होगा।

आजाद – यह तो सबों से बढ़-चढ़ कर हैं।

कुंदन – बेटा, सभी घर गृहस्थ की बहू-बेटियाँ हैं, कहीं आए न जाएँ, न किसी से हँसी, न दिल्लगी।

आजाद – बेशक, हमें आपके यहाँ का करीना बहुत पसंद आया।

कुंदन – बोलो बेटा, मुँह से कुछ बोलो, देखो, एक शरीफ आदमी बैठे हैं और तुम न बोलती हो न चालती हो।

परी – क्या करूँ, आप ही आप बकूँ?

कुंदन – हाँ यह भी ठीक है, वह तुम्हारी तरफ मुँह करके बात-चीत करें तब बोलो। लीजिए साहब, अब तो आप ही का कुसूर ठहरा।

आजाद – भला सुनिए तो, मेहमानों की खातिरदारी भी कोई चीज है या नहीं?

कुंदन – हाँ, यह भी ठीक है, अब बताओ बेटा?

परी – अम्माँजान, हम तो सबके मेहमान हैं, हमारी जगह सबके दिल में है, हम भला किसी की खातिरदारी क्यों करें?

कुंदन – अब फर्माइए हजरत, जवाब पाया।

आजाद – वह जवाब पाया कि लाजवाब हो गया। खैर साहब, खातिरदारी न सही, कुछ गुस्सा ही कीजिए।

परी – उसके लिए भी किस्मत चाहिए।

मियाँ आजाद बडे बोलक्कड़ थे, मगर इस वक्त सिट्टी-पिट्टी भूल गए।

कुंदन – अब कुछ कहिए, चुप क्यों बैठे हैं?

परी – अम्माँजान, आपकी तालीम ऐसी-वैसी नहीं है कि हम बंद रहें।

कुंदन – मगर मियाँ साहब की कलई खुल गई। अरे कुछ तो फर्माइए हजरत –

कुछ तो कहिए कि लोग कहते हैं-

आज ‘गालिब’ गजलसरा न हुआ।

आजाद – आप शेर भी कहती हैं?

नूर – ऐ वाह, ऐसे घबड़ाए कि ‘गालिब’ का तखल्लुस मौजूद है और आप पूछते हैं कि आप शेर भी कहती हैं?

परी – आदमी में हवास ही हवास तो है, और है क्या?

सनम – हम जो गरदन झुकाए बैठे थे तो आप बहुत शेर थे, मगर अब होश उड़े हुए हैं।

सहेली – तुम पर रीझे हुए हैं बहन, देखती हो, किन आँखों से घूर रहे हैं।

परी – ऐ हटो भी, एड़ी-चोटी पर कुरबान कर दूँ।

आजाद – या खुदा, अब हम ऐसे गए गुजरे हो गए?

परी – और आप अपने को समझे क्या हैं!

कुंदन – यह हम न मानेंगे, हँसी-दिल्लगी और बात है, मगर यह भी लाख दो लाख में एक हैं।

परी – अब अम्माँजान कब तक तारीफ किया करेंगी।

आजाद – फिर जो तारीफ के काबिल होता है उसकी तारीफ होती ही है।

नूर – उँह-उॅँह, घर की पुटकी बासी साग।

आजाद – जलन होगी कि इनकी तारीफ क्यों की।

नूर – यहाँ तारीफ की परवा नहीं।

कुंदन – यह तो खूब कही, अब इसका जवाब दीजिए।

आजाद – हसीनों को किसी की तारीफ कब पसंद आती है?

नूर – भला खैर, आप इस काबिल तो हुए कि आपके हुस्न से लोगों के दिल में जलन होने लगी।

कुंदन – (सनम से) तुमने इनको कुछ सुनाया नहीं बेटा?

सनम – हम क्या कुछ इनके नौकर हैं?

आजाद – खुदा के लिए कोई फड़कती हुई गजल गाओ; बल्कि अगर कुंदन साहब का हुक्म हो तो सब मिल कर गाएँ।

सनम – हुक्म, हुक्म तो हम बादशाह-वजीर का न मानेंगे।

परी – अब इसी बात पर जो कोई गाए।

कुंदन – अच्छा, हुक्म कहा तो क्या गुनाह किया, कितनी ढीठ लड़कियाँ हैं कि नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतीं।

सनम – अच्छा बहन, आओ, मिल-मिल कर गाएँ –

ऐ इश्के कमर दिल का जलाना नहीं अच्छा।

परी – यह कहाँ से बूढ़ी गजल निकाली? यह गजल गाओ –

गया यार आफत पड़ी इस शहर पर;
उदासी बरसने लगी बाम व दर पर।

सबा ने भरी दिन को एक आप ठंडी;
कयामत हुई या दिले नौहागर पर।

मेरे भावे गुलशन को आतश लगी है;
नजर क्या पड़े खाक गुलहाय तर पर।

कोई देव था या कि जिन था वह काफिर;
मुझे गुस्सा आता है पिछले पहर पर।

एकाएक किसी ने बाहर से आवाज दी। कुंदन ने दरवाजे पर जा कर कहा – कौन साहब हैं?

सिपाही – दारोगा जी आए हैं, दरवाजा खोल दो।

कुंदन – ऐ तो यहाँ किसके पास तशरीफ लाए हैं?

सिपाही – कुंदन कुटनी के यहाँ आए हैं। यही मकान है या और?

दूसरा सिपाही – हाँ-हाँ, जी, यही है, हमसे पूछो।

इधर कुंदन पुलिसवालों से बातें करती थी, उधर आजाद तीनों औरतों के साथ बाग में चले गए और दरवाजा बंद कर दिया।

आजाद – यह माजरा क्या है भई?

सनम – दौड़ आई है मियाँ, दरवाजा, बंद करने से क्या होगा, कोई तदबीर ऐसी बताओ कि इस घर से निकल भागें।

परी – हमें यहाँ एक दम का रहना पसंद नहीं।

आजाद – किसी के साथ शादी क्यों नहीं कर लेती?

नूर – ऐ है! यह क्या गजब करते हो, आहिस्ता से बोलो।

आजाद – आखिर यह दौड़ क्यों आई है, हम भी तो सुनें।

सनम – कल एक भलेमानस आए थे। उनके पास एक सोने की घड़ी, सोने की जंजीर, एक बेग, पाँच आशर्फियाँ और कुछ रुपए थे। यह भाँप गई। उसको शराब पिला कर सारी चीजें उड़ा दीं। सुबह को जब उसने अपनी चीजों की तलाश की तो धमकाया कि टर्राओगे तो पुलिस को इत्तला कर दूँगी। वह बेचारा सीधा-सादा आदमी, चुपचाप चला गया और दारोगा से शिकायत की, अब वह दौड़ आई है।

आजाद – अच्छा! यह हथकंडे हैं।

सनम – कुछ पूछो न, जान अजाब में है।

नूर – अब खुदा ही जाने, किस-किस का नाश वह करेगी, क्या आग लगाएगी।

सनम – अजी, वह किसी से दबनेवाली नहीं है।

परी – वह न दबेंगी साहब तक से, यह दारोगा लिए फिरती हैं!

सनम – जरी सुनो तो क्या हो रहा है।

आजाद ने दरवाजे के पास से कान लगा कर सुना तो मालूम हुआ कि बीबी कुंदन पुलिसवालों से बहर कर रही हैं कि तुम मेरे घर भर की तलाशी लो। मगर याद रखना, कल ही तो नालिश करूँगीं। मुझे अकेली औरत समझके धमका लिया है। मैं अदालत चढ़ूँगी। लेना एक न देना दो, उस पर यह अंधेर! मैं साहब से कहूँगी कि इसकी नियत खराब है, यह रिआया को दिक करता है और पराई बहू-बेटी को ताकता है।

सनम – सुनती हो, कैसा डाँट रही है पुलिसवालों को।

परी – चुपचाप, ऐसा न हो, सब इधर आ जायँ।

उधर कुंदन ने मुसाफिर को कोसना शुरू किया – अल्लाह करे, इस अठवारे में इसका जनाजा निकले। मुए ने आके मेरी जान अजाब में कर दी। मैंने तो गरीब मुसाफिर समझ कर टिका लिया था। मुआ उलटा लिए पड़ता है।

मुसाफिर – दारोगा जी, इस औरत ने सैकड़ों का माल मारा है।

सिपाही – हुजूर, यह पहले गुलाम हुसैन के पुल पर रहती थी। वहाँ एक अहीरिन की लड़की को फुसला कर घर लाई और उसी दिन मकान बदल दिया। अहीर ने थाने पर रपट लिखवाई। हम जो जाते हैं तो मकान में ताला पड़ा हुआ, बहुत तलाश की, पता न मिला। खुदा जाने, लड़की किसी के हाथ बेच डाली या मर गई।

कुंदन – हाँ-हाँ, बेच डाली, यही तो हमारा पेशा है।

दारोगा – (मुसाफिर से) क्यों हजरत, जब आपको मालूम था कि यह कुटनी है तो आप इसके यहाँ टिके क्यों?

मुसाफिर – बेधा था, और क्या, दो-ढाई सौ पर पानी फिर गया, मगर शुक्र है कि मार नहीं डाला।

कुंदन – जी हाँ, साफ बच गए।

दारोगा – (कुंदन से) तू जरा भी नहीं शरमाती?

कुंदन – शरमाऊँ क्यों? क्या चोरी की है?

दारोगा – बस, खैरियत इसी में है कि इनका माल इनके हवाले कर दो।

कुंदन – देखिए, अब किसी दूसरे घर का डाका डालूँ तो इनके रुपए मिलें।

सिपाही – हुजूर, इसे पकड़ के थाने ले चलिए, इस तरह यह न मानेगी?

कुंदन – थाने मैं क्यों जाऊँ? क्या इज्जत बेचनी है! यह न समझना कि अकेली है। अभी अपने दामाद को बुला दूँ तो आँखें खुल जायँ।

यह सुनते ही आजाद के होश उड़ गए। बोले, इस मुरदार को सूझी क्या।

महरी – जरा दरवाजा खोलिए।

आजाद – खुदा की मार तुझ पर।

कुंदन – ऐ बेटा, जरी इधर आओ। मर्द की सूरत देख कर शायद यह लोग इतना जुल्म न करें।

दारोगा – अख्खाह, क्या तोप साथ है? हम सरकारी आदमी और तुम्हारे दामाद से दब जायँ! अब तो बताओ, इनके रुपए मिलेंगे या नहीं?

कुंदन एक सिपाही को अलग ले गई और कहा – मैं इसी वक्त दारोगा जी को इस शर्त पर सत्तर रुपए देती हूँ कि वह इस मामले को दबा दें। अगर तुम यह काम पूरा कर दो तो दस रुपया तुम्हें भी दूँगी।

दारोगा ने देखा कि यह मक्कार औरत झाँसा देना चाहती है तो उसे साथ ले कर थाने चले गए।

आजाद – बड़ी बला इस वक्त टली। औरत क्या, सचमुच बला है।

सनम – आपको अभी इससे कहाँ साबिका पड़ा है।

आजाद – मैं तो इतने ही में ऊब उठा।

सनम – अभी यह न समझना कि बला टल गई हम सब बाँधे जायँगे।

आजाद – जरा इस शरारत को तो देखो कि मुझे थानेदार से लड़वाए देती थी।

सनम – खुश तो न होंगे कि दामाद बना दिया।

आजाद – हम ऐसी सास से बाज आए।

सनम – इस गली से कोई आदमी बिना लुटे नहीं जा सकता। एक औरत को तो इसने जहर दिलवा दिया था।

नूर – पड़ोसिन से कोई जा कर कह दे कि तुम अपनी लड़की का क्यों सत्यानाश करती हो। जो कुछ रूखा-सूखा अल्लाह दे वह खाओ और पड़ी रहो।

महरी – हाँ और क्या, ऐसे पोलाव से दाल-दलिया ही अच्छी।

सनम – बस जाके बुला लाओ तो यह समझा दें हीले से।

महरी जा कर पड़ोसिन को बुला लाई। आजाद ने कहा – तुम्हारी पड़ोसिन को तो सिपाही ले गए। अब यह मकान हमें सौंप गई हैं। पड़ोसिन ने हँस कर कहा – मियाँ, उनको सिपाही ले जा कर क्या करेंगे? आज गई हैं, कल छूट आएँगी?

इतने में एक आदमी ने दरवाज पर हाथ मारा। महरी ने दरवाजा खोला तो एक बूढ़े मियाँ दिखाई दिए। पूछा – बी कुंदन कहाँ हैं?

महरी ने कहा – उनको थाने के लोग ले गए।

सनम – एक सिरे से इतने मुकदमे, एक, दो, तीन।

नूर – हर रोज एक नया पंछी फाँसती है।

बूढ़े मियाँ – बस, अब प्याला भर गया।

सनम – रोज तो यही सुनती हूँ कि प्याला भर गया।

बूढ़े मियाँ – अब मौका पाके तुम सब कहीं चल क्यों नहीं देती हो? अब इस वक्त तो वह नहीं है।

सनम – जायँ तो बे सोचे-समझे कहाँ जायँ।

आजाद – बस इसी इत्तिफाक को हम लोग किस्मत कहते हैं और इसी का नाम अकबाल है।

बूढ़े मियाँ – जी हाँ, आप तो नए आए हैं, यह औरत खुदा जाने, कितने घर तबाह कर चुकी है। पुलिस में भी गिरफ्तार हुई। मजिस्ट्रेटी भी गई। सब कुछ हुआ, सजा पाई, मगर कोई नहीं पूछता। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि इनमें से जिसका जी चाहे, मेरे साथ चली चले। किसी शरीफ के साथ निकाह पढ़वा दूँगा, मगर कोई राजी नहीं होती।

एकाएक किसी ने फिर दरवाजे पर आवाज दी, महरी ने दरवाजा खोला तो मम्मन और गुलबाज अंदर दाखिल हुए। दोनों ढाँटे बाँधे हुए थे। महरी उन्हें इशारे से बुला कर बाग में ले गई।

मम्मन – कुंदन कहाँ हैं?

महरी – वह तो आज बड़ी मुसीबत में फँस गई। पुलिसवाले पकड़ ले गए।

मम्मन – हम तो आज और ही मनसूबे बाँध कर आए थे। वह जो महाजन गली में रहते हैं, उनकी बहू अजमेर से आई है।

महरी – हाँ, मेरा जाना हुआ है। बहुत से रुपए लाई है।

गुलबाज – महाजन गंगा नहाने गया है। परसों तक आ जाएगा। हमने कई आदमियों से कह दिया था। सब के सब आते होंगे।

मम्मन – कुंदन नहीं हैं, न सही! हम अपने काम से क्यों गाफिल रहें। आओ एक-आध चक्कर लगाएँ।

इतने में बाग के दरवाजे की तरफ सीटी की आवाज आई। गुलबाज ने दरवाजा खोल दिया और बोला – कौन है, दिलवर?

दिलवर – बस अब देर न करो। वक्त जाता है भाई।

गुलबाज – अरे यार, आज तो मामला हुच गया।

दिलवर – ऐ, ऐसा न कहो। दो लाख नकद रखा हुआ है। इसमें एक भी कम हो, तो जो जुर्माना कहो दूँ।

मम्मन – अच्छा, तो कहीं भागा जाता है?

दिलवर – यह क्या जरूरी है कि कुंदन जरूरी ही हो।

मम्मन – भाईजान, एक कुंदन के न होने से कहीं यार लोग चूकते हैं? और भी कई सबव हैं।

दिलवर – ऐसे मामले में इतनी सुस्ती!

मम्मन – यह सारा कुसूर गुलबाज का है। चंडूखाने में पड़े छींटे उड़ाया किए, और सारा खेल बिगाड़ दिया।

दिलवर – आज तक इस मामले में ऐसे लौंडे नहीं बने थे। वह दिन याद है कि जब जहूरन की गली में छुरी चली थी?

गुलबाज – मैं उन दिन कहाँ था?

दिलवर – हाँ, तुम तो मुर्शिदाबाद चले गए थे। और यहाँ जहूरन ने हमें इत्तला दी कि सुल्तान मिरजा चल बसे। सुल्तान मिरजा के महल्ले में सब मोटे रुपएवाले, मगर उनके मारे किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि उनके महल्ले में जाय।

मम्मन – वह तो इस फन का उस्ताद था।

दिलवर – बस जनाब, इधर सुल्तान मिरजा मरे, उधर जहूरन ने हमें बुलवाया। हम लोग जा पहुँचे। अब सुनिए कि जिस तरफ जाते हैं, कोई गा रहा है, कोई घर ऐसा नहीं, जहाँ रोशनी और जाग न हो।

मम्मन – किसी ने पहले से मुहल्लेवालों को होशियार कर दिया होगा।

दिलवर – जी हाँ, सुनते तो जाइए। पीछे खुला न। हुआ यह कि जिस वक्त हम लोगों ने जहूरन के दरवाजे पर आवाज दी, तो उनकी मामा ने पड़ोस के मकान में कंकरी फेंकी। उस पड़ोसी ने दूसरे मकान में। इस तरह महल्ले भर में खबर हो गई।

यहाँ तो ये बातें हो रही थीं, उधर बूढ़े मियाँ और आजाद में कुंदन को सजा दिलाने के लिए सलाहें होती थीं –

आजाद – जिन-जिन लड़कियों को इसने चोरी से बेच लिया है, उन सबों का पता लगाइए।

बूढ़े मियाँ – अजी, एक-दो हों, तो पता लगाऊँ। यहाँ तो शुमार ही नहीं।

आजाद – मैं आज ही हाकिम जिला से इसका जिक्र करूँगा।

इन लोगों से रुखसत हो कर आजाद मजिस्ट्रेट के बँगले पर आए। पहले अपने कमरे में जा कर मुँह-हाथ धोया, और कपड़े बदल कर उस कमरे में गए, जहाँ साहब मेहमानों के साथ डिनर खाने बैठे थे। अभी खाना चुना ही जा रहा था कि आजाद कमरे में दाखिल हुए। आप शाम को आने का वादा करके गए थे। 9 बजे पहुँचे तो सबने मिल कर कहकहा लगाया।

मेम – क्यों साहब, आपके यहाँ अब शाम हुई?

साहब – बड़ी देर से आपका इंतजार था।

मीडा – कहीं शादी तो नहीं तय कर आए?

साहब – हाँ, देर होने से तो हम सबको यही शक हुआ था।

मेम – जब तक आप देर की वजह न बताएँगे, यह शक न दूर होगा। आप लोगों में तो चार शादियाँ हो सकती हैं।

क्लारिसा – आप चुप क्यों हैं, कोई बहाना सोच रहे हैं?

आजाद – अब मैं क्या बयान करूँ। यहाँ तो सब लाल-बुझक्कड़ ही बैठे हैं। कोई चेहरे से ताड़ जाता है, कोई आँखों से पहचान लेता है; मगर इस वक्त मैं जहाँ था, वहाँ खुदा किसी को न ले जाय।

साहब – जुवारियों का अड्डा तो नहीं था?

आजाद- नहीं वह और ही मामला था। इतमीनान से कहूँगा।

लोग खाना खाने लगे। साहब के बहुत जोर देने पर भी आजाद ने शराब न पी। खाना हो जाने पर लेड़ियों ने गाना शुरू किया और साहब भी शरीक हुए। उसके बाद उन्होंने आजाद से कुछ गाने को कहा –

आजाद – आपको इसमें क्या लुत्फ आएगा?

मेम – नहीं, हम हिंदुस्तानी गाना पसंद करते हैं, मगर जो समझ में आए। आजाद ने बहुत हीला किया, मगर साहब ने एक न माना। आखिर मजबूर हो कर यह गजल गाई –

जान से जाती हैं क्या-क्या हसरतें;
काश वह भी दिल में आना छोड़ दे।

‘दाग’ से मेरे जहन्नुम को मिसाल;
तू भी वायज दिल जलाना छोड़ दे।

परदे की कुछ हद भी है परदानशीं;
खुलके मिल बस मुँह छिपाना छोड़ दे।

मेम – हम कुछ-कुछ समझे। वह जहन्नुम का शेर अच्छा है।

साहब – हम तो कुछ नहीं समझे। मगर कानों को अच्छा मालूम हुआ।

दूसरे दिन आजाद तड़के कुंदन के मकान पर पहुँचे और महरी से बोले – क्यों भाई, तुम सुरैया बेगम को किसी तरह दिखा सकती हो?

महरी – भला मैं कैसे दिखा दूँ? अब तो मेरी वहाँ पहुँच ही नहीं!

आजाद – खुदा गवाह है, फकत एक नजर भर देखना चाहता हूँ।

महरी – खैर, अब आप कहते ही हैं तो कोशिश करूँगी। और आज ही शाम को यहीं चले आइएगा।

आजाद – खुदा तुमको सलामत रखे, बड़ा काम निकलेगा।

महरी – ऐ मियाँ, मैं लौंडी हूँ। तब भी तुम्हारा ही नमक खाती थी, और अब भी…।

आजाद – अच्छा, इतना बता दो कि किस तरकीब से मिलूँगा?

महरी – यहाँ एक शाह साहब रहते हैं। सुरैया बेगम उनकी मुरीद हैं। उनके मियाँ ने भी हुक्म दे दिया है कि जब उनका जी चाहे, शाह साहब के यहाँ जायँ। शाह जी का सिन कोई दो सौ बरस का होगा। और हुजूर, जो वह कह देते हैं, वही होता है। क्या मजाल जो फरक पड़े।

आजाद – हाँ साहब, फकीर हैं, नहीं तो दुनिया कायम कैसे है!

महरी – मैं शाह जी को एक और जगह भेज दूँगी। आप उनकी जगह जाके बैठ जाइएगा। शाह साहब की तरफ कोई आँख उठा कर नहीं देख सकता।

इसलिए आपको यह खौफ भी नहीं है कि सुरैया बेगम पहचान जाएँगी।

आजाद – बड़ा एहसान होगा। उम्र भर न भूलूँगा। अच्छा, तो शाम को आऊँगा।

शाम को आजाद कुंदन के घर पहुँच गए। महरी ने कहा – लीजिए, मुबारक हो। सब यामला चौकस है।

आजाद – जहाँ तुम हो, वहाँ किस बात की कमी। तुमसे आज मुलाकात हुई थी? हमारा जिक्र तो नहीं आया? हमसे नाराज तो नहीं हैं?

महरी – ऐ हुजूर, अब तक रोती हैं। अकसर फरमाती हैं कि जब आजाद सुनेंगे कि उसने एक अमीर के साथ निकाह कर लिया, तो अपने दिल में क्या कहेंगे?

शाह साहब शहर के बाहर एक इमली के पेड़ के नीचे रहते थे। महरी आजाद को वहाँ ले गई और दरख्त के नीचेवाली कोठरी में बैठा कर बोली – आप यहीं बैठिए, बेगम साहब अब आती ही होंगी। जब वह आँख बंद करके नजर दिखाएँ तो ले लीजिएगा। फिर आपमें और उनमें खुद ही बाते होंगी।

आजाद – ऐसा न हो कि मुझे देख कर डर जायँ।

महरी – जी नहीं, दिल की मजबूत हैं। वनों-जंगलों में फिर आई हैं।

इतने में किसी आदमी के गाने की आवाज आई।

बुते-जालिम नहीं सुनता किसी की;

गरीबों का खुदा फरियाद-रस है।

आजाद – यह इस वक्त इस वीराने में कौन गा रहा है?

महरी – सिड़ी है। खबर पाई होगी कि आज यहाँ आनेवाली हैं।

आजाद – बाबा साहब को इसका हाल मालूम है या नहीं?

महरी – सभी जानते हैं। दिन-रात यों ही बका करता है; और कोई काम ही नहीं।

आजाद – भला यह तो बताओ कि सुरैया बेगम के साथ कौन-कौन होगा?

महरी – दो-एक महरियाँ होंगी, मौलाई बेगम होंगी और दस-बारह सिपाही।

आजाद – महरियाँ अंदर साथ आएँगी या बाहर ही रहेंगी?

महरी – इस कमरे में कोई नहीं आ सकता।

इतने में सुरैया बेगम की सवारी दरवाजे पर आ पहुँची। आजाद का दिल धक-धक करता था। कुछ तो इस बात की खुशी थी कि मुद्दत के बाद अलारक्खी को देखेंगे और कुछ इस बात का खयाल कि कहीं परदा न खुल जाय।

आजाद – जरा देखो, पालकी से उतरीं या नहीं।

महरी – बाग में टहल रही हैं। मौलाई बेगम भी हैं। चलके दीवार के पास खड़े हो कर आड़ से देखिए।

आजाद – डर मालूम होता है कि कहीं देख न लें।

आखिर आजाद से न रहा गया। महरी के साथ आड़ में खड़े हुए तो देखा कि बाग में कई औरतें चमन की सैर कर रही हैं।

महरी – जो जरा भी इनको मालूम हो जाय कि आजाद खड़े देख रहे हैं तो खुदा जाने, दिल का क्या हाल हो।

आजाद – पुकारूँ? बेअख्तियार जी चाहता है कि पुकारूँ।

इतने में बेगम दीवार के पास आईं और बैठ कर बातें करने लगीं।

सुरैया – इस वक्त तो गाना सुनने को जी चाहता है।

मौलाई – देखिए, यह सौदाई क्या गा रहा है।

सुरैया – अरे! इस मुए को अब तक मौत न आई? इसे कौन मेरे आने की खबर दे दिया करता है। शाह जी से कहूँगी कि इसको मौत आए।

मौलाई – ऐ नहीं, काहे को मौत आए बेचारे को। मगर आवाज अच्छी है।

सुरैया – आग लगे इसकी आवाज को।

इतने में जोर से पानी बरसने लगा। सब की सब इधर-उधर दौड़ने लगीं। आखिर एक माली ने कहा कि हुजूर, सामने का बँगला खाली कर दिया है, उसमें बैठिए। सब की सब उस बँगले में गईं। जब कुछ देर तक बादल न खुला तो सुरैया बेगम ने कहा – भई, अब तो कुछ खाने को जी चाहता है।

ममोला नाम की एक महरी उनके साथ थी। बोली – शाह जी के यहाँ से कुछ लाऊँ? मगर फकीरों के पास दाल-रोटी के सिवा और क्या होगा।

सुरैया – जाओ, जो कुछ मिले, ले आओ। ऐसा न हो कि वहाँ कोई बेतुकी बात कहने लगो।

महरी ने दुपट्टे को लपेट कर ऊपर से डोली का परदा ओढ़ा। दूसरी महरी ने मशालची को हुक्म दिया कि मशाल जला। आगे-आगे मशालची, पीछे-पीछे दोनों महरियाँ दरवाजे पर आईं और आवाज दी। आजाद और महरी ने समझा कि बेगम साहब आ गईं, मगर दरवाजा खोला तो देखा कि महरियाँ हैं।

महरी – आओ, आओ। क्या बेगम साहब बाग ही में हैं?

ममोला – जी हाँ। मगर एक काम कीजिए। शाह साहब के पास भेजा है। यह बताओ कि इस वक्त कुछ खाने को है?

महरी ने शाह जी के बावरचीखाने से चार मोटी-मोटी रोटियाँ और एक प्याला मसूर की दाल का ला कर रख दिया। दोनों महरियाँ खाना ले कर बँगले में पहुँचीं तो सुरैया बेगम ने पूछा – कहो, बेटा कि बेटी?

ममोला – हुजूर, फकीरों के दरबार से भला कोई खाली हाथ आता है? लीजिए, वह मोटे-मोटे टिक्कड़ हैं।

मौलाई – इस वक्त यही गनीमत हैं।

ममोला – बेगम साहब आपसे एक अरज है।

सुरैया – क्या है, कहो तुम्हारी बातों से हमें उलझन होती हैं।

ममोला – हुजूर, जब हम खाना लेके आते थे तो देखा कि बाग के दरवाजे पर एक बेकस, बेगुनाह, बेचारा दबका दबकाया खड़ा भीग रहा है।

सुरैया – फिर तुमने वही पाजीपने की ली न! चलो हटो सामने से।

मौलाई – बहन, खुदा के लिए इतना कह दो कि जहाँ सिपाही बैठे हैं, वहीं उसे भी बुला लें।

सुरैया – फिर मुझसे क्या कहती हो?

सिपाहियों ने दीवाने को बुला कर बैठा लिया। उसने यहाँ आते ही तान लगाई –

पसे फिना हमें गरदूँ सताएगा फिर क्या,
मिटे हुए को यह जालिम मिटाएगा फिर क्या?

जईफ नालादिल उसका हिला नहीं सकता,
यह जाके अर्श का पाया हिलाएगा फिर क्या?

शरीक जो न हुआ एक दम को फूलों में,
वह फूल आके लेहद के उठाएगा फिर क्या?

खुदा को मानो न बिस्मिल को अपने जबह करो,
तड़प के सैर वह तुमको दिखाएगा फिर क्या?

सुरैया – देखा न। यह कंबख्त बे गुल मचाए कभी न रहेगा।

मौलाई – बस यही तो इसमें ऐब है। मगर गजल भी ढूँढ़ के अपने ही मतलब की कही है।

सुरैया – कंबख्त बदनाम करता फिरता है।

दोनों बेगमों ने हाथ धोया। उस वक्त वहाँ मसूर की दाल और रोटी पोलाव और कोरमे को मात करती थी। उस पर माली ने कैथे की चटनी तैयार कराके महरी के हाथ भेजवा दी। इस वक्त इस चटनी ने वह मजा दिया कि कोई सुरैया बेगम की जबान से सुने।

मौलाई – माली ने इनाम का काम किया है इस वक्त।

सुरैया – इसमें क्या शक। पाँच रुपए इनाम दे दो।

जब खुदा खुदा करके मेंह थमा और चाँदनी निखरी तो सुरैया बेगम ने महरी भेजी कि शाह जी का हुक्म हो तो हम हाजिर हों। वहाँ महरी ने कहा – हाँ, शौक से आएँ; पूछने की क्या जरूरत है।

सुरैया बेगम ने आँखें बंद कीं और शाह जी के पास गईं। आजाद ने उन्हें देखा तो दिल का अजब हाल हुआ। एक ठंडी साँस निकल आई। सुरैया बेगम घबराईं कि आज शाह साहब ठंडी साँसें क्यों ले रहे हैं। आँखें खोल दीं तो सामने आजाद को बैठे देखा। पहले तो समझीं कि आँखों ने धोखा दिया, मगर करीब से गौर करके देखा तो शक दूर हो गया।

उधर आजाद की जबान भी बंद हो गई। लाख चाहा कि दिल का हाल कह सुनाएँ, मगर जबान खोलना मुहाल हो गया। दोनों ने थोड़ी देर तक एक दूसरे को प्यार और हसरत की नजर से देखा, मगर बातें करने की हिम्मत न पड़ी। हाँ, आँखों पर दोनों में से किसी को अख्तियार न था। दोनों की आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे। एकाएक सुरैया बेगम वहाँ से उठ कर बाहर चली आईं।

ममोला ने पूछा – बेगम साहब, आज इतनी जल्दी क्यों की?

सुरैया – यों ही।

मौलाई – आँखों में आँसू क्यों हैं? शाह साहब से क्या बातें हुई?

सुरैया – कुछ, नहीं बहन, शाह साहब क्या कहते, जी ही तो है।

मौलाई – हाँ, मगर खुशी और रंज के लिए कोई सबब भी तो होता है।

सुरैया – बहन, हमसे इस वक्त सबब न पूछो। बड़ी लंबी कहानी है।

मौलाई – अच्छा, कुछ करत-ब्योंत करके कह दो।

सुरैया – बहन, बात सारी यह है कि इस वक्त शाह जी तक ने हमसे चाल की। जो कुछ हमने इस वक्त देखा, उसके देखने की तमन्ना बरसों से थी, मगर अब आँखें फेर-फेरके देखने के सिवा और क्या है?

मौलाई – (सुरैया के गले में हाथ डाल कर) क्या, आजाद मिल गए क्या?

सुरैया – चुप-चुप! कोई सुन न ले।

मौलाई – आजाद इस वक्त कहाँ से आ गए! हमें भी दिखला दो।

सुरैया – रोकता कौन है। जाके देख लो।

मौलाई बेगम चलीं तो सुरैया बेगम ने इनका हाथ पकड़ लिया और कहा – खबरदार, मेरी तरफ से कोई पैगाम न कहना।

मौलाई बेगम कुछ हिचकती, कुछ झिझकती आ कर आजाद से बोलीं – शाह जी कभी और भी इस तरफ आए थे?

आजाद – हम फकीरों को कहीं आने-जाने से क्या सरोकार। जिधर मौज हुई चल दिए। दिन को सफर, रात को खुदा की याद। हाँ, गम है तो यह कि खुदा को पाएँ।

मौलाई – सुनो शाह जी, आपकी फकीरी को हम खूब जानते हैं। यह सब काँटे आप ही के बोए हुए हैं। और अब आप फकीर बन कर यहाँ आए हैं। यह बतलाइए कि आपने उन्हें जो इतना परेशान किया तो किस लिए? इससे आपका क्या मतलब था?

आजाद – साफ-साफ तो यह है कि हम उनसे फकत दो-दो बातें करना चाहते हैं।

मौलाई – वाह, जब आँखें चार हुईं तब तो कुछ बोले नहीं; और वह बातें हुईं भी तो नतीजा क्या? उनके मिजाज को तो आप जानते हैं। एक बार जिसकी हो गईं, उसकी हो गईं।

आजाद – अच्छा, एक नजर तो दिखा दो।

मौलाई – अब यह मुमकिन नहीं। क्यों मुफ्त में अपनी जान को हलाकान करोगे।

आजाद – तो बिलकुल हाथ धो डालें? अच्छा चलिए, बाग में जरा दूर ही से दिल के फफोले फोड़ें।

मौलाई – वाह-वाह! जब बाग में हों भी।

आजाद – अच्छा साहब, लीजिए, सब्र करके बैठे जाते हैं।

मौलाई – मैं जा कर कहती हूँ, मगर उम्मेद नहीं कि मानें।

यह कह कर मौलाई बेगम उठीं और सुरैया बेगम के पास आ कर बोलीं – बहन, अल्लाह जानता है, कितना खूबसूरत जवान है।

सुरैया – हमारा जिक्र भी आया था? कुछ कहते थे?

मौलाई – तुम्हारे सिवा और जिक्र ही किसका था? बेचारे बहुत रोते थे। हमारी एक बात इस वक्त मानोगी? कहूँ?

सुरैया – कुछ मालूम तो हो, क्या कहोगी?

मौलाई – पहले कौल दो, फिर कहेंगे; यों नहीं।

सुरैया – वाह! बे-समझे-बूझे कौल कैसे दे दूँ?

मौलाई – हमारी इतनी खातिर भी न करोगी बहन!

सुरैया – अब क्या जानें, तुम क्या ऊल-जलूल बात कहो।

मौलाई – हम कोई ऐसी बात न कहेंगे जिससे नुकसान हो।

सुरैया – जो बात तुम्हारे दिल में है वह मेरे नाखून में है।

मौलाई – क्या कहना है। आप ऐसी ही हैं।

सुरैया – अच्छा, और सब तों मानेंगे सिवा एक बात के।

मौलाई – वह एक बात कौन सी है, हम सुन तो लें।

सुरैया – जिस तरह तुम छिपाती हो उसी तरह हम भी छिपाते हैं।

मौलाई – अल्लाह को गवाह करके कहती हूँ, रो रहा है। मुझसे हाथ जोड़ कर कहा है कि जिस तरह मुमकिन हो, मुझसे मिला दो। मैं इतना ही चाहता हूँ कि नजर भर कर देख लूँ।

सुरैया – क्या मजाल, ख्वाब तक में सूरत न दिखाऊँ।

मौलाई – मुझे बड़ा तरस आता है।

सुरैया – दुनिया का भी तो खयाल है।

मौलाई – दुनिया से हमें क्या काम? यहाँ ऐसा कौन आता-जाता है। डर काहे का है, चलके जरा देख लो, उसका अरमान तो निकल जाय।

सुरैया – ना, मुमकिन नहीं। अब यहाँ से चलोगी भी या नहीं?

मौलाई – हम तो तब तक न चलेंगे, जब तक तुम हमारा कहना न मानोगी।

सुरैया – सुनो मौलाई बेगम, हर काम का कोई न कोई नतीजा होता है। इसका नतीजा तुम क्या सोची हो?

मौलाई – उनका दिल खुश होगा। इस वक्त वह आपे में नहीं हैं, मगर जब इस मामले पर गौर करेंगे तो उन्हें जरूर रंज होगा।

दोनों बेगम पालकियों पर बैठ कर रवाना हुई। आजाद ने मकान की दीवार से सुरैया बेगम को देखा और ठंडी साँस ली।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 108

दूसरे दिन आजाद यहाँ से रुखसत हो कर हुस्नआरा से मिलने चले। बात-बात पर बाँछें खिली जाती थीं। दिमाग सातवें आसमान पर था। आज खुदा ने वह दिन दिखाया कि रूस और रूम की मंजिल पूरी करके यार के कूचे में पहुँचे। कहाँ रूस, कहाँ हिंदोस्तान! कहाँ लड़ाई का मैदान, कहाँ हुस्नआरा का मकान! दोनों लेडियों ने उन्हें छेड़ना शुरू किया –

क्लारिसा – आज भला आजाद के दिमाग काहे को मिलेंगे।

मीडा – इस वक्त मारे खुशी के इन्हें बात करना भी मुश्किल है।

आजाद – बड़ी मुश्किल है। बोलूँ तो हँसवाऊँ, न बोलूँ तो आवाजें कसे जायँ।

क्लारिसा – क्या इसमें कुछ झूठ भी है? जिसके लिए दुनिया भर की खाक छानी, उससे मिलने का नशा हुआ ही चाहे।

एकाएक कमरे के बाहर से आवाज आई – भला रे गीदी, भला और जरा देर में मियाँ खोजी कमरे में दाखिल हुए।

क्लारिसा – आप इतने दिन तक कहाँ थे ख्वाजा साहब?

खोजी – था कहाँ, जहाँ जाता हूँ वहाँ लोग पीछे पड़ जाते हैं। इतनी दावतें खाईं कि क्या किसी ने खाई होंगी। एक-एक दिन में दो-दो सौ बुलावे आ जाते हैं। अगर न जाऊँ तो लोग कहें, गुरूर करता है। जाऊँ तो इतना वक्त कहाँ! इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहा।

आजाद – अब कुछ हमारे भी काम आओ।

खोजी – और दौड़ा आया किस लिए हूँ। कहो, हुस्नआरा को खबर हुई या नहीं? न हुई हो तो पहुँचूँ। मुझसे ज्यादा इस काम के लायक और किसी को न पाओगे। मैं बड़े काम का आदमी हूँ।

आजाद – इसमें क्या शक है भाईजान! बेशक हो!

खोजी – तो फिर मैं चलूँ?

आजाद – नेकी और पूछ-पूछ?

खोजी जाने वाले ही थे कि एक आदमी होटल की तरफ आता दिखाई दिया। उसकी शक्ल-सूरत बिलकुल खोजी से मिलती थी। वही नाटा कद, वही काला रंग, वही नन्हे-नन्हे हाथ-पाँव। खोजी का बड़ा भाई मालूम होता था।

आजाद – वल्लाह, बिलकुल खोजी ही हैं।

मीडा – बस, इनको छिपाओ, उनको दिखाओ। उनको छिपाओ, इनको दिखाओ। जरा फर्क नहीं।

खोजी – तू कौन है बे? कहाँ चला आता है? कुछ बेधा तो नहीं है? तुझ जैसे मसखरों का यहाँ क्या काम?

मसखरा – कोई हमसे बदके देख ले। बड़ा मर्द हो तो आ जाय।

खोजी – क्या कहता है? बरस पड़ूँ?

मसखरा – जा, अपना काम कर। जो गरजता है, वह बरसता नहीं।

खोजी – बच्चा, तुम्हारी कजा मेरे ही हाथ से है।

मसखरा – माशे-भर का आदमी, बौनों के बराबर कद और चला है मुझे ललकारने!

खोजी – कोई है? लाना तो चंडू की निगाली। ले, आइए!

मसखरा – हम तो जहाँ खड़े थे, वहीं खड़े हैं, शेर कहीं हटा करते हें। जमे, तो जमे।

खोजी – कजा खेल रही है तेरी। मैं इसको क्या करूँ। अब जो कुछ कहना-सुनना हो, कह-सुन लो; थोड़ी देर में लाश फड़कती होगी।

मसखरा – जरी जबान सँभाले हुए हजरत! ऐसा न हो, मैं गरदन पर सवार हो जाऊँ।

होटल में जितने आदमी थे, उनको शिगूफा हाथ आया। सभी इन बौनों की कुश्ती देखने के लिए बेकरार थे। दोनों को चढ़ाने लगे।

एक – भई, हम सब तो ख्वाजा साहब की तरफ हैं।

दूसरा – हम भी। यह उससे कहीं तगड़े हैं।

तीसरा – कौन? कहीं हो न। इनमें और उसमें बीस और सोलह का फर्क है। बोलो, क्या – क्या बदते हो!

खोजी – जिसका रुपया फालतू हो, वह इसके हाथ पर बदे। जो कुछ बना कर घर ले जाना चाहे, वह हमारे हाथ पर बदे।

मसखरा – एक लपोटे में बोल जाइए तो सही। बात करते-करते पकड़ लाऊँ और चुटकी बजाते चित करूँ,( चुटकी बजा कर) यों-यों!

खोजी – मैं इतनी दूर नहीं लगाने का।

मसखरा – अरे चुप भी रह! यह मुँह खाय चौलाई! एक ऊँगली से वह पेंच बाँधूँ कि तड़पने लगे –

लिया जिसने हमारा नाम, मारा बेगुनाह उसको।

निशाँ जिसने बनाया, बस, वह तीरों का निशाना था।

आजाद – बढ़ गए ख्वाजा साहब, यह आपसे बढ़ गए। अब कोई फड़कता हुआ शेर कहिए तो इज्जत रहे।

खोजी – अजी, इससे अच्छा शेर लीजिए –

तड़पा कर जरा खंजर के तले
सिर अपना दिया शिकवा न किया,
था पासे अदब जो कातिल का
यह भी न हुआ वह भी न हुआ।

मसखरा – ले, अब आ।

खोजी – देख, तेरी कजा आ गई है।

मसखरा – जरा सामने आ। जमीन में सिर खोंस दूँगा।

खोजी – (ताल ठोक कर) अब भी कहा मान, न लड़।

मसखरा – या अली, मदद कर –

कब्र में जिनको न सोना था, सुलाया उनको, पर मुझे चर्ख सितमगर ने सोने न दिया।

आजाद – भई खोजी, शायरी में तुम बिलकुल दब गए।

खोजी जवाब देने ही वाले थे कि इतने में मसखरे ने उनकी गरदन में हाथ डाल दिया। करीब था कि जमीन पर दे पटके कि मियाँ खोजी सँभले और झल्ला के मसखरे की गरदन में दोनों हाथ डाल कर बोले – बस, अब तुम करे

मसखरा – आज तुझे जीता न छोड़ूँगा।

खोजी – देखो, हाथ टूटा तो नालिश कर दूँगा। कुश्ती में हाथा-पाई कैसी?

मसखरा – अपनी बुढ़िया को बुला लाओ। कोई लाश को रोनेवाली तो हो तुम्हारी!

खोजी – या तो कत्ल ही करेंगे या तो कत्ल होंगे।

मसखरा – और हम कत्ल ही करके छोड़ेंगे।

ख्वाजा साहब ने एक अंटी बताई तो मसखरा गिरा। साथ ही खोजी भी मुँह के बल जमीन पर आ रहे। अब न यह उठते हैं न वह। न वह इनकी गरदन छोड़ता है, न यह उसको छोड़ते हैं।

मसखरा – मार डाल, मगर गरदन न छोड़ूँगा।

खोजी – तू गरदन मरोड़ डाल, मगर मैं अधमरा करके छोड़ूँगा। हाय-हाय! गरदन गई! पसलियाँ चर-चर बोल रही हैं!

मसखरा – जो कुछ हो सो हो, कुछ परवा नहीं है।

खोजी – यहाँ किसको परवा है, कोई रोनेवाला भी नहीं है।

अब की खोजी ने गरदन छुड़ा ली; उधर मसखरा भी निकल भागा। दोनों अपनी-अपनी गरदन सहलाने लगे। यार लोगों ने फिर फिकरे चुस्त किए। भई, हम तो खोजी के दम के कायल हैं।

दूसरा बोला – वाह! अगर कच्ची आध घड़ी और कुश्ती रहती तो वह मार लेता।

तीसरे ने कहा – अच्छा, फिर अब की सही। किसी का दम थोड़े टूटा है।

यार लोग तो उनको तैयार करते थे, मगर उनमें दम न था। आधा घंटे तक दोनों हाँफा किए, मगर जबान चली जाती थी।

खोजी – जरा और देर होती तो फिर दिल्लगी देखते।

मसखरा – हाँ, बेशक।

खोजी – तकदीर थी, बच गए, वरना मुँह बिगाड़ देता।

मसखरा – अब तुम इस फिक्र में हो कि मैं फिर उठूँ।

आजाद – हुजूर, मैं बे नीचा दिखाए न मानूँगा।

खोजी – (मसखरे की गरदन पकड़ कर) आओ, दिखाओ नीचा।

मसखरा – अबे, तू गरदन तो छोड़ गरदन छोड़ दे हमारी।

खोजी – अब ही हमारा दाँव है!

मसखरा -(थप्पड़ लगा कर) एक-दो।

खोजी – (चपत दे कर) तीन।

फिकरेबाज – सौ तक गिन जाओ यों ही। हाँ, पाँच हुई।

दूसरा – ऐसे-ऐसे जवान और पाँच ही तक गिनके रह गए?

खोजी – (चपत दे कर) छह-छह और नहीं तो। लोग बड़ी देर से छह का इंतजार कर रहे थे।

अब की वह घमासान लड़ाई हुई कि दोनों बेदम हो कर गिर पड़े और रोने लगे।

खोजी – अब मौत करीब है। भई आजाद, हमारी कब्र किसी पोस्ते के खत के करीब बनवाना।

मसखरा – और हमारी कब्र शाहफसीह के तकिए में बनवाई जाय जहाँ हमारे वालिद ख्वाजा वलीग दफन हैं।

खोजी – कौन-कौन? इनके वालिद का क्या नाम था?

आजाद – ख्वाजा वलीग कहते हैं।

खोजी – (रो कर) अरे भाई, हमें पहचाना? मगर हमारी-तुम्हारी यों ही बदी थी।

मसखरे ने जो इनका नाम सुना तो सिर पीट लिया – भई क्या गजब हुआ! सगा भाई सगे भाई को मारे?

दोनों भाई गले मिल कर रोए। बड़े भाई ने अपना नाम मियाँ रईस बतलाया। बोले – बेटा, तुम मुझसे कोई बीस बरस छोटे हो। तुमने वालिद को अच्छी तरह से नहीं देखा था। बड़ी खूबियों के आदमी थे। हमको रोज दुकान पर ले जाया करते थे?

आजाद – काहे की दुकान थी हजरत?

रईस – जी, टाल थी। लकड़ियाँ बेचते थे।

खोजी ने भाई की तरफ घूर कर देखा।

रईस – कुछ दिन कपू में साहब लोगों के यहाँ खानसामा रहे थे। खोजी ने भाई की तरफ देख कर दाँत पीसा।

आजाद – बस हजरत, कलई खुल गई। अब्बाजान खानसामा थे और आप रईस बनते हैं।

आजाद चले गए तो दोनों भाइयों में खूब तकरार हुई। मगर थोड़ी ही देर में मेल हो गया और दोनों भाई साथ-साथ शहर की सैर को गए। इधर-उधर मटर-गस्त करके मियाँ रईस तो अपने अड्डे पर गए और खोजी हुस्नआरा बेगम के मकान पर जा पहुँचे। बूढ़े मियाँ बैठे हुक्का पी रहे थे।

खोजी – आदाब अर्ज है। पहचाना या भूल गए?

बूढ़े मियाँ – आप तो कुछ अजीब पागल मालूम होते हैं। जान न पहचान; त्योरियाँ बदलने लगे।

खोजी – अजी, हम तो सुनाएँ बादशाह को, तुम क्या माल हो।

बूढ़े मियाँ – अपने होश में हो या नहीं?

खोजी – कोई महलसरा में हुस्नआरा बेगम को इत्तला दो कि मुसाफिर आए हैं।

बूढ़े मियाँ – (खड़े हो कर) अख्खाह! ख्वाजा साहब तो नहीं हैं आप! माफ कीजिएगा। आइए गले मिल लें।

बूढ़े मियाँ ने आदमी को हुक्म दिया कि हुक्का भर दो, और अंदर जा कर बोले – लो साहब, खोजी दाखिल हो गए।

चारों बहनें बाग में गईं और चिक की आड़ से खोजी को देखने लगी।

नाजुक अदा – ओ-हो-हो! कैसा ग्रांडील जवान है!

जानी – अल्लाह जानता है, ऐसा जवान नहीं देखने में आया था। ऊँट की तो कोई कल शायद दुरुस्त भी हो, इसकी कोई कल दुरुस्त नहीं। हँसी आती है।

खोजी – इधर-उधर देखने लगे कि यह आवाज कहाँ से आती है। इतने में बूढ़े मियाँ आ गए।

खोजी – हजरत, इस मकान की अजब खासियत है।

बूढ़े मियाँ – क्या-क्या? इस मकान में कोई नई बात आपने देखी है?

खोजी – आवाजें आती हैं। मैं बैठा हुआ था, एक आवाज आई, फिर दूसरी आवाज आई।

बूढ़े मियाँ – आप क्या फरमाते हैं, हमने तो कोई बात ऐसी नहीं देखी।

जानी बेगम की रग-रग में शोखी भरी हुई थी। खोजी को बनाने की एक तरकीब सूझी। बोलीं – एक बात हमें सूझी है। अभी हम किसी से कहेंगे नहीं।

बहार बेगम – हमसे तो कह दो।

जानी ने बहार बेगम के कान में आहिस्ता से कुछ कहा।

बहार – क्या हरज है, बूढ़ा ही तो है।

सिपहआरा – आखिर कुछ कहो तो बाजीजान! हमसे कहने में कुछ हरज है?

बहार – जानी बेगम कह दें तो बता दूँ।

जानी – नहीं, किसे से न कहो।

जानी बेगम और बहार बेगम दोनों उठ कर दूसरे कमरे में चली गईं। यहाँ इन सबाके हैरत हो रही थीं कि या खुदा! इन सबों को कौन तरकीब सूझी है, जो इतना छिपा रही हैं। अपनी-अपनी अक्ल दौड़ाने लगीं।

नाजुक – हम समझ गए। अफीमी आदमी है। उसकी डिबिया चुराने की फिक्र होगी।

हुस्नआरा – यह बात नहीं, इसमें चोरी क्या थी?

इतने में बहार बेगम ने आ कर कहा – चलो, बाग में चल कर बैठें। ख्वाजा साहब पहले ही से बाग में बैठे हुए थे। एकाएक क्या देखते हैं कि एक गभरू जवान सामने से ऐंठता-अकड़ता चला आता है। अभी मसें भी नहीं भीगीं। जालीलोट का कुरता, उस पर शरबती कटावदार अँगरखा, सिर पर बाँकी पगिया और हाथ में कटार।

हुस्नआरा – यह कौन है अल्लाह? जरा पूछना तो।

सिपहआरा – ओफ्फोह! बाजीजान, पहचानो तो भला।

हुस्नआरा – अरे! बड़ा धोखा दिया।

नाजक – सचमुच! बेशक बड़ा धोखा दिया! ओफ्फोह!

सिपहआरा – मैं तो पहले समझी ही न थी कुछ।

इतने में वह जवान खोजी के करीब आया और यह चकराए कि इस बाग में इसका गुजर कैसे हुआ। उसकी तरफ ताक ही रहे थे कि बहार बेगम ने गुल मचा कर कहा – ऐ! यह कौन मरदुआ बाग में आ गया। ख्वाजा साहब, तुम बैठे देख रहे हो और यह लौंडा भीतर चला आता है! इसे निकाल क्यों नहीं देते हैं?

खोजी – अजी हजरत, आखिर आप कौन साहब हैं? पराए जनाने में घुसे जाते हो, यह माजरा क्या है?

जवान – कुछ तुम्हारी शामत तो नहीं आई है? चुपचाप बैठे रहो।

खोजी – सुनिए साहब, हम और आप दोनों एक ही पेशे के आदमी हैं।

जवान – (बात काट कर) हमने कह दिया, चुप रहो, वरना अभी सिर उड़ा दूँगा। हम हुस्नआरा बेगम के आशिक हैं। सुना है कि आजाद यहाँ आए हैं; और हुस्नआरा के पास निकाह का पैगाम भेजनेवाले हैं। बस,अब यही धुन है कि उनसे दो-दो हाथ चल जाय।

खोजी – आजाद का मुकाबिला तुम क्या खा कर करोगे। उसने लड़ाइयाँ सर की हैं। तुम अभी लौंडे हो।

जवान – तू भी तो उन्हीं का साथी है। क्यों न पहले तेरा ही काम तमाम कर दूँ।

खोजी – (पैंतरे बदल कर) हम किसी से दबनेवाले नहीं हैं।

जवान – आज ही का दिन तेरी मौत का था।

खोजी – (पीछे हट कर) अभी किसी मर्द से पाला नहीं पड़ा है।

जवान – क्यों नाहक गुस्सा दिलाता है। अच्छा, ले सँभल।

जवान ने तलवार घुमाई तो खोजी घबरा कर पीछे हटे और गिर पड़े। बस करौली की याद करने लगे। औरतें तालियाँ बजा-बजा कर हँसने लगीं।

जवान – बस, इसी बिरते पर भूला था?

खोजी – अजी, मैं अपने जोम में आप आ रहा। अभी उठूँ तो कयामत बरपा कर दूँ।

जवान – जा कर आजाद से कहना कि होशियार रहें।

खोजी – बहुतों का अरमान निकल गया। उनकी सूरत देख लो, तो बुखार आ जाय।

जवान – अच्छा, कल देखूँगा।

यह कह कर उसने बहार बेगम का हाथ पकड़ा और बेधड़क कोठे पर चढ़ गया। चारों बहनें भी उसके पीछे-पीछे ऊपर चली गईं।

खोजी यहाँ से चले तो दिल में सोचते जाते थे कि आजाद से चल कर कहता हूँ, हुस्नआरा के एक और चाहने वाले पैदा हुए हैं। कदम-कदम पर हाँक लगाते थे, घडी दो में मुरलिया बाजेगी। इत्तफाक से रास्ते में उसी होटल का खानसामा मिल गया, जहाँ आजाद ठहरे थे। बोला – अरे भाई! इस वक्त कहाँ लपके हुए जाते हो? खैर तो है? आज तो आप गरीबों से बात ही नहीं करते।

खोजी – घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

खानसामा – भई वाह! सारी दुनिया घूम आए, मगर कैंडा वही है। हम समझे थे कि आदमी बन कर आए होंगे।

खोजी – तुम जैसों से बातें करना हमारी शान के खिलाफ है।

खानसामा – हम देखते हैं, वहाँ से तुम और भी गाउदी हो कर आए हो।

थोड़ी देर में आप गिरते-पड़ते होटल में दाखिल हुए और आजाद को देखते ही मुँह बना कर सामने खड़े हो गए।

आजाद – क्या खबरें लाए?

खोजी – (करौली को दाएँ हाथ से बाएँ हाथ में ले कर) हूँ!!!

आजाद – अरे भाई, गए थे वहाँ?

खोजी – (करौली को बाएँ हाथ से दाएँ हाथ में ले कर) हूँ!!

आजाद – अरे, कुछ मुँह से बोलो भी तो मियाँ!

खोजी – घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

आजाद – क्या? कुछ सनक तो नहीं गए! मैं पूछता हूँ, हुस्नआरा बेगम के यहाँ गए थे? किसी से मुलाकात हुई? क्या रंग-ढंग है।

खोजी – वहाँ नहीं गए थे तो क्या जहन्नुम में गए थे? मगर कुछ दाल में काला है।

आजाद – भाई साहब, हम नहीं समझे। साफ-साफ कहो, क्या बात हुई? क्यों उलझन में डालते हो।

खोजी – अब वहाँ आपकी दाल नहीं गलने की।

आजाद – क्या? कैसी दाल? यह बकते क्या हो?

खोजी – बकता नहीं, सच कहता हूँ।

आजाद – खोजी, अगर साफ-साफ न बयान करोगे तो इस वक्त बुरी ठहरेगी।

खोजी – उलटे मुझी को डाँटते हो। मैंने क्या बिगाड़ा?

आजाद – वहाँ का मुफस्सल हाल क्यों नहीं बयान करते?

खोजी – तो जनाब, साफ-साफ यह है कि हुस्नआरा बेगम के एक और चाहने वाले पैदा हुए हैं। हुस्नआरा बेगम और उनकी बहनें बाग के बँगले में बैठी थीं कि एक जवान अंदर आ पहुँचा और मुझे देखते ही गुस्से से लाल हो गया।

आजाद – कोई खूबसूरत आदमी है?

खोजी – निहायत हसीन, और कमसिन।

आजाद – इसमें कुछ भेद है जरूर। तुम्हें उल्लू बनाने के लिए शायद दिल्लगी की हो। मगर हमें इसका यकीन नहीं आता।

खोजी – यकीन तो हमें भी मरते दम तक नहीं आता, मगर वहाँ तो उसे देखते ही कहकहे पड़ने लगे।

अब उधर का हाल सुनिए। सिपहआरा ने कहा – अब दिल्लगी हो कि वह जा कर आजाद से सारा किस्सा कहे।

हुस्नआरा – आजाद ऐसे कच्चे नहीं हैं।

सिपहआरा – खुदा जाने, वह सिड़ी वहाँ जा कर क्या बके। आजाद को चाहे पहले यकीन न आए, लेकिन जब वह कसमें खा कर कहने लगेगा तो उनको जरूर शक हो जायगा।

हुस्नआरा – हाँ, शक हो सकता है, मगर क्या क्या जाय। क्यों न किसी को भेज कर खोजी को होटल से बुलवाओ। जो आदमी बुलाने जाय वह हँसी-हँसी में आजाद से यह बात कह दे।

हुस्नआरा की सलाह से बूढ़े मियाँ आजाद के पास पहुँचे, और बड़े तपाक से मिलने के बाद बोले – वह आपके मियाँ खोजी कहाँ हैं? जरा उनको बुलवाइए।

आजाद – आपके यहाँ से जो अये तो गुस्से में भरे हुए। अब मुझसे बात ही नहीं करते।

बूढ़े मियाँ – वह तो आज खूब ही बनाए गए।

बूढ़े मियाँ ने सारा किस्सा बयान कर दिया। आजाद सुन कर खूब हँसे और खोजी को बुला कर उनके सामने ही बूढ़े मियाँ से बोले – क्यों साहब, आपके यहाँ क्या दस्तूर है कि कटारबाजों को बुला-बुला कर शरीफों से भिड़वाते हें।

बूढ़े मियाँ – ख्वाजा साहब को आज खुदा ही ने बचाया।

आजाद- मगर यह तो हमसे कहते थे कि वह जवान बहुत दुबला-पतला आदमी है। इनसे-उससे अगर चलती तो यह उनको जरूर नीचा दिखाते।

खोजी – अजी, कैसा नीचा दिखाना? वह तलवार चलाना क्या जाने!

आजाद – आज उसको बुलवाइए, तो इनसे मुकाबिला हो जाय।

खोजी – हमारे नजदीक उसको बुलवाना फजूल है। मुफ्त की ठाँय-ठाँय से क्या फायदा। हाँ, अगर आप लोग उस बेचारे की जान के दुश्मन हुए हैं तो बुलवा लीजिए।

यह बातें हो ही रही थीं कि बैरा ने आ कर कहा – हुजूर, एक गाड़ी पर औरतें आई हैं। एक खिदमतगार ने जो गाड़ी के साथ है, हुजूर का नाम लिया और कहा कि जरा यहाँ तक चले आएँ।

आजाद को हैरत हुई कि औरतें कहाँ से आ गईं! खोजी को भेजा कि जा कर देखो। खोजी अकड़ते हुए सामने पहुँचे, मगर गाड़ी से दस कदम अलग।

खिदमतगार – हजरत, जरी सामने यहाँ तक आइए।

खोजी – ओ गीदी, खबरदार जो बोला!

खिदमतगार – ऐं! कुछ सनक गए हो क्या?

बैरा – गाड़ी के पास के नहीं जो भई! दूर क्यों खड़े हो?

खोजी – (करौली तौल कर) बस खबरदार!

बैरा – ऐं! तुमको हुआ क्या है? जाते क्यों नहीं सामने?

खोजी – चुप रहो जी। जानो न बूझो, आए वहाँ से। क्या मेरी जान फालतू है, जो गाड़ी के सामने जाऊँ?

इत्तफाक से आजाद ने उनकी बेतुकी हाँक सुन ली। फौरन बाहर आए कि कहीं किसी से लड़ न पड़ें। खोली से पूछा – क्यों साहब, यह आप किस पर बिगड़ रहे हैं? जवाब नदारद। वहाँ से झपट कर आजाद के पास आए और करोली घुमाते हुए पैतरे बदलने लगे।

आजाद – कुछ मुँह से तो कहो। खुद भी जलील होते हो और मुझे भी जलील करते हो।

खोजी – (गाड़ी की तरफ इशारा करके) अब क्या होगा?

खिदमतगार – हुजूर, इन्होंने आते ही पैतरा बदला, और यह काठ का खिलौना नचाना शुरू किया। न मेरी सुनते हैं, न अपनी कहते हैं।

खोजी – (आजाद के कान में) मियाँ, इस गाड़ी में औरतें नहीं है। वही लौंडा तुमसे लड़ने आया होगा।

आजाद – यह कहिए, आपके दिल में वह बात जमी हुई थी। आप मेरे साथ बहुत हमदर्दी न कीजिए, अलग जाके बैठिए।

मगर खोजी के दिल में खुप गई थी कि इस गाड़ी में वही जवान छिपके आया है। उन्होंने रोना शुरू किया। अब आजाद लाख-लाख समझाते हैं कि देखो, होटल के और मुसाफिरों को बुरा मालूम होगा, मगर खोजी चुप ही नहीं होते। आखिर आपने कहा – जो लोग इस पर सवार हों, वह उतर आएँ। पहले में देख लूँ, फिर आप जायँ। आजाद ने खिदमतगार से कहा – भाई, अगर वह लोग मंजूर करें तो यह बूढ़ा आदमी झाँक कर देख ले। इस सिड़ी को शक हुआ है कि इसमें कोई और बैठा है। खिदमतगार ने जा कर पूछा, और बोला – सरकार कहती हैं, हाँ, मंजूर है। चलिए, मगर दूर ही से झाँकिएगा।

खोजी – (सबसे रुखसत हो कर) लो यारो, अब आखिरी सलाम है। आजाद खुदा तुमको दोनों जहान में सुर्खरू रखे।

छुटता है मुकाम, कूच करता हूँ मैं,

रुखसत ऐ जिंदगी कि मरता हूँ मैं।

अल्लाह से लौ लगी हुई है मेरी;

ऊपर के दम इस वास्ते भरता हूँ।

खिदमतगार – अब आखिर मरने तो जाते ही हो, जरा कदम बढ़ाते न चलो। जैसे अब मरे, वैसे आध घड़ी के बाद।

आजाद – क्यों मुरदे को छेड़ते हो जी।

बग्घी से हँसी की आवाजें आ रही थीं। खोजी आँखों में आँसू भरे चले आ रहे थे कि उनके भाई नजर पड़े। उनको देखते ही खोजी ने हाँक लगाई – आइए भाई साहब! आखिरी वक्त आपसे खूब मुलाकात हुई।

रईस – खैर तो है भाई! क्या अकेले ही चले जाओगे? मुझे किसके भरोसे छोड़े जाते हो?

खोजी भाई के गले मिल कर रोने लगे। जब दोनों गले मिल कर खूब रो चुके तो खोजी ने गाड़ी के पास जा कर खिदमतगार से कहा – खोल दे। ज्यों ही गरदन अंदर डाली तो देखा, दो औरतें बैठी हैं। इनका सिर ज्यों ही अंदर पहुँचा, उन्होंने इनकी पगड़ी उतार कर दो चपतें लगा दीं। खोजी की जान में जान आई। हँस दिए। आ कर आजाद से बोले – अब आप जायँ, कुछ मुजायका नहीं है। आजाद ने होटल के आदमियों को वहाँ से हटा दिया और उन औरतों से बातें करने लगे।

आजाद – आप कौन साहब हैं?

बग्घी में से आवाज आई – आदमी हैं साहब! सुना कि आप आए हैं, तो देखने चले आए। इस तरह मिलना बुरा तो जरूर है; मगर दिल ने न माना।

आजाद – जब इतनी इनायत की है तो अब नकाब दूर कीजिए और मेरे कमरे तक आइए।

आवाज – अच्छा, पेट से पाँव निकले! हाथ देते ही पहुँचा पकड़ लिया।

आजाद – अगर आप न आयँगी तो मेरी दिलशिकनी होगी। इतना समझ लीजिए।

आवाज – ऐ, हाँ! खूब याद आया। वह जो दो लेडियाँ आपके साथ आई हैं, वह कहाँ हैं? परदा करा दो तो हम उनसे मिल लें।

आजाद – बहुत अच्छा, लेकिन मैं रहूँ या न रहूँ?

आवाज – आप से क्या परदा है।

आजाद ने परदा करा दिया। दोनों औरतें गाड़ी से उतर पड़ीं और कमरे में आईं। मिसों ने उनसे हाथ मिलाया; मगर बातें क्या होतीं। मिसें उर्दू क्या जानें और बेगमों को फ्रांसीसी जबान से क्या मतलब। कुछ देर तक वहाँ बैठे रहने के बाद, उनमें से एक ने, जो बहुत ही हसीन और शोख थी; आजाद से कहा – भई, यहाँ बैठे-बैठे तो दम घुटता है। अगर परदा हो सके तो चलिए, बाग की सैर करें।

आजाद – यहाँ तो ऐसा कोई बाग नहीं। मुझे याद नहीं आता कि आपसे पहले कब मुलाकात हुई।

हसीना ने आँखों में आँसू भर कर कहा – हाँ साहब, आपको क्यों याद आएगा। आप हम गरीबों को क्यों याद करने लगे। क्या यहाँ कोई ऐसी जगह भी नहीं, जहाँ कोई गैर न हो। यहाँ तो कुछ कहते-सुनते नहीं बनता। चलिए, किसी दूसरे कमरे में चलें।

आजाद को एक अजनबी औरत के साथ दूसरे कमरे में जाते शर्म तो आती थी, मगर यह समझ कर कि इसे शायद कोई परदे की बात कहनी होगी, उसे दूसरे कमरे में ले गए और पूछा- मुझे आपका हाल सुनने की बड़ी तमन्ना है। जहाँ तक मुझे याद आता है, मैंने आपको कभी नहीं देखा है। आपने मुझे कहाँ देखा था?

औरत – खुदा की कसम, बड़े बेवफा हो। (आजाद के गले में हाथ डाल कर) अब भी याद नहीं आता! वाह से हम!

आजाद – तुम मुझे बेवफा चाहे कह लो; पर मेरी याद इस वक्त धोखा दे रही है।

औरत – हाय अफसोस! ऐसा जालिम नहीं देखा –

न क्योंकर दम निकल जाए कि याद आता है रह-रह कर;

वह तेरा मुसकिराना कुछ मुझे ओठों में कह-कह कर।

आजाद – मेरी समझ ही में नहीं आता कि यह क्या माजरा है।

औरत – दिल छीन के बातें बनाते हो? इतना भी नहीं होता कि एक बोसा तो ले लो।

आजाद – यह मेरी आदत नहीं।

औरत – हाय! दिल सा घर तूने गारत कर दिया, और अब कहता है, यह मेरी आदत नहीं।

आजाद – अब मुझे फुरसत नहीं है, फिर किसी रोज आइएगा।

औरत – अच्छा, अब कब मिलोगे?

आजाद – अब आप तकलीफ न कीजिएगा।

यह कहते हुए आजाद उस कमरे से निकल आए। उनके पीछे-पीछे वह औरत भी बाहर निकली। दोनों लेडियों ने उसे देखा तो कट गईं। उसके बाल बिखरे हुए थे, चोली मसकी हुई। उस औरत ने आते ही आते आजाद को कोसना शुरू किया – तुम लोग गवाह रहना। यह मुझे अलग कमरे में ले गए और एक घंटे के बाद मुझे छोड़ा। मेरी जो हालत है, आप लोग देख रही हैं।

आजाद – खैरियत इसी में है कि अब आप जाइए।

औरत – अब मैं जाऊँ! अब किसी होके रहूँ?

क्लारिसा – (फ्रांसीसी में) यह क्या माजरा है आजाद?

आजाद – कोई छँटी हुई औरत है।

आजाद के तो होश उड़े हुए थे कि अच्छे घर बयाना दिया और वह चमक कर यही कहती थी – अच्छा, तुम्हीं कसम खाओ कि तुम मेरे साथ अकेले कमरे में थे या नहीं?

आजाद – अब जलील हो कर यहाँ से जाओगी तुम। अजब मुसीबत में जान पड़ी है।

औरत – ऐ है, अब मुसीबत याद आई! पहले क्या समझे थे?

आजाद – बस, अब ज्यादा न बढ़ना।

औरत – गाड़ीवान से कहो, गाड़ी बरामदे में लाए।

आजाद – हाँ, खुदा के लिए तुम यहाँ से जाओ।

औरत – जाती तो हूँ, मगर देखो तो क्या होता है!

जब गाड़ी रवाना हुई तो खोजी ने अंदर आ कर पूछा – इनसे तुम्हारी कब की जान-पहचान थी?

आजाद – अरे भाई, आज तो गजब हो गया।

खोजी – मना तो करता था कि इनसे दूर रहो, मगर आप सुनते किसकी हैं।

आजाद – झूठ बकते हो। तुमने तो कहा था कि आप जायँ, कुछ मुजायका नहीं है; और अब निकले जाते हो।

खोजी – अच्छा साहब, मुझी से गलती हुई। मैंने गाड़ीवान को चकमा दे कर सारा हाल मालूम कर लिया। यह दोनों कुंदन की छोकरियाँ हैं। अब यह सारे शहर में मशहूर करेंगी कि आजाद का हमसे निकाह होने वाला है।

आजाद – इस वक्त हमें बड़ी उलझन है भाई! कोई तदबीर सोचो।

खोजी – तदबीर तो यही हैं कि मैं कुंदन के पास जाऊँ और उसे समझा-बुझा कर ढर्रे पर ले आऊँ।

आजाद – तो फिर देर न कीजिए। उम्र भर आपका एहसान मानूँगा।

खोजी – तो इधर रवाना हुए। अब आजाद ने दोनों लेडियों की तरफ देखा तो दोनों के चेहरे गुस्से से तमतमाए हुए थे। क्लारिसा एक नाविल पढ़ रही थी और मीडा सिर झुकाए हुए थी। उन दोनों को यकीन हो गया था कि औरत या तो आजाद की ब्याहता बीवी है या आशना। अगर जान-पहचान न होती तो उस कमरे में जा कर बैठने की दोनों में से एक को भी हिम्मत न होती। थोड़ी देर तक बिलकुल सन्नाटा रहा, आखिर आजाद ने खुद ही अपनी सफाई देनी शुरू की। बोले किसी ने सच कहा है, ‘कर तो डर, न कर तो डर’; मैंने इस औरत की आज तक सूरत भी न देखी थी। समझा कि कोई शरीफजादी मुझसे मिलने आई होगी। मगर ऐसी मक्कार और बेशर्म औरत मेरी नजर से नहीं गुजरी।

दोनों लेडियों ने इसका कुछ जवाब न दिया। उन्होंने समझा कि आजाद हमें चकमा दे रहे हैं। अब तो आजाद के रहे-सहे हवास भी गायब हो गए। कुछ देर तक तो जब्त किया मगर न रहा गया। बोले – मिस मीडा, तुमने इस मुल्क की मक्कार औरतें अभी नहीं देखीं।

मीडा – मुझे इन बातों से क्या सरोकार है।

आजाद – उसकी शरारत देखी?

मीडा – मेरा ध्यान उस वक्त उधर न था।

आजाद – मिस क्लारिसा, तुम कुछ समझीं या नहीं।

क्लारिसा – मैंने कुछ खयाल नहीं किया।

आजाद – मुझ सा अहमक भी कम होगा। सारी दुनिया से आ कर यहाँ चरका खा गया।

मीडा – अपने किए का क्या इलाज, जैसा किया, वैसा भुगतो।

आजाद – हाँ, यही तो मैं चाहता था कि कुछ कहो तो सही। मीडा, सच कहता हूँ, जो कभी पहले इसकी सूरत भी देखी हो। मगर इसने वह दाँव-पेंच किया कि बिलकुल अहमक बन गए।

मीडा – अगर ऐसा था तो उसे अलग कमरे में क्यों ले गए?

आजाद – इसी गलती का तो रोना है। मैं क्या जानता था कि वह यह रंग लाएगी।

मीडा – यह तो जो कुछ हुआ सो हुआ। अब आगे के लिए क्या फिक्र की है? उसकी बाचतीत से मालूम होता था कि वह जरूर नालिश करेगी।

आजाद – इसी का तो मुझे भी खौफ है। खोजी को भेजा है कि जा कर उसे धमकाएँ। देखो, क्या करके आते हैं।

उधर खोजी गिरते-पड़ते कुंदन के घर पहुँचे, तो दो-तीन औरतों को कुछ बाते करते सुना। कान लगा कर सुनने लगे।

‘बेटा, तुम तो समझती ही नहीं हो; बदनामी कितनी बड़ी है।’

‘तो अम्माँ जान, बदनामी का ऐसा ही डर हो तो सभी न दब जाया करें?’

‘दबते ही हैं। उस फौजी अफसर से नहीं खड़े-खड़े गिनवा लिए!’

‘अच्छा अम्माँजान, तुम्हें अख्तियार है; मगर नतीजा अच्छा न होगा।’

खोजी से अब न रहा गया। झल्ला कर बोले – ओ गीदी, निकल तो आ। देख तो कितनी करौलियाँ भोंकता हूँ। बढ़-बढ़के बातें बनाती हैं? नालिश करेगी, और बदनाम करेगी।

कुंदन ने यह आवाज सुनी तो खिड़की से झाँका। देखा, तो एक ठिंगना सा आदमी पैतरे बदल रहा है। महरी से कहा कि दरवाजा खोल कर बुला लो। महरी ने आ कर कहा – कौन साहब हैं? आइए।

खोजी अकड़ते हुए अंदर गए और एक मोढ़े पर बैठे। बैठना ही था कि सिर नीचे और टाँगें ऊपर! औरतें हँसने लगीं। खैर, आप सँभल कर दूसरे मोढ़े पर बैठे और कुछ बोलना ही चाहते थे कि कुंदन सामने आई और आते ही खोजी को एक धक्का दे कर बोली – चूल्हे में जाय ऐसा मियाँ। बरसों के बाद आज सूरत दिखाई तो भेस बदल कर आया। निगोड़े, तेरा जनाजा निकले। तू अब तक था कहाँ?

खोजी – यह दिल्लगी हमको पसंद नहीं।

कुंदन – (धप लगा कर) तो शादी क्या समझ कर की थी?

शादी का नाम सुन कर खोजी की बाँछें खिल गईं। समझे कि मुफ्त में औरत हाथ आई। बोले – तो शादी इसलिए की थी कि जूतियाँ खायँ?

कुंदन – आखिर, तू इतने दिन था कहाँ? ला, क्या कमा कर लाया है।

यह कह कर कुंदन ने उनकी जेब टटोली तो तीन रुपए और कुछ पैसे निकले। वह निकाल लिए। वह बेचारे हाँ-हाँ करते ही रहे कि सबों ने उन्हें घर से निकाल कर दरवाजा बंद कर दिया। खोजी वहाँ से भागे और रोनी सूरत बनाए हुए होटल में दाखिल हुए।

आजाद ने पूछा – कहो भाई, क्या कर आए? ऐं! तुम तो पिटे हुए से जान पड़ते हो।

खोजी – जरा दम लेने दो। मामला बहुत नाजुक है। तुम तो फँसे ही थे, मैं भी फँस गया। इस सूरत का बुरा हो, जहाँ जाता हूँ वहीं चाहने वाले निकल आते हैं। एक पंडित ने कहा था कि तुम्हारे पास मोहिनी है। उस वक्त तो उसकी बात मुझे कुछ न जँची, मगर अब देखता हूँ तो उसने बिलकुल सच कहा था।

आजाद – तुम तो हो सिड़ी। ऐसे ही तो बड़ी हसीन हो। मेरी बाबत भी कुंदन से कुछ बातचीत हुई या आँखें ही सेकते रहे?

खोजी – बड़े घर की तैयारी कर रखो। बंदा वहाँ भी तुम्हारे साथ होगा।

आजाद – बाज आया आपके साथ से। तुम्हें खिलाना-पिलाना सब अकारथ गया। बेहतर है, तुम कहीं और चले जाओ।

इस पर खोजी बहुत बिगड़े। बोले – हाँ साहब, काम निकल गया न? अब तो मुझसे बुरा कोई न होगा।

खानसामा – क्या है ख्वाजा जी, क्यों बिगड़ गए?

खोजी – तू चुप रह कुली, ख्वाजा जी! और सुनिएगा?

खानसामा – मैंने तो आपकी इज्जत की थी।

खोजी – नहीं, आप माफ कीजिए। क्या खूब। टके का आदमी और हमसे इस तरह पर पेश आए। मगर तुम क्या करोगे भाई, हमारा नसीबा ही फिरा हुआ है। खैर, जो चाहो, सुनाओ। अब हम यहाँ से कूच करते हैं। जहाँ हमारे कद्रदाँ हैं, वहाँ जायँगे।

खानसामा – यहाँ से बढ़के आपका कौन कद्रदाँ होगा? खाना आपको दें, कपड़ा आपको दें, उस पर दोस्त बना कर रखें; फिर अब और क्या चाहिए?

खोजी – सच है भाई, सच है। हम आजाद के गुलाम तो हैं ही। उन्हीं से कसम लो कि उनके बाद-दादा हमारे बुजुर्गों के टुकड़े खा कर पले थे या नहीं।

आजाद – आपकी बातें सुन रहा हूँ। जरा इधर देखिएगा।

खोजी – सौ सोनार की, तो एक लोहार की।

आजाद – हमारे बाप-दादा आपके टुकड़खोरे थे?

खोजी – जी हाँ, क्या इसमें कुछ शक भी है?

इतने में खानसामा ने दूर से कहा – ख्वाजा साहब, हमने तो सुना है कि आपके वालिद अंडे बेचा करते थे।

इतना सुनना था कि खोजी आग हो गए और एक तवा उठा कर खानसामा की तरफ दौड़े। तवा बहुत गर्म था। अच्छी तरह उठा भी नहीं पाए थे कि हाथ जल गया। झिझक कर तवे को जो फेंका तो खुद भी मुँह के बल गिर पड़े।

खानसामा – या अली, बचाइयो।

बैरा – तवा तो जल रहा था, हाथ जल गया होगा।

मीडा – डाक्टर को फौरन बुलाओ।

खानसामा – उठ बैठो भाई, कैसे पहलवान हो!

आजाद – खुदा ने बचा लिया, वरना जान ही गई थी।

ख्वाजा साहब चुपचाप पड़े हुए थे। खानसामा ने बरामदे में एक पलंग बिछाया और दो आदमियों ने मिल कर खोजी को उठाया कि बरामदे में ले जायँ। उसी वक्त एक आदमी ने कहा – अब बचना मुश्किल है। खोजी अक्ल के दुश्मन तो थे ही। उनको यकीन हो गया कि अब आखिरी वक्त है। रहे-सहे हवास भी गायब हो गए। खानसामा और होटल के और नौकर-चाकर उनको बनाने लगे।

खानसामा – भाई, दुनिया इसी का नाम है। जिंदगी का एतबार क्या।

बैरा – इसी बहाने मौत लिखी थी।

मुहर्रिर – और अभी नौजवान आदमी हैं। इनकी उम्र ही क्या है!

आजाद – क्या, हाल क्या है? नब्ज का कुछ पता है?

खानसामा – हुजूर, अब आखिरी वक्त है। अब कफन-दफन की फिक्र कीजिए।

यह सुन कर खोजी जल-भुन गए। मगर आखिरी वक्त था, कुछ बोल न सके।

आजाद – किसी मौलवी को बुलाओ।

मुहर्रिर – हुजूर, यह न होगा। हमने कभी इनको नमाज पढ़ते नहीं देखा।

आजाद – भई, इस वक्त यह जिक्र न करो।

मुहर्रिर – हुजूर मालिक हैं, मगर यह मुसलमान नहीं हैं।

खोजी का बस चलता तो मुहर्रिर की बोटियाँ नोच लेते; मगर इस वक्त वह मर रहे थे।

खानसामा – कब्र खुदवाइए, अब इनमें क्या है?

बैरा – इसी सामनेवाले मैदान में इनको तोप दो।

खोजी का चेहरा सुर्ख हो गया। कंबख्त कहता है, तोप दो! यह नहीं कहता कि आपको दफन कर दो।

आजाद – बड़ा अच्छा आदमी था बेचारा।

खानसामा – लाख सिड़ी थे, मगर थे नेक।

बैरा – नेक क्या थे। हाँ, यह कहो कि किसी तरह निभ गई।

खोजी अपना खून पीके रह गए, मगर मजबूर थे।

मुहर्रिर – अब इनको मिलके तोप ही दीजिए।

आजाद – घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

बैरा – ख्वाजा साहब, कहिए, अब कितनी देर में मुरलिया बाजेगी?

आजाद – अब इस वक्त क्या बताएँ बेचारे अफसोस है!

खानसामा – अफसोस क्यों हुजूर, अब मरने के तो दिन ही थे। जवान-जवान मरते जाते हैं। यह तो अपनी उम्र तमाम कर चुके। अब क्या आकबत के बोरिये बटोरेंगे?

आजाद – हाँ, है तो ऐसा ही, मगर जान बड़ी प्यारी होती है। आदमी चाहे दो सौ बरस का होके मरे, मगर मरते वक्त यही जी चाहता है कि दस बरस और जिंदा रहता।

खानसामा – तो हुजूर, यह तमन्ना तो उसको हो, जिसका कोई रोनेवाला हो। इनके कौन बैठा है।

इतने में होटल का एक आदमी एक चपरासी को हकीम बना कर लाया!

आजाद – कुर्सी पर बैठिए हकीम साहब।

हकीम – यह गुस्ताखी मुझसे न होगी। हुजूर बैठें।

आजाद – इस वक्त सब माफ है।

हकीम – यह बेअदबी मुझसे न होगी।

आजाद – हकीम साहब, मरीज की जान जाती है और आप तकल्लुफ करते हैं।

हकीम – चाहे मरीज मर जाय; मगर मैं अदब को हाथ से न जानू दूँगा।

खोजी को हकीम की सूरत से नफरत हो गई।

आजाद – आप तकल्लुफ में मरीज की जान ले लेंगे।

हकीम – अगर मौत है तो मरेगा ही, मैं अपनी आदत क्यों छोड़ूँ?

आजाद ने खोजी के कान में जोर से कहा – हकीम साहब आए हैं।

खोजी ने हकीम साहब को सलाम किया और हाथ बढ़ाया।

हकीम – (नब्ज पर हाथ रख कर) अब क्या बाकी है, मगर अभी तीन-चार दिन की नब्ज है; इस वक्त इनको ठंडे पानी से नहलाया जाय तो बेहतर है, बल्कि अगर पानी में बर्फ डाल दीजिए तो और भी बेहतर है।

आजाद – बहुत अच्छा। अभी लीजिए।

हकीम – बस, एक दो मन बर्फ काफी होगी।

इतने मे मिस मीडा ने आजाद से कहा – तुम भी अजीब आदमी हो। दो-चार होटलवालों को ले कर एक गरीब का खून अपनी गरदन पर लेते हो। खोजी की चारपाई हमारे कमरे के सामने बिछवा दो और इन आदमियों से कह दो कि कोई खोजी के करीब न आए।

इस तरह खोजी की जान बची। आराम से सोए। दूसरे दिन घूमते-घामते एक चंडूखाने में जा पहुँचे और छींटे उड़ाने लगे। एकाएक हुस्नआरा का जिक्र सुन कर उनके कान खड़ हुए। कोई कह रहा था कि हुस्नआरा पर एक शाहजादे आशिक हुए हैं, जिनका नाम कमरुद्दौला है। खोजी बिगड़ कर बोले – खबरदार, जो अब किसी ने हुस्नआरा का नाम फिर लिया। शरीफजादियों का नाम बद करता है बे!

एक चंडूबाज – हम तो सुनी-सुनाई कहते हैं साहब। शहर भर में यह खबर मशहूर है, आप किस-किसकी जबान रोकिएगा।

खोजी – झूठ है, बिलकुल झूठ।

चंडूबाज – अच्छा, हम झूठ कहते हैं तो ईदू से पूछ लीजिए।

ईदू – हमने तो यह सुना था कि बेगम साहब ने अखबार में कुछ लिखा था तो वह शाहजादे ने पढ़ा और आशिक हो गए, फौरन बेगम साहब के नाम से खत लिखा और शायद किसी बाँके को मुकर्रर किया है कि आजाद को मार डाले। खुदा जाने, सच है या झूठ।

खोजी – तुमने किससे सुनी है यह बात? इस धोखे में न रहना। थाने पर चलकर गवाही देनी होगी।

ईदू – हुजूर क्या आजाद के दोस्त हैं?

खोजी – दोस्त नहीं हूँ, उस्ताद हूँ। मेरा शागिर्द है।

ईदू – आपके कितने शागिर्द होंगे?

खोजी – यहाँ से ले कर रूम और शाम तक।

खोजी शाहजादे का पता पूछते हुए लाल कुएँ पर पहुँचे। देखा तो सैकड़ों आदमी पानी भर रहे हैं।

खोजी- क्यों भाई, यह कुआँ तो आज तक देखने में नहीं आया था।

भिश्ती- क्या कहीं बाहर गए थे आप?

खोजी – हाँ भई, बड़ा लंबा सफर करके लौटा हूँ।

भिश्ती – इसे बने तो चार महीने हो गए।

खोजी – अहा-हा! यह कहो, भला किसने बनवाया है?

भिश्ती – शाहजादा कमरूद्दौला ने।

खोजी – शाहजादा साहब रहते कहाँ हैं?

भिश्ती – तुम तो मालूम होता है, इस शहर में आज ही आए हो। सामने उन्हीं की बारादरी तो है।

खोजी यहाँ से महल के चोबदार के पास पहुँचे और अलेक-सलेक करके बोले – भाई, कोई नौकरी दिलवाते हो।

दरबान – दारोगा साहब से कहिए, शायद मतलब निकले।

खोजी – उनसे कब मुलाकात होगी?

दरबान – उनके मकान पर जाइए, और कुछ चटाइए।

खोजी – भला शाहजादे तक रसोई हो सकती है या नहीं?

दरबान – अगर कोई अच्छी सूरत दिखाओ तो पौ बारह हैं।

इतने में अंदर से एक आदमी निकला। दरबान से पूछा – किधर चले शेख जी?

शेख – हुक्म हुआ है कि किसी रम्माल को बहुत जल्द हाजिर करो।

खोजी – तो हमको ले चलिए। इस फन में हम अपना सानी नहीं रखते।

शेख – ऐसा न हो, आप वहाँ चल कर बेवकूफ बनें।

खोजी – अजी, ले तो चलिए। खुदा ने चाहा तो सुर्खरु ही रहूँगा।

शेख साहब उनको ले कर बारादरी में पहुँचे। शाहजादा साहब मसनद लगाए पेचवान पी रहे थे और मुसाहब लोग उन्हें घेरे बैठे हुए थे। खोजी ने अदब से सलाम किया और फर्श पर जा बैठे।

आगा – हुजूर, अगर हुक्म हो तो तारे आसमान से उतार लूँ।

मुन्ने – हक है। ऐसा ही रोब है हमारे सरकार का।

मिरजा – खुदावंद, अब हुजूर की तबीयत का क्या हाल है?

आगा – खुदा का फजल है। खुदा ने चाहा तो सुबह-शाम शिप्पा लड़ा ही चाहता है। हुजूर का नाम सुन कर कोई निकाह से इनकार करेगा भला?

मुन्ने – अजी, परिस्तान की हूर हो तो लौंडी बन जाय।

खोजी – खुदा गवाह है कि शहर में दूसरा रईस टक्कर का नहीं है। यह मालूम होता है कि खुदा ने अपने हाथ से बनाया है।

मिरजा – सुभान-अल्लाह! वाह! खाँ साहब, वाह! सच है।

शेख – खाँ साहब नहीं, ख्वाजा साहब कहिए।

मिरजा – अजी, वह कोई हों, हम तो इनसाफ के लोग हैं। खुदा को मुँह दिखाना है। क्या बात कही है। ख्वाजा साहब, आप तो पहली मरतबा इस सोहबत में शरीक हुए हैं। रफ्ता-रफ्ता देखिएगा कि हुजूर ने कैसा मिजाज पाया है।

शेख – बूढ़ों में बूढ़ें, जवानों में जवान।

खोजी – मुझसे कहते हो। शहर में कौन रईस है, जिससे मैं वाकिफ नहीं?

आगा – भई मिरजा, अब फतह है। उधर का रंग फीका हो रहा है। अब तो इधर ही झुकी हुई हैं।

मिरजा – वल्लाह! हाथ लाइएगा। मरदों का वार खाली जाय?

आगा – यह सब हुजूर का इकबाल है।

कमरुद्दौला – मैं तो तड़प रहा था, जिंदगी से बेजार था! आप लोगों की बदौलत इतना तो हो गया।

खोजी – हैरान थे कि यह क्या माजरा है। हुस्नआरा को यह क्या हो गया कि कमरुद्दौला पर रीझीं! कभी यकीन आता था, कभी शक होता था।

आगा – हुजूर का दूर-दूर तक नाम है।

मिरजा – क्यों नहीं, लंदन तक।

खोजी – कह दिया न भाईजान, कि दूसरा नजर नहीं आता।

शाहजादा – (आगा से) यह कहाँ रहते हैं और कौन हैं?

खोजी – जी, गरीब का मकान मुर्गी-बाजार में है।

आगा – जभी आप कुड़क रहे थे।

मिरजा – हाँ, अंडे बेचते तो हमने भी देखा था।

खोजी – जभी आप सदर-बाजार में टापा करते हैं।

शाहजादा – ख्वाजा साहब जिले में ताक हैं।

खोजी – आपकी कद्रदानी है।

बातों-बातों में यहाँ की टोह ले कर खोजी घर चले। होटल में पहुँचे तो आजाद को बूढ़े मियाँ से बातें करते देखा। ललकार कर बोले – लो, मैं भी आ पहुँचा।

आजाद – गुल न मचाओ, हम लोग न जाने कैसी सलाह कर रहे हैं, तुमको क्या; बे-फिक्रे हो। कुछ बसंत की भी खबर है? यहाँ एक नया गुल खिला है!

खोजी – अजी, हमें सब मालूम हैं। हमें क्या सिखाते हो।

आजाद – तुमसे किसने कहा?

खोजी – अजी, हमसे बढ़ कर टोहिया कोई हो तो ले। अभी उन्हीं कमरुद्दौला के यहाँ जा पहुँचा। पूरे एक घंटे तक हमसे-उनसे बातचीत रही। आदमी तो खब्ती सा है और बिलकुल जाहिल। मगर उसने हुस्नआरा को कहाँ से देख लिया? छोकरी है चुलबुली। कोठे पर गई होगी, बस उसकी नजर पड़ गई होगी।

बूढ़े मियाँ – जरा जबान सँभाल कर!

खोजी – आप जब देखो, तिरछे ही हो कर बातें करते हैं? क्या कोई आपका दिया खाता है या आपका दबैल है? बड़े अक्लमंद आप ही तो हैं एक!

इतने में फिटन पर एक अंगरेज आजाद को पूछता हुआ आ पहुँचा। आजाद ने बढ़ कर उससे हाथ मिलया और पूछा तो मालूम हुआ कि वह फौजी अफसर है। आजाद को एक जलसे का चेयरमैन बनने के लिए कहने आया है।

आजाद – इसके लिए आपने क्यों इतनी तकलीफ की? एक खत काफी था।

साहब – मैं चााहता हूँ कि आप इसी वक्त मेरे साथ चलें। लेक्चर का वक्त बहुत करीब है।

आजाद साहब के साथ चल दिए। टाउन-हाल में बहुत से आदमी जमा थे। आजाद के पहुँचते ही लोग उन्हें देखने के लिए टूट पड़े। और जब वह बोलने के लिए मेज के सामने खड़े हुए तो चारों तरफ समा बँध गया। जब वह बैठना चाहते तो लोग गुल मचाते थे, अभी कुछ और फरमाइए। यहाँ तक कि आजाद ही के बोलते-बोलते वक्त पूरा हो गया और साहब बहादुर के बोलने की नौबत न आई। शाहजादा कमरुद्दौला भी मुसाहबों के साथ जलसे में मौजूद थे। ज्यों ही आजाद बैठे, उन्होंने आगा से कहा – सच कहना, ऐसा खूबसूरत आदमी देखा है?

आगा – बिलकुल शेर मालूम होता है।

शाहजादा – ऐसा जवान दुनिया में न होगा।

आगा – और तकरीर कितनी प्यारी है?

शाहजादा – क्यों साहब, जब हम मरदों का यह हाल है, तो औरतों का क्या हाल होता होगा?

आगा – औरत क्या, परी आशिक हो जाय।

शाहजादा साहब जब यहाँ से चले तो दिल में सोचा-भला आजाद के सामने मेरी दाल क्या गलेगी? मेरा और आजाद का मुकाबिला क्या? अपनी हिमाकत पर बहुत शर्मिंदा हुए। ज्योंही मकान पर पहुँचे, मुसाहबों ने बेपर की उड़ानी शुरू की।

मिरजा – खुदावंद, आज तो मुँह मीठा कराइए। वह खुशखबरी सुनाऊँ कि फड़क जाइए। हुजूर उनके यहाँ एक महरी नौकर है। वह मुझसे कहती थी कि आज आपके सरकार की तसवीर का आजाद की तसवीर से मुकाबिला किया और बोलीं – मेरी शाहजादे पर जान जाती है।

और मुसाहबों ने भी खुशामद करनी शुरू की; मगर नवाब साहब ने किसी से कुछ न कहा। थोड़ी देर तक बैठे रहे। फिर अंदर चले गए। उनके जाने के बाद मुसाहबों ने आगा से पूछा – अरे मियाँ! बताओ तो, क्या माजरा है? क्या सबब है कि सरकार आज इतने उदास हैं?

आगा – भई, कुछ न पूछिए। बस, यही समझ लो कि सरकार की आँखें खुल गईं।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 109

आजाद के आने के बाद ही बड़ी बेगम ने शादी की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। बड़ी बेगम चाहती थीं कि बरात खूब धूम-धाम से आए। आजाद धूम-धाम के खिलाफ थे। इस पर हुस्नआरा की बहनों में बातें होने लगीं –

बहार बेगम – यह सब दिखाने की बातें हैं। किसी से दो हाथी माँगे, किसी से दो-चार घोड़े; कहीं से सिपाही आए, कहीं से बरछी-बरदार! लो साहब, बरात आई है। माँगे-ताँगे की बरात से फायदा?

बड़ी बेगम – हमको तो यह तमन्ना महीं है कि बरात धूम ही से दरवाजे पर आए। मगर कम से कम इतना तो जरूर होना चाहिए कि जग-हँसाई न हो।

जानी बेगम – एक काम कीजिए, एक खत लिख भेजिए।

गेती – हमारे खानदान में कभी ऐसा हुआ ही नहीं। हमने तो आज तक नहीं सुना। धुनिये जुलाहों के यहाँ तक तो अंगरेजी बाजा बरात के साथ होता है।

बहार – हाँ साहब, बरात तो वही है, जिसमें 50 हाथी, बल्कि फीलखाने का फीलखाना हो, साँड़िनियों की कतार दो मुहल्ले तक जाय। शहर भर के घोड़े और हवादार और तामदान हों और कई रिसाले, बल्कि तोपखाना भी जरूर हो। कदम-कदम पर आतशबाजी छूटती हो और गोले दगते हों। मालूम हो कि बरात क्या, किला फतह किया जाता है।

नाजुक – यह बस बुरी बातें हैं, क्यों?

बहार – जी नहीं, इन्हें बुरी कौन कहेगा भला।

नाजुक – अच्छा, वह जानें, उनका काम जाने।

हुस्नआरा ने जब देखा कि आजाद की जिद से बड़ी बेगम नाराज हुई जाती हैं तो आजाद के नाम एक खत लिखा –

प्यारे आजाद,

माना कि तुम्हारे खयालात बहुत ऊँचे हैं, मगर राह-रस्म में दखल देने से क्या नतीजा निकलेगा। अम्माँजान जिद करती हैं, और तुम इन्कार, खुदा ही खैर करे। हमारी खातिर से मान लो, और जो वह कहें सो करो।

आजाद ने इसका जवाब लिखा – जैसी तुम्हारी मर्जी। मुझे कोई उज्र नहीं है।

हुस्नआरा ने यह खत पढ़ा तो तस्कीन हुई। नाजुकअदा से बोलीं – लो बहन, जवाब आ गया।

नाजुक – मान गए या नहीं?

हुस्नआरा – न कैसे मानते।

नाजुक – चलो, अब अम्माँजान को भी तस्कीन हो गई।

बहार – मिठाइयाँ बाँटो। अब इससे बढ़ कर खुशी की और क्या बात होगी?

नाजुक – आखिर फिर रुपया अल्लाह ने किस काम के लिए दिया है?

बहार – वाह री अक्ल! बस, रुपया इसीलिए है कि आतशबाजी में फूँके या सजावट में लुटाये। और कोई काम ही नहीं?

नाजुक – और आखिर क्या काम है? क्या परचून की दुकान करे? चने बेचे? कुछ मालूम तो हो कि रुपया किस काम में खर्च किया जाय? दिल का हौसला और कैसे निकाले!

बहार – अपनी-अपनी समझ है।

नाजुक – खुदा न करे कि किसी की ऐसी उलटी समझ हो। लो साहब, अब बरात भी गुनाह है। हाथी, घोड़े, बाजा सब ऐब में दाखिल। जो बरात निकालते हैं, सब गधे हैं। एक तुम और दूसरे मियाँ आजाद दो आदमियों पर अक्ल खतम हो गई। जरा आने तो दो मियाँ को, सारी शेखी निकल जायगी।

दूसरे दिन बड़ी धूम-धाम से माँझे की तैयारी हुई। आजाद की तरफ खोजी मुहतमिम थे। आपने पुराने ढंग की जामदानी की अचकन पहनी जिसमें कीमती बेल टँकी हुई थी। सिर पर एक बहुत बड़ा शमला। कंधे पर कश्मीर का हरा दुशाला। इस ठाट से आप बाहर आए तो लोगों ने तालियाँ बजाईं। इस पर आप बहुत ही खफा हो कर बोले – यह तालियाँ हम पर नहीं बजाते हो। यह अपने बाप-दादों पर तालियाँ बजाते हो। यह खास उनका लिबास है। कई लौंडों ने उनके मुँह पर हँसना शुरू किया, मगर इंतजाम के धुन में खोजी को और कुछ न सूझता था। कड़क कर बोले – हाथियों को उसी तरफ रहने दो। बस, उसी लाइन में ला-ला कर हाथी लगाओ।

एक फीलवान – यहाँ कहीं जगह भी है? सबका भुरता बनाएँगे आप?

खोजी – चुप रह, बदमाश!

मिरजा साहब भी खड़े तमाशा देख रहे थे। बोले – भई, इस फन में तो तुम उस्ताद हो।

खोजी – (मुसकिरा कर) आपकी कद्रदानी है।

मिरजा – आपका रोब सब मानते हैं।

खोजी – हम किस लायक हैं भाईजान! दोस्तों का इकबाल है।

गरज इस धूम-धाम से माँझा दुलहिन के मकान पर पहुँचा कि सारे शहर में शोर मच गया। सवारियाँ उतरीं। मीरासिनों ने समधिनों को गालियाँ दीं। मियाँ आजाद बाहर से बुलवाये गए और उनसे कहा गया कि मढ़े के नीचे बैठिए। आजाद बहुत इनकार करते रहे; मगर औरतों ने एक न सुनी। नाजुक बेगम ने कहा – आप तो कभी से बिचकने लगे। अभी तो माँझे का जोड़ा पहनना पड़ेगा।

आजाद – यह मुझसे नहीं होने का।

जान बेगम – क्या फजूल रस्म है!

जानी – ले, अब पहनते हो कि तकरार करते हो? हमसे जनरैली न चलेगी।

बेगम – भला, यह भी कोई बात है कि माँझे का जोड़ा न पहनेंगे?

आजाद – अगर आपकी खातिर इसी में है तो लाइए, टोपी दे लूँ।

नाजुक बेगम – जब तक माँझे का पूरा जोड़ा न पहनोगे, यहाँ से उठने न पाओगे।

आजाद ने बहुत हाथ जोड़े, गिड़गिड़ा कर कहा कि खुदा के लिए मुझे इस पीले जोड़े से बचाओ। मगर कुछ बस न चला। सालियों ने अँगरखा पहनाया, कंगन बाँधा। सारी बातें रस्म के मुताबिक पूरी हुई।

जब आजाद बाहर गए तो सब बेगमें मिल कर बाग की सैर करने चलीं। गेतीआरा ने एक फूल तोड़ कर जानी बेगम की तरफ फेंका। उसने वह फूल रोक कर उन पर ताक के मारा तो आँचल से लगता हुआ चमन में गिरा। फिर क्या था, बाग में चारों तरफ फूलों की मार होने लगी। इसके बाद नाजुकअदा ने यह गजल गाई –

वाकिफ नहीं है कासिद मेरे गमे-निहाँ से,
वह काश हाल मेरा सुनते मेरी जबाँ से।

क्यों त्योरियों पर बल है, माथे पर शिकन है?
क्यों इस कदर हो बरहम, कुछ तो कहो जबाँ से।

कोई तो आशियाना सैयाद ने जलाया,
काली घटाएँ रो कर पलटी हैं बोस्ताँ से।

जाने को जाओ लेकिन, यह तो बताते जाओ,
किसर तरह बारे फुरकत उठेगा नातवाँ से।

बहार – जी चाहता है, तुम्हारी आवाज को चूम लूँ।

नाजुक – और मेरा जी चाहता है कि तुम्हारी तारीफ चूम लूँ।

बहार – हम तुम्हारी आवाज के आशिक हैं।

नाजुक – आपकी मेहरबानी। मगर कोई खूबसूरत मर्द आशिक हो तो बात है। तुम हम पर रीझीं तो क्या? कुछ बात नहीं।

बहार – बस, इन्हीं बातों से लोग उँगलियाँ उठाते हैं। और तुम नहीं छोड़तीं।

जानी – सच्ची आवाज भी कितनी प्यारी होती है!

नाजुक – क्या कहना है! अब दो ही चीजों में तो असर है, एक गाना, दूसरे हुस्न। अगर हमको अल्लाह ने ऐसा हुस्न न दिया होता, तो हमारे मियाँ हम पर क्यों रीझते?

बहार – तुम्हारा हुस्न तुम्हारे मियाँ को मुबारक हो! हम तो तुम्हारी आवाज पर मिटे हुए हैं।

नाजुक – और मैं तुम्हारे हुस्न पर जान देती हूँ। अब मैं भी बनाव-चुनाव करना तुमसे सीखूँगी।

नाजुक – बहन, अब तुम झेंपती हो। जब कभी तुम मिलीं, तुम्हें बनते-ठनते देखा। मुझसे दो-तीन साल बड़ी हो, मगर बारह बरस की बनी रहती हो। हैं तुम्हारे मियाँ किस्मत के धनी।

बहार – सुनो बहन, हमारी राय यह है कि अगर औरत समझदार हो, तो मर्द की ताकत नहीं कि उसे बाहर का चस्का पड़े।

साचिक के दिन जब चाँदी का पिटारा बाहर आया, तो खोजी बार-बार पिटारे का ढकना उठा कर देखने लगे कि कहीं शीशियाँ न गिरने लगें। मोतिये का इत्र खुदा जाने, किन दिक्कतों से लाया हूँ। यह वह इत्र है, जो आसफुद्दौला के यहाँ से बादशाह की बेगम के लिए गया था।

एक आदमी ने हँस कर कहा – इतना पुराना इत्र हुजूर को कहाँ से मिल गया?

खोजी – हूँ! कहाँ से मिल गया! मिल कहाँ से जाता? महीनों दौड़ा हूँ, तब जाके यह चीज हाथ लगी है।

आदमी – क्यों साहब यह बरसों का इत्र चिटक न गया होगा?

खोजी – वाह! अक्ल बड़ी कि भैंस? बादशाही कोठों के इत्र कहीं चिटका करते हैं? यह भी उन गंधियों का तेल हुआ, जो फेरी लगाते फिरते हैं!

आदमी – और क्यों साहब, केवड़ा कहाँ का है?

खोजी – केवड़िस्तान एक मुकाम है, कजलीवन के पास। वहाँ के केवड़ों से खींचा गया है।

आदमी – केवड़िस्तान! यह नाम तो आज ही सुना।

खोजी – अभी तुमने सुना ही क्या है? केवड़िस्तान का नाम ही सुन कर घबड़ा गए।

आदमी – क्यों हुजूर, यह कजलीवन कौन सा है, वही न, जहाँ घोड़े बहुत होते हैं?

खोजी – (हँस कर) अब बनाते हैं आप। कजलीवन में घोड़े नहीं, खास हाथियों का जंगल है।

आदमी – क्यों जनाब, केवड़िस्तान से तो केवड़ा आया, और गुलाब कहाँ का है? शायद गुलाबिस्तान का होगा?

खोजी – शाबाश! यह हमारी सोहबत का असर है कि अपने परों आप उड़ने लगे। गुलाबिस्तान कामरू-कमच्छा के पास है, जहाँ का जादू मशहूर है।

रात को जब साचिक का जुलूस निकला तो खोजी ने एक पनशाखेवाली का हाथ पकड़ा और कहा – जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा।

वह बिगड़ कर बोली – दुर मुए! दाढ़ी झुलस दूँगी, हाँ। आया वहाँ से बरात का दारोगा बनके, सिवा मुरहेपन के दूसरी बात नहीं।

खोजी – निकाल दो इस हरामजादी को यहाँ से।

औरत – निकाल दो इस मूड़ी को।

खोजी – अब मैं छूरी भोंक दूँगा, बस!

औरत – अपने पनशाखे से मुँह झुलस दूँगी। मुआ दीवाना, औरतों को रास्ते में छेड़ता चलता है।

खोजी – अरे मियाँ कांस्टेबिल, निकाल दो इस औरत को।

औरत – तू खुद निकाल दे, पहले।

जुलूस के साथ कई बिगड़े दिल भी थे। उन्होंने खोजी को चकमा दिया- जनाब, अगर इसने सजा न पाई तो आपकी बड़ी किरकिरी होगी। बदरोबी हो जायगी। आखिर, यह फैसला हुआ, आप कमर कस कर बड़े जोश के साथ पनशाखेवाली की तरफ झपटे। झपटते ही उसने पनशाखा सीधा किया और कहा – अल्लाह की कसम! न झुलस दूँ तो अपने बाप की नहीं।

लोगों ने खोजी पर फबतियाँ कसनी शुरू कीं।

एक – क्यों मेजर साहब, अब तो हारी मानी?

दूसरा – ऐं! करौली और छुरी क्या हुई!

तीसरा – एक पनशाखेवाली से नहीं जीत पाते, बड़े सिपाही की दुम बने हैं!

औरत – क्या दिल्लगी है! जरा जगह से बढ़ा, और मैंने दाढ़ी और मूँछ दोनों झुलस दिया।

खोजी – देखो, सब के सब देख रहे हैं कि औरत समझ कर इसको छोड़ दिया। वरना कोई देव भी होता तो हम बे कत्ल किए न छोड़ते इस वक्त।

जब साचिक दुलहिन के घर पहुँचा, तो दुलहिन की बहनों ने चंदन से समधिन की माँग भरी। हुस्नआरा का निखार आज देखने के काबिल था। जिसने देखा, फड़क गई। दुलहिन को फूलों का गहना पहनाया गया। इसके बाद छड़ियों की मार होने लगी। नाजुकअदा और जानी बेगम के हाथ में फूलों की छड़ियाँ थीं। समधिनों पर इतनी छड़ियाँ पड़ीं की बेचारी घबड़ा गईं।

जब माँझे और साचिक की रस्म अदा हो चुकी तो मेहँदी का जुलूस निकला। दुलहिन के यहाँ महफिल सजी हुई थी। डोमिनियाँ गा रही थीं। कमरे की दीवारें इस तरह रँगी हुई थीं कि नजर नहीं ठहरती थी। छतगीर की जगह सुर्ख मखमल का था। झाड़ और कँवल, मृदंग और हाँड़ियाँ सब सुर्ख। कमरा शीशमहल हो गया था। बेगमें भारी-भारी जोड़े पहने चहकती फिरती थीं। इतने में एक सुखपाल ले कर महरियाँ सहन में आईं। उस पर से एक बेगम साहब उतरीं, जिनका नाम परीबानू था।

सिपहआरा बोलीं – हाँ, अब नाजुकअदा बहन की जवाब देनेवाली आ गईं। बराबर की जोड़ है! यह कम न वह कम।

रूहअफजा – नाम बड़ा प्यारा है।

नाजुक – प्यारा क्यों न हो। इनके मियाँ ने यह नाम रखा है।

परीबानू – और तुम्हारे मियाँ ने तुम्हारा नाम क्या रखा है। चरबाँक महल?

इस पर बड़ी हँसी उड़ी। बारह बजे रात को मेहंदी रवाना हुई। जब जुलूस सज गया तो ख्वाजा साहब आ पहुँचे और आते ही गुल मचाना शुरू किया – सब चींजें करीने के साथ लगाओ और मेरे हुक्म के बगैर कोई कदम भी आगे न रखे। वरना बुरा होगा।

सजावट के तख्त बड़े-बड़े कारीगरों से बनवाए गए थे। जिसने देखा, दंग हो गया।

एक – यों तो सभी चीजें अच्छी हैं, मगर तख्त सबसे बढ़-चढ़ कर हैं।

दूसरा – बड़ा रुपया इन्होंने सर्फ किया है साहब।

तीसरा – ऐसा मालूम होता है कि सचमुच के फूल खिले हैं।

चौथा – जरा चंडूबाजों के तख्त को देखिए। ओहो-हो! सब के सब औंधे पड़े हुए हैं। आँखों से नशा टपका पड़ता है। कमाल इसे कहते हैं। मालूम होता है, सचमुच चंडूखाना ही है। वह देखिए, एक बैठा हुआ किस मजे से पौंडा छील रहा है।

इसके बाद तुर्क सवारों का तख्त आया। जवान लाल बानात की कुर्तियाँ पहने, सिर पर बाँकी टोपियाँ दिए, बूट चढ़ाए, हाथ में नंगी तलवारें लिए, बस यही मालूम होता था कि रिसाले ने अब धावा किया।

जब जुलूस दूल्हा के यहाँ पहुँचा तो बेगमें पालकियों से उतरीं। दूल्हा की बहनें और भावजें दरवाजे तक उन्हें लाने आईं। सब समधिनें बैठीं तो डोमिनियों ने मुबारकबाद गाई। फिर गालियों की बौछार होने लगी। आजाद को जब यह खबर हुई तो बहुत ही बिगड़े; मगर किसी ने एक न सुनी। अब आजाद के हाथों में मेहँदी लगाने की बारी आई। उनका इरादा था कि एक ही उँगली में मेहँदी लगाएँ, मगर जब एक तरफ सिपहआरा और दूसरी तरफ रूहअफजा बेगम ने दोनों हाथों में मेहँदी लगानी शुरू की तो उनकी हिम्मत न पड़ी कि हाथ खींच लें।

हँसी-हँसी में उन्होंने कहा – हिंदुओं के देखा-देखी हम लोगों ने यह रस्म सीखी है। नहीं तो अरब में कौन मेहँदी लगाता है।

सिपहआरा – जिन हाथों से तलवार चलाई, उन हाथों को कोई हँस नहीं सकता। सिपाही को कौन हँसेगा भला?

रूहअफजा – क्या बात कही है! जवाब दो तो जानें।

दो बजे रात को रूहअफजा बेगम को शरारत जो सूझी तो गेरू घोल कर सोते में महरियों को रँग दिया और लगे हाथ कई बेगमों के मुँह भी रँग दिए। सुबह को जानी बेगम उठीं तो उनको देख कर सब की सब हँसने लगीं। चकराईं कि आज माजरा क्या है। पूछा – हमें देख कर हँस रही हो क्या!

रूहअफजा – घबराओ नहीं, अभी मालूम हो जायगा।

नाजुक – कुछ अपने चेहरे की भी खबर है?

जानी – तुम अपने चेहरे की तो खबर लो।

दोनों आईने के पास जाके देखती हैं, तो मुँह रँगा हुआ। बहुत शर्मिंदा हुई।

रूहअफजा – क्यों बहन, क्या यह भी कोई सिंगार है?

जानी – अच्छा, क्या मुजायका है; मगर अच्छे घर बयाना दिया। आज रात होने दो। ऐसा बदला लूँ कि याद ही करो।

रूहअफजा – हम दरवाजे बंद करके सो रहेंगे। फिर कोई क्या करेगा!

जानी – चाहे दरवाजा बंद कर लो, चाहे दस मन का ताला डाल दो, हम उस स्याही से मुँह रँगेंगी, जिससे जूते साफ किए जाते हैं।

रूहअफजा – बहन, अब तो माफ करो। और यों हम हाजिर हैं। जूतों का हार गले में डाल दो।

इस तरह चहल-पहल के साथ मेहँदी की रस्म अदा हुई।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 110

खोजी ने जब देखा कि आजाद की चारों तरफ तारीफ हो रही है, और हमें कोई नहीं पूछता, तो बहुत झल्लाए और कुल शहर के अफीमचियों को जमा करके उन्होंने भी जलसा किया और यों स्पीच दी – भाइयों! लोगों का खयाल है कि अफीम खा कर आदमी किसी काम का नहीं रहता। मैं कहता हूँ, बिलकुल गलत। मैंने रूम की लड़ाई में जैसे-जैसे काम किए, उन पर बड़े से बड़ा सिपाही भी नाज कर सकता है। मैंने अकेले दो-दो लाख आदमियों का मुकाबिला किया है। तोपों के सामने बेधड़क चला गया हूँ। बड़े-बड़े पहलवानों को नीचा दिखा दिया है। और मैं वह आदमी हूँ, जिसके यहाँ सत्तर पुश्तों से लोग अफीम खाते आए हैं।

लोग – सुभान अल्लाह! सुभान-अल्लाह!!

खोजी – रही अक्ल की बात, तो मैं दुनिया के बड़े से बड़े शायर, बड़े से बड़े फिलास्फर को चुनौती देता हूँ कि वह आ कर मेरे सामने खड़ा हो जाय। अगर एक डपट में भगा न दूँ तो अपना नाम बदल डालूँ।

लोग – क्यों न हो।

खोजी – मगर आप लोग कहेंगे कि तुम अफीम की तारीफ करके इसे और गिराँ कर दोगे, क्योंकि जिस चीज की माँग ज्यादा होती है, वह महँगी बिकती है। मैं कहता हूँ कि इस शक को दिल में न आने दीजिए; क्योंकि सबसे ज्यादा जरूरत दुनिया में गल्ले की है। अगर माँग के ज्यादा होने से चीजें महँगी हो जातीं तो गल्ला अब तक देखने को भी न मिलता। मगर इतना सस्ता है कि कोरी चमार, धुनिये-जुलाहे सब खरीदते और खाते हैं। वजह यह कि जब लोगों ने देखा कि गल्ले की जरूरत ज्यादा है, तो गल्ला ज्यादा बोने लगे। इसी तरह जब अफीम की माँग होगी, तो गल्ले की तरह बोई जायगी और सस्ती बिकेगी। इसलिए हर एक सच्चे अफीमची का फर्ज है कि वह इसके फायदों को दुनिया पर रोशन कर दे।

एक – क्या कहना है! क्या बात पैदा की।

दूसरा – कमाल है, कमाल!

तीसरा – आप इस फन के खुदा हैं।

चौथा – मेरी तसल्ली नहीं हुई। आखिर, अफीम दिन-दिन क्यों महँगी होती जाती है?

पाँचवाँ – चुप रह! नामाकूल? ख्वाजा साहब की बात पर एतराज करता है! जा कर ख्वाजा साहब के पैरों पर गिरो और कहो कि कुसूर माफ कीजिए।

खोजी – भाइयो! किसी भाई को जलील करना मेरी आदत नहीं। गोकि खुदा ने मुझे बड़ा रुत्बा दिया है और मेरा नाम सारी दुनिया में रोशन है; मगर आदमी नहीं, आदमी का जौहर है। मैं अपनी जबान से किसी को कुछ न कहूँगा। मुझे यही कहना चाहिए कि मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नालायक, सबसे ज्यादा बदनसीब और सबसे ज्यादा जलील हूँ। मैंने मिस्र के पहलवान को पटकनी नहीं दी थी, उसी ने उठाके मुझे दे मारा था। जहाँ गया, पिटके आया। गो दुनिया जानती है कि ख्वाजा साहब का जोड़ नहीं; मगर अपनी जबान से मैं क्यों कहूँ। मैं तो यही कहूँगा कि बुआ जाफरान ने मुझे पीट लिया और मैंने उफ तक न की।

एक – खुदा बख्शे आपको। क्या कहना है उस्ताद।

दूसरा – पिट गए और उफ तक न की?

खोजी – भाइयों! गोकि मैं अपनी शान में इज्जत के बड़े-बड़े खिताब पेश कर सकता हूँ; मगर जब मुझे कुछ कहना होगा तो यही कहॅूगा कि मैं झक मारता हूँ। अगर अपना जिक्र करूँगा तो यही कहूँगा कि मैं पाजी हूँ। मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे जलीज समझें ताकि मुझे गुरूर न हो।

लोग – वाह-वाह! कितनी आजिजी है! जभी तो खुदा ने आपको यह रुतबा दिया।

खोजी – आजकल जमाना नाजुक है। किसी ने जरा टेढ़ी बात की और धर लिए गए। किसी को एक धौल लगाई और चालान हो गया। हाकिम ने 10 रुपया जुर्माना कर दिया या दो महीने की कैद। अब बैठे हुए चक्की पीस रहे हैं। इस जमाने में अगर निबाह है, तो आजिजी में। और अफीम से बढ़ कर आजिजी का सबक देने वाली दूसरी चीज नहीं।

लोग – क्या दलीलें हैं! सुभान अल्लाह!

खोजी – भाइयों, मेरी इतनी तारीफ न कीजिए, वरना मुझे गुरूर हो जायगा। मैं वह शेर हूँ, जिसने जंग के मैदान में करोड़ों को नीचा दिखाया। मगर अब तो आपका गुलाम हूँ।

एक – आप इस काबिल हैं कि डिबिया में बंद कर दे।

दूसरा – आपके कदमों की खाक ले कर ताबीज बनानी चाहिए।

तीसरा – इस आदमी की जबान चूमने के काबिल है।

चौथा – भाई, यह सब अफीम के दम का जहूरा है।

खोजी – बहुत ठीक। जिसने यह बात कही, हम उसे अपना उस्ताद मानते हैं। यह मेरी खानदानी सिफत है। एक नकल सुनिए – एक दिन बाजार में किसी ने चिड़ीमार से एक उल्लू के दाम पूछे। उसने कहा, आठ आने। उसी के बगल में एक और छोटा उल्लू भी था। पूछा, इसकी क्या कीमत है? कहा, एक रुपया। तब तो गाहक ने कान खड़े किए और कहा – इतने बड़े उल्लू के दाम आठ आने और जरा से जानवर का मोल एक रुपया? चिड़िमार ने कहा – आप तो हैं उल्लू। इतना नहीं समझते कि इस बड़े उल्लू में सिर्फ यह सिफत है कि यह उल्लू है और इस छोटे में दो सिफतें हैं। एक यह कि खुद उल्लू है, दूसरे उल्लू का पट्ठा है। तो भाइयो! आपका यह गुलाम सिर्फ उल्लू नहीं, बल्कि उल्लू का पट्ठा है।

एक – हम आज से अपने को उल्लू की दुम फाख्ता लिखा करेंगे।

दूसरा – हम तो जाहिल आदमी हैं, मगर अब अपना नाम लिखेंगे तो गधे का नाम बढ़ा देंगे। आज से हम आजिजी सीख गए।

खोजी – सुनिए, इस उल्लू के पट्ठे ने जो-हो काम किया, कोई करे तो जानें; उसकी टाँग की राह निकल जायँ। पहाड़ों को हमने काटा और बड़े-बड़े पत्थर उठा कर दुश्मन पर फेंके। एक दिन 44 मन का एक पत्थर एक हाथ से उठाकर रूसियों पर मारा तो दो लाख पच्चीस हजार सात सौ उनसठ आदमी कुचल के मर गए।

एक – ओफ्फोह! इन दुबले-पतले हाथ-पाँवों पर यह ताकत!

खोजी – क्या कहा? दुबले-पतले हाथ-पाँव! यह हाथ-पाँव दुबले-पतले नहीं। मगर बदन-चोर है। देखने में तो मालूम होता है कि मरा हुआ आदमी है; मगर कपड़े उतारे और देव मालूम होने लगा। इसी तरह मेरे कद का भी हाल है। गँवार आदमी देखे तो कहे कि बौना है। मगर जाननेवाले जानते हैं कि मेरा कद कितना ऊँचा है। रूम में जब दो-एक गँवारों ने मुझे बौना कहा, तो बेअख्तियार हँसी आ गई। यह खुदा की देन है कि हूँ तो मैं इतना ऊँचा; मगर कोई कलियुग की खूँटी कहता है, कोई बौना बनाता है। हूँ तो शरीफजादा; मगर देखनेवाले कहते हैं कि यह कोई पाजी है। अक्ल इस कदर कूट-कूट कर भरी है कि अगर फलातून जिंदा होता, तो शागिर्दी करता। मगर जो देखता है, कहता है कि यह गधा है। यह दरजा अफीम की बदौलत ही हासिल हुआ है।

अब तो यह हाल है कि अगर कोई आदमी मेरे सिर को जूतों से पीटे, तो उफ न करूँ। अगर किसी ने कहा कि ख्वाजा गधा है, तो हँस कर जवाब दिया कि मैं ही नहीं, मेरे बाप और दादा भी ऐसे ही थे।

एक – दुनिया में ऐसे-ऐसे औलिया पड़े हुए हैं!

खोजी – मगर इस आजिजी के साथ दिलेर भी ऐसा हूँ कि किसी ने बात कही और मैंने चाँटा जड़ा। मिस्र के नामी पहलवान को मारा। यह बात किसी अफीमची में नहीं देखी। मेरे वालिद भी तोलों अफीम पीते थे और दिन भर दुकानों पर चिलमें भरा करते थे। मगर यह बात उनमें भी न थी।

लोग – आपने अपने बाप का नाम रोशन कर दिया।

खोजी – अब मैं आप लोगों से चंडू की सिफत बयान करना चाहता हूँ। बगैर चंडू पिए आदमी में इनसानियत आ नहीं सकती। आप लोग शायद इसकी दलील चाहते होंगे। सुनिए – बगैर लेटे हुए कोई चंडू पी नहीं सकता और लेटना अपने को खाक में मिलाना है। बाबा सादी ने कहा है –

खाक शो पेश अजाँ कि खाक शबीं।

(मरने से पहले खाक हो जा।)

चंड की दूसरी सिफत यह है कि हरदम लौ लगी रहती है। इससे आदमी का दिल रोशन हो जाता है। तीसरी सिफत यह है कि इसकी पिनक में फिक्र करीब नहीं आने पाती। चुस्की लगाई और गोते में आए। चौथी सिफत यह है कि अफीमची को रात भर नींद नहीं आती। और यह बात पहुँचे हुए फकीर ही को हासिल होती है। पाँचवीं सिफत यह है कि अफीमची तड़के ही उठ बैठता है। सबेरा हुआ और आग लेने दौड़े। और जमाना जानता है कि सबेरे उठने से बीमारी नहीं आती।

इस पर एक पुराने खुर्राट अफीमची ने कहा – हजरत, यहाँ मुझे एक शक है। जो लोग चीन गए हैं। वह कहते हैं कि वहाँ तीस बरस से ज्यादा उम्र का आदमी ही नहीं। इससे तो यही साबित होता है कि अफीमियों की उम्र कम होती है।

खोजी – यह आपसे किसने कहा? चीन वाले किसी को अपने मुल्क में नहीं जाने देते। असल बात यह है कि चीन में तीस बरस के बाद लड़का पैदा होता है।

लोग – क्या तीस बरस के बाद लड़का पैदा होता है! इसका तो यकीन नहीं आता।

एक – हाँ-हाँ होगा। इसमें यकीन न आने की कौन बात है। मतलब यह कि जब औरत तीस बरस की हो जाती है, तब कहीं लड़का पैदा होता है।

खोजी – नहीं-नहीं; यह मतलब हीं है। मतलब यह है कि लड़का तीस बरस तक हमल में रहता है।

लोग – बिलकूल झूठ! खुदा की मार इस झूठ पर।

खोजी – क्या कहा? यह आवाज किधर से आई? अरे, यह कौन बोला था? यह किसने कहा कि झूठ है?

एक – हुजूर, उस कोने से आवाज आई थी।

दूसरा – हुजूर, यह गलत कहते हैं। इन्हीं की तरफ से आवाज आई थी।

खोजी – उन बदमाशों को कत्ल कर डालो। आग लगा दो। हम, और झूठ! मगर नहीं, हमीं चूके। मुझे इतना गुस्सा न चाहिए। अच्छा साहब हम झूठे, हम गप्पी, बल्कि हमारे बाप बेईमान, जालसाज और जमाने भर के दगाबाज। आप लोग बतलाएँ, मेरी क्या उम्र होगी?

एक – आप कोई पचास के पेटे में होंगे।

दूसरा – नहीं-नहीं, आप कोई सत्तर के होंगे।

खोजी – एक हुई, याद रखिएगा हजरत। हमारा सिन न पचास का, न साठ का। हम दो ऊपर सौ बरस के हैं। जिसको यकीन न आए वह काफिर।

लोग – उफ्फोह, दो ऊपर सौ बरस का सिन है।

खोजी – जी हाँ, दो ऊपर सौ बरस का सिन है।

एक – अगर यह सही है तो यह एतराज उठ गया कि अफीमियों की उम्र कम होती है। अब भी अगर कोई अफीम न पिए, तो बदनसीब है।

खोजी – दो ऊपर सौ बरस का सिन हुआ और अब तक वही खमदम है कहो, हजार से लड़ें, कहो, लाख से। अच्छा अब आप लोग भी अपने-अपने तजरबे बयान करें। मेरी तो बहुत सुन चुके; अब कुछ अपनी भी कहिए।

इस पर गट्टू नाम का एक अफीमची उठ कर बोला – भाई पंचों, मैं कलवार हूँ। मुल शराब हमारे यहाँ नहीं बिकती। हम जब लड़के से थे, तब से हम अफीम पीते हैं। एक बार होली के दिन हम घर से निकले। ऐ बस, एक जगह कोई पचास हों, पैतालिस हों, इतने आदमी खड़े थे। किसी के हाथ में लोटा, किसी के हाथ में पिचकारी। हम उधर से जो चले, तो एक आदमी ने पीछे से दो जूता दिया, तो खोपड़ी भन्ना गई। अगर चाहता तो उन सबको डपट लेता, मगर चुप हो रहा।

खोजी – शाबाश! हम तुमसे बहुत खुश हुए गुट्टू।

गुट्टू – हुजूर की दुआ से यह सब है।

इसके बाद नूरखाँ नाम का एक अफीमची उठा। कहा – पंचो! हम हाथ जोड़ कर कहते हैं कि हमने कई साल से अफीम, चंडू पीना शुरू किया है। एक दिन हम एक चने के खेत में बैठे बूट खा रहे थे। किसान था दिल्लगीबाज। आया और मेरा हाथ पकड़ कर कानीहौज ले चला। मैं कान दबाए हुए उसके साथ चला आया।

इसके बाद कई अफीमचियों ने अपने-अपने हाल बयान किए। आखिर में एक बुड्ढे जोगादारी अफीमी ने खड़े हो कर कहा – भाइयों! आज तक अफीमियों में किसी ने ऐसा काम नहीं किया था। इसलिए हमारा फर्ज है कि हम अपने सरदार को कोई खिताब दे। इस पर सब लोगों ने मिलकर खुशी से तालियाँ बजाईं और खोजी को गीदी का खिताब दिया। खोजी ने उन सबका शुक्रिया अदा किया और मजलिस बरखास्त हुई।

आजाद-कथा : भाग 2 – खंड 111

आज बड़ी बेगम का मकान परिस्तान बना हुआ है। जिधर देखिए, सजावट की बहार है। बेगमें धमा-चौकड़ी मचा रही हैं।

जानी – दूल्हा के यहाँ तो आज मीरासिनों की धूम है। कहाँ तो मियाँ आजाद को नाच-गाने से इतनी चिढ़ थी कि मजाल क्या, कोई डोमिनी घर के अंदर कदम रखने पाए। और आज सुनती हूँ कि तबले पर थाप पड़ रही है और गजलें, ठुमरियाँ, टप्पे गाए जाते हैं।

नाजुक – सुना है, आज सुरैया बेगम भी आने वाली हैं।

बहार – उस मालजादी का हमारे सामने जिक्र न किया करो।

नाजुक – (दाँतों तले उँगली दबा कर।) ऐसा न कहो, बहन!

जानी – ऐसी पाक-दामन औरत है कि उसका सा होना मुश्किल है।

नाजुक – यह लोग खुदा जाने, क्या समझती हैं सुरैया बेगम को।

बहार – ऐ है! सच कहना, सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली।

इतने में एक पालकी से एक बेगम साहब उतरीं। जानी बेगम और नाजुक अदा में इशारे होने लगे। यह सुरैया बेगम थीं।

सुरैया – हमने कहा, चलके जरी दुलहिन को देख आएँ।

रूहअफजा – अच्छी तरह आराम से बैठिए।

सुरैया – मैं बहुत अच्छी बैठी हूँ। तकल्लुफ क्या है।

नाजुक – यहाँ तो आपको हमारे और जानी बेगम के सिवा किसी ने न देखा होगा।

सुरैया – मैं तो एक बार हुस्नआरा से मिल चुकी हूँ।

सिपहआरा – और हमसे भी?

सुरैया – हाँ, तुमसे मिले थे, मगर बताएँगे नहीं।

सिपहआरा – कब मिले थे अल्लाह! किस मकान में थे?

सुरैया – अजी, मैं मजाक करती थी। हुस्नआरा बेगम को देख कर दिल शाद हो गया।

नाजुक – क्या हमसे ज्यादा खूबसूरत हैं?

सुरैया – तुम्हारी तो दुनिया के परदे पर जवाब नहीं है।

नाजुक – भला दूल्हा से आपसे बातचीत हुई थी?

सुरैया – बातचीत आपसे हुई होगी। मैंने तो एक दफा राह में देखा था।

नाजुक – भला दूसरा निकाह भी मंजूर करते हैं वह।

सुरैया – यह तो उनसे कोई जाके पूछे।

नाजुक – तुम्हीं पूछ लो बहन, खुदा के वास्ते।

सुरैया – अगर मंजूर हो दूसरा निकाह, तो फिर क्या?

नाजुक – फिर क्या, तुमको इससे क्या मतलब?

रूहअफजा – आखिर दूसरे निकाह के लिए किसे तजवीजा है।

नाजुक – हम खुद अपना पैगाम करेंगे।

रूहअफजा – बस, हद हो गई नाजुकअदा बहन! ओफ्फोह!

नाजुक – (आहिस्ता से) सुरैया बेगम, तुमने गलती की। धीरज न रख सकीं।

सुरैया – हम जान फिदा करते, गर वादा वफा होता,

मरना ही मुकद्दर था, वह आते तो क्या होता!

नाजुक – हाँ, है तो यही बात। खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ, मसलहत भी यही थी।

हुस्नआरा बेगम ने यह शेर सुना और नाजुक बेगम की बातें को तौला, तो समझ गईं कि हो न हो, सुरैया बेगम यही हैं। कनखियों से देखा और गरदन फेर कर इशारे से सिपहआरा को बुला कर कहा – इनको पहचाना? सोचो तो, यह कौन हैं?

सिपहआरा – ऐ बाजी, तुम तो पहेलियाँ बुझवाती हो।

हुस्नआरा – तुम ऐसी तबीयतदार, और कब तक न समझ सकीं?

सिपहआरा – तो कोई उड़ती चिड़िया तो नहीं पकड़ सकता।

हुस्नआरा – उस शेर पर गौर करो।

सिपहआरा – अख्खाह, (सुरैया बेगम की तरफ देख कर) अब समझ गई।

हुस्नआरा – है औरत हसीन।

सिपहआरा – हाँ हैं; मगर तुमसे क्या मुकाबिला।

हुस्नआरा – सच कहना, कितनी जल्द समझ गई हूँ।

सिपहआरा – इसमें क्या शक है, मगर यह तुमसे कब मिली थीं? मुझे तो बाद नहीं आता।

हुस्नआरा – खुदा जाने। अलारक्खी बनके आने न पाती, जोगिन के भेस में कोई फटकने न देता। शिब्बोजान का यहाँ क्या काम?

सिपहआरा – शायद महरी-वहरी बनके गुजर हुआ हो।

हुस्नआरा – सच तो यह है कि हमको इनका आना बहुत खटकता है। इन्हें तो यह चाहिए था कि जहाँ आजाद का नाम सुनतीं, वहाँ से हट जातीं, न कि ऐसी जगह आना।

सिपहआरा – इनसे यहाँ तक आया क्योंकर गया?

हुस्नआरा – ऐसा न हो कि यहाँ कोई गुल खिले।

सिपहआरा ने जा कर बहार बेगम से कहा – जो बेगम अभी आई हैं, उनको तुमने पहचाना? सुरैया बेगम यही हैं। तब तो बहार बेगम के कान खड़े हुए। गौर से देख कर बोलीं – माशा-अल्लाह! कितनी हसीन औरत है! ऐसी नमकीनी भी कम देखने में आई।

सिपहआरा – बाजी को खौफ है कि कोई गुल न खिलाएँ।

बहार – गुल क्या खिलाएँगी। अब तो इनका निकाह हो गया।

सिपहआरा – ऐ है, बाजी! निकाह पर न जाना। यह वह खिलाड़ है कि घूँघट के आड़ में शिकार खेलें।

बहार – ऐ नहीं, क्यों बिचारी को बदनाम करती हो।

सिपहआरा – वाह! बदनामी की एक ही कही। कोई पेशा, कोई कर्म इनसे छूटा? लगावटबाजी में इनकी धूम है।

बहार – हम जब इस ढब पर आने भी दें।

उधर नाजुकअदा बेगम ने बातों-बातों में सुरैया बेगम से पूछा – बहन, यह बात अब तक न खुली कि तुम पादरी के यहाँ से क्यों निकल आईं। सुरैया बेगम ने कहा – बहन, इस जिक्र से रंज होता है। जो हुआ; वह हुआ, अब उसका घड़ी-घड़ी जिक्र करना फजूल है। लेकिन जब नाजुकअदा बेगम ने बहुत जिद की तो उन्होंने कहा – बात यह हुई कि बेचारे पादरी ने मुझ पर तरस खा कर अपने घर में रखा और जिस तरह कोई खास अपनी बेटियों से पेश आता है, उसी तरह मुझसे पेश आते। मुझे पढ़ाया-लिखाया, मुझसे रोज कहते कि तुम ईसाई हो जाओ; लेकिन मैं हँस के टाल दिया करती थी। एक दिन पादरी साहब तो चले गए थे किसी काम को, उनका भतीजा, तो फौज में नौकर है, उनसे मिलने आया। पूछा – कहाँ गए हैं? मैंने कहा – कहीं बाहर गए हैं। इतना सुनना था कि वह गाड़ी से उतर आया और अपनी जेब से बोतल निकाल कर शराब पी। जब नशा हुआ तो मुझसे कहने लगा, तुम भी पियो। उसने समझा, मैं राजी हूँ। मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं उससे अपना हाथ छुड़ाने लगी। मगर वह मर्द, मैं औरत! फिर फौजी जवान, कुछ करते-धरते नहीं बनती थी। आखिर बोली – साहब, तुम फौज के जवान हो। मैं भला तुमसे क्या जीत पाऊँगी? मेरा हाथ छोड़ दो। इस पर हँस कर बोला – हम बिना पिलाए न मानेंगे। मेरा तो खून सूख गया। अब करूँ तो क्या करूँ। अगर किसी को पुकारती हूँ, तो यह इस वक्त मार ही डालगा। और बेइज्जत करने पर तो तुला ही हुआ है। चाहा कि झपट के निकल जाऊँ, पर उसने मुझे गोद में उठा लिया और बोला – हमसे शादी क्यों नहीं कर लेतीं? मेरा बदन थर-थर काँप रहा था कि या खुदा, आज कैसे इज्जत बचेगी, और क्या होगा! मगर आबरू को बचानेवाला अल्लाह है। उसी वक्त पादरी साहब आ पहुँचे। बस, अपना सा मुँह ले कर रह गया। चुपके से खिसक गया। पादरी साहब उसको तो क्या कहते। जब बराबर का लड़का या भतीजा कमाता-धमाता हो, तो बड़ा-बूढ़ा उसका लिहाज करता ही है। जब वह भाग गया, तो मेरे पास आ कर बोले – मिस पालेन, अब तुम यहाँ नहीं रह सकतीं।

मैं – पादरी साहब, इसमें मेरा जरा कुसूर नहीं।

पादरी – मैंने खुद देखा कि तुम और वह हाथापाई करते थे।

मैं – वह मुझे जबर्दस्ती शराब पिलाना चाहते थे।

पादरी – अजी, मैं खूब जानता हूँ। मैं तुमको बहुत नेक समझता था।

मैं – पूरी बात तो सुन लीजिए।

पादरी – अब तुम मेरी आँखों से गिर गईं। बस अब तुम्हारा निबाह यहाँ नहीं हो सकता। कल तक तुम अपना बंदोबस्त कर लो। मैं नहीं जानता था कि तुम्हारे यह ढंग हैं।

उसी दिन रात को मैं वहाँ से भागी।

उधर बड़ी बेगम साहब इंतजाम करने में लगी हुई थीं। बात-बात पर कहती जाती थीं कि अल्लाह! आत तो बहुत थकी। अब मेरा सिन थोड़ा हैं कि इतने चक्कर लगाऊँ। उस्तानी जी हाँ-में-हाँ मिलाती जाती थीं।

बड़ी बेगम – उस्तानी जी, अल्लाह गवाह है, आज बहुत शल हो गई।

उस्तारी – अरे तो हुजूर दौड़ती भी कितनी हैं! इधर से उधर, उधर से इधर।

महरी – दूसरा हो तो बैठ जाय।

उस्तानी – इस सिन में इतनी दौड़-धूप मुश्किल है।

महरी – ऐसा न हो, दुश्मनों की तबीयत खराब हो जाय। आखिर हम लोग किस लिए हैं?

बड़ी बेगम – अभी दो-तीन दिन तो न बोलो, फिर देखा जायगा। इसके बाद करना ही क्या है।

उस्तानी – यह क्यों? खुदा सलामत रखे; पोते-पोतियाँ न होंगे?

बड़ी बेगम – बहन, जिंदगानी का कौन ठिकाना है।

अब बरात का हाल सुनिए। कोई पहर रात गए बड़ी धूम-धाम से बरात रवाना हुई। सबके आगे निशान का हाथी झूमता हुआ जाता था। हाथी के सामने कदम-कदम पर अनार छूटते जाते थे। महताब की रोशनी से चाँद का रंग फक था। चर्खी की आनबान से आसमान का कलेजा धक था। तमाशाइयों की भीड़ से दोनों तरफ के कमरे फटे पड़ते थे। जिस वक्त गोरों का बाजा चौक में पहुँचा और उन्होंने बैंड बजाया तो लोग समझे कि आसमान के फरिश्ते बाजा बजाते-बजाते उतर आए हैं।

इतने में मियाँ खोजी इधर-उधर फुदकते हुए आए।

खोजी – ओ शहनाईवालो! मुँह न फैलाओ बहुत।

लोग – आइए, आइए! बस आप ही की कसर थी।

खोजी – अरे, हम क्या कहते हैं? मुँह न फैलाओ बहुत।

लोग – कोई आपकी सुनता ही नहीं।

खोजी – ये तो नौसिखिए हैं। मेरी बातें क्या समझेंगे।

लोग – इनसे कुछ फर्माइश कीजिए;

खोजी – अच्छा, वल्लाह! वह समाँ बाँधू की दंग हो जाइए। यह चीज छेड़ना भाई –

करेजवा में दरद उठी;
कासे कहूँ ननदी मोरे राम।
सोती थी मैं अपने मँदिल में;
अचानक चौंक पड़ी मोरे राम।
(करेजवा में दरद उठी….।)

लोग – सुभान-अल्लाह! आप इस फन के उस्ताद हैं। मगर शहनाईवाले अब तक आपका हुक्म नहीं मानते।

खोजी – नहीं भई, हुक्म तो मानें दौड़ते हुए और न मानें तो मैं निकाल दूँ। मगर इसको क्या किया जाय कि अनाड़ी हैं। बस, जरा मुझे आने में देर हुई और सारा काम बिगड़ गया।

इतने में एक दूसरे आदमी ने खोजी के नजदीक जा कर जरा कंधे का इशारा किया तो खोजी लड़खड़ाए और उनके चेले अफीमी भाइयों ने बिगड़ना शुरू किया।

एक – अरे मियाँ! क्या आँखों के अंधे हो?

दूसरा – ईंट की ऐनक लगाओ मियाँ।

तीसरा – और ख्वाजा साहब भी धक्का देते तो कैसी होती?

चौथा – मुँह के बल गिरे होते और क्या।

पाँचवाँ – अजी, यों कहो कि नाक सिलपट हो जाती।

खोजी – अरे भाई, अब इससे क्या वास्ता है। हम किसी से लड़ते-झगड़ते थोड़े ही हैं। मगर हाँ, अगर कोई गीदी हमसे बोले तो इतनी करौलियाँ भोंकी हों कि याद करे।

जब बरात दुलहिन के घर पहुँची तो दूल्हे को दरवाजे के सामने लाए और दुलहिन का नहाया हुआ पानी घोड़े के सुमों के नीचे डाला। इसके बाद घी और शक्कर मिला कर घोड़े के पाँव में लगाया। दूल्हा महल में आया। दूल्हा की बहनें उस पर दुपट्टे का आँचल डाले हुए थीं। दुलहिन की तरफ से औरतें बीड़ा हर कदम पर डालती जाती थीं। इस तरह दूल्हा मड़वे के नीचे पहुँचा। उसी वक्त एक औरत उठी और रूमाल से आँखें पोंछती हुई बाहर चली गई। यह सुरैया बेगम थीं।

आजाद मँड़वे के नीचे उस चौकी पर खड़े किए गए जिस पर दुलहिन नहाई थी। मीरासिनों ने दुलहिन के उबटन का, जो माँझे के दिन से रखा हुआ था, एक भेड़ और एक शेर बनाया और दूल्हा से कहा – कहिए, दूल्हा भेड़, दुलहिन शेर।

आजाद – अच्छा साहब, हम शेर, वह भेड़, बस?

डोमिनी – ऐ वाह! यह तो अच्छे दूल्हा आए। आप भेड़, वह शेर।

आजाद – अच्छा साहब यों सही। आप भेड़, वह शेर।

डोमिनी – ऐ हुजूर, कहिए, यह शेर, मैं भेड़।

आजाद – अच्छा साहब, मैं भेड़, वह शेर।

इस पर खूब कहकहा पड़ा। इसी तरह और भी कई रस्में अदा हुई, और तब दूल्हा महफिल में गया। यहाँ नाच-गाना हो रहा था। एक नाजनीन बीच में बैठी थीं, मजाक हो रहा था। एक नवाब साहब ने यह फिकरा कसा – बी साहब, आपने गजब का गला पाया है। उसकी तारीफ ही करना फजूल है।

नाजनीन – कोई समझदार तारीफ करे तो खैर, अताई-अनाड़ी ने तारीफ की तो क्या?

नवाब – ऐ साहब, हम तो खुद तारीफ करते हैं।

नाजनीन – तो आप अपना शुमार भी समझदारों में करते हैं? बतलाइए, यह बिहाग का वक्त है या घनाक्षरी का।

नवाब – यह किसी ढाड़ी-बचे से पूछो जाके।

नाजनीन – ऐ लो! जो इस फन के नुकते समझे, वह ढाड़ी-बचा कहलाए। वाह री अक्ल, वह अमीर नहीं, गँवार है, जो दो बातें न जानता हो – गाना और पकाना। आपके से दो-एक घामड़ रईस शहर में और हों तो सारा शहर बस जाय।

नाजनीन ने यह गजल गाई –

लगा न रहने दे झगड़े को यार तू बाकी;
रुके न हाथ अभी है रँगे-गुलू बाकी।

जो एक रात भी सोया वह गुल गले मिल कर;
तो भीनी-भीनी महीनों रही है बू बाकी।

हमारे फूल उठा के वह बोला गुँच-देहन;
अभी तलक है मुहब्बत की इसमें बू बाकी।

फिना है सबके लिए मुझप’ कुछ नहीं मौकूफ;
यह रंज है कि अकेला रहेगा तू बाकी।
जो इस जमाने में रह जाय आबरू बाकी।

नवाब – हाँ, यह सबसे ज्यादा मुकद्दम चीज है।

नाजनीन – मगर हयादारों के लिए। बगड़ेबाजों को क्या?

इस पर इस जोर से कहकहा पड़ा कि नवाब साहब झेंप गए।

नाजनीन – अब कुछ और फरमाइए हुजूर! चेहरे का रंग क्यों फक हो गया?

मिरजा – आपसे नवाब साहब बहुत डरते हैं।

नवाब – जी हाँ, हरामजादे से सभी डरा करते हें।

नाजनीन – ऐ है, जभी आप अपने अब्बाजान से इतना डरते हैं।

इस पर फिर कहकहा पड़ा और नवाब साहब की जबान बंद हो गई।

उधर दुलहिन को सात सुहागिनों ने मिल कर इस तरह सँवारा कि हुस्न की आब और भी भड़क उठी। निकाह की रस्म शुरू हुई। काजी साहब अंदर आए और दो गवाहों को साथ लाए। इसके बाद दुलहिन से पूछा गया कि आजाद पाशा के साथ निकाह मंजूर है? दुलहिन ने शर्म से सिर झुका लिया।

बड़ी बेगम – ऐ बेटा, कह दो।

रूहअफजा – हुस्नआरा, बोलो बहन। देर क्यों करती हो?

नाजुक – बस, तुम हाँ कह दो।

जानी – (आहिस्ता से) बजरे पर सैर कर चुकीं, हवा खा चुकीं और अब इस वक्त नखरे बघारती हैं।

आखिर बड़ी कोशिश के बाद हुस्नआरा ने धीरे से ‘हूँ’ कहा।

बड़ी बेगम – लीजिए, दुलहिन ने हुँकारी भरी।

काजी – हमने तो आवाज नहीं सुनी।

बड़ी बेगम – हमने सुन लिया, बहुत से गवाह हैं।

काजी साहब ने बाहर आ कर दूल्हा से भी यही सवाल किया।

आजाद – जी हाँ कुबूल किया!

काजी साहब चले गए और महफिल में तायफों ने मिल कर मुबारकबाद गाई। इसके बाद एक परी ने यह गजल गाई –

तड़प रहे हैं शबे-इंतजार सोने दे;
न छेड़ हमको दिले-बेकरार सोने दे।

कफस में आँख लगी है अभी असीरों की,
गरज न बाग में अबरे-बहार सोने दे।

अभी तो सोए हैं यादे-चमन में अहले-कफस;
जगा न उनको नसीमे बहार सोने दे।
तड़प रहे हैं दिले-बेकरार सोने दे।

शरबत-पिलाई के बाद दूल्हा और दुलहिन एक ही पलंग पर बिठाए गए। गेतीआरा ने कहा – बहन, जूती तो छुलाओ।

जानी – वाह! यह तो सिमटी-सिमटाई बैठी हैं।

बहार – आखिर हया भी तो कोई चीज है!

नाजुक – अरे, जूती कंधे पर छुआ लो बहन, वाह!

उस्तानी – अगले वक्तों में तो सिर पर पड़ती थीं।

नाजुक – इस जूती का मजा कोई मर्दों के दिल से पूछे।

जब दुलहिन ने जरा भी जुंबिश न की तो बहार बेगम ने दुलहिन के दाहने पैर की जूती दूल्हा के कंधे पर छुला ली।

नाजुक – कहिए, आपकी डोली के साथ चलूँगा।

रूहअफजा – और जूतियाँ झाड़के धरूँगा।

जानी – और सुराही हाथ में ले चलूँगा।

आजाद – ऐ! क्यों नहीं, जरूर कहूँगा।

जानी – रंडियों से नखरे बहुत सीखे हैं।

इस फिकरे पर ऐसा कहकहा पड़ा कि मियाँ आजाद शर्मा गए। जानी बेगम इक्कीस पान का बीड़ा लाईं और उसे कई बार आजाद के मुँह तक ला-ला कर हटाने के बाद खिला दिया।

सिपहआरा – सुहाग लाईं और दूल्हा के कान में कहा – कहो, सोने में सुहागा मोतियों में धागा और बने का जी बनी से लागा!

इसके बाद आरसी की रस्म अदा हुई।

जानी – बन्नू, जल्दी आँख न खोलना।

नाजुक – जब तक अपने मुँह से गुलाम न बनें।

हैदरी – कहिए, बीबी, मैं आपका गुलाम हूँ।

आजाद – बीबी मैं आपका बिन दामों गुलाम हूँ।

बड़ी बेगम – बेटा, अब तो कहवा लिया, अब आँखें खोल दो।

जानी – एक ही बार तो कहा।

हैदरी – ऐ हुजूर, खुशामद तो कीजिए।

आजाद – यह खुशामद से न मानेंगी।

हैदरी – हो कहा है, उसका खयाल रहे। बीवी के गुलाम बने रहिएगा।

आखिर बड़ी मुश्किलों से दुलहिन ने आँखें खोलीं, मगर आँखों में आँसू भरे हुए थे। बे-अख्तियार रोने लगीं। लोग समझाते-समझाते आरी हो गए, मगर आँसू न थमे। तब आजाद ने सिर झुका कर कान में कहा – यह क्या करती हो, दिल को मजबूत रखो।

रूहअफजा – बहन, खुदा के लिए चुप हो जाओ। इसका कौन-सा मौका है?

बहार – अम्माँजान, आप ही समझाएँ। नाहक अपने को हलाकान करती हैं हुस्नआरा।

उस्तानी – तर कपड़े से मुँह पोंछो।

जब हुस्नआरा का जी बहाल हुआ तो आजाद ने सुहाग पुड़े से मसाला निकाल कर दुलहिन की माँग भरी। तब दुलहिन को गोद में उठा कर सुखपाल पर बिठा दिया। वहाँ जितनी औरतें थीं, सबकी आँखों में आँसू जारी हो गए और बड़ी बेगम तो पछाड़ें खाने लगीं। जब बरात रुखसत हो गई तो बातें होने लगीं –

रुहअफजा – अल्लाह करे, आजाद ने जितनी तकलीफें उठाई हैं, उतना ही आराम भी पाएँ।

अब्बासी – अल्लाह ऐसा ही करेगा।

जानी – मगर आजाद का सा दूल्हा भी किसी ने कम देखा होगा।

नाजुक – लाखों कुओं का पानी पी चुके हैं।

बहार – बड़े खुशमजाक आदमी मालूम होते हैं।

जानी – इस वक्त हुस्नआरा के दिल का क्या हाल होगा?

नाजुक – चौथी के दिन हम ताक-ताक निशाने लगाएँगे।

रूहअफजा – आजाद से कोई न जीत पाएगा।

जानी – कौन! देख लेना बहन, अगर हारी न बोलें जभी कहना। वह अगर तेज हैं, तो हम भी कम नहीं।

आजाद-कथा : भाग 2 – अंत

प्रिय पाठक, शास्त्रानुसार नायक और नायिका के संयोग के साथ ही कथा का अंत हो जाता है। इसलिए हम भी अब लेखनी को विश्राम देते हैं। पर कदाचित कुछ पाठकों को यह जानने की इच्छा होगी कि ख्वाजा साहब का क्या हाल हुआ और मिस मीडा और मिस क्लारिसा पर क्या बीती। इन तीनों पात्रों के सिवा हमारे विचार में तो और कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसके विषय में कुछ कहना बाकी रह गया हो। अच्छा सुनिए। मियाँ खोजी मरते दम तक आजाद के वफादार दोस्त बने रहे। अफीम की डिबिया और करौली की धुन ने कभी उनका साथ न छोड़ा। मिस मीडा औ मिस क्लारिसा ने उर्दू और हिंदी पढ़ी और दोनो थियासोफिस्ट हो गईं। दोनों ही ने स्त्रियों की सेवा करना ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। क्लारिसा तो कलकत्ता की तरफ चली गईं, मीडा बंबई से लौट कर आजाद से मिलने आईं तो आजाद ने हँस कर कहा – अब तो थियासोफिस्ट हैं आप?

मीडा – जी हाँ, खुदा का शुक्र है कि मुझे उसने हिदायत की।

आजाद – तो यह कहिए कि अब आप पर खुदा का नूर नाजिल हुआ। इस मजहब में कौन-कौन आलिम शरीक हैं?

मीडा – अफसोस है आजाद, कि तुम थियासोफी से बिलकुल वाकिफ नहीं हो। इसमें बड़े-बड़े नामी आलिम और फिलासफर शरीक हैं, जिनके नाम के इस वक्त दुनिया में झंडे गड़े हुए हैं। यूरोप के अकसर आलिमों का झुकाव इसी तरफ है।

आजाद – हमने सुना है कि थियासोफी वाले रूह से बातें करते हैं। मुझे तो यह शोबदेबाजी मालूम होती है।

मीडा – तुम इसे शोबदेबाजी समझते हो?

आजाद – शोबदा नहीं तो और क्या है, मदारियों का खेल?

मीडा – अगर इसका नाम शोबदा है तो न्यूटन और हरशेल भी बड़े शोबदेबाज थे?

आजाद – वाह, कहाँ न्यूटन और कहाँ थियासोफी। हमने सुना है कि थियासोफिस्ट लोग गैब का हाल बता देते हैं। बंबई में बैठे हुए अमेरिकावालों से बिना किसी वसीले के बातें करते हैं। यहाँ तक सुना है कि एक साहब जो थियासोफिस्टों में बहुत ऊँचा दरजा रखते हैं वह डाक से खत न भेज कर जादू से भेजते हैं। वह खत लिख कर मेज पर रख देते हैं और जिन लोग उठा कर पहुँचा देते हैं।

मीडा – तो इसमें ताज्जुब की कौन बात है? जो लोग लिखना-पढ़ना नहीं जानते वह दो आदमियों को हरफों से बातें करते देख कर जरूर दिल में सोचेंगे कि जादूगर हैं। जिस तरह आपको ताज्जुब होता है कि मेज पर रखा हुआ खत पते पर कैसे पहुँच गया उसी तरह उन जंगली आदमियों को हैरत होती है कि दो आदमी चुप-चाप खड़े हैं, न बोलते हैं, न चालते हैं, और लकीरों से बातें कर लेते हैं। अफ्रीका के हबशियों से कहा जाय कि एक मिनट में हम लाखों मील पर बैठे हुए आदमियों के पास खबरें भेज सकते हैं तो वे कभी न मानेंगे। उनकी समझ में न आएगा कि तार के खटखटाने से कैसे इतनी दूर खबरें पहुँच जाती हैं। इसी तरह तुम लोग थियासोफी की करामात को शोबदा समझते हो।

आजाद – तुम मेस्मेरिज्म को मानती हो?

मीडा – मैं समझती हूँ, जिसे जरा भी समझ होगी वह इससे इनकार नहीं कर सकता।

आजाद – खुदा तुमको सीधे रास्ते पर लाए, बस और क्या कहूँ।

मीडा – मुझे तो सीधे रास्ते पर लाया। अब मेरी दुआ है कि खुदा तुमको भी सीधे ढर्रे पर लगाए।

आजाद – आखिर इस मजहब में नई कौन सी बात है।

मीडा – समझाते-समझाते थक गई मगर तुमने मजहब कहना न छोड़ा।

आजाद – खता हुई, मुआफ करना, लेकिन मुझे तो यकीन नहीं आता कि बिना किसी वसीले के एक दूसरे के दिल का हाल क्योंकर मालूम हो सकता है। मैंने सुना कि मैडम व्लेवेट्स्की खतों को बगैर खोले पढ़ लेती हैं।

मीडा – हाँ-हाँ, पढ़ लेती हैं, एक नहीं हजारों बार मैंने अपनी आँखों देखा है और खुदा ने चाहा तो कुछ दिनों में मैं भी वही करके दिखा दूँगी।

आजाद – खुदा करे, वह दिन जल्द आए। मैं बराबर दुआ करूँगा।

यह बातें हो रही थीं कि बैरा ने अंदर आ कर एक कार्ड दिया। आजाद ने कार्ड देख कर बैरा से कहा – नवाब साहब को दीवानखाने में बैठाओ, हम अभी आते हैं।

मीडा ने पूछा – कौन नवाब साहब हैं?

आजाद – मिरजा हुमायूँ फर के छोटे भाई हैं, जिनके साथ सिपहआरा की शादी हुई है।

मीडा – तो यों कहिए कि आपके साढ़ हैं। तो फिर जाइए। मैं भी उनसे मिलूँगी।

आजाद – मैं उन्हीं यहीं लाऊँगा।

यह कहते हुए आजाद दीवानखाने की तरफ चले गए।

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