घास – अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

घास – अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

घास खिले पुष्पों से आच्छादित भूमि में अतीत में ही पैदा हुआ मैं घास बनकर उस वक़्त भी आवाज़ सुनी तुम्हारी बांसुरी की मधुर रोमांच से खुल गई आँखे आत्मा की आँखें खुलने पर आश्चर्य से शिथिल हो गया मैं उस रोमांच की लहर से ही तो मैं आकाश तक विस्तृत हो सका उत्तुंग मेरा …

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झंकार – अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

झंकार – अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

झंकार – अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान बाँबी की शुष्क मिट्टी के अन्तः अश्रुओं के सिंचन से पहली बार विकसे पुष्प! मानव वंश की सुषुम्ना के छोर पर आनन्द रूपी पुष्पित पुष्प! हजारों नुकीली पंखुड़ियों से युक्त हो दस हजार वर्षों से सुसज्जित पुष्प! आत्मा को सदा चिर युवा बनाने वाले …

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परम दु:ख- अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

परम दु:ख- अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

परम दु:ख कल आधी रात में बिखरी चाँदनी में स्वयं को भूल उसी में लीन हो गया मैं स्वतः ही फूट फूट कर रोया मैं नक्षत्र व्यूह अचानक ही लुप्त हो गया । निशीथ गायिनी चिड़िया तक ने कारण न पूछा हवा भी मेरे पसीने की बून्दें न सुखा पाई । पड़ोस के पेड़ से …

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प्राणायाम- अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

प्राणायाम- अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी-अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

प्राणायाम प्रिये! ऐसा लगता है कि है किन्तु है नहीं यह ब्रह्मांड, प्रिये! है नहीं, ऐसा लगने पर भी यह ब्रह्मांड तो है ही। आँसुओं से सानकर बनाए गये एक मिट्टी के लोंदे पर ज़ोरों से पनपता है हमारे पूर्व जन्म के सौहार्द का आवेश। प्रत्येक घड़ी, प्रत्येक पल, एक नवांकुर, प्रत्येक अंकुर की शाखा …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 6

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 6

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 6 कभी-कभी रात के विस्तार का कोई अंत नहीं होता। रात हमेशा साथ-साथ रहती है और अंधेरा कटे-फटे असंतुलित टुकड़ों में आसपास बिखरा रहता है। . . .फिर हम लोग ताऊ के साथ गांव चले गये। हमें बस रुलाई आती थी। हम रोते थे. . . पापा तो इधर-उधर देखने …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 5

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 5

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 5 रात तीन बजे के आसपास अक्सर कोई जाना पहचाना आदमी आकर जगा देता है । किस रात कौन आयेगा? कौन जगायेगा? क्या कहेगा यह पता नहीं होता। जाग जाने के बाद रात के सन्नाटे और एक अनबूझी सी नीरवता में यादों का सिलसिला चल निकलता है। कड़ियां जुड़ती चली …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 4

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 4

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 4 अब्बा और अम्मां नहीं रहे। पहले खाला गुजरी उसके एक साल बाद खालू ने भी जामे अजल पिया। मतलू मंज़िल में अब कोई नहीं रहता। खाना पकाने वाली बुआ का बड़ा लड़का बाहरी कमरे में रहता है। मल्लू मंजिल का टीन का फाटक बुरी तरह जंग खा गया है। …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 3

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 3

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 3 मैं सिगरेट खरीदकर मुड़ा ही था कि मोहसिन टेढ़े के दीदार हो गये। दिल्ली की बाज़ार में कोई पुराना मिल जाये तो क्या कहने। मोहसिन टेढ़े ने भी मुझे देख लिया था और उसके चेहरे पर फुलझड़ियां छुट रही थीं।यार तुम कहां रहते हो. . .कसम खुदा की बड़ा …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 2

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 2

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 2 ५—-गांव में मेरा भविष्य रहा है। एक बार दिल्ली में अपने भविष्य को खोकर मैं नहीं चाहता था कि बार-बार भविष्य मेरे हाथ से फिसलता रहे। मुझे पता हैं। कि खेती बाड़ी-बाग-बगीचा पर मैं आश्रित हूं और इसमें इतनी मेहनत की है, इतना वक्त लगाया है, इतना ध्यान दिया …

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गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 1

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 1

गरजत-बरसत : असग़र वजाहत Part 1 १ मेरे रंग-ढंग से सबको यह अंदाज़ा लग चुका था कि दिल्ली ने मेरी कमर पर लात मारी है और साल-डेढ़ साल नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरने के बाद मैं घर लौटा हूं। अपमानित होने का भाव कम करने के लिए मैं लगातार ऊपर वाले कमरे में पड़ा …

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