सेवासदन (उपन्यास) (भाग-4) : मुंशी प्रेमचंद
सेवासदन (उपन्यास) (भाग-4) : मुंशी प्रेमचंद 46 सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था। वह सोचता, मुझे संसार का इतना भय क्यों है? संसार मुझे …