परिणीता (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
1
लक्ष्मण की छाती पर जब शक्ति-बाण लगा होगा, तो जरूर उनका चेहरा भयंकर दर्द से सिकुड़ गया होगा, लेकिन गुरुचरण का चेहरा शायद उससे भी ज्यादा विकृत और टूटा-फूटा नजर आया, जब अलस्सुबह अंतःपुर से यह खबर आई कि घर की गृहिणी ने अभी-अभी बिना किसी बाधा-विघ्न के, राजी-खुशी पाँचवीं कन्या-रत्न को जन्म दिया है।
गुरुचरण साठ रुपये तनख्वाह का बैंक क्लर्क था। इसलिए उसका तन-बदन जैसे ठेके के गाड़ी के घोड़े की तरह सूखा-सूखा, शीर्ण था, उसके चेहरे-मोहरे और आंखों में भी, उस जानवर की तरह ही निष्काम, निर्विकार-निर्लिप्त भाव ! इसके बावजूद आज यह भयंकर शुभ-संवाद सुनकर, उनके हाथ का हुक्का, हाथ में ही रह गया। वे अपनी जीर्ण, पैतृक तकिया से टिककर बैठ गए। उनमें इतना जोर भी न रहा कि वे लंबी-सी उसाँस भी ले सकें।
यह शुभ संवाद लेकर आई थी, उनकी तीसरी बेटी, दस वर्षीया, अन्नाकाली !
‘‘चलो, बापू, चलो न देखने।’’
बेटी का मुखड़ा निहारते हुए, गुरुचरण ने कहा, ‘‘बिटिया, जरा एक गिलास पानी तो लाना, प्यास लगी है।’’
बेटी पानी लेने चली गई। उसके जाते ही, गुरुचरण को सबसे पहले प्रसूतिखाने के सैकड़ों खर्च का ख़्याल आने लगा। उसके बाद, उनकी आँखों के आगे स्टेशन की वह भीड़ तैर गई। स्टेशन पर गाड़ी पहुँचते ही, ट्रेन का दरवाजा खुला पाते ही, जैसे तीसरे दर्जे के मुसाफिर, अपना पोटला-पोटली सँभाले, पागलों की तरह, लोगों को कुचलते-पीसते, उछल-कूदकर बाहर आते रहते हैं, उसी तरह, मार-मार का शोर मचाते हुए, उनके दिमाग में चिंता-परेशानियों का रेला हहराने लगा। उन्हें याद आया, पिछले साल, अपनी दूसरी बेटी की शादी के वक्त बहुबाज़ार स्थित यह दो-मंज़िला, शरीफ-आशियाना भी बंधक रखा जा चुका है। और उसका छः महीने का ब्याज चुकाना, अभी तक बाकी है। दुर्गा पूजा में अब सिर्फ महीने भर की देर है। मँझली बेटी के यहाँ उपहार वगैरह भी भेजना होगा। दफ्तर में कल रात आठ बजे तक डेबिट-क्रेडिट का हिसाब नहीं मिल पाया। आज दोपहर बारह बजे अंदर, सारा हिसाब विलायत भेजना ही होगा। कल बड़े साहब ने हुक्म जारी किया है कि मैले-कुचैले कपड़े पहनकर, कोई दफ्तर में नहीं घुस सकेगा। जुर्माना लगेगा, जबकि पिछले हफ्ते से धोबी का अता-पता नहीं है। घर के सारे कपड़े-लत्ते समेटकर, शायद वह नौ-दो-ग्यारह हो गया है। गुरुचरण से अब टिककर बैठा भी नहीं गया। हाथ का हुक्का ऊँचा उठाकर, वे अधलेटे हो आए।
वे मन-ही-मन बुदबुदा उठे, ‘हे भगवान ! इस कलकत्ता शहर में हर रोज कितने ही लोग गाड़ी-घोड़े तले कुचले जाकर, अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं वे लोग तुम्हारे चरणों में क्या मुझसे भी ज्यादा अपराधी हैं ? हे दयामय, मुझ पर दया करो, कोई भारी-भरकम मोटर ही मेरी छाती पर से गुजर जाए।’
अन्नाकाली पानी ले आई, ‘‘लो, बापी, उठो। मैं पानी ले आई।’’
गुरुचरण उठ बैठे और गिलास का सारा पानी, एक ही साँस में पी गए।
‘‘आ-ह ! ले, बिटिया, गिलास लेती जा।’’ उन्होंने कहा।
उसके जाते ही गुरुचरण दुबारा लेट गए।
ललिता कमरे में दाखिल हुई, ‘‘मामा चाय लाई हूँ, चलो उठो।’’
चाय का नाम सुनकर, गुरुचरण दुबारा उठ बैठे। ललिता का चेहरा निहारते हुए, उनकी आधी परेशानी हवा हो गई।
‘‘रात भर जगी रही न, बिटिया ? आ, थोड़ी देर मेरे पास बैठ।’’
ललिता सकुचाई-सी मुस्कान बिखेरते हुए, उनके करीब चली आई, ‘‘रात को मैं ज्यादा देर नहीं जागी, मामा !’’
इस जीर्ण-शीर्ण, चिंता-फ़िक्रग्रस्त, अकाल बूढ़े मामा के मन की गहराइयों में टीसती हुई व्यक्त पीड़ा का इस घर में, उससे बढ़कर, और किसी को अहसास नहीं था। गुरुचरण ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, आ, मेरे पास आ।’’
ललिता उनके करीब आ बैठी। गुरुचरण उसके सिर पर हाथ फेरने लगे।
अचानक उन्होंने कहा, ‘‘अपनी इस बिट्टी को किसी राजा के घर दे पाऊँ, तो समझूँगा, काम जैसा काम किया।’’
ललिता सिर झुकाए-झुकाए, प्याली में चाय उँड़ेलने लगी।
गुरुचरण ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘अपने इस दुखियारे मामा के यहाँ तुझे दिन-रात जी-तोड़ मेहनत करना पड़ती है न बिट्टू ?’’
ललिता ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘रात-दिन मेहनत की क्या बात है मामा ? सभी लोग काम करते हैं, मैं भी करती हूँ।’’
उसकी इस बात पर गुरुचरण हँस पड़े।
चाय पीते-पीते उन्होंने पूछा, ‘‘हाँ, तो, ललिता, आज खाने-वाने का क्या होगा, बिट्टी ?’’
ललिता ने सिर उठाकर जवाब दिया, ‘‘क्यों, मामा ? मैं पकाऊँगी न !’’
गुरुचरण ने अचकचाकर कहा, ‘‘तू ? तू पकाएगी, बिटिया ? तुझे पकाना आता है ?’’
‘‘आता है, मामा ! मामी से मैंने सब सीख लिया है।’’
गुरुचरण ने चाय की प्याली रख दी और उसे गले लगाते हुए पूछा, ‘‘सच्ची ?’’
‘‘सच्ची ! मामी बता देती है, मैं पकाती हूँ ! कितने ही दिनों तो मैंने ही पकाया है-’’ यह कहते हुए, ललिता ने सिर झुका लिया।
उसके झुके हुए सिर पर हाथ रखकर, गुरुचरण ने उसे खामोश आशीर्वाद दिया। उनकी एक गंभीर चिंता दूर हो गई।
यह घर गली के नुक्कड़ पर ही स्थित था।
चाय पीते-पीते, उनकी निगाह अचानक खिड़की के बाहर जा पड़ी।
गुरुचरण ने चीखकर आवाज लगाई, ‘‘शेखर ? ओ शेखर, सुन ! जरा सुन जा !’’
एक लंबा-चौड़ा, बलिष्ठ, सुदर्शन नौजवान कमरे में दाखिल हुआ।
‘‘आओ, बैठो, आज सवेरे, अपनी काकी की करतूत शायद सुनी होगी ?’’
शेखर के होठों पर मंद-मंद मुस्कान झलक उठी, ‘‘करतूत क्या ? लड़की हुई है, बस यही बात है न ?’’
एक लंबी उसाँस फेंककर, गुरुचरण ने कहा, ‘‘तुमने तो कह दिया-‘बस, यही बात !’ लेकिन यह किस हद तक ‘बस, यही बात’ है, सिर्फ मैं ही जानता हूँ, रे !’’
‘‘ऐसा न कहें, काका, काकी सुनेंगी, तो बहुत दुःखी होंगी। इसके अलावा, भगवान ने जिसे भेजा है, उसे ही लाड़-दुलार से अपना लें।’’ शेखर ने तसल्ली दी।
पलभर को खामोश रहने के बाद, गुरुचरण ने कहा, ‘‘लाड़-दुलार करना चाहिए, यह तो मैं भी जानता हूँ। लेकिन, बेटा, भगवान भी तो इंसाफ़ नहीं करते। मैं ठहरा गरीब मानस, मेरे घर में इतनी भरमार क्यों ? यह घर तक तुम्हारे बाप के पास रेहन पड़ा है। ख़ैर, पड़ा रहे मुझे इसका दुःख नहीं है, शेखर, लेकिन हाथों-हाथ ही देख लो न, बेटा, यह मेरी ललिता है, बिन-माँ-बाप की, सोने की गुड़िया, यह सिर्फ राजा के घर ही सजेगी। इसे मैं अपने जीते-जी, कैसे जिस-तिस के हाथ में सौंप हूँ, बताओ ? राजा के मुकुट में वह जो कोहिनूर जगमगाता है, वैसा कई-कई कोहिनूर जमा करके, मेरी इस बेटी को तौला जाए, तो भी इसका मोल नहीं हो सकता। लेकिन, यह कौन समझेगा ? पैसों के अभाव में, ऐसी रतन को, मुझे बहा देना होगा। तुम ही बताओ, बेटा, उस वक्त छाती में कैसा तीर चुभेगा ? तेरह साल की हो गई, लेकिन मेरे हाथ में तेरह पैसे भी नहीं हैं कि इसका कोई रिश्ता तक तय नहीं कर पा रहा हूँ।’’ गुरुचरण की आँखों में आँसू छलक आए। शेखर खामोश रहा।
गुरुचरण ने अगला वाक्य जोड़ा, ‘‘सुनो, शेखरनाथ, अपने यार-दोस्तों में ही तलाश कर न, बेटा, अगर इस लड़की की कोई गति कर सके। सुना है, आजकल बहुतेरे लड़के रुपये-पैसे की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते, सिर्फ लड़की देखते हैं और पसंद कर लेते हैं। ऐसा कोई लड़का, संयोग से मिल जाए, शेखर, तो मैं कहता हूँ, मेरे आशीर्वाद से तुम राजा होगे। और क्या कहूँ, बेटा ? इस मुहल्ले में तुम लोगों के ही आसरे-भरोसे हूँ ! तुम्हारे बाबूजी मुझे अपने छोटे भाई की तरह ही देखते हैं।’’
शेखर ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘ठीक है, देखूँगा।’’
‘‘देखो, बेटा, भूलना नहीं। ललिता ने तो आठ साल की उम्र से तुमसे ही पढ़ना-लिखना सीखा है, इंसान बन रही है, तुम भी तो देख रहे हो, वह कितनी बुद्धिमती है; कितनी शांत-शिष्ट है ! बुंदकी भर लड़की, आज से वही हमारे यहाँ पकाएगी-परोसेगी, देगी-सहेजेगी। अब से सब कुछ उसके जिम्मे !’’ उस पल, ललिता ने एक बार नजरें उठाकर, झट से झुका लीं। उसके होंठ के दोंनों कोर ईषत् फैलकर रह गए।
गुरुचरण ने फिर एक लम्बी उसाँस छोड़कर कहा, ‘‘इसके बाप ने ही क्या कम रोजगार किया ? लेकिन, सारा कुछ इस ढंग से दान कर गया कि इस लड़की के लिए कुछ नहीं रख गया।’’
शेखर खामोश रहा।
गुरुचरण खुद ही दुबारा बोल उठे, ‘‘वैसे कुछ भी रखकर नहीं गया, यह भी कैसे कहूँ ? उसने जितने सारे लोगों का जितना-जितना दुःख मिटाया, उसका सारा पुण्य, मेरी इस बेटी को सौंप गया, वर्ना इतनी नन्ही-सी बच्ची, ऐसी अन्नपूर्णा हो सकती है भला ? तुम ही बताओ, शेखर, यह सच है या नहीं ?’’
शेखर हँस पड़ा। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
वह जाने के लिए उठने ही वाला था।
‘‘इतनी सुबह-सुबह कहाँ जा रहे थे ?’’ उन्होंने पूछा।
‘‘बैरिस्टर के यहाँ ! एक केस के सिलसिले में-’’ इतना कहकर, वह उठ खड़ा हुआ।
गुरुचरण ने उसे फिर याद दिलाया, ‘‘मेरी बात जरा याद रखना, बेटा ! वह जरा साँवली जरूर है।….लेकिन ऐसी सूरत-शक्ल, ऐसी हँसी, इतनी दया-माया दुनिया भर में खोजते फिरने पर भी किसी को मिलेगी !’’
शेखर ने सहमति में सिर हिलाया और मंद-मंद मुस्कराते हुए बाहर निकल गया। उस लड़के की उम्र पच्चीस-छब्बीस ! एम.ए. पास करने के बाद, अब तक अध्यापन में लगा रहा, पिछले वर्ष एटॉर्नी बन गया। उसके पिता नवीन-राय का गुड़ का कारोबार था। लखपति बन जाने के बाद, इधर कुछेक सालों से कारोबार छोड़कर, घर बैठे तिजारती का धंधा शुरू कर दिया है। बड़ा बेटा वकील ! यह शेखरनाथ, उनका छोटा बेटा है। मुहल्ले की छोर पर उनका विशाल तिमंज़िला मकान, शान से सिर उठाए खड़ा़ है। उसी मकान की खुली छत से सटी हुई, गुरुचरण की छत है। इसलिए दोनों परिवारों में बेहद आत्मीयता जुड़ गई थी। घर की औरतें, इसी राह, आना-जाना करती थीं।
2
काफी लंबे अर्से से श्याम बाजार के किसी अमीर घराने के साथ, शेखर के विवाह की बातचीत चल रही है। उस दिन जब वे लोग देखने आए, तो उन लोगों ने अगले माघ का कोई शुभ दिन तय करने का प्रस्ताव दिया। लेकिन शेखर की माँ ने इनकार कर दिया। उन्होंने महरी के जरिए मर्दाने में यह कहला भेजा कि लड़का, जब ख़ुद लड़की देखकर पसंद कर आए, तभी यह विवाह संभव है।
नवीन राय की नजर सिर्फ दौलत पर थी। गृहिणी की इस टाल-मटोल से वे नाराज हो उठे।
‘‘यह कैसी बात ? लड़की को देखी-भाली है। बातचीत पक्की हो जाने दो। उसके बाद सगाई के दिन, अच्छी तरह देख लेना।’’ लेकिन, गृहिणी राजी नहीं हुईं। उन्होंने पक्की बातचीत करने से मना कर दिया। उस जिन नवीन राय इस कदर नाराज हुए कि खाना भी काफी देर से खाया और दोपहर को वे बाहर वाले कमरे में ही सोए।
शेखरनाथ ईषत् शौकीन तबीयत का शख्स था। वह तीसरी मंजिल के जिस कमरे में रहता था, व काफी सजा हुआ था।
करीब पाँच-छः दिन बाद एक दिन दोपहर को जब वह अपने कमरे के बड़े-से आईने के सामने खड़ा-खड़ा, लड़की देखने जाने के लिए तैयार हो रहा था, ललिता कमरे में दाखिल हुई।
कुछेक पल उसकी तरफ खामोश निगाहों से देखते हुए, उसने कहा, ‘‘सुनो, जरा अच्छी तरह सजा-वजा, तो दो, ताकि बीवी पसंद कर ले।’’
ललिता हँस पड़ी, ‘‘अभी तो मेरे पास वक्त नहीं है, शेखर ’दा, मैं रुपए लेने आई हूँ।’’
इतना कहकर, उसने तकिए के नीचे दबी चाबी निकाली और अलमारी खोलकर, दराज से कुछ रुपए निकालकर गिने। रुपए आँचल में बाँधकर, उसने स्वगत ही कहा, ‘‘जरूरत के वक्त रुपए ले तो जाती हूँ, मगर इतना सब शोध कैसे होगा ?’’
शेखर ने ब्रश फेरकर, एक तरफ के बाल, बड़े जतन से ऊँचे किए और पलटकर ललिता, की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘शोध होगा नहीं, हो रहा है।’’
ललिता को उसकी बात समझ में नहीं आई। उसकी आँखें शेखर के चेहरे पर गड़ी रहीं।
‘‘यूँ देख क्या रही हो ? समझ में नहीं आया ?’’
‘‘ना-’’ ललिता ने इनकार में सिर हिला दिया।
‘‘जरा और बड़ी हो जाओ, तब समझ जाओगी।’’ इतना कहकर, शेखर ने जूते पहने और कमरे से बाहर निकल गया।
रात को शेखर कोच पर चुपचाप लेटा हुआ था। अचानक उसकी माँ कमरे में दाखिल हुई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। माँ तख़त पर बैठ गईं।
‘‘लड़की देखी ? कैसी है, रे ?’’
‘‘अच्छी !’’ माँ के चेहरे की तरफ देखते हुए, शेखर ने जवाब दिया।
शेखर की माँ ! नाम भुवनेश्वरी ! उम्र लगभग पचास के करीब आ पहुँची थी, लेकिन तन-बदन इतना कसा हुआ ! इतना खूबसूरत की वे पैंतीस-छत्तीस से ज्यादा की नहीं लगती थीं। ऊपर से उनके ऊपर आवरण के अंदर जो मातृ-हृदय मौजूद था, वह और भी ज्यादा नया, और कोमल था। वे गाँव देहात की औरत। वे गाँव-देहात में पैदा हुईं ! वहीं पली-बढ़ी़-बड़ी हुईं, लेकिन शहर में भी कभी किसी दिन भी बेमेल नहीं नजर आईं। जैसे उन्होंने शहर की चुस्ती-फुर्ती, जीवंतता और आचार-व्यवहार उन्मुक्त भाव से ग्रहण कर लिया, उसी तरह अपनी जन्मभूमि की निबिड़ निस्तब्धता और माधुर्य भी उन्होंने नहीं खोया। यह माँ, शेखर के लिए कितना विराट गर्व थी, यह बात उसकी माँ भी नहीं जानती थी। ईश्वर ने शेखर को काफी कुछ दिया था-अनन्य सेहत, रूप, ऐश्वर्य, बुद्धि-लेकिन, ऐसी माँ की संतान हो पाने का सौभाग्य को, वह समूचे तन-मन से, ऊपर वाले का सबसे बड़ा दान मानता था।
‘‘अच्छी, कहकर तू चुप क्यों हो गया ?’’ माँ ने पूछा।
शेखर ने दुबारा हँसकर, सिर झुका लिया, ‘‘तुमने जो पूछा, वही तो बताया-’’
माँ भी हँस पड़ी, ‘‘कहाँ बताया ? रंग कैसा है, गोरा ? किसके जैसी है ? हमारी ललिता जैसी ?’’
शेखर ने सिर उठाकर जवाब दिया, ‘‘ललिता तो काली है, माँ, उससे तो गोरी है-’’
‘‘चेहरा-मोहरा, आँखें कैसी हैं ?’’
‘‘वह भी बुरी नहीं-’’
‘तो घर के कर्ता से कह दूँ ?’’
इस बार शेखर खामोश रहा। कुछेक पल बेटे का चेहरा पढ़ते हुए, माँ ने अचानक सवाल किया, ‘‘हाँ, रे, लड़की पढ़ी-लिखी कितनी है ?’’
‘‘वह तो मैंने नहीं पूछा, माँ !’’
माँ एकदम से ताज्जुब में पड़ गईं, ‘‘यह कैसी बात है, रे ? जो आजकल तुम लोगों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, वही बात पूछकर नहीं आया ?’’
शेखर हँस पड़ा, ‘‘नहीं, माँ, यह बात तो मुझे याद ही नहीं रही।’’
बेटे की बात सुनकर, अब वे बाकायदा विस्मित हो उठी और कुछेक पल, उनकी निगाहें, बेटे के चेहरे पर गड़ी रहीं।
अचानक वे हँस पड़ीं, ‘‘यानी तू वहाँ ब्याह नहीं करेगा ?’’
शेखर जाने क्या तो कहने जा रहा था, अचानक ललिता को कमरे में दाखिल होते देखकर, वह खामोश हो गया।
ललिता धीमे कदमों से भुवनेश्वरी के पीछे आ खड़ी हुई।
भुवनेश्वरी ने बाएँ हाथ से उसे खींचकर अपने सामने कर लिया, ‘‘क्या बात है, बिटिया ?’’
ललिता ने फुसफुसाकर जवाब दिया, ‘‘कुछ नहीं, माँ ?’’
वह पहले उन्हें ‘मौसी’ बुलाया करती थी, लेकिन उन्होंने उसे बरजते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी मौसी नहीं, माँ हूँ।’’
बस, उसी दिन से वह उन्हें ‘माँ’ बुलाने लगी।
भुवनेश्वरी ने उसे और करीब खींचकर, उसे दुलारते हुए पूछा, ‘‘कुछ नहीं ? तो तू मुझे सिर्फ एक बार देखने आई है ?’’ ललिता खामोश रही।
‘‘देखने आई है कि वह खाना कब पकाएगी ?’’ शेखर एकदम से बोल उठा।
‘‘क्यों ? पकाएगी क्यों ?’’
शेखर ने विस्मित मुद्रा में पलटकर सवाल किया, ‘‘तो उन लोगों का खाना और कौन पकाएगा ? उस दिन, उसके मामा ने भी तो यही कहा कि पकाने-परोसने का काम ललिता ही करेगी।’’
माँ हँस पड़ीं, ‘‘उसके मामा की क्या बात है ? कुछ कहना था, सो कहकर छुट्टी पा ली। उसकी तो अभी शादी नहीं हुई, उसके हाथ का खाएगा कौन ? मैंने अपने पंडित जी को भेज दिया है, वे ही पकाएँगे। हमारा खाना बड़ी बहूरानी बना रही है। आजकल दोपहर को मैं वहीं चली जाती हूँ।’’ शेखर समझ गया, उस दुःखी परिवार की जिम्मेदारी, माँ ने अपने ऊपर ले ली है। उसने राहत की साँस ली और खामोश हो रहा।
करीब महीना भर गुजर गया।
एक शाम, शेखर अपने कमरे के कोच पर लेटा-लेटा कोई अंग्रेजी उपन्यास पढ़ रहा था। उस उपन्यास में वह खा़सा मगन हो गया था, तभी ललिता उसके कमरे में दाखिल हुई।
उसने तकिए के नीचे से चाबी निकाली और खट्-खुट् की आवाज के साथ, वह अलमारी का दराज खोलने लगी।
किताब से सिर उठाए बिना ही शेखर ने पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’
‘‘रुपए निकाल रही हूँ।’’
शेखर ने हुंकारी भरी और पढ़ने में ध्यानमग्न हो गया।
ललिता ने आँचल में रुपए गँठियाकर, उठ खड़ी हुई।
आज वह काफी सज-धजकर आई थी। वह चाहती थी, शेखर एक बार उसे देख ले।
‘‘दस रुपये लिए हैं, शेखर दा-’’
‘‘अच्छा !’’ शेखर ने जवाब तो दिया, मगर उसकी तरफ देखा नहीं।
निरुपाय ललिता, इधर-उधर की चीजें उलटने-पलटने लगी; झूठमूठ ही देर तक रुकी रही, लेकिन जब कोई नतीजा नहीं निकला, तो धीमे कदमों से कमरे से बाहर निकल गई। लेकिन यूँ चले जाने से ही तो नहीं चलता। उसे दुबारा लौटकर, दरवाजे पर खड़े होना पड़ा। आज वे लोग थियेटर जा रही थीं।
शेखर की अनुमति बिना वह कहीं नहीं जा सकती, यह बात वह जानती थी। किसी ने उसे शेखर से अनुमति लेने को नहीं कहा, या वह क्यों, किसलिए….ये सब ख्याल, उसके मन में कभी नहीं जगे। लेकिन इंसान मात्र में एक सहज-स्वाभाविक बुद्धि मौजूद है, उसी बुद्धि ने उसे सिखाया था कि भले और कोई मनमानी कर सकता है, जहाँ चाहे, जा सकता है, मगर वह ऐसा नहीं कर सकती। इसके लिए, वह आजाद भी नहीं है। मामा-मामी की अनुमति ही उसके लिए यथेष्ट नहीं है।
दरवाजे की आड़ में खड़ी-खड़ी उसने कहा, ‘‘हम लोग नाटक देखने जा रही हैं-’’
उसकी मृदु आवाज शेखर के कानों तक नहीं पहुँची।
ललिता ने जरा और तेज आवाज में कहा, ‘‘सब लोग मेरे इंतजार में खड़े हैं-’’
इस बार शेखर के कानों तक उसकी आवाज पहुँच गई।
उसने किताब एक ओर रखते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’
ललिता ने ईषत् तमककर जवाब दिया, ‘‘इतनी देर बाद, मेरी आवाज कानों तक पहुँची ? हम लोग थियेटर जा रहे हैं।’’
‘‘हम लोग कौन ?’’ शेखर ने पूछा।
‘‘मैं, अन्नाकाली, चारुबाला का भाई, चारुबाला, उसके मामा…’’
‘‘यह मामा कौन है ?’’ शेखर– उसका मामा कौन?
ललिता- उनका नाम गिरीन्द्र बाबू है। 5-6 दिन हुए, अपने घर मुँगेर से यहाँ आये हैं। यहीं, कलकत्ते में, रह कर बी० ए० में पढ़ेंगे। बड़े अच्छे आदमी हैं।
शेखर बीच ही में कह उठा– वाह! नाम, पता, पेशा, सब मालूम कर लिया तुमने तो! देख पड़ता है, इतने ही में खूब हेलमेल हो गया है। इसीलिए चार-पाँच दिन से तुम गायब रहती हो। जान पड़ता है, ताश खेला करती हो?
अचानक शेखर के बात करने का ढंग बदला हुआ देखकर ललिता डर गई। उसे खयाल भी न था कि इस तरह का प्रश्न उठ सकता है। वह चुप हो रही।
शेखर ने फिर पूछा – इधर कई दिन से ताश का खेल होता था – क्यों?
ललिता ने संकुचित होकर धीरे से अपनी लाचारी जताते हुए, संकोच के स्वर में कहा – चारु के कहने….
”चारु के कहने से? क्या कहने से?” कहते हुए शेखर ने एक बार सिर उठाकर ललिता की ओर देखा। फिर कहा- एक दम कपड़े-लत्ते से लैस होकर आई हो- अच्छा, जाओ।
लेकिन ललिता नहीं गई–वहीं चुपचाप खड़ी ही रही।
चारुबाला का घर ललिता के घर के पास ही है। चारु उसकी बहनेली है। दोनों हमजोली हैं। चारु के चरवाले ब्रह्मसमाजी हैं। इस गिरीन्द्र के अलावा चारु के घर के सभी आदमी शेखर के परिचित हैं। 5-7 साल हुए, गिरीन्द्र कुछ दिन के लिए एक बार यहाँ आया था। अब तक वह बाँकीपुर में पढ़ता था- कलकत्ते आने का न प्रयोजन ही हुआ, और न वह आया ही। इसी कारण शेखर उसे जानता-पहचानता न था।
ललिता को फिर भी खड़े देखकर- ”बेकार क्यों खड़ी हो, जाओ” कहकर शेखर ने फिर किताब खोल, ली, और पढ़ना शुरू कर दिया।
पाँच मिनट के लगभग चुप रहने के बाद ललिता ने फिर धीरे से पूछा- जाऊँ?
”जाने ही को तो कह चुका हूँ ललिता।”
शेखर का रँग-ढँग देखकर ललिता के मन से थियेटर देखने का उत्साह उड़ गया, लेकिन बात ऐसी थी कि गये बिना भी न बनता था।
तय यह हुआ था कि आधा खर्च चारु का मामा देगा, और आधा ललिता देगी।
चारु के घर में सब लोग उसी की अपेक्षा कर रहे होंगे- देर होने के कारण ऊब रहे होंगे। जितनी देर हो रही है, उतनी ही उन लोगों की बेचैनी बढ़ रही है- यह दृश्य कल्पना के द्वारा ललिता की आँखों के आगे नाचने लगा। किन्तु बचने का कोई उपाय भी उसे नहीं सूझ पड़ता था। और भी 2-3 मिनट तक चुप रहने के बाद फिर उसने कहा- बस, सिर्फ आज ही के दिन जाना चाहती हूँ- जाऊँ?
शेखर ने किताब को एक तरफ फेंक दिया, और धमकाकर कहा- दिक् मत करो ललिता, जाने की इच्छा हो तो जाओ। अब अपना भला-बुरा समझने लायक हो चुकी हो।
सुनते ही ललिता चौंक उठी। ललिता को अक्सर शेखर झिड़कता, डांटता और धमकाता था। आज कुछ पहला ही मौका न था। सुनने और सहने का अभ्यास अवश्य था, लेकिन इधर दो तीन साल से ऐसी कड़ी झिड़की या झड़प झेलने की नौबत नहीं आई थी। उधर साथी सब राह देख रहे हैं, इधर वह खुद भी पहन-ओढ़कर तैयार खड़ी है। सिर्फ रुपये लेने के लिए आना ही आफत हो गया! अब उन सब साथियों से जाकर वह क्या कहेगी?
कहीं जाने-आने के लिए ललिता को आज तक शेखर की ओर से पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त थी, वह कभी रोक-टोक नहीं करता था। इसी धारणा के बल पर वह आज भी एकदम सज-धजकर शेखर के पास केबल रुपये भर लेने आई थी।
इस समय उसकी वह स्वाधीनता ही केवल ऐसे रूढ़ भाव सें खर्च नहीं हो गई, बल्कि जिस लिए स्वाधीनता कुण्ठित हुई वह कारण कितनी बड़ी लज्जा की बात है, यह आज अपनी इस तेरह वर्ष की अवस्था में पहली ही बार अनुभव करके वह भीतर ही भीतर जैसे कटी जा रही थी। अभिमान से आँखों में आँसू भरकर वह और भी पाँच मिनट के लगभग खड़ी रही। इसके बाद अपने घर जाकर ललिता ने दासी के जरिए अन्नाकाली को बुलवाकर उसके हाथ में दस रुपये देकर कहा- काली, आज तुम सब जाकर देख आओ। मेरी तबियत बहुत खराब हो गई है; चारु से जाकर कह दे, मैं आज न जा सकूँगी।
अन्नाकाली ने पूछा- कैसी तबियत है? क्या हुआ?
ललिता ने कहा- सिर में दर्द है, जी मतला रहा है, तबियत बहुत ही खराब हो रही है।
इतना कहकर वह करवट बदलकर लेट रही। इसके बाद चारु ने आकर बड़ी खुशामद की, जोर-जबरदस्ती भी की, मामी से सिफारिश कराई, किन्तु किसी तरह ललिता को उठ कर चलने के लिए राजी न कर पायी। अन्नाकाली दस रुपये पा गई थी, इसलिए वह जाने को चटपटा रही थी। कहीं इस गड़बड़ मेँ पड़कर जाना न हो सके, इस भय से उसने चारु को आड़ में ले जाकर रुपये दिखाकर कहा- दीदी की तबियत अच्छी नहीं है, वे न जायँगी तो क्या हर्ज है चारु दीदी? उन्होंने मुझे रुपये दे दिये हैं- यह देखो। आओ, हम लोग चलें।
चारु ने समझ लिया, अन्नाकाली अवस्था में छोटी है तो क्या हुआ, बुद्धि उसमें किसी से कम नहीं है। वह राजी हो गई, और अन्नाकाली को लेकर चली गई।
3
चारुबाला की माँ मनोरमा को ताश खेलने का बड़ा शौक था। मगर मुश्किल यही थी कि खेलने का शौक जितना था, उतनी निपुणता न थी। मगर ललिता उनकी इस कमी को दूर कर देती थी। वह खेलने में बहुत निपुण थी। मनोरमा का ममेरा भाई गिरीन्द्र जबसे आया था तबसे, इधर कई दिन से, दोपहर भर लगातार ताश का खेल होता था। गिरीन्द्र एक तो मर्द था, उस पर खेलता भी अच्छा था। अतएव उसके मुकाबले में बैठकर खेलने के लिए मनोरमा को ललिता की अनिवार्य आवश्यकता होती थी।
नाटक देखने जाने के दूसरे दिन ललिता को ठीक समय पर उपस्थित न देखकर मनोरमा ने बुला लाने के लिए अपनी दासी भेजी। उस समय ललिता बैठी हुई एक मोटी सी सादी कापी में किसी अँगरेज्री-पुस्तक का बँगला में तर्जुमा लिख रही थी- नहीं गई।
ललिता की सहेली चारु भी आकर कुछ न कर पाई। तब मनोरमा ने खुद जाकर पोथी-कापी आदि सब झड़ाके से उधर फेंकते हुए कहा- ले, उठ, चल जल्दी। परीक्षा पास करके तुझे जजी नहीं करनी होगी-बल्कि ताश ही खेलने पड़ेंगे- चल।
ललिता असमंजस में पड़ गई। रुआसी सी होकर उसने अपनी असमर्थता जताई। कहा-आज किसी तरह जाना न होगा, कल आने का पक्का वादा रहा। मगर मनोरमा ने एक न सुनी। अन्त को यह हुआ कि मामी से कहकर जबरदस्ती: हाथ पकड़कर उठाया, तब लाचार होकर ललिता गई। नियमानुसार आज भी ललिता को गिरीन्द्र के विपक्ष में बैठकर ताश खेलना पड़ा। लेकिन आज खेल नहीं जमा। वह किसी तरह उधर मन न लगा सकी। ललिता खेलते समय आदि से अन्त तक उदास और उचाट बनी रही और दिन ढलने के पहले ही उठ खड़ी हुई। जाते समय गिरीन्द्र ने कहा- आपने कल रात को रुपये तो भेज दिये, मगर गईं नहीं। चलिए, कल फिर चलें।
ललिता ने सिर हिलाकर धीमे स्वर में कहा- नहीं-मेरी तबियत बहुत ही खराब हो गई थी।
गिरीन्द्र ने हँस कर कहा- मगर अब तो आपकी तबियत ठीक है न? मैं कल फिर चलने के लिए कहता हूँ- चलिए न; नहीं जी, कल आपको चलना ही पड़ेगा।
”ना, ना, कल तो मुझे छुट्टी ही न होगी!” यह कह कर ललिता तेजी से चली गई।
यह बात न थी कि केवल शेखर के डर से ही ललिता का मन आज खेल में नहीं लग पाया; नहीं, उसे खुद भी आज गिरीन्द्र के मुकाबले में खेलते बड़ी लज्जा लग रही थी।
शेखर के ही घर की तरह इस घर में- चारु के यहाँ- भी ललिता लड़कपन से ही आती-जाती रहती है, और अपने घर के लोगों के आगे जैसे निकलती पैठती है, वैसे ही इस घर के मदों के सामने भी। इसी कारण चारु के मामा से भी उसने कुछ पर्दा नहीं किया- शुरू से ही बोलने-चालने में वह नहीं हिचकी। किन्तु आज गिरीन्द्र के आगे बैठकर जब तक वह खेलती रही न जाने कैसे उसको यही जान पड़ा कि इसी अल्प परिचय से, इतने ही दिनों के भीतर, गिरीन्द्र उसे कुछ विशेष प्रीति की नजर से देखने लगा है। आज से पहले उसने कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि पुरुषों की प्रीति-पूर्ण दृष्टि इतनी लज्जा की सृष्टि कर सकती है।
अपने घर में एक झलक दिखाकर ही ललिता शेखर के घर में हो रही। सीधे शेखर के कमरे में घुसकर लगे हाथ अपने काम में जुट गई। छुटपन से ही इस घर के छोटे-मोटे साधारण सफाई के काम ललिता कर दिया करती है। शेखर की किताबों को कायदे से सँभालना और रखना, मेज का सारा सामान सजाना, दावात-कलम वगैरह सफा करना वगैरह सब काम ललिता ही करती थी। उसके सिवा इधर ध्यान देनेवाला दूसरा कोई न था। इधर 6-7 दिन हाथ न लगाने के कारण काम बहुत बढ़ गया था। शेखर के आने से पहले ही सब काम करके चले जाने का इरादा करके ललिता काम में जुट गई।
ललिता भुवनेश्वरी को मां कहती थी, मौका मिलने पर उन्हीं के आसपास बनी रहती थी, और चूंकि वह खुद किसी को गैर नहीं समझती थी, इसीलिए उसे भी कोई गैर नहीं समझता था। आठ बरस की थी, जब मां-बाप के मर जाने पर उसे मामा के घर पर आना पड़ा था। तभी से वह छोटी बहन की तरह. शेखर के ही आसपास रहकर, उसी से पढ़- लिखकर, आज इतनी बड़ी हुई है। यह सभी को मालूम है कि ललिता पर शेखर का विशेष स्नेह है, लेकिन वह स्नेह रंग बदलते-बदलते इस समय कहाँ से कहों पहुँच गया है, इसकी खबर किसी को न थी, ललिता को भी नहीं। सभी लोग ललिता को बचपन से ही शेखर के निकट एक सरीखा असीम आदर और प्यार-दुलार पाते देखते आ रहे हैं, और आजतक उसमें कुछ भी किसी को बेजा नहीं जान पड़ा, अथवा यह कहो कि ललिता के सम्बन्ध में शेखर की कोई भी हरकत ऐसी नहीं हो पाई कि उस पर विशेष रूप से किसी की दृष्टि आकृष्ट होती। मगर फिर भी, कभी, किसी दिन किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की कि यह लड़की इस घर की बहू बनकर इस घर में स्थान पा सकती है। यह खयाल न ललिता के घर में किसी का था, और न भुवनेश्वरी ही का।
ललिता ने सोच रक्खा था कि काम खतम कर के शेखर के आने से पहले ही वह चली जायगी, लेकिन अनमनी होने के कारण घड़ी पर नजर नहीं पड़ी, देर हो गई। अचानक दरवाजे के बाहर जूतों की चरमराहट सुनकर सिर उठाकर ही सिटपिटाई हुई ललिता एक किनारे हटकर खड़ी हो गई।
शेखर ने भीतर घुसते ही कहा- अच्छा, तुम हो! कल कितनी रात बीते लौटीं? ललिता ने कुछ जवाब नहीं दिया।
शेखर ने एक गद्दीदार आरामकुर्सी पर हाथ-पैर फैलाकर लेटे-लेटे वही सवाल दोहराया। कहा – लौटना कब हुआ था- दो बजे? तीन बजे? मुँह से बोल क्यों नहीं निकलता? ललिता फिर भी उसी तरह चुपचाप खड़ी रही।
शेखर ने खिजलाकर कहा- नीचे जाओ, मां बुला रही हैं। भुवनेश्वरी भण्डारे की कोठरी के सामने बैठी जलपान का सामान रकाबी में रख रही थीं। ललिता ने पास आकर पूछा– मुझे बुला रही थीं मां?
”कहाँ, मैंने तो नहीं बुलाया!” कहकर सिर उठाकर ललिता का मुख देखते ही उन्होंने कहा- तेरा चेहरा ऐसा सूखा हुआ क्यों है ललिता? जान पड़ता है, आज अभी तक तूने कुछ खाया-पिया नहीं-क्यों न?
ललिता ले गरदन हिलाई।
भुवनेश्वरी बोलीं- अच्छा, जा अपने दादा को जलपान का सामान देकर जल्दी मेरे पास आ।
ललिता ने दम भर बाद मिठाई की रकाबी और जल का गिलास लिये हुए ऊपर आकर कमरे में देरवा, शेखर अभी तक उसी तरह आखें मूँदे लेटा हुआ है। दफ्तर के कपड़े भी नहीं उतारे। न हाथ और मुँह ही धोया। पास आकर धीरे से उसने कहा– जल-पान का सामान लाई हूँ।
शेखर ने आँखें खोले बिना ही कह दिया– कहीं रख जाओ।
मगर ललिता ने रक्खा नहीं। वह हाथ में लिये चुपचाप खड़ी रही।
शेखर को आँखें न खोलने पर भी मालूम पड़ रहा था कि ललिता वहीं खड़ी है, गई नहीं। दो-तीन मिनट चुप रहने के बाद शेखर ही फिर बोला– कब तक इस तरह खड़ी रहोगी ललिता? मुझे अभी देर है; रख दो और नीचे जाओ।
ललिता चुपचाप खड़ी-खड़ी मन में बिगड़ रही थी। मगर उस भाव को दबाकर कोमल स्वर में बोली- देर है, तो होने दो, मुझे भी तो इस समय नीचे कोई काम नहीं करने को है।
अब की शेखर ने आँखें खोलकर देखा, और हँसते हुए कह्म– भला मुँह से बोल तो फूटा! नीचे काम नहीं है, तो बगलवाले घर में बहुत काम होगा। वहाँ भी न हो तो उसके आगे के घर में काम की कमी न होगी। तुम्हारा घर एक ही तो नहीं है ललिता!
”सो तो है ही” कहकर ललिता ने क्रोध के मारे मिठाई की रकाबी को तनिक जोर से टेबिल पर रख दिया, और तेजी के साथ कमरे के बाहर निकल गई।
शेखर ने पुकारकर कहा– शाम के बाद जरा फिर हो जाना।
”सैकड़ों दफे ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना मुझसे नहीं हो सकता।” यह कहती हुई वह चली गई।
नीचे आते ही मां ने कहा- अपने दादा को मिठाई और पानी तो दे आई, मगर पान भूल ही गई। फिर जाना पड़ेगा।
”मुझे तो बड़ी भूख लग रही है मां, अब मुझसे ऊपर चढ़ा-उतरा न जायगा, और किसी के हाथ भेज दो पान।” यह कहने के साथ ही वह लद से नीचे बैठ गई। ललिता के मनोहर मुख-मण्डल में रोष का असन्तोष झलकता देखकर भुवनेश्वरी ने मन्द मुसकान के साथ कह दिया- अच्छा अच्छा, तू बैठकर खा-पी ले; किसी महरी के ही हाथ भेजे देती हूँ।
ललिता ने फिर कुछ कहा-सुना नहीं–जाकर भोजन करने बैठ गई।
वह उस दिन थियेटर देखने नहीं गई थी-फिर भी शेखर ने उसे बका-झका, यही ललिता को बुरा लगा। इसी पर रूठकर ललिता चार-पाँच दिन शेखर को नहीं दिखाई दी। मगर शेखर के दफ्तर जाने पर दोपहर को रोज जाकर वह शेखर के कमरे की सफाई वगैरह अपना काम सब कर आया करती रही। अपनी गलती मालूम होने पर शेखर ने दो दिन बराबर ललिता को बुला भेजा, मगर वह नहीं आई।
(4)
उस मोहल्ले में अक्सर एक दीन-दुखी बूढ़ा फकीर भीख मांगने आया करता था। उस बेचारे पर ललिता की बड़ी ममता थी। जब कभी वह भजन गाकर भिक्षा मांगता था, तो ललिता उसे एक रूपया दिया करती थी। एक रूपया प्राप्त होने पर उसके आनन्द का ठिकाना न रहता था। ललिता को वह सैकड़ों आशीर्वाद देता था और वह बड़े चाव से उन आशीर्वादो को सुनती थी। फकीर कहता था- ‘ललिता उस जन्म की मेरी माँ है!’ पहली दृष्टि पड़ते ही फकीर उसे अपनी माँ समझने लगा है। वह बड़े ही करूण स्वर में उसे अपनी माँ कहकर पुकारता है। आज भी उसने आते ही माँ को पुकार- ‘ओ माँ! मेरी माँ तुम आज कहाँ हो?’
आज इन प्रकार अपने बेटे की आवाज सुनते ही ललिता कठिनाई में पड़ गई। आखिर वह इस समय उसको रूपया दे, तो कहाँ से दे? इस समय शेखऱ घर में ही मौजूद होंगे और वह उनके सामने रूपया लाने जाए कैसे? वह उससे नाराज है। कुछ समय सोचते रहने के बाद वह अपनी मामी के पास गई। अभी-अभी उसकी मामी की झक-झक नौकरानी से हो गई थी। इस कारण मुंह लटकाए, खाने की तैयारी कर रही थी ऐसी स्थिति में ललिता को कुछ कहने की हिम्मत न हुई। वह वापस चली आई, और किवाड़ की ओट से देखा कि बूढ़ा फकीर चौंतरे पर अब भी बैठा है और भझन गाने में मस्त है। ललिता के हृदय में एक खलबली-सी मची थी। आज तक उसने इस फकीर को निराश नहीं लौटाया था, इसलिए वह आज भी लौटाना नहीं चाहती थी। उसका मन क्षुब्ध हो रहा था।
भिखारी ने फिर एक बार- ‘माँ’ कहकर पुकारा।
इसी बीच अन्नाकाली दौड़ती हुई आई और उसने सूचना दी कि ‘दीदी, तुम्हारा बूढ़ा बेटा बड़ी देर से आवाज लगा रहा है!’
ललिता ने कहा- ‘मेरी अच्छी अन्नो! जरा सुन तो! अगर तू मेरा एक जरूरी काम कर दे तो मैं तुझे अच्छी-अच्छी चीजें दूंगी। तू झल्दी से चली जा, शेखर भैया से एक रूपया लेकर आ!’
अन्नाकाली तेजी से दौड़ती हुई गई और एक रूपया लाकर ललिता को दिया।
ललिता ने पूछा- ‘शेखर दादा ने देते समय कुछ कहा था?’
‘कुछ भी नहीं! केवल यही कहा कि र्बास्केट की जेब से निकाल लो।’
‘मेरे विषय में तो कुछ नहीं कहते थे?’
‘नहीं! कुछ भी नहीं!’ कहकर वह खेलने में लग गई।
रूपया लाकर ललिता ने उस बूढ़े भिखारी को दिया और चाली गई। आज उसने आशीर्वाद तक न सुने। पता नहीं क्यों उसे कुछ भी अच्छा न लगता था। उसका चित्त परेशान था।
दोपहर के पश्चात् अन्नाकाली को बुलाकर पूछा- ‘अन्नो! आजकल तू अपने शेखर दादा से पढ़ने नहीं जाती?’
‘जाती क्यों नहीं? रोज जाती हूँ!’
ललिता- ‘दादा मेरे बारे में कुछ नहीं पूछते?’
अन्ना- ‘नहीं! हां उन्होंने पूछा था कि ताश खेलने दोपहर को जाती हो या नहीं?’
बेचैनी के साथ ललिता ने फिर कहा- ‘फिर तूने क्या कहा?’
अन्नाकाली- ‘यही कि तुम चारू के यहाँ रोज ताश खेलने जाती हो!’
शेखर दादा ने पूछा- ‘तो खेलता कौन-कौन है?’ मैंने कहा- ‘चारू दीदी, तुम, मौसी औऱ चारू के मामा।’ अच्छा दीदी! तुम सब में अच्छा कौन खेलता है? तुम या चारू के मामा? मौसी तो कहा करती है कि तुम अच्छा खेलती हो!’
यह सुनकर ललिता में मानो आग लग गई। वह डांटकर कहने लगी- ‘यह सब तूने क्यों कहा? पाजिन कहीं की! तू हर बात में आधी खिचड़ी पकाया करती है! चली जा मुंहजली, अब मैं तुझे कभी कुछ न दूंगी।’ यह कहकर ललिता वहाँ से चली गई।
ललिता के इस प्रकार बदलते हुए भावों से अन्नाकाली हैरान हो गई। उसकी कच्ची बुद्धि ने यह न समझा कि ललिता क्यों एकदम बिगड़ गई।
दो दिन से ताश का अड्डा नहीं जमता। ललिता के न आने से मनोरमा का खेल बंद हो गया है। मनोरमा के हृदय में यह संदेह भावना जागृत हो चुकी थी कि गिरीन्द्र ललिता की तरफ आकर्षित हो रहा है। उस पर रीझकर गिरीन्द्र बेचैन होता जा रहा है। मनोरमा ने देखा यह दो दिन गिरीन्द्र ने कितनी परेशानी और बेचैनी से काटे हैं। यही नहीं, उसने बाहर घूमने जाना तक बंद कर दिया है। अब वह केवल कमरे में ही इधर-उधर उठता-बैठता दिन काट देता है।
तीसरे दिन दोपहर के समय उसने बहिन से कहा- ‘बहिन, क्या खेल आज तीन आदमी ही खेलें।’
मनोरमा की इस बात को सुनकर गिरीन्द्र का उत्साह भंग हो गया। वह बोला- ‘कहीं तीन आदमी में भी खेल होता है? उस घर की लड़की-जिसका नाम ललिता है, उसे बुला लो न, जीजी!’
मनोरमा- ‘वह न आएगी।’
गिरीन्द्र उमंग में तुरंत बोल उठा- ‘क्यों नहीं आएगी। उसके घरवालों ने मना कर दिया है या अपने से?’
‘नहीं, वह अपने आप नहीं आती! उसके मामा-मामी के ऐसे भाव नहीं है।’
गिरीन्द्र के मुंह पर प्रसन्नता की झलक दौड़ गई। वह बोला- ‘फिर तो तुम्हारे जाने भर की देर है! जरा जाकर कह दोगी, तुरंत आ आएगी!’ यह बात गिरीन्द्र ने कह तो दी, पर अपने मन में संकोच कर रहा था।
उसके हृदय की बात ताड़कर मनोरमा ने हंसते हुए कहा- ‘अच्छा अभी जाकर बुला लाती हूँ।’ यह कहकर वह ललिता के घर गई और उसे पकड़कर साथ ही ले आई।
आज फिर ताश का अड्डा जमा। आज वास्तव में ताश खूब जमा। ललिता की जीत होती रही। दो घंटे तक खेल बहुत ही बढ़िया जमा रहा और सभी लोग दत्तचित्त थे। उसी समय अन्नाकाली दौडती हुई आई और ललिता का हाथ पकड़कर घसीटते हुए बोली- ‘दीदी, जल्दी जलो, शेखर दादा बुलाते हैं।’
शेखर नाम सुनते ही ललिता का चेहरा पीला पड़ गया। उसने ताश छोड़ दिया और पूछा- ‘क्या दादा आज काम पर नहीं गए हैं?’
‘मुझे क्या मालूम? शायद आज जल्दी आ गए हैं!’
ललिता ने मनोरमा की ओर कुंठित भाव से देखकर कहा, मौसी, में जाती हूँ!
उसका हाथ पकड़कर मनोरमा ने कहा- ‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अभी दो-चार हाथ और खेल लो।’
परेशान होकर ललिता ने कहा- ‘मौसी, अब न खेल सकूंगी। यदि जरा भी देर हो गई, तो वह नाराज हो जाएंगे। इतना कहकर दौडती चली गई।
गिरीन्द्र ने पूछा- ‘यह शेखर दादा कौन हैं?’
मनोरमा- ‘वह इसी सामने वाले बड़े महल में रहते हैं।’
गरदन हिलाते हुए गिरीन्द्र ने कहा- ‘वह महल? तब तो शायद नवीन बाबू के कोई रिश्तेदार हैं।’
मनोरमा ने हंसते हुए कहा- ‘कैसे रिश्तेदार! ललिता के मामा के मकान तक को वह बुड्ढा हड़प लेने के लिए तैयार है।’
बड़े आश्चर्य के साथ गिरीन्द्र बहिन की तरफ देखता रहा।
मनोरमा ने सारी कहानी सुनानी प्रारंभ की-किस तरह से आर्थिक कठिनाईयो के कारण गुरुचरण बाबू की मझली पुत्री की शादी रूकी हुई थी। नवीनराय ने काफी ब्याज पर उनका मकान रेहन रख लिया। अब तक भी वह रूपया अदा नहीं हुआ, और नवीनराय यह मकान हड़प ही लेंगे। वह इसी घात में हैं भी!
सारी कहानी सुना चुकने के बाद मनोरमा ने यह भी कहा कि उस बूढ़े की हार्दिक इच्छा यह है कि बेचारे गुरुचरण बाबू का मकान सत्यानाश करके, उसी स्थल पर शेकर के लिए बहुत ही सुंदर विशाल महल बनवाए। दो लड़कों के लिए अलग-अलग मकान है, परंतु तीसरे के लिए नहीं है।
सभी बातें सुनकर गिरीन्द्र को बहुत दु:ख हुआ और गुरुचरण बाबू की दशा पर बहुत तरस आया। वह बोला- ‘जीजी, अभी तो गुरुचरण बाबू की औऱ भी लड़कियां हैं न? उनका कैसे कामकाज होगा?’
मनोरमा ने उत्तर दिया – ‘उनकी कन्याएं तो हैं ही, उसके सिवा उनकी भांजी भी तो है । उस अनाथ ललिता का पूरा बोझ इस बेचारे उसके मामा पर है। लड़कियों. की उम्र काफी हो आई है। एक दो वर्ष में ही उनका विवाह हो जाना चाहिए। फिर भी साथ ही, उन्हें अपने समाज से मदद मिलने की कोई आशा नहीं, बल्कि समाज से निकाल देने वाले अनेक हैं। प्रथ के अनुसार न चलने पर, तुरंत समाज से अलग कर देते हैं। हमारा ब्रह्मसमाज तो इन सपके समाज से लाखो दर्जे अच्छा है, गिरिन्द्रा।’
गिरीन्द्र चुप ही रहा। मनोरमा फिर कहने लगी – ‘उस दिन ललिता की मामी मेरे पास ललिता के लिए सोच-विचार कर रो रही थी। क्या होगा? कैसे होगा? कुछ भी ठिकाना नहीं है। उसके पाणिग्रहण के शोक में गुरुचरण बाबू को खाना-पीना तक नहीं हजम होता। गिरीन्द्र भैया! तेरे बहुत से जान-पहचान वाले मुंगेर में होंगे, क्या कोई तेरा मित्र एसा नहीं है, जो ललिता की सुंदरता और गुणों को देखकर उससे शादी करने के लिए तैयार हो जाए? वास्तव में ललिता के समान गुणी तथा विदुषी लड़की मिलना कठिन है। लाखों लड़कियों में वह एक ही रूपवती है।’
गिरीन्द्र ने दुःखपूर्ण झूठी हंसी-हंसकर कहा – ‘एसी जान-पहचान वाला कहाँ पा सकां, दीदी! फिर भी, हां इस कार्य में धन देकर उनकी सहायता कर सकता हूँ।’
गिरीन्द्र के पिता ने डोक्टरी से अथाह धन इकट्ठा किया था। उस संपूर्ण धन का एकमात्र अधिकारी गिरीन्द्र ही था।
मोरमा – ‘तो क्या तू रूपए उधार देगा?’
गिरीन्द्र ने कहा- ‘उधार क्या दूंगा, जीजी! पर हां, वह जब दे सकेगें दे देंगे, और न दे सकेंगे, तो भी कोई हर्ज नहीं!’
आश्चर्य में पड़कर मनोरमा ने कहा- ‘आखिर इस तरह से उन्हें रूपया दे देने से तुझे क्या लाभ होगा? यह लोग न हमारी बिरादरी के हैं और न समाज के! फिर तुम्हीं बताओ कि इस प्रकार रूपए कौन दे देता है।’
मनोरमा की ओर देखर गिरीन्द्र ने हंसते हुए कहा- ‘समाज के नहीं है तो न सही, किंतु अपने देश के बंगाली तो हैं। उनके पास टके नहीं हैं और मेरे पास रूपयों में काई जम गई है। जीजी, तुम एक बार कहो तो उनसे! यदि वे रूपये लेना चाहें, तो मैं देने को तैयार हूँ। फिर ललिता न तो उनकी सगी है और न संबंन्धिनी है। मैं उसकी शादी का पूरा खर्च ही दे दूंगा। उस भोली लड़की के काम के लिए में पूरा भार सहन कर लूंगा।’
गिरीन्द्र की यह बातें सुनकर मनोरमा को न आनन्द मिला और न संतोष ही हुआ। हालाकिं मनोरमा के घर से कोई कुछ नहीं कहता था, फिर भी स्त्रियों के स्वभावानुसार-पराए आदमी को रूपए बिना प्रोयजन देते देखर उसे जरा भी जैन न था, बल्कि वह तो उसमे रोड़े अटका देना चाहती थी।
चारूबाला चुपचाप यह सब बातें सुन रही थी। गिरीन्द्र की यह रूपए से मदद करने की बात सुनकर, उसका हृदय खुशी से नाच उठा था। वह कहने लगी- ‘मामा, तुम ऐसा ही करो। मैं जाकर मौसी से कह आती हूँ।’
मनोरमा ने उसे धमकाकर कहा- ‘चुप बैठ, चारू। यह बातें बच्चों के मुंह से, बड़ों के बीच मे अच्छी नहीं लगतीं। ललिता की मामी से जो भी कहना होगा, मैं जाकर कह दूंगी।’
गिरीन्द्र – ‘एसा ही करो, दीदी। गुरुचरण बाबू तो भले आदमी हैं, ऐसा लगता है।’
कुछ देर रूककर मनोरमा ने फिर कहा- ‘मैं क्या, सभी लोग यह कहते हैं कि दोनों स्त्री-पुरुष बड़े सज्जन हैं। गिरीन्द्र! इस बात का हमें दुःख है। बहुत मुमकिन है कि उन लोगों को घर त्यागकर सड़क पर ही आकर खड़ा होना पड़े। इसके भय से-तूने देख ही लिया कि ललिता ने ज्यों ही शेखर का नाम सुना, तुरंत दौड़ी हुई गई। ललिता ही क्या, बल्कि उसके यहाँ के सभी लोग शेखर के बंधन में हैं। कुछ भी कोशिश क्यों न की जाए. जब एक बार नवीन राय के गल में कोई फंसा, तो उसका निकलना कठिन ही है।’
मनोरमा की ओर देखते हुए गिरीन्द्र ने एक बार फिर कहा- ‘हां, तुम फिर उनसे जाकर कहोगी न?’
मनोरमा- ‘अच्छा अवश्य कहूँगी! यदि तू अपनी सहायता से किसी गरीब का उपकार कर सके, तो इससे उत्तम और क्या हो सकता है।’
‘दीदी, व्यग्रता की कौन-सी बात है? यह तो हम सबका धर्म है। जब किसी मुसीबत में ग्रस्त व्यक्ति की, जिस प्रकार बन सके-मदद करें।’ यह कहकर गिरीन्द्र कुछ लज्जित-सा हो गया और आगे कुछ न कहकर वह कमरे से बाहर चला गया, परंतु कुछ ही समय बाद वह फिर लौटकर वहीं आ बैठा।
मनोरमा ने कहा- ‘तू फिर आ गया।’
मुस्काराते हुए गिरीन्द्र ने कहा- ‘मुझे ऐसा लगता है कि शायद तुम जो कुछ भी करूणा-युक्त गाथा गाती हो, उसमे सत्यता का बहुत कम अंश है।’
आश्चर्यचक्ति हो मनोरमा ने पूछा- ‘क्यों।’
गिरीन्द्र ने कहा- ‘जिस लापरवाही से मैंने ललिता को रूपए खर्च करते हुए देखा है, उससे गरीबी का कोई लक्षण नहीं जान पड़ता। दीदी, तुम्हीं देखे न, अभी उस दिन सब लोग थियेटर देखने गये थे। ललिता गई नहीं थी, फिर भी दस रूपए उसने भेजे थे। चारूबाला इसकी गवाह है! जिस प्रकार वह खर्च करती है, उससे यह अनुभव होता है कि उसका खर्च बीस-बच्चीस रूपये से कम में न चलता होगा।’
मनोरमा ने इस बात पर एकाएक यकीन नहीं किया और चारूबाला की ओर देखा।
चारूबाला ने कहा- ‘सच है, माँ! शेखऱ बाबू ललिता को रूपए देते हैं, यह नई बात नहीं है। वाल्यावस्ता से ही वह शेखर बाबू की अलमरी से रूपए ले आती है। शेखर बाबू कुछ नहीं कहते।’
मनोरमा ने कहा- ‘यह बात शेखर को ज्ञात है?’
‘हां, उन्हे सब पता है! उसके सामने ही ताला खोलकर लाती है! पिछले महीने अन्नाकाली के गुड्डे के विवाह के समय जो धूमधाम हूई थई और इतने अधिक रूपए खर्च हुए थे, वह सब किसने दिए थे? सारा खर्च ललिता ने ही दिया था।’
लंबी सांस छोड़ते हुए मनोरमा ने कहा- ‘भैया, मैं इन सबके इन सबके बारे में कुछ नहीं जानती, किन्तु इतना अवश्य जानती हूँ कि नवीनराय की भांति उसके लड़के नीच नहीं हैं। सभी लड़के अपनी माँ के स्वभाव के हैं। इसीलिए उनमें दया-ममता भरी हुई है। इसके अतिरिक्त ललिता बई बड़ी नेक लड़की है। सभी उससे स्नेह करते हैं। बचपन से ही वह शेखर के पास रहती है। वह शेखर को भैया कहती है और शेखर का भी उस पर गहरा अनुराग है। अच्छा चारू, यह तो बता-क्या शेखर बाबू की शाधी ईसी माघ में होने वाली है? सुना है, इस रिश्ते से बुढ्ढे को अचछी रकम हाथ लगेगी।’
चारूबाला ने कहा- ‘हां माँ, इसी माघ में शेखर भैया का व्याह होगा। बात तय हो चुकी है।’
(5)
गुरुचरण बाबू बहुत ही मिलनसार व्यक्ति थे। किसी भी छोटे-ड़े व्यक्ति से वे निःसंकोच बातें कर सकते थे। अपनी मिलनसार आदत के कारण ही, गिरीन्द्र के साथ दो-तीन बातें हने पर ही उनकी गहरी मित्रता हो गई थी। वह बड़े ही र्दढ़ विश्वासी थे। सरल स्वभाव के कारण वे चुतराई को कम महत्त्व देते थे। वाद-वाद में तर्क-वितर्क होने पर यदि हार भी जते थे, तो भी किसी प्रकार के रोष की रेखा उनके चेहरे पर न झलकती थी।
कभी-कभी ललिता चुपचाप मामा की बगल में बैठकर सब कुछ सुनती रहती। जब वह आकर बैठ जाती, तो गिरीन्द्र के तर्क बहुत ही विद्वत्तापूर्ण होते। हृदय में आनन्द की लहरों के उज़ाव के साथ वह युक्तिययों को जुटाता चला जाता। मुख्य रूप से उनके वाद-विवाद का विषय, आजकल की समाज-व्यवस्था ही होता था। आधुनिक समाज की हीनता, जर्जरता, असमानता और अत्याचारों पर बड़े मार्मिक ढंग से विचार होता था और ऐसे दुराचारी समाज से घृणा व्यक्त की जाती थी। इन आरोपों में वास्तविकता थी। अतः और कुछ प्रमाण देने की आवश्यकता ही क्या थी। वह समाज द्वारा सताए हुए गुरुचरण बाबू के जीव से पूरी तरह मिलती थी। अंत में गुरुचरण बाबू पूर्णरूप से समर्थ करते हुए कहते- ‘गिरीन्द्र, तुम बिल्कुल सत्य कहते हो। इसमें असत्य है ही क्या? कौन भला आदमी यह नहीं चाहता कि अपनी पुत्री का शुभ-विवाह अच्छे व्यक्ति से ठीक अवसर पर करें! फिर भी क्या ऐसा सबके लिए मुमकिन है? इसके सिवा, समाज यह कहने से नहीं चूकता कि तुम्हारी लड़की सयानी हुई व्याह करो। मगर इतना कहने से ही तो लड़की का व्याह नहीं हो जाता। इस कार्य में मदद करने की कौन कहे, तरह-तरह की बातें सुननी पड़ती हैं। गिरीन्द्र अधिक क्या कहूँ, तुम मेरी ही बात देखो, लड़कियों के व्याह के कारण ही मेरा मकान तक बिका जा रहा है। इसका व्याज तक दे सकने में असमर्थ हूँ, इसको कर्ज से मुक्त करा सकना कठइन कार्य है। दो दिन यश्चात् शायद दर-दर का भिखारी हो जाना पड़े। मैं ठीक सकता हूँ या नहीं, गिरीन्द्र ऐसे समय में मुझे कोई भी सहारा न देगा, ब्लिक सारा समाज बहिष्कार करेगा।’
इस प्रकार का वाद-विवाद उठ आने पर गिरीन्द्र चुपचाप ही सुना करता गुरुचरण बाबू उसी बहाव में कहते- ‘भैयास, जो भी तुमने कहा’ बीलकुल सत्य है! ऐसे, समाज को त्यागकर जंगल में रहना लाख बार अच्छा है। ईन पातकी-ढोंगीयो बिलकुल दूर रहने में ही भलाई है। कुछ भी कठिनाई क्यों न हो, फिर भी शांति मिलेगी। गला दबोचने और मनुष्यता को भंग करने वाले समाज में रहना हमारे लिए ठीक नहीं। यह समाज धनवानों का ही है, मेरे जैसे गरीब का नहीं। अच्चा है यही लोग मौज से रहें, हमारी आवश्यकता ही यहाँ नहीं है।’ यह कहते-कहते वह एकदम मौन हो जाते थे।
ललिता प्रतिदिन इन उद्गारपूर्ण युक्तियों को ध्यानपूर्वक सुनती रहती थी। केवल इतना ही नहीं, बल्कि रात को निद्रा आने के पूर्व इन्हीं तकों पर विचार किया करती थी। गिरीन्द्र की सभी युक्तियां उसके हृदय में समा जाती थीं। मन-ही-मन वह सोचने लग जाती कि गिरीन्द्र बाबू का कहना अक्षरशः सत्य है।
अपने मामा से ललिता का अटूट प्रेम था। उसके मामा के प्रति गिरीन्द्र जो कुछ भी कहता उसे नितांत सत्य समझती थी। उसे यह भी पता था कि उसके ममा की परेशानी ततथा चिंतएं उसी के कारण बढ़ी हैं। अन्न-चल भी उन्होंने छोड़ दिया है। आज उसके मामा जो ये सब कष्ट झेल रहे हैं, यह सब क्यों? क्योंकि समाज उन्हें जाति से बाहर कर देना चाहता है। इस सबका कारण एकमात्र यही न कि वे मेरी शादी करने में असमर्थ हैं। विचार कर ललिता ने सोचा-यदि आज किसी प्रकार मेरी शादी हो जाए और दुर्भाग्यवश मैं यदि कल विधवा होकर फिर मामा के पास जाऊं तो मामा को जाति से अलग कर दिया जाएगा? न तर्कों में उसे कोई भी सार न दिखाई देता।
गिरीन्द्र जी कुछ भी ललिता के मामा के प्रति श्रद्धा और सहानुभूति दिखाता था और जो भी वह कहता थाष उस सबके प्रति श्रद्धा दिखाने और अपनी सहमति जताने से वह बाज न आती। ऐसा करने के सिवा उसके पास दूकरा मार्ग न था। गिरीन्द्र के प्रति उसकी श्रद्धा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। धीरे-धीरे उसने भी संध्या की बेला का इंतजार करना शुरू कर दिया। उसकी उत्कंठा और भी बढ़ गई थी।
शुरू में गिरीन्द्र बातं में ललिता को ‘आप’ शब्द से संबोधित करता था, परंतु एक दिन गुरुचरण बाबू ने मना कर दिया। कहा- ‘ललिता तुमसे छोटी है, इसलिए ‘आप’ न कहकर ‘तुम’ कहा करो।’ अब वह ललिता को ‘तुम’ शब्द से संबोधित करने लगा।
गिरीन्द्र ने ललिता से पूछा- ‘तुम चाय नहीं पीतीं?’
ललिता ने कुछ उत्तर न देकर सिर नीचा कर लिया। गुरुचरण बाबू ने उसकी ओर से उत्तर दिया- ‘शेखर ने उसको चाय पीने से मना कर दिया है। उसकी रा है कि स्त्रियों को चाय नहीं पीनी चाहिए।’
गिरीन्द्र को यह वाद अच्छी न लगी, इस बात को ललिता ने ताड़ लिया।
आज शनिवार है। आज के दिन काफी समय तरक यह मजेदार मजलिस लगी रहती है। चाय पीना हो चुका था, वार्तालाप जारी था। गुरुचरण बाबू आज कुछ अनमने थे। बीच-बीच में परेशानी का अनुभव कर वह चुप रह जाते थे। ऐसा लगता था कि बातचीत अच्छी नहीं लग रही थी। पुनरावत्ति।
गिरीन्द्र ने यह देखर पूछा- ‘ऐसा प्रतीत होता है कि आपको कुछ शारीरिक कष्ट है। चेहरे पर उदासी है। क्या दफ्तर में कुछ गड़बड़ है?’
हुक्के की निगाली मुंब से निकालते हुए उन्होंने कहा- ‘नहीं, ऐसी बात नहीं, शरीर भी गड़बड़ नहीं है।’ यह कहते हुए गुरुचरण बाबू ने मुंह ऊंचा करके गिरीन्द्र की ओर दृष्टि डाली। सरल स्वभाव वाले गुरुचरण बाबू की आंतरिक चिंताएं तथा हृदय के ज्वलित उद्गार उनके मुख पर झलक रहे थेःइसका वह खुद भी अनुभव न कर सके थे।
ललिता पहले उन लोगों के वार्तालाप को केवल सुना ही करती थी, परंतु अब वह तर्क-वितर्क में भाग लेने लगी है। मामा की परेशानी को वह भी पूर्णरूप से समझ गई। उसने पूछा- ‘हां मामा, ऐसा मुझे भी लग रहा है कि आपको कोई बात हृदय में कष्ट दे रही है।’
उसकी इस बात को सुनकर गुरुचरण बाबू को थोड़ी-सी हंसी आ गई, और सरल भाव से स्वीकार करते हुए बोले- ‘बेटी, सत्य है, आज मेरी दशा ठीक नहीं है।’
यह बात सुनकर गिरीन्द्र एवं ललिता दोनों ही टकटकी बांधकर कष्ट का कारण जान लेने के लिए उनके चेहरे की तरफ देखने लगे।
गुरुचरण बाबूने कहा- ‘नवीन दादा मेरे विषय में सब कुछ जानते हैं! फिर भी उन्होंने तमाम लोगों के सामने सड़क पर खड़े होकर बहुत सी भली-बुरी बातें सुना जालीं। खैर, उनका इसमें दोष ही क्या? छःसात माह बीत गए, पर उन्हें मूल की कौन कहे, एक पैसा सूद तक का नहीं दे पाया हूँ।’
ललिता सब कुछ तुरंत समझ गई। इस बात को खत्म करने के लिए व्ग्र हो गई। उसे यह भय होने लगा कि कहीं उसके भोले मामा, घरेलू बातों को दूसरों के सामने बिना सोचे-समझे ही गाने लगेंगे, क्यंकि उन्हें दुःख में यह भी स्मरण नहीं रहता कि किसके सामने कौन सी बात करनी चाहिए और किसके समने नहीं। गिरीन्द्र के सामने घरेलू बातें होना वह ठीक न समझती थी। अतः उसने कहा- ‘मामा, बेकार में इन सब बातों की चिंता में मत पड़ो। ये सब बातें तो बाद की हैं, बाद में होंगी।’
ललिता के इस इशारे की ओर गुरुचरण बाबू का ध्यान भी नहीं गया। वह बड़े ही विषादयुक्त भाव से कहने लगे- ‘बाद में क्या होगा, बेटी? हां, गिरीन्द्र भैया! तुम देखते हो कि मेरी बेटी इन सब चिंताओं में मुझे ग्रस्त नहीं देखना चाहती, परंतु, मेरी प्यारी बेटी! तेरे मामा के इन सभी कष्टों को तो बाहरी लोग नहीं देखते हैं।’
गिरीन्द्र ने पूछा- ‘नवीन बाबू ने क्या कहा?’
ललिता को जरा भी पता न था कि गिरीन्द्र उनकी घरेलू परिस्थितियों से परिचित है। इसी कारण गिरीन्द्र का यह प्रश्न सुनकर उसने लज्जा का अनुभव किया, और इस असंगत प्रश्न को सुनतर उसे मन-ही-मन उस पर गुस्सा भी आ गया।
गिरीन्द्र के प्रश्न के उत्तर में गुरुचरण बाबू ने सभी बातें खोलकर कह दीं। काफी दिनों से नवीन राय की पत्नी अजीर्ण रोग से ग्रसित हैं। इलाज में कोई कमी न थी। रोग तो था ही, पर इधर वह भयंकर हो चला है। पुराना रोग हो जाने के कारण डाक्टरों ने राय दी कि हवा-पानी बदलने के लिए कहीं बाहर, स्वास्थ्यवर्द्धक स्थान पर जाना चाहिए। इसी काम के लिए नवीन राय को पैसों की सख्त आवश्यकता थी, अतः बड़े ही जोरों से उन्होंने सब रूपया अदा कर देने का तकाजा किया है। गुरुचरण बाबू के सामने यह कठिन समस्या है- आखिर वह इतनी जल्दी रूपयों का प्रबंध कैसे करें?
गुरुचरण बाबू की इन सब बातों को सुनकर गिरीन्द्र थोड़े समय तक चुप रहा, और फिर बहुत ही नम्र भाव से उसने मधुर स्वर में कहा- ‘इधर कई दिनों से मैं आपसे कुछ कहना चाहता था, पर सोंकचवश कह न सका। आज आप की आज्ञा हो, तो कुछ कहूँ?’
गुरुचरण बाबू ने हंसते हुए कहा – यह क्या बात है, गिरीन्द्र! किसी को भी मुझसे बात करने में संकोच नहीं होता। तुमको आज्ञा क्या दूं, तुम बेरोक-टोक कहो।’
गिरीन्द्र ने कहा- ‘जीजी से एक दिन सुना था कि नवीन बाबू बहुत अधिक सूद पर रूपये उधार देते हैं। उनसे रूपये लेकर ही आप गहरी परेशानी के जाल में पड़ गए। मैंने यह सोचा कि आपकी मदद में अपनी धनराशि लगाउं, जो कि बैंकों में पड़ी हुई है। वह किसी काम में नहीं आती, साथ ही इस समय नवीन बाबू को आवश्यकता भी है। आपका भी कर्ज से छुटकारा मिल जाएगा।’
गिरीन्द्र की यह बात सुनकर, गुरुचरण बाबू और ललिता दोनों उसकगी ओर एकटक देखने लगे। संकोच भाव से गिरीन्द्र ने फिर कहना शुरू किया- ‘इस समय इन रूपयों की मुझे बिल्कुल कोई जरूरत नहीं है। यदि मेरे रूपए आपके काम में लग जाएं, तो मैं अपने आपको भाग्यशाली समझूंगा। इस धन को आप अपनी सुविधानुसार दे दीजिएगा। मुझे किसी प्रकार की जल्दी नहीं है। नवीन बाबू को आवश्यकता है, उन्हें समय पर रूपए मिल जाएंगे।’
गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘सारा रूपया तुम दोंगे…।’
इस बात के उत्तर में गुरुचरण बाबू कुछ कहने जा रहे थे, कि अन्नाकाली तेजी से दौड़ती हुई वहाँ आई, और बोली- ‘शेखर दादा ने तुरंत कपड़े पहनकर, सज-धजकर तैयार होने को कहा है, दीदी! वह सब आज नाटक देखने जा रहे हैं।’ यह कहकर वह जिस प्रकार तेजी से आई थी, उसी प्रकार उल्टे पांव भाग गई। उस लड़की के उत्साह को देखर गुरुचरण बाबू मुस्कराए, परंतु ललिता उसी स्थान पर बैठी रही।
क्षण-भरं बाद ही अन्काली ने फिर आकर कहा- ‘अभी तक तुम बैठी हो, जीजी? उठो, तुरंत तैयार हो, सब लोग तुम्हारा रस्ता देख रहे हैं।
इस बार भी ललिता पूर्ववत् उसी स्थान पर बैठी रही। अन्नाकाली की प्रसन्नता को देखर गुरुचरण बाबू को हंसी आई और ललिता के सिर पर हाथ फेरते हुए वे बोले- ‘जाओ बेटी, जाओ! अब तनिक भी देरी न करो। वह सब लोग शायद खड़े-खड़ें तुम्हारा रास्ता देख रहे हैं।’
लाचारीवश उसे उठना ही पड़ा, परंतु जाते समय उसकी कृतज्ञ दृष्टि गिरीन्द्र पर पड़ रही थी। इस कृतज्ञता-भरी दृष्टि को गिरीन्द्र पूर्णरूप से समझ गया था।
थोड़ी देर में ही खूब बनाव-श्रृंगार के साथ, पान देने के बहाने फिर एक बाहर वह बाहर के कमरे में आई, परंतु उस समय गिरीन्द्र वहाँ से चला गया था, केवल गुरुचरण बाबू ताकिए के सहारे लेटे थे। उनकी बंध आँखों के कोनों पर आंसुओं की रेखा झलकती थी। ललिता तुरंत समझ गई कि यह खुशी के आँसू हैं! यह जानकर उनका ध्यान भंग करना ठीक न समझकर वह चुपचाप ज्यों-की-त्यों लौट गई।
कमरे से बाहर आकर ललिता सीधे शेखर के घर पहुंची। अपने मामा की दशा को सोचकर उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए थे। अन्नाकाली उस समय वहाँ न थी, वह पहले ही जाकर गाड़ी में बैठ गई थी। कमरे के ठीक सामने शेखर खड़े-खड़े ललिता की ही बाट जोह रहा था। सिर उठाकर देखने पर उसे ललिता की भरी आँखें दिखाई दीं। इधर कई दिनों से ललिता को न देखा था, इसीलिए शेखर और अधिक परेशान था। ललिता के आंसुओं को देखर शेखर का हृदय भी द्रवित हो आया, और सने ललिता से पूछा- ‘यह क्या? ललिता, क्या तुम रो रही हो? क्यों, क्या बात है?’
ललिता ने सिर हिलाकर अपना मुंह नीचा कर लिया।
कई दिनों से ललिता को न देखने के कारण, तरह-तरह की भावनाओं का जागरण शेखर के हृदय में हो रहा था। वह बड़ें स्नेह के साथ ललिता का मुंह ऊपर उठाकर बोला- ‘अरे, सचमुच ही तुम रो रही हो! आखिर बताओ तो क्या हुआ, ललिता?’
शेखर की इस सहानुभूति तथा प्रेम-भाव को देखर, वह अपने को संभाल न पाई। वह जहाँ खड़ी थी, शेखर की ओर पीठ करके वहीं पर बैठ गई, और मुंह ढांपकर जोर-जोर से रोने लगी। शेखर सहानुभूति का प्रदर्शन करता रहा।
(6)
नवीन ने भूल तथा सूध जोड़कर रूपये गुरुचरण बाबू से लिए। अब कुछ भी बाकी नहीं रहा गया। तमस्सुक वापस करते समय उन्होंने गुरुचरण बाबू से पूछा- ‘कहो गुरुचरण बाबू, यह इतने रूपए तुम्हें किसने दिए?’
नवीन राय अपने रुपए पाकर तनिक भी खुश नहीं हुए। रूपए वापस लेने की न तो इच्छा ही थी, और न ही वह गुरुचरण बाबू से ऐसी उम्मीद करते थे। उनके हृदय में तो एक दूसरी ही धारणा थी कि वह गुरुचरण बाबू का मकान गिराकर, उस पर अपना दूसरा महल खड़ा करेंगे। वह इच्छा पूरी न हुई। इसी कारण वह आवेश में आकर व्यंग्यपूर्वक कहने लगे- ‘वह क्यों न मनाही की होगी, भैया गुरुचरण! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, सारा दोष और लगाव तो मेरा है, जो मैंने तुमसे रूपयों का तकाजा किया। यही कलियुग की उल्टी माया है।’
दुःखपूर्ण शब्दों में गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘भैया! आप ऐसा क्यों कहते हैं? मैंने तो केवल आपका रूपया अदा किया है। आपकी दया का बोझ मेरे ऊपर सदैव रहेगा, मैं उससे कभी ऋणमुक्त न होऊंगा।’
नवीन बाबू यह सुनकर मुस्कराए। वे बड़े ही पक्के जो ठहरे! यदि वह ऐसे पक्के न होते, तो केवल गुड़ के ही व्यापार से इतनी अधिक धनराशि न इकटठा कर पाते। वे बोले- ‘भैया! तुम कुछ भी क्यों न कहो, परंतु ऐसे विचार होने पर, वास्तव में पूरा रूपया इस प्रकार न अदा करते। मैंने तो केवल रूपए मांगे थे, वही भी तुम्हारी मामी की बीमारी के लिए। अच्छा खैर, यह तो बताओ कि कितने रूपए सूद पर मकान को रेहन रखा है?’
‘न तो घर ही रेहन किया और न ब्याज ही कुछ तय हुआ है।’
नवीन राय को तनिक विश्वास न हुआ। उन्होंने पूछा- ‘अरे! क्या इतने रूपए बिना लिखा-पढ़ी?’
‘हां दादा, ऐसा ही है। बहुत ही सज्जन लड़का है! ऐसा जान पड़ता है कि दया मूर्ति है।’
‘लड़का? कौन सा लड़का?’
गुरुचरण बाबू ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। जो कुछ कह डाला, वह नहीं कहना चाहिए था।
गुरुचरण बाबू को चुप देखकर नवीनराय समझ गए कि वह कुछ भी बताना ठीक नहीं समझते। इस कारण मुस्कराते हुए बोले, ‘अच्छा, बताना मना है तो न बताओ, जाने दो! फिर भी सुनो, मैंने दुनिया के सभी रंग देखे हैं। कोई भी बिना मतलब रूपए निकालकर नहीं देता। कहीं ऐसा न हो कि आगे किसी परेशानी का शिकार बन जाओ। इसीलिए तुमको अभी से चेतावनी दे रहा हूँ।’
गुरुचरण बाबू कूछ उत्तर न देकर तमस्सुक हाथ में लेकर चल दिए। चलते समय नवीनराय को उन्होंने नम्रतापूर्वक नमस्कार किया।
अपने स्वास्थ्य सुधार हेतु भुवनेश्वरी प्रायः पश्चिम के किसी शहर को चली जाया करती थीं। जलवायु बदल जाने से उनका अजीर्ण-रोग बहुत कुछ दब जाता था। उसी रोग के बहाने नवीनराय गुरुचरण बाबू से कड़ा तकाजा कर बैठे थे। अब भुवनेश्वरी की भी तैयारी पश्चिम जाने के लिए होने लगी।
अन्नाकाली शेखर के कमरे में पंहुची और बोली- ‘शेखर भैया! आप लोग कल ही बाहर जा रहे हैं?’ इस समय शेखऱ अपना सामान संभालकर रखने में लगा हुआ था। उसने ऊपर देखकर अन्नाकाली से कहा- ‘मेरी प्यारी बहिन! जाकर दीदी को तो बुला ला! उसे भी जाने के लिए जो कुछ ठीक करना हो, कर जाए! अभी तो मुझे सैकड़ो काम करने बाकी हैं। समय भी अधिक नहीं है!’ शेखर का ख्याल था कि हर साल की तरह ललिता भी जाएगी।
गरदन हिलाकर अन्नाकाली ने कहा- ‘इस बार दीदी साथ नहीं जाएंगी?’
‘क्यों नहीं जाएंगी?’
‘वाह! आपको यह भी पता नहीं? इसी माध-फागुन में शादी करने के लिए पिताजी उसके वर की तलाश कर रहे हैं।’
यह सुनते ही शेखऱ दुःखी हो गया। उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, भौंचक्का-सा देखता रहा।
जो कुछ अन्नाकाली ने घर से सुना था, वह सब विवरण के साथ शेखर को सुनाया। ‘उसने कहा कि शादी में जो भी खर्च होगा गिरीन्द्र बाबू देंगे। लड़का भी हर प्रकार से योग्य होना चाहिए। योग्य वर की खोज में, पिताजी आज भी दफ्तर नहीं जाएंगे। वह गिरीन्द्र बाबू के साथ वर देखने जा रहे हैं।’
इन सभी बातों को शेखऱ ध्यानपूर्वक सुनता रहा। उसके हृदय में तरह-तरह की भावनांए उठने लगीं। उसने देखा है कि इधर ललिता उसके पास बहुत ही कम आती है।
अन्नाकाली फिर बोली- ‘भैया, गिरीन्द्र बाबू बहुत ही भले आदमी हैं। मझली दीदी के ब्याह में हमारा मकान ताऊजी ने रेहन रखा था।’ इस बात को सोचकर बाबूजी कहते थे कि दो माह बाद घर हाथ से निकल जाएगा। और सड़क की ठोंकरो का सामना करना होगा। इसी बात पर दया-सागर गिरीन्द्र बाबू ने बाबूजी को कर्ज का सारा रूपया दे दिया। छोटी दीदी कल कहती थी कि अब हम लोगों को घर छोड़ने का भय नहीं रहा। सच है न, शेखऱ दादा?
इन बातों को अन्नाकाली से सुनकर शेखर अवाक् हो गया और कुछ भी उत्तर न दे सका।
शेखर को चुप देखकर अन्नाकाली ने पूछा- ‘क्या सोच रहे हो, दादा?’
शेखर यह सुनकर चौंक पड़ा औऱ बोला- ‘जा, दीदी को जल्दी बुला तो ला! यह बता देना कि मैंने बुलाया है , जरूरी काम है। दौड़ती हुई जा!’
तुरंत दौड़ती हुई अन्नाकाली ललिता को बुलाने गई। उसके जाने पर शेखर भावनाओं के सागर में उथल-पुथल मचाने लगा। सामने संदूक खोले वह ज्यों-का-त्यों बैठा रहा। उसकी समझ में नहीं आया कि क्या साथ ले जाए और क्या नहीं! उसे नेत्रो में चकाचौंध प्रतीत होने लगा।
शेखर के बुलावे को सुनकर ललिता तुरंत ऊपर आई, परंतु कमरे में जाने के पूर्व उसने शेखर को बड़े गहरे विचारों में निमग्न-सा देखा। शेखर जमीन की और ताक रहा था। सामने संदूक खुला पड़ा था, चेहरे पर चिंता की रेखा झलक रही थी। शेखऱ की ऐसी दशा तथा उसकी ऐसी मुखाकृति ललिता ने पहले कभी न देखी थी। वह आश्चर्य में पड़ गई। साथ-ही-साथ उसे भय भी हुआ। डरते हुए, धीरे-धीरे वह शेखऱ के पास आई। उसको देखते हुए शेखर ने कहा- ‘आओ ललिता, बैठो!’ शेखर को मानो अब स्वप्न से कुछ छुटकारा मिला।
बड़े ही मंद स्वर में ललिता ने पूछा- ‘मुझे आपने बुलाया था?’
‘हां?’- फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कहा- ‘कल सवेरे की गाड़ी से, माँ के साथ मैं इलाहाबाद जा रहा हूँ। हो सकता है कि इस बार लौटने में देर हो जाए। यह चाभी लो, तुम्हारी आवश्यकता के रूपए दराज में है।’
प्रतिवर्ष ललिता बड़े उत्साह से भुवनेश्वरी के साथ जाया करती थी। उसको स्मरण हुआ कि कितने उत्साह के साथ वह सभी सामान संभालकर इसी बक्स में रखा करती थी। आज उसे खुले हुए संदूक को देखकर दुःख हो आया।
शेखर खांसकर गले को साफ करते हुए और उसकी और देखते हुए बोला- ‘ललिता, देखो-बहुत होशियारी से रहना! फिर भी यदि तुम्हें कोई जरूरत लगे, तो भैया से मेरा पता लेकर, बिना संकोच मुझे लिखना।’
दोनों ही चुप रह गए। ललिता मन-ही-मन अनुमान करने लगी कि शायद शेखर को मालूम हो गया है कि इस बार वह उनके साथ न जाएगी। साथ ही मन-ही-मन यह भी साचो कि शायद उन्हों मेरे न जाने का कारण ज्ञात हो गया होगा! इस बात को सोचकर वह मानो शर्म से जमीन में धंस गई।
एकाएक शेखर ने कहा- ‘ललिता, अब तुम जाओ! तुमको मालूम है कि मुझे बहुत से काम करने हैं। काफी समय हो आया है, ओफिस भी जाना है।’
ललिता उसी संदूक के सामने आकर बैठ गई और कहने लगी- ‘जाओ, ओफिस जाने की तैयारी में लगो, मैं सब सामान ठीक से रख देती हूँ।’
‘अच्छा इससे भली और क्या बात हो सकती है।’ ललिता को चाभी का गुच्छा देकर शेखर बाहर जाने लगा। जाते समय कुछ ख्याल हो आया, अतः दरवाजे के पास खड़े होकर उसने कहा- ‘मुझे क्या-क्या आवश्यकता है, यह तुम्हें मालूम है न?’
ललिता संदूक के अंदर की वस्तुएं एक-एक करके देखने लगी। शेखर की बात का कोई भी उत्तर नहीं दिया।
शेखर ने नीचे जाकर, माँ से पूछकर मालूम किया कि अन्नाकाली ने जो कुछ कहा, वह सब सत्य है। गुरुचरण बाबू ने पूरा कर्जा अदा कर दिया। ललिता के लिए योग्य वर की खोज है-यह भी सत्य है। तत्पश्चात् कुछ और पूछकर वह स्नान करने के लिए चला गया।
लगभग दो घंटे के पश्चात् नहा-खाकर शेखर अपने कमरे में कपड़े पहनने के लिए आया। कमरे में आते ही उसने जो देखा उसे देखकर वह एकाएक आश्चर्य में पड़ गया। इन दो घंटो में ललिता ने कुछ कार्य नहीं किया था। वह बक्स के पास, मन मारे, माथा टेके हुए खामोश बैठी थी। शेखर के आने की आहट से उसने झट सिर उठाया और फिर तुरंत गरदन नीची कर ली। रोते-रोते उसकी आँखें फूल आई थीं। शेखर की नजर उसकी आँखों पर आवश्यक पड़ी, परंतु उसने न देखने का बहाना किया। वह चुपचाप अपने दफ्तर के कपड़े पहनने लगा। कपड़े पहनते हे, सहज भाव से उसने कहा- ‘अभी रहने दो ललिता। स समय तुमसे यह सब न हो सकेगा, दोपहर में आकर रख जाना।’ यह कहकर शेखर ओफिस चला गया। उसने ललिता के मनोभाव को पूर्ण रूप से समझ लिया था, फिर भी हर बात को बगैर सोचे-समझे कह डालना वह उचित नहीं समझता था, और न तो उसकी हिम्मत ही हुई।
वह उसी दिन मामा को चाय देने के समय कमरे में आई, तो वहाँ शेखर को भी उपस्थित देखकर दंग रह गई। वह यात्रा पर जाने के पहले गुरुचरण बाबू से मिलने के लिए आया था।
ललिता ने चाय तैयार करके, गिरीन्द्र और मामा के सामने दो कपों में लाकर रख दी। गिरीन्द्र ने पूछा- ‘क्यों ललिता, शेखर बाबू को चाय न दोगी?’
मीठी स्वर में ललिता ने कहा- ‘ललिता ने एक दिन ऐसा कहा भी था कि शेखर दादा चाय नहीं पीते और अन्य को पीने भी नहीं देना चाहते। तत्काल गिरीन्द्र को वही बात याद आ गई थी।
हाथ में चाय का कप लेकर गुरुचरण बाबू ललिता के लिए ढूंढे गए वर की वात कहने लगे- ‘लड़का अच्छा है, बी.ए. में पढ़ रहा है।’ यह सब कह चुकने के पश्चात् फिर बोले- ‘फिर भी तो वह लड़का गिरीन्द्र को न भाया। इतना जरूर है कि लड़का विशेष साफ और सुन्दरी नहीं है, फिर भी शादी के बाद कौन रूप-रंग और सुंदरता देखता है, और यह रंग-रूप काम ही क्या आता है? मर्द की अच्छाई तो उसके गुणों में होती है।’
गुरुचरण बाबू की एकमात्र इच्छा यह थी कि किसी तरह ललिता का पाणिग्रहण हो और उनके सिर से यह बोझ उतरे।
आज ही शेखर का परिचय गिरीन्द्र को, यहीं पर बैठे हुए हुआ था। गिरीन्द्र को देखकर शेखर को कुछ हंसी आई और उसने कहा- ‘आखिर गिरीन्द्र बाबू को क्यों लड़का अच्छा नहीं लगा? लड़का अभी पढ़ता है, उम्र भी ठीक है, फिर तो कोई कमी है ही नहीं। सुपात्र के यही सब गुण हैं।’
गिरीन्द्र को लड़का पसंद क्यों नहीं है- इस बात शेखर समझ चुका था। उसे भविष्यमें भी कोई लड़का भला न मालूम होगा। गिरीन्द्र ने इस बात का कुछ उत्तर नहीं दिया, उसका मुंह आरक्त हो उठा। शेखर ने उस आरक्त मुखाकृति को भी देख लिया। वह उठकर खड़ा हो गया बोला- ‘काकाजी, कल मैं माँ को लेकर प्रयाग जा रहा हूँ, परंतु याद रखिएगा, ठीक समय पर शुभ कार्य की खबर अवश्य दीजिएगा।’
गुरुचरण बाबू ने उत्तर दिया- ‘क्या कहते हो, बेटा! तुम्ही तो मेरे सब कुछ हो, मेरा है की कौन। फिर ललिता की माँ की अनुपस्थिति में कोई काम भी तो नहीं हो सकता। क्यों बेटी?’ इतना कहकर गुरुचरण बाबू मुस्कुराए और ललिता की और देखा।
मगर ललिता को वहाँ न देखकर बोले- ‘आखिर ललिता यहाँ से कब चली गई?’
शेखर ने कहा- ‘ज्यों ही यह बात छिड़ी वह चली क्यों न जाए?’
अत्यंत गंभीर भाव से गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘वह चली क्यों न जाए? आखिर वह भी सयानी हुई, समझ भी उसकी कम नहीं है!’ उन्होंने एक गहरी सांस ली और कहने लगे- ‘मेरी पुत्री ललिता सरस्वती और लक्ष्मी का सम्मिलित स्वरूप है। ऐसी लड़की होना ही कठिन है। ऐसी औलाद बड़े पूजा-पाठ करने के बाद ही मिलती है, शेखर भैया!’
यह बात उनके मुख से निकलते ही, उनके दुबले मुख पर एक प्रकार की चमक दौड़ गई। उनकी ऐसी अवस्था देखकर गिरीन्द्र तथा शेखर दोनों में श्रद्धा का बहाव उमड़ आया।
(7)
ललिता अपने विषय की बात होते देखकर वहाँ से चली आई, और सीधे शेखर के कमरे में पहुंची। उसने शेखर के बक्स को खींचकर रोशनी में किया, और सभी कपड़े तथा आवश्यक सामान उसमें रखना शुरु किया। उसी समय शेखर भी वहाँ आ गया। शेखर के आते ही ललिता की दृष्टि उस पर पड़ी और वह एकाएक चक्कर में पड़ गई, कुछ बोल न सकी।
जिस प्रकार किसी मुकदमे का हारा मुवक्किल एकदम निर्जीव-सा हो जाता है, बोल नहीं पाता, उसकी सूरत बिगड़ जाती है, उसको पहचान सकना भी कठिन हो जाता है-ठीक वैसे ही हालत उस समय शेखर की थी। अभी एक घंटे में ही शेखर की मुखाकृति ऐसी बदल गई थी कि ललिता उसे पहचान नहीं पा रही थी। न जाने कैसी उदासी और परेशानी शेखर के मुख पर छाई थी। मालूम होता था कि उसका सर्वस्व लुट चुका है। उसने कुछ भारी तथा सूखे स्वर में पूछा- ‘ललिता, क्या कर रही हो?’
शेखर की दशा देखकर ललिता हैरान थी। वह उसके पास आई और पकड़कर बोली- ‘क्या हुआ भैया? इतना परेशान क्यों हो?’
ललिता को दिखाने के लिए शेखर थोड़ा मुस्करा दिया और बात बनाते हुए बोला- ‘कहाँ? हुआ तो कुछ भी नहीं।’ ललिता के स्नेह-भरे हाथों के छूने से उसमें कुछ जान आ रही थी। पास ही पड़ी हुई कुर्सी पर बैठते हुए शेखर ने कहा- ‘क्या कर रही हो, ललिता?’
ललिता ने उत्तर दिया- ‘आपका ओवरकोट रखने को रह गया था, उसे ही बक्स में रखने आई हूँ। बड़े ही चाव से शेखर उसकी बांते सुन रहा था। ललिता कहती गई- ‘पिछले साल गाड़ी में तुम्हें सर्दी से बड़ा ही कष्ट हुआ था। कोट तो तुम्हारे पास थे, किंतु बड़ा और मोटा कोट कोई भी नहीं था। इसी कारण वहाँ से लौटने पर, यह ओवरकोट तुम्हारे नाप का बनवा लिया था।’ यह कहकर ललिता ने स कोट को यथास्थान रख दिया और शेखर से कहा- ‘भैया, सर्दी के समय अवश्य पहन लेना।’
‘अच्छा- कहकर शेखर थोड़े समय तक ललिता की ओर एकटक देखता रहा-फिर उसने एकाएक कहा- ‘नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता।’
ललिता ने कहा- ‘क्या नहीं हो सकता, भैया? क्या इस कोट को नहीं पहनोगे?’
शेखर ने बात बताते हुए कहा- ‘ऐसी बात नहीं, दूसरी बात है।’
नहाकर उसने ललिता से पूछा- ‘क्या माँ का भी सामान ठीक हो गया है?’
ललिता- ‘हां, मैनें ही तो दोपहर को बांधकर ठीक कर दिया है।’ यह कहते हुए, सब सामान देखकर ललिता ने बक्स बंद कर दिया।
थोड़ी देर पश्चात शेखर ने ललिता से पूछा- ‘अच्छा, अब मेरा अगले वर्ष से कैसे क्या होगा?’
‘क्यों?’
‘ललिता, इस क्यों का मुझे पूर्ण अनुभव हो रहा है!’- वास्तव में यह बात शेखर के मुंह से निकल तो गई, किंतु उस बात को बदलते हुए, हंसी के साथ उसने कहना शुरू किया- ‘अच्छा ललिता, दूसरे घर जाने से पहले यह बतातो जाना कि कौन-सी चीज कहाँ पर है। क्या-क्या है और क्या नहीं है, कौन वस्तु कहाँ आवश्यक है-इस सबकी जानकारी मुझे अवश्य करा देना, ताकि कीसी प्रकार की दिक्कत न उठानी पड़े और समय पर सभी चीजें मिल भी सकें।
थोड़ा-सा चिढ़कर ललिता ने कहा- ‘अरे जाओ।’
शेखर को हंसी आ गई। वह बोला- ‘केवल “जाओ” कहने से तो काम न बन सकेगा। लिलात यह सत्य है। आखिर तुम्हीं सोचो कि मेरा काम आगे कैसे चलेगा? मेरी इच्छाएं तुम्हें मालूम हैं कि बड़ी हैं, परंतु उसकी पूर्ति की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। फिर सब काम नौकरों द्वारा नहीं कराए जा सकते। मुझे अब ऐसा लग रहा है कि तुम्हारे मामा की तरह सादा जीवन बिताना पड़ेगा। कुर्ता और धोती पर ही बसर होगी। खैर, कुछ भी हो, परमात्मा की जैसी इच्छा हो।’
ललिता शरमाकर चाभियां फेंककर चली गई।
उसको जाते देखकर शेखर ने जोर से आवाज दी- ‘ललिता, सवेरे अवश्य आ जाना।’
परंतु ललिता ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। वह तेजी से दूसरी मंजिल पर चली गई। वहाँ उसने अन्नाकाली को चांदनी के प्रकाश में माला बनाते हुए देखा! उसके निकट आकर ललिता ने कहा-अन्नाकाली, ओस में बैठकर क्या बना रही है?
अन्नाकाली सिर झुकाए हुए बोली- ‘माला बना रही हूँ। आज रात मेरी लड़की का विवाह है न।’
‘मुझे तो तुमने इसके बारे में बताया भी नहीं।’
अन्नाकाली-पहले से कोई तय न था, दीदी। अभी तो पिताजी ने पत्र देखकर बताया है कि आज के अलावा इस महीने में कोई लग्न नहीं है। कन्या बड़ी हो गई है, यदि ब्याह न हुआ, तो सब लोग चिढ़ाएंगे। आज ही शुभ मुहूर्त मं ब्याह हो जाएगा, दीदी! हां, दो रूपए दो, बरातियों के लिए मिठाई मंगवा लो।
ललिता ने हंसी में कहा- ‘वाह, केवल पैसौं की आवश्यकता पड़ने पर छोटी दीदी की याद आती है। जा, मेरे तकिए के नीचे से ले आ। किंतु यह तो बता अन्ना, कहीं गेंदे के फूलों से ब्याह हुआ करता है?’
गंभीरता के साथ अन्नाकाली ने उत्तर दिया- ‘दूसरे किसी फूल के न मिलने पर, गेंदे के फूलों की वरमाला बना लेने क्या हर्ज है? मैंने तो इसी तरह तमाम लड़कियो का ब्याह गेंदे के फूलों से किया है, दीदी। मुझे यह सब बातें ज्ञात हैं।’ यह कहकर वह मिठाई लेने चली गई।
ललिता वहीं पर बैठ कर माला गूंथने लगी।
थोड़ी देर पश्चात् अन्नाकाली ने वापस आकर कहा- ‘सभी को तो न्योता दे चुकी हूँ, केवल शेखर भैया को देना बाकी है। उन्हें भी न्योता दे आऊं, नहीं तो बुरा न मान जाए।’ यह कहती हुई वह तुरंत शेखर के कमरे की और चली गई।
अन्नाकाली पूरी दादी है। सभी काम नियमनपूर्वक करती है। वह उम्र में तो छोटी है, किंतु बुद्धि उसकी बड़ी तीव्र है। शेखर को बुलावा देकर वह नीचे आई और ललिता से बोली- ‘शेखऱ भैया ने एक हार मांगा है। जाओ, जल्दी से दे आओ। मैं यहाँ का सारा काम पूरा करती हूँ। अब मुहूर्त का समय आ गया है-देर करने की आवश्यकता नहीं है।’
ललिता ने गरदन हिलाकर कहा- ‘अन्नाकाली! मुझसे ऐसा न हो सकेगा, तू ही जाकर दे आ।’
‘बहुत अच्छा, मैं जाकर दे आती हूँ। वही बड़ी माला उठाकर लाओ।’
ललिता ने माला उठाकर अन्नाकाली को देते-देते न मालूम क्या सोचा और बोली- ‘अच्छा, मैं ही देर आती हूँ।’
अन्नाकाली ने बुडढों की भांति गंभीर स्वर में कहा- ‘ऐसा ही करो, जीजी! मुझे तो अबी सैकड़ों काम करने बाकी हैं, दम लेने तक का मौका नहीं मिलता।’
अन्नाकाली के कहने के ढ़ंग और बुडढों जैसी बातें सुनकर ललिता की हंसी न रुक सकी। वह माला लेकर, हंसती हुई चली गई। शेखर के घर पहुंचकर ललिता ने झरोखे से देखा कि शेखर कोई पत्र लिखने में एकाग्रचित व्यस्त है। धीरे से उसने दरवाजा खोला, अंदर पहुंची और चुपके से शेखर के पीछे जा खड़ी हुई। उसके वहाँ आने का आभास शेखर को नहीं हुआ। क्षणभर चुप रहने के पश्चात ललिता ने शेखर को चकित कर देने के लिए धीरे से वही माला पहना दी और तुरंत कुर्सी के पीछे हटकर बैठ गई।
शेखर ने चौंककर बोला- ‘यह क्यो अन्ना?’ लेकिन गरदन घुमाते ही उसकी दृष्टि ललिता पर पड़ी, तो आश्चर्यचकित हो वह गंभीर भाव से बोला- ‘ललिता, यह तुमने क्या कर दिया?’
शेखर के शब्दों से शंकित ललिता ने उठकर कहा- ‘मैंने क्या कर दिया?’
शेखर-‘मुझसे क्या पूछ रही हो? तुम्हें नहीं पता, तो अन्नाकाली से जाकर पूछो कि आज रात को माला पहनाने से क्या होता है?’
ललिता अब समझी कि उसने क्या कर डाला। उसके मुख पर लज्जा छा गई। वह बड़े ही संकोच से मुंह बनाते हुए बोली- ‘नहीं, ऐसा नहीं! मैं ऐसा कभी नहीं चाहती, मैंने तो माला… ।’ पूरी बात कहे बिना ही वह नवविवाहिता की भांति लजाकर कमरे से बाहर चली गई।
शेखर ने उसे जाते देखकर जोर से पुकारा- ‘ललिता! जरा मेरी एक बात सुनती जाओ, एक बड़ा ही आवश्यक कार्य है।’
शेखर की पुकार सुनकर भी ललिता ने अनसुनी कर दी वह सीधे अपने कमरे में आई और तकिए पर मुंह डालकर पड़ी रही।
बचपन से लेकर इस युवावस्था के पाँच-छः वर्षो तक का समय उसने शेखर के साथ की काटा था, परंतु एसी कोई भी बात शेखर के मुंह से सुनी न थी। शेखर का स्वभाव तथा चरित्र वह भली प्रकार जानती थी। वह गंभीर प्रकृति वाला था। एक तो शेखर उससे परिहास करता ही न था, और यदि कर भी बैठता, तो ललिता परवाह न करती थी। उसने कभी इस प्रकार की कल्पना भी न की थी। उस माला के आशय को सोच-सोचकर उसे बड़ी शर्म आ रही थी कि वह अपने मुंह को किस बिल में छिपा दे।
वह पड़ी-पड़ी यह भी विचारती थि कि ‘उन्होंने आवश्यक कार्य कहकर बुलाया है।’ अभी वह जाने या न जाने की बात विचार ही रही थी कि शेखर की नौकरानी ने आकर कहा- ‘ललिता दीदी, कहाँ हो? तुमको छोटे भैया बुला रहे हैं।’
कमरे से निकलकर ललिता ने धीरे से कहा- ‘चलो, आ रही हूँ!’ ऊपर पहुंचकर दरवाजे से उसने देखा-अभी पत्र नहीं हुआ। उसी को पूरा करने में लगा हुआ है। कुछ समय तक वह चुपचाप खड़ी रही, फिर पूछा- ‘क्यों बुलाया है?’
शेखर ने पत्र लिखते-लिखते कहा- ‘आखिर तुमने आज क्या कर डाला? आओ बैठो।’
ललिता ने रुठकर कहा- ‘जाने दो फिर वही बात?’
‘आखिर उसमें मेरा क्या कसूर है, ललिता? तुम्हीं ने तो यह सब किया।’
ललिता- ‘मैंने कुछ नहीं किया, मेरी माला वापस कर दो।’
शेखर- ‘इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है, ललिता। मेरे पास आओ, मैं तुम्हारी माला वापस किए देता हूँ। तुमने जो अधूरा काम किया है, उसको पूरा कर दूं।’
दरवाजे के पास खड़ी हुई ललिता चुपचाप न जाने क्या सोचती रही। फिर बोली- ‘मैं सत्य कहती हूँ- यदि ऐसा हंसी-मजाक मुझसे करोगे, तो कभी न आऊंगी। मेरी माला लौटा दो।’
शेखर ने गले में पड़ी माला को उतारकर कहा- ‘आकर ले जाओ ना’
‘उसे मेरे पास फेंक दो, मैं वहाँ न आऊंगी।’
‘यदि पास न आओगी तो न दूंगा।’
‘न दो।’ यह कहकर ललिता चल पड़ी।
उसे जाते देखकर शेखर चिल्लाकर बोला- ‘यह अधूरा काम छोड़कर क्यों जा रही हो?’
वह जाते-जाते नाराज होकर कहती गई- ‘अधूरा है, तो अधूरा ही सही।’
ललिता वहाँ से चली तो आई, परंतु नीचे नहीं गई। वह छज्जे के एक कोने पर खड़ी होकर, आकाश की ओर देखती हुई न जाने क्या सोचती रही। ऊपर चांद मुस्कुरा रहा था और उसकी सुनहरी किरणें सारी दुनिया को रंगमय बना रही थीं। उन शीतल किरणों के रंग में ललिता भी विभोर थी। खड़े-खड़े उसके हृदय में न जाने क्या-क्या कल्पनाएं उठ रही थीं। अपने ऊपर क्रोध भी आ रहा था और शर्म भी। वहीं खड़े-खड़े एक बार शेखर के कमरे की तरफ देखा। पता नहीं क्यो, उसके चेहरे पर अभिमान की रेखा झलक आई और नेत्र सजल हो गए। वह अबोध बालिका न थी कि उसे इन सब बातों का पता न था, फिर इस प्रकार हंसी करने का क्या मतलब हो सकता था। उसकी दशा कितनी गिरी हुई है, वह एक अनाथ बालिका है-उसके मामा का ही एकमात्र सहारा है। फिर भी पराए लोग निरुपाय समझकर आदर करते हैं। शेखर का व्यवहार भी इसी प्रकार का है। वह मुझे निराश्रित समझकर ही स्नेह और आश्रय देता है, तथा शेखर की माँ भी अपार स्नेह करती हैं। दुनिया में सका है ही कौन? किसी पर ललिता का अधिकार नहीं है, इसीलिए तो गिरीन्द्र ने उसके उद्धार का पूरा भार उठाया है।
अपने नेत्र बंद किए हुए ललिता मन-ही-मन सोचने लगी। उसके मामा की अपेक्षा शेखर की दशा बहुत अच्छी है। उसके मामा का स्थान उसके सामने कुछ भी नहीं है। वह उसी मामा के आश्रय में है, उनके ही गले का जंजाल है। शेखर की शादी की बातचीत बराबरी में धनवान घर से चल रही है, चाहे वह अभी हो या दो-चार दिन बाद, पर तय करीब-करीब वहीं है। इस विवाह से नवीनराय को बहुत बड़ी सम्पदा मिलेगी-उसने ऐसा शेखर की माँ से सुना है।
शेखर भैया फिर क्यों स प्रकार उसकी हंसी उड़ा रहे है और तिरस्कार कर रहै हैं? यह सभी बातें ललिता सूने आकाश की और देखकर सोच रही थी। क्षणभर में ही उसने घूमकर देखा कि शेखर उसके पीछे खड़ा हंस रहा है, और वही माला उसने एकदम-से उसके गले में पहना दी। यह देखकर वह रोने लगी और बोली- ‘ऐसा तुमने क्यों किया?’
‘तुमने भी ऐसा क्यों किया था ललिता?’
‘मैंने तो कुछ भी नहीं किया’- यह कहकर वह माला तोड़ने ही जा रही थी कि उसकी दृष्टि शेखर की दृष्टि से जा मिली और रुक गई। वह माला को फिर न तोड़ सकी, परंतु उसने रोते हुए कहा- ‘मैं परेशान, अभागिन तथा असहाय हूँ, इसलिए क्या मेरा उपहास कर रहे हो, शेखर भैया?’
शेखर अभी तक खड़ा-खड़ा हंस रहा था। ललिता की यह बात सुनकर वह सन्न रह गया। उसने कहा- ‘मैंने तुम्हारा उपहास किया है या तुमने मेरा किया है।’
ललिता ने अपने भीगे नेत्रों को पोंछकर कहा- ‘मैंने तुम्हारा उपहास कब किया?’
शेखर थोड़ी देर रुककर सजग हो गया और बोला- ‘थोड़ा-सा सोचने पर समज जाओगी। आजकल अपनी मनमानी कर रही हो, इसीलिए यात्रा पर जाने के लिए मना कर दिया है।’ शेखर यह कहकर चुप हो गया।
ललिता गूंगे की भांति खड़ी सुनती रही। चंद्र किरणों की रुपहली आभा में दोनों खड़े थे। लेकिन नीचे कमरे में अन्नाकाली अपनी गुड़िया की शादी कर रही थी। शंखध्वनि गूंज रही थी और खामोशी भंग हो रही थी।
थोड़ी देर के बाद शेखर ने कहा- ‘अधिक ठण्ड पड़ने लगी है, जाओ, नीचे चली जाओ।’
‘जाती हूँ’- कहकर उसने शेखर के पैर छुए और प्रणाम करके बोली- ‘मुझे यह तो बताते जाओ कि मैं अब क्या करूंगी?’
शेखर यह सुनकर हंस पड़ा। एक बार तो उसे भय-सा प्रतीत हुआ, पर उसने हाथ बढ़ाकर ललिता को पकड़कर हृदय से लगा लिया और उसके ओठों को अपने ओंठों से स्पर्श करते हुए कहा- ‘अब मुझे कुछ न बताना पड़ेगा, तुम स्वयं समझ जाओगी, ललिता!’
शेखर के इस प्रकार के स्नेह को देखकर ललिता को रोमांच हो आया। उसने दूर जाकर कहा- ‘तो क्या तुमने गले में माला पहना देने के कारण ही ऐसा किया।’
मुस्कुराते हुए शेखर ने कहा- ‘नहीं ललिता, ऐसी बात नहीं। मैं तो स्वयं काफी दिनों से ऐसा करने का विचार कर रहा था, परंतु किसी तरह का निश्चय न कर पाता था। आज अब यह अंतिम निश्चय हो ही गया। मुझे आज अनुभव हो रहा है कि तुम्हें त्यागकर मैं कहीं रह नहीं सकता।’
ललिता- ‘परंतु तुम्हारे पिताजी यह सुनकर अवश्य क्रोध करेंगे और माताजी को भी महान् कष्ट होगा। जो कुछ भी तुमने सोचा है, वह न हो पाएगा।’
शेखर ने कहा- ‘हां, पिताजी यह सुनकर अवश्य आग-बबूला हो जाएंगे, परंतु माताजी अवश्य हृदय से प्रसन्न होंगी। खैर अब तो कुछ होना ही नहीं हैं, जो होना था, हो गया। अब इसको खत्म कर ही कौन सकता है। जाओ, अब नीचे जाओ, माताजी को प्रणाम करो!’
ललिता वहाँ से नीचे चली गई, पर जाते समय भी वह घूम-घूमकर अपने प्रियतम को देखती रही।
8
लगभग तीन माह बाद, गुरुचरण बाबू मलिन मुख नवीन बाबू के यहाँ आकर फर्श पर बैठने ही वाले थे कि नवीन बाबू ने बड़े जोर से डांटकर कहा- ‘न न,न, यहाँ पर नहीं, उघर उस चौकी पर जाकर बैठो। मैं इस कुसमय में नहीं नहा धो सकता-तुमने जाति बदली है-यह सत्य है न?’
क्षुब्ध होकर गुरुचरण बाबू एक दूर की चौकी पर जाकर बैठे। कुछ देर वे मस्तक झुकाए बैठे रहे। अभी चार दिन पहले की बात है, उन्होंने विधिवत् ब्रह्मसमाज को ग्रहण कर लिया है। अब वह ब्रह्मसमाजी हो गए हैं- यह खबर आज ही नवीन राय को मिली है। अब उन्हें बंगाली समाज मैं बैठने का कोई अधिकार नहीं है। सामने गुरुचरण बाबू को बैठे हुए देखकर नवीन राय की आँखों से गरम लपटें निकलने लगीं, परंतु गुरुचरण बाबू एक अपराधी की तरह मौन बैठे रहे। किसी सलाह-सूत के बिना ही वे ब्रह्मसमाजी हो गण थे, परंतु उसी समय से घरेलू परेशानियां बढ़ं गई तथा रोना-चिल्लाना मचा रहता था। घर का कोना-कोना अशांत था। इस अशांति के कारण वह बड़े ही दुःखी थे।
नवीनराय ने फिर उद्दण्ड भाव से पूछा- ‘कहो यह सत्य है न कि तुम ब्रह्मसमाजी हो गए हो?’
‘यह घृणित कार्य तुमने किया क्यों? तुम तो केवल साठ रूपए तनख्वाह पाते हो, फिर क्यों?’ – गुस्से के मारे नवीनराय की जबान से बोल न निकला।
रोते हुए बड़े नम्रं स्वर में गुरुचरण बाबू ने जवाब दिया- ‘दादा, क्या कहें, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। दुःख में कुछ न दिखाई दिया। मैं यह न सोच सका कि गले में फांसी लगा लूं या फिर ब्रह्मसमाज में मिल जाऊं। अंत में ब्रह्मसमाजी हो जाना ही ठीक समझ में आया। इसीलिए मैंने यह ब्रह्मसमाज स्वीकार कर लिया।’
नवीनराय ने बड़े जोर से चिल्लाकर कहा- ‘बहुत अच्छा किया। अपने गले में फांसी न लगाकर सारे धर्म ओर समाज को फांसी लगा दी। वाह रे वाह! अच्छा, अब तुम यहाँ से चले जाओ और यह काला मुंह कभी भी यहाँ न दिखाना। जो तुम्हारे सलाहकार हैं, उन्हीं के पास जाकर उठो बैठो। यह सब सुनकर गुरुचरण बाबू वहाँ से चले गए, परंतु नवीनराय मारे क्रोध के कुछ भी नहीं सोच सके कि क्या करें और क्या न करें। गुरुचरण बाबू के भी अब वहाँ आने की कोई सम्भावना न थी।
गुरुचरण बाबू पर नाराज होने, झुंझलाने तथा बकने के सिवा नवीनराय कर ही क्या सकते थे। झट उन्होंने राज को बुलाया और घर में आने-जाने वाले ऊपर के रास्ते बंद करा दिये। उस रास्ते को बंद करके उन्होंने अपने क्रोध की शांति की।
बहुत दूर परदेश में बैठी हुई भुवनेश्वरी को यह हाल मालूम हुआ तो वह फूट-फूटकर रोने लगीं- ‘शेखर, भला ऐसा करने को किसने उन्हों समझाया?’
अनुमान से शेखर समझ लिया कि यह राय किसने दी है, परंतु वह बात न कहकर उसने कहा- ‘माँ, हो सकता था कि तुम लोग स्वयं ही उन्हें थोड़े दिन बाद अलग कर देते। समाज में उनकी छाया ही न पड़ने देते। कई कन्याओं की शादी कैसे कर सकते वह, समय पर? आखिर इसका तो कोई रास्ता मेरी समझ नहीं आता?’
गर्दन हिलाते हुए भुवनेश्वरी ने कहा- ‘बेटा, कुछ भी काम रुका न रह जाता। ऐसी हालात में गुरुचरण बाबू का पहले ही से ही धर्म छोड़ बैठना नादानी है या अक्लमंदी? यदि घबड़ाकर लोग अपने धर्म को छोड़ने पर तुल जाएं, तो हजारों लोग अपना समाज, धर्म छोड़ बैठें। भगवान ने पैदा किया है तो वही पालते हैं और सब कार्य पूरा करते हैं। वही भगवान गुरुचरण बाबू की भी रक्षा करते, काम बनाते!’
शेखर चुप रहा। गीली आँखें पोंछकर भुवनेश्वरी ने कहा- ‘यदि ललिता बिटिया को ही साथ ले आती, तो किसी-न-किसी प्रकार से उसका उपकार कर देती। हो सकता है कि इसी इरादे से गुरुचरण बाबू ने उसे मेरे साथ नहीं भेजा। मुझे तो यही पता था कि उसकी शादी की सचमुच तैयारी है।’
शेखर ने लज्जापूर्वक भुवनेश्वरी की तरफ देखकर कहा- ‘अच्छा है माँ, घर वापस चलकर इस कार्य को ऐसा ही करो न। ललिता तो अभी ब्रह्मसमाजी नहीं हुई है, केवल उसके मामा ही तो हुए हैं। उसके सगे मामा भी नहीं हैं। ललिता का कोई सगा नहीं है, इसी कारण वह उनकी शरण में पड़ी है।’
खूब सोच-सझकर भुवनेश्वरी बोलीं- ‘यह तो ठीक है; पर तुम्हारे पिताजी अजीब ढंग के व्यक्ति हैं, वे बड़े ही हठी आदमी हैं। किसी तरह से भी ऐसा करने को तैयार न होंगे। शायद उन लोगों से मिलने भी न देंगे।’
यही विचार शेखर के मन में भी बार-बार उठ रहे थे। वह माँ की बातों का कोई उतर न देकर, चुपचाप बैठा सुनता रहा और मन-ही-मन सोचता रहा।
शेखर अब परदेश में एक मिनट भी नहीं रहना चाहता था। बड़ी बेचैनी और परेशानी में वह दो-तीन दिन इधर-उधर घूमता रहा। फिर उसने मां से कहा- ‘यहाँ पर जी नहीं लगता माँ! चलो, घर चलें।’
उसी दिन वह घर लौटने को तैयार हो गई और कहने लगीं- ‘मुझे भी अछा नहीं लगता।’ कलकत्ता वापस आने पर दोनों ने देखा कि छत से आने-जाने वाला रास्ता बंध कर दिया गाय है। गुरूचरण बाबू से कोई भी नाता-रिश्ता करना नवीनराय को भला न लगेगा, यहाँ तक कि बोलना भी बुरा लगेगा, यह बात वे दोनों तुरंत ताड़ गए।
रात के समय जब शेखर खाने बैठा, तब माँ भी आकर उसके पास बैठ गई। कुछ देर बाद वह बोलीं – ‘गिरीन्द्र के साथ ही ललिता की शादी तय हो रही है, यह मैं पहले ही समझ गई थी।’
सिर नीचा किए हुए ही शेखर ने पूछा – ‘किसने कहा?’
भुवनेश्वरी- ‘उसकी मामी ही कह रही थी, और कौन कहता। दोपहर के समय जब वह सो गए थे, तो मैं स्वयं मिलने गई थी। मारे दुःख के उसकी मामी ने अपनी आँखें लाल कर लीं। थोड़ी देर बाद अपने आँसू पोंछकर सब कुछ कह गई।’ उन्होंने ही कहा- ‘यही तकदीर का खेल है, शेखर! किसको दोषी ठहराया जाए। कुछ बी सही, पर गिरीन्द्र भी एक भला लड़का है, नम्र स्वभाव वाला है। उसके यहाँ ललिता को किसी प्रकार का कष्ट न होगा। वह धनवान भी है।’ यह कहकर वह चुप हो गई।
उत्तर में न तो शेखर कुछ कह ही सका और न सामने रखी हुई थाली से उठाकर खा ही सका। थोड़ी देर बाद माँ वहाँ से उठकर चली गई और शेखर भी बिना खाए-पीए उठ गया। हाथ-मुंह धोखर वह अपने बिछौने पर जा पड़ा।
दूसरे दिन संध्या-समय शेखर टहलने निकला। उस वक्त गुरुचरण बाबू के यहाँ पहले की तरह चाय उड़ रही थी, हंसी-मजाक, हो रहा था। वहाँ की बातें सुनकर शेखर कुछ देर रुक गया, फिर न जाने क्या सोचकर, वह धीरे-धीरे गुरुचरण बाबू के कमरे में आकर खड़ा हो गया। उसके आते ही वहाँ सन्नाटा छा गया शेखर के मुख के भाव देखर सभी लोगों के भाव बदल गए।
शेखर के परदेश से आने की खबर ललिता के सिवा और किसी को न थी। आज पड़कर वह शेखर की और दखने लगे। गिरीन्द्र का चेहरा गंभीरता में और भी परिणत हो गया, वह दीवार की तरफ देखने लगा। गुरुचरण बाबू ही उस समय ज्यादा जोर से बातें कर रहे थे। शेखर को देखर उनका चहेरा पीला हो गया। उसके निकट बैठी ललिता चाय तैयार कर रही थी। उसने मुंह उठाकर देखा और नीचा कर लिया।
आगे बढ़कर शेखर ने चौकी पर सिर झुककर नमस्कार किया और वहीं पर एक ओर बैठकर हंसते-हंसते कहने लगा- ‘एकाए सभी लोग चुप क्यों हो गए?’
गुरुचरण बाबू ने धीमे स्वर में आशीर्वाद दिया, आशीर्वाद में उन्होंने क्या कहा – सुनाई नहीं पड़ा ।
शेखर गुरुचरण बाबू के विचारों को ताड़ गया। इसी कारण उसने बीच में ही अपनी बात छेड़ दी। वह सारी कथा-परदेश से वापस आने की, माँ के स्वास्थ्य की तथा अन्य तमाम बातें कहने लगा। फिर अपरिचित व्यक्ति की ओर देखा।
गुरुचरण बाबू इस बीच काफी सतर्क हो चुके थे। उन्होंने उस लड़के के परिचय में कहा – ‘यह गिरीन्द्र बाबू के मित्र हैं। इन लोगों के घर एक ही स्थान पर हैं। बड़े ही भले आदमी हैं, और श्याम बाजार में रहते हैं। हमारी इनसे जब से मुलाकात हुई है, बेचारे आकर मिल जाते हैं।’
शेखर ने गुरुचरण बाबू की बातों में अपनी सम्मति, दी परंतु मन ही मन विचार किया – ‘हां, देखने में नम्र आदमी लगते हैं।’ थोड़ी देर रुककर फिर वह गुरूचरण बाबू से बोला, ‘काका, और सब ठीक-ठाक है न?’
गुरुचरण बाबू ने कुछ भी नहीं कहा और सिर झुकाए चुप सुनते रहे।
‘अच्छा, काकाजी अब चलता हूँ।’ – यह कहकर शेखर जाने को तैयार हो गया। उसे जाता देखर, रुआंसे होकर गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘बेटा! तुमने सब बातें सुन ही ली होगीं, फिर भी कभी-कभी आते रहना एकाएक हम दुःखियों का त्याग न कर देना।’
शेखर – ‘अच्छा काकाजी!’ कहता हुआ वह भीतर ललिता की मामी से मिलने चला गया। थोड़ी देर बाद ललिता को मामी की रोने की आवाज बैठक में सुनाई दी। उनकी रोने की आवाज सुनकर गुरुचरण बाबू के आँसू आ गए और उन्होंने अपनी धोती से उन्हें पोंछ लिया। गिरीन्द्र की मुखाकृति एक अपराधी की-सी हो रही थी। वह नीरस-सा बाहर की ओर देखने लगा। शेखर के जाने के पहले ही ललिता वहाँ से चली गई थी।
कुछ समय के बाद शेखर उसकी मामी से बातें करके बाहर की ओर आया। सीढियों से उतरते समय, अंधेर कमरे में दरवाजे के निकट उसने ललिता को खड़े हुए देखा। उसको देखते ही वह भी खड़ा हो गया। ललिता ने शेखर को प्रणाम किया और उसके पास आ गई। कुछ समय तक शेखर से कुछ उत्तर पाने की लालसा से खड़ी रही; फिर थोड़ा पीछे हटकर मंद स्वर में उसने कहा- ‘आपने मेरे पत्र का उत्तर क्यों नहीं दिया?’
‘कौन सा पत्र?’
‘उसमें बहुत सी बातें थी। अच्छा, उन बातं को छोड़ो! यहाँ की सभी बातें आपने सुन ही ली हैं। मेरे लिए क्या हुकम देते हो?’
शेखर ने आश्चर्य में पड़कर कहा- ‘मेरा हुक्म? मेरा हुक्म किसलिए? म्रे हुक्म से लाभ ही क्या?’
ललिता ने शंक्ति होकर कहा- ‘क्यों?’
शेखर – ‘और नहीं तो क्या?’ मैं किसे हुक्म दूं?
ललिता – ‘मुझको हुक्म दो, और किसका दोगे?’
शेखर- ‘तुम्हें क्यों हुक्म दूंगा? फिर हुक्म देने पर तुम उसको मानोगी ही क्यों? शेखर के इस कथन में करूणा मिश्रित थी।’
ललिता यह सुनकर मन ही मन घबरा उठी।
उसने शेखर की छाती के समीप सिरकते हुए कहा – ‘जाने दो इन बातों को। इस समय यह मजाक अच्छा नहीं लगता। तुम्हारे पांव पड़ती हूँ, मुझे अब तंग मत करो। बताओ-कैसे क्या होगा? मुझे डर के मारे रात को नींद नहीं आती हैं।’
‘आखिर भय किसलिए?’
ललिता- ‘क्या कह रहे हो? भय न लगेगा, तो फिर क्या लगेगा? न तो तुम्हीं यहाँ थे और न माताजी ही थीं। फिर मामा ने क्या कर डाला, वह भी तुमसे छिपा नहीं है। अब यदि माँ मुझे न स्वीकार करें तो?’
थोड़े समय बाद शेखर ने कहा – ‘वह तो ठीक ही है, अब माँ कैसे स्वीकार कर सकती हैं? उन्हें यह भी पता चला कि तुम्हारे मामा ने अन्य लोगों से काफी पैसे लिए हैं। साथ ही अब वह ब्रह्मसमाजी भी हो गए हैं। हम लोग हिंदू हैं।’
अन्नाकील ने उसी वक्त आकर ललिता से कहा – ‘मामी बुला रही हैं। ललिता ने जोर से कहा- ‘अच्छा तू जा, मैं अभी आती हूं।’ फिर नम्रतापूर्वक शेखर से कहने लगी- ‘यह कुछ भी क्यों न हो, फिर भी जो धर्म तुम्हारा है- वही मेरा भी। यदि वह तुमको नहीं अलग कर सकतीं, तो मुझे भी नहीं अलग कर सकतीं। इसके सिवा गिरीन्द्र बाबू के लिए हुए रूपए मैं उन्हें लौटा दूंगी। यह तो मेरे ऊपर कर्जा है, दो दिन आगे-पीछे लौटाना ही होगा।’
शेखर- ‘इतना अधिक रूपया देने के लिए कहाँ से मिलेगा?’
ललिता इस बात के उत्तर में काफी समय तक चुप रही, फिर हंस कर बोली – ‘क्या आपको ज्ञात नहीं कि स्त्रियों को रूपए कौन देता है? मैं भी उनहें से ले आऊंगी।’
शेखर के हृदय में उथल-पुथर मची हुई थी। वह फिर कहे लगा- ‘परंतु मामा ने उस रूपयों के लिए तुम्हें तो बेच ही डाला है।’
ललिता अंधेरे में शेखर के चेहरे को न देख सकी, परंतु गले के स्वर को तुरंत ताड़ गई और बोली, यह सब झूठी, व्यर्थ की बातें हैं। मेरे मामा के सदृश भला मनुष्य दुनिया में होना कठिन है। तुम व्यर्थ ही उनकी हंशी उड़ाते हो। उनके कष्टों तथा दुःखों की कोई बात भी दूसरों से छिपी नहीं है, तुम भले ही न जानते हो।’ आवश में ललिता ने इतनी बातें कह डालीं, और फिर तनिक देर रूककर कहने लगी- ‘फिर वह रूपया मामा ने लिया है मेरे व्याह के बाद; इस कारण मुझे बेचने का कोई धिकार उन्हें कहाँ था? यदि मुझे बेचने का कोई अधिकार उन्हें कहाँ था?यदि मुझे बेनचे का कोई अधिकार है, तो केवल तुम हो, और कोई नहीं।’ इतना कहते हुए, उत्तर की कोई प्रतीक्षा न करके ललिता अंदर चली गई।
कुछ देर तक अवाक्-सा शेखर वहीं खड़ा रहा, फिर धीरेःधीरे गुरुचरण बाबू के घर से बाहर चला आया।9
उस रात को काफी समय तक शेखर पागलों की भाँति, बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर गलियों में फिरता रहा; फिर घर में आकर बैठा हुआ सोच-विचार में पड़ा रहा। उसे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि यह सीधी-सादी ललिता इतनी बातें कहाँ से सीख आई? यह निर्लज्जता की बातें उसे कहाँ से कहनी आ गई। इतना साहस, गजब का साहसा! आखिर यह सब कहाँ से? ललिता के आज के व्यवहार पर उसे क्रोध तथा आश्चर्य दोनों हो रहे थे, परंतु वास्तव में यह शेखर की भूल थी। यदि वह तनिक भी बुद्धिमानी से सोचता, तो शायद उसे अपनी ही कमजोरी और कमी पर अपने ही ऊपर क्रोध आता। ललिता का कहना अक्षरशः सत्य था। वह बेचारी और कह ही क्या सकती थी?
इधर कई महीने ललिता से अलग रहकर शेखर ने भातिभाति की कल्पनाएं की थीं। इन्हीं कल्पनाओं के अन्तर्गत वह कभी तो जीवन-भर का सुख अनुभव करता और कभी लाभ-हानि के विचारों में पड़ा रहता। उसे अनुभव होता कि ललिता कितनी अधिक उसकी जीवन-सहचरी बन चुकी है। शेखर यह भी अनुभव करता कि उसके बिना जी सकना भी कितना कठिन एवं दुःखप्रद है। बचपन से ही ललिता उसके परिवार में घुळी-मिली थी। शेखर उसे सदा महत्त्वपूरण स्थान देता आया है। अपना काम भी उसने ललिता पर ही छोड़ दिया, परंतु शेखर के मन में इस प्रकार की आशंकाएं अवश्य उठती थीं कि कहीं ललिता उसकी जीवनसंगिनी न बन सके, या उसके माँ-बाप इस कार्य में बाधक न होय जाएं। कहीं ललिता किसी अन्य के हाथ न लग जाए। शेखर इसी प्रकार की दुश्चिंताओं में पहले से ही परेशान था। इन्हीं विचारों के कारण शेखर के परदेश जाने से पहले ही ललिता के गले में गेंदे वाली माला डालकर एक बंधन लगा दिया था।
परदेश में गुरुचरण बाबू के धर्म-परिवर्तन की खबर पाकर शेखर बेचैन हो गया। उसके हृदय में और भी गहरी चिंता हुई कि ललिता शायद अब उसकी न रह पाए। आराम हो या तकलीफ, वह उन लोगों की सभी परिस्थितियों की जानकारी रखता था। फिर भी ललिता की आज वाली स्पष्टवादिता से उसकी सभी भावनाएं परिवर्तित हो गई थीं, उनमें घुमाव हो गया था, परंतु शेखर न समझ पाया कि इन भावनाओं से भी कर्तव्य कहीं श्रेयस्कर है। पहले उसे दुःख हुआ था कि कहीं ललिता उससे दूर न चली जाए परंतु अब यह परेशानीथी कि कहीं उसे ही ललिता का हाथ न छोड़ना पड़ जाए।
श्याम बाजार में लगा हुआ उसकी विवाह भी रूक चुका था। जितनी सम्मपत्ति नवीनराय चाहते थेष वे लोग न दे सके। शेखर की माँ को भी यह रिश्ता नहीं जंचा था। इस प्रकार शेखर इस मुसीबत से छूटा। मगर नवीनराय दस-बीस हजार मारने की फिक्र में अब भी थे। इसके लिए उनकी कोशिश बराबर चालू थी।
शेखर विचारता था कि क्या किया जाए। उस रात को अनायस ही जो कार्य हो गया, क्या वह इतना दृढ़ रूप धारण कर लेगा? क्या ललिता पूर्ण रूप से यह विश्वास कर लेगी कि उसका पाणिग्रहण हो चुका है? और अक्षय संबंध स्थापित हो का है? इतनी गहराई तक शेखर ने कभी विचार नहीं किया था। उस समय तो शेखर ने आलिंगन करते हुए कहा था कि ललिता, अब जो होना था, हो चुका, इस संबंध को अब कोई नहीं तोड़ सकता न तुम अलग हो सकती हो और न मैं छुट सकता हूँ । इस प्रकार तर्क-कुतर्क करके सोचने की क्षमता उस समय न थी, और न उस समय सोच सकने का अवसर ही था।
उस समय सर पर चांद मुस्करा रहा था। चांदनी की रूपहली आभी छिटक रही थीं। ऐसे समय उसने अपनी प्रियतमा ललिता के गले में माला डाल दी थीष उसे अपने वक्षस्थल से लगा प्रेम संसार में वे दोंनो एक-दूसरे को अपना सर्वस्व सौंप चुके थे। उस समय उन्हें सांसारिक अच्छाईयों और बुराइयों का अनुभव न था। पैसे के लोभी बाप का रूद्र भी उसकी आँखो से ओल था। उसे याद था कि माँ ललिता को प्यार करती हैं, इसलिए उन्हें इस कार्य के लिए राजी कर सकना कठिन न होगा। इसी तरह वह भैया के द्वारा पिताजी को भी कह-सुनकर मना लेगा। किसी-न-किसी तरह इस काम के लिए सब तैयार ही हो जाएंगे। इस बात को शेखर सपने में भी न सोचता था कि गुरुचरण बाबू अपना यह सुगम रास्ता, धर्म-परिवर्तन करके बंद कर डालेंगे विधाता ही इस प्रकार विमुख हो जाएंगे – ऐसा भी खयाल उसे न था। ललिता से संबंध उसका सचमुच हो चुका था।
यथार्थ में शेखर के सामने यह एक विशाल एवं कठिन समस्या थी। उसको पथा था कि एसे समय पिताजी को राजी करने की कौन कहे, माँ भी अब शायद इस कार्य के लिए न राजी होंगी। उसे अब कोई मार्ग न सूझ पड़ता था।
‘ओह! फिर क्या किया जाए?’ कहकर शेखर गहरी सांस ली। ललिता को वह भली-भांति जानता था। उसी ने पढ़ाया-लिखाया और सभी शिष्टाचार की बातें सिखाई थीं। ललिता ने एक बार अपना धर्म समझकर फिर उसकी त्याग न किया। वह जानती है कि वह शेखर की एकमात्र धर्मपत्नी है, इसलिए आज संध्या समय अंधेर में, निःसंकोच वह शेखर के निकट मुंब-से-मुंह मिलाए खड़ी थी।
ललिता की शादी की बातचीत गिरीन्द्र के साथ हुई थीं, परंतु इस रिश्ते के लिए उसको कोई भी राजी न कर पाएगा। समय ऐसा आ गया है कि उसे मुंह खोलकर स्पष् कहना ही पड़ेगा। इस प्रकार सारा रहस्य खुल जाएगा- यह सोचकर शेखर की आँखों में आग प्रज्वलित हो गई, उसकी चेहरा तमतमा उठा। फिर सोचने लगा कि माला पहनकर ही वह चुप नहीं रहा, बल्कि ललिता को अपने वक्षस्थल से लगाकर उसके उसके अधरों की सुधा-रस का भी पान किया। ललिता ने किसी प्रकार की रूकावट नहीं डाली। इस कार्य में वह अपने को दोषी न समझती थी, इसीलिए उसे कोई हिचकिचाहट भी न थी। उसने शेखर को अपना धर्म-पति समझ लिया था। शेखर अपनी इस करनी तथा व्यवहार को कैसे किसी को बताएगा? किसी के सामने वह मुंह भी न दिखा सकेगा।
वास्तव में बात यह भी कि माँ-बाप की राय बगैर ललिता का विवाह भी नहीं हो सकता था, इसमें जरा भी शक नहीं था। परंतु जब गिरीन्द्र के साथ ललिता की शादी न हे का कारण सामने आएगा, तब क्या होगा? फिर वह घर के बाहर अपना मुंह कैसे दिखा-सकेगा?
10
शेखर ने असम्भव समझकर ललिता को पाने की आशा छोड़ दी। कई दिन उसे डर अनुभव होता रहा। वह एकाएक सोचने लगता कि कहीं ललिता आकर सब बातें कहकर भण्डफोड़ न कर दे, उसकी बातों का जवाब न देना पड़ जाए, परंतु कई दिन बीत गए, उसने किसी ने कुछ नहीं कहा। यह भी पता नहीं चला कि किसी को ये बाते मालूम हुई अथवा नहीं। किसी प्रकार की चर्चा ललिता के घर में नहीं हुई और न कोई शेखर के यहाँ ही इस विषय के लिए आया।
शेखर के कमरे के सामने वाली छत से ललिता के घर की छत साफ दिखाई देती थी, जिससे उसकी निगाह ललिता पर न पड़े, परंतु एक माह बिना किसी कहा-सुनी के बीत गया, तो उसने थोड़ा आराम अनुभव किया और मन में विचार करने लगा-स्त्री जाति लज्जा और संकोच की मूर्ति है- इस प्रकार की बातों को वह कभी दूसरों पर नहीं प्रकट करती। नारी की छाती फटकर टुकड़े-टुकड़े क्यों न हो जाए, पर उसकी जुबान नहीं हिलती। शेखर के हृदय में इन बातों ने स्थान पा लिया। इस प्रकार औरतों के हृदय की कमजोरी, लज्जा तथा शील के लिए उसने विधाता को बारम्बार धन्यवाद दिया। इतना सोचने के पश्चात भी तो उसे चैन न था। उसकी स्थिति सदैव डांवाडोल क्यों रहती है? इस डर के निकल जाने पर भी उसके हृदय में बराबर आंतरिक वेदना क्यों उठती है? ललिता क्या कुछ न कहेगी? वह किसी दूसरे के संग ब्याहे जाने पर पूर्णरूप से खामोश हो जाएगी। ललिता का ब्याह हो गया है, औऱ प्रीतम के साथ अपना घर-बार संभालने चली गई है- और सोचते ही शेखर के बदन में आग क्यों लग जाती है? उसका क्रोध क्यों सीमा को पार कर जाता है?
शेखर अपनी खुली हुई छत पर नियमनपूर्वक नित्य टहला करता था- आज भी उसने टहलना शुरू किया, परंतु उस घर का कोई भी प्राणी दिखाई न पड़ा, केवल अन्नाकाली किसी काम से वहाँ आई थी, परंतु शेखर को देखते ही अपनी निगाहें नीची कर ली। शेखर दुविधा में था कि उसे पुकारे या न पुकारे, इसी बीच वह आँख के सामने से अदृश्य हो गई। शेखर ने तुरंत समझ लिया कि स दीवार के बन जाने से, दोनों घरों के अलगाव का अनुभव इस अन्नाकाली को भी हो गया है।
इसी उधेड़-बुन में एक माह और बीत गया।
एक दिन भुवनेश्वरी ने बातों-ही-बातों में पूछा- ‘शेखर बेटा! क्या इस बीच में ललिता को कभी दैखा है?’
शेखर ने उत्तर दिया- ‘नहीं तो माँ। क्या हुआ माँ?’
भुवनेश्वरी ने कहा- ‘करीब दो माह बाद उसको मैंने छत पर देखा था और पुकारा भी था, परंतु उसके रंग-ढंग से ऐसा लगा कि उसमें बहुत ही परिवर्तन हो गया है। अब वह ललिता नहीं रही, बीमार-सी लगती है- चेहरा उदास तथा सूखा हुआ है- देखने में उसकी उम्र बहुत प्रतीत होती है। उसको देखकर कोई नहीं कह सकता कि वह चौदह की है।’ इतना कहते हुए उनकी आँखों में आँसू भर आए।
अपनी धोती से आँसू पोंछकर, दुःख भरे शब्दों में फिर उन्होंने कहना आरम्भ किया- ‘वह मैली तथा फटी साड़ी पहने थी, किनारी में पैबंद लगा हुआ था। मैंने उससे पूछा- बेटी! क्या कोई साड़ी नहीं है? उसने उत्तर दिया- है! परंतु मुझे उसके इस उत्तर से जरा भी विश्वास नहीं हुआ। अपने मामा की दी हुई साड़ी उसने कभी नहीं पहनी। उसे साड़ी मैं ही देती थी। इधर छः- सात मास से मैंने उसे एक भी साड़ी नहीं दी है।’
इतना कहकर वह बिल्कुल चुप हो गई। उनके मुंह से मानो शब्द ही न निकल सके। अपनी भीगी हुई आँखों को उन्होंने धोती से पोंछ डाला। उनके दुःख का एकमात्र कारण यह था कि वह ललिता को अपनी सगी पुत्री के सदृश समझती थीं।
शेखर अवाक् सा दूसरी तरफ देखता रहा।
थोड़ी देर बाद भुवनेश्वरी ने फिर कहना प्रारम्भ किया- ‘आज तक मेरे अलावा उसने किसी से कुछ मांगा नही। खाने का समय होने पर, यदि वह भूखी होती थी, तो भी किसी ने मुंह खोलकर न मांगती थी, बल्कि सीधे मेरे पास ही रुकती थी, और में उसका मुंह देखकर समझ जाती थी कि वह भूखी है। शेखर बेटा! मैं यही बात बार-बार सोचती हूँ कि न वह अपने दुःख को किसी से कहती है और न उसके दुःख को कोई अनुभव करने वाला है। वह नाम-मात्र को मुझे माँ नहीं कहा करती थी, बल्कि वह मुझको वास्तविक माँ की भांति प्रेम करती थी।’
साहस करने पर भी शेखर अपनी माँ की ओर मुंह उठाकर न देख सका। नीचे मुंह किए हुए बैठे-बैठे माँ की और देखकर कहा- ‘अच्छा माँ, तो जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, बुलाकर दे दे न।’
भुवनेश्वरी ने कहा- ‘अब वह क्यों लेने लगी। तुम्हारे पिता ने तो घर आने-जाने का मार्ग भी बंद कर दिया है। साथ ही मैं भी कौन-सा मुंह लेकर उसके यहाँ जाऊं? यदि गुरुचरण बाबू ने दुःख के कारण पागलपन में कुछ बुरा काम कर ही डाला था, तो हमें चाहिए था कि हम शुद्धि कराकर उन्हें अपने में मिला लेते। मिलाने की बात तो दूर हो गई, बल्कि हमने उन्हें बिल्कुल पराया बना दिया है। दुःख में पड़कर गुरुचरण बाबू ने अपनी जाति भी बदली दी है। इस कार्य के कारण ते पिता ही हैं। जब देखो तब तकाजा सवार। मेरी समझ में तो गुरुचरण बाबू ने बड़ा ही अच्छा किया। हृदय में घृणा भर जाने पर मनुष्य मनचाहा काम करने का अधिकारी होता है। गिरीन्द्र उनके लिए हम लोगों से बढ़कर है। अगले महीने शायद उसी के साथ ललिता की शादी होने वाली है। मुझे विश्वास है कि बड़ी खुशी और आनंद से उसके साथ जीवन बिताएगी।’
शेखर ने आश्चर्य में पड़कर अपनी माँ से पूछा- ‘क्या ललिता का ब्याह अगले माह ही है?’
भुवनेश्वरी- ‘सुना तो ऐसा ही है।’
शेखर ने और कुछ नहीं पूछा।
माँ कुछ देर चुप रही, कहने लगीं- ‘ललिता ने बताया था कि उसके मामा का स्वास्थय ठीक नहीं रहता और ठीक रहें भी कैसे? वैसे हार्दिक शांति नहीं है, फिर घर की हाय-हाय और भी बुरी। उसके मकान में तो सदैव अशांति का डेरा है।’
कुछ समय बाद माँ के चले जाने पर शेखर उठकर अपने कमरे में चला आया, और बिछौने पर करवटें बदलते हुए, ललिता की यादों में विचारमग्न हो गया।
शेखर का मकान एक पतली गली में था। उस गली में दो गाड़ियां अथवा मोटरें पास होने में बड़ी दिक्कत होगी। करीब दस बारह दिन बाद, शेखर की गाड़ी गुरुचरण बाबू के घर के सामने खड़ी हुई। रास्ता रूके होने के कारण गाड़ी रूक गई। शेखर अपने ओफिस से वापस आ रहा था। गाड़ी से नीचे उतरकर उसे मालूम हुआ कि गुरुचरण बाबू के यहाँ डॉक्टर आए हैं।
कई दिन पहले ही उसने गुरुचरण बाबू की अस्वस्थता के बारे में अपनी माँ से सुना था, इसीलिए अपने घर न जाकर उन्हें देखने के लिए वह गुरुचरण बाबू के घर चला आया और सीधे उन्हीं के कमरे में गया। गुरुचरण बाबू निर्जीव से चारपाई पर पड़े थे, तब ललिता और गिरीन्द्र वहीं पर बैठे थे। सामने कुर्सी पर बैठे डॉक्टर रोग का निरीक्षण कर रहे थे।
धीमे स्वर में गुरुचरण बाबू ने शेखर को बैठने के लिए कहा। ललिता भी उसे देखकर, थोड़ा घूंघट खींचकर औऱ मुंह घुमाकर बैठ गई।
डॉक्टर साहब उसी मोहल्ले के रहने वाले थे और शेखर को भली-भांति जानते थे। दवाई आदि लिखकर वह शेखर के साथ बाहर आए। गिरीन्द्र ने बाहर आकर डॉक्टर साहब की फीस दी। जाते समय डॉक्टर साहब ने गिरीन्द्र से कहा- ‘काफी सतर्कता की आवश्यकता है। वैसे अभी रोग बढ़ा नहीं है। यदि इनको जलवायु-परिवर्तन कराने के लिए अन्यत्र ले जाया जाए तो बेहतर होगा।’
डॉक्टर के जाने के पश्चात् शेखर तथा गिरीनद्र अंदर आए। ललिता ने गिरीन्द्र को इशारा देकर अपनी तरफ बुल लिया और दोंनो आपस में कानाफूसी करने लगे। शेखर चुपचाप कुर्सी पर बैठा हुआ, गुरुचरण बाबू की ओर देखता रहा। शेखर बाबू का मुंह इस समय दीवार की तरफ था, इसीलिए शेखर का दुबारा वहाँ लौटकर आना वे नहीं जान सके।
थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहने पर शेखर को ऊब सी मालूम हुई और वह उठकर अपने घर चला गया। ललिता तथा गिरीन्द्र दोनों अब भी कानाफूसी कर रहे थे। शेखर ने किसी से कोई बात नहीं की। शेखर का एक प्रकार से अपमान नहीं तो और क्या था?
आज शेखर को पूर्ण रुप से पता चल गया था कि ललिता चाहती है कि वह पिछले दिनों की याद तथा अधिकार, जो भी उसके सिर थे, उन्हें भूल जाए। अब वह निर्भय होकर कहीं भी रह सकता है। अब उसके ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं रही और न उसके बारे में सोचकर दिमाग खराब करने की आवश्यकता है। ललिता ने संभवतः इन सब बंधनों से उसे मुक्त कर दिया है। कमरे में कपड़े उतारते हुए उसे हजारों बार यही बात याद आई की गिरीन्द्र ही उसका सगा है, ललिता के घरवालों का एकमात्र सहारा वही है तथा उसी पर ललिता का भविष्य निर्भर है। शेखर अब उसका कोई नहीं है। ललिता किसी बात में शेखर से सलाह लेने की कौन कहे, बोलना भी नहीं चाहती।
शेखर ने कपड़े उतारे और आरामकुर्सी पर बैठ गया। वह अब भी उन विचारों में उथल-पुथल मचा रहा था। ललिता ने उसे देखकर माथे पर कपड़ा खींच लिया और मुंह घुमा लिया था, मानो वह कोई पराया हो! उसके सामने ही गिरीन्द्र को अपने पास बुलाकर काफी समय तक बातें करती रही। ऐसा प्रतीत होता था कि शेखर अब उसका कोई भी नहीं है और गिरीन्द्र ही उसका सगा है। ललिता के ऐसे व्यवहार से शेखर को बड़ी ठेस लगी। धीरे-धीरे ललिता के प्रति जो भी प्रेम शेखर के हृदय में था धृणा के रूप में बदल गया।
गिरीन्द्र तथा ललिता की कानाफूसी के प्रति शेखर ने विचारा कि कहीं उसकी गुप्त बातें तो नहीं हो रही थीं। शेखर को यह ख्याल आते ही लज्जा आ गई, परंतु मन में ढाढ़स पैदा कर वह विचार करने लगा कि ऐसा सम्भव नहीं, यदि वे बातें होतीं, तो अब तक भयंकर दृश्य सामने आ उपस्थित होता, और इसके लिए शेखर को अवश्य उत्तर देना पड़ता।
एकाएक कमरे में माँ के आने की आहट से शेखर की विचारधारा खण्डित हुई। उन्होंने कहा- ‘शेखर तुमको क्या हुआ, बेटा! अभी तक हाथ-मुंह नहीं धोया।’
‘जा रहा हूँ।’- कहता हुआ शेखर तुरंत नीचे चला गया। उसकी धबराहट माँ न जान सके इसीलिए तुरंत मुंह घुमाकर नीचे चला गया।
ललिता की इन्हीं तमाम बातों पर शेखर कई दिन तक विचार करता रहा और अभिमान-वश अपने मन में विरक्ति के भावों का संचयन करता रहा। वह शेखर की भूल और ज्यादती थी। केवल यही वात वह न सोचता था कि वास्तव में दोष तता इनकी जड़ कहाँ पर है? उस दिन से आज तक उसने आशा की एक किरण भी ललिता को ओर नहीं फेंकी। निर्लज्ज ललिता स्वयं उसकी छाती-से-छाती मिलाकर तमाम बातें करने के लिए तैयार थी, उसके लिए भी उसने अवसर नहीं दिया। अपनी हिंसा, क्रोध, और अभिमान से जल-भुन रहा था। शेखर ही नहीं, वरन् संसार के सारे पुरुष सभी दोष नारी के ऊपर अभिमानपूर्वक मढ़कर एकतरफा फैसला करते हैं। बेचारी नारी को सब कुछ सहन करना पड़ता है। पुरुष अपने हृदय की ज्वाला में उसे भी जलाकर खाक कर देते हैं। साथ-ही-साथ वे स्वयं भी जला करते हैं। पुरुष सदैव से स्त्री-जाति को पशु के समान अबला समझते आए हैं, इसलिए पुरुष को अभिमानी कहना उचित ही है। यह ज्वलंत उदाहरण है कि पुरुष कितना स्वार्थी तथा अभिमानी होता है।
मन-ही-मन जलते हुए एक सप्ताह बीता। आज भी ओफिस से आने पर उसी प्रकार विचारों की ज्वाला में अपने को तपा रहा था। एकाएक दरवाजे पर आवाज सुनाई पड़ते ही उसका ध्यान भंग हो गया। उसके हृदय की गति रुक गयी, यह देखकर कि अन्नाकाली के साथ ललिता उसके कमरे में आई और फर्श पर बिछे हुए गलीचे पर बैठ गई। बैठने के पश्चात् अन्नाकाली ने कहा- ‘शेखर भैया, हम लोग कल चले जाएंगे, इस कारण हम दोनों आपको नमस्कार करने आई हैं।’
शेखर चुपचाप उसकी ओर देखता रहा।
अन्नाकाली ने फिर कहा- ‘भैया, न जाने कितने अपराध अनजाने में हमने किए होंगे, उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।’
शेखर तुरंत ताड़ गया कि यह अन्नाकाली नहीं, बल्कि और ही कोई उसके मुंह से बोल रहा है। इस बार शेखर ने पूछा ‘कल कहाँ जाओगी?’
‘पश्चिम की ओर! बाबूजी को मुंगरे ले जाएंगे। वहीं पर गिरीन्द्र बाबू का मकान है। अब हम लोगों का आना बाबूजी के ठीक हो जाने पर भी न हो सकेगा। यहाँ की जलवायु बाबूजी के लिए लाभदायक नहीं है।’
‘अब उनका क्या हाल है?’
‘अब कुछ ठीक है।’- अन्नाकाली ने यह कहकर, बहुत-से नए कपड़े दिखाकर कहा- ‘यह सब ताईजी ने दिए हैं।’
ललिता अब तक खामोश बैठी रही। फिर अपने स्थान से उठकर वह मेज के समीप आई अपने आंचल से ताली खोलकर रखते हुए कहने लगी, ‘यह अलमारी की चाभी अब तक मेरे पास ही थी।’ फिर थोड़ा सा मुस्कुराई और बोली- ‘परंतु एक पैसा भी नहीं बचा है। सब पैसे खर्च हो गए है।’
शेखर ने कुछ नहीं कहा बल्कि उसकी ओर देखता रहा।
अन्नाकाली ने ललिता से कहा- ‘अच्छा चलो जीजी, बहुत देर हो रही है।’
ललिता के कुछ बोलने से पहले ही, शेखर ने अन्नाकाली से कहा- ‘अन्नाकाली, जा, माँ से पान ले आ।’
लेकिन ललिता ने जाने से मना कर दिया और बोली- ‘तू यहीं रह, मैं ले आ रही हूँ।’ यह कहकर वह शीध्र ही नीचे चली गई और पान लाकर अन्नाकाली को दिया कि शेखर को दे दे।
पान लेकर शेखर निराश हो गया और जीतने की आशा भरे जुआरी की भांति हार जाने पर चुप होकर बैठा रहा।
‘अच्छा अब जाती हूँ।’ यह कहकर अन्नाकाली ने शेखर के निकट आकर, उसके पांव छूकर प्रणाम किया, किन्तु ललिता ने वहीं से हाथ जोड़कर प्रणाम किया। फिर दोनों चली गई।
शेखर अवाक् और निराश बैठा रहा। ललिता आई और कुछ कहना चाहती थी, कह गई, पर विदा के समय शेखर को कुछ मौका न देकर तुरंत चली गई। शेखर वहीं ठगा-सा बैठा रह गया, कुछ भी नहीं बोला, मानो वह कुछ कहना ही नहीं जानता था। शेखर ललिता से बहुत कुछ कहने का इच्छुक था, पर मौका ही न पा सका। अन्नाकाली को वह शायद इसीलिए साथ लाई थी कि इस विषय में कोई बात न हो। अपने मन में उसने सोचा- शायद ललिता भी नहीं चाहती की उस विषय की बात छिड़े। वह शायद पिछली बातें भूल जाना चाहती है। यह सोचकर वह कटी पतंग की भांति लड़खड़ाया हुआ अपने बिस्तर पर गिर पड़ा। उसके हृदय में ललिता के प्रति विरक्ति समा ही रही थी। आज की इस घटना से उसका हृदय और दुःखी हो उठा।
11
लगभग एक वर्ष बीता। गुरुचरण बाबू के मुंगेर जाने पर भी स्वास्थय को कोई लाभ न पहुंचा और वह इस संसार को छोड़कर चल दिए। गिरीन्द्र उनको बहुत मानता था और उसने उनकी सेवा करने में कसर नहीं रखी।
आखिरी दम निकलने के समय गुरुचरण बाबू ने उसका हाथ पकड़कर आग्रह के साथ कहा था कि कीसी अन्य कि भांति उनके परिवार का बहिष्कार किसी दिन न कर दे, अपनी इस घनिष्टता को आत्मीयता का स्वरूप दे दे।
इसका संकेत था कि वह अपनी बेटी का ब्याह उसके साथ करना चाहते थे।
गुरुचरण बाबू ने गिरीन्द्र से कहा- ‘यदि मैंने यह सुखदायी नाता अपने जीते-जी नहीं देखा तो कोई बात नहीं, परलोक में बैठकर सुखपूर्वक देख सकूंगा। बेटा! यह याद रखना कि मेरी इस इच्छा पर कहीं कुठाराघात न हो जाए।’
गिरीन्द्र ने खुशी से गुरुचरण बाबू की यह अभिलाषा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की थी।
भुवनेश्वरी गरुचरण बाबू के कलकत्ता वाले मकान के किराएदारों से उनका हाल मालूम कर लिया करती थी। गुरुचरण बाबू के परलोक सिधार जाने की खबर भी उन्हीं से मालूम हुई थी।
एक दारूण घटना शेखर के घर में भी घटी। एकाएक नवीन बाबू भी यह परलोक सिधार चले। भुवनेश्वरी के हृदय पर सांप लोट गया। असह्य वेदना के कारण उनमें उन्माद समा गया। वह अपने चित्त की शांति के लिए, घर का काम-काज अपनी बड़ी बहू पर छोड़कर काशी चली गई। जाते समय यह कह गई थीं कि अगले साल शेखर के विवाह के समय सूचित करना? मैं आकर विवाह कर जाऊंगी।
ब्याह का सभी इंतजाम नवीन बाबू स्वयं कर गए थे। अब तक शेखर का ब्याह हो गया होता, परंतु एकाएक नवीन बाबू के देहावसान के कारण एक साल के लिए टल गया। लड़की वाले अब और अघिक दिन रूकना नहीं चाहते थे। इसी कारण कल उन्होंने आकर तिलक कर दिया। इसी महीने में ब्याह हो जाएगा।
शेखर अपनी माँ को लिवा लाने के लिए तैयार हो रहा था। उसने जब अलमारी से सामान निकालकर संदूक में रखना शुरू किया, तो उसे ललिता की याद आई, उसका सब काम ललिता ही किया करती थी।
ललिता को गए हुए लगभग तीन साल गुजर गए। इस बीच में शेखर को उसका हाल-चाल न प्राप्त हो सका। उसने समाचार प्राप्त करने की कोशिश भी नहीं की थी। मालूम होता है, इस ओर उसकी प्रवृत्ति भी नहीं हुई। ललिता से वह धृणा करने लगा था, परंतु आज उसकी मनोवृत्ति में परिवर्तन हुआ और वह ललिता का समाचार पढ़ने की इच्छा करने लगा। वह सुख में होगी उसकी शादी कैसे हुई, भली प्रकार हुई अथवा नहीं, अब उसे कोई दुःख तो नहीं है-यह सब बातें जानने को वह व्याकुल हो उठा।
गुरुचरण बाबू के कलकत्ता वाले मकान के सभी किराएदार घर छोड़कर चले गए हैं। मकान खाली पड़ा है। शेखर के मन में आया कि वह गिरीन्द्र का हाल चारू के पिता से पूछे। थोड़ी देर कपड़े रखना भूलकर उसने संदूक खुला पड़ा रहने दिया और झरोखों से बाहर की ओर झांकता रहा। उसी समय घर की दासी ने आकर पुकारा- ‘छोटे भैया! आपको अन्नाकाली की माँ बुला रही है। ‘
दासी ने गुरुचरण बाबू का मकान बताते हुए कहा- ‘हमारी पड़ोंसिन अन्नाकाली की माँ कल रात को बाहर से आई हैं, वही हैं।’
शेखर- ‘अच्छा जी, मैं अभी आया।’ इतना कहकर वह नीचे आया।
दिन समाप्त होने पर आ गया था। शेखर को मकान के अंदर आते देखकर वह बड़ी हृदय-विदारक चीख से रो पड़ी। शेखर उस अभागिन विधवा-गुरुचरण बाबू की पत्नी के पास जाकर बैठ गया। उसकी करूणा भरी चीख से शेखर के आँखों में भी आँसू भर आए। अपनी धोती के किनारे से उसने आँसू पोंछ डाले। केवल गुरुचरण बाबू की याद करके नहीं, बल्कि अपने पिता की याद में उसके आँसू निकल आए।
दिन समाप्त हो गया। ललिता ने आकर चिराग जलाया। दूर खड़े-खड़े ही उसने शेखर को प्रणाम किया, फिर थोड़ी देर ठहरकर चली गई। शेखर ने ललिता को दूसरे की जीवन-संगिनी समझ लिया था। इसीलिए शेखर ने उस सत्रह वर्षीया पराई नववधू की ओर निगाह नहीं की और न खुलकर बात करने की हिम्मत हुई। फिर जो कुछ भी तिरछी निगाहों से उसने देख पाया, उससे यह अनुभव किया कि ललिता दुबली-पतली हो गई है।
उस विधवा ने चीखना समाप्त करने के बाद जो कुछ कहा, वह इस प्रकार है- वह चाहती है कि अपना मकान बेचकर, अपने दामाद के साथ मुंगेर में रहे। घर को शेखर के पिता पहले ही से खरीदने के इच्छुक थे। अतः टीक दाम देकर शेखर मकान को ले ले, तो उसे अति हर्ष होगा। कारण यह कि मकान अपने ही परिचितों के पास रहेगा और उसके लिए उसे मोह तथा क्षोभ न रहेगा। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह थी कि यहाँ आने पर, उसको दो-चार दिन ठहरने के लिए आश्रय तो मिल जाएगा।
यह सुनकर शेखर ने कहा कि इस काम के लिए वह अपनी माँ से कहेगा और इस कार्य को पूरा करने का भरसक प्रयत्न करेगा।
आँसू पोंछते हुए गुरुचरण बाबू की पत्नी ने पूछा- ‘शेखर! क्या दीदी आएंगी?’
शेखर- ‘आज ही मैं उन्हें बुलाने के लिए जाने वाला हू।’
ललिता की मामी ने सभी बातें धीरे-दीरे ज्ञात कर लीं। शेखर का ब्याह कहाँ होगा? क्या-क्या तिलक में मिलेगा? कितना गहना दिया जाएगा? नवीन बाबू का देहांत कब हुआ, दीदी कहाँ हैं। यह सभी बातें धीरे-धीरे उन्होंने मालूम कर ली।
इस बातों के समाप्त होने तक चांदनी छिटक आई थी। गिरीन्द्र इसी समय नीचे उतरकर आया और शायद वह अपनी बहिन के पास गया। शेखर से गुरुचरण बाबू की स्त्री ने पूछा- ‘शेखर, क्या तुम मेरे दामाद को जानते हो? स तरह के सुयोग्य लड़कों का मिलना संसार में कठिन है।’
शेखर ने कहा कि इस बार में उसे जरा भी संदेह नहीं है। गिरीन्द्र से उसकी काफी बांते हो चुकी है और वह उससे परिचित है। इतना कहकर वह उठकर तेजी से बाहर चला गया, लेकिन बैठक के सामने उसे रुकना पड़ा।
ललिता उस घने अंधकार में दरवाजे के पीछे खड़ी थी। उसने पूछा- ‘क्या आज ही माँ को बुलाने जाओगे?’
‘हां।’
‘क्या उन्हें बहुत शोक हो गया है।’
‘उन्हें तो उन्माद सा हो गया है।’
‘तुम कैसे हो?’
‘ठीक हूँ।’ कहता हुआ शेखर तेजी से चला गया।
लज्जा के अनुभव से शेखर कांप उठा। ललिता के समीप खड़े होने के कारण उसने शरीर को अपवित्र समझा।
घर के अंदर आकर, किसी प्रकार इधर-उधर सामान रखकर उसने संदूक बंद किया। अबी गाड़ी जाने में कुछ विलम्ब था। ललिता की याद को आग लगाकर नष्ट कर देने के लिए, उसने अपने रोम-रोम में आग लगा दी। उसकी याद भुलाने के लिए उसने कसम तक खा डाली।
बातचीत के समय गुरुचरण बाबू की पत्नी ने कहा था- ‘सुखपूर्वक शादी न होने के कारण किसी ने ध्यान नहीं दिया। ललिता ने तो तुमको सूचना देने के लिए पहले ही कहा था।’ ललिता की इन्हीं शेखी भरी बातों से उसके शरीर में आग लग गई।
12
माँ को लेकर शेखर वापस आ गया, परंतु अभी शादी के दस बाहर दिन शेष थे।
दो-तीन दिन व्यतीत हो जाने पर, ललिता सवेरे के समय भुवनेश्वरी के पास बैठी हुई, कोई चीज उठा-उठाकर टोकरी में रख रही थी। इस बात की जानकारी शेखर को न थी कि ललिता आई है। वह कमरे के अंदर आकर माँ को पुकारते ही चौकन्ना हो गया। ललिता ने सिर झुकाकर काम जारी रखा।
भुवनेश्वरी ने पूछा- ‘क्या है बेटा?’ जिस लिए वह अंदर माँ के पास आया था, उस आशय को भूलकर ‘नहीं’ कहता हुआ वह झट वहाँ से चला गया। ललिता की ओर भरपूर नजर न डाल सका था, परंतु उसकी निगाह उसके दोनों हाथों पर पड़ चुकी थी। उसके हाथों में कांच की दो-दो चूड़ियां पड़ी थीं। शेखर ने शुष्क मुस्कान में कहा- ‘यह तो एक तरह का ढोंग है। उसे पता था कि गिरीन्द्र ही उसका पति है। विवाहिता स्त्री की इस प्रकार खाली कलाइयों को देखकर आश्चर्य हुआ।
उसी संध्या समय की बात है। जब वह तेजी से नीचे जा रहा था, उसी समय ललिता ऊपर आ रही थी। बीच में दोनों ने एक-दूसरे को देखा। ललिता एक तरफ रुक गई, परंतु शेखर के पास पहुचते ही धीमे स्वर बोली- ‘तुमसे कुछ बात कहनी है।’
शेखर ने आश्चर्यचकित हो पूछा- ‘किससे कहनी है, क्या मुझसे?’
ललिता- ‘हां, तुम्हीं से कहनी है।’
शेखर- ‘अब कौन सी बात मुझसे कहने के लिए शेष रह गई?’
ललिता चुपचाप सुन्न-सी उसी स्थान पर खड़ी फिर गहरी सांस छोड़कर धीरे-धीरे चली गई।
दूसरे दिन शेखर अपनी बैठक मैं बैठा हुआ अखबार पढ़ रहा था। इसी बीच ज्यों ही सने अपनी दृष्टि ऊपर फेंकी, तो दिखाई पड़ा कि गिरीन्द्र उसके पास आ रहा है। निकट आकर गिरीन्द्र एक कुर्सी पर बैठ गया। शेखर ने नमस्कार किया और अखबार को एक तरफ रख दिया। फिर उसकी ओर उसने दृष्टि डाली, मानो उसके आने का कारण जानना चाहता हो! थोड़ी देर दोनों एक-दूसरे को देखते रहे, किसी ने कोई बात न छेड़ी। आज तक किसी ने इस विषय में बात करने की इच्छा भी प्रकट न की थी।
गिरीन्द्र ने काम की बात प्रारम्भ की। वह बोला- ‘किसी विशेष के लिए आज आपको कष्ट देने आया हूँ। मेरी सास जो जाहती है, वह तो आपको पता ही है। उनकी इच्छा अपना मकान आप लोगों के हाथ बचने की है। उन्हीं का संदेश लेकर मैं आया हूँ। इस घर का जितना शीध्र तोड़-ताड़ हो जाए, वह मुंगेर इसी माह में वापस चली जाए।’
गिरीनद्र को देखते ही, शेखर के हृदय में एक तेज तूफान उमड़ा हुआ था। गिरीन्द्र की बातें उसको अच्छी न लगीं। उसने गुस्से में कहा- ‘यह सब ठीक है, पर बाबूजी के मरने के बाद से बड़ै भैया ही कर्ता-धर्ता हैं। उन्हीं की राय से सब कार्य होते हैं। उनके पास ही जाकर यह सब कहिए।’
मुस्कराते हुए गिरीन्द्र ने कहा- ‘यह बात हमको भी ज्ञात है, परंतु इस बात को आप ही कहें, तो अच्छा होगा।’
उसी भाव से शेखर ने कहा- ‘आपके कहने से भी तो काम बन सकता है। इस समय तो आप ही उस पक्ष के सर्वोपरि हैं।’
गिरीन्द्र ‘यदि मेरे कहने की आवश्यकता हो, तो मैं कहे देता हूँ, परंतु कल छोटी दीदी कह रही थीं कि आप तनिक ध्यान दे दें, तो सारा काम मिनटों में बन जाएगा।’
शेखर एक मोटे तकिए के सहारे बैठा हुआ बातें कर रहा था। गिरीन्द्र के ये शब्द कानों में पड़ने पर वह चौककर उठ बैठा और बोला- ‘किसने कहा? जरा फिर सुनूं कि आपने क्या कहा?’
गिरीन्द्र- ‘ललिता दीदी कह रही थीं।’
शेखर- ‘ललिता दीदी’ शब्द सुनकर आश्चर्यचकित हो गया। वह आगे की बात सुन ही नहीं सका कि गिरीन्द्र ने क्या कहा। बड़ी उत्कण्ठा के साथ, विह्वल भाव से गिरीन्द्र की ओर देखते हुए उसने पूछा- ‘गिरीन्द्र बाबू, मुझे क्षमा करना, आपका पाणिग्रहण ललिता के साथ नहीं हुआ?’
गिरीन्द्र ने दांतो के नीचे जीभ दबाते हुए कहा- ‘नहीं, बस घर के सभी लोगों को तो आप जानते ही हैं। अन्नाकाली के साथ मेरा विवाह…।’
ललिता के मुंह से गिरीन्द्र को सभी बांते मालूम हो चुकी थी। बोला- ‘हां, तय तो कुछ और ही हुआ था, अन्नाकाली के साथ शादी की बात न हुई थी। प्राण निकलते समय गुरुचरण बाबू ने मुझसे कहा था कि मैं अन्यत्र अपनी शादी न करुं। मैंने उनसे उस समय वादा किया था। उनके मरने के बाद, ललिता दीदीने सब बांते मुझे समझाकर कहीं कि ‘वास्तव में किसी को यह मालूम नहीं है कि उनके पतिदेव जीवित हैं या उनकी शादी हो गयी है। शायद दूसरे स बात को सुनकर उनपर विश्वास न करते, परंतु मैंने तुरंत उन पर विश्वास कर लिया। इसके सिवा किसी भी स्त्री का एक से अधिक ब्याह भी नहीं हो सकता-और क्या?’
शेखर की आँखो में पहले से आँसू भरे थे। इस समय तो उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे और उसे किसी बात की सुध भी न थी। उसे यह भी ध्यान न था कि एक पुरूष दूसरे के सामने इस प्रकार आँसू बहाए, एस लज्जा का उसे अनुभव भी न था।
गिरीन्द्र की ओर शेखर भौंचक्का-सा देखता रहा। उसका हृदय पहले से ही शंकित था। ललिता के पतिदेव को आज उसने जान लिया। आँसू पोंछते हुए शेखर ने कहा- ‘लेकिन ललिता को आप चाहते हैं?’
गिरीन्द्र के मुख पर वेदना का क्षणिक आभास हुआ, परंतु शीध्र ही अपने को संभालकर वह हंस दिया और प्रश्न के उत्तर में कहा- ‘आपके इस प्रश्न का उत्तर देना व्यर्थ है। प्यारे कितना भी क्यों न हो, फिर भी किसी ब्याही हुई स्त्री से कोई ब्याह नहीं करता। खैर, जीने दे इन बातों को, मैं अपने से बड़ों के सामने इस तरह की बातें नहीं किया करता।’
गिरीन्द्र ने एक बार हंसकर खड़े होते हुए कहा- ‘फिर मैं जा रहा हूँ, बाद में मुलाकात होगी।’ इतना कहकर प्रणाम करके वह चला गया।
शेखर पहले से ही गिरिन्द्र के प्रति घ्वेषभाव रखता था। आजकल इस अवसर पर तो उस देष ने और भी भयंकर रूप धारण कर लिया। परंतु आज गिरीन्द्र के चले जाने पर उस को, जहाँ पर गिरीन्द्र बैठा था, बार-बार मस्तक झुकाकर वह प्रणाम करता रहा। आदमी कितना बड़ा त्यागी हो सकता है, हंसते-हंसते कितने कठिन-से-कठिन प्रण कर बैठता है-यह अनुभव उसे अपने जीवन में आज पहली बार हुआ।
दोपहर के बाद भुवनेश्वरी ललिता की मदद से कपड़े ठीक-ठाक करके रख रही थी। उसी समय शेखर भी वहाँ जाकर माँ के बिछौने पर जा बैठा। आज वह ललिता को देखकर भी दूर न जा सका।
भुवनेश्वरी ने उसकी ओर देखकर कहा- ‘क्यों बेटा?’
पहले तो निरुत्तर होकर कपड़ो की ओऱ देखता रहा। फिर थोड़ी देर बात पूछा- ‘माँ, यह क्या हो रहा है?’
भुवनेश्वरी ने कहा-‘कितने कपड़े चाहिए, किस प्रकार से दिए जाएंगे, इसी सबका इन्तजाम कर रही हूँ। अभी तो और भी कपड़े मंगाने पडेंगे। क्यों बेटी ललिता?’
ललिता ने सिर हिलाकर समर्थन किया।
शेखर ने मुस्कराते हुए कहा- ‘यदि मैं अपना ब्याह न करुं तो माँ?’
भुवनेश्वरी ने हंसकर कहा- ‘तुम यह भी कर सकते हो?’
शेखर- ‘तो फिर ऐसा ही समझिए माँ’
व्यग्रतापूर्वक माँ ने कहा- ‘यह कैसी अशुभ बात मुंह से निकाल रहे हो? अब ऐसी बात मत कहना!’
शेखर- ‘अब तक मैं चुप्पी सीधे रहा माँ, किन्तु अब चुप रहने में भलाई नहीं है। काम सब भले ही सत्यानाश हो जाए मेरे लिए अब चुप रहना कलंक होगा माँ’
भुवनेश्वरी इन बातों का आशय न समझ सकी थी। वे शोकाकुल भाव में शेखर ओऱ देखने लगी।
शेखर ने कहा- ‘तुमने अपने बेटे के अब तक के सभी गुनाह माफ किए है। यह भी एक गुनाह माफ कर देना। वास्तव में मैं यह शादी न कर सकूंगा!’
शेखर की इस बात को सुनकर भुवनेश्वरी की व्यग्रता और भी बढ़ गई, परंतु इस भाव को प्रकट न करके उन्होंने कहा- ‘अच्छा बैटा, ठीक है। इस समय मुझे बहुत-से आवश्यक कार्य करने हैं।’
शेखर ने हंसने का-सा मुंह बनाकर सूखे स्वर में कहा- ‘मैं तुमसे बिल्कुल सत्य कहता हूँ, माँ। यह शादी कतई नहीं हो सकती।’
भुवनेश्वरी- ‘यह भी क्या बच्चों का खेल है, बेटा?’
शेखर- ‘यह बच्चों का खेल नहीं है, इसी कारण तो मैं तुमसे बार-बार कहता हूँ, माँ।’
इस बार सचमुच ही कुछ क्रोध करके भुवनेश्वरी ने कहा- ‘मुझे ठीक-ठीक बता, बात क्या है? इस प्रकार गोल-गोल बातें मुझे न ही भली लगतीं हैं ओर न ही उन्हें समझा पाती हूँ।’
धीमे स्वर में शेखर ने कहा-‘किसी दूसरे दिन सुन लोगी, मैं सभी बातें स्पष्ट रूप से तुम्हारे सामने रख दूंगा, माँ!
‘किसी दूसरे दिन कहेगा?’ कपड़ों को एक बार किनारे हटाते हुए भुवनेश्वरी ने कहा- ‘ललिता भी मेरे साथ जाने के लिए तैयार बैठी है। देखूं उसका कुछ प्रबंध कर सकती हूँ अथवा नहीं।’
इस बार शेखर ने मुंह उठाकर कहा- ‘माँ, जब तुम उसको साथ ले जा रही हो, तो उसके लिए कुछ बंदोबस्त करने की आवश्यकता क्या है? तुम्हारी आज्ञा से बढ़कर उसके लिए और किसकी आज्ञा हो सकती है।’
शेखर को हंसते देखकर वह बड़े ही आश्चर्य में पड़ गई, और एक बार ललिता की ओऱ देखकर बोली- ‘बेटी! इसकी बातें सुनती हो न। यह समझता है कि मैं अपनी इच्छा से, जो भी जाहूँ तुमसे कह सकती हूँ, जहाँ चाहूँ, ले जा सकती हूँ शायद वह तुम्हारी मामी से पूछने की भी जरूरत नहीं अनुभव करता।’
ललिता बिल्कुल चुप रही, पर शेखर की बातचीत और भावों को देखकर वह शर्म के मारे जमीन के अन्दर घंसी जा रही थी।
शेखर ने फिर कहा- ‘यदि तुम इसकी मामी को सूचना देना ही चाहती हो, तो वह तुम्हारी मर्जी, परंतु होगा वही, जो तुम कहोगी। मैं तो यह कहता हूँ कि इसमें तनिक भी संदेह नहीं। जिसको तुम साथ ले जाना चाहती हो उसे तनिक भी इनकार न होगा। वह तुम्हारी, बहू है माँ, यह कहकर शेखर ने अपना सिर झुका लिया।
भुवनेश्वरी आश्चर्य में पड़ गई, जन्म देने वाली माँ के सम्मुख पुत्र इतना परिहास, लेकिन अपने को संभालकर उन्होंने कहा, ‘क्या कह रहा है शेखर, ललिता मेरी कौन है?’
शेखर ने मुंह ऊपर नहीं उठाया और धीरे-धीरे बोला, बल्कि चार वर्ष पहले की बात है। तुम उसकी सास हो माँ, और वह तुम्हारी पुत्रवधु है। अधिक मैं कहने में असमर्थ हूँ माँ! ‘तुम उससे ही सब पूछ लो।’ यह कहने के पश्चात् शेखर ने देखा कि ललिता गले में आंचल डालकर माँ को प्रणाम करने का उपक्रम कर रही है। वह भी उसके बगल मैं आकर खड़ा हो गया। दोनों ने आशीर्वाद पाने की लालसा, से झुककर माँ को प्रणाम किया। दोनों घुटने टेक्कर जमीन पर नतमस्तक हो गए। इसके पश्चात् शेखर एक मिनिट भी न रुक सका और वहाँ से चला गया।
भुवनेश्वरी बड़ी ही प्रसन्न थी। उनकी आँखों में खुशी के आँसू उमड़ आए। वास्तव में वह ललिता को हृदय से प्यार करती थी, बिल्कुल सगी पुत्री की ही भांति उसे समझती थी। खुशी से उन्होंने ललिता को अपने पास खींच लिया और उसके सामने गहने वाला सन्दूक खोलकर रख दिया। थोड़ी ही देर में उन्होंने ललिता के संपूर्ण अंगो को गहनों से आभूषित कर दिया। फिर ललिता से कहा- ‘क्या इसी कारण गिरीन्द्र का ब्याह अन्नाकाली से हुआ?’
ललिता ने सिर झुकाए कहा- ‘हां, माँ। इस संसार में गिरीन्द्र बाबू की भांति सत्य पुरुष होना कठिन है। जब मैंने उनसे अपनी बातें बताई, तो उन्होंने मेरे कहने पर विश्वास कर लिया। उन्होंने समझ लिया कि मैं ‘परिणीता’ हूँ। मेरे पतिदेव इस संसार में मौजूद अवश्य हैं पर मुझे अपनाएं या न अपनाएं- यही उनकी अपनी इच्छा है। इतना सुनकर गिरीन्द्र ने औऱ आगे जानने की चेष्टा न की।’
भुवनेश्वरी बहुत ही प्रसन्न थीं। उन्होंने ललिता के मस्तक पर हाथ रखकर कहा- ‘मैं आशीर्वाद देती हूँ कि तुम दोनों दीर्धजीवी हो। अच्छा, बेटी, तुम यही ठहरो! और मैं जाकर बड़े पुत्र अविनाश को बता आऊं कि ब्याह की लड़की बदल गई है।’
यह कहकर भुवनेश्वरी हंसती हुई प्रसन्नचित से अविनाश के कमरे की ओर चली गई, और ललिता नई बहू की भांति सिर पर घूंघट डालकर बैठ गई।
समाप्त