वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 1

वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

प्रवचन

अपने जीवन के पूर्वाह्न में—सन् 1909 में, जब भाग्य रुपयों से भरी थैलियां मेरे हाथों में पकड़ाना चाहता था—मैंने कलम पकड़ी। इस बात को आज 40 वर्ष बीत रहे हैं। इस बीच मैंने छोटी- बड़ी लगभग 84 पुस्तकें विविध विषयों पर लिखीं, अथच दस हज़ार से अधिक पृष्ठ विविध सामयिक पत्रिकाओं में लिखे। इस साहित्य-साधना से मैंने पाया कुछ भी नहीं, खोया बहुत-कुछ, कहना चाहिए, सब कुछ–धन, वैभव, आराम और शान्ति। इतना ही नहीं, यौवन और सम्मान भी। इतना मूल्य चुकाकर निरन्तर चालीस वर्षों की अर्जित अपनी सम्पूर्ण साहित्य-सम्पदा को मैं आज प्रसन्नता से रद्द करता हूं; और यह घोषणा करता हूं—कि आज मैं अपनी यह पहली कृति विनयांजलि-सहित आपको भेंट कर रहा हूं।

यह सत्य है कि यह उपन्यास है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि यह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय और मिश्रित जातियों की प्रगतिशील संस्कृति की विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे सम्भवतः किसी इतिहासकार ने आंख उघाड़कर देखा नहीं है।

मैंने जो चालीस वर्षों से तन-मन-धन से साधित अपनी अमूल्य साहित्य-सम्पदा को प्रसन्नता से रद्द करके इस रचना को अपनी पहली रचना घोषित किया है, सो यह इस रचना के प्रति मात्र मेरी व्यक्तिगत निष्ठा है; परन्तु इस रचना पर गर्व करने का मेरा कोई अधिकार नहीं है। मैं केवल आपसे एक यह अनुरोध करता हूं कि इस रचना को पढ़ते समय उपन्यास के कथानक से पृथक् किसी निगूढ़ तत्त्व को ढूंढ़ निकालने में आप सजग रहें। संभव है, आपका वह सत्य मिल जाए, जिसकी खोज में मुझे आर्य, बौद्ध, जैन और हिन्दुओं के साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन दस वर्ष करना पड़ा है।

ज्ञानधाम
दिल्ली-शाहदरा
1-1-49
-चतुरसेन

प्रवेश : वैशाली की नगरवधू

1मुजफ्फरपुर से पश्चिम की ओर जो पक्की सड़क जाती है—उस पर मुजफ्फरपुर से लगभग अठारह मील दूर ‘वैसौढ़’ नामक एक बिलकुल छोटा-सा गांव है। उसमें अब तीस-चालीस घर भूमिहार ब्राह्मणों के-और कुछ गिनती के घर क्षत्रियों के बच रहे हैं। गांव के चारों ओर कोसों तक खण्डहर, टीले और पुरानी टूटी-फूटी मूर्तियां ढेर-की-ढेर मिलती हैं, जो इस बात की याद दिलाती हैं कि कभी यहां कोई बड़ा भारी समृद्ध नगर बसा रहा होगा।

वास्तव में वहां, अब से कोई ढाई हज़ार वर्ष पूर्व एक विशाल नगर बसा था। आजकल जिसे गण्डक कहते हैं, उन दिनों उसका नाम ‘सिही’ था। आज यह नदी यद्यपि इस गांव से कई कोस उत्तर की ओर हटकर बह रही है; किन्तु उन दिनों यह दक्षिण की ओर इस वैभवशालिनी नगरी के चरणों को चूमती हुई दिधिवारा के निकट गंगा में मिल गई थी। इस विशाल नगरी का नाम वैशाली था। यह नगरी अति समृद्ध थी। उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियां थीं। धन-जन से परिपूर्ण यह नगरी तब अपनी शोभा की समता नहीं रखती थी।

यह लिच्छवियों के वज्जी संघ की राजधानी थी। विदेह राज्य टूटकर यह वज्जी संघ बना था। इस संघ में विदेह, लिच्छवि, क्षात्रिक, वज्जी, उग्र, भोज, इक्ष्वाकु और कौरव ये आठ कुल सम्मिलित थे, जो अष्टकुल कहलाते थे। इनमें प्रथम चार प्रधान थे। विदेहों की राजधानी मिथिला, लिच्छवियों की वैशाली, क्षात्रिकों की कुण्डपुर और वज्जियों की कोल्लाग थी। वैशाली पूरे संघ की राजधानी थी। अष्टकुल के संयुक्त लिच्छवियों का यह संघव्रात्य संकरों का संघ था और इनका यह गणतन्त्र पूर्वी भारत में तब एकमात्र आदर्श और सामर्थ्यवान् संघ था, जो प्रतापी मगध साम्राज्य की उस समय की सबसे बड़ी राजनीतिक और सामरिक बाधा थी।

नगरी के चारों ओर काठ का तिहरा कोट था, जिसमें स्थान-स्थान पर गोपुर और प्रवेश-द्वार बने हुए थे। गोपुर बहुत ऊंचे थे और उन पर खड़े होकर मीलों तक देखा जा सकता था। प्रहरीगण हाथों में पीतल के तूर्य ले इन्हीं पर खड़े पहरा दिया करते थे। आवश्यकता होते ही वे उन्हें बजाकर नगर को सावधान कर देते और प्रतिहार तुरन्त नगर- रक्षकों को संकेत कर देते। इसके बाद आनन-फानन सैनिक हलचल नगर के प्रकोष्ठों में दीखने लगती थी। सहस्रों भीमकाय योद्धा लोह-वर्म पहने, शस्त्र-सज्जित, धनुष-बाण लिए, खड्ग चमकाते, चंचल घोड़ों को दौड़ाते प्राचीर के बाहरी भागों में आ जुटते थे।

वज्जी संघ का शासन एक राज-परिषद् करती थी, जिसका चुनाव हर सातवें वर्ष उसी अष्टकुल में से होता था। निर्वाचित सदस्य परिषद् में एकत्र होकर वज्जी-चैत्यों, वज्जी संस्थाओं और राज्य-व्यवस्था का पालन करते थे। शिल्पियों और सेट्ठियों के नगर में पृथक् संघ थे। शिल्पियों के संघ श्रेणी कहाते थे, और प्रत्येक श्रेणी का संचालन उसका जेट्ठक करता था। जल, थल और अट्टवी के नियामकों की श्रेणियां पृथक् थीं। नगर में श्रेणियों के कार्यालय और निवास पृथक्-पृथक् थे। बाहरी वस्तुओं का क्रय-विक्रय भी पृथक्-पृथक् हट्टियों में हुआ करता था। परन्तु श्रेणियों का माल अन्तरायण में बिकता था। सेट्ठियों के संघ निगम कहाते थे। सब निगमों का प्रधान नगरसेट्ठि कहाता था और उसकी पद-मर्यादा राजनीतिक और औद्योगिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती थी।

वत्स, कोसल, काशी और मगध साम्राज्य से घिरा रहने तथा श्रावस्ती से राजगृह के मार्ग पर अवस्थित रहने के कारण यह स्वतन्त्र नागरिकों का नगर उन दिनों व्यापारिक और राजनीतिक संघर्षों का केन्द्र बना हुआ था। देश-देश के व्यापारी, जौहरी, शिल्पकार और यात्री लोगों से यह नगर सदा परिपूर्ण रहता था। ‘श्रेष्ठिचत्वर’ में, जो यहां का प्रधान बाज़ार था, जौहरियों की बड़ी-बड़ी कोठियां थीं, जिनकी व्यापारिक शाखाएं समस्त उत्तराखण्ड से दक्षिणापथ तक फैली हुई थीं। सुदूर पतित्थान से माहिष्मती, उज्जैन, गोनर्द, विदिशा, कौशाम्बी और साकेत होकर पहाड़ की तराई के रास्ते सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हस्तिग्राम और भण्डग्राम के मार्ग से बड़े-बड़े सार्थवाह वैशाली से व्यापार स्थापित किए हुए थे। पूर्व से पश्चिम का रास्ता नदियों द्वारा था। गंगा में सहजाति और यमुना में कौशाम्बी-पर्यन्त नावें चलती थीं। वैशाली से मिथिला के रास्ते गान्धार को, राजगृह के रास्ते सौवीर को, तथा भरुकच्छ के रास्ते बर्मा को और पतित्थान के रास्ते बेबिलोन तथा चीन तक भी भारी-भारी सार्थवाह जल और थल पर चलते रहते थे। ताम्रपर्णी, स्वर्णद्वीप, यवद्वीप आदि सुदूर-पूर्व के द्वीपों का यातायात चम्पा होकर था।

श्रेष्ठिचत्वर में बड़े-बड़े दूकानदार स्वच्छ परिधान धारण किए, पान की गिलौरियां कल्लों में दबाए, हंस-हंसकर ग्राहकों से लेन-देन करते थे। जौहरी पन्ना, लाल, मूंगा, मोती, पुखराज, हीरा और अन्य रत्नों की परीक्षा तथा लेन-देन में व्यस्त रहते थे। निपुण कारीगर अनगढ़ रत्नों को शान पर चढ़ाते, स्वर्णाभरणों को रंगीन रत्नों से जड़ते और रेशम की डोरियों में मोती गूंथते थे। गन्धी लोग केसर के थैले हिलाते, चन्दन के तेल में गन्ध मिलाकर इत्र बनाते थे, जिनका नागरिक खुला उपयोग करते थे। रेशम और बहुमूल्य महीन मलमल के व्यापारियों की दुकान पर बेबिलोन और फारस के व्यापारी लम्बे-लम्बे लबादे पहने भीड़ की भीड़ पड़े रहते थे। नगर की गलियां संकरी और तंग थीं, और उनमें गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी थीं, जिनके अंधेरे और विशाल तहखानों में धनकुबेरों की अतुल सम्पदा और स्वर्ण-रत्न भरे पड़े रहते थे।

संध्या के समय सुन्दर वाहनों, रथों, घोड़ों, हाथियों और पालकियों पर नागरिक नगर के बाहर सैर करने राजपथ पर आ निकलते थे। इधर-उधर हाथी झूमते बढ़ा करते थे और उनके अधिपति रत्नाभरणों से सज्जित अपने दासों तथा शरीर-रक्षकों से घिरे चला करते थे।

2

दिन निकलने में अभी देर थी। पूर्व की ओर प्रकाश की आभा दिखाई पड़ रही थी। उसमें वैशाली के राजप्रासादों के स्वर्ण-कलशों की धूमिल स्वर्णकान्ति बड़ी प्रभावोत्पादक दीख पड़ रही थी। मार्ग में अभी अंधेरा था। राजप्रासाद के मुख्य तोरण पर अभी प्रकाश दिख रहा था। पार्श्व के रक्षागृहों में प्रहरी और प्रतिहार पड़े सो रहे थे। तोरण के बीचोंबीच एक दीर्घकाय मनुष्य भाले पर टेक दिए ऊंघ रहा था।

धीरे-धीरे दिन का प्रकाश फैलने लगा। राजकर्मचारी और नागरिक इधर-उधर आने-जाने लगे। किसी-किसी हर्म्य से मृदुल तंतुवाद्य की झंकार के साथ किसी आरोह अवरोह की कोमल तान सुनाई पड़ने लगी। प्रतिहारों का एक नया दल तोरण पर आ पहुंचा। उसके नायक ने आगे बढ़कर भाले के सहारे खड़े ऊंघते मनुष्य को पुकारकर कहा—’सावन्त महानामन्, सावधान हो जाओ और घर जाकर विश्राम करो।’ महानामन् ने सजग होकर अपने दीर्घकाय शरीर का और भी विस्तार करके एक ज़ोर की अंगड़ाई ली और ‘तुम्हारा कल्याण हो नायक’, कहकर वह अपना भाला पृथ्वी पर टेकता हुआ तृतीय तोरण की ओर बढ़ गया।

सप्तभूमि राजप्रासाद के पश्चिम की ओर प्रासाद का उपवन था, जिसकी देख-रेख नायक महानामन् के ही सुपुर्द थी। यहीं वह अपनी प्रौढ़ा पत्नी के साथ अड़तीस वर्ष से अकेला एकरस आंधी-पानी, सर्दी-गर्मी में रहकर गण की सेवा करता था।

अभी भी वह नींद में ऊंघता हुआ झूम-झूमकर चला जा रहा था। अभी प्रभात का प्रकाश धूमिल था। उसने आगे बढ़कर, आम्रकुंज में एक आम्रवृक्ष के नीचे, एक श्वेत वस्तु पड़ी रहने का भान किया। निकट जाकर देखा, एक नवजात शिशु स्वच्छ वस्त्र में लिपटा हुआ अपना अंगूठा चूस रहा है। आश्चर्यचकित होकर महानामन् ने शिशु को उठा लिया। देखा–कन्या है। उसने कन्या को उठाकर हृदय से लगाया और अपनी स्त्री को वह कन्या देकर कहा—देखो, आज इस प्रकार हमारे जीवन की एक पुरानी साध मिटी।

और वह उसी आम्र-कानन में उस एकाकी दम्पती की आंखों के आगे शशि-किरण की भांति बढ़ने लगी। उसका नाम रखा गया ‘अम्बपाली’, उसी आम्रवृक्ष की स्मृति में, जहां से उसे पाया गया था।

3

ग्यारह बरस बाद! वैशाली के उत्तर-पश्चिम पचीस-तीस कोस पर अवस्थित एक छोटे-से ग्राम में एक वृद्ध अपने घर के द्वार पर प्रातःकाल के समय दातुन कर रहा था। पैरों की आहट सुनकर उसने पीछे की ओर देखा। चम्पक-पुष्प की कली के समान ग्यारह वर्ष की एक अति सुन्दरी बालिका, जिसके घुंघराले बाल हवा में लहरा रहे थे, दौड़ती हुई बाहर आई, और वृद्ध को देखकर उससे लिपटने के लिए लपकी, किन्तु पैर फिसलने से गिर गई। गिरकर रोने लगी। वृद्ध ने दातुन फेंक, दौड़कर बालिका को उठाया, उसकी धूल झाड़ी और उसे हृदय से लगा लिया। बालिका ने रोते-रोते कहा—’बाबा, देखा है तुमने रोहण का वह कंचुक? वह कहता है, तेरे पास नहीं है ऐसा। वैशाली की सभी लड़कियां वैसा ही कंचुक पहनती हैं, मैं भी वैसा ही कंचुक लूंगी बाबा!’

वृद्ध की आंखों में पानी और होंठों पर हास्य आया। उसने कहा—”अच्छा, अच्छा मैं तुझे वैशाली से वैसा ही कंचुक मंगा दूंगा बेटी!”

“पर बाबा, तुम्हारे पास दम्म कहां हैं? वैसा बढ़िया चमकीला कंचुक छः दम्म में आता है, जानते हो?”

“हां, हां, जानता हूं।”

वृद्ध की भृकुटि कुंचित हुई और ललाट पर चिन्ता की रेखा पड़ गई। वृद्ध की पत्नी को मरे आठ साल बीत चुके थे। उसके बाद कन्या की परिचर्या में बाधा पड़ती देख सावन्त महानामन् राजसेवा त्यागकर अपने ग्राम में आ कन्या की सेवा-शुश्रूषा में अबाध रूप से लगे रहते थे। अम्बपाली को उन्होंने इस भांति पाला था जैसे पक्षी चुग्गा देकर अपने शिशु को पालता है। अब उनकी छोटी-सी कमाई की क्षुद्र पूंजी यत्न से खर्च करने पर भी समाप्त हो गई थी। यहां तक कि पत्नी की स्मृतिरूप जो दो-चार आभरण थे, वे भी एक-एक करके उसकी उदर-गुहा में पहुंच चुके थे! अब आज जैसे उसने देखा—उसके प्राणों की पुतली यह बालिका जीवन में आगे बढ़ रही है, उसकी अभिलाषाएं जाग्रत् हो रही हैं और भी जाग्रत् होंगी। यही सोचकर वृद्ध महानामन् चिन्तित हो उठे। किन्तु उन्होंने हंसकर तड़ातड़ तीन चार चुम्बन बालिका के लिए और गोद से उतारकर कहा—”वैसा ही बढ़िया कंचुक ला दूंगा बेटी!”

बालिका खुश होकर तितली की भांति घर में भाग गई और वृद्ध की आंखों से दो-तीन बूंद गर्म आंसू टपक पड़े। वे चिन्तित भाव से बैठकर सोचने लगे—एक बार फिर वैशाली चलकर पुरानी नौकरी की याचना की जाए। वृद्ध का बाहुबल थक चुका था किन्तु क्या किया जाए। कन्या का विचार सर्वोपरि था, परन्तु वृद्ध के चिन्तित होने का केवल यही कारण न था। लाख वृद्ध होने पर भी उसकी भुजा में बल था—बहुत था। पर उसकी चिन्ता थी—बालिका का अप्रतिम सौन्दर्य। सहस्राधिक बालिकाएं भी क्या उस पारिजात कुसुमतुल्य कुन्द-कलिका के समान हो सकती थीं? किस पुष्प में इतनी गन्ध, कोमलता और सौन्दर्य था? उन्हें भय था कि वज्जियों के उस विचित्र कानून के अनुसार उनकी कन्या विवाह से वंचित करके कहीं ‘नगरवधू’ न बना दी जाय। वज्जी गणतन्त्र में यह विचित्र कानून था कि उस गणराज्य में जो कन्या सर्वाधिक सुन्दरी होती थी, वह किसी एक पुरुष की पत्नी न होकर ‘नगरवधू’ घोषित की जाती थी और उस पर सम्पूर्ण नागरिकों का समान अधिकार रहता था। उसे ‘जनपद-कल्याणी’ की उपाधि प्राप्त होती थी। कन्या के अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर वृद्ध महानामन् वास्तव में इसी भय से राजधानी छोड़कर भागे थे, जिससे किसी की दृष्टि बालिका पर न पड़े। पर अब उपाय न था। महानामन् ने एक बार फिर वैशाली जाने का निर्णय किया।

4

फागुन बीत रहा था। वैशाली में संध्या के दीये जल गए थे। नागरिक और राजपुरुष अपने-अपने वाहनों पर सवार घरों को लौट रहे थे। रंग-बिरंगे वस्त्र पहने बहुत-से स्त्री-पुरुष इधर से उधर आ-जा रहे थे। धीरे-धीरे यह चहल-पहल कम होने लगी और राजपथ पर अन्धकार बढ़ चला। नगर के दक्षिण प्रान्त में मद्य की एक दूकान थी। दूकान में दीया जल रहा था। उसके धीमे और पीले प्रकाश में बड़े-बड़े मद्यपात्र कांपते-से प्रतीत हो रहे थे। बूढ़ा दूकानदार बैठा ऊंघ रहा था। सड़कें अभी से सूनी हो चली थीं। अब कुछ असमृद्ध लोग ही इधर-उधर आ-जा रहे थे, जिनमें मछुए, कसाई, मांझी, नाई, कम्मकार आदि थे। वास्तव में इधर इन्हीं की बस्ती अधिक थी।

वृद्ध महानामन् बालिका की उंगली पकड़े एक दूकान के आगे आ खड़े हुए। वे बहुत थक गए थे और बालिका उनसे भी बहुत अधिक। महानामन् ने थकित किन्तु स्नेह-भरे स्वर में कहा—”अन्त में हम आ पहुंचे, बेटी!”

“क्या यही नगर है बाबा? कहां, वैसे कंचुक यहां-कहां बिकते हैं?”

“यह उपनगर है, नगर और आगे है। परन्तु आज रात हम यहीं कहीं विश्राम करेंगे। अब हमें चलना नहीं होगा। तुम तनिक यहीं बैठो, बेटी।”

यह कहकर वृद्ध महानामन् और आगे बढ़कर दूकान के सामने आ गए। महानामन् का कण्ठ-स्वर सुनकर बूढ़ा दूकानदार ऊंघ से चौंक उठा था, अब उसने उन्हें सामने खड़ा देखकर कहा—

“हां, हां, मेरी दूकान में सब-कुछ है, क्या चाहिए? कैसा पान करोगे—दाक्खा लाजा, गौड़ीय, माध्वीक, मैरेय?” फिर उसने घूरकर वृद्ध महानामन् को अन्धकार में देखा और उसे एक दीन भिक्षुक समझकर कहा—”किन्तु मित्र मैं उधार नहीं बेचता। दम्म या कहापण पास हों तो निकालो।” वृद्ध महानामन् ने एक कदम आगे बढ़कर कहा—”तुम्हारा कल्याण हो नागरिक, परन्तु मुझे पान नहीं, आश्रय चाहिए। मेरे साथ मेरी बेटी है, हम लोग दूर से चले आ रहे हैं, यहां कहीं निकट में विश्राम मिलेगा? मैं शुल्क दे सकूंगा।”

बूढ़े दूकानदार ने सन्देह से महानामन् को देखते हुए कहा—”शुल्क, तुम दे सकते हो, सो तो है, परन्तु भाई तुम हो कौन? जानते हो, वैशाली में बड़े-बड़े ठग और चोर-दस्यु नागरिक का वेश बनाकर आते हैं। वैशाली की सम्पदा ही ऐसी है भाई, मैं सब देखते-देखते बूढ़ा हुआ हूं।”

वह और भी कुछ कहना चाहता था, परन्तु इसी समय दो तरुण बातें करते-करते उसकी दूकान पर आ खड़े हुए। बूढ़े ने सावधान होकर दीपक के धुंधले प्रकाश में देखा, दोनों राजवर्गी पुरुष हैं, उनके वस्त्र और शस्त्र अंधेरे में भी चमक रहे थे।

बूढ़े ने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहा—”श्रीमानों को क्या चाहिए? गौड़ीय, माध्वीक, दाक्खा—?”

“अरे, पहले दस्यु की बात कह! कहां हैं दस्यु, बोल?” आगन्तुक में से एक तरुण ने अपना खड्ग हिलाते हुए कहा।

बूढ़े की घिग्घी बंध गई। उसने हाथ जोड़कर कहा—”दस्यु की बात कुछ नहीं श्रीमान् यह बूढ़ा ग्रामीण कहीं से आकर रात-भर के लिए विश्राम खोजता है। मुझे भय है, नहीं, नहीं, श्रीमान्, मैं कभी भय नहीं करता, किसी से भी नहीं, परन्तु मुझे सन्देह हुआ—कौन जाने, कौन है यह। महाराज, आप तो देखते ही हैं कि वैशाली का महावैभव यहां बड़े-बड़े दस्युओं को खींच लाता है…।”

“बक-बक मत कर बूढ़े।” उसी तरुण ने खड्ग चमकाते हुए कहा—”उन सब दस्युओं को मैं आज ही पकडूंगा। ला माध्वीक दे।”

दोनों आगन्तुक अब आसनों पर बैठ गए। बूढ़ा चुपचाप मद्य ढालने लगा। अब आगन्तुक ने महानामन् की ओर देखा, जो अभी चुपचाप अंधेरे में खड़े थे। अम्बपाली थककर घुटनों पर सिर रखकर सो गई थी। दीपक की पीत प्रभा उसके पीले मुख पर खेलती हुई काली अलकावलियों पर पड़ रही थी। तरुण आगन्तुक ने महानामन् को सिर से पैर तक देखा और फिर अम्बपाली पर जाकर उसकी दृष्टि स्थिर हो गई। उसने वृद्ध महानामन् से कहा—”बूढ़े, कहां से आ रहे हो?”

“दूर से।”

“साथ में यह कौन है?”

“मेरी बेटी है।”

“बेटी है? कहीं से उड़ा तो नहीं लाए हो? यहां वैशाली में ऐसी सुन्दर लड़कियों के खूब दाम उठते हैं। कहो बेचोगे?”

वृद्ध महानामन् बोले—”नहीं।” क्रोध से उनके नथुने फूल उठे और होंठ सम्पुटित हो गए। वह निश्चल खड़े रहे।

कहनेवाले ने वह सब नहीं देखा। उसके होठों पर एक हास्य नाच रहा था, दूसरा साथी माध्वीक पी रहा था। पात्र खाली करके अब वह बोला। उसने हंसकर साथी से कहा—”क्यों, ब्याह करोगे?”

दूसरा ठहाका मारकर हंसा। “नहीं, नहीं, मुझे एक दासी की आवश्यकता है। छोटी-सी एक सुन्दर दासी।” वह फिर महानामन् की ओर घूमा। महानामन् धीरे-धीरे वस्त्र के नीचे खड्ग खींच रहा था। देखकर आगन्तुक चौंका।

वृद्ध महानामन् ने शिष्टाचार से सिर झुकाया। उसने कहा—”नायक, तुम्हारे इस राजपरिच्छद का मैं अभिवादन करता हूं। तुम्हें मैं पहचानता नहीं, तुम कदाचित् मेरे मित्र के पुत्र, पौत्र अथवा नाती होगे। अब से 11 वर्ष पूर्व मैं भी एक सेना का नायक था। यही राजपरिच्छद, जो तुम पहने हो, मैं पूरे बयालीस साल तक पहन चुका हूं। उसकी मर्यादा मैं जानता हूं और मैं चाहता हूं कि तुम भी जानो। इसके लिए मुझे तुम्हारे प्रस्ताव का उत्तर इस खड्ग से देने की आवश्यकता हो गई, जो अब पुराना हो गया और इन हाथों का अभ्यास और शक्ति भी नष्ट हो गई है। परन्तु कोई हानि नहीं। आयुष्मान्! तुम खड्ग निकालो और तनिक कष्ट उठाकर आगे बढ़कर उधर मैदान में आ जाओ। यहां लड़की थककर सो गई है, ऐसा न हो, शस्त्रों की झनकार से वह जग जाए।”

तरुण मद्यपात्र हाथ में ले चुका था। अब वृद्ध महानामन् की यह अतर्कित वाणी सुन, उसने हाथ का मद्यपात्र फेंक खड्ग निकाल लिया और उछलकर आगे बढ़ा।

तरुण का दूसरा साथी कुछ प्रौढ़ था। उसने हाथ के संकेत से साथी को रोककर आगे बढ़कर बूढ़े से कहा—”आप यदि कभी वैशाली की राजसेना में नायक रह चुके हैं तो आपको नायक चन्द्रमणि का भी स्मरण होगा?”

“चन्द्रमणि! निस्सन्देह, वे मेरे परम सुहृद थे। नायक चन्द्रमणि क्या अभी हैं?” महानामन् ने दो कदम आगे बढ़कर कहा।

“हैं, यह तरुण उन्हीं का पुत्र है। आपका नाम क्या है भन्ते?”

महानामन् ने खड्ग कोष में रख लिया, कहा—”मेरा नाम महानामन् है। यदि यह आयुष्मान् मित्रवर चन्द्रमणि का पुत्र है तो अवश्य ही इसका नाम हर्षदेव है।” युवक ने धीरे-से अपना खड्ग वृद्ध के पैरों में रखकर कहा—”मैं हर्षदेव ही हूं, भन्ते, मैं आपका अभिवादन करता हूं।”

वृद्ध ने तरुण को छाती से लगाकर कहा—”अरे पुत्र, मैंने तो तुझे अपने घुटनों पर बैठाकर खिलाया है। आह, आज मैं बड़भागी सिद्ध हुआ। नायक के दर्शन हो सकेंगे तो?”

“अवश्य, पर अब वे हिल-डुल नहीं सकते। पक्षाघात से पीड़ित हैं। भन्ते, किन्तु आप मुझे क्षमा दीजिए।”

“इसकी कुछ चिन्ता न करो आयुष्मान्! तो, मैं कल प्रात:काल मित्र चन्द्रमणि से मिलने आऊंगा।”

“कल? नहीं-नहीं, अभी! मैं अच्छी तरह जानता हूं, आप थके हुए हैं और वह बालिका…कैसी लज्जा की बात है! भन्ते, मैंने गुरुतर अपराध…। वृद्ध ने हंसते-हंसते युवक को फिर छाती से लगाकर उसका क्षोभ दूर किया और कहा—”वह मेरी कन्या अम्बपाली है।”

“मैं समझ गया भन्ते, पितृकरण ने बहुत बार आपके विषय में चर्चा की है। चलिए अब घर! रात्रि आप यों राजपथ पर व्यतीत न करने पाएंगे।”

महानामन् ने और विरोध नहीं किया। बालिका को जगाकर दोनों तरुणों के साथ उन्होंने धीरे-धीरे नगर में प्रवेश किया।

1. धिक्कृत कानून : वैशाली की नगरवधू

उस दिन वैशाली में बड़ी उत्तेजना फैली थी। सूर्योदय के साथ ही ठठ के ठठ नागरिक संथागार की ओर जा रहे थे। संथागार की ओर जानेवाला राजमार्ग मनुष्यों से भरा हुआ था। पैदल, अश्वारोही, रथों और पालकियों पर सवार सभी प्रकार के पुरुष थे। उनमें नगरसेट्ठि, श्रेणिक और सामन्तपुत्र भी थे। संथागार का प्रांगण विविध वाहनों, मनुष्यों और उनके कोलाहल से परिपूर्ण था। बहुत-से नागरिक और सेट्ठिपुत्र संथागार की स्वच्छ संगमरमर की सीढ़ियों पर बैठे थे। बहुत-से खुले मैदान में अपने-अपने वाहनों को थामे उत्सुकता से भवन की ओर देख रहे थे। अनेक सामन्तपुत्र अपने-अपने शस्त्र चमकाकर और भाले ऊंचे करके चिल्ला-चिल्लाकर उत्तेजना प्रकट कर रहे थे। वहां उस समय सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई थी और लोग आपस में मनमानी बातें कर रहे थे। उनके बीच से होते हुए गणसदस्य अपने-अपने वाहनों से उतरकर चुपचाप गम्भीर मूर्ति धारण किए सभा भवन में जा रहे थे। दण्डधर आगे-आगे उनके लिए रास्ता करते और द्वारपाल पुकारकर उनका नाम लेकर उनका आगमन सूचित कर रहे थे।

संथागार का सभा-मण्डप मत्स्य देश के उज्ज्वल श्वेतमर्मर का बना था और उसका फर्श चिकने और प्रतिबिम्बित काले पत्थर का बना था। उसकी छत एक सौ आठ खम्भों पर आधारित थी। ये खम्भे भी काले पत्थर के बने थे। सभाभवन के चारों ओर भीतर की तरफ नौ सौ निन्यानवे हाथीदांत की चौकियां रखी थीं, जिन पर अपनी-अपनी नियुक्ति के अनुसार आठों कुल के सभ्यगण आ-आकर चुपचाप बैठ रहे थे। भवन के बीचोंबीच सुन्दर चित्रित हरे रंग के पत्थर की एक वेदी थी जिस पर दो बहुमूल्य स्वर्ण-खचित चांदी की चौकियां रखी थीं। एक पर गणपति सुनन्द बैठते थे और दूसरी पर महाबलाधिकृत सुमन। ये दोनों ही आसन अभी खाली थे। गणपति और महाबलाधिकृत अभी संथागार में नहीं आए थे। वेदी के ऊपर सोने के दण्डों पर चंदोवा तना था, जिस पर अद्भुत चित्रकारी हो रही थी और बीच में रंगीन पताकाएं फहरा रही थीं। वेदी के तीन ओर सीढ़ियां थीं और सीढ़ियों के निकट वृद्ध कर्णिक गण-सन्निपात की तमाम कार्रवाई लिखने को तैयार बैठे थे। उन्हीं के लिए छन्दशलाका ग्राहक हाथ में लाल-काली छन्दशालाओं से भरी टोकरियां लिए चुपचाप खड़े थे। अधेड़ अवस्था के कर्मचारी परिषद् की सब व्यवस्था देखभाल रहे थे तथा विनयधरों को आवश्यक आदेश दे रहे थे। उनके आदेश पर विनयधर इधर-उधर दौड़कर आदेश-पालन कर रहे थे।

गणपति और महाबलाधिकृत भी आकर अपने आसन पर बैठ गए। प्रतिहार ने सन्निपात के कार्यारम्भ की सूचना तूर्य बजाकर दी।

संथागार के बाहर खड़ी भीड़ में और भी क्षोभ फैल गया। सबके मुंह उत्तेजना से लाल हो गए। प्रत्येक व्यक्ति की आंखें चमकने लगीं। संथागार के अलिन्द में सामन्तपुत्रों और सेट्ठिपुत्रों के झुण्ड जमा हो गए। सामन्तपुत्र अपने-अपने भाले और खड्ग चमका-चमकाकर मनमाना बकने और शोर करने लगे। सेट्ठिपुत्रों का सदा का हास्यपूर्ण और निश्चिन्त मुख भी आज रौद्र मूर्ति धारण कर रहा था। वैशाली का जनपद, अन्तरायण हट्ट और श्रेष्ठिचत्वर सब बन्द थे। भीतर गणपति और गण चिन्तित भाव से बैठे किसी अयाचित घटना की प्रतीक्षा कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त अशांत, उत्तेजित और उद्वेगपूर्ण था।

एकाएक रथ का गम्भीर घोष सुनकर कोलाहल थम गया। जो जहां था, चित्रखचित-सा खड़ा रह गया। सब उन्मुख हो परिषद्-प्रांगण की ओर बढ़ते हुए रथ की ओर देखने लगे। रथ पर श्वेत कौशेय मढ़ा था और श्वेत पताका स्वर्ण-कलश पर फहरा रही थी। रथ धीर-मन्थर गति से अपनी सहस्र स्वर्ण घण्टिकाओं का घोष करता हुआ संथागार के प्रांगण में आ खड़ा हुआ। लोगों ने कौतूहल से देखा—एक भव्य प्रशांत भद्र वृद्ध पुरुष रथ से उतर रहे हैं। उनका स्वच्छ-श्वेत परिधान और लम्बी श्वेत दाढ़ी हवा में फहरा रही थी। कमर में एक लम्बा खड्ग लटक रहा था जिसकी मूठ और कोष पर रत्न जड़े थे। वृद्ध के मस्तक पर श्वेत उष्णीय था, जिस पर एक बड़ा हीरा धक्-धक् चमक रहा था। वे एक तरुण के कन्धे पर सहारा लिए धीर भाव से संथागार की सीढ़ियां चढ़ने लगे। लोगों ने आप ही उन्हें मार्ग दे दिया। सर्वत्र सन्नाटा छा गया।

परन्तु शांत वातावरण क्षण-भर बाद ही क्षुब्ध हो उठा। पहले धीरे-धीरे, फिर बड़े वेग से जनरव उठा। एक उद्धत युवक साहस करके अपना भाला सीढ़ियों में टेककर भद्र वृद्ध के सम्मुख अड़कर खड़ा हो गया। उनके नथुने क्रोध से फूल रहे थे और मुख पर समस्त शरीर का रक्त एकत्रित हो रहा था। उसने दांत पीसकर कहा—”तो भन्ते महानामन्, आप एकाकी ही आए हैं? देवी अम्बपाली नहीं आई?”

तुरन्त दस-बीस फिर शत-सहस्र सामन्तपुत्र और सेट्ठिपुत्र, श्रेणिक और नागरिक चीत्कार कर उठे—”यह हमारा, हम सबका, वैशाली के गण-विधान का घोर अपमान है, हम इसे सहन नहीं करेंगे!”

शत-सहस्र सामन्तपुत्र अपने भाले ऊंचे उठा-उठाकर और खड्ग चमका-चमकाकर चिल्ला उठे—”हम रक्त की नदी बहा देंगे, परन्तु कानून की अवज्ञा नहीं होने देंगे!” भद्र नागरिकों ने विद्रोही मुद्रा से कहा—”यह सरासर कानून की अवहेलना है। यह गुरुतर अपराध है। कानून की मर्यादा का पालन होना ही चाहिए प्रत्येक मूल्य पर!”

शत-सहस्र कण्ठों ने चिल्लाकर कहा—”किसी भी मूल्य पर!”

वृद्ध महानामन् का मुख क्षण-भर के लिए पत्थर के समान भावहीन और सफेद हो गया। उनका सीधा लम्बा शरीर जैसे तनकर और भी लम्बा हो गया। उन्मुक्त वायु में उनके श्वेत वस्त्र और श्वेत दाढ़ी-लहरा रही थी और उष्णीष पर बंधा हीरा धक्-धक् चमक रहा था। उनकी गति रुकी, वे तनिक विचलित हुए और उनकी कमर में बंधा खड्ग खड़खड़ा उठा। उनका हाथ खड्ग की मूठ पर गया।

किसी अतर्कित शक्ति से युवक सहमकर पीछे हट गया और वृद्ध महानामन् उसी धीर-मन्थर गति से सीढ़ियां चढ़ संथागार के भीतर जाकर वेदी के सम्मुख खड़े हो गए।

एक बार संथागार में सर्वत्र सन्नाटा छा गया। एक सुई के गिरने का भी शब्द होता। गणपति सुनन्द ने कहा—”भन्तेगण सुनें, आज जिस गुरुतर कार्य के लिए अष्टकुल का गण-सन्निपात हुआ है, वह आप सब जानते हैं। मैं आप सबसे प्रार्थना करूंगा कि आप सब शान्ति और व्यवस्था भंग न करें और उत्तेजित न हों। ऐसा होगा तो हमें सन्निपात भंग करने को विवश होना पड़ेगा। अब सबसे पहले मैं आयुष्मान् गणपूरक से यह जानना चाहता हूं कि आज सन्निपात में कितने सदस्य उपस्थित हैं?”

गणपूरक ने उत्तर दिया—”कुल नौ सौ दो हैं।”

“भन्तेगण, वज्जी के प्रत्येक गण को आज के सन्निपात की सूचना दे दी गई थी और अब जितने सदस्य उपस्थित हो सकते थे, उपस्थित हैं। सदस्यों में से कोई पागल तो नहीं हैं? हों तो पासवाले आयुष्मान् सूचित करें।”

परिषद् में सन्नाटा रहा। गणपति ने कहा—”कोई रोगी, उन्मत्त या मद्य पिए हों तो भी सूचना करें।”

सर्वत्र सन्नाटा रहा। गणपति ने कहा—”अब भन्तेगण सुनें, भन्ते महानामन्, आज आपकी पुत्री अम्बपाली अठारह वर्ष की आयु पूरी कर चुकी। वैशाली जनपद ने उसे सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी निर्णीत किया है। इसलिए वज्जी गणतन्त्र के कानून अनुसार उसे यह परिषद् ‘वैशाली की नगरवधू’ घोषित किया चाहती है और आज उसे ‘वैशाली की जनपद कल्याणी’ का पद देना चाहती है। गण-सन्निपात की आज्ञा है कि वह आज से सार्वजनिक स्त्री की भांति जीवन व्यतीत करे, इसी से आज उसे संथागार में उपस्थित होकर अष्टकूल के गण-सन्निपात के सम्मुख शपथ ग्रहण करने की आज्ञा दी गई थी। उसके अभिभावक की हैसियत से आप पर उसे गण-सन्निपात के सम्मुख उपस्थित करने का दायित्व है। अब आप क्या देवी अम्बपाली को गण-सन्निपात के सम्मुख उपस्थित करते हैं, और उसे वैधानिक रीति पर घोषित ‘वैशाली की नगरवधू’ स्वीकार करते हैं?”

महानामन् ने एक बार सम्पूर्ण सन्निपात को देखकर आंखें नीची कर लीं। वे कुछ झुके और उनके होंठ कांपे। परन्तु फिर तुरन्त ही वे तनकर खड़े हो गए और बोले—

“भन्ते, मैं स्वयं लिच्छवी हूं, और मैंने बयालीस वर्ष वज्जी संघ की निष्ठापूर्वक सेवा इस शरीर से इसी खड्ग के द्वारा की है। अनेक बार मैंने इन भुजदण्डों के बल पर वैशाली गणतन्त्र के दुर्धर्ष शत्रुओं को दलित करके कठिन समय में वैशाली की लाज रखी है। मैंने सदैव ही वज्जी संघ के विधान, कानून और मर्यादा की रक्षा की है और अब भी करूंगा। यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह कानून की मर्यादा का पालन करे।” महानामन् इतना कहकर चुप हो गए। उनके होठ जैसे आगे कुछ कहने में असमर्थ होकर जड़ हो गए। उन्होंने आंखें फैलाकर परिषद्-भवन में उमड़ती उत्तेजित भीड़ को देखा, जिनकी जलती हुई आंखें उन्हीं पर लगी थीं। फिर सहज-शांत स्वर में स्थिर वाणी से कहा—”मेरी पुत्री अम्बपाली के सम्बन्ध में वज्जी गणतन्त्र के कानून के अनुसार गण-सन्निपात ने जो निर्णय किया था, उसे जानकर मैंने अठारह वर्ष की अवस्था तक उसका विवाह करना स्थगित कर दिया था। अब…”

बीच ही में सामन्तपुत्र चिल्ला उठे—”स्थगित कर दिया था! इसका क्या अर्थ है? यह संदिग्ध बात है।”

सहस्रों कण्ठ चिल्ला उठे—”यह संदिग्ध बात है, हम स्पष्ट सुनना चाहते हैं। देवी अम्बपाली किसी एक पुरुष की पत्नी नहीं हो सकती! वह हमारी, हम सबकी है। हमारा उस पर समान अधिकार है और उसे हम शस्त्र के बल से भी प्राप्त करेंगे!”

गणपति सुनन्द ने हाथ उठाकर कहा—”आयुष्मान् शांत होकर सुनें, सन्निपात के कार्य में बाधा न दें। अभी भन्ते महानामन् का वक्तव्य पूरा नहीं हुआ है। उन्हें पूरी बात कह लेने दीजिए।”

परिषद् में फिर सन्नाटा छा गया। सबकी दृष्टि महानामन् के ऊपर जाकर जम गई। महानामन् ने परिषद् के बाहर-भीतर दृष्टि फेंककर आंख नीची कर ली और फिर कहा—”भन्ते गण, आज अम्बपाली अठारह वर्ष की आयु पूरी कर चुकी। वज्जी संघ के कानून के अनुसार अब वह स्वाधीन है और अपने प्रत्येक स्वार्थ के लिए उत्तरदात्री है। अतः आज से मैं उसका अभिभावक नहीं हूं। वह स्वयं ही परिषद् को अपना मन्तव्य देगी।”

संथागार का वातावरण फिर बड़े वेग से क्षुब्ध हो उठा। तरुण सामन्तपुत्रों ने अपने खड्ग कोष से खींच लिए। बहुतों ने अपने-अपने भालों को हवा में ऊंचा करके चीत्कार करना आरम्भ कर दिया। सब लोग चिल्लाने लगे—”विश्वासघात! विश्वासघात! भन्ते महानामन् ने वज्जीसंघ से विश्वासघात किया है! उन्हें इसका दण्ड मिलना चाहिए!” बहुतों ने अपने पैर धरती पर पटक-पटककर और भाले हवा में हिला-हिलाकर कहा—”हमारे जीवित रहते अम्बपाली हमारी, हम सबकी है, वह वैशाली की नगरवधू है। संघ यदि अपने कर्तव्य-पालन में ढील करेगा तो हम अपने भालों और खड्ग की तीखी धार के बल पर उसे कर्तव्य-पालन करने पर विवश करेंगे।”

सहसा कोलाहल स्तब्ध हो गया। जैसे किसी ने जादू कर दिया हो। सब कोई चकित-स्तम्भित होकर परिषद् के द्वार की ओर देखने लगे। एक अवगुण्ठनवती नारी वातावरण को सुरभित करती हुई और मार्ग में सुषमा फैलाती हुई आ रही थी। तरुणों का उद्धत भाव एकबारगी ही विलीन हो गया। सबने माया-प्रेरित-से होकर उसे मार्ग दिया। गण के सदस्य और अन्य जनपद उस अलौकिक मूर्ति को उत्फुल्ल होकर देखते रह गए। उसने वेदी के सम्मुख आकर ऊपर का अवगुण्ठन उतार डाला। अब वैशाली के जनपद ने पहली बार रूप की उस विभूति के दर्शन किए जो गत तीन वर्ष से सम्पूर्ण वैशाली जनपद की चर्चा का एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गया था और जिसके लिए आज सम्पूर्ण जनपद में ऐसा भारी क्षोभ फैल रहा था। सहस्र-सहस्र नेत्र उस रूप को देख अपलक रह गए, वाणी जड़ हो गई, अंग अचल हो गए। तरुणों के हृदय जोर-जोर से धड़कने लगे। बहुतों की सांस की गति रुक गई। अम्बपाली की वह अलौकिक रूप-माधुरी शरत्चन्द्र की पूर्ण विकसित कौमुदी की भांति संथागार के कोने-कोने में फैल गई। उसके स्न्निग्ध प्रभाव से जैसे वहां की सारी उत्तेजना और उद्वेग शांत हो गया।

अम्बपाली ने शुभ्र कौशेय धारण किया था। उसके जूड़ा-ग्रथित केशकुन्तल ताज़े फूलों से गूंथे गए थे। ऊपरी वक्ष खुला हुआ था। देहयष्टि जैसे किसी दिव्य कारीगर ने हीरे के समूचे अखण्ड टुकड़े से यत्नपूर्वक खोदकर गढ़ी थी। उससे तेज, आभा, प्रकाश, माधुर्य, कोमलता और सौरभ का अटूट झरना झर रहा था। इतना रूप, इतना सौष्ठव, इतनी अपूर्वता कभी किसी ने एक स्थान पर देखी नहीं थी। उसने कण्ठ में सिंहल के बड़े-बड़े मोतियों की माला धारण की थी। कटिप्रदेश की हीरे-जड़ी करधनी उसकी क्षीण कटि को पुष्ट नितम्बों से विभाजित-सी कर रही थी। उसके सुडौल गुल्फ मणिखचित उपानत थे, जिनके ऊपर पैजनियां चमक रही थीं, अपूर्व शोभा का विस्तार कर रहे थे। मानो वह संथागार में रूप, यौवन, मद, सौरभ को बिखेरती चली आई थी। जनपद लुटा-सा, मूर्च्छित-सा, स्तब्ध-सा खड़ा था।

यही वह अम्बपाली थी जिसे पाने के लिए वैशाली का जनपद उन्मत्त होकर लोहू की नदी बहाने के लिए तैयार हो गया था। जिसे एक बार देख पाने के लिए वर्षों से धनकुबेर सेट्ठिपुत्रों तथा सामन्तपुत्रों ने न जाने कितने यत्न किए थे, षड्यन्त्र रचे थे। कितनों ने उसकी न जाने कितनी कल्पना-मूर्तियां बनाई थीं, जो वैशाली में ही गत तीन वर्षों से यत्नपूर्वक गुप्त करके रखी गई थीं और जिसे सर्वगुण-विभूषिता करने के लिए वैशाली राज परिषद् ने मनों स्वर्ण-रत्न खर्च कर दिए थे। आज वैशाली का जनपद देख रहा था कि विश्व की यौवन-श्री अम्बपाली की देहयष्टि में एकीभूत हो रही थी। जिसे देख जनपद स्तम्भित, चकित और जड़ हो गया था। वह अपने को, जीवन को और जगत् को भी भूल गया था।

अम्बपाली जैसे सुषमा की सम्पदा को आंचल में भरे, नीची दृष्टि किए वृद्ध महानामन् के पार्श्व में आ खड़ी हुई। गणपति सुनन्द ने कहा—”भन्ते, देवी अम्बपाली अपना मत परिषद् के सामने प्रकट करने आई हुई हैं। सब कोई उनका वक्तव्य सुनें!”

एक बार गगनभेदी जयनाद से परिषद्-भवन हिल उठा—”देवी अम्बपाली की जय! वैशाली की नगरवधू की जय, वैशाली जनपद-कल्याणी की जय!”

अम्बपाली के होंठ हिले। जैसे गुलाब की पंखड़ियों को प्रातः समीर ने आंदोलित किया हो। वीणा की झंकार के समान उसकी वाणी ने संथागार में सुधावर्षण किया—”भन्ते, आपके आदेश पर मैंने विचार कर लिया है। मैं वज्जीसंघ के धिक्कृत कानून को स्वीकार करती हूं, यदि गण-सन्निपात को मेरी शर्तें स्वीकार हों। वे शर्तें भन्ते, गणपति आपको बता देंगे।”

परिषद्-भवन में मन्द जनरव सुनाई दिया। एक अधेड़ सदस्य ने अपनी मूंछों को दांतों से दबाकर कहा—”क्या कहा? धिक्कृत कानून? देवी अम्बपाली, तुम यह वाक्य वापस लो, यह परिषद् का घोर अपमान है!”

चारों ओर से आवाजें आने लगीं—”यह शब्द वापस लो, धिक्कृत कानून शब्द अनुचित है!”

अम्बपाली ने सहज-शांत स्वर में कहा—”मैं सहस्र बार इस शब्द को दुहराती हूं! वज्जीसंघ का यह धिक्कृत कानून वैशाली जनपद के यशस्वी गणतन्त्र का कलंक है। भन्ते, मेरा अपराध केवल यही है कि विधाता ने मुझे यह अथाह रूप दिया। इसी अपराध के लिए आज मैं अपने जीवन के गौरव को लांछना और अपमान के पंक में डुबो देने को विवश की जा रही हूं। इसी से मुझे स्त्रीत्व के उन सब अधिकारों से वंचित किया जा रहा है जिन पर प्रत्येक कुलवधू का अधिकार है। अब मैं अपनी रुचि और पसन्द से किसी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर सकती, उसे अपनी देह और अपना हृदय अर्पण नहीं कर सकती। अपना स्नेह से भरा हृदय और रूप से लथपथ यह अधम देह लेकर अब मैं वैशाली की हाट में ऊंचे-नीचे दाम में इसे बेचने बैठूंगी। आप जिस कानून के बल पर मुझे ऐसा करने को विवश कर रहे हैं, वह एक बार नहीं लाख बार धिक्कृत होने योग्य है, जिसे आज ये स्त्रैण तरुण सामन्तपुत्र अपने खड्ग की तीखी धार और भालों की नोक के बल पर अक्षुण्ण और सुरक्षित रखा चाहते हैं और ये सेट्ठिपुत्र अपनी रत्नराशि जिस पर लुटाने को दृढ़-प्रतिज्ञ हैं।” अम्बपाली यह कहकर रुकी। उसका अंग कांप रहा था और वाणी तीखी हो रही थी। परिषद्-भवन में सन्नाटा था।

उसने फिर कहा—”भन्ते, मैं अपना अभिप्राय निवेदन कर चुकी। यदि सन्निपात को मेरी शर्ते स्वीकार हों…तो मैं अपना सतीत्व, स्त्रीत्व, मर्यादा, यौवन, रूप और देह आपके इस धिक्कृत कानून के अर्पण करती हूं। यदि आपको मेरी शर्तें स्वीकार न हों तो मैं नीलपद्म प्रासाद में आपके वधिकों की प्रतीक्षा करूंगी।”

इतना कहकर उसने अवगुण्ठन से शरीर को आच्छादित किया और वृद्ध महानामन् का हाथ पकड़कर कहा—”चलिए!” महानामन् अम्बपाली के कन्धे का सहारा लिए संथागार से बाहर हो गए। वैशाली का जनपद मूढ़-अवाक् होकर देखता रह गया।

2. गण-सन्निपात : वैशाली की नगरवधू

जब तक रथ की घण्टियों का घोष सुनाई देता रहा और रथ की ध्वजा दीख पड़ती रही, वैशाली का जनपद मार्ग पर उसी ओर मन्त्र-विमोहित-सा देखता रह गया। अम्बपाली का वह अपूर्व रूप ही नहीं, उसका तेज, दर्प, साहस और दृढ़ता सब कुछ उन्हें अकल्पित दीख पड़ी। जो थोड़े-से वाक्य अम्बपाली ने सभा में कहे, उनका सभी पर भारी प्रभाव पड़ा। कुछ लोग निरीह नारीत्व की इस कानूनी लांछना के विरोधी हो गए। उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर कहना आरम्भ किया कि—”कौन देवी अम्बपाली को बलात् ‘नगरवधू’ बनाएगा? हम उसके रक्त से वसुन्धरा को डुबो देंगे। निस्सन्देह यह धिक्कृत कानून वैशाली जनपद और वज्जी संघ शासन का कलंक रूप है। यह स्वाधीन जनपद के अन्तस्तल पर पराधीनता की कालिमा है। अंग, बंग, कलिंग, चम्पा, काशी, कोसल, ताम्रपर्णी और राजगृह कहीं भी तो स्त्रीत्व का ऐसा बलात् अपहरण नहीं है। फिर वज्जियों का यह गणतन्त्र ही क्या, जहां नारी के नारीत्व का इस प्रकार अपहरण हो? यह हमारी रक्षणीया कुलवधुओं, पुत्रियों और बहिनों की प्रतिष्ठा और मर्यादा का घोर अपमान है। इसे हम सहन नहीं करेंगे। हम विद्रोह करेंगे—समाज से, संघ से, अष्ट-कुल के गणतन्त्र से और गण-परिषद् से!”

कुछ सामन्तों ने अपने-अपने खड्ग कोष से खींच लिए। चलती बार अम्बपाली जो शब्द कह गई थी, उससे उनके हृदय तीर से विद्ध पक्षी की भांति आहत हो गए थे। उन्होंने क्रूर स्वर में हथियार ऊंचे उठाकर कहा—”अरे, वैशाली की जनपद-कल्याणी देवी अम्बपाली-नीलपद्म-प्रासाद में परिषद् के वधिकों की प्रतीक्षा कर रही हैं। कौन उन्हें वध करने के लिए वधिकों को भेजता है, हम देखेंगे! हम अभी-अभी उसके खण्ड-खण्ड कर डालेंगे। हम इस संथागार का एक-एक पत्थर धूल में मिला देंगे।”

कुछ सेट्ठिपुत्र पागलों की भांति बक रहे थे—”वज्जियों के इस गणतन्त्र का नाश हो! हम राजगृह में जा बसेंगे। देवी अम्बपाली जिएं। हमारे धन और प्राण देवी अम्बपाली पर उत्सर्ग हैं।”

इस पर सबने उच्च स्वर में जयघोष किया—”जय, देवी अम्बपाली की जय! जनपदकल्याणी को अभय!”

परन्तु बहुत-से उद्धत तरुण सामन्तपुत्र शस्त्र चमका-चमकाकर और हवा में भाले उछाल-उछालकर अपने अश्व दौड़ाने लगे। वे कह रहे थे कि—”उसका वध वधिक नहीं कर सकते। हम उसके दिव्य देह का उपयोग चाहते हैं। हम उसकी शरच्चन्द्र की चांदनी के समान रूप-सुधा का पान किया चाहते हैं। उनके अनिंद्य यौवन का आनन्द लिया चाहते हैं। वह हमारी है, हम सबकी है। वह वैशाली का प्राण, वैशाली की शोभा, वैशाली के जीवन की केन्द्रस्थली है। वह वैशाली की नगरवधू है। उसकी वे शर्तें कुछ भी हों, हमें स्वीकार हैं। हम सर्वस्व देकर भी उसे प्राप्त करेंगे या स्वयं मर मिटेंगे!”

प्रतिहार और दण्डधर परिषद् की व्यवस्था-स्थापना में असमर्थ हो गए। तब गणपति सुनन्द ने खड़े होकर कहा—”आयुष्मान्! शान्त होकर देवी अम्बपाली की शर्तों को सुनें। उन पर अभी गण-सन्निपात का छन्द ग्रहण होगा। उन शर्तों की पूर्ति होने पर देवी अम्बपाली स्वेच्छा से नगरवधू होने को तैयार हैं।”

एक बार संथागार में फिर सन्नाटा छा गया। परन्तु क्षण-भर बाद ही बहुत-से कण्ठ एक साथ चिल्ला उठे––”कहिए, भन्ते गणपति! वे शर्तें क्या हैं और कैसे उनकी पूर्ति की जा सकती है?”

गणपति ने कहा—”सब आयुष्मान् और भन्तेगण सुनें! देवी की पहली शर्त यह है कि उसे रहने के लिए सप्तभूमि प्रासाद, नौ कोटि स्वर्णभार, प्रासाद के समस्त साधन और वैभव सहित दिया जाए।”

गण-सदस्य जड़ हो गए। नागरिक भी विचलित हुए। बहुत-से राजवर्गियों की भृकुटियों में बल पड़ गए। महामात्य सुप्रिय ने क्रुद्ध होकर कहा-“भन्ते, यह असम्भव है, ऐसा कभी नहीं हुआ। सप्तभूमि प्रासाद जम्बूद्वीप भर में अद्वितीय है, उसका वैभव और साधन एक राजतन्त्र को संचालन करने योग्य है। उसका सौष्ठव ताम्रलिप्ति, राजगृह, श्रावस्ती और चम्पा के राजमहलों से बढ़-चढ़कर है। फिर नौ कोटि स्वर्णभार? नहीं, नहीं। नौ कोटि स्वर्णभार देने पर वज्जी संघ का राजकोष ही खाली हो जाएगा। नहीं, नहीं; यह शर्त स्वीकार नहीं की जा सकती। किसी भांति भी नहीं, किसी भांति भी नहीं!” उद्वेग से उनका वृद्ध शरीर कांपने लगा और वे हांफते-हांफते बैठ गए।”

बहुत-से सेट्ठिपुत्र एक साथ ही बोल उठे—”क्यों नहीं दिया जा सकता? राजकोष यदि रिक्त हो जाएगा तो हम उसे भर देंगे। अष्टकुल दूसरे प्रासाद का निर्माण कर सकता है। हम शत कोटि स्वर्णभार भी देने को प्रस्तुत हैं!”

सामन्तपुत्रों ने अपने-अपने भाले चमका-चमकाकर कहा—”देवी अम्बापाली को सप्तभूमि प्रासाद सम्पूर्ण साधना और वैभव तथा नौ कोटि स्वर्णभार सहित दे दिया जाए। वह प्रासाद, वह वैभव वैशाली के जनपद का है, वह हमारा है, हम सबका है, हमने गर्म रक्त के मूल्य पर उसका निर्माण कराया है। जिस प्रकार अनुपम रूप-यौवन-श्री की अधिष्ठात्री देवी अम्बपाली हमारी-हम सबकी है, उसी प्रकार अप्रतिम वैभव और सौष्ठव का आगार सप्तभूमि प्रासाद भी हमारा, हम सबका है। वह अवश्य वैशाली के जनपद का साध्य क्रीड़ास्थल होना चाहिए।”

गणपति ने खड़े होकर हाथ के इशारे से सबको चुप रहने को कहा। फिर कहा—”भन्तेगण, अब मैं आपसे पूछता हूं कि क्या आपको देवी अम्बपाली की पहली शर्त स्वीकार है? यदि किसी को आपत्ति हो तो बोलें।” सभा-भवन में सब चुप थे। गणपति ने कहा—”सब चुप हैं। मैं फिर दूसरी बार पूछता हूं और अब तीसरी बार भी! सब चुप हैं। तो भन्ते, वज्जियों का यह सन्निपात देवी अम्बपाली की पहली शर्त स्वीकार करता है।”

सभा के बाहर-भीतर हर्ष की लहर दौड़ गई। एक बार फिर देवी अम्बपाली के जयनाद से संथागार गूंज उठा।

गणपति ने कुछ ठहरकर कहा––”भन्ते, अब देवी की शेष दो शर्तें भी सुनिए। उसकी दूसरी शर्त यह है कि उसके आवास की दुर्ग की भांति व्यवस्था की जाए; और तीसरी यह कि उसके आवास में आने-जानेवाले अतिथियों की जांच-पड़ताल गणकाध्यक्ष न करें।”

गणपति के यह कहकर बैठते ही महाबलाधिकृत सुमन ने क्रोध से आसन पर पैर पटककर कहा––”भन्ते, यह तो आत्मघात से भी अधिक है। मैं कभी इसका समर्थन नहीं कर सकता कि देवी का आवास दुर्ग की भांति व्यवस्थित रहे। इसका तो स्पष्ट यह अर्थ है कि देवी अम्बपाली अलग ही अपनी सेना रखेगी और नगर के कानून उसके आवास में रहनेवालों पर लागू नहीं होंगे।”

सन्धि-विग्रहीक जयराज ने कहा––”और उसके आवास में कौन आता-जाता है, यदि इसकी जांच-पड़ताल गणकाध्यक्ष न करेंगे तो निश्चय ही अम्बपाली का आवास शीघ्र की षड्यन्त्रकारी शत्रुओं का एक अच्छा-खासा अड्डा बन जाएगा और वे लोग निश्चिन्तता से वैशाली में ही बैठकर वैशाली के गणतन्त्र की जड़ उखाड़ने के सब प्रयत्न करते रहेंगे और यदि कभी नगर-रक्षक को किसी चोर या षड्यन्त्रकारी के वहां रहने का सन्देह होगा, तभी देवी की सेना राज्य की सेना के कार्य में बाधा डाल सकेगी और यदि वह चोर कोई शत्रु, राजा या सम्राट हुआ तो उसकी सेना को भीतर-बाहर से पूरी सहायता प्राप्त हो जाएगी। भन्ते, मैं कहना चाहता हूं कि इस समय वैशाली का गणसंघ चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ है। एक तरफ राजगृह के सम्राट् बिम्बसार उसे विषम लोचन से देखते हैं, दूसरी ओर मत्स्य, अंग, बंग, कलिंग, कोसल और अवन्ती के राजाओं की उस पर सदा वज्रदृष्टि बनी हुई है। वे सदा वैशाली के गणसंघ को ध्वस्त करने की ताक में रहते हैं। यदि हमने देवी अम्बपाली की ये दो शर्तें स्वीकार कर लीं तो निस्सन्देह उसका आवास शत्रुओं के गुप्तचरों का एक केन्द्र बन जाएगा और हमारे घर में एक ऐसा छिद्र हो जाएगा जिससे हम वैशाली जनपद की रक्षा नहीं कर सकेंगे।”

संथागार से बाहर-भीतर फिर विषम कोलाहल हुआ। परन्तु गणनायक सुनन्द के खड़े होते ही सब चुप हो गए। गणपति ने कहा-“भन्ते, अम्बपाली जैसी गुण गरिमापूर्ण जनपदकल्याणी के लिए जनपद को कुछ बलिदान तो करना ही होगा। इस समय जब कि वैशाली का जनपद पद-पद पर शत्रुओं से घिरा है, हमें छोटी-छोटी बातों पर गृह-कलह नहीं करनी चाहिए। मैं अपने तरुण सामन्तपुत्रों से, जो बार-बार अपने खड्ग और भाले चमका-चमकाकर बात-बात पर रोष प्रकट करते हैं, यह कहना चाहता हूं कि वह समय आ रहा है, जब उनके बाहुबल और शस्त्रों की परीक्षा होगी, जिन पर उन्हें इतना गर्व है। पर हमें अपनी शक्ति, शत्रु पर ही लगानी चाहिए, गृह-कलह से आपस में टकराकर नष्ट नहीं होना चाहिए। इसलिए गण-सन्निपात से मैं अनुरोध करूंगा कि वह देवी की दूसरी शर्त स्वीकार कर ले। तीसरी शर्त की बात यह है कि जब कभी देवी के आवास की जांच करने की आवश्यकता समझी जाए तो उसे एक सप्ताह पहले इसकी सूचना दे देनी चाहिए।”

सभा-भवन में सन्नाटा हो रहा। गणपति, कुछ देर को चुप रहकर बोले—”भन्तेगण सुनें, जैसा मैंने प्रस्ताव किया है, देवी अम्बपाली की दूसरी शर्त ज्यों की त्यों और तीसरी प्रस्तावित संशोधन के साथ स्वीकार कर ली जाए। इस पर जो सहमत हों, वे चुप रहें। जो असहमत हों, वे बोलें।”

सब कोई चुप रहे। गणपति ने कहा—”सब चुप हैं। अब मैं दूसरी बार—और तीसरी बार भी पूछता हूं, जिन्हें मेरा प्रस्ताव स्वीकार हो वे चुप रहें।”

“साधु भन्ते! सब चुप हैं, तो तीसरी शर्त थोड़े संशोधन के साथ स्वीकार करके देवी अम्बपाली की तीनों शर्तें अष्टकुल का गण-सन्निपात स्वीकार करता है। मैं भी अभी नीलपद्म प्रासाद में देवी अम्बपाली से मिलकर सब बातें तय करने जाता हूं और कल इसके निर्णय की घोषणा कर दी जाएगी। आज संघ का कार्य समाप्त होता है।”

गणपति के आसन त्यागते ही एक बार तीव्र कोलाहल से संथागार का भवन गूंज उठा और सामन्तपुत्र तथा नागरिक भांति-भांति की बातें करते परिषद्-भवन से लौटे।

3. नीलपद्म प्रासाद : वैशाली की नगरवधू

नीलपद्म प्रासाद नीलपद्म सरोवर के बीचोंबीच बना था। प्रासाद का बाहरी घेरा और फर्श मत्स्य देश के श्वेतमर्मर का था, किन्तु उसकी दीवारों पर ऊपर से नीचे तक विविध रंगीन रत्नों की पच्चीकारी हो रही थी। बाहरी प्रांगण से प्रासाद तक एक प्रशस्त किन्तु सुन्दर पुल था, जिसके दोनों ओर स्वर्ण-दण्ड लगे थे। नीलपद्म सरोवर का जल वास्तव में नीलमणि के समान स्वच्छ और चमकीला था और उसमें पारस्य देश से यत्नपूर्वक लाए हुए, बड़े-बड़े नीलपद्म सदा खिले रहते थे। सरोवर में बीच-बीच में कृत्रिम निवास बनाए गए थे। इन पक्षियों का कलरव, निर्मल जल में नीलपद्मों की शोभा और उस पर प्रासाद की कांपती हुई परछाईं देखते ही बनती थीं। परिषद् की अतिथि-रूप देवी अम्बपाली इसी प्रासाद में आजकल निवास कर रही थी।

सरोवर के तट पर एक स्वच्छ मर्मर की वेदी पर देवी अम्बपाली विषण्णवदना बैठी सन्ध्याकाल में सुदूर एक क्षीण तारे को एकटक देख रही थी। अनेक प्रकार के विचार उसके मन में उदय हो रहे थे। वह सोच रही थी, अपना भूत और भविष्य। एक द्वन्द्व उसके भीतर तक चल रहा था। आज से सात वर्ष पूर्व एक ग्यारह वर्ष की बालिका के रूप में जब उसने वैशाली की पौर में सन्ध्या के बढ़ते हुए अन्धकार में पिता की उंगली पकड़कर प्रवेश किया था, उसने नवीन जीवन, नवीन चहल-पहल, नवीन भाव देखे थे। नायक चन्द्रमणि की कृपा से उसके पिता को उसकी नष्ट सम्पत्ति और त्यक्त पद मिल गया था और अब उसके उद्ग्रीव यौवन और विकसित जीवन की क्रीड़ा के दिन थे। सब वैभव उसे प्राप्त थे, भाग्य उसके साथ असाधारण खेल खेल रहा था। जो बालिका एक दिन छः दम्म के कंचुक के लिए लालायित हो गीली आंखों से पिता से याचना कर चुकी थी, आज जीवन के ऐसे संघर्ष में आ पड़ी थी, जिसकी कदाचित् ही कोई युवती सम्भावना कर सकती है। वैशाली का जनपद आज उसके लिए क्षुब्ध था और अष्टकुल के एक महासंकट को टालने की शक्ति केवल उसी में थी।

एक दिन, उसके अज्ञात में धृष्टतापूर्वक जिस हर्षदेव ने उसके पिता से उसके सम्बन्ध में उपहास किया था उसी हर्षदेव की प्रणयाभिलाषा उसने एक बार अपनी कच्ची मति में आंखों में हंसकर स्वीकार कर ली थी। उस स्वीकृति में कितना विवेक और कितना अज्ञान था, इसका विश्लेषण करना व्यर्थ है। परन्तु जब उन दोनों के बूढ़े पिता पुरातन मैत्री और नवीन कृतज्ञता के पाश में बंधकर उनके विवाह का वचन दे चुके, तब से वे हर्षदेव को आंखों में ‘हां’ और होंठों में ‘ना’ भरकर कितनी बार तंग कर चुकी थी। इसके इतिहास पर अनायास ही उसका ध्यान जा पहुंचा था। उसकी अप्रतिम रूप-राशि को वैशाली के जनपद से छिपाने के सभी प्रयत्न, सभी सतर्कता व्यर्थ हुई। प्रभात की धूप की भांति उसके रूप की ख्याति बढ़ती ही गई और अन्ततः वह वैशाली के घर-घर की चर्चा की वस्तु बन गई। तब से कितने सामन्तपुत्रों ने अयाचित रूप से उसके लिए द्वन्द्व-युद्ध किए, कितने सेट्ठिपुत्रों ने उसे एक बार देख पाने भर के लिए हीरा-मोती-रत्न और स्वर्ण की राशि जिस-तिस को दी। पर अम्बपाली को जनपद में कोई देख न सका। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए, अम्बपाली के रूप की सैकड़ों काल्पनिक कहानियां वैशाली के घर-घर कही जाने लगीं और इस प्रकार अम्बपाली वैशाली जनपद की चर्चा का मुख्य विषय बन गई।

फिर एक दिन, जब महानामन् ने अम्बपाली के वाग्दान की अनुमति नायक चन्द्रमणि के पुत्र हर्षदेव के साथ करने की गण से मांगी तो संथागार में एक हंगामा उठ खड़ा हुआ और गणपति द्वारा आज्ञापत्र जारी करके महानामन् को विवश किया गया कि जब तक अम्बपाली वयस्क न हो जाए, वह उसका विवाह न करें और महानामन् को प्रतिज्ञा लिखनी पड़ी कि वह अम्बपाली का विवाह तब तक नहीं करेंगे, जब तक कि वह अठारह वर्ष की नहीं हो जाती। अठारह वर्ष की आयु होने पर उसे संथागार में उपस्थित करेंगे।

उस बात को आज तीन वर्ष बीत गए। इन तीन वर्षों में जनपद ने खुल्लमखुल्ला अम्बपाली को जनपदकल्याणी कहना आरम्भ कर दिया और गणतन्त्र पर ज़ोर दिया कि वह उसे ‘नगरवधू’ घोषित कर देने का आश्वासन अभी दे। यह आन्दोलन इतना उग्र रूप धारण कर गया कि अष्टकुल के गणपति को अम्बपाली और महानामन् को गणसंघ के समक्ष प्रत्युत्तर के लिए संथागार में उपस्थित करने को बाध्य होना पड़ा।

अम्बपाली ने अपने उस नए जीवन के सम्बन्ध में, जिसमें वैशाली का जनपद उसे डालना चाहता था, जब कल्पना की, तो वह सहम गई। हर्षदेव के प्रति प्रेम नहीं तो स्नेह उसे था। कुलवधू होने पर वही स्नेह बढ़कर प्रेम हो जाता है। अब एक ओर उसके सामने कुलवधू की अस्पष्ट धुंधली आकृति थी और दूसरी ओर ‘नगरवधू’ बनकर सर्वजनभोग्या होने का चित्र था। दोनों ही चीज़ें उसके लिए अज्ञात थीं, उसकी कल्पनाएं बालसुलभ थीं। भावुक थी, उसका स्वभाव आग्रही था और जीवन आशामय। एक ओर बन्धन और दूसरी ओर उन्मुक्त जीवन। एक ओर एक व्यक्ति को मध्य बिन्दु बनाकर आत्मार्पण करने की भावना थी, दूसरी ओर विशाल वैभव, उत्सुक जीवन और महाविलास की मूर्ति थी। उसका विकसित साहसी हृदय द्वन्द्व में पड़ गया और उसने अपनी तीन शर्तें परिषद् में रख दीं। उसने सोचा, जब कानून की मर्यादा पालन करनी ही है तो फिर जीवन को वैभव और अधिकार की चोटी पर पहुंचाना ही चाहिए और वैशाली के जिस जनपद ने उसे इस ओर जाने को विवश किया है उसे अपने समर्थ चरणों से रौंद-रौंदकर दलित करना चाहिए।

विचारों की उत्तेजना के मारे उसका वक्षस्थल लुहार की धौंकनी की भांति उठने बैठने लगा। उसने दांतों में होंठ दबाकर कहा—”मैं वैशाली के स्त्रैण पुरुषों से पूरा बदला लूंगी। मैं अपने स्त्रीत्व का पूरा सौदा करूंगी। मैं अपनी आत्मा का हनन करूंगी और उसकी लोथ इन लोलुप गिद्धों को इन्हीं की प्रतिष्ठा और मर्यादा के दामों पर बेचूंगी।”

धीरे-धीरे पूर्ण चन्द्र का प्रकाश आकाश में फैल गया, और भी तारे आकाश में उदय हुए। उन सबका प्रतिबिम्ब नीलपद्म सरोवर के निर्मल जल की लहरों पर थिरकने लगा। अम्बपाली सोचने लगी—”आह, मैं इस प्रकार अपने मन को चंचल न होने दूंगी। मैं दृढ़तापूर्वक जीवन-युद्ध करूंगी और उसमें विजय प्राप्त करूंगी।”

यही सब बातें अम्बपाली सोच रही थी। शुभ्र चन्द्र की ज्योत्स्ना में, शुभ्र वसनभूषिता, शुभ्रवर्णा, शुभानना अम्बपाली उस स्वच्छ-शुभ्र शिलाखण्ड पर बैठ मूर्तिमती ज्योत्स्ना मालूम हो रही थी। उसका अन्तर्द्वन्द्व अथाह था और वह बाह्य जगत् को भूल गई थी। इसी से जब मदलेखा ने आकर नम्रतापूर्वक कहा––”देवी की जय हो! गणपति आए हैं और द्वार पर खड़े अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”––तब वह चौंक उठी। उसने भृकुटि चढ़ाकर कहा––उन्हें यहां ले आ।”

वह प्रस्तर-पीठ पर सावधान होकर बैठ गई। गणनायक सुमन्त ने आकर कहा––”देवी अम्बपाली प्रसन्न हों। मैं वज्जीसंघ का सन्देश लाया हूं।”

“तो आपके वधिक कहां हैं? उनसे कहिए कि मैं तैयार हूं। वैशाली जनपद के ये हिंस्र नरपशु किस प्रकार हनन किया चाहते हैं?”

“वे तुम्हारा शरीर चाहते हैं।”

“वह तो उन्हें अनायास ही मिल जाएगा।”

“जीवित शरीर चाहते हैं, सस्मित शरीर। देवी अम्बपाली, वज्जीसंघ ने तुम्हारी शर्तें स्वीकार कर ली हैं। केवल अन्तिम शर्त…”

“अन्तिम शर्त क्या?” अम्बपाली ने उत्तेजना से कहा––”क्या वे उसे अस्वीकार करेंगे? मैं किसी भी प्रकार अपनी शर्तों की अवहेलना सहन न करूंगी।”

वृद्ध गणपति ने कहा––”देवी अम्बपाली, तुम रोष और असन्तोष को त्याग दो। तुम्हें सप्तभूमि प्रासाद समस्त वैभव और साधन सहित और नौ कोटि स्वर्णभार सहित मिलेगा। तुम्हारा आवास दुर्ग की भांति सुरक्षित रहेगा। किन्तु यदि तुम्हारे आवास के आगन्तुकों की जांच की कभी आवश्यकता हुई तो उसकी एक सप्ताह पूर्व तुम्हें सूचना दे दी जाएगी। अब तुम अदृष्ट की नियति को स्वीकार करो, देवी अम्बपाली! महान व्यक्तित्व की सदैव सार्वजनिक स्वार्थों पर बलि होती है। आज वैशाली के जनपद को अपने ही लोहू में डूबने से बचा लो।”

अम्बपाली ने उत्तेजित हो कहा––क्यों, किसलिए? जहां स्त्री की स्वाधीनता पर हस्तक्षेप हो, उस जनपद को जितनी जल्द लोहू में डुबोया जाए, उतना ही अच्छा है। मैं आपके वधिकों का स्वागत करूंगी, पर अपनी शर्तों में तनिक भी हेर-फेर स्वीकार न करूंगी। भले ही वैशाली का यह स्त्रैण जनपद कल की जगह आज ही लोहू में डूब जाए।”

“परन्तु यह अत्यन्त भयानक है, देवी अम्बपाली! तुम ऐसा कदापि नहीं करने पाओगी। तुम्हें वैशाली के जनपद को बचाना होगा। अष्टकुल के स्थापित गणतन्त्र की रक्षा करनी होगी। यह जनपद तुम्हारा है, तुम उसकी एक अंग हो। कहो, तुम अपना प्राण देकर उसे बचाओगी?”

“मैं, मैं अभी प्राण देने को तैयार हूं। आप वधिकों को भेजिए तो।”

गणपति ने आर्द्रकण्ठ से कहा––”तुम चिरंजीविनी होओ, देवी अम्बपाली! तुम अमर होओ। जनपद की रक्षा का भार स्त्री-पुरुष दोनों ही पर है। पुरुष सदैव इस पर अपनी बलि देते आए हैं। स्त्रियों को भी बलि देनी पड़ती है। तुम्हारा यह दिव्य रूप, यह अनिन्द्य सौन्दर्य, यह विकसित यौवन, यह तेज, यह दर्प, यह व्यक्तित्व स्त्रीत्व के नाम पर, किसी एक नगण्य व्यक्ति के दासत्व में क्यों सौंप दिया जाए? तुम्हारी जैसी असाधारण स्त्री क्यों एक पुरुष की दासी बने? यही क्यों धर्म है देवी अम्बपाली? समय पाकर रूढ़ियां ही धर्म का रूप धारण कर लेती हैं और कापुरुष उन्हीं की लीक पीटते हैं। स्त्री अपना तन-मन प्रचलित रूढ़ि के आधार पर एक पुरुष को सौंपकर उसकी दासी बन जाती है और अपनी इच्छा, अपना जीवन उसी में लगा देती है। वह तो साधारण जीवन है। पर देवी अम्बपाली, तुम असाधारण स्त्री-रत्न हो, तुम्हारा जीवन भी असाधारण ही होना चाहिए।”

“तो इसीलिए वैशाली का राष्ट्र मेरी देह को आक्रान्त किया चाहता है? क्यों?” अम्बपाली ने होंठ चबाकर कहा।

“इसीलिए,” वृद्ध गणपति ने स्थिर मुद्रा में कहा, “देवी अम्बपाली, वैशाली का जनपद अप्रतिम सप्तभूमि प्रासाद, नौ कोटि स्वर्णभार और प्रासाद की सब सज्जा, रत्न, वस्त्र और साधन, तुम्हें दे रहा है––तुम्हें दुर्ग में सम्राट की भांति शासक रहने की प्रतिष्ठा दे रहा है। यह सब प्रतिष्ठा है देवी अम्बपाली, जो आज तक वज्जीसंघ के अष्टकुलों में से किसी गण को, यहां तक कि गणपति को भी प्राप्त नहीं हुई। अब और तुम चाहती क्या हो?”

“तो यह मेरा मूल्य ही है न? इसे लेकर मैं देह वैशाली जनपद के अर्पण कर दूं, आप यही तो कहने आए हैं?”

“निस्संदेह, मेरे आने का यही अभिप्राय है। देवी अम्बपाली, किन्तु अभी जो तुम्हें अटूट सम्पदा मिल रही है, यही तुम्हारा मूल्य नहीं है। यह तो उसका एक क्षुद्र भाग है। विश्व की बड़ी-बड़ी सम्पदाएं और बड़े-बड़े सम्राटों के मस्तक तुम्हारे चरणों पर आ गिरेंगे। तुम स्वर्ण, रत्न, प्रतिष्ठा और श्री से लद जाओगी। इस सौभाग्य को, इस अवसर को मत जाने दो, देवी अम्बपाली!”

“तो आप यह एक सौदा कर रहे हैं? किन्तु यदि मैं यह कहूं कि मैं अपनी देह का सौदा नहीं करना चाहती, मैं हृदय को बाज़ार में नहीं रख सकती, तब आप क्या कहेंगे?” अम्बपाली ने वक्रदृष्टि से वृद्ध गणपति को देखकर कहा।

गणपति ने संयत स्वर में कहा––”मैं केवल सौदा ही नहीं कर रहा हूं देवी, मैं तुमसे कुछ बलिदान भी चाहता हूं, जनपद-कल्याण के नाते। सोचो तो, इस समय वैशाली का जनपद किस प्रकार चारों ओर से संकट में घिरा हुआ है! शत्रु उसे ध्वस्त करने का मौका ताक रहे हैं और अब तुम्ही एक ऐसी केन्द्रित शक्ति बन सकती हो जिसके संकेत पर वैशाली जनपद के सेट्ठिपुत्रों और सामन्त पुत्रों की क्रियाशक्ति अवलम्बित होगी। तुम्हीं उनमें आशा, आनन्द, उत्साह और उमंग भर सकोगी। तुम्हीं इन तरुणों को एक सूत्र में बांध सकोगी। वैशाली के तरुण तुम्हारे एक संकेत से, एक स्निग्ध कटाक्ष से वह कार्य कर सकेंगे जो अष्टकुल का गणसंघ तथा संथागार के सम्पूर्ण राजपुरुष मिलकर भी नहीं कर सकते।”

वृद्ध गणपति इतना कहकर घुटनों के बल धरती पर झुक गए। उन्होंने आंखों में आंसू भरकर कहा––”देवी अम्बपाली, मैं जानता हूं कि तुम्हारे हृदय में एक ज्वाला जल रही है। परन्तु देवी, तुम वैशाली के स्वतन्त्र जनपद को बचा लो, नहीं तो वह गृह-कलह करके अपने ही रक्त में डूबकर मर जाएगा। वह आज तुम्हारे जीवित शरीर की बलि चाहता है, वह उसे तुम दो। मैं समस्त बज्जियों के जनपद की ओर से तुमसे भीख मांगता हूं।”

अम्बपाली उठ खड़ी हुई। उसने कहा––”उठिए, भन्ते गणपति!” वह सीधी तनकर खड़ी हो गई। उसके नथुने फूल उठे, हाथों की मुट्ठियां बंध गईं। उसने कहा––”आइए आप, वैशाली के जनपद को सन्देश दे दीजिए कि मैंने उस धिक्कृत कानून को अंगीकार कर लिया है। आज से अम्बपाली कुलवधू की सब मर्यादाएं, सब अधिकार त्यागकर वैशाली की नगरवधू बनना स्वीकार करती है।”

वृद्ध गणपति ने कांपते हुए दोनों हाथ ऊंचे उठाकर कहा––”आयुष्मती होओ देवी अम्बपाली! तुम धन्य हो, तुमने वैशाली के जनपद को बचा लिया।”

उनकी आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे और वे नीची गर्दन करके धीरे-धीरे वहां से चले गए।

अम्बपाली कुछ देर तक टकटकी लगाए, उस आहत वृद्ध राजपुरुष को देखती रही। फिर वह उसी स्फटिकशिला-पीठ पर, उसी धवल चन्द्र की ज्योत्स्ना में, उसी स्तब्ध-शीतल रात में, दोनों हाथों में मुंह ढांपकर औंधे मुंह गिरकर फूट-फूटकर रोने लगी।

नीलपद्म सरोवर की आन्दोलित तरंगों में कम्पित चन्द्रबिम्ब ही इस दलित-द्रवित हृदय के करुण रुदन का एकमात्र साक्षी था।

4. मंगलपुष्करिणी अभिषेक : वैशाली की नगरवधू

वैशाली की मंगलपुष्करिणी का अभिषेक वैशाली जनपद का सबसे बड़ा सम्मान था। इस पुष्करिणी में स्नान करने का जीवन में एक बार सिर्फ उसी लिच्छवि को अधिकार मिलता था, जो गणसंस्था का सदस्य निर्वाचित किया जाता था। उस समय बड़ा उत्सव समारोह होता था और उस दिन गण नक्षत्र मनाया जाता था। यह पुष्करिणी उस समय बनाई गई थी जब वैशाली प्रथम बार बसाई गई थी। उसमें लिच्छवियों के उन पूर्वजों के शरीर की पूत गन्ध होने की कल्पना की गई थी, जिन्हें आर्यों ने व्रात्य करके बहिष्कृत कर दिया था और जिन्होंने अपने भुजबल से अष्टकुल की स्थापना की थी। इस समय लिच्छवियों के अष्टकुल के 999 सदस्य ही ऐसे थे, जिन्हें इस पुष्करिणी में स्नान करने की प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी। अन्य लिच्छवि भी इसमें स्नान नहीं कर सकते थे, औरों की तो बात ही क्या! बहुत बार आर्य सम्राटों और उनकी राजमहिषियों ने इस पुष्करिणी में स्नान करने के लिए वैशाली पर चढ़ाई की, परन्तु हर बार उन्हें लिच्छवि तरुणों के बाणों से विद्ध होकर भागना पड़ा। इस पुष्करिणी पर सदैव नंगी तलवारों का पहरा रहता था और उस पर तांबे का एक जाल बिछा हुआ था। कोई पक्षी भी उसमें चोंच नहीं डुबो सकता था। यदि कोई चोरी-छिपे इस पुष्करिणी में स्नान करने की चेष्टा करता तो उसे निश्चय ही प्राणदण्ड मिलता था।

यह पुष्करिणी छोटी-सी किन्तु अति स्वच्छ और मनोरम थी। इसके चारों ओर श्वेत संगमरमर के घाट और सीढ़ियां बनी थीं। स्थान-स्थान पर छत्र और अलिन्द बने हुए थे, जिन पर खुदाई और पच्चीकारी का अति सुन्दर काम किया हुआ था। पुष्करिणी का जल इतना निर्मल था कि उसके तल की प्रत्येक वस्तु स्पष्ट दीख पड़ती थी। उसमें अनेक रंगों के बड़े-बड़े कमल खिले थे। समय-समय पर उसका जल बदलकर तल साफ कर दिया जाता था। पुष्करिणी में सन्ध्या-समय बहुत-सी रंग-बिरंगी मछलियां क्रीड़ा किया करती थीं। पुष्करिणी के चारों ओर जो कमल-वन था उसकी शोभा अनोखी मोहिनी शक्ति रखती थी।

अम्बपाली लिच्छवि थी और वैशाली की जनपदकल्याणी का पद उसे मिला था। उसे विशेषाधिकार के तौर पर वैशाली के जनपद ने यह सम्मान दिया था। तीन दिन से इस अभिषेक महोत्सव की धूम वैशाली में मची थी। उस दिन अम्बपाली शोभायात्रा बनाकर पहली बार सार्वजनिक रूप में वैशाली के नागरिकों के सामने अनवगुण्ठनवती होकर निकलनेवाली थी। उसे देखने को वैशाली का जनपद अधीर हो गया था। नागरिकों ने विविध रंग की पताकाओं से अपने घर, वीथी, हाट और राजमार्ग सजाए थे। मंगलपुष्करिणी पर फूलों का अनोखा शृंगार किया गया था। कदाचित् उस दिन वैशाली जनपद की सम्पूर्ण कुसुमराशि वहीं आ जुटी थी। तीन दिन से गणनक्षत्र घोषित किया गया था और सब कोई आनन्द-उत्सव मना रहे थे ।

पहर दिन-चढ़े, उस मनोरम वसन्त के प्रभात में नीलपद्म प्रासाद से देवी अम्बपाली की शोभायात्रा चली। उसका विमान विविध वर्ण के फूलों से बनाया गया था। उस पर देवी अम्बपाली केवल अन्तर्वास और उत्तरीय पहने लज्जावनत-मुख बैठी निराभरण होने के कारण तारकहीन उषा की सुषमा धारण कर रही थी। वह फूलों के ढेर में एक सजीव पुष्पगुच्छ-सी प्रतीत हो रही थी। लज्जा और संकोच से जैसे उसकी आंखें झुकी जा रही थीं। उसका मुंह रह-रहकर लाल हो रहा था। उसकी सुडौल शुभ्र ग्रीवा, उज्ज्वल-उन्नत वक्ष और लहराते हुए चिक्कण कुन्तल, उसमें गुंथे हुए ताज़े विविध रंगों के कुसुम, इन सबकी शोभा अपार थी।

शोभा-यात्रा में आगे वाद्य बज रहे थे। उसके पीछे हाथियों पर ध्वज-पताका और निशान थे। उसके पीछे उज्ज्वल परिधान पहने दासियां स्नान और पूजन की सामग्री लिए चल रही थीं। इसके पीछे अम्बपाली का कुसुम-विमान था। उसे घेरकर वैशाली के सामन्त पुत्र और सेट्ठिपुत्र अम्बपाली पर पुष्प-गन्ध की वर्षा करते चल रहे थे। नगर जन अपने अपने मकानों से पुष्पगन्ध फेंक रहे थे। चारों ओर रंगीन पताकाएं-ही-पताकाएं चमक रही थीं। सबसे पीछे नागरिक जन चल रहे थे।

पुष्करिणी के अन्तर-द्वार के इधर ही सब लोग रोक दिए गए। केवल सेट्ठिपुत्र और सामन्तपुत्र ही भीतर कमलवन में आ सके। इसके बाद घाट पर उन्हें भी रोक दिया गया केवल गण-सदस्य ही वहां जा पाए। शोभा-यात्रा रुक गई। लोग जहां-तहां वृक्षों की छाया में बैठकर गप्पें हांकने लगे। पुष्करिणी के घाट पर खड्गधारी भट पंक्तियां बांधकर खड़े थे। उन सबकी पीठ पुष्करिणी की ओर थी। गणपति ने हाथ का सहारा देकर अम्बपाली को विमान से उतारा और धीरे-धीरे उसे पुष्करिणी की सीढ़ियों पर से उतारकर जल के निकट तक ले गए।

फिर उन्होंने पुष्करिणी का पवित्र जल हाथ में लेकर अम्बपाली की अंजलि में दिया और कहा––”कहो देवी अम्बपाली, मैं वज्जीसंघ के अधीन हूं।”

अम्बपाली ने ऐसा ही कहा। तब गणपति उसे जल में और एक सीढ़ी उतारकर घुटनों तक पानी में खड़े होकर बोले––”कहो देवी अम्बपाली, मैं वैशाली के जनपद की हूं।”

अम्बपाली ने ऐसा ही कहा।

गणपति ने अब कमर तक जल में घुसकर कहा––”कहो देवी अम्बपाली, क्या तुम लिच्छवियों की सात मर्यादाओं का पालन करोगी?”

अम्बपाली ने मृदु कण्ठ से स्वीकृति दी।

तब गणपति ने उच्च स्वर से पुकारकर कहा, “भन्ते, आयुष्मान् सब कोई सुनें! मैं अष्टकुल के वज्जीतन्त्र की ओर से घोषित करता हूं कि देवी अम्बपाली वैशाली की जनपदकल्याणी हैं। वे आज वैशाली की नगरवधू घोषित की गईं।”

उन्होंने सुगन्धित तेल से अम्बपाली के सिर पर अभिषेक किया और फिर उसका मस्तक चूमा। इसके बाद वे जल से बाहर निकल आए। गणसदस्यों ने गन्ध-पुष्प अम्बपाली पर फेंके। सामन्तपुत्र और सेट्ठिपुत्र हर्षनाद करने लगे। अम्बपाली ने तीन डुबकियां लगाईं। महीन अन्तरवासक उसके स्वर्णगात्र से चिपक गया, उसका अंगसौष्ठव स्पष्ट दीख पड़ने लगा। केशराशि से मोतियों की बूंद के समान जलबिन्दु टपकने लगे। पुष्करिणी से अम्बपाली बाहर निकल आई।

विविध वाद्य बजने लगे। दासियों ने उसे नए अन्तर्वासक और उत्तरीय पहनाए। केशों को झाड़कर हवा में फैला दिया। भांति-भांति के गन्ध-माल्य पहनाए गए। तरुणों ने अम्बपाली पर गन्ध-पुष्प और अंगराग की वर्षा कर दी। फिर अम्बपाली को पारस्य देश के सुन्दर बिछावन पर बैठाया गया।

अब गणभोज प्रारम्भ हुआ। गण के प्रत्येक सदस्य ने अम्बपाली की पत्तल से कुछ खाया। नीलगाय, सूअर, पक्षियों के मांस निध्रुम आग पर भून-भूनकर अम्बपाली के सम्मुख ढेर किए जा रहे थे। मैरेय के घट भर-भर कर उसके चारों ओर एकत्र हो रहे थे। अम्बपाली की दासियां उनमें पात्र भर-भर कर तरुणों को और गणसदस्यों को दे रही थीं। वे लोग हंस हंसकर अम्बपाली की कल्याण-कामना कर-करके स्वच्छन्दता से खा-पी रहे थे।

अन्त में अम्बपाली रथ में सवार होकर सप्तभूमि प्रासाद की ओर चली। साथ ही सम्पूर्ण गणसदस्य, सामन्तपुत्र और सेट्ठिपुत्र एवं नागरिक थे। सप्तभूमि प्रासाद की सिंहपौर पर शोभायात्रा के पहुंचते ही प्रासाद की प्राचीर पर से सैकड़ों तूर्य बजाए गए। प्रासादपाल ने उपस्थित होकर अश्व और खड्ग निवेदन किया। अम्बपाली ने रथ त्याग खड्ग छुआ और अश्व पर सवार होकर प्रासाद में चली गई। वैशाली का जनपद विविध वार्तालाप करता अपने-अपने घर लौटा।

5. पहला अतिथि : वैशाली की नगरवधू

अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। पूर्वाकाश की पीत प्रभा पर शुक्र नक्षत्र हीरे की भांति दिप रहा था। सप्तभूमि प्रासाद के प्रहरी गण अलसाई-उनींदी आंखों को लिए विश्राम की तैयारी में थे। एकाध पक्षी जग गया था। एक तरुण धूलि-धूसरित, मलिन-वेश, अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में धीरे-धीरे प्रासाद के बाहरी तोरण पर आ खड़ा हुआ। प्रहरी ने पूछा––”कौन है?”

“मैं देवी अम्बपाली से मिलना चाहता हूं।”

“अभी देवी अम्बपाली शयनकक्ष में हैं, यह समय उनसे मिलने का नहीं है, अभी तुम जाओ।”

“मैं नहीं जा सकता, देवी के जागने तक मैं प्रतीक्षा करूंगा।” यह कह वह प्रहरी की अनुमति लिए बिना वहीं तोरण पर बैठ गया।

प्रहरी ने क्रुद्ध होकर कहा––”चले जाओ तरुण, यहां बैठने की आज्ञा नहीं है। देवी से संध्याकाल में मिलना होता है। इस समय नहीं।”

“कुछ हर्ज नहीं, मैं संध्याकाल तक प्रतीक्षा करूंगा।”

“नहीं–नहीं, भाई, चले जाओ तुम, यहां विक्षिप्तों के प्रवेश का निषेध है।”

“मुझे अनुमति मिल जाएगी मित्र, मैं वैसा विक्षिप्त नहीं हूं।”

प्रहरी क्रुद्ध होकर बलपूर्वक उसे हटाने लगा, तो तरुण ने खड्ग खींच लिया। प्रहरी ने सहायता के लिए सैनिकों को पुकारा। इतने ही में ऊपर से किसी ने कहा––”इन्हें आने दो प्रहरी।”

प्रहरी और आगन्तुक दोनों ने देखा, स्वयं देवी अम्बपाली अलिन्द पर खड़ी आदेश दे रही हैं। प्रहरी ने देवी का अभिवादन किया और पीछे हट गया। तरुण तीनों प्रांगण पार करके ऊपर शयनकक्ष में पहुंच गया।

अम्बपाली ने पूछा––”रात भर सोए नहीं हर्षदेव!”

“तुम भी तो कदाचित् जगती ही रहीं, देवी अम्बपाली!”

“मेरी बात छोड़ो। परन्तु तुम क्या रात-भर भटकते रहे हो?”

“कहीं चैन नहीं मिला, यह हृदय जल रहा है। यह ज्वाला सही नहीं जाती अब।”

“एक तुम्हारा ही हृदय जल रहा है हर्षदेव! परन्तु यदि यह सत्य है तो इसी ज्वाला से वैशाली के जनपद को फूंक दो। यह भस्म हो जाए। तुम बेचारे यदि अकेले जलकर नष्ट हो जाओगे तो उससे क्या लाभ होगा?”

“परन्तु अम्बपाली, तुम क्या एकबारगी ही ऐसी निष्ठुर हो जाओगी? क्या इस आवास में तुम मुझे आने की अनुमति नहीं दोगी? मैं तुम्हारे बिना रहूंगा कैसे? जीऊंगा कैसे?”

“आओगे तुम इस आवास में? यदि तुममें इतना साहस हो तो आओ और देखो कि तुम्हारी वाग्दत्ता पत्नी से वैशाली के तरुण सेट्ठिपुत्र और सामन्तपुत्र किस प्रकार प्रेम-प्रदर्शन करते हैं और वह किस कौशल से हृदय के एक-एक खण्ड का क्रय-विक्रय करती है। देखोगे तुम? देख सकोगे? तुम्हें मनाही किस बात की है? यह तो सार्वजनिक आवास है। यहां सभी आएंगे, तुम भी आना। परन्तु इस प्रकार दीन-हीन, पागल की भांति नहीं। दीन-हीन पुरुष का इस आवास में प्रवेश निषिद्ध है। तुम्हें यह न भूल जाना चाहिए कि यह वैशाली की नगरवधू देवी अम्बपाली का आवास है। जैसे और सब आते हैं, उसी भांति आओ तुम, सज धजकर हीरे-मोती-स्वर्ण बखेरते हुए। होंठों पर हास्य और पलकों पर विलास का नृत्य करते हुए। सबको देवी अम्बपाली से प्रेमाभिनय करते देखो। तुम भी वैसा ही प्रेमाभिनय करो, हंसो, बोलो, शुल्क दो, और फिर छूछे-हाथ, शून्य-हृदय अपने घर चले जाओ। फिर आओ और फिर जाओ। जब तक पद-मर्यादा शेष रहे, जब तक हाथ में स्वर्ण-रत्न भरपूर हों, आते रहो, लुटाते जाओ, लुटते जाओ, यह नगरवधू का घर है, यह नगरवधू का जीवन है, यह मत भूलो।”

अम्बपाली कहती ही चली गई। उसका चेहरा हिम के समान श्वेत हो रहा था। हर्षदेव पागल की भांति मुंह फाड़कर देखते रह गए। उनसे कुछ भी कहते न बन पड़ा। कुछ क्षण स्तब्ध रहकर अम्बपाली ने कहा—”क्यों, कर सकोगे ऐसा?”

“नहीं, नहीं, मैं नहीं कर सकूँगा।”

“तब जाओ तुम। इधर भूलकर भी पैर न देना। इस नगरवधू के आवास में कभी आने का साहस न करना। तुम्हारी वाग्दत्ता स्त्री अम्बपाली मर गई। यह देवी अम्बपाली का सार्वजनिक आवास है। और वह वैशाली की नगरवधू है। यदि तुममें कुछ मनुष्यत्व है तो तुम जिस ज्वाला से जल रहे हो, उसी से वैशाली के जनपद को जला दो—भस्म कर दो।”

हर्षदेव पागल की भांति चीत्कार कर उठा। उसने कहा—”ऐसा ही होगा। देवी अम्बपाली, मैं इसे भस्म करूंगा। वैशाली के इस जनपद की राख तुम देखोगी, सप्तभूमि प्रासाद की इन वैभवपूर्ण अट्टालिकाओं में अष्टकुल के वज्जीसंघ की चिता धधकेगी और वह गणतन्त्र का धिक्कृत कानून उसमें इस आवास के वैभव के साथ ही भस्म होगा।”

“तब जाओ, तुम अभी चले जाओ। मैं तुम्हारी जलाई हुई उस ज्वाला को उत्सुक नेत्रों से देखने की प्रतीक्षा करूंगी।”

हर्षदेव फिर ठहरे नहीं। उसी भांति उन्मत्त-से वे आवास से चले गए।

अम्बपाली पत्थर की प्रतिमा की भांति क्षण-क्षण में उदय होते हुए अपने नगरवधू-जीवन के प्रथम प्रभात को देखती खड़ी रही।

6. उरुबेला तीर्थ : वैशाली की नगरवधू

उन दिनों उरुबेला तीर्थ में निरंजना नदी के किनारे बहुत-से तपस्वी तप किया करते थे। नदी-किनारे दूर तक उनकी कुटियों के छप्पर दीख पड़ते थे, जिनमें अग्निहोत्र का धूम सदा उठा करता था। वे तपस्वी विविध सम्प्रदायों को मानते और अपने शिष्यों-सहित जत्थे बनाकर रहते थे। उनमें से अनेक नगर में भिक्षा मांगते, अपने आश्रमों में पशु पालते और श्रद्धालु जनों से प्रचुर दान पाकर खूब सम्पन्न हालत में रहते थे। बहुत-से बड़े-बड़े कठोर व्रत करते, कुछ कृच्छ्र चान्द्रायण करते, अर्थात् चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ ही एक-एक ग्रास भोजन घटाते-बढ़ाते थे। इस प्रकार वे अमावस को उपवास रखकर प्रतिपदा को एक, द्वितीया को दो, इसी प्रकार पूर्णिमा तक पन्द्रह ग्रास भोजन कर फिर क्रमशः कम करते थे। बहुत-से केवल दूध ही आहार करते, कितने ही एक पैर से खड़े होकर वृक्षों में लटककर, आकण्ठ जल में खड़े होकर, शूल शय्याओं पर पड़े रहकर विविध भांति से शरीर को कष्ट देते। बहुत-से शीत में, खुली हवा में, नंगे पड़े रहते और ग्रीष्म में पंचाग्नि तापते, बहुत-से महीनों समाधिस्थ रहते। कितने ही नंगे दिगम्बर रहते, कितने ही जटिल और कितने ही मुण्डित। नदी-तट में तनिक हटकर जो पर्वत शृंग हैं, उनमें बहुत-सी गुफाएं थीं। कुछ तपस्वी उन गुफाओं में एकान्त बन्द रहकर सप्ताहों और महीनों की समाधि लगाया करते थे। पर्वत-कन्दराओं में बहुत-से तपस्वी निरीह दिगम्बर वेश में पड़े रहते। वे भूख-प्यास, शीत-उष्ण, सब ईतियों और भीतियों से मुक्त थे। वे देह का सब त्याग चुके थे। बहुत से तपस्वी रात-भर हठपूर्वक जागरण करते थे। बहुत-से इनमें सर्वत्यागी थे। बहुत-से अवधूत नंग-धड़ंग निर्भय विचरण करते, बहुत-से कापालिक मुर्दों की खोपड़ी की मुण्डमाला गले में धारण कर पशु की ताज़ा रक्तचूती खाल अंग में लपेटे तन्त्र–वाक्यों का उच्चारण करते घूमते, श्मशान में रात्रिवास करते, विविध कुत्सित और वीभत्स क्रियाएं और चेष्टाएं करते। वे यह दावा करते थे कि उन्होंने इन्द्रियों की वासनाओं को जीत लिया है और वे सिद्ध पुरुष हैं। बहुत तान्त्रिक मारण-मोहन-उच्चाटन के अभिचार करते थे। उनसे लोग बहुत भय खाते थे। इन सब सन्तों में तीन जटिल बहुत प्रसिद्ध थे। वे जटाधारी होने से जटिल कहलाते थे। उनके शिष्य भी मुण्डन नहीं कराते थे। इनमें एक उरुबेल-काश्यप थे, जिनके अधीन 500 जटिल ब्रह्मचारी थे। दूसरे नदी-काश्यप तीन सौ जटिलों के और तीसरे गया-काश्यप दो सौ जटिलों के स्वामी थे। ये तीनों महाकाश्यप के नाम से प्रसिद्ध थे। इनके शास्त्रज्ञान, सिद्धि, तप और निष्ठा की बड़ी धूम थी। दूर-दूर के राजा और श्रीमन्त, सेट्ठीगण विविध स्वर्ण-रत्न-अन्न भेंट करके उनका प्रसाद ग्रहण करते थे। लोग उन्हें महाशक्तिसम्पन्न, महाचमत्कारी सिद्ध समझते थे और ये तीनों भी अपने को अर्हत् कहते थे। ये महाकाश्यप बहुधा बड़े-बड़े यज्ञ किया करते थे, जिनमें वत्स, मगध, कोसल और अंग निवासी श्रद्धापूर्वक अन्न, घृत, रत्न, कौशेय और मधु आदि लेकर आते थे। उस समय उरुबेला में पक्ष-पर्यन्त बड़ा भारी मेला लगा रहता था।

आज उसी उरुबेला तीर्थ को बुद्धगया के नाम से लोग जानते हैं, और वह निरंजना नदी फल्गु के नाम से पुकारी जाती है। अब वहां भारत भर के हिन्दू श्रद्धापूर्वक अपने पितरों को पिण्ड दान देते और बड़े-बड़े दान करते हैं। यहीं पर लोकविश्रुत बोधिवृक्ष और बुद्ध की अप्रतिम मूर्ति है। आज भी वहां के चारों ओर के वातावरण को देखकर कहा जा सकता है कि कभी अत्यन्त प्राचीनकाल में यह स्थान भारी तीर्थ रहा होगा।

7. शाक्यपुत्र गौतम : वैशाली की नगरवधू

उसी उरुबेला तीर्थ में उसी निरंजना नदी के किनारे एक विशाल वट वृक्ष के नीचे एक तरुण तपस्वी समाधिस्थ बैठे थे। अनाहार और कष्ट सहने से उनका शरीर कृश हो गया था, फिर भी उनकी कान्ति तप्त स्वर्ण के समान थी। उनके अंग पर कोई वस्त्र न था, केवल एक कौपीन कमर में बंधी थी। उनकी देह, नेत्र और श्वास तक अचल थी। ये कपिलवस्तु के राजकुमार शाक्यपुत्र गौतम थे, जिन्होंने अक्षय आनन्द की खोज में लोकोत्तर सुख-साधन त्याग दिए थे।

तरुण तपस्वी ने नेत्र खोले, सामने पीपल के वृक्ष के नीचे कई बालक बकरी चरा रहे थे। उनकी काली-लाल-सफेद बकरियां हरे-हरे मैदानों में उछल-कूद कर रही थीं। गौतम ने स्थिर दृष्टि से इन सबको देखा। बड़ा मनोहर प्रभात था, बैसाखी पूर्णिमा के दूसरे दिन का उदय था। स्वच्छाकाश से प्रभात-सूर्य की सुनहरी किरणें हरे-भरे खेतों पर शोभा-विस्तार कर रही थीं, गौतम को विश्व आशा और आनन्द से ओतप्रोत ज्ञात हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि उनके हृदय में एक प्रकाश की किरण उदय हुई है और वह सारे विश्व को ओतप्रोत कर रही है। विश्व उससे उज्ज्वल, आलोकित और पूत हो रहा है, उस आलोक में भयव्याधि नहीं है, अमरत्व है, मुक्ति है, आनन्द है। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं बुद्ध हूं। तथागत हूं। अर्हत हूं।

उसी समय उत्कल देश से दो बंजारे उधर आ निकले। वे इस तरुण कृश तपस्वी को देखकर कहने लगे––”भन्ते, यह मट्ठा और मधुगोलक हैं, हम इनसे आपका सत्कार करना चाहते हैं, इन्हें ग्रहण कीजिए! गौतम ने स्निग्ध दृष्टि उन पर डाली और कहा––”मैं तथागत हूं, बुद्ध हूं, मैं बिना पात्र के भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता।” तब उन्होंने एक पत्थर के पात्र में उन्हें मट्ठा और मधुगोलक दिए। जब गौतम उन्हें खा चुके तो बंजारों ने कहा––”भन्ते, मेरा नाम भिल्लक और इसका तपस्सू है। आज से हम दोनों आपकी तथा धर्म की शरण हैं।”

संसार में वही दोनों दो वचनों से प्रथम उपासक हुए।

उनके जाने पर गौतम बहुत देर तक उस वट वृक्ष की ओर ममत्व से देखते रहे। फिर उसी आसन पर बैठकर उन्होंने प्रतीत्य समुत्पाद का अनुलोम और प्रतिलोम मनन किया। अविद्या के कारण संस्कार होता है, संस्कार के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नाम-रूप और नाम-रूप के कारण छः आयतन होते हैं। छः आयतनों के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा, मरण, शोक, दुःख, चित्त-विकार और खेद उत्पन्न होता है। इस प्रकार संसार की उत्पत्ति है। अविद्या के विनाश से संस्कार का, संस्कार-नाश से विज्ञान का, विज्ञान-नाश से नाम-रूप का और नाम-रूप के नाश से छः आयतनों का नाश होता है। छः आयतनों के नाश से स्पर्श का नाश होता है। स्पर्श के नाश से वेदना का नाश होता है। वेदना के नाश से तृष्णा का नाश होता है। तृष्णा-नाश से उपादान का नाश होता है। उपादान-नाश से भव का नाश होता है। भव-नाश से जाति का नाश होता है। जाति-नाश से जरा, मरण शोक, दुःख और चित्तविकार का नाश होता है। इस प्रकार दुःख पुञ्ज का नाश होता है, यही सत्य ज्ञान प्राप्त कर गौतम ने बुद्धत्व पद ग्रहण किया। वे समाधि से उठकर आनन्दित हो कहने लगे, “मैंने गंभीर, दुर्दर्शन, दुर्जेय, शांत, उत्तम, तर्क से अप्राप्य धर्मतत्त्व को जान लिया।” उनके अन्तस्तल में एक आवाज़ उठी––’लोक नाश हो जाएगा रे, यदि तथागत का सम्बुद्ध चित धर्म-प्रवर्तन न करेगा।’ उन्होंने अपनी ही शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा से कहा––’हे शोकरहित! शोक-निमग्न और जन्म-जरा से पीड़ित जनता की ओर, देख उठ। हे संग्रामजित्! हे सार्थवाह! हे उऋणऋण! जग में विचर, धर्मचक्र-प्रवर्तन कर!”

उन्होंने प्रबुद्ध चक्षु से लोक को देखा। जैसे सरोवर में बहुत-से कमल जल के भीतर ही डूबकर पोषित हो रहे हैं, बहुत-से जल के बराबर, बहुत-से पुण्डरीक जल से बहुत ऊपर खड़े हैं, इसी भांति अल्पमल, तीक्ष्ण बुद्धि, सुस्वभाव, सुबोध्य प्राणी हैं जो परलोक और बुराई से भय खाते हैं।

बुद्ध ने निश्चय किया कि मैं विश्व-प्राणियों को अमृत का दान दूंगा और वे तब उरुबेला से काशी की ओर चल खड़े हुए। मार्ग में उन्हें उपक आजीवक मिला। उसने उस तेजस्वी, शांत, तृप्त गौतम को देखकर कहा––”आयुष्मान्! तेरी इन्द्रियां प्रसन्न, तेरी कान्ति निर्मल है, तू किसे गुरु मानकर प्रव्रजित हुआ है?”

गौतम ने कहा––”मैं सर्वजय और सर्वज्ञ हूं, निर्लेप हूं, सर्वत्यागी हूं, तृष्णा के क्षय से मुक्त हूं। मेरा गुरु नहीं है। मैं अर्हत हूं, मैं सम्यक्-सम्बुद्ध, शान्ति तथा निर्वाण को प्राप्त हूं, मैं धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए कोशियों के नगर में जा रहा हूं।”

उपक ने कहा––”तब तो तू आयुष्मान् जिन हो सकता है!”

“मेरे चित्त-मल नष्ट हो गए हैं, मैं जिन हूं।”

“संभव है आयुष्मान्!” यह कहकर वह दिगम्बर उपक चला गया।

गौतम वाराणसी में ऋषिपत्तन मृगदाव में आ पहुंचे। पंचवर्गीय साधुओं ने उन्हें देखकर पहचान लिया। गौतम उनके साथ कठिन तपश्चरण कर चुके थे। एक ने कहा––”अरे, यह साधनाभ्रष्ट जोरू-बटोरू श्रमण गौतम आ रहा है, इसे अभिवादन नहीं करना चाहिए, प्रत्युथान भी नहीं देना चाहिए, न आगे बढ़कर इसका पात्र-चीवर लेना चाहिए, केवल आसन रख देना चाहिए, बैठना हो तो बैठे।”

परन्तु गौतम के निकट आने पर एक ने उन्हें आसन दिया, एक ने उठकर पात्र चीवर लिए, एक ने पादोदक, पाठपीठ, पादकठलिका पास ला रखी। गौतम ने पैर धोए, आसन पर बैठे, बैठकर कहा––”भिक्षुओ, मैंने जिस अमृत को पाया है, उसे मैं तुम्हें प्रदान करता हूं।”

पंचवर्गीय साधुओं ने कहा––”आवुस गौतम, हम जानते हैं, तुम उस साधना में, उस धारणा में, उस दुष्कर तपस्या में भी आर्यों के ज्ञान-दर्शन की पराकाष्ठा को नहीं प्राप्त हो सके और अब साधनाभ्रष्ट हो…।”

गौतम ने कहा––”भिक्षुओ, तथागत को आवुस कहकर मत पुकारो। तथागत अर्हत सम्यक्सम्बुद्ध है। इधर कान दो, मैं तुम्हें अमृत प्रदान करता हूं, उस पर आचरण करके तुम इसी जन्म में अर्हत-पद प्राप्त करोगे।”

परन्तु पंच भिक्षुओं ने फिर भी उन्हें आवुस कहकर पुकारा। इस पर तथागत ने कहा––”भिक्षुओ, क्या मैंने पहले भी कभी ऐसा कहा था?”

“नहीं, भन्ते!”

“तब इधर कान दो भिक्षुओ! साधु को दो अतियां नहीं सेवन करनी चाहिए। एक वह जो हीन, ग्राम्य, अनर्थयुक्त और कामवासनाओं से लिप्त है और दूसरी जो दुखःमय, अनार्यसेवित है। भिक्षुओ, इन दोनों अतियों से बचकर तथागत के मध्यम मार्ग पर चलो, जो निर्वाण के लिए है। वह मध्यम मार्ग आर्य अष्टांगिक है। यथा ठीक दृष्टि, ठीक संकल्प, ठीक वचन, ठीक कर्म, ठीक जीविका, ठीक प्रयत्न, ठीक स्मृति, ठीक समाधि––यही मध्यमार्ग है भिक्षुओ!

“दुःख सत्य है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दुःख है, मरण दुःख है, अप्रिय संयोग दुःख है, प्रिय-वियोग दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख है।”

“दुःख के कारण भी सत्य हैं। यह जो तृष्णा है फिर जन्मने की, सुख-प्राप्ति की, रागसहित प्रसन्न होने की ये तीनों काम-भव-विभव-तृष्णा दुःख हैं।”

“और भिक्षुओ! यह दुःख निरोध भी सत्य है जिसमें तृष्णा का सर्वथा विलय होकर त्याग और मुक्ति होती है। फिर दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपद, दुःख-निरोध की ओर जानेवाला मार्ग भी सत्य है।”

“भिक्षुओ! यही चार सत्य हैं। यही आर्य अष्टांगिक मार्ग है। इन चार सत्यों के तेहरा––इस प्रकार 12 प्रकार का बुद्ध ज्ञान दर्शन करके ही मैं बुद्ध हुआ हूं। मेरी मुक्ति अचल है, यह अन्तिम जन्म है, फिर आवागमन नहीं है।”

तथागत के इस व्याख्यान को सुनकर पंचवर्गीय भिक्षुओं में से कौण्डिन्य ने कहा––”तब भन्ते, जो कुछ उत्पन्न होनेवाला है, वह सब नाशवान् है?”

“सत्य है, सत्य है, आयुष्मान् कौण्डिन्य, तुम्हें विमल-विरज धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ। जो कुछ उत्पन्न होनेवाला है नाशवान् है, ओहो, कौण्डिन्य ने जान लिया, कौण्डिन्य ने जान लिया। आयुष्मान् कौण्डिन्य, आज से तुम ‘कौण्डिन्य-प्रज्ञात’ के नाम से प्रसिद्ध होओ!”

तब कौण्डिन्य ने प्रणिपात करके कहा––”भगवन्, मुझे प्रव्रज्या मिले। उपसम्पदा मिले।”

बुद्ध ने कहा––”तो कौण्डिन्य, तुम सत्य ही धर्म का साक्षात्कार करके संशय-रहित विवादरहित, बुद्धधर्म में विशारद और स्वतन्त्र होना चाहते हो?”

कौण्डिन्य ने बद्धांजलि कहा––”ऐसा ही है, भन्ते!”

“तब आओ भिक्षु, यह धर्म सुन्दर व्याख्यात है, दुःखनाश के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो। यही तुम्हारी उपसम्पदा हुई।”

तब भिक्षु वप्प और भद्दिय ने कहा––”भगवन्, जो कुछ उत्पन्न होने वाला है वह सब नाशवान् है। भन्ते, हमें प्रव्रज्या मिलनी चाहिए, उपसम्पदा मिलनी चाहिए।”

“साधु भिक्षुओ, साधु! तुम्हें विमल-विरज धर्मनेत्र मिला। आओ, धर्म सुव्याख्यात है, भलीभांति दुःख-क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो।”

आयुष्मान् महानाभ और अश्वजित् ने भी प्रणिपात कर निवेदन किया, “भगवन्, हमने भी सत्य को जान लिया, हमें भी उपसम्पदा मिले, प्रव्रज्या मिले!” बुद्ध ने उन्हें ब्रह्मचर्य-पालन का उपदेश देते हुए कहा––”भिक्षुओ, सब भौतिक पदार्थ अन-आत्मा हैं। यदि इनकी आत्मा होती तो ये पीड़ादायक न होते। वेदना भी अन-आत्मा है। अभौतिक पदार्थ विज्ञान भी अन-आत्मा है क्योंकि वह पीड़ादायक है। तब, क्या मानते हो भिक्षुओ! रूप नित्य है या अनित्य?”

“अनित्य है भन्ते!”

“जो अनित्य है, वह दुःख है या सुख?”

“दुःख है भन्ते!”

“जो अनित्य, दुःख और विकार को प्राप्त होनेवाला है, क्या उसके लिए यह समझना उचित है कि यह पदार्थ मेरा है, यह मैं हूं, यह मेरी आत्मा है?”

“नहीं भन्ते?”

“तब क्या मानते हो भिक्षुओ, जो कुछ भी भूत-भविष्य-वर्तमान सम्बन्धी, भीतर या बाहर, स्थूल या सूक्ष्म, अच्छा या बुरा, दूर या नज़दीक का रूप है, वह न मेरा है, न मैं हूं, मेरी आत्मा है––ऐसा समझना चाहिए?”

“सत्य है भन्ते!”

“और इसी प्रकार वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान भी, भिक्षुओ!”

“सत्य है भन्ते, हमने इस सत्य को समझ लिया।”

“तो भिक्षुओ! विद्वान् आर्य को रूप से, वेदना से, संज्ञा से और विज्ञान से उदास रहना चाहिए। उदास रहने से इन पर विराग होगा, विराग से मुक्ति, मुक्ति से आवागमन छूट जाएगा भिक्षुओ! आवागमन नष्ट हो गया, ब्रह्मचर्य-वास पूरा हो गया। करना था सो कर लिया। अब कुछ करना शेष नहीं।”

भाषण के अन्त में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने तथागत को प्रणिपात किया और कहा––”भगवन्, हमारा चित्त मलों से मुक्त हो गया है।”

“तब भिक्षुओ, अब इस लोक में कुल छः अर्हत हैं। एक मैं और पांच तुम।” इतना कहकर तथागत वृक्ष के सहारे पीठ टेककर अन्तःस्थ हो गए। भिक्षु-गण प्रणिपात कर भिक्षाटन को गए।

8. कुलपुत्र यश : वैशाली की नगरवधू

कुलपुत्र यश वाराणसी के नगरसेट्ठि का एकमात्र पुत्र था। वह सुन्दर युवक भावुक और कोमल-हृदय था। उसके तीन प्रासाद थे : एक हेमन्त का, दूसरा ग्रीष्म का, तीसरा वर्षा का। जिस समय की बात हम कह रहे हैं वह वर्षाकालिक प्रासाद में अपुरुषों से सेवित सुख लूट रहा था। श्रमण गौतम मृगदाव में आए हैं, यह उसने सुना। यह श्रमण गौतम राज सम्पदा और शाक्यों की प्रख्यात वंश-परम्परा त्याग, सुन्दरी पत्नी, नवजात पुत्र, सम्पन्न वैभव, वाहन और अनुचरों का आश्रय त्याग वाराणसी में पांव-पैदल, हाथ में भिक्षापात्र लिए, सद्गृहस्थों के द्वार पर नीची दृष्टि किए मौन भाव से भिक्षा मांगता फिरता है। उसने काशी के विश्रुत विद्वान् पञ्चजनों को उपसम्पदा दी है। यह गौतम किस सम्पदा से आप्यायित है?—यह श्रमण किस अमृत से तृप्त है? यह श्रमण किस निधि से ओतप्रोत है? उस दिन यश बड़ी देर तक बैठा यही सोचता रहा।

अंधेरी रात थी। रिमझिम वर्षा हो रही थी। ठण्डी हवा बह रही थी। यश का वर्षा-प्रासाद गन्धदीपों के मन्द आलोक से आलोकित और गन्धद्रव्यों से सुरभित हो रहा था। रात गहन होती गई और यश और भी गहन मुद्रा से उसी श्रमण गौतम के विषय में सोचने लगा। प्रासाद में मृदुल वाद्यों की झंकार पूरित थी। नुपूर और किंकिणि की ठमकियां आ रही थीं। दासियों ने आकर निवेदन किया––”यह कुलपुत्र के शयन का समय है, यह अवमर्दक, पीठमर्दिका उपस्थित है, ये चरणदासियां हैं। कुलपुत्र विश्राम करें, शय्यारूढ़ हों, हम चरण सेवा करें। आज्ञा हो, नृत्यवाद्य हो। वाराणसी की श्रेष्ठ सुन्दरी वेश्या कादम्बरी नृत्य के लिए प्रतीक्षा कर रही है।”

यश ने थकित भाव से कहा—”अभी ठहरो शुभे, मुझे कुछ सोचने दो। यही तो मैं नित्य देखता-भोगता रहा हूं। सुन्दरियों के नृत्य, रूपसी का रूप, कोकिल-कण्ठी का कलगान, तन्त्री की स्वर-लहरी, नहीं-नहीं, अब मुझे इनसे तृप्ति नहीं होती। कौन है, वह श्रमण? वह किस सम्पदा से सम्पन्न है? यही तो सब कुछ इससे भी अधिक-बहुत अधिक वह त्याग चुका, इनसे विरत हो चुका। फिर भी वह चिन्तारहित है, उद्वेगरहित है, विकाररहित है। वह पांव-प्यादा चलकर प्रत्येक गृहस्थ से भिक्षा लेता है और चला जाता है, पृथ्वी में दृष्टि दिए, शांत, तृप्त, मौन!…”

“नहीं, नहीं, अभी नहीं। नृत्य रहने दो, पीठमर्दिका और अवमर्दक से कह दो, वे शयन करें और तुम भी शुभे, शयन करो। अभी मुझे कुछ सोचने दो, कुछ समझने दो। वह श्रमण, वह शाक्यपुत्र…!”

दासियां चली गईं। रात गंभीर होती गई। नुपूर-ध्वनि बन्द हुई। प्रासाद में शान्ति छा गई। सुगन्धित दीप जल रहे थे। स्निग्ध प्रकाश फैल रहा था। आकाश में काले-अंधेरे बादल घूम रहे थे। नन्हीं-नन्हीं फुहार गिर रही थी। तभी यश की विचारधारा टूटी। वह धीरे-धीरे शयन-कक्ष में गया। देखा अपना परिजन। दासियां और सखियां इधर-उधर पड़ी सो रही थीं। किसी की बगल में वीणा थी, किसी के गले में मृदंग, किसी के बाल बिखरकर फैल गए थे, किसी के मुंह से लार निकल रही थी, कोई मुंह फैलाए, कोई मुख को विकराल किए बेसुध पड़ी थी।

यश ने कहा—”यही वह मोह है जिसे उस श्रमण ने त्याग दिया। पर वह सम्पदा क्या है, जो उसने पाई है?” उसने एक बार फिर परिजन को सोते हुए देखा—फिर कहा—’अरे, मैं सन्तप्त हूं, मैं पीड़ित हूं!!!’

उसने अपना सुनहरा जूता पहना और प्रथम घर के द्वार की ओर, फिर नगर-द्वार की ओर चल दिया। घोर अंधेरी रात थी। शीतल वायु बह रही थी, जनपद सो रहा था। आकाश मेघाच्छन्न था। यश अपना सुनहरा जूता पहने कीचड़ में अपने अनभ्यस्त पदचिह्न बनाता आज कदाचित् अपने जीवन में पहली बार ही पांव-प्यादा उस पथ पर जा रहा था, जो मृगदाव ऋषिपत्तन की ओर जाता है।

गौतम उस समय भिनसार ही में उठकर खुले स्थान में टहल रहे थे। उन्होंने दूर से कुलपुत्र को अपनी ओर आते देखा तो टहलने के स्थान से हटकर आसन पर बैठे। तब कुलपुत्र ने निकट पहुंचकर कहा—”हाय, मैं संतप्त हूं! हाय, मैं पीड़ित हूं!”

गौतम ने कहा—”यश, यह तथागत असंतप्त है। अपीड़ित है। आ बैठ। मैं तुझे आनन्द का अमृत पान कराऊंगा।” कुलपुत्र ने प्रसन्न होकर कहा—”भन्ते, क्या आप असंतप्त हैं, अपीड़ित हैं?” वह जूता उतारकर गौतम के निकट गया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।

गौतम ने तब यश को आनुपूर्वी कथा कही और कामवासनाओं का दुष्परिणाम, उपकार-दोष और निष्कामता का माहात्म्य बताया। उन्होंने कुलपुत्र यश को भव्य-चित्त, मृदुचित्त, अनाच्छादितचित्त, आह्लादितचित्त और प्रसन्न देखा। तब उसे दुःख का कारण, उसका नाश और नाश के उपाय बताए। जैसे कालिमारहित शुद्ध वस्त्र अच्छा रंग पकड़ता है उसी प्रकार कुलपुत्र यश को उसी आसन पर उसी एक उपदेश से—”जो कुछ उत्पन्न होने वाला है वह सब नाशवान् है” यह धर्मचक्षु प्राप्त हुआ।

यश कुलपुत्र की माता ने भोर होने पर सुना कि यश कुलपुत्र रात को शयनागार में सोए नहीं और प्रासाद में उपस्थित भी नहीं हैं, तो वह पुत्र-प्रेम से विकल हो श्रेष्ठी गृहपति के पास गई। गृहपति सेट्ठि कुलपुत्र के सुनहले जूतों के चिह्न खोजता हुआ ऋषिपत्तन मृगदाव तक गया। वहां श्रमण गौतम को आसीन देखकर कहा—”भन्ते, क्या आपने कुलपुत्र यश को देखा है?” गौतम ने कहा—”गृहपति, बैठ, तू भी उसे देखेगा।” गृहपति ने हर्षोत्फुल्ल हो भगवान् गौतम को प्रणाम किया और एक ओर बैठ गया। भगवान् ने आनुपूर्वी कथा कही और गृहपति सेट्ठि को उसी स्थान पर धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ।

उसने कहा—”आश्चर्य भन्ते! आश्चर्य! जैसे कोई औंधे को सीधा कर दे, ढके को उघाड़ दे, भूले को रास्ता बता दे, अन्धकार में तेल का दीपक रख दे, जिससे आंख वाले रूप देखें, उसी भांति भगवान् ने धर्म को प्रकाशित कर दिया। वह मैं, भगवान् की शरण जाता हूं, धर्म की शरण जाता हूं, संघ की शरण जाता हूं। आप मुझे अंजलिबद्ध उपासक ग्रहण करें।”

तथागत ने जलद-गम्भीर स्वर में कहा—”स्वस्ति सेट्ठि गृहपति, संसार में एक तू ही तीन वचनों वाला प्रथम उपासक हुआ।”

इसी समय कुलपुत्र यश पिता के सम्मुख आकर खड़ा हो गया, उसका मुख सत्य ज्ञान से देदीप्यमान था और उसका चित्त अलिप्त एवं दोषों से मुक्त था।

गृहपति ने पुत्र को देखकर दीन भाव से कहा—”पुत्र यश! तेरी मां शोक में पड़ी रोती है और पत्नी तेरे वियोग में मूर्च्छित है। अरे कुलपुत्र, तेरे बिना हमारा सब-कुछ नष्ट है।”

तथागत गौतम ने कहा—”श्रेष्ठि गृहपति, जैसे तुमने अपूर्व ज्ञान और अपूर्व साक्षात्कार से धर्म को देखा, वैसे ही यश ने भी देखा है। देखे और जाने हुए को मनन करके, प्रत्यवेक्षण करके उसका चित्त अलिप्त होकर मलों से शुद्ध हो गया है। सो गृहपति, अब यश क्या पहले की भांति गृहस्थ सुख भोगने योग्य है?”

“नहीं भन्ते!”

“गृहपति, इसे तुम क्या समझते हो?”

“लाभ है भन्ते, यश कुलपुत्र को। सुलाभ किया भन्ते, यश कुलपुत्र ने, जो कि यश कुलपुत्र का चित्त अलिप्त हो मलों से मुक्त हो गया। भन्ते भगवन्! यश को अनुगामी भिक्षु बनाकर मेरा आज का भोजन स्वीकार कीजिए।” भगवान् ने मौन स्वीकृति दी। सेट्ठि गृहपति स्वीकृति समझ आसन से उठ भगवान् गौतम को प्रणाम कर प्रदक्षिणा कर चले गए।

तब यश कुलपुत्र ने सम्मुख आ प्रणाम कर गौतम से कहा—”भन्ते भगवन्, मुझे प्रव्रज्या दें, उपसम्पदा दें!”

गौतम तथागत ने कहा—”भिक्षु, आओ, धर्म सुव्याख्यात है, अच्छी तरह दुःख के क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो। तुम्हें उपसम्पदा प्राप्त हुई। अब इस समय तथागत सहित लोक में सात अर्हत हैं।”

9. धर्म चक्र-प्रवर्तन : वैशाली की नगरवधू

काशियों में बड़ी उत्तेजना फैल गई। वाराणसी की वीथिका में लोगों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि शाक्यपुत्र गौतम चीवर और भिक्षापात्र हाथ में लिए, नीचा सिर किए, अपने स्वर्ण समान दमकते हुए मुख को पृथ्वी की ओर झुकाए पांव-प्यादे जा रहे हैं। उनके पीछे-पीछे नगरजेट्ठक नगरसेट्ठि का कुलपुत्र यश उसी भांति सिर मुंडाए, नंगे पैर चीवर और भिक्षापात्र हाथ में लिए, नीची दृष्टि किए जा रहा है। किसी ने कहा—”अरे, यही वह शाक्य राजकुमार गौतम है, जिसने पत्नी, पुत्र, राज्यसुख सब त्याग दिया है। जिसने मार को जीता है, जिसने अमृत प्राप्त किया है, जो अपने को सम्पूर्ण बुद्ध कहता है।” कोई कह रहा था—”देखो, देखो, यही कुलपुत्र यश है, जो कल तक सुनहरी जूते पहने, कानों में हीरे के कुण्डल पहने, अपने रथ की स्वर्णघंटियों के घोष से वीथियों को गुञ्जायमान करते हुए नगर में आता था। आज वह नंगे पैर श्रमण गौतम का अनुगत हो भिक्षापात्र लिए अपने ही घर भिक्षान्न की याचना करने जा रहा है।”

किसी ने कहा—”अरे कुलपुत्र यश के मुख का वैभव तो देखो! सुना है, उसे परम सम्पदा प्राप्त हुई है, उसे अमृततत्त्व मिला है।”

पौर वधुओं ने झरोखों में से झांककर कहा—”बेचारे कुलपुत्र की नववधू का भाग्य कैसा है री? अरे यह स्वर्णगात, यह मृदुल-मनोहर गति, यह काम-विमोहन रूप लेकर कैसे इसी वयस में यश कुलपुत्र भिक्षु बन गया?”

कोई कहती—”देखो री देखो, कुलपुत्र का भिक्षुवेश? अरे! इसने अपने चिक्कण घनकुंचित केश मुंडवा दिए। यह निराभरण होकर, पांव-प्यादा चलकर भी कितना सुखी है, शांत है, तेज से व्याप्त है!”

सबने कहा—”उसने अमृत पाया है री! उसने उपसम्पदा प्राप्त की है।”

पौरजन कहने लगे—”काशी में यह श्रमण गौतम उदय हुआ है और वैशाली में वह अम्बपाली। अब इन दोनों के मारे जनपथ में कोई घर में नहीं रहने पाएगा। काशी के सब कुलपुत्रों को यह भ्रमण गौतम भिक्षु बना डालेगा और वैशाली में अम्बपाली सब सेट्ठिपुत्रों और सामन्तपुत्रों को अपने रूप की हाट में खरीद लेगी।”

उस समय के सम्पूर्ण लोक में जो सात अर्हत थे, वे चुपचाप बढ़े चले जा रहे थे। उनकी दृष्टि पृथ्वी पर थी, कन्धों पर चीवर था, हाथ में भिक्षापात्र था, नेत्रों में धर्म-ज्योति, मुख पर ज्ञान-दीप्ति, अंग में उपसम्पदा की सुषमा, गति में त्याग और तृप्ति थी। लोग ससम्मान झुकते थे, परिक्रमा करते थे, अभिवादन करते थे, उंगली उठा-उठाकर एक-एक का बखान करते थे।

गृहपति ने आगे बढ़कर सातों अर्हतों का स्वागत किया। उन्हें आसन देकर पाद्य पादपीठ और पादकाष्ठ दिया। जब भगवान् बुद्ध स्वस्थ होकर आसन पर बैठे, तब यश कुलपुत्र की माता और पत्नी आईं और तथागत का पदवन्दन करके बैठ गईं। उनसे तथागत ने आनुपूर्वी कथा कही और जब भगवान् ने उन्हें भव्यचित्त देखा तो, जो बुद्धि को उठानेवाली देशना है—दुःख-समुदय, निरोध और मार्ग, उसे प्रकाशित किया। उन दोनों को उसी आसन पर विमल-विरज धर्मचक्षु उदय हुआ। उन्होंने कहा—”आश्चर्य भन्ते, आज से हमें अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासिका जानें।”

तथागत ने उन्हें उपसम्पदा दी और विश्व में वही दोनों प्रथम तीन वचनों वाली प्रथम उपासिका बनीं।

इसके बाद सातों अर्हतों ने तृप्तिपूर्वक भोजन किया। फिर स्वस्थ हो भगवान् ने उन्हें संदर्शन, समाज्ञापन, समुत्तेजन, संप्रहर्षण प्रदान किया और आसन से उठे।

आगे-आगे तथागत, पीछे पंचजन भिक्षु और उनके पीछे कुलपुत्र यश उसी भांति जब मृगदाव लौटे तो यश के चार परम मित्र यश के पीछे-पीछे हो लिए। एक ने कहा—”यह यश कैसे दाढ़ी-मूंछ मुंडा, काषाय वस्त्र पहन एकबारगी ही घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो गया?” दूसरे कहा—”वह धर्मविनय छोटा न होगा, वह संन्यास छोटा न होगा जिसमें कुलपुत्र यश सिर-दाढ़ी मुंडा, काषाय वस्त्र पहन, घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ है।”

तब चारों मित्रों ने निश्चय किया कि हम भी कुलपुत्र यश की सम्पदा के भागी बनेंगे। जब सब कोई मृगदाव पहुंचे और अपने-अपने आसनों पर स्वस्थ होकर बैठे, तो चारों मित्र अभिवादन करके यश की ओर खड़े हो गए। उनमें से एक ने कहा—”भन्ते, यश कुलपुत्र! हमें भी धर्मलाभ होने दो। हमें भी वह अमृततत्त्व प्राप्त होने दो।”

यश उन्हें लेकर वहां पहुंचा, जहां तथागत बुद्ध शान्त मुद्रा से स्थिर बैठे थे। यश ने कहा—”भगवन्, ये मेरे चार अन्तरंग गृही मित्र वाराणसी के श्रेष्ठियों, अनुश्रेष्ठियों के कुलपुत्र हैं। इसका नाम सुबल, इसका सुबाहु, इसका पूर्णजित् और इसका गवाम्पति है। इन्हें भगवान् अनुशासन करें।”

तथागत ने उनसे आनुपूर्वी कथा कही और सत्य-चतुष्टय का उपदेश दिया। तब वे सुव्याख्यात धर्म में विशारद स्वतन्त्र हो बोले—”भगवान् हमें उपसम्पदा दें। भगवान् ने कहा—”भिक्षुओ, आओ, धर्म सुव्याख्यात है। अच्छी तरह दुःख के क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो।” यही उनकी उपसम्पदा हुई। तब भगवान् ने उनकी अनुशासना की। अब लोक में ग्यारह अर्हत् थे।

आग की भांति यह समाचार सारे काशी राज्य में फैल गया। यश के ग्रामवासी पूर्वज परिवारों के पुत्र पचास गृही मित्रों ने सुना कि यश कुलपुत्र भिक्षु हो गया है, वे भी बुद्ध की शरण आए और प्रव्रज्या ले ली।

अब लोक में इकसठ अर्हत् थे।

भगवान् गौतम ने कहा—

“भिक्षुओ, अब तुम सब मानुष और दिव्य बन्धनों से मुक्त हो। बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए, लोक पर दया करने के लिए, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिए, हित के लिए, सुख के लिए विचरण करो! एक साथ दो मत जाओ। आदि में कल्याणकारक, मध्य में कल्याणकारक, अन्त में कल्याणकारक, इस धर्म का उपदेश करो। अर्थ सहित, व्यंजन सहित परिपूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का सेवन करो। अल्पदोष वाले प्राणी भी हैं, कल्याणकारक धर्म के न सुनने से उनकी हानि होगी, सुनने से वे धर्म को जानेंगे। जाओ भिक्षुओ, दिशा-दिशा में जाओ। अनुमति देता हूं , उन्हें प्रव्रज्या दो, उपसम्पदा प्रदान करो!”

10. वैशाली का स्वर्ग : वैशाली की नगरवधू

वैशाली का सप्तभूमि प्रासाद उस युग के नन्दन वन से होड़ लगाता था। वहां की सम्पदा, सम्पन्नता विभूति और सजावट देखकर सम्राटों को ईर्ष्या होती थी। यह समूचा महल श्वेतमर्मर का बना था, जिसमें सात खण्ड और सात ही प्रांगण थे। उसकी सबसे ऊंची अट्टालिका पर लगे स्वर्णकंगूर प्रभात की सुनहली धूप में चमकते हुए दूर तक बड़ा भारी शोभा-विस्तार करते थे। यह प्रासाद बहुत विशाल था। उसके सभी द्वार-तोरणों पर प्रत्येक सायंकाल को जूही, चम्पा, चम्पक, मालती और शतदल की मालाएं मोहक ढंग से टांगी जाती थीं। ये मालाएं दूर-दूर के देशों के अधिपतियों और सेट्ठिकुबेरों की ओर से भेंटस्वरूप भेजी जाती थीं। अलिन्दों और प्रकोष्ठों में शुक, सारिका, मयूर, हंस, करण्ड, सारस, लाव, तित्तिर के निवास थे। प्रथम प्रांगण में विशाल मैदान था जहां सन्ध्या होने से पूर्व सुगन्धित जल छिड़क दिया जाता था, जो सन्ध्या होते ही नागरिकों, सेट्ठिपुत्रों और सामन्तपुत्रों के विविध वाहन-रथ, हाथी, शिविका, पालकी, सुखपाल आदि से खचाखच भर जाता था। दूसरे प्रकोष्ठ में अम्बपाली की सेना, गज, अश्व, रथ, मेष, गौ, पशु आदि का स्थान था। यहां भिन्न-भिन्न देशों के अद्भुत और लोकोत्तर पशुओं का संग्रह था, जिन्हें अम्बपाली की कृपादृष्टि पाने के लिए अंग, बंग, कलिंग, चम्पा, ताम्रलिप्ति और राजगृह के सम्राट, महाराज एवं सेट्ठिजन उपहार रूप भेजते रहते थे। तीसरे प्रांगण में सुनार, जड़िए, जौहरी, मूर्तिकार और अन्य कलाकार अपना-अपना कार्य करते थे। उनकी प्रचुर कला और मनोहर कारीगरी से देवी अम्बपाली का वह अप्रतिम आवास और उसका दिव्य रूप शत-सहस्र गुण देदीप्यमान हो जाता था। चौथे प्रांगण में अन्न, वस्त्र, खाद्य, मेवा, फल और मिष्ठान्न का भंडार था। देश-देश के फलों, पक्वान्नों का वहां पाक होता था। बड़े-बड़े विद्वान् अनुभवी वैद्यराज अनेक प्रकार के अर्क, आसव, मद्य और पौष्टिक पदार्थ बनाते रहते थे और उसकी सुगंध से यह प्रकोष्ठ सुगंधित रहता था। यहां भांति-भांति के इत्र, गंध, सार और अंगराग भी तैयार कराए जाते थे। पांचवें कोष्ठ में अम्बपाली का धन, रत्नकोष, बहीवट और प्रबंध व्यवस्था का खाता था, जहां बूढ़े कर्णिक, दण्डधर, कंचुकी और वाहक तत्परता से इधर-उधर घूमते, हिसाब लिखते, लेन-देन करते और स्वर्ण-गणना करते थे। छठे प्रांगण के विशाल सुसज्जित प्रकोष्ठ में देवी अम्बपाली अपनी चेटिकाओं और दासियों को लेकर नागरिकों की अभ्यर्थना करती, उनका मनोरंजन करती थी और वहीं द्यूत, पान, नृत्य और गान होता था। अर्धरात्रि तक वह गंधर्व नगरी जैसी भूतल पर सर्वापेक्षा जाग्रत् रहती थी। सातवें अलिन्द में देवी अम्बपाली स्वयं निवास करती थी, वहां किसी भी आगन्तुक को प्रवेश का अधिकार न था। इस अलिन्द की दीवारों और स्फटिक-स्तम्भों पर रत्न खचित किए गए थे तथा छत पर स्वर्ण का बारीक रंगीन काम किया गया था। बड़े-बड़े सम्राट् इस अलिन्द की शोभा एक बार देखने को लालायित रहते थे, पर वहां किसी का पहुंचना संभव नहीं था।

दीये जल चुके थे। सप्तभूमि प्रासाद का सिंहद्वार उन्मुक्त था। भीतर, बाहर, सर्वत्र सुगन्धित सहस्र दीपगुच्छ जल रहे थे। दासी, बांदी, चेटी और दण्डधर प्रबंध व्यवस्था में व्यस्त बाहर-भीतर आ-जा रहे थे। सेट्ठिपुत्र और सामन्तपुत्र अपने-अपने वाहनों पर आ रहे थे। भृत्यगण दौड़-दौड़कर उनके वाहनों की व्यवस्था कर रहे थे, वे आगन्तुक मित्रों के साथ गप्पें उड़ाते आ-जा रहे थे। छठे अलिन्द के द्वार पर प्रतिहार उनका स्वागत करके उन्हें प्रमोद भवन के द्वार पर पहुंचा रहे थे, जहां मदलेखा अपने सहायक साथियों के साथ आगन्तुकों को आदरपूर्वक ले जाकर उनकी पदमर्यादा के अनुसार भिन्न-भिन्न पीठिकाओं पर बैठाती थी। पीठिकाओं पर धवल दुग्धफेन सम कोमल गद्दे और तकिये बिछे थे। वहां स्थान स्थान पर करीने से आसंदी, पलंग, चित्रक, पटिक, पर्यंकक, तूलिका, विकतिक, उद्दलोमी, एकांतलोमी, कटिस्स, कौशेय और समूरी मृग की खालों के कोमल कीमती बिछौने बिछे थे, जिन पर आकर सुकुमार सेट्ठिपुत्र और अलस सामन्तपुत्र अपने शरीर लुढ़का देते थे; दासीगण बात की बात में पानपात्र, मद्य, सोने के पांसे और दूसरे विनोद के साधन जुटा रही थीं। धूमधाम बढ़ती ही जा रही थी। बहुत लोग दल बांधकर द्यूत खेलने में लग गए। कुछ चुपचाप आराम से मद्य पीने लगे। कुमारी दासियां पार्श्व में बैठकर मद्य ढाल-ढालकर देने लगीं। कुछ लोग भांति-भांति के वाद्य बजाने लगे। प्रहर रात्रि व्यतीत होने पर नृत्य गान प्रारम्भ हुआ। सुन्दरी कुमारी किशोरियां रत्नावली कण्ठ में धारण कर, लोध्ररेणु से कपोल-संस्कार कर, कमर में स्वर्ण-करधनी और पैरों में जड़ाऊ पैंजनी पहन, आलक्तक पैरों को कुसुम स्तवकवाले उपानहों से सज्जित करके कोमल तन्तुवाद्य और गम्भीर घोष मृदंग की धमक पर शुद्ध-स्वर-ताल पर उठाने-गिराने और भू पर आघात करने लगीं। उनकी नवीन केले के पत्ते के समान कोमल और सुन्दर देहयष्टि पद-पद पर बल खाने लगी। उनके नूपुरों की क्वणन ध्वनि ने प्रकोष्ठ के वातावरण को तरंगित कर दिया, उनके नूतन वक्ष और नितम्बों की शोभा ने मद्य की लाली में मद विस्तार कर दिया। उनके अंशुप्रान्त से निकले हुए नग्न बाहुयुगल विषधर सर्प की भांति लहरा-लहराकर नृत्यकला का विस्तार करने लगे। उनकी पतली पारदर्शी उंगलियों की नखप्रभा मृणालदंड की भांति हवा में तैरने लगी और फिर जब उनके प्रवाल के समान लाल-लाल उत्फुल्ल अधरोष्ठों के भीतर हीरक-मणिखचित दन्त-पंक्ति को भेदकर अनुराग सागर की रसधार बहने लगीं, तब सभी उपस्थित सेट्ठि, सामन्त, राजपुत्र, बंधुल, विट, लम्पट उसी रंगभूमि में जैसे भूलोक, नरलोक सबको भूलकर डूब गए। वे थिरक-थिरककर सावधानी और व्यवस्था से स्वर-ताल पर पदाघात करके कामुक युवकों को मूर्छित-सा करने लगीं। उनके गण्डस्थल की रक्तावदान कान्ति देखकर मदिरा रस से पूर्ण मदणिक्य-शुक्ति के सम्पुट की याद आने लगी। उनकी काली-काली, बड़ी-बड़ी अलसाई आंखें। कमलबद्ध भ्रमर का शोभा-विस्तार करने लगीं। भूलताएं मत्त गजराज की मदराजि की भांति तरंगित होने लगीं। उनके श्वेत-रजत भाल पर मनःशिला का लाल बिन्दु अनुराग-प्रदीप की भांति जलता दीख रहा था। उनके माणिक्य-कुण्डलों में गण्डस्थल पर लगे पाण्डुर लोध्ररेणु उड़-उड़कर लगने लगे। मणि की लाल किरणों से प्रतिबिम्बित हुए उनके केशपाश सान्ध्य मेघाडम्बर की शोभा विस्तीर्ण करने लगे। इस प्रकार एक अतर्कित-अकल्पित मदधारा लोचन-जगत् हठात् विह्वल करने लगी। इसके बाद संगीत-सुधा का वर्णन हुआ तो जैसे सभी उपस्थित पौरगण का पौरुष विगलित होकर उसमें बह गया।

धीरे-धीरे अर्धरात्रि व्यतीत हो चली। अब देवी अम्बपाली ने हंसते हुए प्रमोद प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। प्रत्येक कामुक पर उसने लीला-कटाक्षपात करके उन्हें निहाल किया। इस समय उसने वक्षस्थल को मकड़ी के जाले के समान महीन वस्त्र से ढांप रखा था। कण्ठ में महातेजस्वी हीरों का एक हार था। हीरों के ही मकर-कुण्डल कपोलों पर दोलायमान हो रहे थे। वक्ष के ऊपर का श्वेत निर्दोष भाग बिलकुल खुला था। कटिप्रदेश के नीचे का भाग स्वर्ण-मण्डित रत्न-खचित पाटम्बर से ढांपा गया था। परन्तु उसके नीचे गुल्फ और अरुण चरणों की शोभा पृथक् विकीर्ण हो रही थी। उसकी अनिंद्य सुन्दर देहयष्टि, तेजपूर्ण दृष्टि, मोहक-मन्द मुस्कान, मराल की-सी गति, सिंहनी की-सी उठान सब कुछ अलौकिक थी। उस प्रमोद-कानन में मुस्कान बिखेरती हुई, नागरिकों को मन्द मुस्कान से निहाल करती हुई धीरे-धीरे वह एक अति सुसज्जित स्वर्ण-पीठ की ओर बढ़ी। वहां तीन युवक सामन्तपुत्र उपधानों के सहारे पड़े मद्यपान कर रहे थे। मदलेखा स्वयं उन्हें मद्य ढाल-ढालकर पिला रही थी।

मदलेखा एक षोडशी बाला थी। उसकी लाज-भरी बड़ी-बड़ी आंखें उसके उन्मत्त यौवन को जैसे उभरने नहीं देती थीं। वह पद्मराग की गढ़ी हुई पुतली के समान सौन्दर्य की खान थी। व्यासपीठ पर पड़े युवक की ओर उसने लाल मद्य से भरा स्वर्णपात्र बढ़ाया। स्वर्णपात्र को छूती हुई किशोरी मदलेखा की चम्पक कली के समान उंगलियों को अपने हाथ में लेकर मदमत्त युवक सामन्त ने कहा—”मदलेखा, इतनी लाज का भार लेकर जीवन पथ कैसे पार करोगी भला? तनिक और निकट आओ,” उसने किशोरी की उंगली की पोर पकड़कर अपनी ओर खींचा।

किशोरी कण्टकित हो उठी। उसने मूक कटाक्ष से युवक की ओर देखा, फिर मन्दकोमल स्वर से कहा—”देवी आ रही हैं, छोड़ दीजिए।

युवक ने मंद-विह्वल नेत्र फैलाकर देखा-देवी अम्बपाली साक्षात् रतिमूर्ति की भांति खड़ी बंकिम कटाक्ष करके मुस्करा रही हैं। युवक ससंभ्रम उठ खड़ा हुआ। उसने कहा—”अब इतनी देर बाद यह सुधा-वर्षण हुआ!”

“हुआ तो,”—देवी ने कुटिल भ्रूभंग करके कहा—”किन्तु तुम्हारा सौदा पटा नहीं क्या, युवराज?”

“कैसा सौदा?” युवक ने आश्चर्य-मुद्रा से कहा।

अम्बपाली ने मदलेखा को संकेत किया, वह भीतर चली गई।

अम्बपाली ने पीठिका पर बैठते हुए कहा—”मदलेखा से कुछ व्यापार चल रहा था न!”

युवराज ने झेंपते हुए कहा—”देवी को निश्चय ही भ्रम हुआ।”

“भ्रम-विभ्रम कुछ नहीं।” उसने एक मन्द हास्य करके कहा—”मेरे ये दोनों मित्र इस सौदे के साक्षी हैं। मित्र जयराज और सूर्यमल्ल, कह सकते हो, युवराज स्वर्णसेन कुछ सौदा नहीं पटा रहे थे?”

जयराज ने हंसकर कहा—”देवी प्रसन्न हों! जब तक कोई सौदा हो नहीं जाता, तब तक वह सौदा नहीं कहला सकता।” अम्बपाली खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसने तीन पात्र मद्य से भरकर अपने हाथ से तीनों मित्रों को अर्पित किए और कहा––”मेरे सर्वश्रेष्ठ तीनों मित्रों की स्वास्थ्य-मंगल-कामना से ये तीनों पात्र परिपूर्ण हैं।”

फिर उसने युवराज स्वर्णसेन के और निकट खिसककर कहा––”युवराज, क्या मैं तुम्हारा कुछ प्रिय कर सकती हूं?”

युवराज ने तृषित नेत्रों से उसे देखते हुए कहा––”केवल इन प्राणों को––इस खण्डित हृदय को अपने निकट ले जाकर।”

अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा––”युवराज का यह प्रणय-निवेदन विचारणीय है, मेरे प्रति भी और मदलेखा के प्रति भी।”

वह उठ खड़ी हुई। उसने हंसकर तीनों युवकों का हाथ पकड़कर कहा, युवराज स्वर्णसेन, जयराज और मित्र सूर्यमल्ल, अब जाओ––तुम्हारी रात्रि सुख-निद्रा और सुखस्वप्नों की हो!”

वह आनन्द बिखेरती हुई, किसी को मुस्कराकर, किसी की ओर मृदु दृष्टिपात करती हुई, किसी से एकाध बात करती हुई भीतरी अलिन्द की ओर चली गई। तीनों मित्र अतृप्त से खड़े रह गए। धीरे-धीरे सब लोग कक्ष से बाहर निकलने लगे और कुछ देर में कक्ष शून्य हो गया। खाली मद्यपात्र, अस्त-व्यस्त उपधान, दलित कुसुम-गन्ध और बिखरे हुए पांसे यहां-वहां पड़े रह गए थे, चेटियां व्यवस्था में व्यस्त थीं और दण्डधर सावधानी से दीपगुच्छों को बुझा रहे थे। तीनों मित्र शून्य हृदय में कसक लेकर बाहर आए। दूर तक उच्च सप्तभूमि प्रासाद के सातवें अलिन्द के गवाक्षों में से रंगीन प्रकाश छन-छनकर राजपथ पर यत्र-तत्र आलोक बिखेर रहा था।.

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