वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 6

वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 6

63. राजपुत्र विदूडभ : वैशाली की नगरवधू

राजकुमार विदूडभ ने आचार्य के निकट आ अभिवादन कर आसन पर बैठकर कहा –

“ आपने मुझे स्मरण किया था आचार्य ? ”

“ तुम्हारा कल्याण हो राजकुमार! मुझे भासता है कि तुम्हें मेरी आवश्यकता है। ”

“ किसलिए आचार्य ? ”

“ अपने गुरुतर उद्देश्य की पूर्ति के लिए। ”

“ आप किस संदर्भ का संकेत कर रहे हैं आचार्य ? ”

“ तो क्या तुम मेरा संकेत समझे नहीं , कुमार ? ”

“ आचार्य कुछ कहें तो । ”

“ अरे , श्रावस्ती में कितना अनर्थ हो रहा है आयुष्मान् ? ”

“ कैसा अनर्थ ? ”

“ यह श्रमण गौतम क्या राजा -प्रजा सभी को नष्ट कर डालेगा ? ”

“ ऐसी आप कैसे कल्पना करते हैं ? ”

“ तो तुमने नहीं सुना कि सेठ सुदत्त ने जैतवन को कुमार जैत से अठारह करोड़ स्वर्ण में मोल लेकर गौतम को भेंट कर दिया ! ”

“ सुना है आचार्य ! ”

“ और विशाखा ने जो सात खंड का पूर्वाराम मृगारमाता-प्रासाद बनाया है सो ? ”

“ वह भी जानता हूं। ”

“ राजमहिषी मल्लिका नित्य वहां जाती हैं ? ”

“ जाती तो हैं । ”

“ और यह जो श्रावस्ती, साकेत , कौशाम्बी और राजगृह के राजमुकुट और सेट्रियों का द्वीप – द्वीपान्तरों से खिंचा चला आता हुआ सुवर्ण उसके चरणों में एकत्र हो रहा है ? ”

“ तो आचार्य, मैं क्या करूं ? ”

“ अरे आयुष्मान्, एक दिन कोसल के अधिपति तुम होगे या यह श्रमण गौतम ? ”

“ किन्तु मैं तो दासीपुत्र हूं आचार्य, कोसल का उत्तराधिकारी नहीं ? ”

“ शान्तं पापं ! और मैंने जो गणना की है सो ? आयुष्मान, तुम्हीं कोसल के सिंहासन को आक्रान्त करोगे एक दिन , परन्तु तब तक तो जम्बू -द्वीप की सारी सम्पदा इस गौतम के चरणों में पहुंच चुकेगी , सम्पूर्ण राजकोष खाली हो जाएंगे, सम्पूर्ण तरुण भिक्षु हो जाएंगे, संपूर्ण सेट्ठियों और श्रेणिकों का धन उसे प्राप्त हो जाएगा । अरे पुत्र, क्या तुम नहीं देख रहे हो -यह धूर्त शाक्यपुत्र गौतम धर्म – साम्राज्य की आड़ में अर्थ- साम्राज्य स्थापित कर रहा है , जो तुम्हारे सामन्त -साम्राज्य को खोखला कर देगा । ”

“ यह आप क्या कह रहे हैं आचार्य ? ”

“ अरे पुत्र , तुम कहां से बलि ग्रहण करोगे ? कहां से सैन्य – संग्रह करोगे ? वाणिज्य व्यापार कैसे चलेगा ? सभी तरुण तो भिक्षु हो जाएंगे ! सभी संपदा तो उसी शाक्य श्रमण के चरण चूमेगी! तब तुम श्री , शक्ति रोष और सैन्यहीन राजा राज्य -संचालन कैसे करोगे आयुष्मान् ? ”

“ आपके कथन में सार प्रतीत होता है आचार्य! ”

“ इसे रोको आयुष्मान्, और तुम्हारा वह मातुल – कुल ? ”

“ शाक्य – कुल कहिए भन्ते आचार्य , मैं उसे आमूल नष्ट करूंगा। ”

“ तुम्हें करना होगा पुत्र ! और यह पितृ कुल भी ? ”

“ इसे भी मैं नष्ट करूंगा। ”

“ तभी तुम कोसल के सिंहासन पर आसीन होगे। सुनो आयुष्मान् , मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, तुम्हारा कण्टक मुझे ज्ञात है। ”

“ वह क्या है आचार्य ? ”

“ बंधुल मल्ल और उसके बारहों पुत्र -परिजन। बंधुल के ऊपर निर्भर होकर राजा राजकाज से निश्चिन्त हो गया है , बंधुल स्वयं अमात्य हो गया है और उसने अपने बारहों पुत्र – परिजनों को सेना और राजकोष का अधिपति बना दिया है । ये जब तक जीवित हैं तुम्हारा स्वप्न सिद्ध नहीं होगा । ”

“ परन्तु आचार्य , मैं समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं । ”

“ मूर्खता की बातें हैं आयुष्मान् ! तुम्हारा यह उद्गीव यौवन प्रतीक्षा ही में विगलित जो जाएगा । फिर उसी के साथ साहस और उच्चाकांक्षाएं भी । मित्रगण निराश होकर थक जाएंगे और वे अधिक आशावान् शत्रु को सेवेंगे। तुम आयुष्मान्, समय को खींचकर वर्तमान में ले आओ। ”

“ किस प्रकार आचार्य ? ”

“ कहता हूं , सुनो । इस बंधुल और उसके बारहों पुत्र – परिजनों को नष्ट कर दो आयुष्मान्, और बंधुल के भागिनेय दीर्घकारायण को अपना अंतरंग बनाओ, इससे तुम्हारा यन्त्र सफल होगा । दीर्घकारायण, बंधुल और राजा , दोनों से अनादृत और वीर पुरुष है। ”

“ परन्तु यह अति कठिन है आचार्य ! ”

“ अति सरल आयुष्मान् ! वत्सराज उदयन सीमान्त पर सैन्य – संग्रह कर रहा है । कलिंगसेना के अपहरण से वह अति क्रुद्ध है । महाराज को भय है कि विवाह और यज्ञ में वह विघ्न डालेगा । ”

“ यह मैं जानता हूं। महाराज ने उधर सेनापति कारायण को भेजा है। ”

“ मैं ऐसी व्यवस्था करूंगा कि सेनापति कारायण को सफलता न मिले आयुष्मान्! ”

“ इससे क्या होगा आचार्य ? ”

“ तब तुम महाराज और बन्धुल को उत्तेजित करके बन्धुल के बारहों पुत्र – परिजनों को सीमान्त पर भिजवा देना और कारायण को राजधानी में वापस बुलाकर राजा से अनादृत कराना। ”

“ मैं ऐसा कर सकूँगा। ”

“ बन्धुल के बारहों पुत्र – परिजन सीमान्त से जीवित नहीं लौटेंगे और बन्धुल को स्वयं उस अभियान पर जाने को विवश होना पड़ेगा। बिम्बसार को पराजित करके वह गर्व तो बहुत अनुभव करता है, पर उसका सैन्य -संगठन इस युद्ध में छिन्न -भिन्न हो गया है आयुष्मान् , उसे कौशाम्बीपति और उसके अमात्य यौगन्धरायण से लोहा लेने में बहुत सामर्थ्य खर्च करना पड़ेगा । ”

“ किन्तु बन्धुल के बारहों पुत्र- परिजनों का निधन कैसे होगा आचार्य ? वे सब भांति सुसज्जित और संगठित हैं । ”

“ उनकी चिन्ता न करो आयुष्मान् ! पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्यवान् महामात्य यौगन्धरायण मेरा बालमित्र है। मैं आवश्यक संदेश आज ही पायासी महा सामन्त को सीमान्त भेज दूंगा । बन्धुल के पुत्र – परिजनों का वध सीमान्त पहुंचने के प्रथम ही हो जाएगा। ”

“ यह तो असाध्य – साधन होगा भन्ते आचार्य ! ”

“ और एक बात है, पायासी कारायण के साथ साकेत को लौटेगा । मार्ग ही में वह उसे तुम पर अनुरक्त कर देगा । साकेत पहुंचने पर और महाराज से अनादृत होने पर उसे भलीभांति समादृत करके मित्र बना लेना तुम्हारा काम है । ”

“ इस सम्बन्ध में आप निश्चिन्त रहें आचार्य ! ”

“ तो पुत्र, इसी यज्ञ – समारोह में तुम्हारी अभिसन्धि पूरी होगी । किन्तु एक बात है। ”

“ क्या ? ”

“ अनाथपिण्डिक सुदत्त शाक्य गौतम का जैतवन में नित्य स्वागत करता है। ”

“ हां आचार्य, मुझे ज्ञात है । ”

“ जाओ तुम भी और श्रमण से कपट- सम्बन्ध स्थापित करो। ”

“ आचार्य , क्या उसे मार डालना होगा ? ”

“ नहीं आयुष्मान्, वह अभी जीवित रहना चाहिए । वह इन सब राजाओं को , सेट्टिपुत्रों को मार डालेगा । ये ही आज तुम्हारे शत्रु हैं । आयुष्मान , अभी उसे अपना कार्य करने दो । परन्तु यह श्रमण विशाखा के पूर्वाराम मृगारमाता – प्रासाद में कब जा रहा है ? ”

“ इसी पूर्णिमा को , आचार्य ! ”

“ उसी समय राजमहिषी मल्लिकादेवी भी गौतम से दीक्षा लेंगी ? ”

“ ऐसी ही व्यवस्था सेट्रि – पुत्रवध विशाखा ने की है । ”

“ तो तू ऐसा कर सौम्य कि बन्धुल मल्ल की पत्नी मल्लिका भी उस श्रमण के चंगुल में फंस जाए , वह भी राजमहिषी के साथ ही दीक्षा ले। ”

“ यह तो अतिसरल है आचार्य! उससे मेरा अच्छा परिचय है। मैं उसे सहमत कर लूंगा। ”

“ श्रमण की खूब प्रशंसा करो आयुष्मान् और राजमहिषी के साथ ही गौतम के पास जाने की उसे प्रेरणा दो । दे सकोगे ? ”

“ दे सकूँगा। मैं जानता हूं, महिषी का उस पर बहुत प्रेमभाव है। ”

“ यह बहुत अच्छा है आयुष्मान्! और एक बात याद रखो। ”

“ वह क्या आचार्य ? ”

“ वही करो जो उचित है। ”

“ उचित क्या है ? ”

“ जो आवश्यक है , वही उचित है आयुष्मान्। ”

विदूडभ ने हंसकर कहा – “ आचार्य, आपका धर्म गौतम की अपेक्षा बहुत अच्छा है । ”

“ परन्तु आयुष्मान्, यह धर्म – पदार्थ एक महा असत्य वस्तु है। इसे केवल पर – धन हरण करने और उसे शान्ति से उपभोग करने के लिए ही कुछ चतुरजनों ने अपनाया है । इससे प्रिय , तुम किसी की ठगाई में न आना। धर्म के सत्य रूप को समझना और उससे भय न करना । उससे काम लेना और जो उचित हो , वही करना। ”

“ समझ गया आचार्य ! राजगृह के उस तरुण वैद्य के पास कुछ अति भयंकर विष हैं , परन्तु वह उनसे काम लेना जानता है। वह जो उचित है, वही करता है । वह कहता है , ऐसा करने से ये सब भयानक विष अमृत का काम देते हैं , उनसे मृतप्राय आदमी जी उठते हैं । ”

“ ऐसा ही है आयुष्मान्! अब तुम इस त त्त्व को भली – भांति समझ गए । अब जाओ तुम प्रिय , तुरन्त साकेत जाकर शुभ कार्य का अनुष्ठान करो। ”

“ अच्छा भन्ते ! ”कहकर राजकुमार ने उठकर आचार्य को अभिवादन किया और आचार्य ने दोनों हाथ उठाकर उसे आशीर्वाद दिया ।

राजकुमार विदा हुए ।

64. दासों के हट्ट में : वैशाली की नगरवधू

जीवक कौमारभृत्य को एक दासी की आवश्यकता थी । उसने मित्र राजपाल से कहा – “ मित्र , हट्ट में चल , एक दासी मोल लेंगे। सुना है, यवन देश का एक दास – विक्रेता नगर में आया है, उसके पास कुछ अच्छी तरुण दासियां हैं । ”

दोनों मित्र हट्ट में पहुंचे। अन्तरायण में पणजेट्टक के बाड़े में कुछ दास -दासी एक शृंखला में बंधे बैठे थे। अभी दोपहर होने में देर थी । हाट के बीचोंबीच बिना छत का लोहे के सींकचों से घिरा हुआ एक बाड़ा था । उसी में पन्द्रह -बीस दास – दासियां , जो बेचे जाने को थे, बन्द थे। सबके पैरों में एक लोहे की शृंखला पड़ी थी । इनमें सभी आयु के दास -दासी थे। कुछ दासियां यवनी थीं । एक की आयु तीस वर्ष के लगभग थी , परन्तु यौवन का प्रभाव अब भी उसके शरीर पर था । दूसरी युवती की आयु बीस बरस की थी । उसका रंग मोती के समान स्वच्छ और आंखें वैदूर्य के समान सतेज थीं । वह दोनों हाथ छाती पर बांधे एक वृद्धा के पास नीची दृष्टि किए बैठी थी । एक बालक बारह- चौदह वर्ष का था । कई दास काले थे।

दास -विक्रेता एक बूढ़ा ठिगना यवन था । वह बहुत बार श्रावस्ती आ चुका था । उसकी सफेद दाढ़ी , ठिगनी गर्दन और क्रूर आंखें उसको अन्य पुरुषों से पृथक कर रही थीं । उसके हाथ में चमड़े का एक सुदृढ़ चाबुक था । वह एक क्रीता दासी को लेकर बाड़े में आया । दासी की गोद में तीन साल का बालक था । बालक हृष्ट – पुष्ट और सुन्दर था । जब दासों के व्यापारी ने उस स्त्री को दासों के बाड़े में बैठाकर उसके पैरों में शृंखला डाल दी , तो वह स्त्री रोने लगी ।

“ दास-विक्रेता ने कहा – रोती क्यों है ? क्या चाबुक खाएगी ? ”

“ तुमने मुझे यहां किसलिए बिठाया है ? ”

“ यह तो प्रकट है कि बेचने के लिए। देखा नहीं, बीस निष्क सोने देकर मैंने तुझे और तेरे छोकरे को खरीदा है! ”

“ कहां ? मुझे तो मेरे मालिक ने यह कहा था कि वैशाली में तेरा आदमी है, वहीं यह भलामानस तुझे ले जाएगा। ”

व्यापारी ने हंसकर कहा – “ ऐसा न कहता तो तू वहीं रो – धोकर एक टंटा खड़ा कर देती ? पर अब रोकर अपना चेहरा न खराब कर , नहीं तो ग्राहक अच्छे दाम नहीं लगाएगा

स्त्री ने निराश दृष्टि से उसकी ओर ताकते हुए कहा – “ तो क्या तुम मुझे बेचोगे ? ”

“ नहीं तो क्या बैठाकर खिलाऊंगा ? यहां तो इधर लिया , उधर दिया । ”

इतने में एक आदमी ने लड़के के मांसल कन्धों में हाथ गड़ाकर देखा और कहा

“ अरे , इस छोकरे को सस्ते दामों में दे तो मैं ही ले लूं । ”

“ सस्ते की खूब कही । छोकरा कितना तैयार है । खरे दाम , चोखा माल। ”

“ पर इतना – सा तो है। काम – लायक बड़ा होने तक खिलाना-पिलाना होगा , जानते हो ? मैं दस कार्षापण दे सकता हूं। ”

“ क्या दस ? अभी नहीं, और छः महीने बाद पचास में बिकेगा। ”

“ और जो मर गया तो माल से भी जाओगे । मान जाओ, पन्द्रह कार्षापण ले लो । ”

“ अच्छा बीस पर तोड़ करिये । बहुत खरा माल है, कैसा गोरा रंग है ! ”

ग्राहक कार्षापण गिनने लगा तो स्त्री ने आंखों में भय और आंसू भरकर कहा – “ मुझे भी खरीद लीजिए भन्ते! ”

व्यापारी ने हाथ का चाबुक उठाकर कहा – “ चल – चल, ग्राहक को तंग न कर। ”

उसने खींचकर बालक को ग्राहक के हाथ में दे दिया । बालक रोने लगा , उसकी मां मूर्छित हो गई ।

व्यापारी ने कहा – “ अब इस अवसर पर अपना माल लेकर चल दीजिए, होश में आने पर यह और टंटा खड़ा करेगी । ”

ग्राहक सिसकते हुए बालक को लेकर चला गया । थोड़ी देर में स्त्री ने होश में आकर शून्य दृष्टि से अपने चारों ओर देखा । दास -विक्रेता ने पास आकर कहा – “ चिन्ता न कर , जिसने खरीदा है भला आदमी है, लड़का सुख से रहेगा और तेरा भी झंझट जाता रहा। ” स्त्री भावहीन आंखों से देखती रही । उसके होंठ हिले , पर बोल नहीं निकला। वह सिर से पैर तक कपड़े से शरीर ढांपकर पड़ी रही ।

एक बूढ़े ब्राह्मण ने आकर कहा – “ एक दासी मुझे चाहिए । ”

“ देखिए , इतनी दासियां हैं । यवनी चाहिए या दास ? ”

“ दास। ”

“ तब यह देखिए। ”उसने एक तरुणी की ओर संकेत किया । वह चुपचाप अधोमुखी बैठी रही । व्यापारी ने कहा – “ चार भाषा बोल सकती है आर्य! रसोई बनाना और चरणसेवा भी जानती है, अभी युवती है। ”यह कहकर उसने उसे खड़ा किया । युवती सकुचाती हुई उठ खड़ी हुई ।

ब्राह्मण ने साथ के दास से कहा – “ देख काक , दांत देख , सब ठीक -ठाक हैं ? ”

ब्राह्मण के क्रीत दास ने मुंह में उंगली डालकर दांत देखे और निश्शंक वक्षस्थल में हाथ डालकर वक्ष टटोला । कमर और शरीर को जगह – जगह से टटोलकर , दबाकर देखा और फिर हंसकर कहा – “ काम लायक है मालिक , खूब मज़बूत है । ”

व्यापारी ने हंसकर कहा – “ मैंने पहले ही कहा था । परन्तु भन्ते , मूल्य चालीस निष्क से कम नहीं होगा। ”

“ इतना बहुत है, तीस निष्क दूंगा । ”

“ आप श्रोत्रिय ब्राह्मण हैं , मुझे उचित है कि आप ही को बेचूं। ”उसने हंसते-हंसते यवती के पैर की शृंखला खोल दी । ब्राह्मण ने स्वर्ण गिन दिया और दास से कहा- “ लेखपट्ट ठीक -ठीक लिखाकर दासी को ले आ । ”वे चले गए ।

काक ने सब लिखा – पढ़ी कराकर दासी से कहा – “ चल – चल , घबरा मत , हमीं तेरे मालिक हैं , भय न कर । ”दासी चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दी ।

जीवक कौमारभृत्य घूर – घूरकर प्रत्येक दासी को देख रहे थे। अब अवसर पाकर

व्यापारी ने उनसे कहा – “ भन्ते, आपको कैसा दास चाहिए ? इस छोकरे को देखिए कैसे हाथ- पैर हैं , रंग भी काला नहीं है। ”उसने छोकरे के पैरों से शृंखला खोलकर कहा

“ तनिक नाच तो दिखा रे! ”

बालक ने डरते -डरते खड़े होकर भद्दी तरह नाच दिखा दिया । व्यापारी ने फिर कहा – “ गाना भी सुना । ”

उसने दासों का गीत भी गा दिया । व्यापारी हंसने लगा ।

जीवक ने कोने में सिकुड़ी हुई बैठी युवती की ओर उंगली उठाकर कहा – “ उस युवती दासी का क्या मोल है भणे ! ”

व्यापारी ने हंसकर हाथ मलते हुए कहा – “ आप बड़े काइयां हैं भन्ते , असल माल टटोल लिया है। बड़ी दूर से लाया हूं, दाम भी बहुत दिए हैं । व्यय भी करना पड़ा है। संगीत , नृत्य और विविध कला में पारंगत है। भोजन बहुत अच्छा बना सकती है, अनेक भाषा बोल सकती है । रूप – सौन्दर्य देखिए… ”

उसने दासी को अनावृत करने को हाथ बढ़ाया । परन्तु जीवक ने कहा – “ रहने दे मित्र , दाम कह। ”

“ साठ निष्क से एक भी कम नहीं। ”

“ इतना ही ले । ”

जीवक ने स्वर्ण- भरी थैली उसकी ओर फेंक दी । व्यापारी ने प्रसन्न हो और दासी के निकट जाकर उसकी शृंखला खोलते हुए कहा – “ भाग्य को सराह, ऐसा मालिक मिला ।

दासी ने कृतज्ञ नेत्रों से जीवक को देखा और उसके निकट आ खड़ी हुई । जीवक ने उसे अपने पीछे-पीछे आने का संकेत किया तथा मित्र से बातें करता हुआ अपने आवास की ओर आया ।

इसी समय और भी बहत – से दास और दासियां बिकने के लिए हट्ट में आए। पणजेट्ठक ने सबके मालिकों के नामपट्ट देखे, शुल्क लिया और एक – एक करके शृंखला उनके पैरों में डाल दी । इन दास – दासियों में बूढ़े भी थे, जवान भी थे, अधेड़ भी थे, लड़कियां भी थीं । सत्तर साल की बुढ़िया से लेकर चार वर्ष तक की लड़की थी । एक दस वर्ष की लड़की कराह रही थी । कल इसकी मां बिक चुकी थी और यह मां – मां चिल्ला रही थी । वह सत्तर साल की बुढ़िया वातरोग से गठरी- सी बनी लगातार रो रही थी । उसके पांच- छ: लड़के लड़कियां लोग खरीद ले गए थे। वह तीन – चार दिन से हट्ट में बिकने को आ रही थी , पर कोई उसका खरीदार ही नहीं खड़ा हो रहा था । दो औरतें एक – दूसरी से चिपटी बैठी थीं । एक की 45 वर्ष की आयु होगी, दूसरी 15 वर्ष की थी । दोनों मां – बेटियां थीं । उनके कपड़े लत्ते साफ – सुथरे और अंग कोमल थे। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने परिश्रम नहीं किया था । ये एक श्रोत्रिय ब्राह्मण के यहां से आई थीं । दोनों पढ़ी-लिखी थीं । एक सामन्त ने उन्हें ब्राह्मण को यज्ञ की दक्षिणा में दिया था । ब्राह्मण ने उनके स्वर्णाभरण उतारकर उन्हें बेचने को हट्ट में भेज दिया ।

दासों को देखने और उनका क्रय-विक्रय करनेवालों की हट्ट में बड़ी भीड़ हो रही थी । उसी भीड़ में एक ओर सोम चुपचाप खड़े तीव्र दृष्टि से एक – एक करके दासों को देख रहे थे। उनका चेहरा पीला पड़ गया था और उस पर श्री नहीं रह गई थी । इतने ही में किसी ने

पीछे से उनके कन्धे पर हाथ रखा। सोम ने पीछे फिरकर देखा, कुण्डनी थी । कुण्डनी ने संकेत से उन्हें एक ओर ले जाकर कहा – “ बड़ी बात हुई जो तुम्हें देख पाई । मैं तुम्हारे लिए बहुत चिन्तित थी । परन्तु राजनन्दिनी की खटपट में मैं तुम्हारे लिए कुछ न कर सकी । तुम क्या सीधे श्रावस्ती से अभी चले आ रहे हो ? ”

“ हां , मुझे अशक्तावस्था में राह में अटकना पड़ा । परन्तु मैं मार्ग- भर तुम्हें खोजता आया हूं। ”

“ मुझे या चंपा की राजनन्दिनी को ? ”

कुण्डनी सोम पर एक कटाक्ष करके हंस दी । सोम भी हंस पड़ा । उसने कहा – “ राजकुमारी हैं कहां ? ”

“ वह इसी दस्यु यवन दास – विक्रेता के फंदेमें फंस गई थीं । ”

“ तुम रक्षा नहीं कर सकी कुण्डनी ? ”सोम ने सूखे कण्ठ से कहा ।

“ नहीं मैंने उस समय उन्हें छोड़कर पलायन करना ही ठीक समझा। ”

“ अरे , तो यह दुष्ट क्या उन्हें दासी की भांति बेचेगा ? ”सोम ने क्रोध से नथुने फुलाकर खड्ग पर हाथ रखा और एक पग आगे बढ़ाया ।

कुण्डनी ने उनका हाथ पकड़ लिया । कहा – “ बेवकूफी मत करो, यह तो उन्हें बेच भी चुका। ”

“ बेच चुका , कहां ? ”

“ अन्तःपुर में । अन्तःपुर का कंचुकी मेरे सामने स्वर्ण देकर उन्हें महालय में ले गया। ”

“ और तुम यह सब देखती रहीं कुण्डनी ? ”सोम की वाणी कठोर हुई ।

“ दूसरा उपाय न था । परन्तु अन्तःपुर की सब बातें मुझे विदित हैं । ”

“ कौन बातें ? ”

“ गान्धार – कन्या कलिंगसेना का महाराज प्रसेनजित् से विवाह होगा। उस अवसर पर पट्टराजमहिषी मल्लिका नियमानुसार उन्हें एक दासी भेंट करेंगी। इस काम के लिए बहुत दासियां इकट्ठी की गई थीं । उनमें कंचुकी भाण्डायन ने चम्पा की राजकुमारी को ही चुना , वह उन्हें मुंह- मांगे मूल्य पर क्रय कर ले गया और राजमहिषी मल्लिका ने उन्हीं को विवाह के उपलक्ष्य में महाराज को भेंट करने का निर्णय किया है । ”

“ परन्तु यह अत्यन्त भयानक है कुण्डनी ! यह कदापि न होने पाएगा । तुम इस सम्बन्ध में कुछ न करोगी ?

“ क्यों नहीं ! हमें राजनन्दिनी को बचाना होगा । परन्तु , क्या तुम साहस करोगे ? ”

“ यदि प्रसेनजित् को अपने सेनापति बंधुल पर अभिमान है, तो कुण्डनी मैं अकेला ही कोसल का गर्व भंग करूंगा। मगध -पराजय का पूरा बदला लूंगा । ”

“ तुम अकेले यह कर सकोगे ? ”

“ अकेला नहीं , यह खड्ग भी तो है! ”

“ खड्ग पर यदि तुम्हें इतना विश्वास है तो दूसरी बात है। परन्तु तुम यहां मुझसे कुछ आशा मत रखना । ”

“ तो तुम राजनन्दिनी पर इतनी निर्दय हो ? तब इन्हें इस विपत्ति में डालने को लाई क्यों थीं ? ”

“ मैंने उनका विपत्ति से उद्धार किया था । ”

“ तो अब भी उद्धार करो। ”

“ कर सकती हूं, परन्तु तुम्हारी योजना पर नहीं, अपनी योजना पर। ”

“ वह क्या है ? ”

“ कहती हूं ; पहले यह कहो कि तुम साहस कर सकते हो ? ”

“ मेरा यह खड्ग तुम देखती नहीं ? ”

“ फिर खड्ग ! अरे भाई, खड्ग का यहां काम नहीं है। ”

“ तब ? ”

“ कौशल का है। ”

“ क्या असुरपुरी का वही मृत्यु – चुम्बन ? ”

“ नहीं -नहीं सोम , यह असुरपुरी नहीं, कोसल महाराज्य की राजधानी श्रावस्ती है । जानते हो , यदि यहां यह पता लग जाय कि हम मागध हैं , तो चर होने के संदेह में हमें शूली चढ़ना होगा। ”

“ तो फिर कहो भी , तुम्हारी योजना क्या है ? ”

“ हम मागध हैं पराजित मागध ! ”

“ मैं अस्वीकार करता हूं । ”

“ व्यर्थ है। यह कहो कि साहस कर सकोगे ? ”

“ अच्छा करूंगा। कहो, क्या करना होगा ?

कुण्डनी हंस दी – “ हां ठीक है ; इसी भांति मेरे अनुगत रहो । ”

सोम को भी हंसना पड़ा। उसने कहा – “ तो अनुगृहीत भी करो। ”

“ वही तो कर रही हूं। ”

“ क्या करना होगा कहो ? ”

“ तुम्हें मेरे साथ अन्तःपुर में प्रवेश करना होगा। ”

“ कैसे ? ”

“ स्त्री – वेश में । ”

“ अरे! यह कैसे होगा ? ”

“ चुपचाप मेरी योजना पर विश्वास करो । वस्त्र मैं जुटा दूंगी । कहो, कर सकोगे ? ”

सोम ने हंसकर कहा – “ तुम्हारे लिए यह भी सही कुण्डनी ! ”

“ मेरे लिए नहीं भाई, राजनन्दिनी के लिए। ”

“ ऐसा ही सही । ”

“ अच्छा , अब चलो मेरे साथ। ”

“ कहां ? ”

“ जहां आर्य अमात्य हैं ? ”

“ अमात्य क्या यहां हैं ? और सम्राट ? ”

“ वे राजगृह पहुंच गए हैं । ”

“ उनके पास अभी चलना होगा ? ”

“ अभी नहीं, अब तो स्नान, भोजन और विश्राम करना होगा । फिर रात्रि होने पर। ”

“ चलो फिर । ” दोनों जने टेढ़ी -मेढ़ी गलियों को पार करते चले गए ।

65. युग्म युग – पुरुष : वैशाली की नगरवधू

नगर के बाहर एक यक्ष -निकेतन था । निकेतन बहुत पुराना था । उसमें विराटकाय यक्ष की प्रतिमा थी । निकेतन का अधिकांश पृथ्वीगर्भ में था और उसमें प्रवेश एक गुफा – द्वार से होता था । यक्ष – प्रतिमा काले पत्थर की थी , जो उस अंधकारपूर्ण निकेतन में प्रभावशाली प्रतीत होती थी । नगर के इस प्रांत – भाग में लोगों का आना – जाना बहुत कम होता था । कभी – कभी लोग यक्ष – पूजन के लिए आते और दीप जलाकर गुहागर्भ में प्रवेश करते थे। साधारणतया यह प्रसिद्ध था कि यक्ष के प्रकोप से मनुष्य का मस्तक कट गिरता है । इसी से इस यक्ष -निकेतन के प्रति लोगों में बड़ी भीति थी । रात्रि को इधर भूलकर भी कोई नहीं आता था ।

कुण्डनी सोम को टेढ़े-मेढ़े मार्गों से होकर यक्ष -निकेतन में ले आई । उसने दृढ़ता से सोम का हाथ पकड़कर उस अंधकारपूर्ण भयावनी गुहा में प्रवेश किया । सोम टटोल टटोलकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। गुहा के बिलकुल अंत में यक्ष -प्रतिमा की पीठ पर ढासना लगाए , दीपक के क्षीण प्रकाश में आर्य वर्षकार गंभीर मुद्रा में बैठे ताड़पत्र पर कुछ लेख लिखने में व्यस्त थे। कुण्डनी और सोम ने निकट जाकर अभिवादन किया । आर्य वर्षकार ने सिर उठाकर देखा, फिर संकेत से बैठने को कह अपना लेख पूरा किया । लेख पूरा करके उस पर उन्होंने गीली मिट्टी की अपनी मुद्रिका से मुहर लगा दी । फिर सोमप्रभ की ओर देखकर कहा – “ आयुष्मान् सोम, हम लोगों के आने के प्रथम ही सम्राट् की सेना पराजित हो गई । ”

“ सुन चुका हूं आर्य! ”सोम ने धीरे – से कहा ।

“ अभी भगवत्पाद वादरायण का संदेश मुझे मिला है, सम्राट् अब राजगृह पहुंच गए होंगे । मेरा उधर तुरन्त पहुंचना आवश्यक है, क्योंकि राजगृह पर चंडमहासेन ने अभियान किया है और मथुरा का अवन्तिवर्मन भी उनसे मिलने आ रहा है। ”किन्तु मैं निमित्त से रुका हं । समय क्या है ? ”

“ एक दण्ड रात्रि व्यतीत हुई है। ”

“ तो आयुष्मान् सोम , यह पत्र तुम यत्न से रखो और सेनापति उदायि को ढूंढ़ ढांढ़कर उन्हें दे दो । वह बिखरी हुई मागध सैन्य का संगठन कर रहे हैं । तुम उन्हें सहायता दो – “ अत्यंत गोपनीय भाव से सेना संगठित करो और अवसर पाते ही यज्ञ विध्वंस कर दो । ”

“ क्या कोसलपति के प्रति आर्य कोई विशेष आदेश देंगे ? ”

“ नहीं। परंतु यथासमय तुम करणीय करो। ”

“ राजकुमार विदूडभ ? ”

“ उसके जीवन की रक्षा होनी चाहिए, किन्तु पिता -पुत्र के विवाद से तुम लाभान्वित हो सकते हो । ”

“ जैसी आज्ञा, आर्य! ”

“ पुत्री कुण्डनी , तुझे अन्तःपुर का सब महत्त्वपूर्ण समाचार सुविदित होना चाहिए । तुम लोग नगर में छद्म वेश में रह सकते हो । हां , मल्ल बन्धुल को नष्ट कर दो । ”

“ जो आज्ञा आर्य! ”

“ और एक बात। उपालि कुम्भकार हमारा मित्र है, भूलना नहीं। ”

“ नहीं आर्य, नहीं। ”

“ तो जाओ अब , तुम्हारा कल्याण हो ! ”

दोनों ने अभिवादन कर प्रस्थान किया । वर्षकार फिर कुछ लिखने लगे। इतने ही में पदशब्द सुनकर उन्होंने खड्ग उठाया और खड़े हुए ।

किसी ने मृदु- मन्द स्वर से कहा – “ वहां कौन है ? ”

“ यदि वयस्य यौगन्धरायण हैं , तो वर्षकार स्वागत करता है। ”

“ स्वस्ति मित्र , स्वस्ति ! ”

दोनों ने अपने – अपने स्थान से आगे बढ़कर परस्पर आलिंगन किया । उस अंधकारपूर्ण गुफा में विश्व के दो अप्रतिम राजनीतिज्ञ एकत्र थे।

यौगन्धरायण ने कहा

“ मगध सम्राट् की पराजय का दायित्व मुझ पर ही है मित्र! ”

“ मैं जानता हूं , परन्तु मैं आपको दोष नहीं दे सकता । ”

“ सुनकर सुखी हुआ। कौशाम्बीपति ने केवल कलिंगसेना के कारण अभियान किया

“ किन्तु सुश्री कलिंगसेना ने प्रियदर्शी महाराज उदयन को छोड़कर विगलित यौवन प्रसेन को कैसे स्वीकार किया ? ”

“ मेरे ही कौशल से मित्र ! ”

“ तो क्या वह नहीं जानती थी कि प्रसेनजित् बूढ़ेहैं ? ”

“ क्यों नहीं ! ”

“ तो फिर महाराज उदयन ने उसका त्याग किया ? ”

“ नहीं, मैंने ही यह विवाह नहीं होने दिया । ”

“ क्यों मित्र ? ”

“ कौशाम्बी की कल्याण – कामना से । ”

“ तो क्या वयस्य यौगन्धरायण यह समझते हैं , कि गान्धरराज की मैत्री इतनी हीन है ? उससे तो सम्पूर्ण उत्तर कुरु तक महाराज उदयन का प्रभाव हो जाता। ”

“ वह तो है ही मित्र ! कौशाम्बीपति ने जब से देवासुर – संग्राम में क्रियात्मक भाग लिया है, तब से देवराज इन्द्र उन्हें परम मित्र मानता है। ”

“ सुनकर सुखी हुआ ; किन्तु कलिंगसेना के विवाह में क्या राजनीतिक बाधा थी ? ”

“ मैं अवन्तीनरेश महाराज चण्डमहासेन को क्रुद्ध नहीं करना चाहता था । आप तो जानते ही हैं कि कन्याहरण के बाद वे बड़ी कठिनाई से प्रसन्न हुए थे और मालव – मित्रता की कौशाम्बी राज्य को बड़ी आवश्यकता है मित्र ! ” था । ”

“ किन्तु कदाचित् कौशाम्बी के महामात्य यौगन्धरायण मगध – सम्राट् की प्रसन्नता की उतनी चिन्ता नहीं करते। ”

“ क्यों नहीं ! मगध के महामहिम अमात्य वर्षकार भली- भांति जानते हैं कि मागध मित्रता की प्राप्ति के लिए ही मैंने युक्तिपूर्वक देवी वासवदत्ता को छल से मृतक घोषित करके मगधनन्दिनी पद्मावती का विवाह कौशाम्बीपति से कराया था । मगध – सम्राट् की प्रसन्नता की कौशाम्बीपति को उतनी ही आवश्यकता है मित्र , जितनी मगध- सम्राट को कौशाम्बीपति की मित्रता की । ”

“ सुनकर आश्वस्त हुआ मित्र! आपको विदित ही होगा , इसी से असन्तुष्ट होकर अवन्तीनरेश ने मगध पर अभियान किया है । कलिंगसेना से उदयन महाराज का विवाह मगध- सम्राट् को भी अभीष्ट नहीं था । ”

यौगन्धरायण ने हंसकर कहा – “ सम्राट् को कौशाम्बीपति की गान्धार राज्य की मैत्री से पश्चिमोत्तर दिशा से भय – ही – भय है, तो मित्र , सम्राट की इस महत्त्वाकांक्षा में कौशाम्बी राज्य बाधक नहीं है । सच पूछिए तो कौशाम्बीपति को विश्वास था कि मगध अभियान कोसल राज्य के जीर्ण- शीर्ण ढांचे को अकेला ही ढहा देगा। ”

“ सो मित्र यौगन्धरायण, मागध अभियान अभी समाप्त नहीं है । अभी वर्षकार जीवित है। ”

“ वयस्य वर्षकार का प्रबल प्रताप मुझे विदित है। मुझे सुख है कि मुझे और कौशाम्बीपति को उसकी और मगध- सम्राट् की मित्रता प्राप्त है ।

“ मगध -सम्राट् सदैव कौशाम्बीपति को मित्र समझते हैं । ”

“ महाराज यह सुनकर सुखी होंगे । तो मित्र , अब स्वस्ति ! ”

“ स्वस्ति मित्र , स्वस्ति ! ”

आर्य यौगन्धरायण चले गए और उसके कुछ ही देर बाद आर्य वर्षकार गुहाद्वार से निकले। बाहर आकर उन्होंने कुछ संकेत किया । एक चर ने आकर उनके कान में धीरे – धीरे कुछ कहा। आर्य वर्षकार ने नेत्रों से संकेत प्रकट कर कहा – “ अब तुम अपने कार्य में लगो सौम्य ! मेरा अश्व तैयार है ? ”

“ जी हां आर्य! ”

“ ठीक है। ”वे उत्तरीय से शरीर को अच्छी तरह लपेट एक ओर को चल दिए ।

66. विदूडभ का कूट – यन्त्र : वैशाली की नगरवधू

महाराज प्रसेनजित् अशांत मुद्रा में बैठे बंधुल मल्ल से कोई गुप्त परामर्श कर रहे थे । विदूडभ ने वहां प्रवेश किया । महाराज ने कहा – “ बैठो राजपुत्र ! तुम श्रावस्ती अकस्मात् ही चले गए, मुझे सूचना भी नहीं दी ! ”

“ जाना पड़ा महाराज । ”

“ किसलिए पुत्र ? ”

“ एक महत्त्वपूर्ण संदेश पाकर। ”

“ कैसा ? ”

“ क्या निवेदन करूं ? ”

“ कहो पुत्र ! ”

“ मुझे सूचना मिली थी । ”

“ कैसी ? ”

“ अप्रिय । ”

“ कहां से ? ”

“ सीमांत से । ”

“ कह पुत्र , क्या सूचना थी ? ”

“ कौशाम्बीपति ठीक यज्ञ के समय कोसल पर आक्रमण करेगा। ”

“ कहां ? कारायण ने तो नहीं लिखा। यह उसका पत्र है । वह लिखता है, चिन्ता का कोई कारण नहीं है । ”

“ मेरे पास भी एक पत्र है महाराज । ”

“ किसका पत्र ? ”

“ सेनापति कारायण का । ”

“ किसके नाम ? ”

“ किसी गुप्त मित्र के नाम । ”

विदूडभ ने एक पत्र वस्त्र से निकालकर महाराज के हाथ में दे दिया । महाराज ने मल्ल बन्धुल को देकर कहा – “ पढ़ो बन्धुल ! ”

बन्धुल ने पढ़ा । उनका मुंह सूख गया । वह उलट – पुलटकर पत्र को देखने लगा । महाराज ने कहा – “ पत्र में क्या लिखा है ? ”

“ लिखा है, ठीक…दिन कौशाम्बीपति श्रावस्ती पर आक्रमण करेंगे। मैं प्रकट में विरोध करूंगा, परन्तु भीतर से अनुकूल हूं। तुम नगर -रक्षक सैन्य को ठीक रखना । तुम्हारा प्राप्तव्य जा रहा है । ”

“ पत्र पर क्या कारायण के हस्ताक्षर हैं ? ”

“ हां महाराज ! ”बन्धुल ने क्रुद्ध स्वर में कहा ।

“ पत्र किसे लिखा गया है ? ”

“ कोटपाल को । ”

“ तुम पर यह अभिसंधि कैसे प्रकट हुई पुत्र ? ”

“ मेरे चर द्वारा । ”

“ श्रावस्ती क्यों गए ? ”

“ नगर का प्रबन्ध देखने तथा पत्रवाहक मिल जाय तो विशेष समाचार जानने। ”

“ तो पुत्र , अब करना क्या है ? ”

“ यह सेनापति बंधुल कहेंगे। वे महाराज के विश्वासपात्र और वीर हैं । ”

“ तुम भी कहो पुत्र । ”

“ महाराज जानते हैं कि मेरा मत महाराज से नहीं मिलता । ”

“ किन्तु यह कोसल की प्रतिष्ठा का प्रश्न है पुत्र ! ”

“ इसी से मैं श्रावस्ती गया था महाराज! ”

“ तो बंधुल , तुम सीमांत को अभी प्रयाण करो और कारायण को बंदी करके यहां भेज दो । ”

“ मैं विरोध करता हूं महाराज ! ”

“ क्यों पुत्र ? ”

“ सेनापति की यहां अधिक आवश्यकता है। ”

“ परन्तु सीमांत पर और भी अधिक । ”

“ वहां सेनापति के बारहों पुत्र- परिजन जा सकते हैं । वह सब वीर और योद्धा हैं और विश्वस्त भी हैं । आगा-पीछा सोचने योग्य भी हैं । ”

“ पर वे सब राजकाज में नियुक्त हैं पुत्र ! ”

“ राजधानी का कार्यभार मैं ग्रहण करता हूं महाराज! ”

“ तो बंधुल , यही ठीक है । वे सीमांत को तुरत बीस सहस्र नई सेना लेकर जाएं । ”

“ नहीं महाराज , मेरी यह योजना है। ”विदूडभ ने कहा ।

“ वह क्या ? ”

“ यदि सब एकत्र सैन्य लेकर जाएंगे, तो शत्रु सावधान हो जाएगा। उसे भय उपस्थित हो सकता है । ”

“ तुम्हारी योजना क्या है ? ”

“ वे बारहों बन्धुल – परिजन सैन्य बिना लिए महाराज के दूत के रूप में उपानय लेकर कौशाम्बीपति के पास जाएं और यज्ञ में उन्हें निमन्त्रण देकर उनकी रुचि देखें । सैन्य प्रच्छन्न रूप में पीछे-पीछे जाए , कोई योग्य सामन्त या सेनापति उसका संचालन करें । ”

“ युक्ति बुरी नहीं है; पर सैन्य – संचालन कौन करेगा ? ”

“ यह भन्ते सेनापति ठीक करें । ” अब मल्ल बन्धुल ने मुंह खोला। उसने कहा

“ सैन्य की व्यवस्था हो जाएगी । राजकुमार की योजना उत्तम है। किन्तु कारायण ? ”

“ उसे तुरन्त राजधानी में बुला लिया जाए। यहां आने पर महाराज जैसा उचित समझें , उस पर अभियोग करें । ”

महाराज एकदम असंयत हो उठे । उन्होंने कहा – “ सेनापति , तुम आज ही बारहों मल्ल पुत्र – परिजनों को सीमान्त पर भेज दो और सेना का भी प्रबन्ध करो और पुत्र , तुम श्रावस्ती जाकर नगर -व्यवस्था अपने अधीन कर लो । ”

राजपुत्र विदूडभ कृतकृत्य होकर उसी समय श्रावस्ती को चल दिए । उन्हीं के साथ उनके राजवैद्य मित्र जीवक कौमारभृत्य भी श्रावस्ती गए ।

67. राजसूय समारम्भ : वैशाली की नगरवधू

वसन्त ऋतु का प्रारम्भ था । सुन्दर शीतल मृदु सुगन्ध वायु बह रही थी । लता – गुल्म पल्लवित और द्रुम – दल कुसुमित हो रहे थे। श्रावस्ती के राजसूय की बड़ी भारी तैयारियां हो रही थीं । महाराज प्रसेनजित् की साकेत से अवाई हो रही थी । सब मार्ग-वीर्थी पताकाओं , स्वस्तिकों,ध्वजाओं से सजाए गए थे। सब सड़कें छिड़काव से ठंडी की हुई थीं । स्थान-स्थान पर कुसुम – गुच्छों के द्वार – मंडप और तोरण बनाए गए थे। शीतल चन्दन और जलते हुए अगरु की सुगन्ध महक रही थी । जहां -तहां देश -विदेश के सौदागर और धनिक जन राजपथ की शोभा निहारते घूम रहे थे । महाराज प्रसेनजित् उज्ज्वल वेश धारण किए, बारहों मल्ल बन्धुओं से रक्षित हो , एक भीमकाय हाथी पर बैठे हुए, राजमहालय की ओर आ रहे थे । शोभायात्रा में देश-विदेश के राजा , राजप्रतिनिधि , माण्डलिक और गण्यमान्य सेट्टि , ब्राह्मण श्रोत्रिय , परिव्राजक तथा ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ , जटिल सब कोई थे। राजमहालय में पहुंच राजा ने पहले अन्त : पुर में जा परिवार की स्त्रियों से भेंट की । राजमहिषी मल्लिकादेवी ने उनका पूजन किया । फिर उन्होंने खुली राजसभा में देश-विदेश से आए राजवर्गियों का स्वागत – सत्कार किया। उनके द्वारा लाई उपानय – सामग्री को साभार स्वीकार किया . काम्बोज के संघपति ने उत्तरापथ की अलभ्य वस्तुएं उपानय में भेजी थीं , जिनमें नन्दिनगर के बने हुए भेड़ , बिल्ली और मूषक के रोम से बने सुवर्ण-चित्रित मूल्यवान् वस्त्र , अजानीय अश्व , अश्वतरी और ऊंट थे । कुरु , पांचाल संघ राज्य के शासक धनञ्जय और श्रुतसोम तथा गणपति राजा दुर्मुख बहुत – से वायु – तुल्य वेग से चलनेवाले , अच्छी जाति के अश्व और बहुत – से रत्न भेंट में लेकर स्वयं आए थे। अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त , कलिंगराज सत्तभू , कम्पिला के राजा भरत , विदेहराज रेणु , कासिराज धत्तरथ भी विविध मूल्यवान् वाहन , आसन, पलंग,पोशाक, बहुमूल्य मणियों और मोतियों से सुशोभित हाथीदांत के बने विचित्र कवच , विविध शस्त्र , सुशिक्षित घोड़ों से जुते हुए तथा सोने के तारों से खचित , व्याघ्रचर्म से मढ़े हुए रथ ,हाथी, कम्बल , रत्न ,नाराच, अर्धनाराच आदि सामग्री लाए थे । रोरुकसौवीर साकल के राजा बहुत – सा सुवर्ण तथा कार्पासिक देश की षोडशी, कुन्तला, अलंकृता सैकड़ों दासियों को भेंट में लाए थे। मद्र देश के राजा स्वर्णघटों में मलयगिरि के सुवासित चन्दन का अर्क और दर्द गिरि का अगरु, चमचमाते मणि – माणिक्य तथा सोने के तारों से बने हुए महीन वस्त्र लाए थे। दक्षिण से भोजराज्य , विदर्भ राज्य , अस्सक और दण्डक राज्यों के प्रतिनिधि बहुत – से तेजस्वी रत्न , चांदी, अलंकार, शस्त्र और वस्त्र लेकर आए थे। विदिशा के नागराज शेष के पुत्र पुरङजय भोगी ने अलभ्य विषहर मणि तथा दो सौ सुन्दरी नागकन्याएं भेजी थीं । हज़ारों गौसेवक , ब्राह्मण, श्रोत्रिय , शूद्र, संकर और व्रात्य महाराज प्रसेनजित् को प्रसन्न करने के लिए विविध उपहार लेकर आए थे। जंगली जाति के सरादार रत्न , मूंगा, स्वर्ण, भेड़, बकरी ऊंट , गाय आदि पशु, फल – फूल , फूलों का मधु आदि सामग्री भेंट में लाए थे ।

ये सब राजा – महाराजा और सरदार – जमींदारी भीड़ के मारे भीतर घुसने का स्थान न पाकर बाहर द्वार पर ही खड़े थे। सैकड़ों ग्रामवासी प्रधान घी से भरे सोने – चांदी के घड़े हाथों में लिए राह न मिलने के कारण बाहर ही खड़े रह गए थे। कुरु के जनों और पहाड़ी राजाओं ने ब्राह्मणों और श्रोत्रियों के काम की बड़ी – बड़ी सुन्दर मृगछालाएं तथा मज़बूत पहाड़ी टटू भेजे थे। कलिंगराज सत्तभू दरवाज़े पर भीड़ देखकर मूल्यवान् रत्नजटित गहने और हाथीदांत की मूठों वाले खड्ग तथा काली गर्दनवाले और सौ कोस तक दौड़नेवाले हज़ार खच्चर भीतर भेजने की व्यवस्था कर अपने देश को लौट गए। उत्तरकुरु के देवदिव्य औषध, अम्लान , पुष्पमाल, कदली और मृगचर्म लेकर आए खड़े थे। क्रूरकर्मा असभ्य किरात , खस और दर्दुर विविध पशु -पक्षियों का शिकार लेकर तथा पांच सौ युवती दासियां लेकर आए थे ।

अनेक राजा लोगों ने द्वार पर जाकर देखा कि दण्डधर दौवारिक लोगों की राह रोककर विनयपूर्वक कह रहे हैं – “ भन्ते , तनिक ठहरिए । यथासमय क्रमशः आप भीतर जा सकेंगे। महाराज आपके उपानय भी ग्रहण करेंगे। मगध के सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार ने लम्बे दांतों तथा सुनहरी झूलोंवाले सौ मस्त हाथी और इतने ही वायुवेगी अश्व , जो सुनहरी साज से सजे थे, भेंट भेजे थे। इसी प्रकार अनेक राजा- महाराजा , गणपति , सेट्ठी, नगरसेट्टि और पौर जानपद प्रमुखों ने विविध उपानय वस्तुएं महाराज प्रसेनजित् को प्रसन्न करने के लिए भेजी थीं । पश्चिमी गान्धार के अधिपति कलिंगसेन ने आम के पते के समान रंगवाले अपूर्व सोलह अश्व और दो सौ नवनीत – कोमलांगी गान -वाद्य – यूत -निपुणा कुमारियां भेजी थीं ।

आगत जनों के लिए कोसलपति ने स्वागत – सत्कार की समुचित व्यवस्था की थी । सहस्रों सेवक, दास , कमकर लोगों को खिलाने-पिलाने, ठहराने तथा उनके वाहनों की व्यवस्था में लगे हुए थे। सैकड़ों कर्णिक लेखा-जोखा लिख-लिखकर उपानय सामग्री कोठार में पहुंचाते तथा रसद तोल रहे थे। कहीं कच्ची रसद तोल -तोलकर बांटी जा रही थीं ,कहीं अन्न पकाया जा रहा था । साधु, श्रमण,निगण्ठ , श्रोत्रिय लोग भक्ष्य , भोज्य , चूष्य , लेह , चव्य आदि विविध पदार्थों का आस्वाद ले रहे थे। चारों ओर ऐसा कोलाहल हो रहा था कि कान नहीं दिया जाता था । जगह – जगह पुण्याह पाठ हो रहा था । अभ्यागतों को भोजन , वस्त्र ,स्वर्ण, गौ , रत्न दान दिया जा रहा था । यज्ञ -कार्य के निमित्त अजित केसकम्बली,हिरण्यकेशी, बोधायन , भारद्वाज , शौनक , जैमिनि , गौतम , शाम्बव्य ,कणाद, औलूक, सांख्यायन , वैशम्पायन पैल , सायण,स्कन्द कात्यायन आदि वेद- वेदांग – वेत्ता , षडंग वेदपाठी, षोडषोपचार संस्कर्ग, षष्ठी तन्त्र , गणित ,शिक्षा, कल्प ,व्याकरण, छन्द व्युत्पत्ति , ज्योतिष तथा नीति – शास्त्रादक ज्ञाता महाश्रोत्रिय अट्टासा ब्राह्मण प्रमुख कर्ता नियत किए गए थे, जिनमें से प्रत्येक की सेवा के लिए राजा ने सोलह- सोलह रूपगुणालंकृता दासियां नियत की थीं । सहस्र ऊध्वरता ब्रह्मचारी नित्य स्वर्ण- थाल में हविष्य भोजन करते और अखण्ड सामगान करते थे। राजाओं और सरदारों की लाई हुई सहस्रों जंगली गायें जहां – तहां बंधी थीं । जगह- जगह यज्ञ बल के पवित्र पशु , बछड़े, वृषक और अन्य पशु बंधे थे। ऐसा प्रतीत होता था कि सब देश और सारे संसार की संपदा और जानपद इस समय श्रावस्ती में एकत्र हो गए हैं ।

68 . वज्रपात : वैशाली की नगरवधू

नगर आनन्दोत्सव में व्यस्त था । राजमहालय और वीथी , हम्य – अट्टालिकाएं सम्मान्य आगतों से परिपूर्ण थीं । यज्ञ में भेंटस्वरूप आई वस्तुओं के ढेर लगे थे। सैकड़ों कर्णिक , कोठारिक, द्वार – बन्धु , कंचुकी उनकी व्यवस्था में लगे हुए थे। परन्तु महाराज प्रसेनजित् अपने अन्तःकक्ष में अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में बकझक कर रहे थे। सीमान्त से बड़ी भयानक सूचना पाई थी । बारहों मल्ल पुत्र – परिजनों को राह में दस्युओं ने मारकर सब उपानय सामग्री लूट ली थी । बन्धुल मल्ल काष्ठ के कुन्दे की भांति शोक- संतप्त भूमि पर पड़े थे। राजकुमार विदूडभ तीखी दृष्टि से दोनों आहत प्रतिद्वन्द्वियों को चुपचाप खड़े देख रहे थे । महाराज ने बड़ी देर तक बकझक करने के बाद कहा – “ राजकुमार , क्या कारायण आया है ? ”

“ हां महाराज ! ”

“ तो पुत्र , उसे अभी उपस्थित कर। ”

“ महाराज, यह अनुपयुक्त होगा । इस समय यह गृह-विवाद प्रकट नहीं होना चाहिए । कारायण कोई उपद्रव खड़ा कर सकता है। ”

“ तो क्या उसे दण्ड नहीं दिया जाए ? ”

“ क्यों नहीं महाराज ! अभी उसे बन्दीगृह में रखा जाए, पीछे यज्ञ – समारोह की समाप्ति पर न्याय-विचार से जैसा उसका अपराध हो , उसे दण्ड दिया जाएगा , जिससे महाराज का न्याय दूषित न हो । ”

“ तो पुत्र , तुम जैसी ठीक समझो , व्यवस्था करो। ”

“ नहीं महाराज , वह साधारण जन नहीं, सेनापति है। उसकी कारा -व्यवस्था भन्ते सेनापति कर सकते हैं । ”

“ तो बन्धुल , ऐसा ही हो । ”

युवराज ने कहा – “ महाराज, इससे भी गुरुतर एक कार्य है। ”

“ कैसा कार्य पुत्र ? ”

“ सीमान्त का प्रबन्ध । वहां सेना गई है, परन्तु सेनानी विश्वस्त और योग्य नहीं हैं । सर्वत्र छिद्र- ही -छिद्र हैं । इस समय यदि कौशाम्बी – नरेश श्रावस्ती पर आक्रमण करें तो भयानक परिणाम हो सकता है । मेरी सम्मति है कि सेनापति स्वयं सीमान्त पर जाएं । ”

राजा और बन्धुल चुप रहे । कुमार ने फिर कहा – “ मुझे सन्देह है महाराज ! ”

“ कैसा सन्देह ? ”

“ बारह मल्ल -बन्धुओं की हत्या केवल दस्युओं का साधारण कार्य नहीं प्रतीत होता । इसमें षड्यन्त्र भी हो सकता है। ”

बन्धुल ने सिर उठाकर कहा

“ यदि ऐसा है, तो मैं कौशाम्बी को जलाकर छार न करूं तो बन्धुल नहीं। ”

“ भन्ते सेनापति , इसी से मेरी सम्मति में आपका ही सीमान्त पर जाना ठीक है । रक्षा भी होगी , यथार्थ का पता भी लगेगा । ”

“ तो महाराज, मुझे सीमान्त पर जाने दीजिए। ”

“ जा मित्र! परन्तु यहां तेरे बिना मैं अकेला हूं। ”

“ महाराज इस समय यज्ञ – अनुष्ठान में व्यस्त हैं। पुर , पौरजन तथा राज पुरुषों से परिवृत्त हैं । चिन्ता की बात नहीं। मैं सीमान्त जाता हूं। ”

बन्धुल ने उसी समय सीमान्त पर प्रयाणा किया । तब तक कारायण को बन्दीगृह में भेज दिया गया ।

69 . क्रीता दासी : वैशाली की नगरवधू

हंस के समान उज्ज्वल ज्योत्स्ना से भूलोक ओतप्रोत था । डेढ़ पहर रात्रि जा चुकी थी । आज चन्द्रमा कुछ देर से निकला था , परन्तु अभी तक उसमें उदयकाल की ललाई झलक रही थी । सारा आकाश चांदनी से भरा था । तारे टिमटिमा रहे थे और सान्ध्य समीर ने प्राणियों पर एक अलस निद्रा का प्रभाव डाल दिया था । कुण्डनी के पीछे उसकी सखी के वेश में सोम धीर – मन्थर गति से राजमहालय की ओर बढ़ा जा रहा था । उसे ऐसा जान पड़ रहा था , जैसे प्रकृति में एक अवसाद ओतप्रोत हो रहा है। उसने साहस करके कहा

“ कुण्डनी , यदि हम सफल न हुए ? ”

“ चुप ! मैं ऐसा कभी नहीं सोचती ? ”

धीरे – धीरे वे महालय के निकट पहुंच गए । वहां अलकापुरी की सुषमा फैल रही थी ।

राजमहालय के अन्तःपुर में बहुत भीड़ थी । दासी, चेटी , नागरिकों , राजवधू, गणिका , भद्रा आदि अनगिनत स्त्रियां वहां भरी हुई थीं । सहस्रों सुगन्ध – दीप जल रहे थे और विविध वाद्य बज रहे थे। दास , दासी, सेवक, दण्डधर ,कंचुकी अपने – अपने काम से दौड़- धूप कर रहे थे।

परिवेण पार कर जब वे निकट पहुंचे तो देखा – अलिन्द में बहुत – से सशस्त्र प्रहरी ड्योढ़ी की रखवाली कर रहे हैं । कुण्डनी ने वहां निःशंक जाकर एक प्रहरी की ओर उंगली उठाई और सोम की ओर देखकर कहा – “ हन्दजे, यही है। इसी चोर ने दासी को उड़ाया है। ”

प्रहरी कुण्डनी की रूप -ज्वाला और ठाठ से चमत्कृत हो गया । उसने घबराकर कहा – “ कैसी दासी हला ? ”

इस पर सोम ने यथासाध्य कोमल कण्ठ करके कहा – “ चुप ! इसका विचार महिषी मल्लिका करेंगी । तू उनकी सेवा में चल । ”

प्रहरी सोम का मुंह ताकने लगा। सोम प्रकाश की आड़ देकर खड़ा हो गया था । कुण्डनी ने फिर डपटकर कहा – “ चल – चल , महिषी की सेवा में चल !

“ किन्तु हन्दजे… ”

“ पाजी, महिषी की आज्ञा है, चल ! प्रहरी को भी रोष आ गया । उसने रूढ़ स्वर में कहा – “ मैं चोर नहीं हूं, चलो। ”

वह अन्तःपुर की ओर चला। पीछे कुण्डनी और सोम चले । अन्तःपुर की पौर पर वे निर्विघ्न पहुंच गए। वहां पौर पर भी प्रहरी थे। कुण्डनी ने उन्हें सुनाकर सोम से कहा – “ हला , तू जाकर देवी को सूचना दे आ , मैं तब तक इस चोर पर पहरा दूंगी । ”

सोम स्थिर गति से अन्तःपुर में घुस गया । प्रहरियों ने उसे नहीं रोका। वे कुण्डनी को घेरकर खड़े हो गए । कोई उसके कान में लटकते बहुमूल्य हीरक – कुण्डलों को , कोई उन्नत

उरोजों पर कसी स्वर्णकंचुकी को , कोई उसके नवविकसित यौवन को प्यासी चितवनों से देखने लगा। उनके जे ? ने कुण्डनी को प्रसन्न करने के लिए कहा

“ आर्ये, हुआ क्या ? ” कुण्डनी ने उसकी ओर एक कटाक्षपात करके कहा

“ पाजी ने महिषी की अन्तर्वासिनी दासी को उड़ाया है। इसे आज सूली चढ़वाऊंगी। ”

“ किन्तु यह असत्य है , असत्य ! ”

एक प्रहरी ने कहा – “ इसका प्रमाण क्या है ? ”

कुण्डनी ने क्रुद्ध होकर कहा – “ अरे मोघपुरुष , प्रमाण क्या तुझे ही बताना पड़ेगा ? तू भी इसका साथी है, देवी से निवेदन करना होगा। ”

“ नहीं – नहीं, अज्जे , मुझसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। ”

सब प्रहरी हंसने लगे । एक ने कुण्डनी की कृपा – दृष्टि प्राप्त करने की इच्छा से कहा – “ अज्जे , इसे पकड़ा कहां ? ”

कुण्डनी ने उस पर एक कटाक्ष फेंका और मुस्कराकर कहा – “ पकड़ा क्या यों ही , तीन पहर से घूम रही हूं। देवी की आज्ञा है, जहां मिले , उपस्थित कर । ”

इसी समय सोम ने आकर कहा – “ चलो ! ”प्रहरियों ने बाधा नहीं दी ; कुण्डनी प्रहरी – सहित अन्तःपुर की पौर में घुस गई ।

सोम ने कुण्डनी के कान में कहा – “ अब ? ”

“ अब इसे यहां से भगाना होगा , नहीं तो यह थोड़ी ही देर में भीड़ इकट्ठी कर लेगा । तुम उसे जाकर युक्ति से भगाओ, मैं तब तक उस लता -मण्डप में हूं । ”

कुण्डनी आगे बढ़ गई । सोम ने सिपाही के पास आकर कहा

“ प्राण बचाना चाहता है ? ”

“ हला , मैं चोर नहीं हूं। ”

“ तो ला , कुछ मुझे दे, तुझे छोड़ती हूं। ”

“ मेरे पास केवल चार कार्षापण हैं । ”

“ वही दे मोघपुरुष और भाग। तब तक मैं दूसरी ओर देख रही हूं । परन्तु याद रख , मेरी संगिनी की दृष्टि में पड़ा और मरा। वह तुझ पर क्रुद्ध है। दो – चार दिन अन्तर्धान रह। ”

“ ऐसा ही सही हला, तुम्हारा कल्याण हो । ”वह कार्षापण दे बाहर को भागा । सोम ने लम्बे- लम्बे डग भरते हुए लतामण्डप के निकट पहुंचकर कुण्डनी से कहा – “ पाप कट गया , चार कार्षापण उत्कोच में मिले । ”

“ परन्तु सोम , तुम्हारी चाल दूषित है । स्त्रियां इस भांति नहीं चलतीं । ”

सोम ने हंसकर कहा – “ अब मैं एक दिन में सम्पूर्ण स्त्री नहीं बन सकता हूं। परन्तु राजकुमारी कहां है ? ”

“ मैं जानती हूं । वहां पहुंचने के लिए पूरा जन – कोलाहल पार करना होना । उधर नये हर्म्य में जाना होगा । परन्तु तुम बहुत लम्बे हो और तुम्हारे भीतर झिझक दीख रही है यह ठीक नहीं है हला ! ”

“ परन्तु यह झिझक नहीं है – व्रीड़ा है सखि ! ”

“अब। ”

“ जो हो, पर अस्वाभाविक कुछ न हो । सावधान, कड़ी परीक्षा का समय है। आओ आगे- आगे कुण्डनी और पीछे-पीछे सोम अन्तःद्वार में प्रविष्ट हुए। पद- पद पर दीपालोक बढ़ रहा था । तरुणियां उन्मत्त विलास में मग्न थीं । अन्तःपुर के मृदंग और मदिरा से उन्मत्त कोकिल कंठ – स्वर सुनाई दे रहे थे। दूर तक विस्तीर्ण वाटिका में नाग , पुन्नाग , अशोक , अरिष्ट और शिरीष के सघन वृक्ष लगे थे। माला – वृक्षावलियां दूर तक फैल रही थीं । उन नील- सघन गुल्मों के पत्तों पर उज्ज्वल ज्योत्स्ना की अनोखी छटा दीख रही थीं । दोनों व्यक्ति वृक्षों की छाया में अपने को छिपाते बंकिम मार्ग से चले जा रहे थे। अन्तःकोष्ठ के लोहार्गल- युक्त कपाट के उस ओर द्वारपाल को देखकर कुण्डनी ने हंसते हुए स्वर्णमंडित ताम्बूल की दो वीटिका उसके मुंह में ठंस दीं । द्वारपाल प्रसन्न हो गया ।

कुण्डनी ने कहा – “ आज तो हुड़दंग का दिन है भणे! ”

“ हन्दजे , आनन्द है, आनन्द है ! ”

दोनों आगे बढ़ गए । द्वारपाल ने बाधा नहीं दी । दोनों विस्तृत वाटिका- वीथियों पर चलने लगे। दोनों ओर की सघन वृक्षों की पंक्तियों से यहां अंधेरा छाया हुआ था । अन्त को दोनों अन्तःपुर के अन्तःप्रवेश द्वार पर आ पहुंचे। सोम का हृदय धड़कने लगा। द्वार पर यवनी दासियां धनुष – बाण लिए मुस्तैद खड़ी थीं । उनका वर्ण गौर था । उनका सारा अंग आगुल्फ कंचुक से आवेष्टित था । एक – एक छोटा खड्ग उनकी कटि में बंधा था तथा मस्तक पर उत्तरीय स्वर्ण- खचित पट्ट से बंधा था । उनके कान के दन्तपत्र उनके चिक्कण कपोलों पर क्रीड़ा कर रहे थे। पैरों में लगा अलक्तक रस दूर ही से भासित हो रहा था । वे कुल पांच थीं । मदिरा के आवेश से उनकी आंखों के कोए लाल हो रहे थे। उन्होंने कुछ चकित भाव के कुण्डनी की ओर देखा । वे समझ ही नहीं रही थीं कि कुण्डनी किस दर्जे की स्त्री है । कुण्डनी ने हंसकर उनके दन्तपत्र को क्रीड़ा से छूआ , फिर कंचुक से मद्यपात्र निकालकर कहा – “ पियो हला, देवी कलिंगसेना के लिए! ”

पांचों ने मद्यपात्र छीन लिया । एक ने पात्र मुंह से लगाया , दूसरी उसे छीनने लगी । कुण्डनी हंसती हुई उन्हें एक दूसरी पर धकेलकर चली गई। किसी ने उनकी तरफ नहीं देखा ।

अब वे वास्तविक अन्तःपुर में आ गए। सोम ने स्खलित वाणी से कहा- “ कुण्डनी, भला कहीं कभी इस अन्तःपुर का अन्त भी होगा ? ”

परन्तु कुण्डनी ने उसे चुप रहने का संकेत किया । वे मल्लिका, कुरण्टक, नव मल्लिका आदि के गुल्मों को पार करते हुए चलते गए । बकुल और सिन्धुवार की भीनी महक ने उन्हें उन्मत्त कर दिया । उधर गवाक्षों से लाल -पीली नीली प्रकाश – छटा छन छनकर उन पर पड़ रही थी । उनमें से मृदंग, मंजीर , काहल और शंख का नाद सुनाई पड़ रहा था । परिचारिकाएं द्विपदी खण्ड गान कर रही थीं । आगे चलकर देखा , तरुणियों का एक झुण्ड नृत्य – गान करता आ रहा है। वे पान – मत्त थीं । नारीसुलभ मर्यादा को वे त्याग चुकी थीं । उनके केशपाश खुल गए थे। उत्तरीय खिसक गए थे। मंजरीक , उरच्छक , वंटक और अचेलक मालाएं अस्त -व्यस्त हो रही थीं । पैरों के नूपुर बार – बार पैर पटकने से झनझना रहे थे। वे सब इनके पास आ गईं , सोम कुण्डनी की पीठ में छिप गया । कण्डनी ने

सखिल भाव से उच्च स्वर से मदोन्मत्त की भांति मुद्रा बनाकर कहा – “ जय , जय ! जय, जय ! मित्तिया जय , जय ! ”

सब मिलकर दोनों को घेरकर नाचने -गाने लगीं । कुण्डनी हंसती रही । पर सोम की मुद्रा देख एक – दो ने उसे छेड़ना आरम्भ किया । कुण्डनी ने रोककर कहा – “ उसे न छेड़ हला , अल्हड़ बछेड़ी है । ”

सब रहस्य की हंसी हंस दी और उसी भांति गाती-बजाती चल दीं । सोम ने अघाकर सांस ली ।

दो पहर रात जा चुकी थी । दक्षिण समीर मलयानिल को ला रही थी । उससे वाटिका के सब लता – गुल्म झूमते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो इन सबने भी पी है ।

कुण्डनी ने अब द्रुतगति से एक हर्म्य की ओर पग बढ़ाया और उस अट्टालिका में घुस गई । वह अनेक अलिंद, कुट्टिम, वीथियां, कोष्ठक , परिवेण, वातायन और मिसिका पार करते हुए उस घर में पहुंचे, जहां चक्कलिका के भीतर राजनन्दिनी अधोमुखी, निश्चल बैठी थीं । कक्ष के भीतर का वातावरण एकदम शान्त था । कोलाहल से परिपूर्ण सम्पूर्ण रंगमहल का जैसे यहां कुछ प्रभाव ही न था । घर के एक कोने में एक नीतिदीर्घ आसन्दी पड़ी थी , उस पर दुग्धफेन के समान प्रच्छदपट ढंका था । उसी के निकट एक भद्रपीठ पर एक अष्टपदक बिछा था , उसी पर सद्यःस्नाता राजनन्दिनी चुपचाप ध्यान- मुद्रा में बैठी थीं । उनके सामने एक वेदिका पर गन्ध , माल्य , चंदन और नैवेद्य रखा था । एक छोटे – से मणिपीठ पर सुगन्धित सिक्थपिटक और सुगन्धित पुटिका रखी हुई थी । उससे तनिक हटकर एक हिरण्यस्तवक में मातुलुंग की छाल और पान के अन्यान्य उपकरण रखे थे। आसन्दी के पदाधान की ओर रजत पतद्गृह रखा हुआ था । एक नागदन्त पर कुरण्डमाल लटकी हुई थी ।

सोम इस कमनीय मूर्ति को इस अवस्था में देख भाव – मूर्छित हो गया । राजबाला के सम्पूर्ण शरीर से स्वच्छ कान्ति प्रस्फुटित हो रही थी । उसका सद्यःस्नात हिमधवल प्रभापुंज गात्र , शरत्कालीन मेघों से आच्छादित चन्द्रकला- जैसा प्रतीत हो रहा था । वह मूर्तिमती स्वर्ण- मन्दाकिनी – सी , शंख से खोदकर बनाई हुई दिव्य प्रतिमा – सी प्रतीत हो रही थी । जैसे अभी – अभी विधाता ने उसे चन्द्रकिरणों के कूर्चक से धोकर, रजत -रस से आप्लावित करके , सिन्धुवार के पुष्पों की धवल कांति से सजाकर वहां बैठाया हो ।

उसने पग – आहट पाकर उत्पल के समान बड़ी – बड़ी आंखें उठाकर देखा और सामने दु: ख – संगिनी को देख कुछ कहने को ओठ खोले । परन्तु शब्द निकलने से प्रथम ही कुण्डनी ने ओठों पर उंगली रखकर कुमारी को चुप रहने का संकेत किया । कुमारी ने मिसिका के खंभे का सहारा लिए ऊंघती हुई दासी को कातर दृष्टि से देखा और आंखें नीची कर लीं । उनकी आंखों से झर – झर अश्रुधारा बहने लगी ।

कुण्डनी ने दासी के निकट जा उसे हिलाते हुए डांटकर कहा – “ भाकुटिका , इसी प्रकार सावधान रहा जाता है ? ”

दासी हड़बड़ाकर कुण्डनी का मुंह देखने लगी । उसका मुंह सूख गया ।

कुण्डनी ने कहा – “ कब से तू बैठी है, बोल ? ”

“ हन्दजे , तीन प्रहर से । सब लोग उधर विवाह के आमोद- प्रमोद में लगे हैं । ”

“ तो जा , तुझे भी छुट्टी देती हूं, भाग, यहां अब मैं हूं। तू भी समारोह देख -माध्वीक पी , तुझे क्या पुरस्कार नहीं मिला ? ”

“ नहीं , हन्दजे। ”

“ तो जल्दी जा मूर्खे, सभी को रत्नभाण्ड मिल रहे हैं । ”

दासी ने और विवेचना नहीं की । वह तेजी से अन्तःपुर की ओर भागी।

उधर नर्तकियां चर्चरी ताल के साथ नाच – गा रही थीं । उनकी सम्मिलित ध्वनि यहां भी आ रही थी ।

कुण्डनी फिर चुपचाप कुमारी के पास जाकर बैठ गई। कुछ देर उनके मुंह से शब्द नहीं निकला। फिर उसने कहा – “ राजकुमारी, यहां से भागो। ”

राजकुमारी ने आंसू- भरे नेत्रों से कुण्डनी की ओर देखा । कुछ कहना चाहा, पर केवल ओठ हिलकर रह गए । हठात् उन्होंने भय और आशंका से सोम की ओर देखा । सोम लज्जा और ग्लानि से डूबे हुए भीत में चिपककर चुपचाप खड़े थे। कुण्डनी ने फुसफुसाकर कहा – “ सोम है, सखी ! ”सुनकर राजकुमारी चमत्कृत हुईं । उन्होंने बड़ी- बड़ी आंखें उठाकर सोम को देखा । सोम के स्त्री – वेश को देख इस विपन्नावस्था में भी उनके ओठों पर क्षणा- भर को मुस्कान फैल गई । कुछ देर बाद राजकुमारी ने कहा

“ अब ? ”

“ यहां से भागो। ”

“ क्या यह सम्भव है ? ”

“ निरापद तो नहीं है । ”

सोम ने आगे बढ़कर कहा – “ मेरे पास खड्ग है, चिन्ता नहीं। ”

कुण्डनी ने कहा- “ फिर साहस करने के अतिरिक्त और उपाय ही क्या है ? ”

“ है सखि ! ”

“ तो कहो कुमारी! ”

“ भगवान महावीर। ”

“ वे श्रावस्ती में हैं ? ”

“ हैं , मैं जानता हूं। ”

“ उन तक मेरा संदेश ले जाओ, फिर जैसा वे समझें। ”

“ मैं उनसे क्या कहूं भद्र ? ”

“ कहना भद्र , कि चम्पा की दग्धभाग्या कुमारी चन्द्रभद्रा बद्धांजलि शरणागत है, प्रसाद हो । ”

“ किन्त कुमारी, इस कार्य में समय लगेगा। तब तक यदि कुछ अनिष्ट हो ? ”

“ नहीं होगा। मैंने तीन दिन व्रत – उपवास का समय मांग लिया है । कल सन्ध्या तक मेरे पास कोई नहीं आएगा । ”

“ तो कुण्डनी , यही ठीक है। कुमारी का यहां से निकलने की अपेक्षा यहां रहना ही ठीक है । परन्तु क्या भगवान् महावीर सहायता करेंगे ? ”

“ करेंगे भद्र! ”राजकन्या ने फिर आंसू-भरी बड़ी -बड़ी आंखों से सोम को देखा ।

“ किन्तु यदि सफलता नहीं मिली ? ”

“ तो भद्र , फिर जो उचित हो सो करना । ”इतना कह वह फफक -फफककर रो पड़ी ।

कुण्डनी ने कहा- “ सोम, मैं किसी भांति कल तक अन्तःपुर में रह जाऊंगी। तुम अभी जाओ और प्रातःकाल ही भगवान् से मिलो। ”

“ किन्तु… ? ”

“ जाओ सोम , किन्तु सिंहद्वार से नहीं। प्रमोदवन के बाहर -बाहर वृक्षों की आड़ में , वाटिका के मध्य में जो वापी है, वहां जाओ। वहां स्त्री – वेश त्याग , वृक्ष पर चढ़ किसी शाखा के सहारे प्राचीर को लांघ जाना। परन्तु यदि तीन दण्ड दिन चढ़ने तक तुम्हारे उद्योग का कोई प्रभाव न हुआ हो तो फिर मैं कोई दूसरा कौशल रचूंगी । तब तुम उसी प्राचीर के उस ओर हमारी प्रतीक्षा करना । ”

सोम ने एक बार राजनन्दिनी को कातर और म्लान दृष्टि से देखा, फिर तेज़ी के कक्ष के बाहर हो गए ।

70. निगंठ – दर्शन : वैशाली की नगरवधू

उपाश्रय के द्वार पर ही एक सामनेर हाथ में पोथी लिए कुछ सूत्र रट रहा था । सोम ने सीधे उसी के पास पहुंचकर कहा – “ भन्ते सामनेर , मैं श्रमण भगवान् महावीर का दर्शन किया चाहता हूं। ”

“ श्रमण भगवान् अवरोध में नहीं रहते भद्र! किन्तु मैं उनकी अनुज्ञा ले आता हूं। आप कौन हैं ? ”

“ एक अर्थी हूं और गुरुतर कार्यवश भगवान् का दर्शन किया चाहता हूं। ”

“ तो भद्र, तुम क्षण – भर ठहरो , मैं अभी आया । ”

सामनेर जाकर शीघ्र ही लौट आया । आकर उसने कहा – “ भन्ते , भगवान् श्रमण ने इसी समय तुम्हें दर्शन देने का प्रसाद किया है। मेरे साथ आओ। ”आगे- आगे सामनेर और पीछे-पीछे सोम उपाश्रय के सिंहद्वार को पारकर एक विशाल मैदान में पहुंचे। वहां देखा , एक वटवृक्ष की छांह में सर्वजित् महावीर जिन सिर नीचा किए ध्यान -मुद्रा में बैठे थे। उनके छोटे – छोटे श्वेत श्मश्रु- केश मुख और सिर पर विरल दीख रहे थे। अंग में वृद्धावस्था के लक्षण लक्षित थे । उनका गौरवर्ण अंग इस अवस्था में भी तेजपूर्ण था तथा दृष्टि मर्मभेदिनी थी । उसमें स्नेह और करुणा का प्रवाह बहता – सा प्रतीत हो रहा था । उनकी आकृति तप्त कांचन के समान प्रभावपूर्ण दीख रही थी और स्थिर मुद्रा एक सहज – शांत भाव का सृजन कर रही थी । सोम अभिवादन कर एक ओर बैठ गए । श्रमण ने गर्दन को तनिक सोम की ओर घुमाकर कहा – “ कह वत्स , मैं तेरा क्या प्रिय करूं ? ”

“ भन्ते , मैं गुह्यनिवेदन किया चाहता हूं। ”

“ तो एक क्षण ठहर भद्र, ” इतना कहकर श्रमण महावीर ने अपने चारों ओर देखा । उपासक उठ गए। एक शिष्य बैठा था , उससे श्रमण ने कहा – “ अभी तू जा वत्स , फिर आना । और सामनेर की ओर देखकर कहा – “ तू द्वार पर ठहर । जब तक मैं आयुष्मान् से बात करूं , इधर कोई न आए। ”

वे दोनों भी चले गए । तब श्रमण महावीर ने सोम की ओर देखकर कहा – “ अब कह भद्र ? ”

“ भन्ते , चम्पा – राजनन्दिनी चन्द्रभद्रा भगवान की शरण – कामना करती है । ”

श्रमण महावीर एकबारगी ही विस्मय और उद्वेग से आंखें फाड़ – फाड़कर सोम की ओर देखने लगे । उन्होंने कहा – “ तो क्या सुश्री शीलचन्दना चन्द्रभद्रा अभी जीवित है ? वह कहां है, शीघ्र कह ! ”

“ श्रावस्ती ही में है भन्ते ! ”

“ कहां भद्र ! शीघ्र कह, उस शोभामयी सुकुमारी की शुचि मूर्ति देखने को मैं व्याकुल हूं। वह कुमारी कहां है, मागधों ने उसे जीवित कैसे छोड़ दिया ? ”

सोम ने लज्जा से आंखें नीची कर लीं और मन्द स्वर से कहा – “ भन्ते भगवान् वह चम्पा – पतन के बाद आपकी शरण में श्रावस्ती आ रही थीं । मार्ग में तस्कर दास-विक्रेताओं के फंदे में फंस गईं। उन्होंने उन्हें यहां श्रावस्ती में लाकर दासों के हट्ट में बेच दिया । ”

“ बेच दिया ! क्या कहते हो भद्र ? ”.

“ हां भगवान्, महाराज प्रसेनजित् से नवविवाह के उपलक्ष्य में राजमहिषी मल्लिका को नियमानुसार महाराज को भेंट करने के लिए एक दासी की आवश्यकता थी । उसी काम के लिए राजमहालय के कंचुकी ने स्वर्णभार देकर कुमारी को क्रय कर लिया । ”

“ शान्तं पापं ! क्या महिषी मल्लिका ने उसे दासी -भाव से महाराज को भेंट करने के लिए क्रय किया है ? ”

“ हां भन्ते ! ”

“ तुम कौन हो भद्र! ”

“ मैं मागध हूं। ”

“ ओह! ”भगवान् महावीर नीची दृष्टि किए कुछ देर सोचते रहे। फिर बोले – “ तो क्या कुमारी को यह ज्ञात है कि वह कर्म -विपाक से शत्रु से उपकृत हुई है ? ”

“ ज्ञात है भन्ते । ”

“ तुम्हीं ने राजकुमारी की सहायता की है ? ”

“ भन्ते, कुमारी की एक सखी और है। ”

“ वह कौन है ? ”

“ मागधी ही है। चम्पा के पतन के बाद, कुमारी की रक्षा और व्यवस्था हम लोगों ने शक्ति – भर की है । ”सोम ने अपने स्त्री – वेश में अन्तःपुर में प्रवेश का भी वर्णन कर दिया । सब सुनकर श्रमण महावीर ने कहा – “ तुम्हारा नाम क्या है भद्र ? ”

“ सोम , भन्ते ! ”

“ अच्छा तो सोमभद्र , तुम मुहूर्त – भर वहां उपाश्रय में प्रतीक्षा करो। तब मैं तुमसे बात करूंगा और उस पीठिका पर से सामनेर को मेरे पास भेज दो । ”

सोम ने अभिवादन करके स्वीकार किया । वह चले गए। सामनेर ने श्रमण के सम्मुख आकर वन्दना की ।

श्रमण ने कहा – “ भद्र, हम अभी राजकुमार विदूडभ को देखा चाहते हैं । ”

“ भगवान् की जैसी आज्ञा ! ”

सामनेर चेला गया । महावीर स्वामी गहन चिन्ता में मग्न हो गए ।

71. द्वन्द्व : वैशाली की नगरवधू

उसी सामनेर ने आकर सोम से कहा – “ चलिए भन्ते , कुमार विदूडभ आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

“ कुमार विदूडभ ? ”सोम ने आश्चर्यचकित होकर कहा ।

“ श्रमण भगवान् के आदेशानुसार ही वे आपसे भेंट किया चाहते हैं । ”

सोम ने और अधिक बात नहीं की । वह चुपचाप सामनेर के पीछे-पीछे हो लिए । एक छोटे – से अलिंद में राजकुमार विदूडभ गम्भीर मुद्रा में एक तृणास्तर पर बैठे थे। उनका वेश सादा था और कोई शस्त्र उनके पास न था । वे धवल कौषेय पट्ट पहने थे। उनके मुखमण्डल पर उनकी अल्पायु की अपेक्षा अधिक दीप्ति भासित हो रही थी । सोम का उन्होंने अभ्युत्थानपूर्वक स्वागत किया और मृदु वाणी से कहा

“ स्वस्ति मित्र , मैं विदूडभ हूं। भगवान् ज्ञातिपुत्र ने मुझे चम्पा की राजनन्दिनी के संरक्षण का आदेश दिया है। सो मैं उनका संरक्षण स्वीकार करता हूं। अब तुम आश्वस्त हो । ”

सोम को यह भाषण न जाने कहां जाकर चुभ गया । उन्होंने एक प्रकार से उद्धत भाव से कहा – “ किन्तु यह तो यथेष्ट नहीं है।

सोम का यह उत्तर राजकुमार को कुछ धृष्ट प्रतीत हुआ। उन्होंने कहा

“ मित्र , तुम अप्रियवादी हो । कोसल के राजकुमार से तुम्हें मर्यादा से बात करनी चाहिए। ”

“ कोसल राजकुमार का मैं उपकृत नहीं हूं और कोसल – परिवार ने राजकुमारी के साथ जो व्यवहार किया है, उसे देखते हए मैं नहीं समझता कि चम्पा – राजनन्दिनी किसी कोसल के संरक्षण में रहना स्वीकार करेंगी। ”

“ मुझे श्रमण ज्ञातिपुत्र से ज्ञात हुआ है कि तुम मागध हो । सो मागध मित्र, तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि मागधों से अधिक बुरा व्यवहार चम्पा की राजकुमारी के साथ कोसल में नहीं किया जाएगा। ”

सोम ने उत्तेजित होकर कहा

“ राजकुमार, मागध कोसल से शिष्टाचार सीखने की अपेक्षा नहीं रखते । किन्तु राजकुमारी की इच्छा के विरुद्ध आप उनके संरक्षक नहीं हो सकते । ”

राजकुमार विदुडभ ने हंसकर कहा – “ सो ठीक है मित्र । कोसल मागधों के शास्ता बनने को उत्सुक नहीं हैं । परन्तु कुमारी की इच्छा और भगवान् महावीर के सत्परामर्श से कुमारी की सम्यक् व्यवस्था कर दी जाएगी । इस सम्बन्ध में तुम सर्वथा निश्चिन्त रह सकते हो । ”

“ किन्तु मैं अब तक कुमारी का अभिभावक रहा हूं। मैं जब तक आश्वस्त न हूं….। ”

“ तो तुम आश्वस्त रहो मित्र , अब से मैं कुमारी का अभिभावक रहा। ”

“ परन्तु कुमारी यह स्वीकार न करेंगी। वे किसी कोसल के आश्रय में रहना नहीं चाहेंगी। ”

युवराज ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा –

“ कोसल ने तो कुमारी का कोई अहित नहीं किया – न उनके पिता का राज्य हरण किया , न उन्हें पथ की भिखारिणी बनाया । ”

“ किन्तु कोसलों ने उन्हें क्रीता दासी बनाने की धृष्टता की है। ”सोम ने उत्तेजित होकर कहा ।

राजकुमार का मुंह क्रोध से लाल हो गया । उन्होंने कहा – “ यह तो अभद्रता की पराकाष्ठा है मित्र ! तुम जानते हो केवल मागध होने ही के अपराध में श्रावस्ती में तुम्हारा सिर काट लिया जाएगा । फिर तुमने छद्मवेश से अन्तःपुर में प्रविष्ट होने का अक्षम्य अपराध भी किया है । ”

“ यह सिर इतना निष्क्रिय नहीं है कुमार! फिर मागध -प्रतिकार अभी अवशिष्ट है। ” सोम ने अपने खड्ग पर हाथ डाला ।

इसी समय श्रमण महावीर ने वहां आकर कहा

“ भद्र, यह तुम क्या कर रहे हो ? मेरे अनुरोध से ही कुमार विदूडभ राजकुमारी की रक्षा करने पर सन्नद्ध हुए हैं । ”

“ किन्तु …..। ”

“ किन्तु -परन्तु कुछ नहीं भद्र! राजकुमार विश्वसनीय भद्रपुरुष हैं , तुम्हें उनका विश्वास करना चाहिए। ”

“ किन्तु मैं राजकुमारी से एक बार मिलना चाहता हूं। ”

“ यह सम्भव नहीं है। ”राजकुमार ने कहा ।

“ बिना उनका मत जाने मैं स्वीकार नहीं करूंगा। ”

महावीर जिन हंस पड़े । फिर सोम के सिर पर हाथ रखकर बोले

“ तुम्हारे मन का कलुष मुझे दीख गया भद्र, उसे दूर करो। कुमारी का कल्याण जिसमें होगा , वही मैं करूंगा। ”

सोम बड़ी देर तक चुप रहे। फिर बोले

“ राजकुमार क्या उन्हें यहीं श्रावस्ती ही में रखेंगे ? ”

श्रमण ने कुमार के मुंह की ओर देखा। कुमार ने कहा – “ नहीं, यह निरापद नहीं है । कुमारी को अपने विश्वस्त चरों के तत्वावधान में साकेत भेजना श्रेयस्कर होगा। परन्तु यह सब गान्धारी माता के परामर्श पर निर्भर है। ”

“ तो मैं समझू कि कुमारी अब भी क्रीता दासी हैं ? वे कुमार की गान्धारी माता और कुमार की इच्छा पर निर्भर होने को बाध्य हैं ? ”

“ नहीं भद्र, वह मेरी शरण हैं । जिसमें उनका कल्याण हो , वह मैं करूंगा। तुम्हारा काम समाप्त हुआ , अब तुम जाओ। ”

सोम कुछ देर सोचते रहे । फिर वह खिन्न भाव से श्रमण को अभिवादन करके चलने लगे । तब कुमार ने हाथ बढ़ाकर उठते हुए कहा, “ यह क्या -मित्र ! बिना ही विदूडभ से प्रतिसम्मोदन किए ! ”

उन्होंने सोम का आलिंगन किया । सोम ने कहा – “ मैं अपने अविनय के लिए लज्जित हूं , कुमार! ”

“ वह कुछ नहीं मित्र ! भगवान् ज्ञातिपुत्र ने तुम्हारे मन का कलुष देख लिया । मुझसे भी वह छिपा न रहा। मित्र , मैं भगवान् के समक्ष निवेदन करता हूं – भगवान् के आदेश पालन को छोड़ चम्पा – राजनन्दिनी के प्रति मेरे मन में दूसरा अन्य भाव नहीं है । वह , यदि मित्र, तेरे प्रति अनुरक्त है, तो तेरी धरोहर के रूप में विदूडभ के पास उपयुक्त काल तक रहेगी । विदूडभ भगिनी की भांति उनकी मान -मर्यादा की रक्षा प्राणों के मूल्य पर भी करेगा। ”

“ आश्वस्त हुआ कुमार ! आपकी शालीनता का मैं अभिवादन करता हूं । सोम की सेवाएं सदा आपके लिए उपस्थित रहेंगी। ”

“ आप्यायित हुआ मित्र ! ”

दोनों ने फिर प्रेमालिंगन किया और अपने- अपने मार्ग चले ।

72 . उद्धार : वैशाली की नगरवधू

महारानी नन्दिनी पट्टराजमहिषी मल्लिका की अन्तेवासिनी हो समागता स्त्रियों की व्यवस्था तथा राजमहिषी के अन्य आदेशों का पालन तत्परता से कर रही थीं । अन्तःपुर की इस अव्यवस्थित भीड़ में यदि व्यवस्थित , कार्यतत्पर कोई था , तो देवी नन्दिनी थी । राजकुमार विदूडभ ने वहीं पहुंचकर माता से कहा – “ एक अति गुरुतर विषय पर मुझे आपसे इसी समय परामर्श करना है । ”

“ क्या इतना गुरुतर पुत्र ? ”

“ अति गुरुतर । ”

“ किन्तु मंत्रणा – योग्य निरापद स्थान इस कोलाहल में कहां है ? ”

“ क्यों , माता गान्धारी के आवास में । ”

“ वहां ? ”

“ परामर्शमें उनका रहना भी अनिवार्य है। ”

“ तुम कहते हो पुत्र , अनिवार्य ? ”

“ अय्या , विषय अति गुरुतर है। ”

“ तब चलो ! ”

दोनों ने देवी कलिंगसेना के आवास में जाकर देखा , देवी स्थिर चित्त से बैठी कुछ अध्ययन कर रही हैं । केवल एक चंवरवाहिनी प्रकोष्ठ से बाहर अलिन्द में आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ी है। कलिंगसेना ने देवी नन्दिनी का अभ्युत्थानपूर्वक स्वागत किया ।

विदूडभ ने अभिवादन किया । कलिंगसेना ने हंसकर दोनों से कहा – “ स्वागत बहिन , स्वागत जात , इन अनवकाश में अवकाश कैसे मिला ? ”

“ निमित्त से अय्ये ! ”विदूडभ ने बात न बढ़ाकर कहा ।

“ तो निमित्त कहो जात ! ”गान्धारी रानी ने आशंकित होकर कहा ।

“ एक दुष्कर्म रोकना होगा , अय्ये ! ”

“ दुष्कर्म ? ”

“ हां , अय्ये!

“ कह, जात ! ”

“ राजमहिषी ने विवाहोपलक्ष्य में महाराज को भेंट देने के लिए एक दासी मोल ली है । ”

गान्धारी कलिंगसेना ने मुस्कराकर कहा

“ तो पुत्र , इसमें नवीन क्या है, असाधारण क्या है , दुष्कर्म क्या है ? ”

“ अय्ये , वह दासी चम्पा की राजनन्दिनी – सुश्री चन्द्रभद्रा शीलचन्दना है । ”

“ अब्भुमे ! यह तो अति भयानक बात है पुत्र! ”

“ इसका निराकरण करना होगा, अय्ये ! ”

“ तुमसे किसने कहा ? ”

“ श्रमण भगवान् महावीर ने । ”

“ कुमारी कहां है भद्र ? ”

“ दक्षिण हर्म्य के अन्तःप्रकोष्ठ में । ”

“ तब चलो हला , राजकुमारी को आश्वासन दें । ”

“ किन्तु करणीय क्या है बहिन ?

“ कुमारी से कोसल- राजकुल को क्षमा मांगनी होगी । ”

“ परन्त उसकी रक्षा ? ”

“ क्या महिषी देवी मल्लिका सब जान- सुनकर भी राजनन्दिनी को दासीभाव से मुक्त न करेंगी ? ”

“ हो सकता है, पर पिताजी से आशा नहीं है। इसलिए अभी उन्हें तुरन्त श्रावस्ती से बाहर गोपनीय रीति से भेजना होगा। पीछे और बातों पर विचार होगा । ”

“ तो जात , तू व्यवस्था कर । तब तक हम राजनन्दिनी को आश्वासन देंगी । ”

“ मैंने अपना लघु पोत तैयार करने का आदेश दे दिया है तथा पचास विश्वस्त भट उस पर नियत कर दिए हैं । पोत उन्हें अति गोपनीय भाव से साकेत ले जाएगा । वहां राजनन्दिनी सुखपूर्वक गुप्त भाव से रह सकेंगी। मैं अपने गुरुपद ब्रह्मण्य – बन्धु को सब व्यवस्था करने को लिख दूंगा । ”

“ तो ऐसा ही हो जात , व्यवस्था करो। ”

“ परन्तु अय्ये , आपको दो काम एक मुहूर्त में करने हैं । महालय के वाम तोरण पर शिविका उपस्थित है, वहां अत्यन्त गुप्तभाव से राजनन्दिनी पहुंच जाएं । ”

“ यह हो जाएगा ; और ?

“ राजनन्दिनी के लिए दस विश्वस्त दासियां आप तुरन्त तट पर भेज दें । पोत दो मुहूर्त में चल देगा। ”

गान्धारी कलिंगसेना ने कहा – “ यह भार मुझ पर रहा जात ! यह सब व्यवस्था हम कर लेंगे, तुम अपनी व्यवस्था करो। चलो हला , हम चलकर राजनन्दिनी का अभिनन्दन करें । ”

राजकुमारी कुण्डनी से धीरे- धीरे बात कर रही थीं कि देवी कलिंगसेना और नन्दिनी ने पहंचकर राजनन्दिनी का अभिनन्दन किया । कुमारी दोनों को देखकर ससंभ्रम उठ खड़ी हुई । कलिंग ने उन्हें अंक में भरकर कहा – “ शुभे राजकुमारी, मैं ही हतभाग्या कलिंगसेना हूं, जिसके कारण तुम्हें यह भाग्य -विडम्बना भी सहनी पड़ी है। ये युवराज विदूडभ की माता महारानी नन्दिनी देवी हैं । हम दोनों कोसलवंश की ओर से तुमसे क्षमा प्रार्थना करती हैं और आश्वासन देती हैं कि अब तुम्हारा कष्ट दूर हुआ । श्रमण महावीर के आदेश से कुमार विदूडभ ने तुम्हारा संरक्षण ग्रहण किया है और अभी एक मुहूर्त में तुम्हारा यहां से उद्धार हो जाएगा बहिन ! मैं अपनी दस विश्वस्त दासियां तुम्हें अर्पण करती हूं । भगवान् महावीर जैसा कहेंगे, वैसा ही किया जाएगा। फिर, हम लोग भी तुम्हारी प्रिय हैं हला ! अब शोक त्यागो और हमारे साथ चलो । परन्तु , यहां से तुम्हारा अभिगमन अत्यन्त गुप्त होना चाहिए, इसलिए सौम्ये, वाम तोरण तक तुम्हें अवगुण्ठन में पांव प्यादे चलना होगा । ”

राजकुमारी रोती हुई कलिंगसेना से लिपट गई। रोते – रोते उसने कहा – “ भद्रे, मैं कैसे आपका और देवी नन्दिनी का उपकार व्यक्त करूं ! ओह, यह आशातीत है।

“ नहीं -नहीं सौम्ये , अब चलो। ”

अब कुण्डनी की ओर राजनन्दिनी ने आंख उठाकर देखा । उस रूप की ज्वाला की ओर अभी दोनों रानियों ने ध्यान ही नहीं दिया था । अब उसे देखकर कहा – “ तुम कौन हो भद्रे! ”

“ मैं कुमारी की एक सेविका हूं। ”

कुमारी ने कहा- “ यह मेरी प्राण- रक्षिका है। एक और व्यक्ति भी है। ”कहते- कहते कुमारी का मुंह लाल हो गया ।

कुण्डनी ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम करके कहा

“ मेरा अपराध क्षमा हो भद्रे, मैंने छद्मवेश में अन्तःपुर में प्रवेश कर कुमारी को सहायता दी है। मैंने ही श्रमण महावीर को सूचना भेजी है जिससे राजकुमारी आपकी कृपा प्राप्त कर सकीं । ”

“ तो शुभे, आपत्ति नहीं । पर अब कहां जाओगी ? राजनन्दिनी के साथ तो रहना नहीं हो सकेगा । ”

“ नहीं अय्ये, मैं राजकुमारी के साथ नहीं जाऊंगी । मेरा कार्य समाप्त हो गया । राजनन्दिनी की रक्षा हो गई। तो कुमारी, अब विदा ! ”

कुमारी आंखों में आंसू भरे देखती ही रही और कुण्डनी तीनों को प्रणाम कर वहां से चल दी ।

कुछ देर के बाद राजकुमारी को अत्यन्त प्रच्छन्न रूप में शिविका में पहुंचा दिया गया और वे यथासमय साकेत सुरक्षित पहुंच गईं ।

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