वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 9

वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 9


113. सन्निपात -भेरी : वैशाली की नगरवधू

फसल कट चुकी थी और वर्षा आरम्भ होना चाहती थी । वैशाली में युद्ध की चर्चा फैलती जाती थी । मगध- सम्राट बिम्बसार की भीषण तैयारियों की सूचना प्रतिदिन चर ला रहे थे। परिषद् की गणसंस्था ने युद्ध- उद्वाहिका के संयुक्त सन्निपात – भेरी की विशिष्ट बैठक का आवाहन किया था । संथागार में वज्जीगण के अष्टकुल – प्रतिनिधि , नौ मल्ल -संघों के और अठारह कासी -कोलों के गण राज्यों के राजप्रमुख आमन्त्रित थे। सम्पूर्ण उद्वाहिका – सदस्य उपस्थित थे।

गणपति ने उद्वाहिका का उद्घा1टन किया । उन्होंने खड़े होकर कहा – “ भन्ते गण सुनें , आज जिस गुरुतर कार्य के लिए वज्जी – मल्लकोल के गणराज्यों का यह संयुक्त सन्निपात हुआ है उसे मैं गण को निवेदन करता हूं । गण को भलीभांति विदित है कि मगध- सम्राट बिम्बसार वज्जी के अष्टकुलों के गणतन्त्र को नष्ट करने पर कटिबद्ध हैं । वज्जीगण के साथ मल्लों के नौ संघराज्यों से कासीकोलों के अठारह गणराज्यों का भाग्य बंधा है । गण को संधिवैग्राहिक आयुष्मान् जयराज बताएंगे कि शत्रु ने किन -किन कूट चालों से हमें युद्ध के लिए विवश किया है । कोसलपति महाराज प्रसेनजित् से परास्त होकर सम्राट् बिम्बसार का उत्साह भंग हो जाएगा , हमने यही आशा की थी परन्तु ऐसा नहीं हुआ । हमें अभी ये सुविधाएं हैं कि पड़ोसी राज्यों के समाचार हमें समय पर ठीक -ठीक मिल जाते हैं । इसी से हमसे मगध की यह विकट समर – सज्जा छिपी नहीं रही है । भन्तेगण, आज वज्जीगण के अष्टकुल पर और मल्ल – कासी – कोल गणराज्यों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं और हम कह सकते हैं कि अब किसी भी क्षण वज्जीसंघ की राजधानी वैशाली पर मगधसेना का आक्रमण हो सकता है। ”

इतना कहकर गणपति बैठ गए । परराष्ट्रसचिव नागसेन ने अब खड़े होकर कहा

“ भन्तेगण सुनें , गणपति ने जो सत्य विभीषिकापूर्ण सूचना दी है, उसकी गम्भीरता एक और घटना से और बढ़ जाती है । भन्तेगण जानते हैं कि कौशाम्बी नरेश शतानीक ने पूर्वकाल में चम्पा पर आक्रमण करके उसे आक्रान्त किया था ; आप यह भी जानते हैं कि चम्पा की तटस्थता एवं मित्रता का वज्जी के साथी गणराज्यों से कैसे गम्भीर स्वार्थ हैं । साथ ही यह बात भी नहीं भुलाई जा सकती कि चम्पा का स्वतन्त्र राज्य मगध की आंखों का पुराना शूल था , क्योंकि वह उसकी पूर्वी सीमा से मिला था और जब तक वह स्वाधीन था , मगध- सम्राट् बंग , कलिंग की ओर आंख उठाकर भी देख नहीं सकता था । अंग -बंग- कलिंग वास्तव में राजनीतिक एकता में पूरे आबद्ध हैं । इधर हमारा लगभग आधा वाणिज्य चम्पा ही के मार्ग से स्वर्णद्वीप और मलयद्वीप – पुञ्ज तक पहुंच जाता है। इससे अंग की राजधानी चम्पा हमारे वाणिज्य ही के लिए केन्द्र नहीं थी , प्रत्युत मगध- सम्राट के लिए भी कण्टक रूप थी । इसी से कौशाम्बीपति उदयन से जब हमारी संधि हुई, तब हमने उन्हें विवश किया था , कि वे अंग को स्वतंत्र राज्य घोषित करें । और उन्होंने भी प्रसेनजित् और मगध सम्राट के बीच व्यवधान रखने ही में कल्याण समझकर हमारा प्रस्ताव मान लिया था और दधिवाहन को अंगपति मानकर चम्पा में उसका अभिषेक कर दिया था । अब मगध – सम्राट ने चम्पा के इस दुर्बल असहाय राजा दधिवाहन को मारकर अंग – राज्य को मगध – साम्राज्य में मिला लिया है । इससे न केवल पूर्व में बंग और कलिंग के लिए भय उत्पन्न हो गया है , प्रत्युत हमारा पूर्वी वाणिज्य ही समाप्त हो गया है । ”

नागसेन यह कहकर बैठ गए । अब सन्धि – वैग्राहिक जयराज ने खड़े होकर कहा

“ भन्तेगण , आपने गणपति और परराष्ट्रसचिव के भाषण सुने । मैं गण का ध्यान अपने अष्टकुल के संगठन और उस पर आने वाली विपत्ति की ओर आकर्षित करना चाहता हूं । मगध- साम्राज्य में अब से कुछ ही वर्ष प्रथम केवल अस्सी सहस्र ग्राम थे और उसकी परिधि तेईस कोस थी । परन्तु आज उसका विस्तार आसमुद्र सम्पूर्ण भरतखण्ड पर है। उसके साम्राज्य में दो – चार छिद्र हैं , उनमें हमारे गणराज्य ही सबसे अधिक उसकी आंख में खटक रहे हैं । प्रसेनजित् ने उसे हरा दिया था , पर वास्तव में उसका कारण बन्धुल मल्ल और उसके पुत्रों का पराक्रम था । बूढ़ा कामुक प्रसेनजित् आज आकाश से टूटे तारे की भांति लोप हो गया । इसी से बिम्बसार को इतना साहस हुआ कि हम पर अभियान कर रहा है। अब तक हमारे अष्टकुलों में मिथिला के विदेह, कुण्यपुर के क्षत्रिय , कोल्लाग के उग्र ऐक्ष्वाकु लिच्छवि आदि अपना ठीक संगठन बनाए रहे हैं । पावा और कुशीनारा के मल्लों के नौ गण संघ भी आज हमारे साथ हैं और कासी – कोलों के अष्टदश गणराज्य भी । इस प्रकार कासी कोल – राज्य, वज्जी -गणराज्य – संघ और मल्ल गणराज्य संघों का त्रिपुट हमारा सम्पूर्ण संगठन है । मगध – सम्राट् ने हमारे संयुक्त गणराज्य पर अब अभियान किया है,इसी से हमने आज मल्लों, अष्टकुल – वज्जियों तथा कासी – कोलों के अठारह गणराज्यों की इस सन्निपात भेरी का आवाहन किया है। ”

इतना कहकर सन्धिवैग्राहिक जयराज कुछ देर चुप रहे , फिर उन्होंने उपस्थित गण – सन्निपात की ओर देखकर कहा

“ भन्तेगण, आप जानते हैं कि आज भरतखण्ड में षोडश महा जनपद हैं । इन षोडश जनपदों से कासी , कोल , वज्जी, मल्ल इन चारों गणसंघों के छत्तीस राज्यों का हमारा संयुक्त सन्निपात एक ओर है । अब चेतिक के दोनों उपनिवेशों के उपचर – अपचर से हमें सन्धि करने की आवश्यकता है । चेतिक की राजधानी सुत्तिमती को जो मार्ग कासी होकर जाता है , उसमें दस्युओं का भय है और हमें वहां सुरक्षा का सम्पूर्ण प्रबन्ध करके अपना चर भेजना आवश्यक है ।

“ रही कौशाम्बीपति उदयन की बात , वे भी हमारे मित्र हैं । कुरु के कौरव प्रधान राष्ट्रपाल और पांचाल ब्रह्मदत्त हमारे गण के समर्थक हैं । ये दोनों गण भलीभांति सुगठित हैं । निस्सन्देह मथुरा के महाराज अवन्तिवर्मन और अवन्ती के चण्डमहासेन हमारे पक्ष में नहीं हैं । परन्तु चण्डमहासेन कभी भी अपने जामाता उदयन के विरोधी नहीं होंगे। फिर इन दोनों से मगध का विग्रह है। यद्यपि मगध सम्राट ने भी उदयन को अपनी कन्या देकर भारी राजनीति प्रकट की है और कुटिल वर्षकार ने यौगन्धरायण को भरमाकर मैत्री सूत्र में बांधा है, फिर भी अनेक गम्भीर कारण ऐसे हैं कि वत्स के महामात्य यौगन्धरायण के कुशल कौटिल्य से ये दोनों महाराज इस युद्ध में सर्वथा उदासीन ही रहेंगे । परन्तु हमें इसी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। महाराज उदयन से हमारी मित्रता के सूत्र और भी दृढ़ रहने चाहिए और इसके लिए हमें भन्तेगण, देवी अम्बपाली का अनुरोध प्राप्त करना होगा । देवी अम्बपाली ही का ऐसा प्रभाव महाराज उदयन पर है कि वे आंखें बन्द करके यौगन्धरायण के परामर्श की अवहेलना कर सकते हैं ।

“ भन्तेगण, अब मैं आपका ध्यान सुदूर राज्यों की ओर आकर्षित करना चाहता हूं , दक्षिण के अस्सकराज अरुण और गान्धार के महागणपति पुक्कणति । आप जानते हैं कि गान्धारपति पुक्कणति ने मगध- सम्राट् बिम्बसार को पठौनी भेजी थी । वे चाहते थे , कि पशुपुरी के शासानुशास को बिम्बसार सहायता दे। उनकी कठिनाइयां भी बड़ी पेचीली एवं दु: खप्रद हैं । उनका छोटा – सा गण पार्शवों का अब देर तक सामना नहीं कर सकता । पार्शव शासानुशास दारयोश ने पश्चिम गान्धार को अभी- अभी अपने साम्राज्य में मिला लिया है । वह अब सम्पूर्ण तक्षशिला और गान्धार के जनपद को आक्रान्त किया चाहता है। वास्तव में पशुपति दारयोश पश्चिम का बिम्बसार है । इसी से सहायता की इच्छा से गांधार के गणपति ने मगध – सम्राट् बिम्बसार को पठौनी भेजी थी । परन्तु मगध – सम्राट् के लिए अपनी ही उलझनें थोड़ी नहीं थीं । गान्धार का मगध पर कुछ ऋण भी है। मगध के अनेक मागध तरुण तक्षशिला के सर्वोत्कृष्ट स्नातक हैं । उन्होंने गान्धार राज को बहुत – कुछ आश्वासन वहां से आती बार दिया था , परन्तु मित्र सिंह ने भी उन्हीं के साथ तक्षशिला छोड़ा था और उन्होंने गान्धारपति को समझा दिया था , कि मगध- सम्राट् बिम्बसार पूर्व का दारयोश है । ऐसे साम्राज्य लोलुपों से आशा मत कीजिए। वज्जियों का अष्टकुल पूर्वी गांधारतन्त्र है और वह आपका मित्र है । इसलिए वैशाली गांधार के अपने ऋण को उतारेगा । ”

कुछ देर चुप रहकर जयराज फिर बोले – “ इसलिए मित्रो , हमने मित्र सिंह के परामर्श से गांधारपति को जो सम्भव हुआ , सहायता भेजी और आपको अभी मित्र काप्यक बताएंगे , कि जिस काल मगध – सम्राट् चम्पा और श्रावस्ती में व्यस्त थे – वैशाली के तरुणों ने सुदूर सिन्धुनद के तीर पर अपने खड्ग की धार से वज्जियों के अष्टकुल का कैसा मनोरम इतिहास लिखा था ।

“ परन्तु मैं अभी कुछ और भी बातें कहूंगा; भन्तेगण सुनें ! – अस्सक का राजा अरुण कलिंग गणपति सत्तभू पर आक्रमण करना चाहता है । कलिंग- गणपति ने वज्जियों के अष्टकुलों की सहायता मांगी है और पूर्व समुद्र में अपनी स्थिति ठीक रखने के विचार से हमने उसे स्वीकार कर लिया है तथा कलिंग राज्य से हमारी सन्तोषप्रद सन्धि हो गई है । रहा अस्सक , सो कभी वैशाली के तरुणों के खड्ग से उसका भी निर्णय हो जाएगा । अब काम्बोजों के बर्बरों का ही वर्णन रह गया है । वे थोड़े से स्वर्ण और उत्तम शस्त्र पाकर ही अपना रक्तदान हमें दे सकते हैं । इस प्रकार भन्तेगण, हमने सोलह महाजनपदों में अपनी स्थिति यथासम्भव ठीक कर ली है। ”

जयराज महासन्धिवैग्राहिक यह कहकर बैठ गए। अब गांधार काप्यक ने खड़े होकर कहा – “ भन्तेगण सुनें , अष्टमहाकुल के वज्जियों ने जो कुछ सिन्धुनद पर अपनी कीर्ति विस्तार की है, उसी का बखान करने मैं यहां आया हूं , गान्धारगणपति की ओर से साधुवाद और कृतज्ञता का सन्देश लेकर ।

“ वज्जीगणों के नागरिकों की सेना में सम्मिलित होने का मुझे सम्मान मिला था । आचार्य बहुलाश्व ने स्वयं उसका निरीक्षण किया था । अश्व – संचालन और शार्ग धनुष , खड्ग , शल्य , गदा और शक्ति के युद्ध में वैशाली – संघ के तरुण गान्धार तरुणों से किसी प्रकार कम न थे। भन्तेगण, ऐसे मित्रों को पाकर हमें गर्व हुआ । आचार्य बहुलाश्व ने उन्हें पुष्कलावती से आनेवाले राजमार्ग से सम्पूर्ण सिन्धुतट की रक्षा का भार सौंपा था । शास ने शिरभी, सौवीर, पख्त , भलानस और वक्षु नदी के उत्तर तथा पर्शपुरी के पूर्व के सम्पूर्ण जनपद को ध्वंस करने की बड़ी भारी तैयारी की थी । परन्तु उसकी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि वह सिन्धु को जहां से चाहे पार नहीं कर सकता था । उसे वैशाली के तरुणों से रक्षित – गोपित घाटों ही से नदी पार करना अनिवार्य था । भन्ते, मैं अत्युक्ति नहीं करता, इन वीर तरुण वज्जियों के कौशल और शौर्य ही के कारण वह अपने सम्पूर्ण जनबल से लाभ नहीं उठा सका और हमने उसके खण्ड – खण्ड करके सदैव के लिए उसको दलित कर दिया । वह बहुत कम बल लेकर पीछे लौट सका। वज्जी वीरों ने गांधार तरुणों के साथ सिन्धु पार कर पुष्कलावती , सुवास्तु और कुभा तक उसका पीछा किया और शत्रुवाहिनी – पति को जीवित पकड़ लिया । तब हमारे प्रधान सेनानायक प्रियमेघ ने अश्रु-गद्गद होकर कहा था तक्षशिला सदा के लिए वैशाली का ऋणी रहेगा …. और आज अपने सेनापति के वे ही शब्द मैं भी संथागार में दुहराता हूं। ”

प्रचण्ड करतल – ध्वनि और साधु- साधु की ध्वनि के बीच काप्यक चुपचाप खड़े रहे । फिर ठहरकर बोले – “ गान्धार में वज्जियों के अष्टकुलों की कीर्ति -ध्वजा फहरानेवाले, शासनुशास के वाहिनीपति को जीवित बन्दी बनानेवाले मेरे सुहृद् प्रियदर्शी सिंह यहां आपके सम्मुख उपस्थित हैं , जिनके नेतृत्व में वैशाली तन्त्र के तरुणों ने वह कीर्ति कमाई थी । वहां हमारे संघ ने वयस्य सिंह को गान्धार जनपद का नागरिक और गांधार गण- संघ का आजन्म सदस्य चुना था । परन्तु भन्तेगण , मुझे और भी कुछ कहना है। जब हर्षध्वनि के बीच आचार्य बहुलाश्व ने गांधारगण के समक्ष यह घोषणा की कि उनकी सुकुमारी कुमारी रोहिणी का वीरवर सिंह के प्रति सात्त्विक प्रेम है और वे उसका अनुमोदन करते हैं , तब सम्पूर्ण गणजन में आनन्द और उल्लास का समुद्र हिलारें लेने लगा और गणजन ने इच्छा प्रकट की कि रोहिणी और सिंह का पाणिग्रहण गण के समक्ष वहीं हो ।

“ गणपति की इस आज्ञा का पालन करने जब सुश्री रोहिणी वक्षकोष्ठक में बैठी सखियों के बीच से उठ लज्जा और हर्ष से आरक्त – अवनतमुखी अपनी माता के पीछे-पीछे शाला के भीतर आई, तो सदस्यों की उत्सुक दृष्टियों के भार से जैसे वह दब गई। उसके सुनहरे तार के समान बालों में अंगूर के ताजे गुच्छों का और जवाकुसुमों का शृंगार था , उसने कण्ठ में मुक्तामाल और कान में हीरक – कुण्डल पहने थे। वह सुन्दर कौशेय और काशिक के उत्तरीय अन्तर्वासक और कंचुक से सुसज्जिता थी । उस समय वह गान्धार जनपद की कुलदेवी – सी प्रतीत होती थी । गान्धारराज ने अपने हाथों उसे सिंह को समर्पित किया ; और समस्त जनपद ने दूसरे दिन गण -नक्षत्र मनाया , जो हम जातीय त्योहार के दिन ही मनाते हैं । भन्ते, इस प्रकार गान्धार जनपद ने अष्टकुल के वज्जियों की वीरता का जो अधिक- से – अधिक सम्मान किया जा सकता था -किया । परन्तु फिर भी गान्धार गणपति ने घोषित किया था कि यह यथेष्ट नहीं है। और फिर गांधार गणसंघ ने एक नागरिक शिष्टमंडल इस अकिंचन की अध्यक्षता में इसलिए भेजा है कि हम लोग वैशाली गणतन्त्र के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करें । भन्ते , अन्त में मैं यह और कहना चाहता हूं कि दो ही चार दिन में युद्ध में भाग लेने गान्धार से चिकित्सकों और तरुणों का एक सुदृढ़ दल वैशाली में आ रहा बड़ी देर तक हर्षध्वनि होती रही। काच्यक गान्धार चुपचाप आसन पर बैठ गए । अब गणपति उठे और सर्वत्र सन्नाटा छा गया । उन्होंने कहा

“ भन्तेगण सुनें , आयुष्मान् नाग व जयराज और काप्यक के वक्तव्य आपने सुने । आयुष्मान् सिंह के शौर्य की जितनी प्रशंसा की जाय , थोड़ी है । परिस्थिति पर आपने विचार किया है । अब मैं आपके सामने प्रस्ताव रखता हूं । प्रथम , प्रान्त और कोष की रक्षा । दूसरे , अश्वारोही, पदातिक और नौसेना का संगठन । तीसरे, राजस्व – कोष और युद्धोत्पादन उत्पादन । चौथा , कूटनीति , प्रचार और गुप्तचर । ।

“ भन्तेगण , प्रथम बार मैं प्रस्ताव करता हूं कि प्रान्त और कोष की रक्षा के लिए आयुष्मान् सूर्यमल्ल का निर्वाचन हो । आयुष्मान् सूर्यमल्ल महाअट्टवी – रक्खक के पद पर सुचारु कार्य करते रहे हैं । वे समस्त सीमाप्रान्तों , नगर – दुर्गों एवं घाटों तथा राजमार्गों से परिचित हैं । अब जो आयुष्मान् को इस पद पर चुनते हैं वे चुप रहें । ”

परिषद् में सन्नाटा था । गणपति ने थोड़ा ठहरकर कहा – “ दूसरी बार भी भन्तेगण सुनें -जिसे यह पद आयुष्मान् के लिए स्वीकृत हो , वे चुप रहें । ”

थोड़ी देर फिर सन्नाटा रहा । गणपति फिर बोले – “ तीसरी बार भी भन्तेगण सुनें जिसे प्रान्त और कोष्ठ की रक्षा के लिए आयुष्मान् सूर्यमल्ल का निर्वाचन स्वीकृत हो , वे चुप रहें , न बोलें । ”

क्षण – भर ठहरकर गणपति ने घोषित किया कि सूर्यमल्ल उस पद पर चुन लिए गए।

अब गणपति ने कहा – “ अब भन्तेगण , प्रथम बार सुनें , मैं आयुष्मान् सिंह को छत्तीस गणराज्यों की संयुक्त समस्त चतुरंगिणी , पदाति , अश्वारोही और नौसेना के लिए सेनापति का प्रस्ताव रखता हूं । जो सहमत हों , वे चुप रहें ।

सभा में सन्नाटा था । क्षण- भर ठहरकर गणपति ने फिर कहा – “ भन्तेगण , दूसरी बार फिर सुनें , मैं आयुष्मान् सिंह को सेनापति पद के लिए चुनने का प्रस्ताव रखता हूं । जो सहमत हों , चुप रहें । ”

इस पर भी सन्नाटा रहा । गणपति ने कहा – “ तीसरी बार भन्तेगण सुनें , समस्त सेनापति के पद पर आयुष्मान् सिंह के लिए मैं प्रस्ताव करता हूं । ”

इसी समय सिंह धीरे से परिषद्- भवन के बीचोंबीच आ खड़े हुए । गणपति ने कहा – “ आयुष्मान् कुछ कहना चाहते हैं , कहें । ”

सिंह ने कहा – “ भन्तेगण सुनें , गणपति और जनसंघ जो सम्मान मुझे देना चाहते हैं , उसके लिए मैं आभार मानता हूं । परन्तु मेरी अभिलाषा है कि इस पद के उपयुक्त पात्र वज्जीगण के महाबलाध्यक्ष सुमन हैं । अत : मैं प्रस्ताव करता हूं कि इस सेनापति पद पर वही रहें और हम लोग उनकी अधीनता में युद्ध करें । ”

एक- दो सदस्यों ने कहा – “ साधु-साधु! ”

तब गणपति ने कहा – “ परिषद् में सेनापति पद के लिए थोड़ा मतभेद है। इसलिए छन्द लेने की आवश्यकता है । भन्तेगण, आप सावधान हों । शलाकाग्राहक छन्द शलाकाएं लेकर आपके पास आ रहे हैं । उनके एक हाथ की डालियों में लाल शलाकाएं हैं , दूसरी में काली। लाल शलाका हां के लिए है और काली नहीं के लिए । अब जो आयुष्मान् मेरे मूल प्रस्ताव का अनुमोदन करते हैं , अर्थात् सिंह को प्रधान सेनापति – पद देना चाहते हैं , वे लाल शलाका लें । और जो आयुष्मान् सिंह द्वारा संशोधित प्रस्ताव के अनुसार सेनापति सुमन को चाहते हैं , वे काली शलाका लें । ”

सिंह ने फिर खड़े होकर कुछ कहने की इच्छा प्रकट की । गणपति ने कहा – “ आयुष्मान् फिर कुछ कहना चाहता है , कहे । ”

सिंह ने कहा – “ भन्तेगण सुनें । मेरा प्रस्ताव गणपति के मूल प्रस्ताव का विरोधी नहीं है। सेनापति सुमन हमारे श्रद्धास्पद, वृद्ध अनुभवी सेनानायक हैं । उनका अनुभव बहुत भारी है। उन्होंने बड़े- बड़े युद्ध जीते हैं । वैशाली के लिए उनकी सेवाएं असाधारण हैं । इसलिए हम सब तरुणों को उनके वरदहस्त के नीचे युद्ध करना सब भांति शोभा – योग्य है , उचित भी है । कम – से – कम मेरे लिए उनकी अधीनता में युद्ध करना सेनापति होने की अपेक्षा अधिक सौभाग्यमय है । इससे मैं अनुरोध करता हूं कि आप भन्तेगण काली शलाका ही ग्रहण करें । ”

परिषद् में फिर ‘ साधु -साधु की ध्वनि गूंज उठी। शलाका – ग्राहक छन्दशलाका लेकर एक – एक सदस्य के पास गए । सबने एक – एक शलाका ली । लौटने पर गणपति ने गिना । काली कम लौटी थीं । गणपति ने घोषित किया – “ काली शलाकाएं कम लौटी हैं । तो भन्ते गण , आयुष्मान सिंह के प्रस्ताव से सहमत हैं । तब सेनानायक सुमन सम्पूर्ण संयुक्त सेना के सेनापति निर्वाचित हुए ।

“ अब भन्तेगण सुनें , प्रथम बार मैं राजस्व, कोष और युद्धोत्पादन के लिए आयुष्मान् भद्रिय का प्रस्ताव करता हूं । ”

फिर तीन बार गणपति ने परिषद् की स्वीकृति लेने पर कूटनीति और गुप्त विभाग का अधिपति संधिवैग्राहिक जयराज को बनाया ।

इसके बाद सिंह उपसेनापति, गान्धार काप्यक नौसेनापति , आगार- कोष्ठक स्वर्णसेन नियत हुए। यह सब कार्य – सम्पादन होने पर गणपति ने कहा – “ भन्तेगण सुनें , हमने युद्ध उद्वाहिका का संगठन कर लिया । अब हमें धन और अन्न की आवश्यकता है । राजकोष में युद्ध- संचालन के योग्य यथेष्ट धन नहीं है । यदि राजकोष का स्थायी कोष सन्तोषजनक न हुआ तो इसका परिणाम अच्छा न होगा । ”

सूर्यमल्ल ने खड़े होकर कहा – “ तब धन आएगा कहां से ? धन के बिना शस्त्र , नौका , अश्व और दूसरे उपादान कैसे जुटेंगे ? ”

“ नहीं जुटेंगे, इसी से भन्तेगण, हमें सेट्टियों से धन ऋण लेना होगा । ”भद्रिय ने कहा।

“ सेट्ठिजन ऋण क्यों देंगे ? ”स्वर्णसेन ने कहा ।

“ क्यों नहीं देंगे , क्या गण के साथ उनकी सुख- समृद्धि संयुक्त नहीं है ? क्या वे गण की व्यवस्था ही से अपने वाणिज्य – व्यापार नहीं कर रहे हैं ? क्या श्रेणिक बिम्बसार का

उदाहरण हमारे सम्मुख नहीं है ? ”

महासेनापति सुमन ने कहा – “ भन्तेगण सुनें , जो संकट आज हमारे सम्मुख है, ऐसा वैशाली पर कभी नहीं आया था । शत्रु को यही छिद्र मिल गया है, कि हमारी सेना और कोष अव्यवस्थित और अपर्याप्त हैं , तभी वह साहस कर रहा है; और यह झूठ भी नहीं है । हमें नियमित राजस्व नहीं मिल रहा है। दुर्ग -प्राकारों और नगर -प्राकारों का भी संस्कार कराना आवश्यक है। परिखा में जल नहीं है और उसमें मिट्टी भर गई है, वे खेत हो रही हैं । ”

भद्रिय ने खड़े होकर कहा – “ भन्तेगण सुनें , सेट्टि और सार्थवाह परिषद् को दस कोटि सुवर्ण धन ऋण दे और यह ऋण उन्हें बारह वर्ष में चुकाया जाएगा । मैं आशा करता हूं कि वे गण को प्रसन्नता से धन देंगे । ”

सिंह ने खड़े होकर कहा – “ भन्तेगण सुनें , धन की व्यवस्था हो जाए तो और विषयों का युद्ध- उद्वाहिका अपने मोहनगृह के गुप्त अधिवेशनों में निर्णय करे , जिससे शत्रु को छिद्रान्वेषण का अवसर न मिले । ”

इस पर कोलियगण राजप्रमुख विश्वभूति ने कहा – “ कासी – कोलों के अठारह गणराज्य इस युद्ध में अर्ध अक्षौहिणी सेना और तीन कोटि सुवर्ण- भार देंगे। अपने सैन्य की रसद -व्यवस्था वे स्वयं करेंगे ।

सन्निपात ने प्रसन्नता प्रकट की । मल्लों के प्रमुख रोहक ने कहा – “ तो एक सहस्र हाथी , इतने ही रथ , बीस सहस्र अश्वभट और पचास सहस्र पदाति मल्लों के नौ गणराज्य देंगे तथा अपना सब व्यय- भार उठाएंगे । मल्ल युद्ध- उद्वाहिका को अपने सम्पूर्ण तटों , दुर्गों और युद्धोपयोगी स्थलों को उपयोग करने का भी अधिकार देते हैं । ”

महाबलाधिकृत ने अब युद्ध- उद्वाहिका का इस प्रकार संगठन किया

“ महाबलाधिकृत सुमन सेनापति , सिंह उपसेनापति , नौबलाध्यक्ष गान्धार काप्यक , राजस्व- कोष और युद्धोत्पादन भद्रिय , रसदाध्यक्ष स्वर्णसेन , प्रान्तकोष्ठ रक्षक सूर्यमल्ल । कासीकोल -प्रतिनिधि विश्वभूति और मल्ल – प्रतिनिधि रोहक । ”

इसके बाद सन्निपात- भेरी का कार्य समाप्त हुआ ।

114. मोहनगृह की मन्त्रणा : वैशाली की नगरवधू

संथागार के पिछले भाग से संलग्न निशान्त हर्म्य थे, जिसमें चारों ओर अनेक अट्टालिकाएं ऐसी चतुराई से बनाई गई थीं , जिनकी भीत और निकास के मार्गों का सरलता से पता ही नहीं लगता था । एक बार एक अपरिचितजन उन टेढ़े-तिरछे मार्गों में फंसकर फिर निकल ही नहीं सकता था । इसी निशान्त के बीचों-बीच भूगर्भ में यह मोहनगृह था । इसके द्वार के समीप ही चैत्य देवता का थान था । इस चैत्य में आने -जानेवालों का तांता लगा ही रहता था । इससे इस ओर आने -जाने वालों की ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती थी । चैत्य के देवता की विशाल मूर्ति पोली धातु-निर्मित थी । इसी मूर्ति के पृष्ठ भाग में सिंहासन के नीचे मोहनगृह का गुप्त द्वार था जो यन्त्र के द्वारा खुलता था तथा जिसे यत्नपूर्वक गुप्त रखा जाता था । इस गुप्त द्वार के अतिरिक्त द्वारा था तथा था । इस द्वार मोहनगृह में आने जाने के लिए अनेक सुरंगें भी थीं जिनका सम्बन्ध उच्च राजप्रतिनिधिजनों के आवास से था । उनके आवास में से इन सुरंगों का मार्ग या तो किसी खम्भे के भीतर था , या भीत के भीतर होकर । ये द्वार इतने गुप्त थे कि निरन्तर सेवा करने वाले दास -दासी और भृत्य भी उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते थे। वज्जी संघ का यह कठोर विधान था कि मंगल- पुष्करिणी में स्नात लिच्छवि राजपुरुष को छोड़ अन्य जो कोई भी किसी भांति इन द्वारों से परिचित हों , इन द्वारों के भीतर चरण रखे, तो तुरन्त उसी समय उसका वध कर दिया जाए , फिर वह अपराधी चाहे राजपुत्र ही क्यों न हो । इन सब कारणों से इस मोहनगृह के सम्बन्ध में विविध किंवदन्तियां कहते थे। वह किस उपयोग में आता है, यह भी लोग नहीं जानते थे । वहां जाने की चेष्टा करनेवालों, जिज्ञासा करनेवालों को जिन्होंने मृत्यु -दण्ड पाते देखा था , वे वहां की विविध काल्पनिक विभीषिकाएं सुना – सुनाकर लोगों को भयभीत करते रहते थे ।

इसी मोहनगृह में आज वज्जीसंघ के विशिष्ट जनों की मंत्रणा बैठी थी । मन्त्रणागृह में सात दीपाधारों पर घृत के दीप जल रहे थे और सब मिलाकर कुल नौ पुरुष वहां गम्भीर भाव से मंत्रणा में व्यस्त थे। इन नौ पुरुषों में एक गणपति सुनन्द, दूसरे महाबलाध्यक्ष सुमन ,तीसरे सेनापति सिंह, चौथे विदेश सचिव नागसेन ,पांचवें संधिवैग्राहिक जयराज, छठे नौबलाध्यक्ष काप्यक , सातवें अर्थ सचिव भद्रिय , आठवें आगारकोष्ठक स्वर्णसेन और नौवें महाअट्टवीरक्खक सूर्य मल्ल थे। विदेशसचिव नागसेन ने मन्त्रणा का आरम्भ किया । उन्होंने कहा – “ भन्तेगण सुनें , यह मोहन – मन्त्रणा अत्यन्त अनिवार्य होने पर मैंने आमन्त्रित की थी । मेरे पास इस बात के पुष्ट प्रमाण संगृहीत हैं कि अतिनिकट भविष्य में मगध सम्राट् वैशाली पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं और उनके अमात्य ब्राह्मण वर्षकार मन्त्रयुद्ध का संचालन करने वैशाली में आए हैं । सम्राट् द्वारा उनका कलह और बहिष्कार केवल कपट योजना है, उन्होंने मन्त्रयुद्ध का वैशाली में प्रारम्भ कर दिया है और वे उसमें सर्वतोभावेन सफल होते जा रहे हैं । उनके सैकड़ों गुप्तचर विविध रूप धारण कर वैशाली में आ बसे हैं ।

अनेक नट, विट, वेश्याएं , कुटनियां , विदूषक तथा सती और तीक्ष्ण सभ्य नागरिकों के वेश में शिल्पी दूत , वणिक , सार्थवाह , सेट्ठि बनकर वैशाली में फैल गए हैं । विविध प्रकार के धूर्त चर चारों ओर भर गए हैं और यह ब्राह्मण कुण्डग्राम के ब्राह्मण – सन्निवेश में एक टूटे छप्पर के नीचे बैठ उनके द्वारा मन्त्रयुद्ध का संचालन कर रहा है। ”

गणपति सुनन्द ने कहा – “ आयुष्मान् के पास इन सब बातों के सम्बन्ध में क्या – क्या प्रमाण है ? ”

“ क्या , भन्तेगणपति , आपने कुण्डग्राम के ब्राह्मण- सन्निवेश में अभी जो घटना हुई, उसे नहीं सुना है ? ”

“ क्या आयुष्मान् उस चाण्डाल मुनि और यक्ष कन्या की बात कह रहा है ? ”

“ वही बात है भन्ते ! मैं कहता हूं , यह इस कुटिल ब्राह्मण का कोरा मन्त्र – युद्ध है । इसमें वैशाली जनपद के सौ से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हो गई और अब सम्पूर्ण वैशाली भयभीत हो उस काणे कपटमुनि के चरणों में गिर-गिरकर अपनी सुख- दु: ख भावना , आकांक्षा तथा गोपनीय बातें भी बता रही है । क्या आप यह नहीं सोच सकते, कि ये सब छिद्र और जन – जन की जीवनगाथा उस कुटिल ब्राह्मण के कान में पहुंचकर वैशाली के विनाश का साधन बन रही है ? ”

“ परन्तु आयुष्मान् इसका क्या प्रमाण है, कि वह भदन्त कोई भाकुटिक वंचक है, त्यागी समर्थ ब्रह्मचारी नहीं ? ”

“ भन्ते , वह जो कुछ है उसे हमने जान लिया है । ”

“ तो कौन है वह ? ”

“ यह जयराज कहेंगे, इन्होंने वैशाली से अनुसंधान- सूत्र ग्रहण किया है। ”

“ तो आयुष्मान् जयराज कहें ! ”

“ भन्ते , वह काणा राजगृह का प्रसिद्ध नापित धूर्त प्रभंजन है । वैशाली के बहत जनों ने राजगृह में उससे बाल मुंडवाए हैं । ”- जयराज ने कहा ।

“ क्या कहा ? राजगृह का नापित! ”

“ हां भन्ते , उसका नाम प्रभंजन है और वह महाधूर्त है । ”

“ और वह यक्षिणी ? ”

“ वह राजगृह की प्रसिद्ध वेश्या मागधिका है। ”

“ किन्तु ब्राह्मण- उपनिवेश के ब्राह्मणों के उन्मत्त होकर मरने का कारण क्या है ? ”

“ पूर्व-नियोजित योजना; नन्दन साहु ने विष – मिश्रित खाद्य उन्हें दिया है। वह दुष्ट इसी कुटिल ब्राह्मण का चर है और उसकी सम्पूर्ण योजनाओं का माध्यम वाहक है। ”

“ यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! ”

“ यही नहीं भन्ते , आपने क्या विदिशा की वेश्या भद्रनन्दिनी का नाम नहीं सुना , जिसके हाथ में आज वैशाली के प्राण हैं ? ”

“ वह कौन है ? ”

“ मागध विषकन्या कुण्डनी। उसमें ऐसी सामर्थ्य है भन्ते, कि जिस पुरुष का वह चुम्बन करेगी , उसकी तुरन्त मृत्यु हो जाएगी । चम्पा की विजय का श्रेय इसी विषकन्या को है, इसी ने चम्पा के महाराज दधिवाहन के प्राण लिए हैं हन्ते! ”

“ ओह, ऐसी भयंकर सूचना ! क्या तुमने उसके सम्बन्ध में यथातथ्य जाना है । भद्र ? ”

“ भन्ते, मैं उससे मिल लिया हूं। अब तक जो लिच्छवि उसके द्वारा मरे नहीं, यह उसकी कृपा है; नहीं तो कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जिस दिन वह सौ सुवर्ण देनेवाले किसी लिच्छवि तरुण का अपने आवास में स्वागत न करती हो । यह भी सम्भव है कि वह किसी महती योजना की प्रतीक्षा में है। ”

“ यह तो अति भयंकर बात है आयुष्मान् !

नागसेन ने कहा- “ अभी अर्थसचिव भद्रिय और महाअट्टवी – रक्खक सूर्यमल्ल भी कुछ सूचनाएं देंगे । ”

“ आयुष्मान् भद्रिय कहें ! ”

“ भन्ते, आपको ज्ञात है कि चम्पा का कोई धनकुबेर कृतपुण्य सेट्ठि गृहपति अन्तरायण में कहीं से आकर बस गया है । ”

“ उसके ऐश्वर्य और सम्पदा तथा वाड़व अश्वों के सम्बन्ध में मैंने सुना है; उसकी क्या बात है ? ”

“ वह भी इसी कुटिल ब्राह्मण का चर है, वह देश – देशान्तरों से वैशाली निगम के नाम हंडियां मोल लेकर संचित कर रहा है । उसका विचार किसी भी दिन ब्राह्मण का संकेत पाते ही वैशाली के सब सेट्ठियों के टाट उलटवाने का है। ”

“ यहां तक भद्र ? ”

“ अब भन्ते , सूर्यमल्ल की सूचना भी सुनें ! ”

“ आयुष्मान् बोलें ! ”

“ भन्ते , मुझे यह सूचना देनी है कि जिस दस्यु बलभद्र के आतंक से आजकल वैशाली आतंकित है, वह भी एक मागध सेनानी है और उसके अधीन दस सहस्र साहसी भट मधुवन में छिपे हैं एवं पचास सहस्र सैन्य वज्जीगण के विविध वन्य प्रान्तों में गुप्त रूप से व्यवस्थित हैं । उसके सेनानायक, सामन्त और नायकगण वैशाली के उत्तर – क्षत्रिय – कुण्डपुर सन्निवेश , वाणिज्य- ग्राम , चापाल – चैत्य , सप्ताह- चैत्य , बहुपुत्र – चैत्य , कपिना – चैत्य आदि स्थानों में छद्मवेश और छद्म नामों से बस रहे हैं । ”

“ तो इसका अभिप्राय यह है कि अब वैशाली में कौन शत्रु है और कौन मित्र , इसका जानना ही कठिन है! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा ।

“ भन्ते ! ”नागसेन ने कहा – “ अब वैशाली विजय करने को सम्राट् के यहां आने की और सैन्य – अभियान की आवश्यकता ही नहीं है। जो कुछ हो गया है, वैशाली को जय करने के लिए वही यथेष्ट है। ”

अब सेनापति सिंह ने खड़े होकर कहा –

“ भन्ते गणपति , यह आपने शत्रुओं की विकट योजना का एक अंश सुना , अब अपने बल को भी देखिए । वैशाली का सम्पूर्ण राष्ट्र आज मदिरा और विलास में डूबा हुआ है । उसके प्राण अम्बपाली के आवास में पड़े रहते हैं । ये सेटिजन , जो असंख्य सम्पदा के साथ सम्पूर्ण व्यापार- विनिमय के भी एकमात्र स्वामी हैं , आवश्यकता पड़ने पर हमें युद्ध में कोई सहायता नहीं देंगे। हमारे कोष की दशा शोचनीय है, अर्थसचिव इस पर प्रकाश डाल सकते हैं । सैन्य -संगठन का ढांचा ढीला है, तरुण कामुक और विलासी हैं । ”उन्होंने तीखी दृष्टि स्वर्णसेन पर डाली, जो चुपचाप विमन भाव से सब बातें सुन रहे थे।

गणपति ने कहा – “ भद्र, भद्रिय क्या कुछ कहेंगे ? ”

भद्रिय ने कहा – “ केवल यही , कि यदि हमें तत्काल ही युद्ध करना पड़ा तो राजकोष की कोई सहायता नहीं मिल सकती । बलि – संग्रह नहीं हो रहा ; और जब से दस्यु बलभद्र का आतंक बढ़ा है , इसमें और भी वृद्धि हो गई है। सम्भव है, आगारकोष्ठक मित्र स्वर्णसेन , सेना को अन्न और सामग्री दे सकें । ”उन्होंने भी मुस्कराकर स्वर्णसेन की ओर देखा ।

स्वर्णसेन ने खड़े होकर कहा – “ दस्यु बलभद्र का दमन यदि तत्काल नहीं हुआ तो फिर आगार की सारी व्यवस्था नष्ट हो जाएगी । ”

अब नौबलाध्यक्ष काप्यक ने खड़े होकर कहा –

“ भन्ते गणपति, एक महत्त्वपूर्ण सूचना मुझे भी देनी है; मागधों ने गंगा के उस पार पाटलिग्राम में सेना का एक अड्डा बनाया है । वे जब- तब आकर ग्रामवासियों को घर से निकालकर स्वयं वहां रहने लगते हैं और वे गंगा और मिट्टी के तीर पर दो – दो लीग के अन्तर पर काष्ठ के कोट बनवाते जा रहे हैं । पाटलिग्राम का गंगा तट नौकाओं से पटा पड़ा है। इस प्रकार वैशाली की ऐन नाक के नीचे यह पाटलिग्राम मागधों का सैनिक स्कंधावार बनता जा रहा है और कभी वह वैशाली के नौ बल के लिए बहुत बड़ी बाधा प्रमाणित हो सकता है। ”

“ तो आयुष्मान् नागसेन कहें , कि सब बातों का विचार कर हमें क्या करणीय है ? ” स्वर्णसेन ने बीच ही में खड़े होकर कहा

“ मेरा मत है कि इस कुटिल ब्राह्मण को तुरन्त बन्दी बना लिया जाए और उन सब गुप्तचरों को भी । ”

“ यह तो खुला रण -निमन्त्रण होगा आयुष्मान्! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा,

“ और इसका परिणाम भीषण हो सकता है । ”

नागसेन ने कहा “ मेरा मत है कि हमें त्रिसूत्रीय योजना विस्तार करनी चाहिए। एक सूत्र यह कि हमें निसृष्टार्थ दूत मगध को प्रेरित करना चाहिए । यह दूत कुलीन , बहुश्रुत , बहुबान्धव , बहुकृत , बहुविद्य , बुद्धि -मेधा-प्रतिभा – सम्पन्न , मधुर भाषी, सभाचगुर , प्रगल्भ , प्रतिकार और प्रतिवाद करने में समर्थ, उत्साही , प्रभावशाली , कष्टसहिष्णु , निरभिमानी तथा स्थिर स्वभाववाला पुरुष हो । उसके साथ सब यान -वाहन पुरुष – परिवार हो , करणीय विषय का ऊहापोह करने योग्य हो ।

“ वह सम्राट को मैत्री – सन्देश दे, उसकी गतिविधि देखे , शत्रु के आटविक , अन्तपाल , नगर तथा राष्ट्र के निवासी प्रमुख जनों से मैत्री- सम्बन्ध स्थापित करे , मागध सैन्य का संगठन , व्यूह -परिपाटी, संख्या देखे- समझे। शत्रु के दुर्ग, उसका कोष , आय के साधन , प्रजा की जीविका और राष्ट्र की रक्षा एवं उसके छिद्रों को भी देखे ।

“ दूसरा सत्र यह है कि हमें अपने इंगित , चेष्टा , आचार एवं विचार किसी से भी ऐसा प्रकट नहीं करना चाहिए , जिसमें वैशाली में व्याप्त मागध दूतों को यह ज्ञात हो जाए कि हम सावधान हैं और हमारी योजना क्या है। ”

“ तीसरा सूत्र यह है कि हमें कोष, अन्न और सैन्य का भलीभांति संगठन और व्यवस्था करनी चाहिए । ”

महाबलाधिकृत ने कहा – “ मुझे योजना स्वीकृत है। आयुष्मान् नागसेन का कथन यथार्थ है । मैं प्रस्ताव करता हूं कि स्वयं नागसेन ही मगध जाएं । ”

“ नहीं भन्ते , यह ठीक नहीं होगा , मैं यहां नियुक्त हूं। मेरी अनुपस्थिति तुरन्त प्रकट हो जाएगी। मेरा प्रस्ताव है कि मित्र जयराज जाएं । ”

“ मैं स्वीकार करता हूं; परन्तु योजना मेरी अपनी होगी । प्रकट में कोई अन्य व्यक्ति बहुत – सी उपानय-सामग्री लेकर चले और मैं गुप्त रूप में । दूत का जाना वर्षकार की सम्मति से उनके लिए सम्राट से अनुनय करने के लिए हो । हम लोग सब भांति से दबे हुए हैं , भयभीत हैं , असंगठित हैं , असावधान हैं , यही भाव प्रकट हो । मेरी अनुपस्थिति भी प्रकट न हो । मेरे स्थान पर मेरा मित्र काप्यक , मेरा अभिनय करे। ”

“ यह उत्तम है आयुष्मान्! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा – “ सैन्य – संगठन का कार्य मैं आयुष्मान् सिंह को सौंपता हूं ।

“ मैं स्वीकार करता हूं। मेरी भी अपनी स्वतन्त्र योजना होगी और अभी वह गुप्त रहेगी। ”

“ तो ऐसा ही हो आयुष्मान्! अब रह गया कोष , धान्य और साधन; इसके लिए आयुष्मान् भद्रिय उपयुक्त हैं । फिर हम सबकी सहायता करेंगे । आयुष्मान् जयराज एक मास में लौट आएं, तभी दूसरी बार मोहनगृह – मन्त्रणा हो । – गणपति सुनन्द ने कहा तथा मन्त्रणा समाप्त हुई ।

115 . पारग्रामिक : वैशाली की नगरवधू

काप्यक गान्धार ने बहुत – सी बहुमूल्य उपानय – सामग्री ले , दास , सैनिक और पथप्रदर्शकों के साथ ठाठ और आडम्बर के साथ राजगृह को प्रस्थान किया । सम्राट से महामात्य वर्षकार का विग्रह शमन कराने के लिए यह आयोजन किया गया है, यह सुनकर ब्राह्मण वर्षकार ने एक शब्द भी हां या ना नहीं कहा। हर्ष-विषाद भी कुछ उसने नहीं प्रकट किया । परन्तु उसी दिन उसने मध्यरात्रि में कुछ आदेश लेख लिखे और उन्हें ब्राह्मण सोमिल को देकर कहा – “ यह लेख नन्दन साहु के पास अभी पहुंचना चाहिए । नन्दन साहु ने वह लेख पाकर उसी रात्रि को एक दण्ड रात्रि रहते अपने घर से प्रस्थान किया और वैशाली उपनगर में आकर उपालि कुम्भकार के घर आया । उपालि कुम्भकार श्रावस्ती से आकर अभी कुछ दिन हुए यहां बसा था । नन्दन साहू ने वह लेख उसे दिया और कुछ भाण्ड उपालि से क्रय कर उनका मूल्य चुका, सूर्योदय से पूर्व ही घर लौट आया । परन्तु वैशाली के तीन द्वारों से तीन पुरुष सूर्योदय के साथ ही तीन दिशाओं को निकले । तीनों पदातिक थे। एक ने उत्तर – पूर्व में कुण्डपुर जाकर एक हर्म्य में मगध सेनापति उदायि को एक लेख दिया । दूसरे ने पश्चिम में वाणिज्य – ग्राम जाकर मागध सन्धिवैग्राहिक ध्रुववर्ष को एक लेख दिया । तीसरे ने कोल्लोग – सन्निवेश में स्थित मागध सेनानायक सुमित्र को तीसरा लेख दिया । वे अपना अपना कार्य पूर्ण करके अपने – अपने स्थान पर फिर वैशाली में लौट आए । परन्तु इन तीनों ही व्यक्तियों के पीछे छाया की भांति तीन और व्यक्ति भी उपर्युक्त स्थानों पर उनके पीछे पीछे जा पहुंचे थे। वे तीनों वैशाली नहीं गए। पूर्वोक्त व्यक्तियों के वैशाली लौट जाने पर वे लम्बा चक्कर काटकर टेढ़े-तिरछे मार्गों में घूमते -फिरते हुए द्युतिपलाश चैत्य में एकत्रित हुए। वहां एक ग्रामीण तरुण वृक्ष की छाया में बैठा सुस्ता रहा था । तीनों ने उसके निकट पहुंचकर अभिवादन करके अपने – अपने सन्देश दिए। ग्रामीण तरुण ने उनमें से प्रत्येक को कुछ मौखिक सन्देश देकर भिन्न – भिन्न दिशाओं में चलता किया । फिर वह कुछ देर बैठा कुछ सोचता रहा। उसने वस्त्र से कुछ लेख-मानचित्र निकालकर उन्हें ध्यान से भलीभांति देखा , फिर उन्हें नष्ट कर दिया ! इसके बाद वह मन – ही – मन बड़बड़ाकर हंसा और उसके मुंह से निकला – “ बस , खड्ग और मैं ! ”एक बार उसने अपने चारों ओर देखा, फिर उठकर राजगृह के मार्ग पर चल दिया । इस समय दो पहर दिन चढ़ गया था और वह मार्ग विजन वन में होकर था । दूर – दूर तक बस्ती का नाम न था – कहीं सघन वन और कहीं एकाध ग्राम । परन्तु वह सूर्यास्त तक बिना कहीं रुके चलता ही चला गया । उसने यथेष्ट मार्ग पार किया । अन्ततः वह भिण्डि – ग्राम की सीमा में आया। यहां एक चैत्य में उसने विश्राम करने का विचार किया । वह बहुत थक गया था , साथ ही भूख-प्यास से व्याकुल भी था । चैत्य के निकट ही एक गृहस्थ का घर था । वहां जाकर उसने कहा – “ गृहपति , क्या मैं तेरे यहां आज ठहर सकता हूं ? मैं पारग्रामिक हूं, मुझे भोजन भी चाहिए । मेरे पास पाथेय नहीं है। परन्तु तुझे मैं स्वर्ण दे सकता हूं । ”

गृहपति ने कहा – “ तो तेरा स्वागत है मित्र , वहां गवाट में और भी दो पारग्रामिक टिके हैं , वहीं तू भी विश्राम कर! वहां स्थान यथेष्ट है । आहार्य मैं तुझे दूंगा । स्वर्ण की कोई बात ही नहीं है। ”

“ तेरा जय रहे गृहपति ! ”ग्रामीण ने कहा और धीरे – धीरे गवाट में चला गया । गवाट के प्रांगण के एक ओर छप्पर का एक ओसारा था । वहां दो पुरुष बैठे बातें कर रहे थे! उन्हीं के निकट जाकर उसने कहा – “ स्वस्ति मित्रो ! मैं भी पारग्रामिक हूं आज रात – भर मुझे भी आपकी भांति यहीं विश्राम करना है। ”

“ तो तेरा स्वागत है मित्र, बैठ । ”दोनों में से एक ने कहा। ”परन्तु उन्होंने परस्पर नेत्रों में ही एक गुप्त सन्देश का आदान -प्रतिदान किया । आगत ने भी उसे देखा । परन्तु निकट बैठते हुए कहा – “ कहां से मित्रो ? ”

“ वाणिज्य – ग्राम को ! ”

“ किन्तु कहां से ? ”

“ ओह , चम्पा से ? ”

“ परन्तु चम्पा से इस मार्ग पर क्यों ? ”

“ प्रयोजनवश मित्र ! ”

“ ऐसा है तो ठीक है। ”ग्रामीण ने हंसकर कहा ।

उस हंसी से अप्रसन्न हो एक ने कहा –

“ इसमें हंसने की क्या बात है मित्र ? ”

“ बात कुछ नहीं मित्र, मुझे कुछ ऐसी ही टेव है। हां , क्या मित्रो , आप में से

“ कहानी ? ”

“ कहानी सुनने की भी मुझे टेव है। ”वह फिर हंस दिया ।

इस पर दोनों चिढ़ गए। उनके चिढ़ने पर भी वह ग्रामीण हंस दिया । एक ने तीखा होकर कहा – “ यह बात -बात पर हंसना क्या ? तू मित्र , ग्रामीण है ? ”

“ ग्रामीण तो हूं और तुम ? ”

“ हम नागरिक हैं । ”

इस बार ग्रामीण ज़ोर से हंस पड़ा । उस नागरिक ने उस पर क्रुद्ध होकर पास का दण्डहत्थक उठाया । उसके साथी ने उसे रोककर कहा – “ यह क्या करता है, उसे हंसने दे , उससे हमारा क्या बनता-बिगड़ता है! ”

साथी की बात मानकर वह व्यक्ति नवागन्तुक को क्रुद्ध दृष्टि से देखने लगा ।

इसी समय गृहपति भोजन -सामग्री लेकर वहां आया । उसने कहा – “ भन्तेगण , कुछ सैनिक ग्राम के उस ओर किन्हीं को खोजते फिर रहे हैं , कहीं वे आप ही को तो नहीं खोज रहे ?”

सुनकर तीनों व्यक्ति चौकन्ने हो शंकित दृष्टि से एक – दूसरे को देखने लगे । इस पर पीछे आए पुरुष ने कहा – “ मैं उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा हूं मित्र, हम लोग उन छद्मवेशी मागध गुप्तचरों को ढूंढ़ रहे हैं जिन्हें सूली पर चढ़ाने का आदेश वैशाली से प्रचारित हुआ है। ”उसने तिरछी दृष्टि से दोनों पुरुषों को देखा जो शंकित- से उसे देख रहे थे ।

पारग्रामिक ने कहा – “ मित्र, वे किधर गए हैं मुझे बता , मैं उन्हें अभी लाता हूं । ”

इतना कह वह द्रुतगति से गृहपति की बताई दिशा की ओर चल दिया । उसके बाद ही दोनों बटारू भी उद्विग्न- से हो – “ हम भी देखें , कौन है। कहकर उठकर उसकी विपरीत दिशा को भाग खड़े हुए । गृहपति अवाक् खड़ा यह अद्भुत व्यापार देखता रहा ।

116. छाया – पुरुष : वैशाली की नगरवधू

इन्हीं दिनों वैशाली में एक और नई विभीषिका फैल गई । लोग भयविस्फारित नेत्रों से एक – दूसरे को देखते हुए परस्पर कहने लगे – “ एक भयानक और अद्भुत काली छाया उन्होंने कभी -कभी नगर के बाहर प्रान्त – भाग में सन्ध्या के धूमिल अन्धकार में घूमती -फिरती देखी है। ”ज्यों – ज्यों दिन बीतते गए, लोग इसका समर्थन करते गए । बहुत जन भय से दबे हुए स्वर में कहने लगे कि उस छाया में केवल गति है, किन्तु वह अशरीरी है। किसी ने कहा- वह छाया बोलती भी सुनी गई है। वह मनुष्याकार तो है, किन्तु मनुष्य कदापि नहीं है। इतना लम्बा मनुष्य होता ही नहीं । अशरीरी होने पर भी वह छाया वायु वेग से अधर में उड़ती है , पृथ्वी को छूती नहीं , उसकी गति अबाध है; पर्वत , नद, गह्वर कुछ भी उसकी गति में बाधक नहीं हो सकता । अनेक ने देखा है, कि स्वच्छ चांदनी रात में वह छाया सुदूर पर्वत – श्रृंगों के ऊपर से होती हुई , वायु में तैरती – सी वैशाली के निकट आती और कभी धीरे- धीरे और कभी अति वेग से नगर के चारों ओर चक्कर काटती हुई लोप हो जाती है । बहुत लोग बहुत भांति की अटकलें उसके सम्बन्ध में लगाने लगे । जिन्होंने देखा नहीं था वे अविश्वास करते ; और जिन्होंने देखा वे प्रतीति कराने लगे । फिर भी विश्वास हो चाहे न हो , यह सूचना कहने वालों और सुनने वालों सभी के लिए भय का कारण बन गई थी । स्त्रियों में से भी कुछ ने देखा और वे भय से चीत्कार करके मूर्छित हो गईं। बच्चे उस छाया की बात सुनते ही सकते की हालत में हो गए। एक बात अवश्य थी , इस छाया ने किसी का अनिष्ट नहीं किया था । नगर – अन्तरायण में भी वह नहीं घुसी थी । उसका दर्शन अधिकतर मर्कट – ह्रद, पलाशवन और वैघंटिक -यक्षनिकेतन के निकट ही बहुधा होता था । किसी -किसी ने उसे यक्षनिकेतन में प्रविष्ट होते भी देखा था । इससे लोग उसे यक्ष भी कहने लगे थे। युद्ध की विभीषिकाएं दिन -दिन बढ़ती जाती थीं , इससे वैशाली में घर – बाहर सर्वत्र एक घबराहट- सी फैल जाती थी ; और यह लोकचर्चा होने लगी थी कि कोई- न – कोई अप्रिय अशुभ घटना होनेवाली है।

एक बात इस सम्बन्ध में और विचारणीय थी , प्रतिदिन चंपा के सेट्ठि कृतपुण्य का पुत्र भद्रगुप्त सान्ध्य भ्रमण के लिए जिस ओर वड़वाश्व पर घूमने जाया करता था , उसी ओर वह छाया बहुधा देखी जाती थी । सबसे प्रथम सेट्टिपुत्र के साथियों ही ने उसे देखा भी था । सेट्टिपुत्र उसे देख अति भयभीत हो गया था । एक बार तो वह छाया सेट्टिपुत्र के निकट आकर उसे छू भी गई थी । उस स्पर्श ही से सेट्ठिपुत्र भय से मूर्छित हो गया था । कृतपुण्य ने बहुत उपचार कराया , तब वह स्वस्थ हुआ था । तब से सेट्ठिपुत्र ने बाहर भ्रमणार्थ जाना ही बन्द कर दिया था । इससे वह छाया – पुरुष जैसे अति उद्विग्न हो वेग से बहुधा वैशाली के चारों ओर घूमा करता था । हाल ही में चाण्डाल मुनि और यक्षकन्या के प्रादुर्भाव और कृत्य प्रभाव से भयभीत वैशाली की जनता इस छाया – पुरुष से अत्यधिक भयभीत , शंकित और उद्विग्न हो गई थी ।

117. विलय : वैशाली की नगरवधू

कृतपुण्य सेट्ठि ने पुत्र के विवाह का आयोजन किया । आयोजन असाधारण था । वैशाली ही के सेट्ठि जेट्ठक धनञ्जय की सुकुमारी कुमारी से कृतपुण्य सेट्ठि के पुत्र का विवाह नियत हुआ था । कृतपुण्य सेट्ठि के धन – वैभव का अन्त नहीं था । उधर सेट्ठि जेट्ठक धनञ्जय भी उस समय जम्बूद्वीप भर में विख्यात धन – कुबेर था । उसकी किशोरी कन्या मृणाल केले के नवीन पत्ते की भांति उज्ज्वल , कोमल और सुशोभनीय किशोरी थी । सेट्ठि जेट्ठक के रत्न -भंडार में सहस्र कोटि – भार -स्वर्ण था , ऐसा सारा ही वैशाली का जनपद कहता था । इस विवाह की वैशाली में बड़ी धूम थी । बड़ी चर्चा थी । दूर – दूर के कलानिपुण पुरुष , नृत्य संगीत में विलक्षण वेश्याएं और विविध भांति के आमोद -प्रमोद और शोभा के आयोजन एकत्र किए गए थे । इस विवाह की धूमधाम , मनोरंजन और व्यस्तता के कारण एक बार वैशाली की जनता का ध्यान उस छाया – पुरुष से सर्वथा ही हट गया था ।

विवाह सम्पन्न हो गया । कृतपुण्य पुत्रवधू को लेकर मंगल – उपचार करता और वधू पर रत्न लुटाता हुआ घर आ गया । पुत्र और पुत्रवधू की मधु- रात्रि मनाने के लिए उसने सर्वथा नवीन एक कौमुदी-प्रासाद का निर्माण कराया था । उस प्रासाद में उसने समस्त जम्बूद्वीप में प्राप्य सुख – सामग्री संचित की थी । उसी कौमुदी प्रासाद में वधू के गृह-प्रवेश का उत्सव मनाया जा रहा था । नगर के गण्यमान्य सेट्ठि – सामन्त पुत्र और राजपुरुष आ – आकर हंस -हंसकर सेट्टिपुत्र को बधाई देते , भेंट देते और गंध- पान से सत्कृत होते अपने – अपने घर जा रहे थे । पौर जानपद जनों का षडरस व्यंजन परोसकर भोज हो रहा था । ब्राह्मणों को कौशेय , शाल , दुधारू गाय , स्वर्णालंकृता दासियां और स्वर्णदान बांटा जा रहा था । कृतपुण्य सेट्ठी के वैभव और चमत्कार एवं दानशीलता को देख – देखकर लोग शत – सहस्त्र मुखों से प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। अन्त : पुर में सेट्टिनी नागरिक महिलाओं से घिरी पुत्रवधू का परछन कर रही थी । स्त्रियां वधू पर रत्नाभरण न्योछावर कर रही थीं । मंगलगान की मधुर ध्वनि अन्त : पुर की रत्नखचित भीतों को आन्दोलित करती – सी प्रतीत हो रही थी । सेट्टिपुत्र समवयस्कों के बीच विविध हास्यों और व्यंग्यों का घात -प्रतिघात मुस्कराकर सह रहा था । गुणीजन, बांदी और वर -वधुएं अपनी – अपनी कलाओं का विस्तार कर रहे थे।

एक दण्ड रात्रि व्यतीत हो गई । आगत – समागत जन अपने – अपने घर विदा होने लगे। जानेवाले वाहनों का तांता बंध गया । धीरे- धीरे भीड़ कम होते- होते कौमुदी -प्रासाद में केवल परिजन, परिचारक और घनिष्ठ मित्र ही रह गए। मधरात्रि के उपचार होने लगे । कौमुदी- प्रासाद के शयनगृह और मधुशय्या पर श्वेत पुष्पों का मनोरम शृंगार किया गया था । मित्रों से विदा होकर सेट्टिपुत्र सुवासित ताम्बूल चबाता हुआ शयनकक्ष में प्रविष्ट हुआ । अनंगदेव का प्रथम प्रहार उसके प्राणों को विह्वल कर रहा था । उसके स्वस्थ सुन्दर -स्वर्ण अंग पर धवल कौशेय और धवल ही पुष्पमाला सुशोभित थी । उसके नेत्र औत्सुक्य , आनन्द और काम – मद से विह्वल हो रहे थे। नववधू को समवयस्का सखियों ने लाकर शयनकक्ष में एक प्रकार से धकेल दिया , वे कपाट – सन्धि से झांककर एक – दूसरों को नोचने लगीं । पुष्पभार से नमिति धनंजय सेट्ठि – जेट्ठक की सुकुमार कुमारी द्वितीया के चन्द्र की शोभा धारण करती हुई – सी शयन- कक्ष में बीड़ा से जड़- सी खड़ी रह गई । आंख उघारकर प्रियदर्शन पति को देखने का उसका साहस ही न हुआ ।

इसी समय कौमुदी -प्रासाद में एक भीति का आभास हुआ । गान -वाद्य एकबारगी ही रुक गए, लोगों का जनरव भी स्तब्ध हो गया । जो जहां था , वहीं जड़ हो गया । किसी के मुंह से हल्की चीत्कार – सी निकली। ऐसा प्रतीत होने लगा, जैसे कौमुदी-प्रासाद में कोई जीवित सत्त्व उपस्थित ही नहीं है। सबने भय और आतंक से देखा , छायापुरुष ने कौमुदी प्रासाद में प्रवेश किया है। छाया को देखकर बहुत लोग मूर्छित होकर गिर पड़े, बहुत पत्थर की मूर्ति की भांति जड़ हो गए। लोगों की जीभ तालु से सट गई । छाया – मूर्ति धीरे धीरे स्थिर चरणों से पृथ्वी से कुछ ऊपर ही वायु में तैरती हुई – सी एक के बाद दूसरा कक्ष और अलिंद पार करती हुई सेट्टिपुत्र के शयनकक्ष के द्वार पर आ पहुंची। उसे देखते ही सखी , दासी और कन्या जो जहां थीं , भयभीत एवं मूर्छित हो , भूमि पर गिर गईं ।

नवदम्पती ने भी , प्रासाद में कोई अशुभ बात हुई है, इसका आभास अनुभव किया । सेट्टिपुत्र ने आगे बढ़कर द्वार खोला , द्वार खोलते ही छाया पुरुष शयनकक्ष में आ प्रविष्ट हुआ । उसे देखते ही सेट्टिपुत्र भय से आंखें फाड़े निर्जीव की भांति पीछे हटकर भीत में चिपक गया । वधू चीत्कार करके मूर्छित हो गिर पड़ी । छायापुरुष ने उसी भांति पृथ्वी से अधर , स्थिर गति से जाकर सेट्टिपुत्र को छुआ। उसके छूते ही सेट्टिपुत्र मूर्छित होकर नीचे गिर गया । छायापुरुष ने उसे अनायास ही दोनों हाथों में उठाकर पुष्प – शय्या पर लिटा दिया । इसके बाद उसने द्रुत गति से शयन – कक्ष में चारों ओर चक्कर लगाना प्रारम्भ किया । चक्कर लगाते – लगाते वह शय्या की परिक्रमा- सी करने लगा । प्रत्येक बार उसकी परिक्रमा परिधि छोटी होने लगी । अन्तत: वह शैय्यातल्प को चारों ओर से छूता हुआ नथुने फुला फुलाकर कुछ सूंघता हुआ – सा घूमता रहा। इस समय नेत्रों से विद्युत् -प्रवाह के समान एक सचेत धारा प्रवाहित हो -होकर सेट्ठिपुत्र के शरीर में प्रविष्ट होने लगी; बीच -बीच में वह रुक – रुककर , सेट्ठिपुत्र के बिलकुल ऊपर झुककर देखता और फिर द्रुत वेग से शय्या के ऊपर नीचे चारों ओर घूम जाता । प्रासाद में ऐसा सन्नाटा था जैसे यहां एक भी जीवित पुरुष न हो । अब उसने मुंह से एक प्रकार हुंकृति -ध्वनि प्रारम्भ की । फिर वह कन्दुक की भांति एक बार ऊपर को उछला । उसने धुएं के बादल के समान सिकुड़कर मूर्छित सेट्ठिपुत्र के ऊपर अधर में लटककर अपना मुंह उसके मुंह के एकदम निकट लाकर , मुंह से मुंह मिलाकर , उसके मुंह में फूंक मारना प्रारम्भ किया । फूंक मारने से सेट्टिपुत्र का मुंह खुल गया ; वह अधिकाधिक खुलता चला गया । तब अद्भुत चमत्कारिक रूप से वह छायापुरुष एक द्रव सत्व की भांति समूचा ही सेट्ठिपुत्र के मुंह में धंस गया । सेट्ठिपुत्र अति गहन नींद में सो गया । धीरे- धीरे उसके सफेद मृतक के समान मुंह पर लाली दौड़ने लगी । लकड़ी के समान अकड़े हुए अंग हिलने – डुलने और सिकुड़ने लगे। उसके मुंह की विकृति भी दूर हो गई। उसने सुख से करवट ली और सो गया । मूर्च्छित वधू भूमि पर पड़ी रही । छायापुरुष का कोई चिह्न कक्ष में न रह गया । इस अद्भुत – अतयं घटना का कोई साक्षी भी न था ।

118. असमंजस : वैशाली की नगरवधू

बहुत भोर में वधू की निद्रा , तंद्रा या मूर्छा भंग हुई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी । उसने अचकचाकर रात की अकल्पनीय घटना पर विचार किया , फिर उसने भयभीत दृष्टि कक्ष में घुमाई। कोई भी अप्रिय- असाधारण बात नहीं थी । रात में देखे हुए छायापुरुष का वहां कोई चिह्न भी न था । उसकी दृष्टि सब ओर से हटकर मृदुल पुष्पशय्या पर सोते हुए सेट्ठिपुत्र पर गई, उसे गाढ़ निद्रा में सोता देख वह आश्वस्त हुई । उसने अपने वस्त्र ठीक किए, कक्ष के एक गवाक्ष से झांककर देखा , उषा का उदय हो रहा था । वह डरती – डरती सेट्टिपुत्र की शय्या के निकट गई। जब उसे भली- भांति विदित हो गया कि वह प्रगाढ़ निद्रा में सो रहा है, तो आंख भरकर पति को देखती रही। उसके सौन्दर्य पर वह मोहित हो गई , उसकी सुख निद्रा से भय की रेखाएं दूर हो गईं। वह वहां से हटकर गवाक्ष के निकट बड़े – से मुकुर के सामने आ खड़ी हुई। पुष्पिता लता के समान अपनी ही शोभा पर मन – ही – मन वह गर्वित हुई । उसने एक बार शय्या पर सोते हुए पति के सुकुमार शोभा के खान अंग पर दृष्टि डाली , एक मधुर उज्ज्वल हास्य रेखा उसके होठों में फैल गई । इसी हास्य -रेखा से उसकी उस भयानक मधुरात्रि का सब लेखा -जोखा समाप्त हो गया । वह शांत , स्निग्ध और शुभ दृष्टि से कक्ष की बहुमूल्य सजावट को देखने लगी । इसी समय दासी ने द्वार पर आघात किया , वधू ने धीरे से आकर द्वार खोल दिया । वधू को मुस्कराता तथा सेट्टिपुत्र को सोता देख दासी ने मृद – हास्य हंसकर वधू को बाहर आने का संकेत किया । बाहर आने पर स्त्रियों के झुरमुट ने उसे घेर लिया । सबके मुंह पर औत्सुक्य , घबराहट और चिन्ता की रेखाएं थीं , सभी ने एक – दूसरे से आंखों में ही कुछ पूछा ; सभी ने वधू की भाव – भंगिमा से समझा , कि रात की विभीषिका से वधू सर्वथा अज्ञात प्रतीत होती है । इसी समय सेट्ठि कृतपुण्य हा पुत्र , हा पुत्र करता हुआ वहां आया और पुत्र के शयनकक्ष में घुस गया । वहां पुत्र को सुख से सोते हुए और वधू को स्वाभाविक देख वह हर्षोन्माद से नाच उठा । प्रथम संकेत से और फिर खुलकर अब रात की बातें होने लगीं । जिस -जिसकी मूर्छा भंग होती गई, उठकर वहीं एकत्र होने लगा । प्रश्न यह था कि वह छाया – मूर्ति थी क्या ? वह वहां वास्तव में आई भी थी , या भ्रम या स्वप्न था । यदि वह आई थी तो गई कहां ? सारा ही घर प्रथम फुसफुसाहट और फिर कोलाहल से भर गया । उस कोलाहल को सुनकर सेट्ठिपुत्र की नींद भी खुल गई । वह मद्यपों- जैसे भारी – भारी डग भरता हुआ , अपरिचितों की भांति आंखें फाड़ – फाड़कर इधर उधर देखता वहां आया । कृतपुण्य पुत्र को देखकर दोनों हाथ फैलाकर उसकी ओर दौड़ा और उसका आलिंगन करके कहा – “ पुत्र, क्या तूने भी रात को कोई विभीषिका देखी ? ”

सेट्ठिपुत्र ने विचित्र दृष्टि से सेट्ठि की और देखा , तनिक मुस्कराया। ब्राह्मण पुरोहित ने कहा – “ गृहपति , वह छायापुरुष वास्तव में एक दु: स्वप्न था , मैं अभी पुरश्चरण करता हूं तथा अथर्व- पाठ करके उसकी शान्ति करता हूं। तुम पुत्र और वधू को अधिक असुविधा में मत डालो। ”

सेट्टि ने बहुत ऊंच- नीच दिन देखे थे। उसने भी जब देखा कि घर में सब- कुछ ठीक ठाक है, तो कुछ कहना – सुनना ठीक नहीं समझा , वह पुत्र और वधू के अंग – संस्कार, स्नान आदि की सुविधा देने के विचार से अपने कक्ष में चला गया ।

पीठमर्दकों , अवमर्दकों और सेवकों द्वारा सेवित स्नान – वसन – भूषण से सज्जित सेट्टिपुत्र जब प्रासाद के बाहर अपने कक्ष में आया , तब सब वयस्कों ने उसका सस्मित प्रीति सम्मोदन किया । कुछ ने संकेत से रात्रि का हालचाल पूछा। उनमें से जो रात की विभीषिका से अवगत थे, उन्होंने संकेत से सेट्टिपुत्र से रात की बात पूछने से निषेध किया । सेट्टिपुत्र ने केवल मन्द मुस्कान ही से मित्रों के प्रश्नों का उत्तर दिया , परन्तु उसकी दृष्टि में कुछ विचित्रता सभी ने लक्ष्य की ।

एक ने कहा – “ मित्र , क्या इतना आसव ढाल लिया ? ”

दूसरे ने कहा – “ नहीं – नहीं रे, जागरण का प्रभाव है। कह मित्र , सुख से रात बीती ? ”

अब सेट्टिपुत्र ने मुंह खोला, उसने कहा – “ वड़वाश्व । ”

यह शब्द सुनकर अब समुपस्थित चौंक उठे । बिल्कुल अपरिचित स्वर था , उसका घोष भी अमानुष था , जैसे सुदूर पर्वत – श्रृंगों को चीरकर कोई ध्वनि आई हो । मित्रगण सेट्टिपुत्र के मुंह की ओर देखने लगे ।

उसने एक बार फिर उसी भांति वड़वाश्व कहा और उठ खड़ा हुआ । उसकी रुखाई और चेष्टा ऐसी थी , जैसे वह किसी को नहीं पहचानता हो , अथवा वह उन सबकी उपस्थिति ही से अज्ञात हो । सभी एक – दूसरे के मुंह की ओर देखने लगे, पर सेट्ठिपुत्र उठकर कक्ष से बाहर चल दिया । दो – एक पाश्र्वद पीछे दौड़े । उसके चलने का ढब भी निराला था । पाश्र्वदों ने समझा कि सेट्रिपत्र ने बहत मद्य ढाल ली है , इसी से पैर डगमगा रहे हैं । वह कहीं गिर न जाए, इसी से एक ने उसे थाम लिया ! उसे संकेत से निवारण करके उसने उसी स्वर में फिर कहा – वड़वाश्व ।

इधर जब से छायापुरुष की विभीषिका फैली थी तथा भ्रमण- काल में एक बार छायापुरुष ने उसे छू लिया था ; तब सेट्टि कुमार का वड़वाश्व पर वायुसेवनार्थ भ्रमण रोक लिया गया था । आज अकस्मात् ही अतर्क्स रीति से वड़वाश्व की इच्छा इस आग्रह से व्यक्त करने पर सेवक विमूढ़ हो गया । एक बात और थी , सेट्ठिपुत्र में पूर्व का मार्दव -विनय – शील संकोच न था , एक अभूतपूर्व दबंगपन और दुर्धर्ष वेग उसकी वासना – शक्ति का उसके नेत्रों से प्रवाहित हो रहा था । सेवक उस आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सका, वह अश्व लाने को दौड़ गया । दूसरा सेवक भयभीत होकर गृहपति को सूचित करने दौड़ गया । गृहपति सेट्ठि दौड़ा आया , उसने पुत्र को भ्रमण के लिए जाने का निषेध किया , पर सेट्ठिपुत्र ने मुस्कराकर गृहपति की ओर देखा । उस विलक्षण दृष्टि से सेट्टि घबरा गया । वह सोचने लगा – क्या मेरा पुत्र उन्मत्त हो गया है ? यह कैसी दृष्टि है ? इतने ही में सेट्ठिपुत्र पिता की उपस्थिति की अवहेलना करके अश्व की ओर चल दिया । सेवक अश्व ले आया था , एक अभूतपूर्व लाघव से सेट्टिपुत्र अश्व पर चढ़ गया और द्रुत गति से उसने अश्व छोड़ दिया ।

ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ था । पुत्र का यह परिवर्तन कैसा है ? क्या उसने रात अधिक मद्य पी है ? या कोई और बात है ? छायापुरुष की विभीषिका मन में होते हुए भी किसी ने भी यह नहीं सोचा कि इस घटना से वह छाया भी किसी भांति सम्बन्धित है ।

परन्तु सहसखियों से सेट्टिपुत्रवधू ने इस भयानक छाया का शयनकक्ष में आना वर्णित किया। सहसखियां सहम गईं । उन्होंने कहा – “ तब यह स्वप्न नहीं , सत्य है, वह छायामूर्ति हमारे सामने ही शयन – कक्ष में गई थी , ” परन्तु फिर उसका क्या हुआ ? वह कहां गई ? इसका कोई उत्तर न दे सका। वधू ने लजाते हुए कहा कि वह उसे देखते ही मूर्छित हो गई थी और रात भर वह मूर्छित ही भूमि पर पड़ी रही । तब सब स्त्रियां तथा सेट्टिनी भी चिन्ता से व्याकुल हो गईं । प्रासाद में सभी कोई मूर्छित हो गए थे और सभी रात्रि भर माया – मूर्च्छित रहे यह तो अद्भुत बात है । इसी समय सेट्टि कृतपुण्य ने भीतर आकर पत्नी से एकान्त में कहा – “ कह नहीं सकता क्या बात है, पर पुत्र में बड़ा अन्तर पाता हूं । क्या उसने रात बहुत मद्य पी थी ? ”सेट्टिनी ने शयन – कक्ष का जो विवरण वधू से सुना वह सेट्टि को सुना दिया । सुनकर सेट्ठि बहुत भयभीत हुआ । उसने कहा – “ आर्य वर्षकार को सूचना देनी होगी, मैं अभी नन्दन साहु को बुलाता हूं। ”

119. देवजुष्ट : वैशाली की नगरवधू

वह सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक वड़वाश्व पर चढ़कर अतक्र्य वेग से निकल गया , अश्व संचालन में ऐसा नैपुण्य कभी उसका देखा नहीं गया था । पाश्र्वचर, अनुचर अपने – अपने अश्वों को ले उसके पीछे दौड़े ; परन्तु सेट्टिपुत्र को न पा सके। सेट्ठिपुत्र का वह वाड़व अश्व आज शतगुण वेग से वन , पर्वत और कन्दरा पार करता वायु में तैर रहा था । अनुचर चिन्तित – थकित वन – उपत्यका में खड़े निरुपाय सुदूर पर्वतों के मध्य में वायु में तैरते सेट्ठिपुत्र को देखते रहे । किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था । बहुत देर बाद अश्व लौटा । निकट आने पर सेट्ठिपुत्र ने अश्व की गति सरल की । उसने मुस्कराकर अनुचरों की ओर देखा , सब आश्वस्त हो उसे घेरकर चल दिए। अश्वारोहण का यह अभूतपूर्व कौशल उन्होंने सेट्ठि को जाकर बताया । सेट्टि अधिक चिन्तित हो गया । पुत्र का असाधारण परिवर्तन वह स्पष्ट देख रहा था । एक – दो बार उसने पुत्र से बात करने की भी चेष्टा की , पर वह पिता को देख मुस्करा दिया । उसकी अनोखी दृष्टि से ही घबराकर वह भाग गया । सेट्टिनी ने यह कहकर समाधान किया — विवाह के काम – ज्वर का यह आवेश है, सब ठीक हो जाएगा । उसने पुत्र के विश्राम – शयन – आहार की ओर भी यत्न से व्यवस्था करने के आदेश दिए । महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उसने मित्र – मण्डली से मिलना भी बन्द कर दिया । अनेक मित्र रुष्ट हो गए । अनेक ने हंसकर कहा – “ यह सुहागरात का उन्माद है। ”माता -पिता और निकटवर्ती पाश्र्व दासियों से वह कम बोलता , केवल मुस्कराता। उसकी दृष्टि तो सहन ही नहीं होती थी । एकाध वाक्य , जो वह बोलता, स्वर अपरिचित , उच्चारण विचित्र । उसने शयन – कक्ष में ही डेरा जमाया , उसमें नववधू को छोड़ और किसी का आना – जाना निषिद्ध कर दिया । बहुत खोद- खोदकर पूछने पर वधू ने बताया – “ केवल सोते हैं , आसवपान करते हैं , बहुत कम बोलते हैं , बहुत कम खाते हैं । ”

नन्दन साहु के द्वारा यह समाचार यथासमय ब्राह्मण वर्षकार के पास भी पहुंच गया । सब घटना सुनकर वर्षकार भी विचार में पड़ गए । छाया पुरुष का वैशाली के प्रान्त भाग में चक्कर लगाना उन्होंने सुना था । बहुत विचार करने पर उन्होंने सोमिल को एकान्त में बुलाकर कहा – “ भद्र सोमिल , क्या वह छाया अब भी वैशाली में कहीं घूमती दीख पड़ती है ? ”

“ नहीं आर्य , सुना तो नहीं। ”

“ तो तुम इसका ठीक-ठाक पता लगाओ और नन्दन साहु से कहो, कि वह सेट्ठि कृतपुण्य से कहें कि पुत्र पर कड़ी दृष्टि रखें । ”

सेट्रिपत्र पुण्डरीक का यह परिवर्तन एक कण्ठ से दूसरे कण्ठ में होता हआ वैशाली भर में फैल गया , विशेषकर उसका अद्भुत अश्वारोहण वैशाली की चर्चा का विषय बन गया । उसका समय – एकान्त , अत्यल्प भाषण, मर्मभेदिनी दृष्टि सब कुछ कृत -विकृत होकर घर – घर की चर्चा का विषय हो गए। बहुत निषेध करने पर भी सेट्ठिपुत्र ने सान्ध्य – भ्रमण सम्बन्धी पिता की बात नहीं मानी । पुत्र के दुर्विनय पर खिन्न हो सेट्ठि नाना प्रकार की चिन्ताओं में लीन हो गया ।

120 . कीमियागर गौड़पाद : वैशाली की नगरवधू

विश्वविश्रुत कीमियागर गौड़पाद अपनी प्रयोगशाला में बैठे देश -विदेश के आए वटुकों को रसायन के गूढ़ रहस्य बता रहे थे। विविध भ्राष्टियों और कूप्यकों पर अनेक रसायन सिद्ध किए जा रहे थे। वटुकों में चीन , तातार , गान्धार , तिब्बत , तपिशा , शकद्वीप , पारसीक , यवन , ताम्रपर्णी,सिंहल , आदि सभी देशों के वटुक थे।

कपिशा के वटुक धन्वन् ने कहा – “ भगवन् इस विस्तृत संसार के सब सजीव और निर्जीव पदार्थकिस प्रकार बने हैं ? ”.

आचार्य ने कहा – सौम्य धन्वन् वे सब मूल तत्त्वों के परस्पर संयोग से बने हैं । इनके तीन वर्ग हैं ; कुछ पदार्थ तत्त्व रूप ही में विद्यमान हैं , इनमें एक ही जाति के परमाणु मिलते हैं ; इन्हें मूलतत्त्व कहते हैं । कुछ दो या अधिक तत्त्वों के रासायनिक संयोग से बने हैं , ये यौगिक कहाते हैं । कुछ अधिक तत्त्वों और यौगिकों के भौतिक मिश्रणों से बने हैं , ये भौतिक मिश्रण कहाते हैं । ”

“ और भगवन् , अणु – परमाणु क्या हैं ? ”लम्बी चोटी वाले पीतमुख चीनी वट्क ने कहा।

“ पदार्थ के कल्पनागम्य सूक्ष्मतम उस विभाग को , जिसमें उस पदार्थ के सब गुण धर्म उपस्थित हों , किन्तु उसके फिर विभाजन से मूल पदार्थ के वे गुण – धर्म नष्ट होकर उसके अवयवों के परमाणु में मिल जाएं , वह अणु कहाता है । ‘ परमाणु का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । वे सदा संयुक्त अवस्था में ‘ अणु के रूप ही में रहते हैं । प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अणु की अवस्था ही में रहता है, परमाणु की अवस्था में नहीं। ये अणु, परमाणु भारयुक्त हैं और भिन्न -भिन्न परमाणुओं और तत्वों में बन्धनक्षमता है, जो परिस्थिति के अनुरूप बदलती रहती है । एक तत्त्व का दूसरे तत्त्व से उसकी ‘ परमाणु – बन्धन – क्षमता की समानता होने पर ही स्थिर संयोग बन सकता है। ”

“ तो भगवन् ? इस प्रकार भूमण्डल के समस्त पदार्थ, जो परमाणुओं के संयोग से बने हैं , क्या हमें सुलभ हैं ? वे हमारे लिए सतत व्यवहार्य हैं ” – एक सिंहल छात्र ने श्रद्धांजलि -बद्ध होकर पूछा ।

“ नहीं भद्र, इनमें से कुछ हमें सुलभ हैं और कुछ विरल। ”

“ तो भगवन् , क्या परमाणु नित्य अविभाज्य है ? ”– एक युवक वटुक ने पूछा ।

“ नहीं -नहीं भद्र, कुछ परमाणु स्वयं ही टूटकर दूसरी जाति के परमाणु बन जाते हैं तथा उन्हें रासायनिक रीति से तोड़ा जा सकता है, नाग – परमाणु तोड़कर हम उसे पारदीय रूप दे सकते और पारद से सुवर्ण बना सकते हैं , आवश्यकता यही है कि लघु परमाणु- भार को अपेक्षित गुरु परमाणु – भार में स्थापित किया जाए! ”

“ किन्तु भगवन्, परमाणु कैसे खण्डित किया जा सकता है ? कैसे लघु – भार परमाणु को गुरु- भार परमाणु के रूप में व्यवस्थित किया जा सकता है ? ”गान्धार छात्र कपिश ने पूछा।

“ रश्मिक्षेपण द्वारा। पदार्थों और अणु – परमाणुओं के संगठन -विघटन का प्रकृति साधन परमाणु में विद्युत – सत्त्व है, तथा उस संगठन को स्थायित्व प्राप्त होता है रश्मिपुञ्ज से । जब परमाणु का विस्फोट किया जाएगा , तो विद्युतसत्त्व और रश्मिपुंज – क्षेपण करना होगा। उसके बाद जब फिर से परमाणु संगठन करना होगा तो विद्युत – आवेश और रश्मिपुञ्ज का विकास होगा। ”

“ यह किस प्रकार भगवन् ? ”

“ इस प्रकार कि प्रत्येक तत्त्व का प्रत्येक परमाणु एक छोटी – सी सूर्यमाला है। तुम जानते हो भद्र कि पृथ्वी आदि सम्पूर्ण ग्रह अपने विशिष्ट वृत्तों में सूर्य की परिक्रमा करते हैं । सूर्य – रूप भी स्थिर नहीं है । इसी प्रकार समस्त विद्युतसत्त्व रश्मिपुञ्ज की परिक्रमा करते रहते हैं । इससे रश्मिपुञ्ज और विद्युत -तत्त्व परमाणुओं का अत्यल्प स्थान व्याप्त कर पाते हैं । उस व्याप्त स्थान की अपेक्षा परमाणु का बहुत – सा अन्तराकाश ठोस से ठोस परमाणु में शून्य रहता है। इसी से तो हम कहते हैं – “ अणोरणीयान् महतो महीयान् । ”

“ भगवान्, हम क्या शून्य को ही आकाश समझें ? शून्य तो नहीं है पर तत्त्व नहीं नहीं है; आकाश यदि तत्त्व है तो वह नहीं नहीं। है है। फिर भगवन् , वही आकाश परमाणु में भी व्याप्त व्याख्यात हुआ है । सो यदि वह शून्य है तो वह आकाश – तत्त्व नहीं है । ”– एक मागध छात्र ने शंका की ।

“ नहीं भद्र , आकाश शून्य का नाम नहीं है । आकाश तत्त्व एक अतिसूक्ष्म तरल पदार्थ है । यह तरल पदार्थ भूमण्डल के बाहर भी व्याप्त है, भीतर भी है। ग्रहों, नक्षत्रों और उनके मध्यवर्ती आकाश से लेकर ठोस – से -ठोस पदार्थों के अणओं में , यहां तक कि परमाण में भी वह व्याप्त है । यह सब सचराचर विश्व उसी द्रव – सत्त्व के अथाह समुद्र में रह रहा है । उसी से विद्युत – सत्त्व में शक्ति , प्रकाश में आलोक -प्रवाह और भूतत्त्व में स्थिर आकर्षण स्थापित है । ”

“ तो भगवन्, जड़ पदार्थ और शक्ति में सामञ्जस्य किस प्रकार है ? ”-तिब्बत के एक छात्र ने पूछा ।

“ पदार्थों के पुत्र, दो ही तो स्वरूप हैं या तो जड़- स्वरूप या शक्ति -स्वरूप । जड़ पदार्थ वे हैं , जिनमें भार और विस्तार , ये दो गुण समवाय सम्बन्ध में रहते हैं । शक्ति में कार्यक्षमता है, पर वह जड़ पदार्थ के आश्रय से रहती है । प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं हो सकती हैं : घन , द्रव और वाष्प । ये तीनों अवस्था ताप – शक्ति के कारण हैं । घन का प्रधान गुण काठिन्य है, द्रव का गुण समतल होना और वाष्प का जितना स्थान उसे मिले , सबमें व्याप्त हो जाना । ये जड़ पदार्थ अविनाशी हैं । उनके केवल रूपों का परिवर्तन होता है। ”

“ शक्ति -स्वरूप पदार्थ क्या है भगवन् ? ”ताम्रपर्णी के एक छात्र ने कहा।

“ बल , ताप, प्रकाश और विद्युत – सत्त्व ये चार प्रमुख शक्ति – पदार्थ हैं । पदार्थ के अणुओं की गतिज शक्ति को ताप कहते हैं । प्रकाश सीधी रेखा में गमन करता है, उस रेखा को रश्मि कहते हैं । विद्युत – सत्त्व और बल नियामक पदार्थ हैं । ”

“ तो भगवन् ! जब हम विद्युतसत्त्व और रश्मिपुञ्ज – क्षेपण से नाग ‘परमाणु तोड़कर पारद और पारद से सुवर्ण बना सकते हैं , तो फिर पारद ही से सुवर्ण क्यों न बना लिया जाए ? पारद तो सुलभ है। ”

“ है, किन्तु सौम्य, जब नाग- परमाणु विघटित होगा तो हमें पारद- परमाणु उसमें विघटित प्राप्त होगा , पारद में वह संगठित है । अत : उसे विघटित करने में हमें बड़ी बाधा यह है कि वह विघटित होते – होते और ताम्र में लय होते – होते , रश्मिपुञ्ज – क्षेपण – प्रक्रिया के कारण उड़ जाता है । उसे अग्नि -स्थिर करने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है, इसी से नाग परमाणु विघटित करके और उसे पारद – परमाणु का रूप देकर ताम्रविलय करना अधिक उपादेय है । फिर वह नाग पारद -विघटित परमाणु विद्युत – सत्त्व एवं रश्मिपुञ्ज प्रतिवाहति हो शक्ति बल और अवस्थान के अनुक्रम से शत – सहस्र- लक्ष कोटि वेधी हो जाता है। ”

“ किन्तु यदि पारद ही को अग्नि -स्थिर किया जाए ? ”

“ तो पहले उसे क्षार, अम्ल , लवण, मूत्र , पित्त , वैसा , विषवर्ग में स्नान कराना होगा , उसे केंचुली – रहित और बुभुक्षित करना होगा । बुभुक्षित होने पर उसे स्वर्णजीर्ण कराकर उसका बीजकरण करना होगा। तब वह भी शत – सहस्र – लक्ष- कोटि वेधी होगा । उसके लिए उसे खोटबद्ध करना होगा! फिर वह ताम्र -तार – वंग को वेध करेगा । ”

“ लोह – वेध क्या रसायन की इति है भगवन् ? ”

“ नहीं पुत्र , वह तो परीक्षण-माप है। रस सिद्ध होने पर जब देखो कि उसने लोहवेध कर लिया तब उसे भक्षण करो, देहवेध सिद्ध हो गया । ”

“ देहसिद्ध पुरुष के क्या लक्षण हैं भगवन् ? ”

“ पुत्र , देहसिद्ध पुरुष अत्यक्त – शरीर होते हैं , यह शरीर ही भोगों का आश्रयस्थल है , परन्तु वह स्थिर नहीं है। यह देहलोहसिद्ध रसायन ही उसे स्थैर्य देता है, काष्ठौषधनाग में , नाग वंग में , वंग ताम्र में , ताम्र तार में , तार स्वर्ण में और स्वर्ण पारद में लय होता है , सो यह सिद्ध धातुवेधी – शरीर- वेधी पारद शरीर को अजर – अमर करता है,स्थिर- देह पुरुष अभ्यासवश अष्टसिद्धियों का अनुष्ठाता, परम ज्योति -स्वरूप , अमल, गलितानल्प -विकल्प , सर्वार्थविवर्जित होता है । उसकी भृकुटि के मध्य में प्रकाश – तत्त्व और विद्युत्सत्त्व अधिष्ठित हो जाता है। उसी में दृष्टि को केन्द्रित करके वह सचराचर सब जगत् को प्रत्यक्ष देख पाता है । वह सब क्लेशों से रहित , शान्त और स्वयं वंद्य और अमितायु हो जाता है । ”

“ किन्तु भगवन् , क्या वृद्धावस्था और मृत्यु जीवन का अवश्यम्भावी परिणाम नहीं ? क्या वह नियत समय पर शरीर को आक्रान्त नहीं करती ? क्या वह किसी प्रकार टाली जा सकती है ? ”तिब्बत के पीतकेशी एक वटुक ने प्रश्न किया ।

आचार्य ने कहा – “ सौम्य , वृद्धावस्था और मृत्यु एक रोग है, शरीर के अवश्यम्भावी परिणाम नहीं । वे युक्ति और रसायन द्वारा टाले जा सकते हैं । शरीर जिन अवयवों से बना है, उनमें अनेक धातु और खनिज पदार्थ हैं , जिनका शरीर के पोषण में निरन्तर व्यय होता रहता है। सौम्य , युक्ति से इन पदार्थों के मूल अवयव शरीर में जीर्ण करने से यही शरीर चिरकाल तक स्थिर अमितायु हो जाता है ।

121 . अप्रत्याशित : वैशाली की नगरवधू

महारासायनिक कीमियागर गौड़पाद जिस समय देश -विदेश के वट्कों को रसायन के गुह्य – गहन तत्त्व समझा रहे थे और अजर – अमर होने के मूल सिद्धान्तों की गूढ़ व्याख्या कर रहे थे, तभी उन्हें हठात् एक अप्रत्याशित कण्ठ -स्वर सुनाई दिया ।

शताब्दियों पूर्व श्रुत -विश्रुत अप्रत्याशित कण्ठ – स्वर सुनकर आचार्य गौड़पाद चमत्कृत हुए । उन्होंने आंख उठाकर देखा कि सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक भद्रवसन धारण किए सम्मुख खड़ा मुस्करा रहा है । आचार्य के दृष्टि -निक्षेप करते ही सेट्टिपुत्र की आंखों से एक विद्युत्प्रभा निकल आचार्य को आन्दोलित कर गई। उन्हें फिर वही अप्रत्याशित, शताब्दियों पूर्व श्रुत कण्ठस्वर सुनाई दिया

“ सोऽहं सोऽहं गौड़पाद ! ”

एक चुम्बकीय आकर्षण के वशीभूत होकर गौड़पाद भ्रान्त हो दौड़कर सेट्ठिपुत्र के चरणों में लकड़ी के कुन्दे की भांति गिर गए ।

युवक सेट्ठिपुत्र ने लाल -लाल उपानत से अपना कमनीय चरण निकाल अंगुष्ठ के नख से आचार्य का भूपतित मस्तिष्क छूकर कहा

“ उत्तिष्ठ ! ”

गौड़पाद उठकर बद्धांजलि हो स्तवन करने लगे । वटुक आश्चर्य से मूढ़ बने खड़े रहे और यह अघटित घटना देखने लगे ।

सेट्ठिपुत्र ने हाथ उठाकर वटुकों को वहां से चले जाने का संकेत किया । भय , विस्मय और आश्चर्य से हतबुद्धि वटुक वहां से भाग गए। एकान्त होने पर सेट्ठिपुत्र ने एक आसन पर बैठकर गौड़पाद को भी सामने बैठने का आदेश दिया । दोनों में परिष्कृत संस्कृत में बातें होने लगीं। यहां हम अपनी भाषा में लिखेंगे । गौड़पाद ने कहा

“ देवाधिदेव यहां ? ”

“ तूने क्या देखा नहीं था ? ”

“ देखा था देव ! ”

“ तो आया क्यों नहीं ? ”

“ सन्देह में रहा देव ! ”

“ सोचता था अब मैं नहीं रहा ? ”

“ नहीं देव , यही विचारता रहा – देव यहां क्यों ? ”

“ क्या वैशाली मेरे लिए अगम्य है रे ? ”

“ देव के लिए ब्रह्माण्ड गम्य है परन्तु वैशाली का भाग्योदय क्यों ? ”

“ यह भण्ड कृतपुण्य कालिकाद्वीप से मेरा बहुत – सा रत्न – भण्डार और वाड़व अश्व हरण कर लाया है। ”

“ इसीलिए देव – दैत्य – पूजित श्रीमन्थान भैरव का इस लोक के मर्त्य शरीर में आगमन हुआ ! ”

“ नहीं रे गौड़पाद,मैं कौतूहलाक्रान्त भी हूं। ”

“ कैसा देव ? ”

“ अम्बपाली का रे, अभिरमणीय है न ? ”

“ है तो , किन्तु काकिणी नहीं है। ”

“ देख लिया है तूने ? ”

“ ठीक देखा है देव ? ”

“ तो दर्शनीय ही सही! ”

“ दर्शनीय तो है । ”

“ देखूगा , फिर। ”

“ एक और स्त्री है देव ! ”

“ काकिणी है ? ”

“ है, किन्तु अभिरमणीय नहीं है। ”

“ क्यों रे ? ”

“ विषकन्या है। ”

“ अच्छा – अच्छा , उसका मदभंजन करूंगा। कौन है वह ? ”

“ मागधी है, छद्मवेश में यहां भद्रनन्दिनी वेश्या बनी बैठी है। ”

“ अभिरमण करूंगा। ”

“ मर जाएगी देव ! ”

“ मरे , युद्ध कब होगा ? ”

“ नातिविलम्ब। ”

“ उत्तम है, रक्तपान करूंगा, कुरु -संग्राम के बाद रक्तपान किया ही नहीं है । कितनी सेना का विनाश होगा ? ”|

“ सम्भवत : तीन अक्षौहिणी देव ! ”

“ बहुत है, आकण्ठ तृप्ति होगी । सेट्टिपुत्र मृदुल भाव से मोहक मुस्कान कर आसन से उठ खड़ा हुआ। गौड़पाद ने पृथ्वी में गिरकर प्रणितपात किया , सेट्ठिपुत्र ने हंसकर कहा – “ रहस्य ही रखना, गौड़पाद। ”

“ जैसी देव की आज्ञा! ” वह देवजुष्ट सेट्ठिपुत्र चल दिया । गौड़पाद बद्धांजलि खड़े रहे ।

122 . प्राणाकर्षण : वैशाली की नगरवधू

उसी गम्भीर रात्रि में अर्धरात्रि व्यतीत होने पर किसी ने भद्रनन्दिनी के द्वार पर डंके की चोट की । प्रहरी शंकित भाव से आगन्तुक को देखने लगे । आगन्तुक देवजुष्ट सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक था । वह मोहक नागर वेश धारण किए वाड़वाश्व की वल्गु थामे मुस्करा रहा था । उसने सुवर्ण भरी हुई दो थैलियां प्रहरी पर फेंककर कहा- एक तेरे लिए, दूसरी तेरी स्वामिनी के लिए । आगत का वेश, सौंदर्य, अश्व और उसकी स्वर्ण – राशि देख प्रहरी , प्रतिहार , द्वारी जो वहां थे, सभी आ जुटे और कर्तव्य -विमूढ़ की भांति एक – दूसरे को देखने लगे । सेट्टिपुत्र ने कहा – “ क्या कुछ आपत्ति है भणे ? ”

“ केवल यही भन्ते , कि स्वामिनी आजकल किसी नागरिक का स्वागत नहीं करतीं। ”

“ इसका कारण क्या है मित्र ? ”

“ युद्ध की विभीषिका तो आप देख ही रहे हैं , राजाज्ञा है । ”

“ परन्तु मैं किसी की चिन्ता नहीं करता; तू मेरी आज्ञा से मुझे अपनी स्वामिनी के निकट ले चल । ”

“ किन्तु भन्ते…..! ”

“ क्या मैंने तुझे शुल्क और उत्कोच दोनों ही नहीं दे दिए हैं ? ”

“ दिए हैं भन्ते , यह आपका सुवर्ण है । ”

“ तब मंत्र पास एक और वस्तु है, देख ! ”यह कहकर उसने खड्ग कमर से निकाली । खड्ग देख और उससे अधिक नागरिक की दृढ़ मुद्रा देखकर प्रहरी -प्रतिहार भय से थर – थर कांपने लगे । उसके प्रधान ने कहा – “ भन्ते , हमारा अपराध नहीं है, हम स्वामिनी के अधीन हैं । ”

“ मैं तेरी स्वामिनी का स्वामी हूं रे! सेट्ठिपुत्र ने कहा और उन्हें खड्ग की नोक से पीछे धकेलता हआ ऊपर चढ़ गया ।

इस पर एक प्रतिहार ने दौड़कर मार्ग बताते हुए कहा – “ इधर से भन्ते , इधर से । ”

नग्न खड्ग लिए एक तरुण सुन्दर नागरिक को आते देख दासियां भय – शंकित हो पीछे हट गईं।

नागर हंसता हुआ कुण्डनी के सम्मुख जा खड़ा हुआ । कुण्डनी ने किंचित् कोप से कहा

“ आपको राजनियम की भी चिन्ता नहीं है भन्ते ? ”

“ नहीं सुन्दरी , मुझे केवल अपनी ही चिन्ता रहती है। ”

“ किन्तु मैं आपका स्वागत नहीं कर सकती । ”

“ ओह प्रिये, मैं इस थोथे शिष्टाचार की परवाह नहीं करता, बैठो तुम। ”

“ किन्तु मैं बैठ नहीं सकती। ”

“ तब नृत्य करो। ”

“ आप भद्र हैं , किन्तु आपका व्यवहार अभद्र है। ”

“ यह तो प्रिये, मैं तुमसे कह सकता हूं। ”

“ किस प्रकार ? ”

“ मैंने तुम्हारा शुल्क दे दिया , आज रात तुम मेरी वशवर्तिनी हो । मैं जिस भांति चाहूं, तुम्हारे विलास का आनन्द प्राप्त कर सकता हूं। ”

“ तो आप खड्ग की नोक चमकाकर विलास – सान्निध्य प्राप्त करेंगे ? ” नागर हंस पड़ा । उसने खड्ग एक ओर फेंककर कहा

“ ऐसी बात है तो यह लो प्रिये , परन्तु मेरा विचार था कि खड्ग से तुम आतंकित होनेवाली नहीं हो । ”

कुण्डनी समझ गई कि आगन्तुक कोई असाधारण पुरुष है। उसने कहा – “ भन्ते, यदि आप बलात्कार ही किया चाहते हैं तो आपकी इच्छा! ”

“ बलात्कार क्यों प्रिये, जितना अधिकार है, उतना ही बस। ”

“ तो भद्र, क्या आप पान करेंगे ? ”

“ मैं सब कुछ करूंगा प्रिये ! आज की रात्रि महाकाल – रात्रि है। तुम्हारी जैसी विलासिनी के लिए एकाकी रहने योग्य नहीं। फिर आज मैं बहुत प्रसन्न हूं। अब मैं तुम्हारे सान्निध्य में और भी प्रसन्न होना चाहता हूं। ”

कुण्डनी विमूढ़ की भांति आगन्तुक का मुंह ताकने लगी । फिर उसने मन का भाव छिपाकर हंसकर कहा – “ आप तो अद्भुत व्यक्ति प्रतीत होते हैं । ”

“ क्या सचमुच ? ”

“ नहीं तो क्या झूठ! ”उसने दासी को पान -पात्र लाने का संकेत किया । फिर नागर से कहा – “ तो आप बैठिए भन्ते ! ”

सेट्ठिपुत्र सोपधान आराम से बैठ गया । उसने हाथ खींचकर कुण्डनी को निकट बैठाते हुए कहा

“ तुम तो भुवनमोहिनी हो सुन्दरी! ”

“ ऐसा ? ”कुण्डनी ने व्यंग्य से हंस दिया और पान-पात्र बढ़ाया ।

“ इसे उच्छिष्ट कर दो प्रिये! ”

कुण्डनी ने शंकित नेत्रों से नागर को देखा, फिर कुछ रूखे स्वर में कहा “ नहीं भन्ते , ऐसा मेरा नियम नहीं है। ”

“ ओह, विलास में नियम- अनियम कैसा प्रिये! जिसमें मुझे आनन्द लाभ हो , वही करो प्रिये ! ”

“ तो आप आज्ञा देते हैं ? ”

“ नहीं प्रिये, विनती करता हूं। ”

नागर खिलखिलाकर हंस पड़ा। उस हास्य से अप्रतिहत हो छद्मवेशिनी कुण्डनी आगन्तुक को ताकने लगी । वह सोच रही थी – क्या यह मूढ़ अकारण ही आज मरना चाहता नागर ने तभी मद्यपात्र कुण्डनी के होठों से लगा दिया । कुण्डनी गटागट संपूर्ण मद्य पीकर हंसने लगी। नागर ने कहा – “ मेरे लिए एक बूंद भी नहीं छोड़ा प्रिये ! ”

“ उस पात्र में यथेष्ट है , तुम पियो भद्र ! ”

“ उस पात्र में क्यों ? तुम्हारे अधरामृत -स्पर्श से सुवासित सम्पन्न इसी पात्र में पिऊंगा, दो मुझे। ”

“ यह पात्र तो नहीं मिलेगा । ”

“ वाह , यह भी कोई बात है ? ”

“ यही बात है भन्ते , ” कुण्डनी ने वह पात्र एक ओर करते हुए कहा ।

“ समझ गया , तुम मुझ पर सदय नहीं हो प्रिये, मुझे आह्लादित करना नहीं चाहतीं । ”

“ उसके लिए तो मैं बाध्य हूं भन्ते ! ”

“ तो दो हला, वही पात्र भरकर, उसे फिर से उच्छिष्ट करके , उसे अपने अधरामृत की सम्पदा से सम्पन्न करके । ”

“ भन्ते , आप समझते नहीं हैं । ”

“ अर्थात् मैं मूढ़ हूं ! ”

“ यदि मैं यही कहूं ? ”

“ तो साथ ही वह पात्र भी भरकर दो तो क्षमा कर दूंगा । ”

“ नहीं दूंगी तब ? ”

“ तो क्षमा नहीं करूंगा। ”

“ क्या करोगे भन्ते ? ”

“ अधरामत पान करूंगा। ”

कुण्डनी सिर से पैर तक कांप गई। पर संयत होकर बोली – “ बहुत हुआ भन्ते , शिष्ट नागर की भांति आचार कीजिए। ”

“ तो वह पात्र दो प्रिये! कुण्डनी ने क्रुद्ध हो पात्र भर दिया ।

“ अब इसे उच्छिष्ट भी करो! ”

कुण्डनी ने होठों से छू दिया और धड़कते हृदय से परिणाम देखने लगी। नागर ने हंसते -हंसते पात्र गटक लिया । खाली पात्र कुण्डनी को देते हुए कहा – “ बहुत उत्तम सुवासित मद्य है , और दो प्रिये ! ”

कुण्डनी का मुंह भय से सफेद हो गया । पृथ्वी पर ऐसा कौन जन है, जो उस विषकन्या के होठों से छुए मद्य को पीकर जीवित रह सके ! परन्तु इस पुरुष पर तो कोई प्रभाव नहीं हुआ । उसने कांपते हाथों से पात्र भरा , एक घुट पिया और नागर की ओर बढ़ा दिया , नागर ने हंसते -हंसते पीकर खाली पात्र फिर कुण्डनी की ओर बढ़ा दिया और एक हाथ उसके कण्ठ में डाल दिया । उसे हटाकर कुण्डनी भयभीत हो खड़ी हो गई । वह सोच रही थी कौन है यह मृत्युञ्जय !

नागर ने कहा – “ रुष्ट क्यों हो गईं प्रिये ! ”

“ तुम कौन हो भन्ते ? ”

“ तुम्हारा तृषित प्रेमी हूं प्रिये, निकट आओ और मुझे तृप्त होकर आज मद्य पिलाओ। ”उसने अपने हाथों से पात्र भरकर कुण्डनी की ओर बढ़ाते हुए कहा “ सम्पन्न करो प्रिये! ”कुण्डनी आधा मद्य पी गई और विह्वल भाव से आगन्तुक की गोद में लुढ़क गई । उसकी सुप्त – लुप्त वासना जाग्रत हो गई । उसने देखा , इस मृत्युञ्जय पुरुष पर उसका प्रभाव नहीं है । न जाने कहां से आज की कालरात्रि में उसके विदग्धभाग्य और असाधारण जीवन को , जिसके विलास में केवल मृत्यु विभीषिका ही रहती रही है, यह गूढ़ पुरुष आ पहुंचा है । उसने अंधाधुन्ध मद्य ढाल -ढालकर स्वयं पीना और पुरुष को पिलाना प्रारम्भ किया । अंतत : अवश हो आत्मसमर्पण के भाव से वह अर्धनिमीलित नेत्रों से एक चुम्बन की प्रार्थना – सी करती हुई उसकी गोद में लुढ़क गई । यह दृष्टि उन दृष्टियों से भिन्न थी जो अब तक मृत्यु – चुम्बन देते समय वह अपने आखेटों पर डालती थी । मदिरा के आवेश में उसके उत्फुल्ल अधर फड़क रहे थे। उन्हीं फड़कते और जलते हुए अधरों पर मदिरा से उन्मत्त नागर ने अपने असंयत होंठ रख दिए । परन्तु यह चुम्बन न था , प्राणाकर्षण था । एक विचित्र प्रभाव से अवश होकर कुण्डनी के होठ आप- ही – आप खल गए . उसके श्वास का वेग बढ़ता ही गया । शरीर और अंग निढाल हो गए, देखते – ही – देखते कुण्डनी के चेहरे पर से जीवन के चिह्न लोप होने लगे। शरीर में रक्त का कोई लक्षण न रह गया और वह कुछ ही क्षणों में मृत होकर उस मृत्युञ्जय पुरुषसत्त्व की गोद में लुढ़क गई ।

तब उसके मृत शरीर को भूमि पर एक ओर फेंककर तृप्त होकर भोजन किए हुए पुरुष के समान आनन्द और स्फूर्ति से व्याप्त वह पुरुष निश्चित चरण रखता हुआ उस तथाकथित नागपत्नी – वेश्या भद्रनन्दिनी के आवास से बाहर आ , एक मुट्ठी सुवर्ण प्रहरियों , दौवारिकों तथा दण्डधरों के ऊपरफेंक वाड़वाश्व पर चढ़ अन्धकार में लोप हो गया ।

123 . अनागत : वैशाली की नगरवधू

अम्बपाली का जन्म -नक्षत्र था । वैशाली में उसका उत्सव मनाया जा रहा था । सम्पूर्ण नगर तोरणों -ध्वजाओं और विविध पताकाओं से सजाया गया था । संथागार की छुट्टियां कर दी गई थीं । गत आठ वर्षों के लिच्छवि गणतन्त्र का यह एक जातीय त्योहार – सा हो गया था ।

अम्बपाली के आवास सप्तभूमि -प्रासाद ने भी आज शृंगार किया था , परन्तु यह कोई नहीं जानता था कि यह उसका अन्तिम शृंगार है। सहस्रों दीपों की झिलमिल ज्योति के नीलपद्म सरोवर में प्रतिबिम्बित होने से ऐसा प्रतीत हो रहा था , मानो स्वच्छ नील गगन अगणित तारागण सहित सदेह ही भूमि पर उतर आया है । उस दिन देवी की आज्ञा से आवास के सम्पूर्ण द्वार खोल दिए गए थे और जनसाधारण को बे – रोक-टोक वहां आने की स्वच्छन्दता थी । आवास में आज वे लोग भी आनन्द से आ – जा रहे थे, जो कभी वहां आने का साहस नहीं कर सकते थे ।

सातवें अलिन्द में देवी अम्बपाली अपनी दासियों, सखियों और नर्तकियों सहित नगर के श्रीमन्त सेट्रिपत्रों और सामन्तपुत्रों का हंस -हंसकर स्वागत एवं मनोरंजन कर रही थीं । बहुमूल्य उपहारों का आज ढेर लगा था , फिर भी तांता लग रहा था । सुदूर चम्पा , ताम्रपर्णी, सिंहल, श्रावस्ती, कौशाम्बी और विविध देशों से अलभ्य भेंट ले – लेकर प्रतिनिधि आए थे। उनमें गज , अश्व , मणि , मुक्ता , रजतपात्र, अस्त्र – शस्त्र , कौशेय सभी कुछ थे। उनको एक कक्ष में सुसज्जित किया गया था और प्रदर्शन किया जा रहा था । उन्हें देख – देखकर लोग कौतूहल और आश्चर्य प्रकट कर रहे थे। बहुत सेट्ठिपुत्र और सामन्तगण अपनी – अपनी भेंटों को उसके समक्ष नगण्य देखकर लज्जा की अनुभूति कर रहे थे। उन्हें देवी अम्बपाली अपने स्वच्छ हास्य एवं गर्मागर्म सत्कार से सन्तुष्ट कर रही थीं ।

सुगन्धित मद्य ढाली जा रही थी और विविध प्रकार के भुने और तले हुए मांस , भक्ष्य – भोज्य स्वच्छन्दता से खाए -पीये जा रहे थे। दीपाधारों पर सहस्र – सहस्र दीप सुगन्धित तेलों के कारण सुरभि -विस्तार कर रहे थे। सैकड़ों धूप स्तम्भों पर सुगन्धित – द्रव्य जलाए जा रहे थे। सुन्दरी युवती दासियां पैरों में पैंजनियां पहने, कमर में मणिमुक्ता की करधनी लटकाए मृणाल – भुजदण्डों के बड़े- बड़े रत्नों के वलय पहने , कानों में हीरे के मकरकुण्डल झुलाती , इठलाती , मुस्काती , बलखाती , फुर्ती और चुस्ती से मद्य ढालती , चन्दन का लेप करती , नागरजनों को पुष्पहार पहनाती, द्यूत के आसन बिछाती , उपाधान लगाती और विविध भोज्य पदार्थ इधर से उधर पहुंचाती फिर रही थीं । स्वयं देवी अम्बपाली एक भव्य शुभ्र कौशेय धारणकर चारों ओर अपनी हंस की – सी चाल से चलती हुईं मन्द मुस्कान और मृदु- कोमल विनोद -वाक्यों से अतिथियों का मन मोहती फिर रही थीं ।

मध्य रात्रि व्यतीत होने लगी । पान – आहार समाप्त होने पर आया । अनावश्यक भीड़ छंट गई । केवल बड़े – बड़े सामन्तपुत्र और सेट्टिपुत्र अब निराला पा अपने – अपने उपधानों पर उठंग गए । उनकी अलस देह, अधमुंदी आंखें और गद्गद वाणी प्रकट कर रही थी कि वे आज इस लोक में नहीं , प्रत्युत मायापूरित किसी अलौकिक स्वर्गलोक में पहुंच चुके हैं ।

मद्य की झोंक में युवराज स्वर्णसेन ने कहा – “ देवी, इस परमानन्द के अवसर पर एक ही अभिलाषा रह गई । ”

“ तो समर्थ युवराज, अब उसे किस अवसर के लिए अवशिष्ट रखते हैं ? पूरी क्यों नहीं कर लेते ? ”

“ खेद है, पूरी नहीं कर सकता। ”उन्होंने हाथ का मद्यपात्र खाली करके मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने उसमें और मद्य ढाल दी ।

अम्बपाली ने मन्द मुस्कान करके कहा – “ क्यों नहीं युवराज ? ”

युवराज ने ठण्डी सांस लेकर कहा – “ ओह , बड़ी अभिलाषा थी । ”

“ हाय – हाय ! ऐसी अभिलाषा की वस्तु यों ही जा रही है । परन्तु युवराज प्रिय , क्या उसकी पूर्ति एक बार परिपूर्ण छलकते मद्यपात्र को पीने से नहीं हो सकती ? ”

“ नहीं – नहीं , सौ पात्रों से भी नहीं, सहस्र पात्रों से भी नहीं । ”यह कहकर उन्होंने वह प्याला भी रिक्त करके मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने देवी का इंगित पा उसे फिर आकट भर दिया । देवी ने कृत्रिम गाम्भीर्य धारण करके कहा- “ प्रिय सूर्यमल्ल , प्रियव्रत , अरे, प्राणसखाओं, यहां आओ, भाई युवराज की एक अभिलाषा आज अपूर्ण ही रह जाती है , वह सौ मद्यपात्र पीने से भी नहीं पूरी हो रही है। ”

दो – चार मित्र अपने – अपने मद्यपात्र लिए हंसते हुए वहां आ जुटे । स्वर्णसेन खाली मद्यपात्र हाथ में लिए ठण्डी सांस ले रहे थे ।

सोमदत्त ने कहा – “ क्या मेरा यह पात्र पीने से भी नहीं मित्र ? ”

“ नहीं रे नहीं ; ओफ ! अन्तस्तल जला जा रहा है । ”

“ अरी ढाल री , दाक्खारस ढाल , युवराज का अन्तस्तल जला जा रहा है । ”देवी अम्बपाली ने हंसकर मदलेखा से कहा ।

सभी मित्र हंसने लगे। प्रियवर्मन् ने कहा – “ युवराज की उस अपूर्ण अभिलाषा के समर्थन में एक – एक परिपूर्ण पात्र और पिया जाय। ”

सबने पात्र भरे , स्वर्णसेन ने भी रिक्त पात्र मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने दाक्खारस ढाल दिया ।

सोमदत्त ने कहा – “ मित्र युवराज, आपकी वह अभिलाषा क्या है ? ”

“ यही कि इस समय दस्यु बलभद्र यदि यहां आमन्त्रित किया गया होता , तो इस मद्य में अपने खड्ग को डुबोकर उसके वक्ष के आर -पार कर देता। ”

“ तो देवी अम्बपाली , आपने यह अच्छा नहीं किया, दस्यु बलभद्र को निमन्त्रित करना ही भूल गईं! ”

“ भूल नहीं गई प्रिय, मैं तो केवल नागरिकों को ही निमन्त्रित कर सकती हूं, दस्यु बलभद्र तो अनागरिक है। ”अम्बपाली ने हंसकर कहा ।

सूर्यमल्ल ने हंसकर कहा- “ अरे मित्र, यह कौन बड़ी बात है! आज सूर्योदय से पूर्व ही तुम अपनी अभिलाषा पूरी कर लेना। ”

देवी अम्बपाली ने कहा – “ मित्रो, क्या तुममें से किसी ने दस्यु को देखा भी है ? ”

“ नहीं , नहीं देखा है । ”

“ तो यदि वह छद्मवेश धारण करके यहां आया हो , आकर पान – गोष्ठी का आनन्द लूट रहा हो तो ? ”

“ तो , यह तो बड़ी दूषित बात होगी । ”– सूर्यमल्ल ने कहा ।

“ दूषित किसलिए प्रिय ? ”

“ हम नागरिकों के साथ एक दस्यु पान करे! ”

“ परन्तु मैं सोचती हूं भद्र , कि किसी भांति हम जान जाएं कि वन्य पशु -पक्षी हम लोगों के विषय में क्या सोचते होंगे , तो सम्भव है, हम जानकर आश्चर्य करें कि वे हम भद्र नागरिकों में बहुत – से दोषों का उद्घाटन कर लेंगे। ”

“ किन्तु यदि देवी उस दस्यु को एक बार देख पाएं … ? ”

“ तो मैं उसे स्वयं एक पात्र भरकर दूं और अपने को प्रतिष्ठित करूं । ”

“ प्रतिष्ठित ? ”सूर्यमल्ल ने चिढ़कर कहा ।

“ क्यों नहीं मित्र , अन्तत : वह एक साहसिक और वीर पुरुष तो है ही । ”

“ यह तो तभी कहा जा सकता है, जब वह एक बार हमारे खड्ग का पानी पी जाय । ”

“ तो जब उसने वजीभूमि में चरण रखा है, तो एक दिन यह होगा ही और यदि सूर्यमल्ल की भविष्यवाणी सत्य है तो आज ही । किन्तु यह बलभद्र है कौन ? ”

“ आपके इस प्रश्न का उत्तर जाननेवाले को गणपति ने दस सहस्र स्वर्ण भार देने की घोषणा की है। ”

“ तो यह भी हो सकता है भद्र, कि यह दस सहस्र स्वर्णभार उस सूचना देनेवाले पुरुष के सिर का ही मोल हो । ”

इसी समय कक्ष के एक ओर से किसी ने शान्त -स्निग्ध किन्तु स्थिर वाणी में कहा –

“ देवी अम्बपाली अपने हाथों से एक पात्र मद्य देकर यदि अपने को सुप्रतिष्ठित करना चाहें तो यह उनके लिए सर्वोत्तम अवसर है! ”

सबने आश्चर्यचकित होकर उधर देखा । स्तम्भ की ओट से एक दीर्घकाय , बलिष्ठपुरुष नग्न खड्ग हाथ में लिए धीर गति से आगे बढ़ रहा था । उसका सर्वांग काले वस्त्र से आवेष्टित था और मुख पर भी काला आवरण पड़ा हुआ था ।

यह अतर्कित – असम्भाव्य घटना देखकर क्षण – भर के लिए सब कोई विमूढ़ हो गए । अम्बपाली उस कण्ठ – स्वर में कुछ-कुछ परिचित ध्वनि पाकर सन्देह और उद्वेग से उस आगन्तुक को देखने लगीं। इसी समय सूर्यमल्ल ने खड्ग लेकर आगे बढ़कर कहा – “ यदि तुम वही दस्यु हो , जिसकी हम अभी चर्चा कर रहे थे, तो तुम्हें इसी क्षण मरना होगा । ”

“ जल्दी और व्यवस्था -क्रम भंग मत करो मित्र सूर्यमल्ल ! मैं वही हूं , जिसकी तुम लोग चर्चा कर रहे थे। परन्तु मैं तुमसे अभी क्षण – भर बाद बात करूंगा, पहले देवी अम्बपाली एक चषक मद्य अपने हाथों मुझे प्रदान कर सुप्रतिष्ठित हों और मुझे आप्यायित करें । ”

सूर्यमल्ल ने बिना कुछ बोले खड्ग उठाया । अम्बपाली ने अब आगन्तुक के कण्ठ स्वर को भली- भांति पहचान लिया । उन्होंने आगे बढ़कर सूर्यमल्ल का हाथ पकड़कर कहा

“ ठहरो भद्र, पहले मद्य दूंगी । ”उन्होंने अपने हाथों मद्यपात्र भरकर आगे बढ़कर दस्यु को दिया ।

मद्य पीकर उसने पात्र आधार पर रख दिया और कहा – “ सुप्रतिष्ठित हुआ देवी ! ”

“ मैं सुप्रतिष्ठित हुई भन्ते ! ”

सूर्यमल्ल ने आगे बढ़कर कहा – “ बहुत हुआ देवी अम्बपाली , अब आप तनिक हट जाइए । ”

“ परन्तु मेरे आवास में आज रक्तपात नहीं होगा, ” उन्होंने आगे बढ़कर कहा ।

दस्यु ने कहा – “ देवी अम्बपाली ! आज सबकी इच्छा पूरी होने दो । मित्र सूर्यमल्ल , तुम्हारी पारी क्षण – भर बाद आएगी । अभी युवराज स्वर्णसेन , अपनी वह चिरभिलषित इच्छा पूरी करें , जो शत – सहस्र मद्यपात्रों से भी पूर्ण होने वाली नहीं थी । ”फिर थोड़ा आगे बढ़कर कहा – “ मित्र स्वर्णसेन , यह सेवक दस्यु बलभद्र उपस्थित है । खड़े हो जाओ, हाथ का मद्यपात्र रख दो । वह सम्मुख खड्ग है, उठा लो और झटपट चेष्टा करके देखो , कि अभिलाषा पूर्ति कर सकते हो या नहीं ; क्योंकि जब मैं अपनी अभिलाषा पूर्ति करने में जुट जाऊंगा, तो फिर युवराज की मन में रह जाएगी । अवसर नहीं मिलेगा । ”

कक्ष में उपस्थित स्त्री – पुरुष स्तब्ध आतंकित खड़े थे। केवल अम्बपाली का रोम – रोम पुलकित हो रहा था । उन्होंने दस्यु को और दस्यु ने उनको चुराई आंखों में देखकर मन – ही मन हंस दिया ।

दो पग आगे बढ़कर खड्ग को हवा में ऊंचा उठाते हुए दस्यु ने कहा – “ उठो युवराज, मुझे अभी बहुत काम है, आज देवी अम्बपाली का जन्म -नक्षत्र है । आज प्रत्येक नागरिक की मनोभिलाषा पूरी होनी चाहिए। ”

युवराज अभी नशे में झूम रहे थे। अब उन्होंने हाथ का मद्यपात्र फेंक लपककर एक भारी बर्छा भीत से उठा लिया । अन्य लिच्छवि तरुणों ने भी खड्ग खींच लिए ।

दस्यु ने उनकी ओर देखकर कहा – “ मित्रो, पहले युवराज। ”

युवराज ने इसी समय प्रबल वेग से बर्खाफेंका। दस्यु ने उछलकर एक खम्भे की आड़ ले ली । बर्छा खम्भे से टकराकर टूट गया । दस्यु ने आगे बढ़कर युवराज स्वर्णसेन के कण्ठ में हाथ डालकर उन्हें आगे खींच लिया और कण्ठ पर खड्ग रखकर कहा – “ अब इस खड्ग से क्या मैं तुम्हारा सिर काट लूं युवराज ? ”

“ नहीं -नहीं, इस समय यहां ऐसा नहीं होना चाहिए । ”अम्बपाली ने कातर कण्ठ से कहा।

दस्यु ने हंसकर कहा – “ यही मेरी भी इच्छा है, परन्तु इसके लिए घुटने टेककर युवराज को प्राण-भिक्षा मांगनी होगी।

स्वर्णसेन ने सूखे होंठ चाटकर कहा – “ मेरा खड्ग कहां है ? ”

“ यह है मित्र , ” दस्यु ने खड्ग उठाकर युवराज परफेंक दिया । युवराज ने भीम वेग से आगे बढ़कर दस्यु पर खड्ग का प्रहार किया , परन्तु नशे के कारण वार पृथ्वी पर पड़ा।

दस्यु धीरे – से एक ओर हट गया । युवराज झोंक न संभाल सकने के कारण औंधे मुंह पृथ्वी पर गिर गए ।

दस्यु ने एक लात मारकर कहा- “ अब घुटनों के बल बैठकर प्राणदान मांगो युवराज ! ”और उसने अनायास ही युवराज को अपने चरणों पर लुटा दिया ।

अम्बपाली ने हर्षातिरेक से विह्वल होकर कहा – “ ओह ! ”

परन्तु दूसरे ही क्षण क्रुद्ध सामन्तपुत्र चारों ओर से खड्ग ले – लेकर दौड़े ।

“ जो जहां है, वहीं खड़ा रहे । ”दस्यु ने कड़कते स्वर में कहा – “ मैं यहां तुम मद्यप स्त्रैणों की हत्या करने नहीं आया हूं ! ”

लोगों ने भयभीत होकर देखा – अनगिनत काली- काली मूर्तियां प्रेत की भांति कक्ष में न जाने कहां से भर गईं । सबके हाथ में विकराल नग्न खड्ग थे।

दस्यु ने कहा – “ एक – एक आओ और अपने – अपने स्वर्ण- रत्न , आभरण अंगों पर से उतारकर यहां मेरे चरणों में रखते जाओ!

सबने देखा, प्रत्येक के पृष्ठ पर एक – एक यम नग्न खड्ग लिए खड़ा है । सब जड़वत् खड़े रहे ।

“ पहले तुम स्वर्णसेन ।” — दस्यु ने युवराज की गर्दन पर खड्ग की नोक रखकर कहा।

स्वर्णसेन ने अपने रत्नाभरण उतारकर चुपचाप दस्यु के पैरों में रख दिए । इसके अनन्तर एक – एक करके सबने उनका अनुसरण किया ।

दस्यु ने मुस्कराकर कहा – “ हां अब ठीक हुआ । ”अम्बपाली ने मदलेखा को संकेत किया , वह कक्ष में गई और एक रत्न -मंजूषा लेकर लौट आई , उसे अम्बपाली ने अपने हाथों में ले चुपचाप दस्यु के चरणों में रख दिया ।

इसी समय महाप्रतिहार ने भय से कांपते – कांपते आकर कहा – “ देवी , सम्पूर्ण आवास को सहस्रों दस्युओं ने घेर लिया है। ”

अम्बपाली ने स्निग्ध स्वर में कहा

“ आगार -जेट्ठक को कह भद्र कि सब द्वार खोल दे, सब पहरे हटा ले , समस्त भण्डार उन्मुक्त कर दे और दस्यु से कह कि वे सम्पूर्ण आवास लूट ले जायं। ”

प्रतिहार भयभीत होकर कभी देवी और कभी दस्युपति के चरणों में पड़ी रत्न – राशि की ओर, कभी प्रस्तर- प्रतिमा की भांति अवाक् -निस्पन्द खड़े सेट्ठि – सामन्त – पुत्रों को देखने लगा । फिर चला गया । अम्बपाली ने कल में खड़े दस्युओं को सम्बोधित करके कहा – “ मित्रो , उस कक्ष में आज की बहुमूल्य उपानय उपहार -सामग्री एकत्रित है, इसके अतिरिक्त आवास में शत – कोटि स्वर्णभार, बहुत – सा अन्न – भण्डार तथा गज , रथ , अश्व हैं । वह सब लूट लो । अनुमति देती हूं, आज्ञा देती हूं! ”ऐसा प्रतीत होता था जैसे देवी अम्बपाली के शरीर का एक – एक रक्त -बिन्दु आनन्द से नृत्य कर रहा था ।

दस्यु बलभद्र ने संकेत से सबको रोककर फिर अम्बपाली की ओर घूरकर कहा – “ देवी और सब तथाकथित भद्र जन उस कक्ष के उस पार अलिन्द में तनिक चलने का कष्ट करें । ”

सबने दस्यु की आज्ञा का तत्क्षण पालन किया । अलिन्द में जाकर दस्यु ने द्वार का आवरण उघाड़ दिया । सबने देखा कि नीचे प्रांगण में असंख्य नरमुण्ड खड़े हैं । सबकी पीठ पर एक – एक गठरी है ।

बलभद्र ने पुकारकर कहा- “ मित्रो, तुमने देवी अम्बपाली के आवास से क्या लूटा है ? ”

“ हमने केवल अन्न लिया है भन्ते! ”

अम्बपाली ने कहा – “ मेरे आवास में शत – कोटि स्वर्णभार और अनगिनत रत्न चहबच्चों और खत्तों में भरे पड़े हैं । सबके द्वार उन्मुक्त हैं , तुम लूट क्यों नहीं लेते प्रियजनो ? ”

“ नहीं – नहीं देवी , हम ऐसे दस्यु नहीं हैं । हम भूखे ग्रामीण कृषक हैं । अंतरायण के अधिकारियों ने सेना भेजकर हमसे बलि ग्रहण कर ली थी , वे हमारी सारी फसल उठाकर ले गए हैं , हमारे बच्चे भूखों मर रहे थे। देवी की जय रहे! अब वे पेट भरकर खाएंगे। ”

दस्यु ने कहा – “ देवी अम्बपाली, यह गणतन्त्र भी उसी भांति गण – शोषक है, जैसे साम्राज्य । यहां भी दास हैं , दरिद्र हैं और ये निकम्मे मद्यप स्त्रैण सामन्तपुत्र हैं । ये सेट्टिपुत्र हैं । आज ये कंकड़ – पत्थर की भांति अरब – खरब के रत्न – मणि अपने शरीर पर लादकर इन भूखे-नंगे कृषकों को लूटने को सेना भेजकर यहां मदमत्त होने आए हैं । ये सभी गणरक्षक तो यहां हैं , जो निर्लज्ज की भांति वीर – दर्प करते हैं । देवी ! मैं ये हीरे – मोती इन्हीं कृषकों को लौटा देना चाहता हूं , जिनके पेट का अन्न छीनकर ये मोल लिये गए हैं । इन्हें फिर से बेचकर ये अन्न मोल लेकर अपने बच्चों को खिलाएंगे और वस्त्र पहनाएंगे । ”

दस्यु की आंखों से आग की झरें निकल रही थीं । इसी समय मदलेखा धीरे- धीरे आगे बढ़ी । उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए । उनमें उसके दो – तीन आभरण थे। मृदु मन्द स्वर से कहा – “ ये मेरे हैं भन्ते , इन्हें लेकर मुझे भी अनुग्रहीत कीजिए! ”

कठोर दस्य द्रवित हआ । उसने आशीर्वाद का वरद हस्त उस क्रीता दासी के मस्तक पर रखा और फिर कहा – “ मित्रो , अब तुम शान्त भाव से अपने – अपने स्थान को चले जाओ। ”

सबके चले जाने पर दस्यु ने कहा – “ आप सब जो जहां हैं , घड़ी – भर वहीं रहें ! ”

सबने चुपचाप दस्यु की आज्ञा का पालन किया । दस्यु – समुदाय वहां से उसी प्रकार लोप हो गया , जिस प्रकार प्रकट हुआ था ।

124 . एकाकी : वैशाली की नगरवधू

जयराज ने साहस किया । वे लोमड़ी की भांति चक्कर काटकर अगले गांव की ओर बढ़े । वे जानते थे, वह ग्राम बड़ा था तथा वहां ठहरने की भी सुविधाएं थीं । ये ग्राम मल्लों और कोलों के थे। इससे जयराज को यह भी आशा थी कि आवश्यकता होने पर नगरपाल या ग्राम – जेट्ठक उनकी सहायता कर सकेगा । मार्ग में एक निविड़ वन पड़ता था । रात अंधेरी थी और जयराज के पास अश्व भी न था । अन्धकार और भय का परस्पर सम्बन्ध है , जयराज एक जीवट के पुरुष थे। कार्यगुरुता समझ उन्होंने प्रत्येक मूल्य पर आगे चले जाना ही ठीक समझा। वे नग्न खड्ग हाथ में लिए गहन वन में घुस गए। सम्पूर्ण रात्रि उनको चलते ही व्यतीत हुई। थकान , प्यास और भूख जब असह्य हो गई, तब उन्होंने एक वृक्ष का आश्रय ले शेष रात काटी । कुछ देर विश्राम करने से उन्हें थोड़ा सुख मिला। सूर्योदय से कुछ पूर्व ही वे फिर चल पड़े । थोड़ी ही देर में उन्हें राजमार्ग दीख पड़ा । तीन ओर से तीन मार्ग आकर मिले थे। निकट ही वह ग्राम था । ग्राम में आहार – आश्रय पाने की आशा से शीघ्र -शीघ्र चलने लगे। इसी समय एक सार्थवाह का साथ हो गया । इसमें सब मिलाकर छ: पुरुष , चार अश्व और तीन टाघन थे। ये मैरेय के कुप्यक लेकर राजगृह जा रहे थे। जयराज इनसे बात ही कर रहे थे कि चार और मनुष्य इस मण्डली में आ मिले । सार्थवाहों ने कहा – “ ये अपने ही जन हैं , पीछे रह गए थे। ”जयराज को सन्देह हुआ , परन्तु वह उन्हीं के साथ बातें करते हुए चलने लगे । उन्होंने अपने को एक वस्त्र -व्यवसायी बताया । इस पर उनमें से एक उनके लम्बे खड्ग की ओर देखकर खिलखिलाकर हंस पड़ा ।

दो दण्ड दिन चढ़ते – चढ़ते वे सब उस ग्राम में जा पहुंचे। ग्राम सम्पन्न और बड़ा था । उसमें पक्की अटारियां थीं । भद्रवसन जन भी थे। खाद्य -हाट भी थी । नगर के बाहर ही एक पान्थागार था । उसी में सबने विश्राम किया । सबके साथ मिलकर जयराज भी खाने- पीने की व्यवस्था में लग गए। निकट ही एक छोटी – सी नदी थी । वहां जाकर उन्होंने स्नान किया , वस्त्र धोए, फिर भोजन बनाया । साथी सार्थवाह भी इधर -उधर फैलकर खाने की खटपट में लगे । परन्तु उनका व्यवहार सन्देहप्रद था । जयराज ने देखा , वे अत्यन्त गुप्त भाव से उन्हीं पर दृष्टि दिए हैं । उन्हें भी सन्देह हुआ कि सम्भवत : वे किसी आगन्तुक की प्रतीक्षा कर रहे हैं । सन्देह बढ़ता ही गया और जयराज नग्न खड्ग पास रख भोजन बनाने लगे । उनके खड्ग को देखकर जो हंसा था , उसने दिल्लगी से कहा – “ भन्ते , यह क्या बात है ? आप भात भी क्या खड्ग से ही खाते हैं ? ”

जयराज ने हंसकर कहा, “ नहीं मित्र, परन्तु कुत्ते -बिल्ली का भय तो है ही । ”

“ ओह, तो इसीलिए नग्न खड्ग निकट रख भोजन बना रहे हैं । ”

“ इसी से मित्र! ”

सार्थवाहजनों ने कुटिल मुस्कान डाली ।

जयराज ने भोजन तैयार होने पर भोजन करने को हाथ बढ़ाया , इसी समय काणे चाण्डाल मुनि ने आगे बढ़कर कहा

“ आयुष्मानो , मैं जन्मत : चाण्डाल हूं। ब्रह्मचर्य – व्रत मैंने धारण किया है। यम नियमों का विधिवत् पालन करता हूं । मैं रांधकर नहीं खाता । अपने बचे हुए आहार में से थोड़ा मुझे दो । ”

उस धूर्त काणे नापित गुप्तचर को अपने सिर पर उपस्थित देखकर जयराज का माथा ठनका। उन्होंने सोचा, ब्राह्मण महामात्य की सहस्र आंखें हैं , सहस्र भुजाएं हैं । उसकी दृष्टि से बचकर कुछ नहीं किया जा सकता । कैसे यह काणा नापित इस समय यहां उपस्थित हो गया !

किन्तु शेष सार्थवाहजनों ने ससम्भ्रम उठकर काणे मुनि का बहुत – बहुत स्वागत सत्कार किया और विविध भावभंगी दिखाकर कहा – “ आइए मुनि , आइए भदन्त , यह आसन है, हमारा आज का भोजन ग्रहणकर हमें कृतार्थ कीजिए! ”

जयराज पर अब सार्थवाहजनों की वास्तविकता भी प्रकट हो गई । निस्सन्देह ये सब मागध गुप्तचर थे। उन्होंने मन की चिन्ता मन ही में छिपाकर हंसकर उस छद्मवेशी काणे मुनि के सत्कार में साथियों का योग दिया । काणा विविध सेवा- सत्कार से सन्तुष्ट हो , धार्मिक कथा कहकर उन्हें सम्बोधित करने लगा । जयराज अपनी आत्मरक्षा के लिए योजना स्थिर करने लगे । उन्होंने सोचा निस्सन्देह आज एक बड़ी योजना का सामना करना पड़ेगा । उन्होंने मन – ही – मन कर्तव्य स्थिर किया और साथियों से कहा

“ मित्रो, मैं एक अश्व खरीदना चाहता हूं , क्या यहां मिलेगा ? ”

“ कैसे कहें भन्ते , हम तो सब नवागन्तुक हैं । ”

“ परन्तु कोई एक मेरे साथ बस्ती में चले , तो अश्व देखा जाए। ”

सार्थवाहों ने दृष्टि- विनिमय किया । एक ने उठकर कहा – “ मैं चलता हूं भन्ते !

दोनों गांव में चक्कर काटने और अश्व ढूंढ़ने लगे । ढूंढ़ते -ढूंढ़ते वे कोटपाल के घर के निकट पहुंचे। वहां पहुंचकर जयराज ने कहा – “ मित्र , यह कोटपाल का घर है। क्यों न इससे सहायता ली जाए ! ”

साथी हिचकिचाया , परन्तु उसे सहमत होना पड़ा । कोटपाल के निकट जाकर जयराज ने अश्व खरीदने में उसकी सहायता मांगी। कोटपाल के पास एक अड़ियल टटू था । उसकी बहुत – बहुत प्रशंसा करके उसने वह टटू जयराज के गले मढ़ दिया । जान बूझकर जयराज ने टटू पसन्द कर लिया । टटू की चाल की परीक्षा करने और पान्थागार से सुवर्ण ले आने के बहाने जयराज उस व्यक्ति को कोटपाल के निकट बैठाकर तथा “ अभी मुहूर्त भर में लौटकर आता हूं “ कहकर वहां से टटू ले , नि : शंक जिस तीव्र गति से जाना शक्य था , राजगृह के मार्ग पर दौड़ चले । सूर्यास्त तक वे चलते गए । टटू अड़ता था , परन्तु उसे विशेष बाधा न होती थी । रात होते -होते जयराज एक दूसरे ग्राम के निकट पहुंचे। वहां एक चैत्य में एक क्षपणक रहता था । उसकी अनुमति से उन्होंने वहीं रात काटने का विचार किया । क्षपणक थोड़ा धन पाकर सन्तुष्ट हो गया । आहार से निवृत्त होकर जयराज ज्यों ही शयन की व्यवस्था कर रहे थे कि वही काणा उनके निकट पहुंचा। पहुंचकर कहा – “ मैं चाण्डाल कुल का ब्रह्मचारी हूं , अष्टांग यम -नियम का विधिवत् …..। ”

उस धूर्त काणे गुप्तचर को प्रेत की भांति अपने पीछे लगा देख जयराज क्रोध से पागल हो गए , परन्तु उन्होंने उठकर उस कपट मुनि का सत्कार करके कहा – “ भदन्त , भोजन मैं कर चुका, आहार शेष नहीं है । क्या स्वर्ण दूं ? ”

“ नहीं उपासक! मैं स्वर्ण नहीं छूता, हाथ से रांधकर खाता भी नहीं । ”

“ तो दु: ख है भदन्त ! तुम किसी गृहस्थ से भोजन ले आओ। ”

“ या निराहार ही सो रहूं ? जैसा तू कहे उपासक!

“ जिसमें भदन्त अपना धर्म समझें। ”

जयराज कक्ष में जा , दीपक एक कोने में रख , भूमि पर बिछौना बिछा सो गए। कुछ देर काणा मुनि उस क्षपणक के साथ धर्मचर्चा करता रहा । फिर वह भी वहीं सो गया ।

जब जयराज ने दोनों को सोया समझा, तो झांककर उन्हें देखा । वे युक्ति से उसके कक्ष का द्वार रोककर सोए थे। जयराज ने समझ लिया – “ दोनों , यह क्षपणक भी , गुप्तचर ही हैं । उन्होंने भलीभांति कक्ष की दीवारों, छतों और द्वार को देखा । घर पुराना था और द्वार सड़ा हुआ । आक्रमण होने पर रक्षा के योग्य नहीं था । परन्तु उन्होंने सोचा कि ये दो ही हैं , तब तो मैं ही यथेष्ट हूं । उन्होंने आवश्यकता होने पर उस धूर्त काणे को जान से मार डालने का दृढ़ संकल्प कर लिया । उन्होंने स्वर्ण से भरी थैली अपने कण्ठ में लटका ली । खड्ग नग्न करके निकट रख लिया। उतारे हुए वस्त्र फिर से पहन लिए । इसके बाद द्वार की भलीभांति परीक्षा करके उन्होंने दीप बुझा दिया ।

दीप बुझाकर वे नि : शब्द बिछौने से उठकर द्वार से कान लगाकर बैठ गए। थोड़ी ही देर में काणा मुनि उठकर बैठ गया । क्षपणक भी उठ बैठा। क्षपणक दो उत्तम बड़े -बड़े खड्ग छिपे स्थान से उठा लाया । जयराज यह सब देख बिस्तरे पर जा सोने का नाटक करते हए वेग से खर्राटे भरने लगे।

आखेट को सोया हुआ समझकर दोनों खड्ग लेकर द्वार के निकट आ खड़े हुए । किसी पूर्व-निश्चित विधि से उन्होंने नि : शब्द द्वार खोल डाला । द्वार खुलते ही जयराज बिछौने से उठकर द्वार के पीछे आड़ में छिप गए । आगे काणा और पीछे क्षपणक दोनों नि : शब्द आगे बढ़े । काणे के तनिक आगे बढ़ जाने के बाद क्षपणक वहीं ठिठककर , काणा बिछौने के निकट क्या कर रहा है, यह देखने लगा । इस अवसर से लाभ उठाकर जयराज ने एक भरपूर हाथ खड्ग का क्षपणक के मोढ़े पर फेंका और क्षपणक बिना एक शब्द किए बीच से दो टूक होकर गिर पड़ा ।

काणा नापित खड़ग हाथ में ले घूमकर खड़ा हो गया । जयराज ने कहा – “ भदन्त , यहां तो बहुत अन्धकार है, तुम्हारा साथी तो निर्वाण- पद को पहुंच गया । अब तुम बाहर आओ। वहां चन्द्रमा का क्षीण प्रकाश है। पर मैं समझता हूं, तुम्हारे निर्वाण के लिए यथेष्ट है । ”

नापित ने कहा – “ भन्ते, ऐसा ही हो ! ”बाहर आकर दोनों घोर युद्ध में रत हुए । कोई भी जीवित प्राणी वहां उनका साक्षी न था । जयराज ने कहा – “ प्रभंजन, तू खड्ग चलाने में उतना ही प्रवीण है, जितना छद्मवेश धारण करने में । परन्तु आज तेरी यहीं मृत्यु है । ”

“ जीवन और मृत्यु तो भन्ते , आने- जाने वाली वस्तु है। जो गुप्तचर कार्य में रत हैं , वे इस बात पर विचार नहीं करते । ”

“ यह क्या चाण्डाल मुनि का वचन है ? ”

“ नहीं भन्ते , प्रभंजन नापित गुरु का । मैं खड्ग – हस्त होकर झूठ नहीं बोलता । ”

और बातचीत नहीं हुई। दोनों वीर असाधारण कौशल से युद्ध करने लगे। ऐसे भी क्षण आए जब जयराज को प्राणों का भय आ उपस्थित हुआ । पर एक अवसर पर प्रभंजन का पैर फिसल गया । उसका उठा हुआ खड्ग लक्ष्यच्युत हुआ और दूसरे ही क्षण उसके कण्ठ पर जयराज का भरपूर खड्ग पड़ा, जिससे उसका मस्तक कटकर और लुढ़ककर दूर जा गिरा। मस्तक कटने पर भी प्रभंजन का रुण्ड कुछ समय तक खड्ग घुमाता रहा । उस एकान्त रात में जनशून्य चैत्य में रक्त से भरी भूमि में रक्त से चूता हुआ खड्ग हाथ में लिए जयराज ने छिन्न मस्तक रुण्ड को हवा में खड्ग ऊंचा किए अपनी ओर दौड़ता देखा तो वे भय से नीले पड़ गए । इसी क्षण प्रभंजन का कबंध भूशायी हो गया । जयराज अब वहां एक क्षण भी न ठहर उसी के वस्त्रों से खड्ग का रक्त पोंछ राजगृह के मार्ग पर एकाकी ही अग्रसर हुए । उस समय वह भय और साहस के झूले में झूल रहे थे ।

125. मधुवन में : वैशाली की नगरवधू

दस्यु बलभद्र आगे, देवी अम्बपाली उनके पीछे, स्वर्णसेन और सूर्यमल्ल उनसे भी पीछे, तथा पांच दस्यु खड्ग – हस्त उनके पीछे; इस प्रकार वे वैशाली के शून्य राजपथ को पारकर , वन – वीथी में होते हुए , उत्तर रात्रि में मधुवन उपत्यका में पहुंच गए। अम्बपाली दस्युराज से बात करना चाह रही थीं ; परन्तु दस्यु चुपचाप आगे बढ़ा जा रहा था , मार्ग में अन्धकार था । अम्बपाली एक सुखद भावना से ओतप्रोत हो गईं। उनके मानस नेत्रों में कुछ पुराने चित्र अंकित हुए। वह होठों ही में कहने लगीं, यदि इसी समय एक बार फिर सिंह आक्रमण करे और मुझे उधर पर्वत – शृंग पर स्थित कुटीर में एक बार अवश नृत्य करना पड़े तो कैसा हो !

उसने आवेश में आकर अपना अश्व बढ़ाया । अश्व को दस्युराज के निकट लाकर कहा –

“ भन्ते , हमें कब तक इस भांति चलना पड़ेगा ? ”

“ हम पहुंच चुके देवी ! ”दस्यु ने कहा ।

फिर एक संकेत किया । कहीं से एक दस्यु काले भूत की भांति निकलकर सम्मुख उपस्थित हुआ । दस्यु ने मन्द स्वर से कहा

“ साम्ब, सब यथावत् ही है न ? ”

“ हां भन्ते! ”

“ तब ठीक है, तू अपना कार्य कर । ”

काला भूत चला गया । दस्यु ने अब पर्वत पर चढ़ना आरम्भ किया । पहाड़ी बहुत ऊंची न थी । चोटी पर चढ़कर सब लोग यथास्थान खड़े हो गए । सूर्यमल्ल और स्वर्णसेन ने भयभीत होकर देखा, सम्मुख उस टेकरी के दक्षिण पाश्र्व की उपत्यका में दूर तक स्थान स्थान पर आग जल रही थी । उस जलती आग के बीच में , आगे-पीछे बहुत – से दस्यु अश्व पर सवार हो इधर से उधर आ – जा रहे हैं । सबका सर्वांग काले वस्त्र से आवेष्टित है । सूर्यमल्ल ने धीरे – से निकट खड़े हुए युवराज स्वर्णसेन से कहा – “ यह तो दस्यु – सैन्य -शिविर प्रतीत होता है! दीख पड़ता है, जैसे दस्युओं का दल चींटियों के दल के समान अनगिनत है। ”

एक विचित्र प्रकार का अस्फुट शब्द – सा सुनकर स्वर्णसेन ने टेकरी के वाम पाश्र्व में घूमकर देखा । उधर से एक सुसज्जित अश्वारोही सैन्य धीरे – धीरे सावधानी से इस तथाकथित दस्यु शिविर की ओर बढ़ रहा था । उसके शस्त्र इस अंधेरी रात में भी दूर जलती आग के प्रकाश में चमक रहे थे। इस सैन्य को धीर गति से आगे बढ़ते देख स्वर्णसेन ने प्रसन्न मुद्रा में उंगली से संकेत किया ।

सूर्यमल्ल ने हर्षित होकर कहा –

“ यही हमारी सेना है, दस्युओं के शिविर पर अब आक्रमण हुआ ही चाहता है।

परन्तु दस्यु क्या बिल्कुल असावधान हैं ? ”उसने अचल भाव से आग की ओर निश्चल देखते हुए दस्युओं की ओर देखा। फिर पीछे खड़े हुए दस्युराज को मुंह फेरकर देखा। वह उसी प्रकार नग्न खड्ग लिए खड़े थे।

इतने ही में लिच्छवि सेना ने एकबारगी ही फैलकर दस्यु शिविर पर धावा बोल दिया । स्वर्णसेन और सूर्यमल्ल का रक्त उबलने लगा । उन्होंने दस्यु बलभद्र की ओर देखा , जो उसी भांति निस्तब्ध खड़ा था ।

“ क्या इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है! किस भरोसे यह निश्चिंत यहां खड़ा है ? ” स्वर्णसेन ने हाथ मलते हुए कहा – “ खेद है, हमारे पास शस्त्र नहीं हैं ? ”

लिच्छवि सैन्य ने वेग से धावा बोल दिया । परन्तु यह कैसा आश्चर्य है कि दस्यु सम्मुख नहीं आ रहे हैं , जो दस्यु सैनिक इधर – उधर वहां घूमते दीख रहे थे वे भी अब लुप्त हो गए हैं । लिच्छवि सेना यों ही शून्य में अपने भाले और खड्ग चमकाती हुई चिल्ला रही थी । वह जैसे वायु से युद्ध कर रही हो ।

“ यह सब क्या गोरखधन्धा है मित्र ? ”– स्वर्णसेन ने सूर्यमल्ल का कन्धा पकड़कर कहा।

सूर्यमल्ल की दृष्टि दूसरी ओर थी । उनकी आंखें पथरा रही थीं और वाणी जड़ थी । उसने भरे हुए स्वर में कहा

“ सर्वनाश ? साथ ही उसने एक ओर उंगली उठाई ।

स्वर्णसेन ने देखा – काली नागिन की भांति काले वस्त्र पहने दस्यु – सैन्य एक कन्दरा से निकलकर लिच्छवि – सैन्य के पिछले भाग में फैलती जा रही है। दूर तक इस काली सेना के अश्वारोही घाटी में बिखरे हुए हैं । देखते – ही – देखते लिच्छवि – सैन्य का उसने समस्त पृष्ठ भाग छा लिया और जब वह सेना विमढ़ की भांति दल बांधकर तथा सम्मख एक भी शत्र न पाकर ठौर -ठोर पर जलती हुई आग के चारों ओर घूम – घूमकर तथा हवा में शस्त्र घुमा घुमाकर चिल्ला रही थी , तभी दस्यु – सैन्य ने , जैसे कोई विकराल पक्षी अपने पर फैलाता है, अपने दायें – बायें पक्षों का विस्तार किया । देखते – ही – देखते लिच्छवि – सैन्य तीन ओर से घिर गई । सम्मुख दुर्गम – दुर्लंघ्य पर्वत था । परन्तु लिच्छवि – सैन्य को कदाचित् आसन्न विपत्ति का अभी आभास नहीं मिला था । सूर्यमल्ल के होंठ चिपक गए और शरीर जड़ हो गया । स्वर्णसेन के अंग से पसीना बह चला ।

आग के उजाले के कारण लिच्छवि- सैन्य दस्यु- दल को बहुत निकट आने पर देख पाया । थोड़ी ही देर में मार – काट मच गई और दस्युओं के दबाव से सिकुड़कर लिच्छवि जलती हुई आग की ढेरियों में गिरकर झुलसने लगे । हाहाकार और चीत्कार से आकाश हिल गया ।

स्वर्णसेन ने कहा – “ भन्ते बलभद्र, इस महाविनाश को रोकिए। यह नर -संहार है, युद्ध नहीं है। ”

“ तो मित्र, तुम बिना शर्त आत्मसमर्पण करते हो ? ”

“ हम निरुपाय हैं भन्ते बलभद्र, दया करो! ”

“ तो मित्र सूर्यमल्ल , तुम जाकर युवराज का यह आदेश अपनी सेना को सुना आओ और सेनानायक को यहां मेरे निकट ले आओ। ”

इसके बाद उन्होंने अपने एक दस्यु को कुछ संकेत किया । उसने एक संकेत शब्द उच्चारित किया । दस्यु – सैन्य जहां थी , वहीं युद्ध रोककर स्तब्ध खड़ी रह गई । सूर्यमल्ल ने श्वेत पताका हवा में फहराते हुए अपने सेनापतियों को तुरन्त युद्ध से विरत कर दिया तथा नायक को लेकर वह दस्युराज बलभद्र की सेवा में आ उपस्थित हुए । दस्युराज बिना एक भी शब्द कहे चुपचाप पूर्व अनुक्रम से टेकरी से उतरकर एक पर्वत – कन्दरा में घुस गए । कन्दरा अधिकाधिक पतली होती गई । तब सब कोई अश्व से उतरकर अपने – अपने अश्व की रास थाम पैदल चलने लगे। अन्तत : वे एक विस्तृत हरे – भरे मैदान में जा पहुंचे। पूर्व दिशा में उज्ज्वल आलोक फैल गया था । तब वैशाली के इन वैभवशाली जनों ने देखा कि उस मैदान में एक अत्यन्त सुव्यवस्थित स्कंधावार निवेश स्थापित है , जिसमें पचास सहस्र अश्वारोही भट युद्ध करने को सन्नद्ध उपस्थित हैं ।

एक विशाल पर्वत – गुहा में सुकोमल उपधान और रत्न – कम्बल बिछे थे। सब सुख साधनों से गुफा सम्पन्न थी । अम्बपाली को एक आसन पर बैठाते हुए दस्यु ने कहा – “ देवी अम्बपाली और मित्रगण, तुम्हारा इस दस्युपुरी में स्वागत है। आज तुम मेरे अतिथि हो । आनन्द से खाओ-पिओ। रात के दु: स्वप्न को भूल जाओ। ”

उसने संकेत किया । साम्ब चुपचाप आ खड़ा हुआ । उसने अम्बपाली की ओर संकेत करके कहा – “ साम्ब , देवी बहुत खिन्न हैं , रात – भर के जागरण से ये थक गई हैं तथा श्रमित हैं । जा , इनकी यथावत् व्यवस्था कर दे। ”

उसने देवी से, अपने साथ दूसरी गुहा में चलने का अनुरोध किया । देवी के चले जाने पर विविध मद्य, भुना मांस और शूल्य लाकर दासों ने अतिथियों के सम्मुख रख दिए । लिच्छवि राजपुरुष एक – दूसरे को आश्चर्य से देखकर खाने -पीने और अदृष्ट में जो भोगना बदा है, भोगने की चर्चा करने लगे। परन्तु मुख्य बात यही थी , जो सब कह रहे थे – “ दस्यु अद्भुत है , अप्रतिम है, महान् है! ”

126.विसर्जन : वैशाली की नगरवधू

साम्ब ने देवी अम्बपाली को दूसरी गिरि – गुहा में ले जाकर जिस श्यामा वामा के उन्हें सुपुर्द किया , उसका अंग – सौष्ठव और भाव-मृदुलता देख अम्बपाली भावविमोहित हो गईं। राजमहालयों में दुर्लभ सुख – सज्जा इस दुर्गम वन में उपस्थित थी । उस गिरि – गुहा के वैभव और विलास को देखकर अम्बपाली आश्चर्यचकित रह गईं। उन्होंने आगे बढ़कर सम्मुख स्मितवदना श्यामा वामा की ओर देखकर कहा

“ तू कौन है हला ? ”

“ मैं नाउन हूं भट्टिनी ! ”वह हंस दी ।

जैसे चन्द्रमा को देखकर कुमुदिनी खिल जाती है, उसी प्रकार उस श्यामा वामा के निर्दोष मृदुल हास्य से पुलकित होकर अम्बपाली ने उसे अंक में भरकर कहा

“ तू बड़भागिनी है हला, तू जिस पुरुष की सेवा में नियुक्त है, उसकी सेवा करने को न जाने कितने जन तरस रहे हैं । ”

“ सुनकर कृतकृत्य हुई, भट्टिनी , आपके दर्शनों से मेरे नेत्र स्नातपूत हो गए। अब आज्ञा हो तो मैं आपका अंग – संस्कार करूं । इस वन में जो साधन सुलभ हैं , उन्हीं पर भट्टिनी , सन्तोष करना होगा । ”

अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा – “ अच्छा हला ! ”

नाउन ने देवी अम्बपाली का अंग -संस्कार किया , उन्हें सुवासित किया । नाउन के हस्त – लाघव , हस्त – कौशल , मृदुल वार्तालाप और यत्न से देवी अम्बपाली का सारा श्रम दूर हो गया । फिर जब सुवासित मदिरा और विविध प्रयत्न और एक से बढ़कर एक खाद्य- पेय उनके सम्मुख आए तो उनसे रहा नहीं गया । उन्होंने कहा – “ हला , तेरे स्वामी वे दस्यु -सम्राट क्या दर्शन ही न देंगे ? ”

“ यह तो उनकी इच्छा पर निर्भर है भट्टिनी, किन्तु अभी आप आहार करके थोड़ा विश्राम कर लें । ”

“ नहीं- नहीं हला, उन्हें बुला। ”

नाउन ने हंसकर कहा- “ क्या कहूं भट्टिनी , बुलाने से तो वे आएंगे नहीं। आप ही आ सकते हैं । ”

“ यह कैसी बात ? ”

“ वे किसी की इच्छा के अधीन नहीं हैं , इसी से। ”नाउन ने धृष्टतापूर्ण हंसी हंसते हुए कहा ।

“ ऐसा ही मैं भी कभी समझती थी । कभी अवसर मिलने पर उनसे कह देना । कह सकेगी ? ”

“ कह सकूँगी। ”

“ अब भी ऐसा ही है देवी अम्बपाली ! ”सोमप्रभ ने हंसते -हंसते आकर कहा ।

अम्बपाली ने सोमप्रभ को सुवेशित भद्र नागरिक वेश में नहीं देखा था । आज देखकर क्षण – भर को उनकी प्रगल्भता लुप्त हो गई । सोम ने कहा

“ आप मुझ पर कुपित तो नहीं हैं देवी ! ”

“ कुपित होकर तुम्हारे जैसे समर्थ का कोई क्या कर सकता है भद्र ? ”

“ असमर्थ होने पर भी कुछ जन समर्थ होते हैं । ”

“ ऐसे कितने जन हैं प्रियदर्शन ? ”

“ केवल एक को मैं जानता हूं आज्ञा पाऊ तो कहूं ! ”

“ स्वेच्छा से कहना हो तो कहो। ”

“ तो सुनो , मैंने एक व्यक्ति देखा है जो निरातंक, सालाद , सोल्लास हो स्वर्ण- रत्न भण्डार के द्वार उन्मुक्त करके दस्युओं को लूट लेने के लिए अभिनन्दित करता है। ”

“ रहने दो प्रिय, आओ, कुछ खाओ-पिओ! ”

दोनों बैठ गए । अवसर पाकर नाउन पान लेने खिसक गई। अम्बपाली ने सोम का हाथ पकड़कर कहा

“ तुम ऐसे समर्थ, ऐसे सक्षम, कामचारी, दिव्य शक्तियों से ओतप्रोत ऐन्द्रजालिक कौन हो प्रियदर्शन ? ”

“ यही कहने को मैं तुम्हें यहां ले आया हूं अम्बपाली! ”

“ तो कह दो प्रिय, मैंने तो तुम्हारे कण्ठ- स्वर से ही तुम्हें पहचान लिया था । ”

“ यह मैंने तुम्हारे इन नेत्रों में पढ़ लिया था । ”

“ तुम्हारी नेत्रों से पढ़ने की विद्या से मैं परिचित हूं , पर अब कहो। ”

“ मैं मागध हूं प्रिये , मेरा नाम सोमप्रभ है। ”

अम्बपाली ने जैसे तप्त अंगार स्पर्श कर लिया । सोम ने कहा –

“ क्या मागधों को तुम सहन नहीं कर सकतीं ? ”

“ नहीं प्रिये, नहीं । ”

“ इसका कारण ? ”

“ अकथ्य है। ”

“ अब भी ! ”

“ मृत्यु के मूल्य पर भी प्रियदर्शन सोम, यदि तुम अम्बपाली को क्षमा कर सको तो कर देना । ”उनके बड़े- बड़े नेत्र आंसुओं से गीले हो गए ।

“ प्रिये अम्बपाली, क्या मैं तुम्हारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकता हूं ? ”

“ नहीं प्रियदर्शन , नहीं । अम्बपाली निस्सहाय -निरुपाय है । ”

विषादपूर्ण मुस्कान सोमप्रभ के मुख पर फैल गई । उन्होंने एक लम्बी सांस ली । उसके साथ अनेक स्मृतियां वायु में विलीन हो गईं।

“ प्रियदर्शन सोम , क्या मैं तुम्हारा कुछ प्रिय कर सकती हूं, प्राणों के मूल्य पर भी ? ”

“ प्रिये, तुम मुझे सदैव क्षमा करती रहना और सहन करती जाना । ”

“ अरे , यह तो मेरा अनुरोध था प्रियदर्शन ! ”

“ तब तो और भी अच्छा है । हम दोनों एक ही नाव पर जीवन -यात्रा कर रहे हैं । ”

“ जो कदाचित् विषाद, निराशाओं और आंसुओं से परिपूर्ण है। ”

“ तो क्या किया जा सकता है प्रिये! प्रियतमे , जीवन से पलायन भी तो नहीं किया जा सकता। ”

“ न , नहीं किया जा सकता। सोम प्रियदर्शन , एक याचना करूं ? ” सोम ने अम्बपाली के दोनों हाथ पकड़कर कहा

“ यह अकिंचन सोम तुम्हारा ही है , प्रिये अम्बपाली ! ”

“ तो प्रियदर्शन , मुझे सहारा देना , जब – जब मैं स्खलित होऊं तब – तब । ”

उनके होंठ कांपे, फिर उन्होंने टूटते अवरुद्ध स्वर में कहा – “ यह मत भूलना सोमभद्र कि मैं एक असहाय – दुर्बल नारी हूं , तुम पुरुष की भांति मेरी रक्षा करना, मैं तुम्हारी किंकरी, तुम्हारी शरण हूं। ”अम्बपाली सोम के पैरों में लुढ़क गईं । सोम ने उन्हें उठाकर अंक में भर लिया और अपने तप्त – तृषित , आग के अंगारों के समान जलते हुए होंठ उनके शीतल कम्पित होंठों पर रख दिए । अम्बपाली मूर्छित होकर सोम के अंक में बिखर गईं।

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