Contents
- 1 20. साकेत : वैशाली की नगरवधू
- 2 21. कोसलेश प्रसेनजित् : वैशाली की नगरवधू
- 3 22. माण्डव्य उपरिचर : वैशाली की नगरवधू
- 4 23. जीवक कौमारभृत्य : वैशाली की नगरवधू
- 5 24. नियुक्त : वैशाली की नगरवधू
- 6 25. नियुक्त का शुल्क : वैशाली की नगरवधू
- 7 26. चम्पारण्य में : वैशाली की नगरवधू
- 8 27. शम्बर असुर की नगरी में : वैशाली की नगरवधू
- 9 28. कुण्डनी का अभियान : वैशाली की नगरवधू
- 10 29. असुर भोज : वैशाली की नगरवधू
- 11 30. मृत्यु-चुम्बन : वैशाली की नगरवधू
वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री Part 3
20. साकेत : वैशाली की नगरवधू
कोसल-नरेश प्रसेनजित् साकेत में ठहरे थे, वे सेठी मृगार के पुत्र पुण्ड्रवर्धन के ब्याह में सदलबल साकेत आए थे। राजधानी श्रावस्ती यहां से छह योजन पर थी। सरयू के तट पर बसा यह नगर उस समय प्राची से उत्तरापथ के सार्थ-पथ पर बसा होने के कारण स्थल व्यापार और नौ-व्यापार दोनों ही का मुख्य केन्द्र था। उन दिनों सरयू आज के समान ऐसी क्षीणकाय न थी, उसका विस्तार डेढ़ मील में था और उसमें बड़े-बड़े पोत चलते थे। उस समय साकेत भारत के छह प्रमुख नगरों में एक था।
प्रसेनजित् का यहां एक दुर्ग और हर्म्य था; उसी में महाराज प्रसेनजित् अवस्थित थे। आम बौरा रहे थे और उनकी सुगन्ध से मत्त भौरों के गुञ्जन वातावरण में गूंज रहे थे। वृक्षों ने नवीन कोमल और मृदुल परिधान धारण किया था, शीत कम हो गया था। सान्ध्यक्षण मनोरम था, अस्तंगत सूर्य की लाल-लाल किरणें नव कुसुमित वृक्षों पर लोहित प्रभा बिखेर रही थीं। साकेतवासी तरुण-तरुणियां स्वच्छन्द सान्ध्य-समीरण का आनन्द लेने सरयू-तट पर इकट्ठे थे। बहुत रजतसिकता पर नंगे पैर चलकर विनोद कर रहे थे। बहुत नंगे-बदन तैराकी प्रतियोगिता की होड़ लगा रहे थे। तरुणियों में अनेक कोमल, नवीन केले के मनोहर वर्णवाली आर्य ललनाएं थीं। बहुत चम्पकवर्णी रूप-यौवन भार से लदी विश तरुणियां थीं। कितनी ही कर्पूर-सम उज्ज्वलवर्णा यवनियां थीं, जिनका सुगौर चिक्कण, सुडौल गात्र मर्मर प्रस्तर-निर्मित मूर्ति-सा प्रतीत होता था। उनकी नीलवर्ण आंखें और पिंगल केश उनके व्यक्तित्व को प्रगट कर रहे थे। बहुत-सी स्वर्णकेशी, स्वर्णवर्णा ब्राह्मण कुमारियां थीं। कितनी घन केशपाश वाली, घनश्याम कोमल गात्रवाली गोधूमवर्णी वैश्य तरुणियां थीं, जिनका तारुण अति मादक था। नाना कुलों के तरुण भी अपने-अपने वस्त्र उतारकर सरयू के तट पर कुछ आकटि और कुछ आकण्ठ जल में जल-क्रीड़ा कर रहे थे। उनके व्यायामपृष्ट सुडौल शरीर, उन्नत नासिका, विशाल वक्ष और प्रशस्त मस्तक उनके कुलीन होने के साक्षी थे। कोई प्रणयकलह में, कोई सामोद क्रीड़ा में, कोई हस्त-लाघव और व्यायाम में लीन था। तरुण-तरुणियां यहां स्वच्छंद विहार कर रहे थे। बहुत युगल जोड़े नाव पर चढ़कर उस पार जा जल में कूद पड़ते; बहुत जोड़े होड़ बदकर जल में डुबकी लगाते। उनकी मृणाल-सम सुनहरी भुजाएं और स्वर्ण गात, नील, घनश्याम केश-राशि जल के अमल भीतरी स्तर से मोहक दीख रही थीं। सैकड़ों छोटी नौकाएं जल में तैर रही थीं और युवक-युवती थककर कभी-कभी उनका आश्रय लेकर सुस्ता लेते थे। बहुत नौकाओं पर मैरेय, माध्वीक, भुने हुए मांस और विविध फल बिक रहे थे। तैरते हुए युवक खरीद खरीदकर आकण्ठ जलमग्न हो खा-पी रहे थे।
ऐसे ही समय में बन्धुल मल्ल और मल्लिका अपने थके हुए अश्वों को लिए सरयू तीर पर आ पहुंचे। मल्लिका ने प्रफुल्ल होकर कहा—”साकेत में जीवन है प्रिय! रज्जुलों के अधिकार में भी जनपद इतना प्रसन्न हो सकता है, यह मैंने सोचा भी नहीं था।”
“आओ प्रिये, हम भी स्नान करके शरीर की थकान मिटा लें। हवा बड़ी सुन्दर चल रही है।”
“ऐसा ही हो प्रिये!” मल्लिका ने कहा। बन्धुल घोड़े से कूद पड़ा और हाथ का सहारा देकर उसने मल्लिका को उतारा। एक दास को संकेत से निकट बुलाकर कहा— “अश्वों को मल-दल कर ठीक कर दे मित्र, ये चार निष्क ले, मैरेय के लिए।”
दास ने हंसकर रजत-खण्ड हाथ में ले लिए और अश्वों की रास संभाली।
दोनों यात्रियों ने वस्त्र उतारे और वे अनायास ही जल-राशि में घुस गए। उनके हस्त-लाघव और कुशल तैराकी से सभी आश्चर्य करने लगे। उन्होंने तैरने वालों को ललकारा—”बढ़ो मित्रो, जो कोई उस तट पर पहले पहुंचेगा उसे मित्रों सहित भरपेट मैरेय पीने को मिलेगा।” बहुत तरुण-तरुणियां हंसकर उनके पीछे हाथ मारने लगे। किनारे के लोग हर्षोत्फुल्ल होकर चिल्लाने लगे। सबसे आगे बन्धुल-दम्पती थे, सबसे पहले उन्होंने तट स्पर्श किया। मल्लिका हांफती हुई हंसने लगी। लोगों ने हर्ष-ध्वनि की। सम्पन्न युवक ने अपनी नौका पास लाकर कहा—”स्वागत मित्र, मेरी यह नौका सेवा में उपस्थित है, इस पर चढ़कर मेरी प्रतिष्ठा वृद्धि करें।”
बन्धुल ने हाथ के सहारे से मल्लिका को नौका पर चढ़ाते हुए कहा—
“हम लोग अभी-अभी साकेत आ रहे हैं।”
“कहां से मित्र!”
“कुशीनारा से।”
“अच्छा, बन्धुल मल्ल की कुशीनारा से।”
“मित्र, मैं ही बन्धुल मल्ल हूं।”
“तेरी जय हो मित्र!” फिर उसने हाथ उठाकर पुकारकर कहा—”कुशीनारा के मल्ल बन्धुल मित्र का साकेत में स्वागत है!”
बहुत लोग नौका के पास उमड़ आए। बहुतों ने दम्पती पर पुष्पों की वर्षा की। नौका के स्वामी ने हंसकर कहा—”मैं हिरण्यनाभ कौशल्य हूं मित्र, साकेत का क्षत्रप, बन्धुल के शौर्य से मैं परिचित हूं।”
“हिरण्यनाभ कौशल्य की गरिमा से मैं भी अविदित नहीं हूं क्षत्रप, तक्षशिला में गुरुपद से मैंने आपका नाम सुना था।”
“और मैंने भी मित्र, महाराजाधिराज से तेरी गुण-गरिमा सुनी है। अब इधर किधर?”
“महाराज के दर्शन-हेतु।”
“साधु, महाराज आजकल यहीं हैं, कल दर्शन हो जाएंगे। परन्तु आज मेरे अतिथि रहो मित्र!”
“मल्लिका, ये महाक्षत्रप महाराज हिरण्यनाभ कौशल्य हैं। गुरुपद ने कहा था, वे अवन्ति गुरुकुल के सर्वश्रेष्ठ स्नातक हैं और ज्ञान-गरिमा में काशी के सम्पूर्ण राजाओं से बढ़कर हैं।”
“मैं अपने पति का अभिनन्दन करती हूं, ऐसे गौरवशाली मित्र के प्राप्त होने पर।”
“और मल्लिका, हम अपने मित्र के अतिथि होने जा रहे हैं।”
“प्रिय, यह असाधारण सौभाग्य है, परन्तु महाक्षत्रप, महाराज को क्या इनकी स्मृति है? इनका कहना है—महाराज दस वर्ष साथ पढ़े हैं तक्षशिला में।”
“महाराज भी यही कहते हैं देवी, वे कहते हैं—बन्धुल-सा एक मित्र कहीं मिले तो जीवन का सूखापन ही दूर हो जाए।”
“ऐसा कहते हैं? तब तो महाक्षत्रप, महाराज को मित्र का बहुत ध्यान है।”
“किन्तु मल्लिका देवी, तुम्हारे पति क्या ऐसे-वैसे हैं? मैंने अवन्तिका में गुरुपद से सुना था कि राजनीति और रणनीति में बन्धुल का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है।”
“और जल में तैरने में महाक्षत्रप?”
“आज देखा हमने प्रतिस्पर्धी, देवी मल्लिका को।”
महाक्षत्रप हंस दिए। मल्लिका भी हंस दी। बन्धुल ने कहा—”यहीं हमारे अश्व हैं।”
“वे पहुंच जाएंगे मित्र, नौका हमें क्रीड़ोद्यान के नीचे पहुंचा देगी।”
इसके बाद क्षत्रप ने एक दास को अश्व ले आने के लिए भेज दिया। उन्होंने मल्लिका को सम्बोधन करके कहा—”वह मेरे उद्यान का घाट दीख रहा है देवी मल्लिका!”
“देख रही हूं महाक्षत्रप; अभी हमें आए कुछ क्षण ही बीते हैं, पर ऐसा दीख रहा है, जैसे घर ही में हों।”
“घर ही में तो हो देवी मल्लिका, हम आ गए मित्र, उतरो तुम और क्षण भर ठहरो, तब तक मैं आवश्यक व्यवस्था कर दूं।”
21. कोसलेश प्रसेनजित् : वैशाली की नगरवधू
महाराज प्रसेनजित् कोमल गद्दे पर बैठे थे। दो यवनी दासियां पीछे खड़ी चंवर ढल रही थीं, उनका शरीर अत्यन्त गौरवर्ण था। आयु पैंसठ से भी अधिक हो गई थी। उनके खिचड़ी बाल बीच में चीरकर द्विफालबद्ध किए गए थे। बड़ी-बड़ी मूंछे यत्न से संवारी गई थीं और वे कान तक फैल रही थीं। वे कोमल फूलदार कौशेय पहने थे और कण्ठ, भुजा और मणिबंध पर बहुमूल्य रत्नाभरण पहने थे। इस समय उनका मन प्रसन्न नहीं था, वे कुछ उद्विग्न-से बैठे थे। कंचुकी ने राजपुत्र विदूडभ के आने की सूचना दी।
महाराज ने संकेत से आने को कहा।
विदूडभ ने बिना प्रणाम किए, आते ही पूछा—”महाराज ने मुझे स्मरण किया था!”
“किया था।”
“किसलिए?”
“परामर्श के लिए।”
“इसके लिए महाराज के सचिव और आचार्य माण्डव्य क्या यथेष्ट नहीं हैं?”
“किन्तु मैं तुम्हें कुछ परामर्श देना चाहता हूं विदूडभ!”
“मुझे! महाराज के परामर्श की मुझे आवश्यकता ही नहीं है।” राजपुत्र ने घृणा व्यक्त करते हुए कहा।
महाराज प्रसेनजित् गम्भीर बने रहे। उन्होंने कहा—”किन्तु रोगी की इच्छा से औषध नहीं दी जाती राजपुत्र!”
“तो मैं रोगी और आप वैद्य हैं महाराज?”
“ऐसा ही है। यौवन, अधिकार और अविवेक ने तुम्हें धृष्ट कर दिया है विदूडभ!”
“परन्तु महाराज को उचित है कि वे धृष्टता का अवसर न दें।”
“तुम कोसलपति से बात कर रहे हो विदूडभ!”
“आप कोसल के भावी अधिपति से बात कर रहे हैं महाराज!”
क्षण-भर स्तब्ध रहकर महाराज ने मृदु कण्ठ से कहा—”पुत्र, विचार करके देखो, तुम्हें क्या ऐसा अविवेकी होना चाहिए? मैं कहता हूं—तुमने मेरी आज्ञा बिना शाक्यों पर सैन्य क्यों भेजी है?”
“मैं कपिलवस्तु को निःशाक्य करूंगा, यह मेरा प्रण है।”
“किसलिए? सुनूं तो।”
“आपके पाप के लिए महाराज!”
“मेरा पाप, धृष्ट लड़के! तू सावधानी से बोल!”
“मुझे सावधान करने की कोई आवश्यकता नहीं है महाराज, मैं आपके पाप के कलंक को शाक्यों के गर्म रक्त से धोऊंगा।”
“मेरा पाप कह तो।” “कहता हूं सुनिए, परन्तु आपके पापों का अन्त नहीं है, एक ही कहता हूं, कि आपने मुझे दासी से क्यों उत्पन्न किया? क्या मुझे जीवन नहीं प्राप्त हुआ, क्या मैं समाज में पद-प्रतिष्ठा के योग्य नहीं?”
“किसने तेरा मान भंग किया?”
“आपने शाक्यों के यहां किसलिए भेजा था?”
“शाक्य अपने करद हैं। पश्चिम में वत्सराज उदयन कोसल पर सेना तैयार कर रहा है। पूर्व में मगध सम्राट् बिम्बसार। वैशाली के लिच्छवी अलग खार खाए बैठे हैं। ऐसी अवस्था में शाक्यों का प्रेम और साहाय्य प्राप्त करना था, इसीलिए और किसी को न भेजकर कपिलवस्तु तुझे ही भेजा था, तू मेरा प्रिय पुत्र है और शाक्यों का दौहित्र।”
विदूडभ ने अवज्ञा की हंसी हंसकर कहा—”शाक्यों का दौहित्र या दासीपुत्र? आप जानते हैं, वहां क्या हुआ?”
“क्या हुआ?”
“सुनेंगे आप? घमण्डी और नीच शाक्यों ने संथागार में विमन होकर मेरा स्वागत किया, अथवा उन्हें स्वागत करना पड़ा। पर पीछे संथागार को और आसनों को उन्होंने दूध से धोया।”
प्रसेनजित् का मुंह क्रोध से लाल हो गया। उन्होंने चिल्लाकर कहा—”क्षुद्र शाक्यों ने यह किया?”
“मुझे मालूम भी न होता, मेरा एक सामन्त अपना भाला वहां भूल आया था, वह उसे लेने गया, तब जो दास-दासी दूध से संथागार को धो रहे थे, उनमें एक मुझे गालियां दे रही थी, कह रही थी—दासीपुत्र की धृष्टता तो देखो, रज्जुले का वेश धारण करके आया है। संथागार को अधम ने अपवित्र कर दिया।”
“शाक्यों के वंश का मैं नाश करूंगा।”
“आप क्यों? आपका उन्होंने क्या बिगाड़ा है? आपको शाक्यों की राजकुमारी से ब्याह का शौक चढ़ा था, क्योंकि आप राजमद से अन्धे थे। पर आप जैसे बूढ़े अशक्त और रोगी को शाक्य अपनी पुत्री देना नहीं चाहते थे, खासकर इसलिए कि आपके रनवास में कोई कुलीन स्त्री है ही नहीं। आपने माली की लड़की को पट्टराजमहिषी पद पर अभिषिक्त किया है। शाक्य अपनी ऊंची नाक रखते थे, पर आपकी सेना से डरते भी थे। उन्होंने दासी की लड़की से आपका ब्याह कर दिया।”
“यह शाक्यों का भयानक छल था; किन्तु …।”
“किन्तु पाप तो नहीं, जैसा कि आपने किया। उसी दासी में इन्द्रियवासना के वशीभूत हो आपने मुझे पैदा किया; आपमें साहस नहीं कि मुझे आप अपना पुत्र और युवराज घोषित करें। यह आर्यों की पुरानी नीचता है। सभी धूर्त कामुक आर्य अपनी कामवासना–पूर्ति के लिए इतर जातियों की स्त्रियों के रेवड़ों को घर में भर रखते हैं। लालच-लोभ देकर कुमारियों को खरीद लेना, छल-बल से उन्हें वश कर लेना, रोती कलपती कन्याओं को बलात् हरण करना, मूर्च्छिता-मदबेहोशों का कौमार्य भंग करना यह सब धूर्त आर्यों ने विवाहों में सम्मिलित कर लिया। फिर बिना ही विवाह के दासी रखने में भी बाधा नहीं। आप क्षत्रिय लोग लड़कर, जीतकर, खरीदकर खिराज के रूप में देश-भर की सुन्दरी कुमारियों को एकत्रित करते हैं और ये कायर पाजी ब्राह्मण पुरोहित आपके लिए यज्ञ-पाखण्ड करके दान और दक्षिणा में इन स्त्रियों से उत्पन्न राजकुमारियों और दासियों को बटोरते हैं। ऐसे धूर्त हैं आप आर्य लोग! उस दिन विदेहराज ने परिषद् बुलाई थी। एक बूढ़े ब्राह्मण को हज़ारों गायों के सींगों में मुहरें बांधकर और दो सौ दासियां स्वर्ण आभरण पहनाकर दान कर दीं। वह नीच ब्राह्मण गायों को बेचकर स्वर्ण घर ले गया। पर दासियों को संग ले गया। वे सब तरुणी और सुन्दरी थीं। फिर क्या उन स्त्रियों के सन्तान न होगी? उन्हें आप आर्यों ने मज़े में वर्णसंकर घोषित कर दिया। उनकी जाति और श्रेणी अलग कर दी। ऐसा ही वर्णसंकर मैं भी हूं, दासीपुत्र हूं। मेरे पैर रखने से शाक्यों का संथागार अपवित्र होता है और मेरे जन्म लेने से कोसल राजवंश कलंकित होता है। महाराज, मैं यह सह नहीं सकता; मैं शाक्यवंश का नाश करूंगा और इसी तलवार के बल पर कोसल के सिंहासन पर आसीन होऊंगा। अब आर्यों के दिन गए। पाखण्डी ब्राह्मणों की भी समाप्ति आई। आज आर्यावर्त में नाम के आर्य राजे रह गए हैं। सभी राज्य हम लोगों ने, जिन्हें आप घृणा से वर्णसंकर कहते हैं, अधिकृत कर लिए हैं। मैं कोसल, काशी, शाक्य और मगध राज्य को भी आक्रान्त करूं तो ही असल दासीपुत्र विदूडभ।”
प्रसेनजित् के हाथ की तलवार नीची हो गई। उनकी गर्दन भी झुक गई। उन्होंने धीमे स्वर से कहा—”किन्तु विदूडभ राजपुत्र, यह तो परम्परा है, कुछ मेरे बस की बात नहीं। तुम्हें सभी तो राजोचित भोग प्राप्त हैं।”
“अवश्य हैं महाराज, केवल सामाजिक सम्मान नहीं प्राप्त है, आपका औरस पुत्र होने पर भी कोसल की गद्दी का अधिकार नहीं प्राप्त है। वही मैं छल-बल और कौशल से प्राप्त करूंगा।”
प्रसेनजित् क्रोध से तनकर गद्दी पर बैठ गए। उन्होंने कहा—”विदूडभ, यह राजद्रोह है।”
“मैं राजद्रोही हूं महाराज!”
“इसका दण्ड प्राणदण्ड है! जानते हो, राजधर्म कठोर है?”
“आत्मसम्मान उससे भी कठोर है महाराज!”
“पर यह वैयक्तिाक है।”
“हम सब दासीपुत्र, वर्णसंकर बन्धु, जो आप कुलीन किन्तु कदाचारी आर्यों से घृणा करते हैं, उसे सार्वजनिक बनाएंगे। हम आर्यों के समस्त अधिकार, समस्त राज्य, समस्त सत्ताएं छीन लेंगे।”
“मैं तुम्हें बन्दी करने की आज्ञा देता हूं। कोई है?”
राजा ने दस्तक दी। दो यवनी प्रहरिकाएं खड्ग लिए आ उपस्थित हुईं।
विदूडभ ने खड्ग ऊंचा करके कहा—”और मैं अभी आपका सिर धड़ से जुदा करता हूं।”
विदूडभ की भावभंगी और खड्ग उठाने से वृद्ध प्रसेनजित् आतंकित हो अपना खड्ग उठा खड़े हो गए। अकस्मात् विदूडभ का खड्ग झन्न से उसके हाथ से छूटकर दूर जा गिरा।
प्रसेनजित् ने आश्चर्यचकित हो आगन्तुक की ओर देखकर कहा—
“यह किसका उपकार मुझ पर हुआ?”
“कुशीनारा के मल्ल बंधुल का।” महाक्षत्रप कौशल्य हिरण्यनाभ ने पीछे से आगे बढ़कर कहा।
प्रसेनजित् ने दोनों हाथ फैलाकर कहा—”क्या मेरा मित्र बन्धुल मल्ल आया है?”
“महाराज की जय हो! मुझे हर्ष है महाराज, मैं ठीक समय पर आ पहुंचा।” बन्धुल ने आगे बढ़कर कहा।
“निश्चय। नहीं तो यह दासीपुत्र मेरा हनन कर चुका था। क्षत्रप हिरण्यनाभ, इसे बन्दी कर लो।”
बन्धुल ने कहा—”महाराज प्रसन्न हों! इस बार राजपुत्र को क्षमा कर दिया जाए। मैं समझता हूं, वे अपने अविवेक को समझ लेंगे।”
राजा ने कहा—”कोसल में तेरा स्वागत है मित्र बन्धुल, विदूडभ के विषय में तेरा ही वचन रहे।”
“कृतार्थ हुआ महाराज, तो राजपुत्र, अब तुम स्वतन्त्र हो मित्र।” विदूडभ चुपचाप चला गया।
बन्धुल ने कहा—”महाराज को याद होगा, तक्षशिला में आपने इच्छा की थी कि यदि आप राजा हुए तो मुझे सेनापति बनना होगा।”
“याद क्यों नहीं है मित्र, मैंने तो तुझे बहुत लेख लिखे, तेरी कोसल को भी ज़रूरत है और मुझे भी। कौशाम्बीपति उदयन की धृष्टता तूने नहीं सुनी, गांधारराज कलिंगदत्त ने अपनी अनिन्द्य सुन्दरी पुत्री कलिंगसेना मुझे दी है, तो उदयन उसी बहाने श्रावस्ती पर चढ़ने की तैयारी कर रहा है। इधर मगध सम्राट् बिम्बसार पुराने सम्बन्ध की परवाह न करके कोसल को हड़पने के लिए कोसल पर अभियान कर रहे हैं। अन्य शत्रु भी कम नहीं हैं। बन्धुल मित्र, कोसल को तेरी कितनी आवश्यकता है और मुझे भी, वह तो तूने देख ही ली।”
“तो मैं आ गया हूं महाराज, पर मेरी कुछ शर्ते हैं।”
“कह मित्र, मैं स्वीकार करूंगा।”
“मैं मल्ल वंश में हूं।”
“समझ गया, तुझे कभी मल्लों पर अभियान न करना होगा। मैं राज्य-विस्तार नहीं चाहता हूं। जो है वही रखना चाहता हूं। मित्र, कह और भी कुछ तेरा प्रिय कर सकता हूं।”
“बस महाराज।”
“तो कौशल्य हिरण्यनाभ, मित्र बन्धुल का सब प्रबन्ध कर तो। जब तक हम साकेत में हैं, बन्धुल सुख से रहें।”
“ऐसा ही होगा महाराज!”
“और श्रावस्ती जाकर तुझे मैं सेनापति के पद पर अभिषिक्त करूंगा। तेरा कल्याण हो। जा, अब विश्राम कर।”
22. माण्डव्य उपरिचर : वैशाली की नगरवधू
महाराज प्रसेनजित् दीर्घिका के शुभ्र मर्मर सोपान पर बैठे थे। स्वच्छ जल में रंग-बिरंगी मछलियां क्रीड़ा कर रही थीं। प्रभात का सुखद समीर नये पत्तों से लदे वृक्षों को मन्द-मन्द हिला रहा था। बड़ा ही मनोहर वसन्त का प्रभात था वह। महाराज की आंखें उनींदी और शरीर अलस हो रहा था। वे चुपचाप बैठे जल की तरंगों को देख रहे थे।
एक वेत्रवती ने निवेदन किया—”आचार्य माण्डव्य उपरिचर आए हैं।”
“यहीं ले आ उन्हें।”
माण्डव्य आचार्य की आयु का कोई पता ही नहीं लगता था। उनका चेहरा भावहीन, नेत्र अतिरिक्त भ्रमित–से, भौंहें बहुत बड़ी-बड़ी, कान नीचे तक लटके हुए, शरीर रोमश और रंग अति काला था। उनकी कमर पर लाल रंग का कौशेय था। ऊपर की पीठ और वक्ष बिलकुल खुला था। मस्तक पर रक्तचन्दन का लेप और पैरों में मृगचर्म का उपानह था। उनकी दन्तावली सुदृढ़ थी। नेत्रों की कोर से कभी-कभी चमक निकलती थी। चेहरा श्मश्रु से भरा था। उनका शरीर लोह-निर्मित मालूम होता था। कण्ठ में स्वच्छ जनेऊ था। हाथ में एक मोटा दण्ड था। चलने का ढंग मतवालों जैसा था।
उन्होंने कर्कश वाणी से हाथ उठाकर महाराज को आशीर्वाद दिया।
“आचार्य, मैं बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूं।”
“किसलिए महाराज, रात को सुखद नींद आती है न?”
“आचार्य, रात की बात क्या कहते हैं, जीवन अब घिस-सा गया है। सोचता हूं, कुछ परलोक-चिन्तन करूं।”
“महाराज की बातें! लोक-परलोक, सुख-दुख, पाप-पुण्य, आचार-दुराचार, देव-देवता, ये सब तो बाल कल्पनाएं हैं राजन्! क्या आप भी उस मूर्ख प्रवाहण की मुक्ति, पुनर्जन्म और आत्मा के मायाजाल में फंसे हैं?”
“परन्तु जीवन तो मिथ्या नहीं है आचार्य।”
“जीवन सत्य है। तो फिर नकद छोड़कर उधार के पीछे क्यों दौड़ते हैं?”
“अरे आचार्य! नकद सामने रहते जो टुकुर-टुकुर ताकना पड़ता है सो?”
आचार्य हंसकर वहीं शिलाखण्ड पर बैठ गए। उन्होंने कहा—”क्या यहां तक महाराज!”
“सत्य ही आचार्य, नग्न रूप और यौवन भी मेरे गलित काम को नहीं जगाता, पुराण द्राक्षा की सुवास अब नेत्रों में रक्त आभा नहीं प्रकट कर सकती, कभी उस के रंग में जगत् रंगीला दीखता था।”
“तब महाराज सिद्ध योगी हो गए प्रतीत होते हैं।”
“योगी को फिर देश-विदेश से लाई सुन्दरियों का क्या लाभ है?”
“बांट दीजिए महाराज, तरुणों को उनकी आवश्यकता है। एक यज्ञ रचकर सुपात्र ऋत्विज ब्राह्मणों को उन्हें दान दीजिए।”
“किन्तु ये स्वार्थी लोलुप ब्राह्मण इधर सुन्दरी दासियों को ले जाते हैं, उधर उनके रत्नाभरण उतारकर पांच-पांच निष्क में बूढ़ों को बेच देते हैं।”
“इसमें बूढ़ों का प्रत्युपकार भी तो होता है महाराज, उन्हें तरुणियों की अत्यधिक आवश्यकता है।”
“फिर इस बूढ़े की ओर आचार्य क्यों नहीं ध्यान देते? क्या आपको विदित नहीं कि गान्धार-कन्या कलिंगसेना अन्तःपुर में आ रही हैं। आपकी अमोघ रसायन-विद्या किस काम आएगी?”
“क्यों? क्या तक्षशिला के उस तरुण मागध वैद्य का वाजीकरण व्यर्थ गया?”
“जीवक कौमारभृत्य की बात कहते हैं आचार्य?”
“यही तो उसका नाम है।”
“बिलकुल व्यर्थ? आचार्य, सुना था, वह तक्षशिला से चिकित्सा में पारंगत होकर आया है। मैंने बड़ी आशा की थी।”
“परन्तु अब बिलकुल आशा नहीं रही, महाराज?”
“आचार्यपाद जब तक हैं, तब तक तो आशा है। मुनि बृहस्पति के फिर आप शिष्य कैसे?”
“तब यह लीजिए महाराज, रसायन देता हूं।”
यह कहकर एक छोटा-सा बिल्वफल आचार्य ने महाराज के हाथ पर रखकर कहा—”इसमें एक ही मात्रा रसायन है। यह देह-सिद्धि तथा लोह-सिद्धि दोनों ही कार्य करेगी। इससे चाहे तो सामने के सम्पूर्ण पर्वत को स्वर्ण का बना लें महाराज चाहे अपने इस गलित-वृद्ध शरीर को वज्र के समान दृढ़ बना लें और स्वच्छन्द नव विकसित अनिन्द्य गान्धार पुत्री के सौन्दर्य का आनन्द लूटें।”
“आचार्य का बड़ा अनुग्रह है। स्वर्ण-राशि की मेरे कोष में कमी नहीं। यह देह उपलब्ध सुख-साधनों के भोगने में समर्थ हो, यही चाहता हूं।”
“तो राजन्, चिरकाल तक उन सुख-साधनों का भोग कीजिए। मैं आशीर्वाद देता हूं।”
आचार्य हंसते हुए चले गए। महाराज उत्साहित हो धीरे-धीरे दो युवतियों के कन्धों पर हाथ रख महल में लौटे। धूप तेज हो गई थी।
23. जीवक कौमारभृत्य : वैशाली की नगरवधू
“तुम्हीं वह वैद्य हो?”
“वैद्य तो मैं हूं। परन्तु ‘वह’ हूं या नहीं, नहीं कह सकता।”
“कहां के?”
“राजगृह का हूं, पर शिक्षा तक्षशिला में पाई है।”
“आचार्य आत्रेय के शिष्य तुम्हीं हो?”
“मैं ही हूं।”
“तब ठीक।” राजकुमार विदूडभ ने थोड़ा नम्र होकर कहा—”बैठ जाओ मित्र।”
युवक वैद्य चुपचाप बैठ गया। उसकी आयु कोई 26 वर्ष की थी। उसका रंग गौर, नेत्र काले-उज्ज्वल, माथा चौड़ा, बाल सघन काले और चिबुक मोटी थी। वह एक महार्घ दुशाला कमर में बांधे था। उस पर सुनहरा कमर-बंद बंधा था, एक मूल्यवान् उत्तरीय उसके कन्धे पर बेपरवाही से पड़ा था। पैरों में सुनहरी काम के जूते थे।
विदूडभ ने कुछ देर घूर-घूरकर तरुण वैद्य को देखा। फिर कहा—”तुम्हारी जन्मभूमि क्या राजगृह ही है?”
“जी हां, जहां तक मुझे स्मरण है।”
“राजगृह बड़ा मनोहर नगर है मित्र, परन्तु राजगृह से तुम क्या बहुत दिनों से बाहर हो?”
“प्रायः सोलह वर्ष से।”
“तो तुम तक्षशिला में भगवान् आत्रेय के प्रधान शिष्य रहे?”
“मैं उनका एक नगण्य शिष्य हूं। वास्तव में मैं कौमारभृत्य हूं।”
“मैंने तुम्हारी प्रशंसा सुनी है मित्र, तुम तरुण अवश्य हो पर तारुण्य गुणों का विरोधी तो नहीं होता।”
“क्या मैं युवराज की कोई सेवा कर सकता हूं?”
“मैं वैद्यों के अधिकार से परे हूं मित्र, देखते हो मेरा शरीर हर तरह दृढ़ और नीरोग है। फिर भी मैं तुम्हारी मित्रता चाहता हूं।”
“मेरी सेवाएं उपस्थित हैं।”
“क्या तुम्हें मित्र, पिता के स्वर्ण-रत्न का बहुत मोह है?”
“स्वर्ण-रत्न का मुझे कभी भी मोह नहीं हुआ।”
“यह अच्छा है और एक सच्चे मित्र का?”
“उसकी मुझे बड़ी आवश्यकता है, युवराज।”
“तो तुम मुझे आज से अपना मित्र स्वीकार करोगे, अन्तरंग मित्र?”
“परन्तु मैं दरिद्र वैद्य हूं, जिस पर राज-नियमों से अपरिचित हूं।”
“तुम एक उत्तम युवक हो और मनुष्य के सब गुणों से परिपूर्ण हो।” युवराज ने अपनी बहुमूल्य मुक्ता-माल उतारकर वैद्य के कंठ में डालकर कहा—”यह स्नेह-उपहार स्वीकार करो मित्र।”
वैद्य ने धीरे-से माला हाथ में लेकर कहा—”यह उत्कोच है राजपुत्र, आपकी ऐसी ही इच्छा है तो कोई साधारण-सा उपहार दे दीजिए।”
“नहीं-नहीं मित्र, अस्वीकार न करो। यह अति साधारण है।”
“तब जैसी राजपुत्र की आज्ञा!”
“तो मित्र कहो—क्या पिताजी को तुम कुछ लाभ पहुंचा सके?”
“तनिक भी नहीं राजपुत्र, मैंने उनसे प्रथम ही कह दिया था कि उनकी यौवन ग्रन्थियां और चुल्लक ग्रन्थियां निष्क्रिय हो गई हैं। हृदय पर बहुत मेद चढ़ गया है। यदि वे कोई वाजीकरण सेवन करेंगे तो उनके जीवन-नाश का भय हो जाएगा।”
“फिर भी उन्होंने वाजीकरण भक्षण किया?”
“तीन-तीन बार राजपुत्र।”
“और तीनों बार निष्फल?”
“यह तो होना ही था। औषध केवल शरीर-यन्त्र ही को तो क्रियाशील करती है और इन्द्रिय-व्यापार उसी से चलता है। इस प्राकृतिक नियम का क्या किया जाय?”
“वास्तव में आचार्य माण्डव्य ने पिताजी को कामुक और अन्धा बना रखा है। परन्तु क्या आचार्य के इस रसायन में कुछ तत्त्व है!”
“मैंने उसका अध्ययन नहीं किया राजपुत्र, परन्तु रसायनतत्त्व सत्य है। आचार्य माण्डव्य मुनि बृहस्पति के शिष्य हैं, जिनका चार्वाक मत आजकल खूब प्रचार पर है। उनका तो यह सिद्धांत ही है कि शरीर को कष्ट मत दो। भाग्य नहीं, पररुषार्थ ही मुख्य है। अपने पर निर्भर रहो। परमेश्वर कुछ नहीं है, परलोक नहीं है, वेद धोखे की टट्टी है, बुद्धि ही सब कुछ है। आत्मा पंचतत्त्व से बना है। प्रत्यक्ष ही सत्य प्रमाण है। वह गौतम के न्याय का भी विरोध करते हैं और ब्राह्मणों के यज्ञों का भी। शूद्र और संकर सभी ने उनके मत को पसन्द किया है। इससे ब्राह्मणों का प्रभुत्व तो नष्ट हुआ है, पर अनाचार बहुत बढ़ा है। इन वंचक आर्यों को भी तो इससे बहुत सहारा मिला है। अब वे खुल्लमखुल्ला दासियों और रखेलियों को भेड़-बकरियों के रेवड़ की भांति अन्तःपुर में भेज रहे हैं और उनकी सन्तानों को कुत्तों और जानवरों की भांति समाज और संगठन से च्युत कर संकर बना देते हैं।”
“यह सत्य है। परन्तु सबसे बुरा प्रभाव तो वैश्यों पर पड़ा है। बेचारे वैश्य प्रतिलोम विवाह कर नहीं सकते। वे केवल अपनी और शूद्रों की ही स्त्रियों को घरों में डाल सकते हैं। उनका काम कृषि, पशुपालन और वाणिज्य है, जिसमें शूद्र और अतिशूद्र कर्मकर ही उनके सम्पर्क में रहते हैं। अतः उन्हीं में उनका रक्त मिल जाने से वे आर्यों से अति हीन, कुरूप और कुत्सित होते जा रहे हैं।”
“परन्तु इसका उपाय ही क्या है, जब तक आर्यों का समूल उच्छेद न हो।”
“वह होने का भी समय आ गया है, राजपुत्र। सर्वजित् निग्रन्थ महावीर और शाक्यपुत्र गौतम ने आर्यों के धर्म का समूल नाश प्रारम्भ कर दिया है। उन्होंने नया धर्मचक्र-प्रवर्त्तन किया है जहां वेद नहीं हैं, वेद का कत्र्ता ईश्वर नहीं है, बड़ी-बड़ी दक्षिणा लेकर राजाओं के पापों का समर्थन करनेवाले ब्राह्मण नहीं हैं। ब्रह्म और आत्मा का पाखण्ड नहीं है। उन्होंने जीवन का सत्य देखा है, वे इसी का लोक में प्रचार कर रहे हैं। उधर अनार्य अश्वग्रीव और हिरण्यकशिपु ने वेद पढ़ना, सुनना और यज्ञ करना अपराध घोषित कर दिया है। उसके लिए प्राण-दण्ड नियत है।”
“जितनी जल्दी आर्यों का नाश हो, उतना ही अच्छा है वैद्यराज।”
“बेचारे शूद्रों को भारी विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है।”
“वह क्यों?”
“उन्हें उच्च वर्ण की स्त्री लेने का अधिकार नहीं। उनकी युवती और सुन्दरी कन्याओं को ये आर्य युवा होने से प्रथम ही या तो खरीद लेते हैं या हरण कर लेते हैं और वे द्रविड़ों, दस्युओं तथा असुरों से स्त्रियां जैसे-तैसे जुटा पाते हैं। आर्यों के घरों में जहां स्त्रियों की फौज भरी रहती है, वहां उन बेचारों के अनेक तरुण कुमार ही रह जाते हैं। इन्हें आजीवन स्त्री नहीं मिलती। एक-एक स्त्री के लिए वे खून-खराबी तक करते हैं।”
“किन्तु मित्र, क्या आर्यों का नाश होने पर कोई महा अनिष्ट आ खड़ा होगा?”
“कुछ भी नहीं मित्र, आर्यत्व का घमण्ड ही थोथा है। रक्त की शुद्धता का तो पाखण्ड-ही-पाखण्ड है। दस्यु और शूद्र-पर्यन्त रक्त उनकी नाड़ियों में है। फिर जिन्हें वे अनार्य या संकर कहते हैं, उनमें उन्हीं का तो रक्त है। वास्तव में विश्व के मनुष्यों की एक ही सार्वभौम जाति होनी चाहिए।”
“किन्तु मित्र, शताब्दियों से रूढ़िबद्ध ये आर्य, केवल वर्णों ही में बद्ध नहीं। इस ब्राह्मणत्व और राजत्व में बड़ी भारी भोग-लिप्सा भी है।”
“ऐसा तो है ही राजपुत्र, इसी से तथागत ने इस वर्ण-व्यवस्था की जड़ पर प्रथम कुठाराघात किया है। उन्होंने लोहे के खड्ग से नहीं, ज्ञान, तर्क और सत्य के खड्ग से ब्राह्मणों और क्षत्रों के सम्पूर्ण मायाजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया है। आप देखते नहीं हैं कि देश के बाहर से आए हुए जिन यवन, शक, गुर्जर और आभीरों को ये ब्राह्मण म्लेच्छ कहकर घृणा करते थे, उन्हें ही तथागत ने अपने संघशासन में ले लिया है और उन्हें मनुष्यता के अधिकार दिए हैं। तुम देखोगे कि बहुत शीघ्र ही भारत से जाति-भेद और ऊंच-नीच के भेद मिट जाएंगे। तथागत को जाति-वर्ण-भेद उठाते देख ब्राह्मणों ने अब वर्ण-बहिष्कृत लोगों को ऊंचे-ऊंचे वर्ण देने शुरू कर दिए हैं, पर अब इस फन्दे से क्या?”
विदूडभ कुछ देर सोचते रहे। तरुण वैद्य ने कहा, “आप विचार तो कीजिए कि किस भांति इन लालची ब्राह्मणों ने अपने को राजाओं के हाथ बेच रखा है। एक दिन था मित्र, मैं भी इस वर्णव्यवस्था के मायाजाल में था। जब मैं उज्जयिनी में वेद, व्याकरण निरुक्त और काव्य पढ़ रहा था। अपने सहपाठी नागरों और यौधेयों को झुझार और विश कहकर ब्राह्मण बटुक चिढ़ाया करते थे। पर जब मैंने भरुकच्छ में जाकर असली समृद्ध यवनों और उनके वैभव को देखा; लाट, सौराष्ट्र और उज्जयिनी के शक-आभीर महाक्षत्रपों के वैभव और शौर्य को देखा, पक्व नारंगी के समान गालोंवाले, श्मश्रुहीन मुख और गोल-गोल आंखोंवाले निर्बुद्धि किन्तु दुर्धर्ष हूणों को देखा, तो मुझ पर इन आर्यों के आधार रूप ब्राह्मणों और उनके हथियार वेदों तथा क्षत्रियों और उनके हथियार पुनर्जन्म और ब्रह्म की कलई खुल गई। जो शताब्दियों तक मूर्ख जनता को शांत और निरुपाय अनुगत बनाने का एकमात्र उपाय था।
“इसी कोसल में देखो मित्र, एक ओर ये सेट्ठियों की और महाराजों की गगनचुम्बी अट्टालिकाएं हैं, जो स्वर्ण-रत्न और सुखद साजों से भरी-पूरी हैं। दूसरी ओर वे निरीह और कर्मकर, शिल्पी और कृषक हैं जो अति दीन-हीन हैं। क्या इन असंख्य प्रतिभाशाली, परिश्रमीजनों की भयानक दरिद्रता का कारण ये इन्द्रभवन तुल्य प्रासाद नहीं हैं? कोसल में भी देखा गया है और मगध साम्राज्य में भी देखा है। नगरों में, निगमों में, गांवों में भी चतुर शिल्पी भांति-भांति की वस्तुएं तैयार करते, तन्तुवाय, स्वर्णकार, ताम्रकार, लोहकार, रथकार, रथपति इन सभी के हस्त कौशल से ये प्रासाद बनते हैं। परन्तु उनके हाथ से बनाए ये सम्पूर्ण अलौकिक पदार्थ तैयार होते ही उनके हाथ से निकलकर इन्हीं राजाओं, उनके सामन्तों, सेट्ठियों एवं ब्राह्मणों के हाथ में पहुंच जाते हैं। उनके लिए वे सपने की माया हैं। वे सब तैयार वस्तुएं गांवों से-निगमों से नगरों में, वहां से पण्यागारों में, सौधों और प्रासादों में संचित हो जाती हैं। उनका बहुत-सा भाग पारस्य और मिस्र को चला जाता है, बहुत-सा ताम्रलिप्ति, सुवर्णद्वीप पहुंच जाता है और उससे लाभ किनको? इन राजाओं को, जो भारी कर लेते हैं, या उन सेट्ठियों को, जो इन गरीबों की असहायावस्था से पूरा लाभ उठाते हैं। या इन ब्राह्मणों को, जिन्हें सर्वश्रेष्ठ वस्तु दान करना ये मूर्ख राजा अपना सबसे बड़ा पुण्य समझते हैं।”
युवराज की आंखें चमकने लगीं। उसने कहा—”तुम एक रहस्य पर पहुंच गए हो मित्र, तुम्हारी मित्रता पाकर मैं कृतार्थ हुआ हूं। मित्र, एक बार मैं तथागत गौतम को देखना चाहता हूं। यद्यपि मैं भी शाक्य रक्त से हूं, पर शाक्यों का मैं परम शत्रु हूं।”
“तथागत को शत्रु-मित्र समान हैं राजपुत्र! देखोगे तो जानोगे। कलन्दक निकाय के उस बूढ़े काले भिक्षु को जानते हैं आप?”
“क्या महास्थविर धर्मबन्धु की ओर संकेत है मित्र, जिन्होंने काशी से आकर यहां साकेत में संघ स्थापना की है?”
“हां, वे चाण्डाल-कुल के हैं। वे साकेत के सभी भिक्षुओं के प्रधान हैं। समृद्ध श्रोत्रिय ब्राह्मण स्वर्णाक्षी-पुत्र भारद्वाज और सुमन्त उनके सामने उकडू बैठकर प्रणाम करते हैं। उन दोनों ने उन्हीं से प्रव्रज्या और उपसम्पदा ली है।”
“यह मैंने सुना है मित्र, पर वे बड़े भारी विद्वान् भी तो हैं।”
“पर ब्राह्मणों की चलती तो विद्वान् हो सकते थे? आज वे देवपद-प्राप्त दिव्य पुरुष हैं। तथागत अपने संघ को समुद्र कहते हैं, जहां सभी नदियां अपने नाम-रूप छोड़कर समुद्र हो जाती हैं।”
“परन्तु कलन्दक निकाय को छोड़ इसी साकेत में तो ऊंच-नीच के भेदभाव हैं।” विदूडभ ने उदास होकर कहा।
“सो तो है ही; और जब तक मोटे बछड़ों का मांस खानेवाले और सुन्दरी दासियों को दक्षिणा में लेनेवाले ब्राह्मण रहेंगे, और रहेंगे उन्हें अभयदान देने वाले ये राजा लोग, तब तक ऐसा ही रहेगा, मित्र। ये तो स्वर्ण, दासी और मांस के लिए कोई भी ऐसा काम, जिससे इनके आश्रयदाता राजा और सामन्त प्रसन्न हों, खुशी से करने को तैयार हैं। देखा नहीं, कात्यायन, वररुचि, शौनक और वसिष्ठ ने अपनी-अपनी स्मृतियां बनाई हैं और उनमें दिल खोलकर अपने और अपने मालिकों के अधिकारों का डंका पीटा है।”
“तो मित्र, मैं तुझे पाकर बहुत सुखी हुआ।”
“परन्तु राजपुत्र, कदाचित् मेरा कोसल में रहना नहीं होगा।”
“यह क्यों मित्र?”
“मेरे वाजीकरण की विफलता से महाराज बहुत असन्तुष्ट हुए हैं। मैंने उनसे राजगृह जाने की अनुमति ले ली है। मैं शीघ्र ही राजगृह जाना चाहता हूं।”
“नहीं-नहीं, अभी नहीं मित्र! जब मैं कहूं, तब जाना। अभी कोसल में रहने का मैं तुम्हें निमन्त्रण देता हूं।”
“तो फिर राजपुत्र की जैसी इच्छा!”
24. नियुक्त : वैशाली की नगरवधू
हर्षदेव विक्षिप्तावस्था में देश-विदेश की खाक छानता हुआ वीतिभय नगरी में जा पहुंचा। उन दिनों इस नगर में उद्रायण नाम के राजा का राज्य था। हर्षदेव की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई थी। उसके वस्त्र गन्दे और फटकर चिथड़े हो गए थे। सिर और दाढ़ी के बाल बढ़कर परस्पर उलझ गए थे। उसकी दशा एक पागल भिखारी के समान थी। वैशाली को विध्वंस करके अम्बपाली को हस्तगत करने की तीव्र प्रतिहिंसा उसके मन और नेत्रों में व्याप्त थी, परन्तु इस महत्कार्य को करने योग्य उसमें न तो चरित्र-बल ही था, न योग्यता। वह यों ही अस्त-व्यस्त भटक रहा था।
भूख और थकान से जर्जर हर्षदेव ने नगर के बाहर स्थित एक चैत्य में आकर विश्राम किया। सघन वृक्षों की शीतल छाया में लेटते ही उसे गहरी नींद आ गई। उसी समय एक वृद्धा स्त्री ने उसे देखा। वह एक ऐसे ही अनाथ पुरुष की खोज में थी। हर्षदेव को अनाथ जानकर वह बहुत प्रसन्न हुई; जब उसने देखा कि वह स्वस्थ, सुन्दर और तरुण है तो वह और भी सन्तुष्ट हुई। और सन्तोष की दृष्टि से उसे देखती वहीं बैठ गई, तथा उसके जागने की प्रतीक्षा करने लगी।
थोड़ी देर बाद हर्षदेव ने जागकर वृद्धा को अपने सम्मुख बैठे देखा और कहा—”मातः, क्या मैं तेरा कुछ प्रिय कर सकता हूं?”
“कृतपुण्य होकर जात।”
“कृतपुण्य कौन है?”
“वह मेरा इकलौता बेटा था।”
“वह कहां है?”
“वह अपने तीन जहाज़ भरकर ताम्रपर्णी की ओर सार्थवाही जनों के साथ गया था। अब सार्थवाही जनों ने लौटकर बताया है कि मार्ग में उसके जहाज़ तूफान में फंसकर डूब गए। उन्हीं के साथ मेरा वह प्रिय पुत्र भी डूब गया। जात, वह इस नगर के प्रसिद्ध सेट्ठि धनावह का इकलौता बेटा था और मैं भाग्यहीना उसकी माता हूं।”
“दुःख है माता, पर यदि मेरे पुत्र बनने से तेरा कुछ उपकार होता हो, तो मैं तेरा पुत्र हूं।”
“उपकार बहुत हो सकता है पुत्र! मैं पुत्रहीना स्त्री हूं, यदि राज्य के सेवकों को यह खबर लग जाय, तो वे मेरा सब धन राजकोष में उठा ले जाएंगे। इसीलिए पुत्र, तू मेरा पुत्र बनकर मुझे कृतार्थ कर।”
“किन्तु माता, मैं कृतसंकल्प हूं।”
“कोई हानि नहीं, तू मेरा मनोरथ पूर्ण करके अपना संकल्प पूरा कर लेना।”
“तेरा मनोरथ क्या है, माता?”
“मेरे पुत्र की चार वधूटियां है। चारों ही कुलीना, सुन्दरी और तरुणी हैं। मैं तुझे नियुक्त करती हूं, तू उन चारों में धर्मपूर्वक एक-एक क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न करने तक मेरा पुत्र बनकर मेरे घर रह। मैं तुझे शुल्क दूंगी।”
हर्षदेव ने कुछ विचारकर कहा—”तो ऐसा ही हो माता। मैं तेरा प्रिय करूंगा, परन्तु शुल्क इच्छानुसार लूंगा।”
“मेरा पति धनावह सेट्ठि सहस्रभार स्वर्ण का अधिपति था, और उसके सात सार्थवाह देश-विदेश में चलते थे। सो तू शुल्क की चिन्ता न कर। मैं तुझे यथेच्छ शुल्क दूंगी।”
“तो माता, मैं तेरा पुत्र कृतपुण्य हूं।”
वृद्धा उसे घर ले आई। वीथिका में घुसते ही उसने जोर-जोर से रोना-चिल्लाना आरम्भ किया—”अरे लोगो, मेरा भाग्य देखो, मेरा मरा पुत्र जी उठा है। अरे, मेरा पुत्र आया है। मेरा पुत्र कृतपुण्य—अहा मेरे घर का उजाला, यह मेरा कृतपुण्य है।”
बुढ़िया का रोना-चिल्लाना सुनकर गली-मुहल्ले के बहुत जन स्त्री-पुरुष एकत्र हो गए। वे उन दोनों को घेरकर चलने लगे। वृद्धा कृतपुण्य का हाथ थाम अपने घर के द्वार पर आकर और ज़ोर-ज़ोर से रोने-चिल्लाने लगी—”हाय, हाय, यह मेरे पुत्र की दुरवस्था देखो रे लोगो, सेट्ठि धनावह के इकलौते पुत्र ने कितना दुःख पाया है।”
बहुत लोगों ने बहुत भांति सांत्वना दी। बहुत कौतुक और आश्चर्य से हर्षदेव के उस जघन्य रूप को देखते रहे। वृद्धा ने सेवकों को एक के बाद दूसरी आज्ञा देना आरम्भ किया—”नापित को बुलाओ, मेरा पुत्र क्षौर करे। जल गर्म करो, उसे सुवासित करो, अवमर्दक और पीठमर्द को बुलाओ, पुत्र का अंगसंस्कार करो।”
देखते-ही-देखते दास-दासियों और सगे-सम्बन्धियों की दौड़-धूप से हर्षदेव क्षौर करा, स्नान-उबटन करा, बहुमूल्य कौशेय धारण कर उपाधान के सहारे नगर पौर जनों से घिरा सुवासित पान के बीड़े कचरने और अपने भूत-भविष्य पर विचार करने लगा। घर में विविध पकवान पकने की सुगन्ध फैल गई। वृद्धा ने चारों बहुओं को उबटन लगा, नख-शिख से शृंगार कर पाटम्बर धारण करने का आदेश दिया।
वधुओं में जो ज्येष्ठा थी, उसने एक बार अच्छी तरह झांककर पति को देखा। देखकर उसका मुख सूख गया। उसका नाम प्रभावती था। उसने सौतों को बुलाकर भयपूर्ण स्वर से कहा—
“अब्भुमे, अब्भुमे, यह कौन है रे? यह तो सेठ का पुत्र नहीं है।”
सबने गवाक्ष में से झांककर देखा। सबने कहा—”अब्भुमे, नहीं है, यह हमारा पति नहीं, यह कोई धूर्त वंचक है।”
“तो चलो, माता से कह दें।”
चारों जनी सास के पास पहुंचीं।
वृद्धा ने उन्हें देखकर कहा—”अरे, यह क्या! तुम लोगों ने अभी तक शृंगार नहीं किया? सांध्य बेला तो हो गई! मेरा पुत्र…”
“किन्तु माता, यह तुम्हारा पुत्र नहीं है, कोई धूर्त वंचक है,” ज्येष्ठा ने वृद्धा की बात काटकर कहा। वृद्धा ने भृकुटी में बल डालकर कहा—
“मेरे पुत्र को तुम क्या मुझसे अधिक जानती हो? यही मेरा पुत्र कृतपुण्य है।”
“यह नहीं है माता,” चारों वधूटियों ने दृढ़ वाणी से कहा।
“परन्तु जब मैं कहती हूं, तब तुम्हें भी यही कहना चाहिए।”
“परन्तु हमने उसे भली भांति देख लिया है।”
“चुप, मैंने इसे ‘नियुक्त’ किया है।”
वधुओं का मुंह सूख गया और उनकी वाणी कण्ठ में अटक गई। वे भयभीत होकर सास का मुंह देखने लगीं।
वृद्धा ने कहा—”देखो, तुम समझदार और बुद्धिमती हो, मूर्खता करके बने-बनाए खेल को मत बिगाड़ देना। तुमने देख ही लिया है, वह सुन्दर, स्वस्थ और कुलीन है। तुम और मैं पुत्रहीना स्त्रियां हैं, ऐसी अवस्था में देश के कानून के आधार पर राजपुरुषों को ज्यों ही इस बात का पता लग जाएगा कि हम पुत्रहीना स्त्रियां हैं, तो राजपुरुष हमारी सारी सम्पत्ति को हरण करके राजकोष में मिला देंगे। तब हमें अपना सब स्वर्ण-रत्न, घर-बार खोकर पथ की भिखारिणी होकर रहना होगा। परन्तु इस नियुक्त पुरुष के द्वारा तुम चारों एक-एक क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न कर लोगी तो वे ही हमारी इस अतुल सम्पदा के भोक्ता होंगे और तुम कुल-वधू बनकर रहोगी। सब भोगों को भोगोगी। यह कोई अधर्म की बात नहीं है। प्राचीन आर्यों की धर्म की रीति है। शान्तनु के धर्मात्मा पुत्र भीष्म ने इसी धर्म को अपनाकर कुरुवंश की रक्षा की थी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इससे मैं तुम्हारे सुख-कल्याण के लिए जैसा कहती हूं, तुम उसी प्रकार आचरण करो। इसी में तुम्हारा कल्याण होगा।”
बुढ़िया की बातें अन्ततः वधूटियों के मन में घर कर गईं और उन्होंने उसके आदेश के अनुसार इस नियुक्त पुरुष को पति-भाव से स्वीकार कर लिया। इस प्रकार हर्षदेव अपने संकल्प को भूल धन-सम्पदा, ऐश्वर्य और युवती स्त्रियों के सुख में डूब गया। कृतपुण्य होकर वह सेट्ठिपुत्र का सम्पूर्ण अभिनय करने लगा। किसी को भी उस पर सन्देह नहीं हुआ; जिन्होंने सन्देह किया, उन्हें बुढ़िया ने साम-दान-दण्ड-भेद से वश में कर लिया।
25. नियुक्त का शुल्क : वैशाली की नगरवधू
इस प्रकार उस नगर में रहते हुए हर्षदेव को तीन वर्ष बीत गए। इन तीन वर्षों में उसने सेट्ठिपुत्र की चारों वधूटियों में तीन पुत्र और दो पुत्रियां उत्पन्न कीं। अपने घर को शिशुओं से आह्लादित और प्रसादित देखकर वृद्धा बहुत प्रसन्न रहने लगी। बालक बड़े ही स्वस्थ और सुन्दर थे। वे बुद्धिमान भी थे, जैसे कि संकर रक्त की संतान होती ही है। पहले हर्षदेव अपने को मात्र नियुक्त समझकर इन सबसे उदासीन रहता था, बीच-बीच में वह देवी अम्बपाली का भी ध्यान करता था; परन्तु ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए, उसने सोचा, क्यों न मैं अब सब बातों को भूलकर कृतपुण्य रहकर ही जीवन व्यतीत करूं। चारों बहुएं भी अब उससे प्रेम करने लगी थीं। खासकर तृतीया की उस पर अधिक आसक्ति थी। वह सब वधूटियों में चतुरा, प्रगल्भा, बुद्धिमती और सुन्दरी भी थी। उसका पिता चम्पा का एक धनी सेट्ठि सार्थवाह था।
परन्तु बुढ़िया की योजना विशुद्ध वैधानिक थी। अब वह सोचने लगी थी, मेरा काम हो चुका। जो करना था, कर लिया। मेरे पुत्र के पुत्र हो गए, मेरा वंश चल गया। मेरी सम्पत्ति और मेरे कुल की रक्षा हो गई। अब वह नियुक्त मोघपुरुष जाए। वह इस सम्बन्ध में हर्षदेव से बातचीत करने का अवसर ढूंढ़ने लगी। उसके मन से उसका आदर-भाव बहुत कम हो गया। उसका घर में स्वामी की भांति रहना, उसका पुत्र-वधुओं के प्रति पति-भाव से व्यवहार करना, स्वच्छन्दता से भीतर-बाहर आना-जाना, मनमाना द्रव्य खर्च करना, सब उसे अखरने लगा। वह उसे घर से निकाल बाहर करने की युक्ति सोचने लगी।
एक दिन उसे अवसर भी मिल गया। कपिशाकाम्पिल्य के कुछ सार्थवाह नगर में आए थे। उनके साथ कुछ उत्तम अजानीय अश्व थे। उनसे हर्षदेव ने अपने लिए एक अश्व सहस्र स्वर्ण में खरीद लिया। अन्ततः वह सामन्त पुत्र था। अश्व पर चढ़कर चलने और शस्त्र धारण करने का वह अभ्यस्त था। सेट्ठि-पुत्र के अलस अभिनय से कभी-कभी ऊबकर वह अश्व पर शस्त्र लेकर मृगया करने और भुना हुआ शूकर-शूल्य खाने को छटपटा उठता था। कृतपुण्य का सेट्ठि परिवार श्रावक था, अतः यहां उसे मांस नहीं मिल रहा था।
सो अश्व खरीदकर और नये अश्व पर सवार होकर वह प्रसन्न होता हुआ घर पहुंचा और उपास्था को पुकारकर कहा कि वह सार्थवाहक को सहस्र स्वर्ण दे दे, जो उसके साथ-साथ ही आया था। बुढ़िया को अवसर मिल गया। वह क्रुद्ध होकर बाहर आई, उसने कहा—”कैसा सहस्र स्वर्ण?”
“मैंने अश्व खरीदा है मातः।”
“परन्तु किसलिए?”
“मैं कभी-कभी वन-विहार हो जाया करूंगा?”
“तो तू निरन्तर वन-विहार कर, मेरी तरफ से तुझे छुट्टी है।”
“इसका क्या मतलब है?”
“अरे मोघपुरुष, तू मतलब पूछता है? क्या तू नहीं जानता कि तू नियुक्त है? जा, तेरी नियुक्ति समाप्त हुई। मेरा कार्य पूरा हुआ। तूने कहा था कि तू कृत-संकल्प है। जा, अपना संकल्प पूर्ण कर।”
“तो क्या मैं अब तेरा कृतपुण्य पुत्र नहीं?”
“नहीं रे मोघपुरुष, नहीं!”
“तो मैं राजद्वार में अभियोग उपस्थित करता हूं कि तू मुझ पुत्र को वंचित करती है। मैं कृतपुण्य हूं, यह सभी जानते हैं।”
“तो तू अभियोग उपस्थित कर, मैं कहूंगी, इस वंचक ने मेरा पुत्र बनकर मुझे ठगा है, मेरा कुल कलंकित किया है, तुझे शूली मिलेगी। अरे मोघपुरुष, तू कब मेरा कृतपुण्य था!”
मध्यमा ने आकर कहा—”मातः, यह विवाद ठीक नहीं है। इससे कुल कलंकित होगा तथा तेरे पौत्र अवैधानिक प्रमाणित होंगे और सम्पत्ति उन्हें नहीं मिलेगी।”
“तो तू क्या कहती है कि मैं इस धूर्त को जीवन-भर सिर पर लादे फिरूं? और वह मेरे पुत्र और पति की सम्पत्ति और मेरी वधुओं का आजीवन भोक्ता बना रहे?”
“तो उसे शुल्क देकर विदा कर दो।”
“कैसा शुल्क?”
हर्षदेव ने क्रुद्ध होकर कहा—
“क्या तूने शुल्क देने का वचन नहीं दिया था?”
“पर तूने खाया-पीया भी तो है; अरे भिक्षुक मोघपुरुष, स्मरण कर उस दिन को, जब तू चीथड़े पहने जंगल में भटक रहा था। तीन वर्षों में कितना खाया है रे पेटू, तनिक हिसाब तो लगा?”
“अरी कृत्या, तू अब मेरा पेट नापती है! नहीं जानती, मैं सामन्त हूं। अभी खड्ग से तेरा शिरच्छेद करूंगा।” हर्षदेव क्रुद्ध होकर खड्ग निकालने लगा।
बुढ़िया डर गई। वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। मध्यमा ने कहा—”मातः, अभी सब वीथिवासी आ जाएंगे, भेद खुल जाएगा, तेरा कुल दूषित होगा।”
“तो यह मोघपुरुष अभी मेरे घर से चला जाए।”
हर्षदेव ने कहा—”अभी जाता हूं , परन्तु तुझ कुट्टनी की प्रतिष्ठा के लिए नहीं, अपनी प्रतिष्ठा के लिए।” इसके बाद उसने सार्थवाह से कहा—” हन्त मित्र, मैं तुम्हारा अश्व इस समय नहीं खरीद सकता, अश्व ले जाओ और तुम्हें जो कष्ट हुआ, उसके लिए यह मुद्रिका ले लो।”
इसके बाद हर्षदेव सब बहुमूल्य वस्त्रालंकार उतार-उतारकर फेंकने लगा। केवल एक प्रावार अंग से लपेटकर चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।
चारों वधूटियां आंखों में आंसू भर खड़ी देखती रहीं। मध्यमा ने आगे बढ़कर कहा—”भद्र, यों नहीं यह कुल-मर्यादा के विपरीत है। एक मुहूर्त-भर ठहरो, मैं पाथेय तैयार करती हूं। पाथेय साथ लेकर जाना।”
बुढ़िया ने बाधा नहीं दी और हर्षदेव ने भी मौन स्वीकृति दी। मध्यमा ने बहुत-सा घी-चीनी डालकर दो बड़े-बड़े मधुगोलक बनाए। उनमें से एक में मुट्ठी-भर रत्न-मणि भी भर दिए। पाथेय हर्षदेव के हाथ में देकर हौले-से कहा—”भद्र, चम्पा जाना, वहां पिता के यहां रहकर मेरी प्रतीक्षा करना।”
इतना कह वह हर्म्य में चली गई और हर्षदेव डाल से टूटे पत्ते की भांति फिर निराश्रय हो पथ पर आगे बढ़ा।
26. चम्पारण्य में : वैशाली की नगरवधू
दोपहर ढल गई थी, पर्वत की सुदूर उपत्यकाओं में गहरी काली रेखाएं दीख पड़ने लगी थीं। किन्तु पर्वत-शृंग के वृक्ष सुनहरी धूप में चमक रहे थे। सामने एक सघन घाटी थी, उसी की ओर सात अश्वारोही बड़े सतर्क भाव से अग्रसर हो रहे थे। उनके अश्व थक गए थे और पथरीली ऊबड़-खाबड़ धरती पर रह-रहकर ठोकरें खाते जाते थे। आगे के दो अश्वों पर कुण्डनी और सोम थे, उनके पीछे पांच भट सावधानी से इधर-उधर ताकते अपने अश्वों को सम्हालते हुए चल रहे थे।
बहुत देर तक सन्नाटा रहा। घाटी के मुहाने पर पहुंचकर सोमप्रभ ने कहा, “तनिक अश्व को बढ़ाए चलो, कुण्डनी। हमें जो कुछ बताया गया है, यदि वह सत्य है, तो इस घाटी के उस पार ही हमें एक हरा-भरा मैदान मिलेगा और उसके बाद चम्पा नगरी की प्राचीर दीख जाएगी।”
“परन्तु सोम, यह घाटी तो सबसे अधिक विकट है। तुम क्या भूल गए, यहीं कहीं उस असुर राजा की गढ़ी है, जिसके सम्बन्ध में बहुत-सी अद्भुत बातें प्रसिद्ध हैं! उसके फंदे में फंसकर कोई यात्री जीवित नहीं आता। सुना है, देवता को वह नित्य नरबलि देता है और उसकी आयु सैकड़ों वर्ष की है। पिता ने कहा था कि वे उसे देख चुके हैं—वह अलौकिक आसुरी विद्याओं का ज्ञाता है और उसके शरीर में दस हाथियों का बल है।”
“परन्तु क्या हम उसकी आंखों में धूल नहीं झोंक सकते? जिस प्रकार आज चार दिन से हम निर्विघ्न चले आ रहे हैं उसी प्रकार इस घाटी को भी पार कर लेंगे। भय मत कर कुण्डनी, परन्तु सूर्य अस्त होने में अब विलम्ब नहीं है, हमें सूर्यास्त से प्रथम ही यह अशुभ घाटी पार कर लेनी चाहिए।”
“खूब सावधानी की आवश्यकता है सोम, जैसे बने इस अशुभ घाटी को हम जल्दी पार कर जाएं। न जाने मेरा मन कैसा हो रहा है।”
“पार तो करेंगे ही कुण्डनी, क्या तुम्हें सोम के बाहुबल पर विश्वास नहीं है?”
“नहीं, नहीं, सोम, मैं तुम्हें सावधान किए देती हूं। यदि दुर्भाग्य से उस असुर का सामना करना ही पड़ा, तो शरीर के बल पर भरोसा न करना। उससे बुद्धि-कौशल ही से निस्तार पाना होगा।”
सोम ने हंसकर कहा—”तो कुण्डनी, तुम मेरी पथप्रदर्शिका रहीं।”
कुण्डनी हंसी नहीं, उसने एक मार्मिक दृष्टि साथी पर डाली और कहा—”यही सही!”
सोम ने अश्व को बढ़ाकर कुण्डनी के बराबर किया, फिर कहा—”कुण्डनी, आचार्यपाद ने कहा था कि तुम मेरी भगिनी हो, क्या यह सच है?”
“तुम क्या समझते हो, पिता झूठ बोलेंगे?”
“क्यों नहीं, यदि उचित और आवश्यक हुआ तो!”
“और तुम?”
“मैं भी। झूठ से मूर्ख भी भय खाते हैं, जो उसका उपयोग नहीं जानते, जैसे शस्त्र से अनाड़ी डरते हैं।”
“तो तुम्हारी राय में झूठ भी एक शस्त्र है!”
“बड़ा प्रभावशाली।”
इस बार कुण्डनी हंसी; उसने कहा—”तुम्हारा तर्क तो काटने के योग्य नहीं है, परन्तु पिता ने सत्य कहा था।”
“नहीं, नहीं कुण्डनी, आर्या मातंगी ने कहा था—तुम्हारी एक भगिनी है पर वह कुण्डनी नहीं है।”
“सोम, शत्रु को छोड़कर मैं प्रत्येक पुरुष की भगिनी हूं।”
“इसका क्या अर्थ है? यह तो गूढ़ बात है।”
“मेरे पिता जैसे गूढ़ पुरुष हैं, वैसे ही उनकी पुत्री भी। तुम उनको समझने की चेष्टा न करो।”
“किन्तु मैं कुण्डनी…।”
सोम की बात मुंह ही में रही, एक तीर सनसनाता हुआ कुण्डनी के कान के पास से निकल गया।
कुण्डनी ने चीत्कार करके कहा—”सावधान! शत्रु निकट है।”
परन्तु इससे प्रथम ही सोम ने अपना भारी बर्खा सामने की झाड़ी को लक्ष्य करके फेंका। झाड़ी हिली और एक क्रन्दन सुनाई दिया। सोम खड्ग खींच झाड़ी के पास पहुंचा। कुण्डनी और पांचों भटों ने भी खड्ग खींच लिए—सबने झाड़ी को घेर लिया।
उन्होंने देख, बर्खा एक पुरुष की पसलियों में पार होकर उसके फेफड़े में अटक गया है। जो आहत हुआ है उसका रंग काजल-सा काला है, खोपड़ी छोटी और चपटी है, कद नाटा है, नंगा शरीर है, केवल कमर में एक चर्म बंधा है, उस पर स्वर्ण की एक करधनी है, जिस पर कोई खास चिह्न है। उसके घाव और मुख से खून बह रहा था और वह जल्दी-जल्दी सांस ले रहा था। उसके साथ वैसा ही एक दूसरा युवक था। उसने एक भीत मुद्रा से पृथ्वी पर लेटकर सोम को प्रणिपात किया, फिर दोनों हाथ उठाकर प्राण-भिक्षा मांगने लगा।
सोम ने उसे संकेत से अभय दिया। फिर संकेत ही से कहा—” क्या वह असुर है?”
असुर ने स्वीकार किया। इस पर सोम ने आसुरी भाषा में कहा—”वह अपने साथी को देखे—मर गया या जीवित है।”
युवक अपनी ही भाषा में बोलते सुनकर आश्वस्त हुआ। फिर उसने साथी को झाड़ी से निकालकर चित्त लिटा दिया। सोम ने देखा—जीवित है, पर बच नहीं सकता। उसने एक सैनिक को उसके मुंह में जल डालने को कहा—सैनिक ने जल डाला। पर इसी समय एक हिचकी के साथ उसके प्राण निकल गए।
सोम ने अब दूसरे तरुण को अच्छी तरह देखा, उसकी करधनी ठोस सोने की थी तथा उसकी आंखों में खास तरह की चमक थी। सोमप्रभ ने उससे पूछा—”क्या वह असुरराज शम्बर का आदमी है?”
शम्बर के नाम पर वह झुका, उसने स्वीकृतिसूचक सिर हिलाया।
सोम ने पूछा—”क्या तुम अपने प्राणों के मूल्य पर हमें चम्पा का मार्ग प्रदर्शन कर सकते हो?”
युवक ने स्वीकृति दी। परन्तु अत्यन्त भयभीत होकर घाटी की ओर हाथ उठाकर दो-तीन बार ‘शम्बर’ नाम का ज़ोर-ज़ोर से उच्चारण किया।
सोम ने कहा—”क्या उधर जाने में खतरा है?”
“हां।”
“चम्पा जाने का कोई दूसरा मार्ग है?”
“है, किन्तु बहुत लम्बा है।”
“कितना समय लगेगा?”
“एक सप्ताह।”
“और इस घाटी के मार्ग से?”
“एक दिन।”
सोम ने कुण्डनी से कहा—”लाचारी है! हमें खतरा उठाना ही पड़ेगा। हम एक सप्ताह तक रुक नहीं सकते।” उसने तरुण से कहा–
“हमें घाटी का मार्ग दिखाओ।”
तरुण असुर ने अत्यन्त भयमुद्रा दिखाकर उंगली गर्दन पर फेरी। सोम ने अपना खड्ग ऊंचा करके कहा—”चिन्ता मत करो।” असुर ने कहा—”खड्ग से आप बच नहीं सकेंगे।”
परन्तु सोम ने उधर ध्यान नहीं दिया। वे अश्व पर सवार हुए। कुण्डनी को भी सवार कराया और आगे-आगे युवक को करके घाटी की ओर अग्रसर हुए। एक बार उन्होंने तरुण असुर की छाती पर बर्छा रखकर कहा—”यदि दगा की तो मारे जाओगे।”
तरुण ने नेत्रों में करुण मुद्रा भरकर प्रणिपात किया, फिर स्वर्ण-करधनी का चिह्न छूकर प्राणान्त सेवा का वचन दिया।
आगे-आगे तरुण, पीछे अश्व पर सोम और कुण्डनी और उनके पीछे पांचों सैनिक द्रुत गति से आगे बढ़ने लगे। पर ज्यों-ज्यों घाटी के नीचे उतरते गए, उनका भय-आतंक बढ़ता ही गया। उन्हें एक अशुभ भावना का आभास होने लगा। सोम ने धीरे-से कहा—”कुण्डनी, क्या हम खतरे के मुंह में जा रहे हैं?”
“मालूम तो ऐसा ही होता है?”
“तब क्या लौट चलें?”
“अब सम्भव नहीं है।”
“क्या तुम भयभीत हो?”
“व्यर्थ है।”
और बातें नहीं हुईं। कुछ देर चुपचाप सब चलते रहे। घाटी में अन्धकार बढ़ता गया। तरुण ने एक झरना दिखाकर कहा—”अब आज इससे आगे जाना ठीक नहीं।”
सोम ने भी यही ठीक समझा। सब घोड़ों से उतर पड़े। घोड़े रास के सहारे बांध दिए गए। वे हरी-हरी घास चरने लगे। सोम ने तरुण असुर से कहा—”यहां आखेट है?”
वह कुछ मुस्कराता हुआ सिर हिलाता कहीं चला गया और थोड़ी देर में बहुत-सी जड़ें और कुछ जंगली फल उठा लाया। सबने वही खाया। फिर बारी-बारी से एक-एक सैनिक को पहरे पर तैनात कर दोनों सो गए। थकान के कारण उन्हें तुरन्त ही गहरी नींद आ गई।
27. शम्बर असुर की नगरी में : वैशाली की नगरवधू
अकस्मात् जैसे हृदय में धक्का खाकर सोमप्रभ की आंखें खुल गईं। उसने देखा, उसके हाथ-पांव कसकर बंधे हैं, और एक असुर तरुण स्वप्निल-सा कुण्डनी के हाथ-पांव बांध रहा है और वह बेसुध है। पांचों सैनिकों की भी वही दशा है, वे सब-के-सब बेसुध पड़े हैं। उसने इधर-उधर देखा, सामने कोई दस गज के अन्तर पर एक विशेष प्रकार की आग जल रही थी, जिसमें से नीली और बैंजनी रंग की लौ निकल रही थी। उसमें से विचित्र-सी गन्ध निकलकर हवा में फैल रही थी। उस हवा में श्वास लेने से सोमप्रभ को ऐसा मालूम हुआ, जैसे उसके शरीर से जीवन-शक्ति का लोप हो गया हो। उसने यह भी देखा कि उसके सम्पूर्ण शस्त्र उसके अंग पर ही हैं, पर वह उनका कोई उपयोग नहीं कर सकता। उसने ज़ोर से चिल्लाकर कुण्डनी को पुकारना चाहा, पर उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। इस बीच में तरुण असुर कुण्डनी को बांध चुका था। अकस्मात् उसके हृदय में एक ऐसी तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई कि वह चुपचाप उठकर एक ओर को चल दिया। एक बार पीछे फिरकर यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कुण्डनी चुपचाप स्वप्निल व्यक्ति की भांति पीछे चली आ रही है। यही दशा उसके अश्वों और भटों की भी थी। उन्हें वही तरुण लिए जा रहा था। उसने अब भी बोलने, कुण्डनी से बातचीत करने और कहां जा रहा है, यह विचारने की चेष्टा की, पर सब बेकार। वह मन्त्रप्रेरित-सा आगे बढ़ा चला जा रहा था। और उसके पीछे कुण्डनी और उसके अश्व और भट चले आ रहे थे। उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो कोई रस्सी से बांधकर उन्हें खींचे लिए जा रहा है।
पीछे वही तरुण था। वह रुक-रुककर कुछ शब्द कहता जाता था। कभी-कभी वन के बीच उपत्यका को प्रतिध्वनित करती हुई एक रोमांचकारी ध्वनि आती थी और उसी ध्वनि के उत्तर में वह तरुण असुर कोई अस्पष्ट शब्द उच्च स्वर से, मानो चीखकर, किन्तु बेबसी की हालत में उच्चारण कर रहा था।
पूर्व में सफेदी फैलने लगी और तारे धुंधले हो गए। ये यात्री चलते ही गए। अब किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित हो उन्होंने एक गहन गुफा में प्रवेश किया। गुफा में बिलकुल अन्धकार था। पर तरुण असुर ने क्षण-भर में वैसा ही नीला और बैंजनी रंग का प्रकाश उत्पन्न कर दिया। उसी के क्षीण प्रकाश में उन्होंने देखा, गुफा खूब लम्बी-चौड़ी और बड़ी है। वे उसमें भीतर-ही-भीतर चलते चले गए। बहुत देर चलने के बाद जब गुफा का दूसरा छोर आया, तो सोमप्रभ को ऐसा मालूम हुआ जैसे अकस्मात् गहरी नींद से जाग पड़ा हो। उसने देखा, दिन भली-भांति निकला है। सूर्य की मनोरम स्वर्ण-किरणें चारों ओर फैल रही हैं और उसकी आंखों के सामने एक खूब समथर हरा-भरा चौड़ा मैदान है, जो चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इस मैदान में एक स्वच्छ, सुन्दर और कलापूर्ण अच्छाखासा गांव बसा हुआ है। घर सब गारे-पॉथर के हैं। उन पर गोल बांधकर छप्पर छाया गया है। बांसों को गाड़कर अहाते बनाए गए हैं। सड़कें खूब चौड़ी और साफ हैं, पशु पुष्ट और उनके गवाट कलापूर्ण ढंग से बने हैं। असुर तरुणियां सुर्मे के रंग की चमकती देह पर लाल मूंगे तथा हिमधवल मोतियों की माला धारण किए, चर्म के लहंगे पहने और कमर में स्वर्ण की करधनी तथा हाथों में स्वर्ण के मोटे-मोटे कड़े पहने कौतूहल से इन विवश बन्दियों का आगमन देख रही थीं। असुर बालक उन्हें क्रीड़ा और मनोरंजन की सामग्री समझ रहे थे। रूपसी कुण्डनी सम्पूर्ण असुर बालाओं और युवती जनों की स्पर्धा की वस्तु हो रही थी। वह लाल शाल कमर में बांधे तथा उत्तरीय वासक को वक्ष में लपेटे सर्पिणी के समान लहराते सघन केशों को चांदी के समान उज्ज्वल मस्तक पर धारण किए साक्षात् वन-देवी-सी प्रतीत हो रही थी। सोमप्रभ के निकट आकर उसने उसके कान में कहा—”सोम, जिस असुर पुरीकी चर्चा लोग कहानियों में करते थे, वह आज हम परम सौभाग्य से अपनी आंखों से देख रहे हैं। यह तो बड़ी मनोरम, शान्त और स्वच्छ छोटी-सी नगरी है। सोम, क्या तुम्हें यह देखकर आश्चर्य नहीं होता?”
“मुझे तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि कुण्डनी इस असुरपुरी में कैसे निर्भय और विनोदी भाव से प्रवेश कर रही है।”
“भय क्या है सोम?”
“यह तो अभी पता चल जाएगा, जब शम्बर आज रात को हमें देवता पर बलि चढ़ाएगा।”
“क्या उसकी ऐसी सामर्थ्य है सोम?”
“उसकी सामर्थ्य क्या अभी तुमने देखी ही नहीं? नगर में घुसने के पूर्व तक हम लोग कैसे मूढ़ बने-से माया के वशीभूत इस असुरपुरी में खिंचे चले आए!”
“सच ही तो, यहां हम आ कैसे गए? यह तो बड़े आश्चर्य की बात है!”
“उसी आसुरी माया के बल पर। शायद सूर्योदय होने पर वह माया नष्ट हो गई।”
“उंह, पर अब तो मैं पूर्ण सावधान हूं और जब तक मैं सावधान हूं, शत्रु से डर नहीं सकती।”
“ऐसी वीरांगना को संगिनी पाकर मैं कृतार्थ हुआ कुण्डनी। अफसोस यही है कि तुम्हें जीवनसंगिनी कदाचित् न बना सकूँ।”
कण्डनी ने विषादपूर्ण हंसी हंसकर कहा—”यदि आज ही रात को असुर हमें देवता पर बलि चढ़ा दे, तब तो तुम्हारी साध पूरी जो जाएगी। तुम मुझे जीवन संगिनी ही समझ लेना। परन्तु सोम, क्या तुम बहुत भयभीत हो?”
“क्या भय की कोई बात नहीं है कुण्डनी?”
“हम शत्रुपुरी में हैं और विवश हैं, यही तो? इससे साहस खो बैठे? तक्षशिला में तुमने इतना ही पुरुषार्थ संचय किया था सोम?”
सोम एकटक कुण्डनी के तेजपूर्ण मुख को ताकने लगा। उसने इसके मदभरे उनींदे नेत्रों में प्यासी चितवन फेंककर कहा—”यह कौन-सी सामर्थ्य तुम्हारे भीतर से बोल रही है कुण्डनी?”
कुण्डनी ने हंसकर कहा—”सोम, तुम भी तो एक समर्थ पुरुष हो!”
“यदि मेरे हाथ-पैर बन्धनमुक्त हों और मेरा खड्ग मेरे पास हो, तो मुझे इन असुरों की परवाह नहीं।”
“ओह, फिर वही शारीरिक बल की बात कह रहे हो, सोम। याद रखो, यहां बुद्धि बल से विजय पानी होगी। मस्तिष्क को ठण्डा रखो और निर्भय आगे बढ़ो। देखें तो उस असुर का राजवैभव!”
इतने में ही बहुत-से वाद्य एक साथ बजने लगे। तुरही, भेरी, मुरज, मृदंग और ढोल। दोनों ने आंख उठाकर देखा, सामने लाल पत्थर का एक प्रशस्त दुर्ग है। उसके गोखों से असुर योद्धा सिर निकाल-निकालकर बन्दियों को देख रहे हैं। गढ़ के फाटक बहुत मोटी लकड़ी के हैं। उन्हें रस्सियों से खींचकर खोला जा रहा है। उसी के ऊपरी खण्ड में ये सब वाद्य बज रहे थे। फाटक पर बहुत-से असुर तरुण नंगे शरीर, कमर में खाल लपेटे, स्वर्ण करधानी पहने, विशाल भाले हाथ में लिए खड़े थे। उनके कज्जलगिरि-जैसे शरीर शीशे के समान चमक रहे थे।
कुण्डनी ने धीरे-से सोमप्रभ से कहा—”तुमने आसुरी भाषा कहां सीखी सोम!”
“मैंने गान्धार में अभ्यास किया था। देवासुर संग्राम में भी बहुत अवसर मिला। वहां असुर बन्दियों से मैं आसुरी भाषा में ही बोलता था।”
“तो सोम, उच्च स्वर से इन असुरों ही के समान असुरराज शम्बर का जय-जयकार करो!”
सोम ने यही किया। जय-जयकार का असुरों पर अच्छा प्रभाव पड़ा। उन्होंने हाथ उठाकर जय-जयकार में सहयोग दिया।
दुर्ग में प्रविष्ट होकर वे पत्थर की बड़ी सड़क पर कुछ देर चलकर एक बड़े दालान में पहुंचे। यह दालान आधा पहाड़ में गुफा की भांति खोदकर और आधा पकी ईंटों से चिनकर बनाया गया था। उसके बीचोंबीच पत्थर का एक ऊंचा सिंहासन रखा था। उस पर एक बाघम्बर बिछा था, जिसमें बाघ का विकराल मुख खुला दीख रहा था और उसकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें चमक रही थीं। उसी पर शम्बर पद्मासन से बैठा था। उसका शरीर बहुत विशाल था। रंग अत्यन्त काला। अवस्था का पता नहीं चलता था, परन्तु अंग अत्यन्त दृढ़ था। कण्ठ में मुक्ताओं और मूंगों की कई छोटी-बड़ी मालाएं पड़ी थीं। भुजबन्द में स्वर्णमण्डित सूअर के दांत मढ़े थे। सिर खुला था। उसके बाल कुछ- कुछ लाल, घुंघराले और खूब घने थे। उन पर स्वर्णपट्ट में जड़े किसी पशु के दो पैने सींग मढ़े हुए थे। मुंह भारी और रुआबदार था। उस पर खिचड़ी गलमुच्छा था। मस्तक पर रक्तचन्दन का लेप था। सम्पूर्ण वक्ष स्वर्ण की ढाल जैसे किसी आभूषण से छिपा था। उसके सिंहासन के दोनों ओर दो विशाल बर्छ गड़े थे। सिंहासन के पीछे चार तरुणी असुरकुमारिकाएं खड़ी मोरछल और चामर डुला रही थीं। एक मद्यपात्र लिए निकट खड़ी थी। दो के हाथ में गन्धदीप थे, जिसमें से सुगन्धित धुआं उठ रहा था। सिंहासन के सामने वेदी थी, जिसमें वैसी ही बैंगनी और नीली आंच जल रही थी। सिंहासन के पीछे पत्थर की दीवार पर किसी अतिभयानक विकराल जन्तु की तस्वीर खुदी हुई थी। शम्बर के हाथों में भी मोटे-मोटे स्वर्ण के कड़े थे तथा हाथ में एक मोटा स्वर्णदण्ड था, जो ठोस मालूम होता था। उसकी आंखें गहरी, काली और चितवन बड़ी तेज़ और मर्मभेदिनी थी। दो बूढ़े असुर, जिनकी वेशभूषा लगभग राजा ही के समान थी, सिंहासन के नीचे व्याघ्र-चर्म पर बैठे थे।
सोम ने एकबार भली-भांति असुरराज के दरबार को देखा और धीरे-से कुण्डनी के कान में कहा—”इस असुर के पास तो स्वर्ण का बड़ा भण्डार दीख पड़ता है।”
“चुप! उच्च स्वर से असुर का अभिनन्दन करो।”
कुण्डनी का संकेत पाकर सोम ने आसुरी भाषा में कहा—”जिस असुरराज शम्बर की अमोघ शक्ति और महान् वैभव की कहानियां मनुष्य, देव और गन्धर्व घर-घर कहते नहीं अघाते, उनका मैं सोमप्रभ अभिनन्दन करता हूं।”
यह सुनकर असुरराज ने मुस्कराकर वृद्ध मंत्रियों से कुछ कहा। फिर सोम की ओर देखकर कहा—”गन्धर्व है या मनुष्य?”
“मनुष्य।”
“कहां का?”
“मगध का।”
“मगध के सेनिय बिम्बसार को मैं जानता हूं। परन्तु वह मेरा मित्र नहीं है। तू मेरे राज्य की सीमा में क्यों घुसा? जानता है, यह अक्षम्य अपराध है और उसका दण्ड है मृत्यु।”
“महासामर्थ्यवान् शम्बर का यह नियम शत्रु के लिए है, मित्र के लिए नहीं। प्रतापी मागध सम्राट् बिम्बसार असुरराज से मैत्री करना चाहते हैं।”
असुर ने फिर झुककर मन्त्रियों से परामर्श किया। फिर उसने कहा—”मागध बिम्बसार दनुकुल का था। अब वह मनुकुल में चला गया है तथा मनुष्य-धर्म का पालन कर रहा है। इसी से वह मेरा मित्र नहीं है। मनुकुल सदैव देवकुल का मित्र होता है, दनुकुल का नहीं।”
“परन्तु मागध बिम्बसार दनुकुल-भूषण सामर्थ्यवान् शम्बर की मित्रता चाहता है। उसका मैत्री-संदेश ही मैं लाया हूं।”
शम्बर ने मन्त्रियों से फिर परामर्श किया और कहा—”इसका प्रमाण क्या है?”
“यही, कि मैं विजयिनी मागध सैन्य साथ न लाकर एकाकी ही यहां चला आया हूं। मुझे विश्वास था कि महान् शम्बर मित्रवत् हमारा स्वागत करेगा।”
इस पर शम्बर ने बड़ी देर तक मन्त्रियों से विचार-विमर्श किया और फिर कुण्डनी की ओर संकेत करके कहा—”वह कौन सुन्दरी है?”
“वह भी मागधी है।”
“तब सेनिय बिम्बसार ऐसी सौ सुन्दरी मुझे दे, तो मैं बिम्बसार का मित्र हूं।”
सोमप्रभ का मुंह क्रोध से लाल हो गया। कुण्डनी ने उसपर लक्ष्य करके कहा—”बेकूफी मत करना सोम। वह क्या कह रहा है।”
“वह तुम्हारी-जैसी सौ सुन्दरी मित्रता के शुल्क में मांग रहा है।”
“उससे कहो, मागधी तरुणी विद्युत्प्रभ होती है। असुर उसे भोग नहीं सकते। उसे छूते ही असुरों की मृत्यु हो जाएगी।”
शम्बर ने कहा—”वह सुन्दरी बाला क्या कह रही है?”
“वह कहती है, मगध के सम्राट् सामर्थ्यवान् शम्बर की यह शर्त पूरी कर सकते हैं, परन्तु बाधा यह है कि मागधी तरुणियां विद्युत्प्रभ होती हैं। उन्हें भोगने की सामर्थ्य असुरों में नहीं है। उन्हें छूते ही असुरों की मृत्यु हो जाएगी।
“मैंने अपने यौवन में लोक-भ्रमण किया है। गान्धार, पशुपुरी, स्वर्णद्वीप और गन्धर्वलोक देखा है। देव-कन्याओं तथा गन्धर्व-तरुणियों का हरण किया है। ऐसा हरण हमारा कुलधर्म है। इन सभी देव-गन्धर्व-बालाओं को भोगने में हम असुर समर्थ हैं; तब मागधी बाला को क्यों नहीं?”
सोमप्रभ को इधर-उधर करते देख कुण्डनी ने कहा—”अब वह क्या कहता है?”
असुर का अभिप्राय जान कुण्डनी ने कहा—”उससे कहो, मागधी बाला को देवी वर है। वह असुरों के लिए आगम्य और अस्पृश्य है।”
यही बात सोम ने कह दी। तब असुर ने कहा—”अच्छा, फिर यहां एक मागधी तरुणी है ही। इस पर असुरों की परीक्षा कर ली जाएगी।”
सोमप्रभ लाल-लाल आंखें करके शम्बर की ओर देखने लगा। कुण्डनी ने कहा—”अब उसने क्या कहा सोम?”
“वह पाजी कहता है, इसी तरुणी पर असुरों की परीक्षा कर ली जाएगी।”
कुण्डनी ने तनिक हंसकर कहा—”क्रुद्ध मत हो! उससे कहो, वह नागपत्नी है। यदि असुर इस परीक्षा में प्राण-संकट का खतरा उठाना चाहें, तो ऐसा ही हो।”
शम्बर ने क्रुद्ध होकर कहा—”वह बाला हंसकर क्या कह रही है रे मनुष्य?”
सोम ने कहा—”वह कह रही है, कि यदि असुर प्राण-संकट का खतरा उठाकर यह परीक्षण करना चाहते हों, तो ऐसा ही हो। परन्तु वह नागपत्नी है और स्वयं नागराज वासुकि उसकी रक्षा करते हैं।”
असुरराज ने मन्त्रियों से सलाह करके कहा—”इसकी जल्दी नहीं है मनुष्य! इस पर फिर विचार कर लिया जाएगा। अभी तू असुरपुरी में हमारा अतिथि रह।”
फिर उसने मन्त्रियों को सम्बोधित करके कहा—”आज इन मनुष्यों के लिए नृत्य पानोत्सव हो। सब पौरों को खबर हो। ढोल पीटे जाएं।”
फिर उसने सोम की ओर घूमकर कहा—”तुझे भय नहीं है; किन्तु यदि मागध बिम्बसार मित्रता की शर्त पूरी नहीं करेगा तो प्रथम इस मागध सुन्दरी को और फिर तेरी देवता के सामने बलि दूंगा। अभी तू जाकर आहार विश्राम कर।”
उसने बाण के समान पैनी दृष्टि से सोम को देखा और उंगली उठाई फिर असुर तरुणों से कहा—”इन मनुष्यों के शस्त्र हरण करके बन्धन खोल दो।”
असुरराज यह कहकर आसन से उठकर भीतर चला गया। बन्दीगण भी अपने आश्रय स्थल को लौटे।
28. कुण्डनी का अभियान : वैशाली की नगरवधू
इस असुरपुरी में जितनी स्वतन्त्रता सोम को प्राप्त थी, उस सबका सम्पूर्ण उपभोग करके सूर्यास्त के समय अत्यन्त थकित और निराश भाव से उसने उस गुफाद्वार में जब पैर रखा, जहां उनके ठहरने की व्यवस्था थी, तो वहां का दृश्य देख वह एकबारगी ही चीत्कार कर उठा। कुण्डनी, गुफा के मध्य में एक शिलाखण्ड पर बिछे बाघम्बर पर बैठी थी। उसके हाथ में उसका पूर्वपरिचित वही विषधर नाग था। नाग उसके कण्ठ में लिपट रहा था और उसका हाथभर चौड़ा फन कुण्डनी के हाथ में था। कुण्डनी की आंखों से आज जैसे मद की ज्वाला निकल रही थी। वे जैसे अगम सागर पर तरणी की भांति तैर रही थीं। सर्प की हरी मरकत मणि जैसी आंखें उन आंखों से युद्ध कर रही थीं। इसी अभूतपूर्व और अतर्कित नेत्र युद्ध को देखकर सोम चीत्कार कर उठा था। परन्तु उसके चीत्कार करते ही कुण्डनी ने चुटकी ढीली कर दी। सर्प ने उसके मृदुल ओठों पर दंश दिया। सोम ने झपटकर सर्प को उसके हाथ से छीनकर दूर फेंक दिया और हांफते-हांफते कहा—”यह तुमने क्या किया कुण्डनी?”
“तुम बड़े मूर्ख हो सोम। अगर नाग मर गया तो? यह तक्षक जाति का महाविषधर नाग है। पिता इसे कम्बोज के वन से लाए थे। पृथ्वी पर ऐसा विषधर अब और नहीं है। तुमने उसे आघात पहुंचा दिया हो तो?”
वह लहराती हुई उठी, नाग को बड़े प्यार से उठाकर हृदय से लगाया। नाग इस समय सिकुड़कर निर्जीव हो रहा था। उसका तेज-दर्प जाता रहा था।
सोम ने कहा—”कुण्डनी, तुम्हारा अभिप्राय मैं समझ नहीं सका। आचार्य ने मुझे तुम्हारा रक्षक बनाया है।”
“तो रक्षक ही रहो सोम। अभिप्राय जानने की चेष्टा न करो।” कुण्डनी ने भ्रूकुंचित करके कहा।
“तो तुम यह क्या कर रही थीं, कहो?”
“जो उचित था वही।”
“क्या आत्मघात?”
“दंश से क्या मेरा घात होता है। उस दिन देखा नहीं था?”
“तुम कौन हो कुण्डनी?” सोम ने घोर संदेह में भरकर कहा।
“पिता ने कहा तो था, तुम्हारी भगिनी। अब और अधिक न पूछो।”
“अवश्य पूछंगा कुण्डनी। हम घोर संकट में हैं। मैंने तमाम दिन इधर-उधर घूमने और भाग निकलने की युक्ति सोचने में लगाया है। पर सब व्यर्थ प्रतीत होता है। कहने को शम्बर असुर ने हमें स्वतन्त्रता दी है, पर हम पूरे बन्दी हैं कुण्डनी।”
“सो बन्दी तो हैं ही। तुम दिनभर भटकते क्यों फिरे? तुम्हें विश्राम करना चाहिए था। गुफा में काफी ठण्ड थी, खूब नींद ले सकते थे।”
“इस विपत्ति में नींद किसे आ सकती थी कुण्डनी?”
“पर विपत्ति की सम्भावना तो रात्रि ही को थी न भोज के बाद!”
“और तब तक हमें पैर फैलाकर सोना चाहिए था?”
“निश्चय। उससे अब तुम स्वस्थ, ताज़ा और फुर्तीले हो जाते और भय का बुद्धिपूर्वक सामना करते।”
“तुम अद्भुत हो कुण्डनी! कदाचित् तुम्हें असुर का भय नहीं है।”
“असुर से भय करने ही को क्या कुण्डनी बनी हूं?”
“तुम क्या करना चाहती हो कुण्डनी, मुझसे कहो।”
“इसमें कहना क्या है! शम्बर या तो हमारे मैत्री-संदेश को स्वीकार करे, नहीं तो आज सब असुरों-सहित मरे।”
“उसे कौन मारेगा?”
“क्यों? कुण्डनी।”
सोम अवज्ञा की हंसी हंसा। पर तुरन्त ही गम्भीर होकर बोला—”मैं तुम्हारे रहस्य जानना नहीं चाहता। परन्तु तुम्हारी योजना क्या है, कुछ मुझे भी तो बताओ, ताकि सहायता कर सकूं।”
“सोम, तुम युवक हो और योद्धा हो! तथाच गुरुतर राजकार्य में नियुक्त हो। मैं तुम्हारी अपेक्षा अल्पवयस्का एवं स्त्री हूं। फिर भी सोम, इस समय तुम मुझ पर निर्भर रहो। शान्त, प्रत्युत्पन्नमति और तत्पर-तुमने जिसे अपघात समझा है, वह शत्रुनाश की तैयारी है सोम।”
“परन्तु किस प्रकार?”
“वह समय पर देखना। अभी मुझे बहुत काम है, तुम थोड़ा सो लो; फिर हमें विकट साहस प्रदर्शन करना होगा। मैं जानती हूं, असुर अर्धरात्रि से पूर्व भोजन नहीं करते।”
“तो तुम मुझे बिलकुल निष्क्रिय रहने को कहती हो?”
“कहा तो मैंने भाई, शान्त रहो, तत्पर रहो और प्रत्युत्पन्नमति रहो। फिर निष्क्रिय कैसे?”
“पर मेरे शस्त्र?”
“वे छिन गए हैं तो क्या हुआ? बुद्धि तो है!”
“कदाचित् है।” सोम खिन्न होकर एक भैंसे की खाल पर चुपचाप पड़ रहा। थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई। बहुत देर बाद जब कुण्डनी ने उसे जगाया तो उसने देखा, कई असुर योद्धा गुफा के द्वार पर खड़े हैं। अनेकानेक के हाथ में मशाल हैं और बहुतों के हाथ में विविध वाद्य हैं। एक असुर जो प्रौढ़ था, वक्ष पर स्वर्ण का एक ढाल बांधे, लम्बा भाला लिए सबसे आगे था।
मशाल के प्रकाश में आज सोम कुण्डनी का यह त्रिभुवनमोहन रूप देखकर अवाक् रह गया। उसकी सघन-श्याम केशराशि मनोहर ढंग से चांदी-जैसे उज्ज्वल मस्तक पर सुशोभित थी। उसने मांग में मोती गूंथे थे। लम्बी चोटी नागिन के समान चरण-चुम्बन कर रही थी। बिल्व-स्तनों को रक्त कौशेय से बांधकर उस पर उसने नीलमणि की कंचुकी पहनी थी। कमर में लाल दुकूल और उस पर बड़े-बड़े पन्नों की कसी पेटी उसकी क्षीण कटि ही की नहीं, पीन नितम्बों और उरोजों के सौन्दर्य की भी अधिक वृद्धि कर रही थी। उसने पैरों में नूपुर पहने थे, जिनकी झंकार उसके प्रत्येक पाद-विक्षेप से हृदय को हिलाती थी।
सोम ने कहा—”कुण्डनी, क्या आज असुरों को मोहने साक्षात् मोहिनी अवतरित हुई है?”
“हुई तो है। इसमें तुम्हें क्या, असुरों का भाग्य! तो अब झटपट तैयार हो जाओ।” कुण्डनी ने मुस्कराकर कहा।
सोम ने झटपट वस्त्र बदले। कुण्डनी ने सामने पड़े एक व्याघ्र-चर्म को दिखाकर कहा, “इसे वक्ष में लपेट लो, काफी रक्षा करेगा।”
“किन्तु कुण्डनी, हम शस्त्रहीन शत्रु के निकट जा रहे हैं।”
“मैंने जिन तीन शस्त्रों की बात कही थी, उन्हें यत्न से रखना सोम, फिर कोई भय नहीं है।”
“अर्थात् शान्त, तत्पर और प्रत्युत्पन्नमति रहना?”
“बस यही!”
“तो कुण्डनी, तुम आज की मुहिम की सेनानायिका हो?”
“ऐसा ही हो सोम। अब चलें”
“कुण्डनी बाहर आई। उसने अधिकारपूर्ण स्वर में साफ मागधी भाषा में असुर सरदार को आज्ञा दी—”सैनिकों से कह, बाजा और मशाल लेकर आगे-आगे चलें।”
कुण्डनी के संकेत से कुण्डनी की आज्ञा सोम ने असुर सरदार को सुना दी।
उस रूप के तेज से तप्त असुर-सरदार ने विनयावनत हो कुण्डनी की आज्ञा का पालन किया। कुण्डनी ने फिर सोम के द्वारा उनसे कहलाया—”तुम सब हमारे पीछे-पीछे आओ।”
और वह छम से घुंघरू बजाती विद्युत्प्रभा की साक्षात् मूर्ति-सी उस मार्ग को प्रकाशित करती असुरपुरी के राजमार्ग पर आगे बढ़ी। पीछे सैकड़ों असुर-सरदार उत्सुक होकर साथ हो लिए। सोम ने धीरे-से कहा—”मायाविनी कुण्डनी, इस समय तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे तुम्हीं इस असुर-निकेतन की स्वामिनी हो।”
“और सम्पूर्ण असुरों के प्राणों की भी।” उसने कुटिल मुस्कान में हास्य किया।
29. असुर भोज : वैशाली की नगरवधू
दुर्ग के बीचोंबीच जो मैदान था, उसी में भोज की बड़ी भारी तैयारियां हुई थीं। बीचोंबीच एक बड़े भारी अग्निकुण्ड में महाचिता के समान आग जल रही थी और उस पर एक समूचा भैंसा भूना जा रहा था। बहुत-से असुर-बालक, बालिका, तरुणियां, वृद्धाएं और वृद्ध असुर शोर करते आग के इधर-उधर घूम रहे थे। ज्योंही कुण्डनी ने सोमप्रभ का हाथ पकड़कर रंगभूमि में प्रवेश किया, चारों ओर कोलाहल मच गया। मंच पर बीचोंबीच एक ऊंचे शिलाखण्ड पर व्याघ्रचर्म बिछा था। यह सम्भवतः शम्बर के लिए था। परन्तु कुण्डनी असीम साहस करके सोम का हाथ पकड़ उसी शिलाखंड पर जा बैठी। असुर सुन्दरियां और मन्त्रीगण घबरा गए। शम्बर क्या यह सहन कर सकेगा? असुर अपने राजा का बल और क्रोध जानते थे, पर कुण्डनी उसकी दुर्बलता जान गई थी।
उसने सोम से कहा—”असुरों से कहो सोम, सुरा-भाण्ड यहां ले आएं।”
सोम के कहने पर कई असुर तरुण सुरा-भाण्ड वहीं ले आए। इसी बीच ज़ोर से बाजे बजने लगे। असुरों ने भीत होकर देखा, शम्बर खूब ठाठ का शृंगार किए चला आ रहा है। उसने स्वर्ण का मुकुट धारण किया था। उसका सम्पूर्ण वक्ष नाभि-प्रदेश तक स्वर्ण से ढका था। कमर में नया चर्म लपेटे था और भुजदण्डों पर भी स्वर्ण-वलय पहने था। कण्ठ में बड़े-बड़े मोती और मूंगों की लड़ें पड़ी थीं। मुकुट के दोनों ओर स्वर्णमण्डित दो पशुओं के तीक्ष्ण सींग लगे हुए थे।
सोम ने कहा—”कुण्डनी, असुरराज का सिंहासन छोड़ दे।”
कुण्डनी ने सोम की बात पर ध्यान न दे, उसे एक वाक्य आसुरी भाषा में झटपट सीखकर, ज्योंही शम्बर सीढ़ी चढ़ रंगभूमि में प्रविष्ट हुआ, शिलाखण्ड पर खड़ी हो चिल्लाकर कहा—”महासामर्थ्यवान् शम्बर के स्वास्थ्य और दीर्घायु के नाम पर और उसने प्याले भर-भरकर असुरों को देने प्रारम्भ किए। तरुण और वृद्ध असुर इस अनिन्द्य सुन्दरी मानुषी बाला के हाथ से मद्य पी-पीकर उच्च स्वर में चिल्लाने लगे—”महासामर्थ्यवान् शम्बर के दीर्घ जीवन के नाम पर!”
क्षण-भर खड़े रहकर असुरराज ने यह दृश्य देखा और फिर वह मुस्कराकर अपना स्वर्णदण्ड ऊंचा उठाए आगे बढ़ा। उसने दोनों हाथ फैलाकर कहा—”मुझे भी दे मानुषी, एक भाण्ड मद्य। मुझे भी अपने हाथों से दे।”
कुण्डनी खट्-से शिलाखण्ड से कूद पड़ी। उसके हाथ में मद्य-भरा पात्र था। उसने नृत्य करके, नेत्रों से लीला-विस्तार करते और भांति-भांति की भावभंगी दिखाते हुए शम्बर के चारों ओर घूम-घूमकर नृत्य करना प्रारम्भ किया। उसका वह मद-भरा यौवन, वह उज्ज्वल-मोहक रूप, उसकी वह अद्भुत भावभंगी, इन सबको देख शम्बर काम-विमोहित हो गया। उसने कहा—”दे मानुषी, मुझे भी एक भाण्ड दे।”
पर कुण्डनी ने और भी विलास प्रकट किया। वह मद्य-भाण्ड को शम्बर के ओठों तक ले गई और फिर बिजली की तरह तड़पकर वह भाण्ड बूढ़े असुर सचिव के मुंह से लगा दिया। बूढ़ा असुर चपचप करके सब मद्य पी गया और ही-ही करके हंसने लगा। कुण्डनी का संकेत पाकर सोम ने दूसरा भाण्ड कुण्डनी के हाथ में दिया। शम्बर उसके लिए विह्वल हो जीभ चटकारता हुआ आगे बढ़ा। पर कुण्डनी ने फिर वही कौशल किया और भाण्ड एक तरुण असुर के ओठों से लगा दिया। सब असुर कुण्डनी को घेरकर नाचने लगे। शम्बर अत्यन्त विमोहित हो उसके चारों ओर नाचने और बार-बार मद्य मांगने लगा। कुण्डनी ने इस बार एक पूरा घड़ा मद्य का हाथ में उठा लिया। उसे कभी सिर और कभी कन्धे तथा कभी वक्ष पर लगाकर उसने ऐसा अद्भुत नृत्य-कौशल दिखाया कि असुरमण्डल उन्मत्त हो गया। फिर उसने सोम के कान में कहा—”इन मूर्खों से चिल्लाकर कहो—खूब मद्य पियो मित्रो, स्वयं ढालकर सामर्थ्यवान् शम्बर के नाम पर!”
सोम के यह कहते ही—सामर्थ्यवान् शम्बर के नाम पर यही शब्द उच्चारण करके सारे असुरदल ने सुरा-भाण्डों में मुंह लगा दिया। कोई चषक में ढालकर और कोई भाण्ड ही में मुंह लगाकर गटागट मद्य पीने लगे। कुण्डनी ने हंसते-हंसते सुरा-भाण्ड शम्बर के मुंह से लगा दिया। उसे दोनों हाथों से पकड़कर शम्बर गटा-गट पूरा घड़ा मद्य कण्ठ से उतार गया।
कुण्डनी ने संतोष की दृष्टि से सोम की ओर देखकर कहा—”अब ठीक हुआ। पिलाओ इन मूर्खों को। आज ये सब मरेंगे सोम।”
“तुम अद्भुत हो कुण्डनी!”—सोम ने कहा और वह असुरों को मद्य पीने को उत्साहित करने लगा।
मद्य असुरों के मस्तिष्क में जाकर अपना प्रभाव दिखाने लगा। वे खूब हंसने और आपस में हंसी-दिल्लगी करने लगे। स्त्रियों और बालकों ने खूब मद्य पिया। बहुत-से तो वहीं लोट गए, पर सोमप्रभ उन्हें और भी मद्य पीने को उत्साहित कर रहे थे। बुद्धिहीन मूर्ख अन्धाधुन्ध पी रहे थे। शम्बर का हाल बहुत बुरा था। वह सीधा खड़ा नहीं रह सकता था, पर कुण्डनी उसे नचा रही थी। वह हंसता था, नाचता था और असुरी भाषा में न जाने क्या-क्या अण्ड-बण्ड बक रहा था। सिर्फ बीच में मानुषी-मानुषी शब्द ही वह समझ पाती थी। अवसर पाकर उसने सोम से कहा—”क्या कह रहा है यह असुर?”
“प्रणय निवेदन कर रहा है कुण्डनी, तुझे अपनी असुर राजमहिषी बनाना चाहता है।”
कुण्डनी ने हंसकर कहा—”कुछ-कुछ समझ रही हूं सोम। यह असुरराज मेरे सुपुर्द रहा। उन सब असुरों को तुम आकण्ठ पिला दो। एक भी सावधान रहने न पावे। भाण्डों में एक बूंद मद्य न रहे।”
“उन असुरों से निश्चिन्त रह कुण्डनी, वे तेरे हास्य से ही अधमरे हो गए हैं।”
“मरें वे सब।” कुण्डनी ने हंसकर कहा।
शम्बर ने कुण्डनी की कमर में हाथ डालकर कहा—”मानुषी मेरे और निकट आ।”
कुण्डनी ने कहा—”अभागे असुर, तू मृत्यु को आलिंगन करने जा रहा है।”
शम्बर ने सोम से कहा—”वह क्या कहती है रे मानुष?”
सोम ने कहा—”वह कहती है, आज आनन्दोत्सव में सब योद्धाओं को महाशक्तिशाली शम्बर के नाम छककर मद्य पीने की आज्ञा होनी चाहिए।
“पिएं वे सब! शम्बर ने हंसते-हंसते कहा और कुण्डनी ने और एक घड़ा शम्बर के मुंह से लगा दिया। उसे पीने पर शम्बर के पांव डगमगाने लगे।”
कुछ असुरों ने आकर कहा—”भोज, भोज, अब भोज होगा।”
शम्बर ने यथासंभव संयत होकर हिचकियां लेते हुए कहा—”मेरी इस मानुषी हिकू–सुन्दरी के सम्मान में सब कोई खूब खाओ, पियो, हिक्-अनुमति देता हूं—हिक्—खूब खाओ, पियो। मुझे सहारा दे,—मानुषी हिक्—और मागध मानव, तू भी स्वच्छन्द खा-पी—हिक्।” फिर वह कुण्डनी पर झुक गया।
सोम से असुर का अभिप्राय समझकर कुण्डनी ने असुर को उसी शिलाखण्ड पर बैठाया। उसकी एक बगल में आप बैठी और दूसरी बगल में सोम को बैठने का संकेत किया। समूचा भैंसा, जो आग पर भूना जा रहा था, खण्ड-खण्ड किया गया। सबसे प्रथम उसका सिर एक बड़े थाल में लेकर पचास-साठ तरुणियों ने शम्बर के चारों ओर घूम-घूमकर नृत्य करना और चिल्ला-चिल्लाकर गाना आरम्भ कर दिया। भैंसे के सिर का वह थाल एक-से दूसरी के हाथों हस्तान्तरित होता—जिसके हाथ में वह थाल जाता, वह तरुणी गीत की नई कड़ी गाती, फिर उसे सब दुहारकर चारों ओर घूम-घूमकर नृत्य करतीं। अन्ततः एक सुसज्जित तरुणी असुर सुन्दरी ने घुटनों के बल बैठकर वह थाल शम्बर को अर्पण कर दिया।
शम्बर ने छुरा उठाया, भैंसे की जीभ काट ली और उसे स्वर्ण के एक पात्र में रख खड़े होकर उसे कुण्डनी को पेश करके कुछ कहा। कुण्डनी ने सोम से पूछा—”क्या कह रहा है यह?”
“तेरा सर्वाधिक सम्मान कर रहा है। जीभ का निवेदन सम्मान का चिह्न है।”
“तो उसे मेरी ओर से धन्यवाद दे दो सोम।”
सोम ने आसुरी भाषा में पुकारकर कहा—”महान् शम्बर को मागध सुन्दरी अपना हार्दिक धन्यवाद निवेदन करती है। पियो मित्रो, इस मागध सुन्दरी के नाम पर एक पात्र।”
“मागध सुन्दरी, मागध सुन्दरी,” कहकर शम्बर एक बड़ा मद्यपात्र लेकर नाचने लगा। अन्य असुर भी पात्र भरकर नाचने लगे।
असुरों की हालत अब बहुत खराब हो रही थी। उनके नाक तक शराब ठुंस गई थी और उनमें से किसी के पैर सीधे न पड़ते थे। अब उन्होंने भैंसे का मांस हबर-हबर करके खाना प्रारम्भ किया। कुण्डनी ने कहा, “भाण्डों में अभी सुरा बहुत है सोम, यह सब इन नीच असुरों की उदरदारी में उंड़ेल दो।” सोम ने फिर सुरा ढालकर असुरों को देना प्रारम्भ किया और कुण्डनी शम्बर को पिलाने लगी।
शम्बर ने हकलाकर कहा—”मानुषी, अब-तू-नाच।”
उसका अभिप्राय समझकर कुण्डनी ने संकेत से सोम से कहा कि अब समय है, अपना मतलब साधो।”
सोम ने कहा—”महान् शम्बर ने मागध बिम्बसार की मैत्री स्वीकार कर ली है। क्या इसके लिए सब कोई एक-एक पात्र न पिएंगे?”
“क्यों नहीं। किन्तु सेनिय बिम्बसार क्या ऐसी सौ तरुणी देगा?”
“अवश्य, परन्तु असुर उन्हें भोग-छू नहीं सकेंगे। वे सब विद्युत्प्रभ हैं?”
इसी समय कुण्डनी ने मोहक भावभंगी से नृत्य आरम्भ कर दिया। वह प्रत्येक असुर के निकट जाकर लीला-विलास करने लगी। मदिरा से उन्मत्त असुरों के मस्तिष्क उसका रूप-यौवन, लीला-विलास और भाव-भंगी, देखकर बेकाबू हो गए। सब कोई कुण्डनी को पकड़ने को लपकने लगे। किसी में संयत भाव नहीं रह गया।
30. मृत्यु-चुम्बन : वैशाली की नगरवधू
यह सब देख कुण्डनी के संकेत को पाकर सोमप्रभ ने पुकारकर कहा—”सब कोई सुने! यह मगध सुन्दरी है, जिसे असुर नहीं भोग सकते। जो कोई इसका चुम्बन आलिंगन करेगा, वही तत्काल मृत्यु को प्राप्त होगा।”
असुरों में अब सोचने-विचारने की सामर्थ्य नहीं रही थी। ‘चुम्बन करो, चुम्बन करो’, सब चिल्लाने लगे।
शम्बर ने हाथ का मद्यपात्र फेंककर हकलाते हुए कहा—”सब कोई इस मानुषी का—चुम्बन करो।”
सोम ने क्रुद्ध होकर कुण्डनी की ओर देखा। फिर उसका अभिप्राय जान सोम ने कहा—”जो कोई चुम्बन करेगा, वही मृत्यु को प्राप्त होगा। महान् शम्बर इसको न भूल जाएं।”
“शम्बर सब जानता है। उसने बहुत देव, दैत्य, गन्धर्व और मानुषियों का हरण किया है, कहीं भी तो ऐसा नहीं हुआ। दे, सौ ऐसी तरुणियां दे रे मानुष, यदि मेरी मैत्री चाहता है।” शम्बर ने मद से लाल-लाल आंखों से सोम को घूरकर कहा।
कुण्डनी नृत्य कर रही थी। जब बहुत-से असुर तरुण हंसते हुए उसका चुम्बन करने को आगे बढ़े, तो कुण्डनी ने एक छोटी-सी थैली वस्त्र से निकालकर उसमें से महानाग को निकाला और कण्ठ में पहन लिया। यह देख सभी तरुण असुर भयभीत होकर पीछे हट गए। कुण्डनी ने उस नाग का फन पकड़कर उसके नेत्रों से नेत्र मिला नृत्य जारी रखा। कभी वह शम्बर के पास जाकर ऐसा भाव दिखाती, मानो चुम्बनदान की प्रार्थना कर रही हो, कभी सोम के निकट जा अपना अभिप्राय समझाती। कभी असुरों के निकट जा लीला-विलास से उन्हें उम्मत्त करती।
शम्बर ने कहा—”वह उस सर्प से क्या कर रही है रे मनुष्य?”
सोम ने कुण्डनी से संकेत पाकर कहा—”मैंने कहा था कि यह मागधी नाग-पत्नी है, अब सर्वप्रथम नाग चुम्बन करेगा, पीछे जिसे मृत्यु की कामना हो, वह चुम्बन करे।”
“तो नाग-चुम्बन होने दे!”
“तो महान् शम्बर इस मानुषी के नागपति के नाम पर एक-एक पात्र मद्य पीने की आज्ञा दें।”
शम्बर ने उच्च स्वर से सबको आज्ञा दी। फिर असुरों ने मद्य के बड़े-बड़े पात्र मुंह से लगा लिए।
इसी समय कुण्डनी ने नाग से दंश लिया। उस दंश को देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। कुण्डनी ने नाग को थैली में रख अपने वस्त्रों में छिपा लिया। उसके मस्तक पर स्वेदबिन्दु झलक आए और वह विष के वेग से लहराने लगी। उस समय उसके नृत्य ने अलौकिक छटा प्रदर्शित की। ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह हवा में तैर रही हो। उसके नेत्र और अधरोष्ठ मानो मद-निमन्त्रण-सा देने लगे।
शम्बर ने असंयत होकर चिल्लाकर कहा—”चुम्बन करो इस मागध मानुषी का।”
सोम ने चिल्लाकर कहा—”जो कोई चुम्बन करेगा, उसकी मृत्यु होगी। महान् शम्बर इसके ज़िम्मेदार हैं।”
“चुम्बन करो! चुम्बन करो!” शम्बर ने पुकारकर कहा। उसमें अब सोचने-विचारने की कुछ भी शक्ति न थी। एक तरुण ने हठात् कुण्डनी को अपने आलिंगन में कसकर अधरों पर चुम्बन लिया। वह तुरन्त बिजली के मारे हुए प्राणी की भांति निष्प्राण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सोम यह चमत्कार देख भय से पीला पड़ गया। कुण्डनी ने उधर भ्रूपात नहीं किया। उसने दूसरे तरुण की ओर मुस्कराकर देखा। उसने भी आगे बढ़कर कुण्डनी को कसकर बाहुपाश में बांधकर चुम्बन लिया और उसकी भी यही दशा हुई। अब तो उन्मत्त की भांति असुरगण कुण्डनी का चुम्बन ले-लेकर और निष्प्राण हो-होकर भूमि पर गिरने लगे। एक अलौकिक-अतर्कित मोह के वशीभूत होकर असर एक के बाद एक होती हुई मृत्यु की परवाह न कर उस असाधारण उन्मादिनी के आलिंगन-पाश में आकर और उसका अधर चूम-चूमकर ढेर होने लगे। शम्बर बार-बार मद्य पी रहा था। असुरों के इस प्रकार आश्चर्यजनक रीति से मरने पर उसको विश्वास नहीं होता था। प्रत्येक असुर के चुम्बन के बाद निष्प्राण होकर गिरने पर कुण्डनी ऐसे मोहक हास्य से शम्बर की ओर देखती कि वह समझ ही नहीं पाया कि वास्तव में उसके तरुण मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं या विमोहित-मूर्छित हो रहे हैं। सोमप्रभ बराबर मद्य के पात्र पर पात्र शम्बर के कण्ठ से उतार रहा था। अब कुण्डनी ने एक-एक तरुण के निकट जाकर चुम्बन-निवेदन करना प्रारम्भ किया। कुछ असुर भयभीत हो गए थे, पर उस मोहिनीमूर्ति के चुम्बन-निवेदन को अस्वीकार करने की सामर्थ्य मूर्ख, मद्य-विमोहित असुरों में न थी। वे चुम्बन ले-लेकर प्राण गंवाते गए। देखते-देखते मृतक असुर तरुणों के ढेर लग गए। कुण्डनी अब वृद्ध मन्त्रियों की ओर झुकी परन्तु वे भयभीत होकर झिझककर पीछे हट गए। कुण्डनी ने उन्हें हठात् अपने आलिंगन-पाश में बांधकर उनके होंठों पर अपना चुम्बन अंकित कर दिया और वे निष्प्राण होकर जहां के तहां ढेर हो गए। सोम ने घबराकर, उसके निकट आकर कहा—”तो कुण्डनी, तुम विषकन्या हो?”
कुण्डनी ने नृत्य करते हुए कहा—”सावधान रहो! संकट-काल निकट है, देखो उसके तेवर।”
शम्बर अब सावधान हुआ और क्रुद्ध नेत्रों से कुण्डनी को ताकने लगा। कुण्डनी ने यह देखकर मुस्कराकर बंकिम कटाक्षपात कर एक परिपूर्ण मद्य-पात्र उसके होंठों से लगा दिया। परन्तु उसने कुण्डनी को एक ओर धकेल कर मद्यपात्र फेंक दिया। उसने फिर गुर्राकर कहा—”क्या तूने मेरे तरुणों का हनन किया?”
सोम ने शम्बर की बात उसे समझा दी। कुण्डनी ने संकेत से कहा कि वह शम्बर के पार्श्व में ही रहे और उसके सिंहासन के बगल में जो बर्छे और शूल लगे हैं, आवश्यकता पड़ने पर उनसे काम ले। पर इसमें वह जल्दी न करे, संयम और धैर्य से अन्तिम क्षण तक कुण्डनी का कौशल देखे।
सोम ने शम्बर को क्रुद्ध होते देख कहा—”महाशक्तिशाली शम्बर से कह दिया गया था कि यह तरुणी नागपत्नी है और मागधी मानुषी असुरों के भोग की नहीं। असुर अपने ही दोष से मरे हैं और महान् शम्बर ने उन्हें चुम्बन की आज्ञा दी थी।”
“परन्तु यह मानुषी अति भीषण है।” कहकर उसने सिंहासन से खड़े होने की चेष्टा की परन्तु लड़खड़ाकर गिर गया। सोम ने कहा—”मागध मानुष इससे भी अधिक भीषण हैं, यदि उन्हें शत्रु बना दिया जाए। क्या महान् शम्बर को मागध बिम्बसार की मित्रता स्वीकार है?”
शम्बर ने बड़बड़ाते हुए कहा—”मागध मानुषी अति भीषण होती है।” उसने कुण्डनी की ओर प्यासी चितवन से देखा। कुण्डनी ने मद्य का एक बड़ा पात्र लाकर उसके होंठों से लगा दिया। शम्बर उसे पीकर ओठ चाटता हुआ फिर सिंहासन से उठने लगा। इस बीच में बचे हुए असुर तरुण कुण्डनी से भयभीत हो-होकर भागने लगे थे। बहुत-से विवश मदमस्त पड़े थे। मृत असुरों के ढेर जहां-तहां पड़े थे। उनके कज्जलसमान निश्चल शरीर उस अग्नि के प्रकाश में भयानक दीख रहे थे। शम्बर के मन में भय समा गया। पर वह कुण्डनी की ओर वैसी ही प्यासी चितवन से देखने लगा। हठात् कुण्डनी ने फिर आकर एक मद्यभाण्ड उसके होंठों से लगा दिया। उसे भी गटागट पीकर शम्बर ने खींचकर कुण्डनी को हृदय से लगा, उन्मत्त भाव से हकलाकर कहा—”दे, मृत्यु-चुम्बन-मानुषी, तेरे-स्वर्ण अधरों को एक बार चूमकर मरने में भी सुख है।”
पर कुण्डनी ने यत्न से अपने को शम्बर के बाहुपाश से निकालकर फुर्ती से एक लीला-विलास किया और फिर दूसरा मद्यपात्र उसके होंठों से लगाया। फिर उसने सोम से संकेत किया। मद्य पीकर शम्बर शिलाखण्ड पर बदहवास पड़ गया। वह कुण्डनी को बरबस खींचकर अस्त-व्यस्त आसुरी भाषा में कहने लगा, “द-द-दे मानुषी, एक चुम्बन दे! और मगध-बिम्बसार के लिए मेरी मैत्री-ले। दे, चुम्बन दे!”
कुण्डनी ने गूढ़ मार्मिक दृष्टि से सोम की ओर देखा। वह सोच रही थी कि असुर को मारा जाय या नहीं। परन्तु सोम ने लपककर कुण्डनी को असुर शम्बर के बाहुपाश से खींचकर दूर कर दिया और हांफते-हांफते कहा—”नहीं-नहीं, असुर को मारा नहीं जायगा। बहुत हुआ।” फिर उसने शम्बर के कान के पास मुंह ले जाकर कहा—”महान् शम्बर चिरंजीव रहें। यह मागध बिम्बसार का मित्र है। उसे मृत्यु-चुम्बन नहीं लेना चाहिए।
शम्बर ने कुछ होंठ हिलाए और आंखें खोलने की चेष्टा की, परन्तु वह तुरन्त ही काष्ठ के कुन्दे की भांति निश्चेष्ट होकर गिर गया। उस समय बहुत कम असुर वहां थे, जो भयभीत होकर भाग रहे थे। कुण्डनी को एक ओर ले जाकर सोम ने कहा—”उसे छोड़ दे कुण्डनी।”
कुण्डनी अपनी विषज्वाला में लहरा रही थी। उसने कहा—”मूर्खता मत करो सोम, मरे वह असुर।”
“ऐसा नहीं हो सकता।” उसने इधर-उधर देखा। इसी समय अन्धकार से वह तरुण असुर नेत्रों में भय भरे बाहर आया, जिससे सर्वप्रथम परिचय हुआ था और जिसके प्राण सोम ने बचाए थे। उसने पृथ्वी पर प्रणिपात करके कहा—”भागो, वह शक्ति उठा लो, मैं चम्पा का मार्ग जानता हूं।”
सोम ने शक्ति हाथ में ले ली। कुण्डनी ने वेणी से विषाक्त कटार निकालकर हाथ में ले ली। उसने कहा—”इसकी एक खरोंच ही काफी है। इससे मृत पुरुष को उसके घाव को छूने ही से औरों की मृत्यु हो जाएगी। यह हलाहल में बुझी है।”
तीनों लपककर एक ओर अन्धकार में अदृश्य हो गए। जो असुर दूसरी ओर शोर कर रहे थे, वे शायद उन्मत्त और हतज्ञान हो रहे थे। सोम ने देखा, नगरद्वार पर चार तरुण असुर पहरा दे रहे हैं।
कुण्डनी ने हंसकर उनसे कहा—”अरे मूर्खों, तुमने मेरा चुम्बन नहीं लिया! एक को उसने आलिंगनपाश में बांध चुम्बन दिया। अधर छूते ही वह मृत होकर गिरा। दूसरे ने हुंकृति कर कुण्डनी पर आक्रमण किया। उसकी पीठ में सोम ने शक्ति पार कर दी। शेष दो में एक ने कुण्डनी की कटार का स्पर्श पाकर, दूसरे ने सोम की शक्ति खाकर प्राण त्यागे। सोम ने अपने अश्व पर सवार हो तारों की छांह में उसी समय असुरपुरी को त्यागा। असुर तरुण भी उनके साथ ही भाग गया।